*धर्म, धर्मकर्म, धार्मिक क्रियाएंँ, आत्म साधन, मन्त्र साधना, तन्त्र और अध्यात्म में अन्तर और परम्पर सम्बन्ध।*
धर्म प्रथम पुरुषार्थ है और मौक्ष अन्तिम पुरुषार्थ है। मौक्ष का साधन रूप अभिन्न हिस्सा धर्म पालन में दृढ़ता ही है।
धर्म का अर्थ — धर्म स्वयमेव साधना है। धर्म पालनार्थ दृढ़ निश्चय के साथ अविचल बुद्धि रखते हुए मनःस्थिति इस प्रकार की रखना आवश्यक है।
१अहिन्सा - क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ),दया, सबको आत्मवत मानकर प्रेम करना, शान्ति, अक्रोध (क्रोध का अभाव );
सबको आत्मवत मान समझकर सबको अपने ही समान प्रेम करना, सबके प्रति स्नेह होना, अपने मन, वचन, कर्म, आचरण और व्यव्हार से अपने कारण तथा अपने द्वारा किसीको कष्ट न हो, कोई हानि न हो यह पुर्ण सावधानी रखना,कटुता, और परपिड़न का पुर्ण अभाव होना अहिन्सा है।
२ सत्य - (सद्विचार, सदा सत्य वचन बोलना, सद्व्यवहार, सदाचरण करना, मौन रहनें का स्वभाव और परमात्मा के जिस नियम के द्वारा सृष्टि सृजन, प्रेरण, नियमन, पालन और प्रलय होता है उस नियम यानि ऋत के अनुकूल होकर; यथार्थ, सत्य वचन बोलना- लिखना, प्रकट करना,सत्य भाषण करना, सत्य वक्ता होना, सदाचारी होना, सद्विचार रखना, सद्व्यव्हार ही करना यह सत्य नामक यम है।
३ अस्तेय - (चोरी न करना पराई वस्तु के प्रति आकर्षण नही होना, परायी किसी भी सम्पत्ति तथा परस्त्री का आकर्षण न होना,लोभ न होना अर्थात अलोभ, निर्लोभता,चोरी न करना अस्तैय नामक यम कहलाता है
४ ब्रह्मचर्य - ब्रह्म की और चलनें की प्रवृत्ति, समत्व, आर्जव (सरलता/ सीधापन) के भावों से सदा ओतप्रोत रहना।
ब्रह्म की ओर चलना, ब्रह्म का मतलब ज्ञान भी होता है, मतलब ज्ञानि होने की ओर अग्रसर होना, वीर्य रक्षण, धृतिवर्धन, परस्त्री को मातृवत समझना होना, स्वपत्नी से भी केवल ऋतुकाल में ही सन्तानोत्पत्ति के निमित्त ही मैथुन करना, निर्वयसनी रहना ब्रह्मश्चर्य नामक यम कहलाता है।
(उक्त प्रकार की मनोवृत्ति होना ही दैवी सम्पदा/ दैवी प्रकृति है।)
४ अपरिग्रह - दान, त्याग भाव;
सम्पुर्ण सम्पत्ति केवल परमात्मा की ही है यह जान समझकर अपने आधिपत्य की सम्पत्ति पर केवल अपना ही सत्व न मान कर अपने उपभोग के लिये केवल जीवन यापन हेतु अत्यावश्यक चीजें ही उपयोग में लेना, स्वयम् को केवल ट्रस्टी समझकर अपने स्वामित्व और आधिपत्य की सम्पत्ति का व्यवस्थापन करना, यह अपरिग्रह नामक यम कहलाता है।
तथा
६ शोच - (स्वच्छता), पवित्रता ( वाह्याभ्यान्तर शुद्धि, पवित्र भाव ),
तन, मन,वचन,और कर्मों से पुर्ण स्वच्छ, पवित्र होना, स्वास्य्यवर्धक कर्म करना, प्राण की धारणा शक्ति धृति बढ़ाते रहना करना, धैर्य धारण करना यह शोच नामक नियम कहलाता है।
७ सन्तोष - (ईश्वर प्रदत्त भोगों में सन्तुष्टी का भाव) लेकिन साथ ही अपने सद्कर्मों में लगातार सुधार और गुणवत्ता लानें हेतु तत्परता;
ईश्वर के दिये और दुसरों के किये से पुर्ण सन्तुष्ट रहना तथा अपने किये को कमतर मान कर निरन्तर सुधार लाना, दुसरों की त्रुटी नजर अन्दाज करना, परदोष दर्शन न करना यह सन्तोष नामक नियम कहलाता है।
८ तप - तितिक्षा (धर्म पालनार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलता में समत्व,बिना कष्ट अनुभव किये प्रतिकूलताएँ सहना), इन्द्रिय निग्रह (मन और दशेन्द्रियों को वश में रखना यानी इन्द्रियों पर ऐसा नियन्त्रण कि, वे आपके निर्देश के बिना विषयों की ओर प्रवृत्त न हो।) अर्थात, शम (इन्द्रिय शमन करना/ शान्त करना), दम (दबाना, इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर स्वैच्छया जाने से रोकना, संयम धारण करना), धृति (धैर्य धारण करना/ दृढ़ता, जिस धारण शक्ति से प्राण देह को धारण करता है उस धारण शक्ति अर्थात धृति को आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार द्वारा बढ़ाना, धैर्य धारण करना ),
जीव- निर्जीव भूतमात्र की सेवा, इज्या (पञ्चमहायज्ञ सेवन);
अपने कर्त्तव्य पालन में सत्यनिष्ठा पुर्वक जुटे रहनें में किसी प्रकार का कष्ट न मानना, निरन्तर ईश्वर के प्रति पुर्ण प्रेमभाव पुर्वक ईश्वर को ध्यान में रखकर रखते हुए अविरत जगत सेवा में तत्पर रहते हुए जुटे रहना, स्वदेश, अपने राष्ट्र के प्रति पुर्ण निष्ठा, समर्पण, सेवा भाव, राष्ट्रहित में सर्वस्व त्याग भाव, आक्रान्ताओं का समूल नाश करनें हेतु तत्परता यह तप नामक नियम कहलाता है।
(सुचना - पञ्चमहायज्ञ प्रकरण में इज्या पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।)
९ स्वाध्याय (अध्ययन, चिन्तन, मनन, जप, भजन, किर्तन), आत्म विमर्श (मन के अच्छे-बुरे विचारों का मनन करना या निरीक्षण करना।), धी (सद्बुद्धि या प्रज्ञावान होना,स्थित्प्रज्ञ होना), विद्या (यथार्थ ज्ञान होना , बत्तीस विद्याओं और चौसठ कलाओं के साथ परमात्म भाव में सदा स्थित रहना);
सत्साहित्य अध्ययन ,चिन्तन, मनन, गुरुमन्त्र का जप करना स्वाध्याय नामक नियम कहलाता है।
(सुचना - पञ्चमहायज्ञ प्रकरण में ब्रह्मयज्ञ में स्वाध्याय पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।)
१० *ईश्वर प्रणिधान* - ईश्वर के प्रति अनन्य भाव से समर्पण होना आदि नियमों के पालन में दृढ़ता होना।
ईश्वर भक्ति, भजन, जप करना, ईश्वर के प्रति पुर्ण समर्पण / पुर्ण समर्पित होना ईश्वर प्रणिधान नामक नियम कहलाता है।
उक्त सत्कर्म तो धर्म है।इनके विपरीत आचरण अधर्म है।
जिसका जीवन उक्त प्रकार से संयमित नियमित हो, वह व्यक्ति धार्मिक कहलाता है। उसका जीवन धार्मिक जीवन है।
*अधर्म लक्षण उक्त धर्म लक्षण के ठीक विपरीत होते हैं।*
1 हिन्सा, मान्साहार, दुसरों को पीढ़ा देना,
2 मिथ्याभाषी, दुराचारी,
3 चोर, लोभी,
4 परस्त्रीगामी, वासनामय, दुर्वयसनी,
5 अनावश्यक संग्रह रखकर नकली अभाव पैदा कर लाभ लेनेवाला,
6 गन्दा शरीर, गन्दा सोच, अश्लील विचार वाला,
7 ईश्वर के दिये और दुसरों के उपकार से असन्तुष्ट,
8 आत्म प्रशंसक,प्रवञ्चक, सेवा करने में कष्ट मानने वाला,
9 सत्साहित्य अध्ययन, चिन्तन मनन न करने वाला बल्कि हिन्सक, अश्लील साहित्य में रुचि लेने वाला, दुराचार, हिन्सा,चोरी,डकेती, लूट, बलात्कार करने का चिन्तन करने वाला,
10 सम्पुर्ण जगत में सर्वव्यापी, सर्वव्यापक, सर्वकालिक, परमात्मा के प्रति निस्वार्थ, निष्काम प्रेम और भक्तिभाव न रखते हुए किसी स्थान विशेष पर रहने वाले, एकदेशीय, किसी समय विशेष में ही विद्यमान किसी व्यक्ति के माध्यम से स्वयम् की सेवा, पुजा, भजन, भक्ति करने का उपदेश देनेवाले किसी व्यक्ति/ जीव या वस्तु या स्थान या समय को को ईश्वर, सृष्टि रचियता, प्रेरक, रक्षक, सृष्टि पालक, सृष्टि संहारक, मानकर उससे भयभीत रहने वाला, डरने वाला व्यक्ति अधर्मी कहलाता है। और ऐसे सिद्धान्तों पर चलनेवाले मत , पन्थ या सम्प्रदाय अधार्मिक कहलाते हैं।
दो पेरों पर चलने वाला अधर्मी तो मानव कहलाने योग्य ही नही होता तो उसमें मानवता खोजना बड़े बड़े सन्तों की विशेषता हो सकती है सामान्य मानव की नही।
*जो धार्मिक नही हो पाया उसका अध्यात्म में प्रवेष सम्भव ही नही है।*
*धर्म की व्याख्या -*
*सृष्टि हितेशी, प्रकृति के अनुकूल स्वाभाविक कर्त्तव्य पालन के वृत और नियम पालन करना ही धर्म है। इसके कुछ यम और कुछ नियम और कुछ संयम होते है।
योग शास्त्र में भी पाँच यम और पाँच नियम बतलाये हैं। मनुस्मृति में भी धर्म के दशलक्षण बतलाये हैं।*
*याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के नौ लक्षण बतलाए गए हैं। राम के आदर्श चरित्र द्वारा वाल्मीकि रामायण में और महाभारत में विदुर नीति के अन्तर्गत ये धर्म धर्म के आठ अंग बतालाए हैं ।*
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड १९/ ३५७-३५८ में धर्म का सार कहा गया है -
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।)
मनुस्मृति 06/92के अनुसार धर्म के दश लक्षण बतलाए गए हैं --
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )। यही धर्म के दस लक्षण है।
याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२ में धर्म के नौ लक्षण बतलाए हैं --
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।। (याज्ञवल्क्य स्मृति
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध, अध्याय ११ के श्लोक ०८ से १२ में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।।
महाभारत में विदुर नीति के अन्तर्गत धर्म के आठ अंग बतालाए हैं।
इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।
पद्म पुराण के अनुसार धर्म लक्षण --
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)
*आधुनिक भाषाओं में नैतिकता के मूलभूत सिद्धान्त कहलाते हैं उनमें से मुख्य और सर्वमान्य सिद्धान्त ये हैं।—*
*नास्तिक और अनिश्वर वादी -*
सनातन वैदिक धर्मी वेदों को परम प्रमाण मानते हैं। ईश्वरवादी हो या अनिश्वर वादी हो लेकिन, वेदों को न माननें वाला, वेदों को परम प्रमाण न मानने वाला उनकी दृष्टि में नास्तिक है।
अर्थात *किसी भी मतावलम्बी की दृष्टि में नास्तिक वह है जो उस मत, पन्थ, सम्प्रदाय में परम प्रमाण के रूप में मान्य धर्म ग्रन्थ को न मानता हो या उस धर्मग्रन्थ को परम प्रमाण न मानता हो। आस्तिक अनिश्वर वादी भी हो सकता है जैसे सांख्य दर्शन या वैशेषिक दर्शन को मानने वाले और नास्तिक ईश्वरवादी भी हो सकता है । नास्तिक ईश्वर निरपेक्ष भी हो सकता है जैसे बौद्ध मतावलम्बी। और नास्तिक अनिश्वर वादी भी हो सकता है जैसे जैन मतावलम्बी।*
नास्तिकता भिन्न तथ्य है। *नास्तिकता के निम्न प्रकार हैं —*
*1 किसी विशेष सिद्धान्त को न मानने वाला,*
*2 किसी ग्रन्थ के प्रति आस्था न रखने वाला,*
*3 किसी देव विशेष के प्रति आस्था न रखनेवाला,*
*4 ईश्वर को सृजक, प्रेरक, रक्षक, नियामक और लय करनेवाला (प्रलय करने वाला) न मानने वाला।*
ऐसे कई प्रकार के नास्तिक कहलाते हैं।
*अनीश्वर वादी -*
जबकि, *अनीश्वर वादी केवल वह है जो किसी सृजक, प्रेरक, रक्षक, नियामक और लय करनेवाला (प्रलय करने वाला) न मानने वाले निमित्त कारण में विश्वास नही रखता हो।*
*काफिर और मुशरिक -*
इस्लाम के अनुसार केवल अल्लाह को ही ईश्वर मानना पर्याप्त नही है, इसके साथ मोह मद को अल्लाह द्वारा प्रेषित पेगम्बर मानना भी आवश्यक है। तथा अल्लाह और पेगम्बर मोहमद के समकक्ष किसी को मानना भी प्रतिबन्धित है। ऐसे लोग मुशरिक माने गये हैं।
यहूदी और ईसाई सम्प्रदायों के मत में दो या दो से अधिक ईश्वरों की मान्यता होती है। जैसे परमपिता परमेश्वर और पवित्रआत्मा परमेश्वर आदि।
इस्लाम की दृष्टि से ये मुशरिक हैं।
क्योंकि, इस्लाम के अनुसार उनके ईष्ट अल्लाह के साथ उसके समकक्ष किसी और देवता को मानना भी मुस्लिमों को अस्वीकार्य होती है।
*धार्मिकता और आस्तिकता/ नास्तिकता। -*
किन्तु नास्तिकता और अनेक ईष्टदेवों का धार्मिकता और अधार्मिकता से कोई सम्बन्ध या प्रतिवाद नही है।
धार्मिकता का सम्बन्ध केवल नैतिकता से है। इष्टदेवों या पुस्तकों के प्रति आस्था अनास्था से नही होता।
*सन्त कौन? -*
*देवीप्रकृति वाले व्यक्ति एवम् आसुरीप्रकृति वाले व्यक्तियों में समभाव रखना, देवता और असुर में समभाव रखना, हिन्सक और अहिन्सक में समभाव रखने वाला सन्त कहलाता है।*
*धर्म रहित मानव भी दानव जैसा ही है।* मत, पन्थ , सम्प्रदाय केवल नीजी सन्तोष के लिए होते हैंं,। मत, पन्थ सम्प्रदाय धर्म आधारित ही हो यह अनिवार्य नही है कई मत, पन्थ सम्प्रदाय धर्म विरुद्घ या धर्म विरोधी, अनैतिकता के सिद्धान्त पर आधारित भी हुवे हैं। । धर्म से इनका कोई लेनादेना नही है।
किन्तु *विभिन्न मतों,पन्थों सम्प्रदायों के प्रति निरपैक्ष रहना तटस्थ रहना सामान्य सभ्य मानव की पहचान है।*
*साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ।*
साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ---
*मूलतः अहिन्सा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अर्थात पञ्च यम की साधना ही आत्म साधन हैं। उक्त साधन के उपसाधन धर्मकर्म अर्थात धार्मिक क्रियाएँ और कर्मकाण्ड हैं।*
यदि मूल भारतीय धर्म-दर्शन और संस्कृति की बात की जाये तो वह थी *सर्वजन हिताय, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ईश्वरार्पण सौद्देष्य निष्काम सामाजिक कर्तव्य निर्वहन कर्म प्रधान संस्कृति जिसे संक्षिप्त में यज्ञ कहा जाता है।*
*ईश्वरीय कार्यों में सहयोगार्थ वेदों में पञ्चमहायज्ञ की व्यवस्था है।*
*पञ्च महायज्ञ -*
यहांँ पञ्च महायज्ञ के विषय में जानकारी अति संक्षिप्त में बतलाई जा रही है। विस्तार से पञ्चमहायज्ञ विधि जानने के लिए गृह्यसुत्र आदि शास्त्राध्ययन ही उचित है । और संक्षिप्त विधि गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित नित्यकर्म पूजा प्रकाश नामक पुस्तक में देखी जा सकती है।
*यज्ञ मतलब परमार्थ — परम के लिए। परम के निमित्त। विष्णु के प्रति समर्पित हो, विष्णु के निमित्त, विष्णुअर्पण कर्म।*
*पञ्चमहायज्ञ और उनका आषय -*
*१ ब्रह्मयज्ञ — संध्या-जप-स्वाध्याय- निधिध्यासन- धारणा, ध्यान, समाधि, अष्टाङ्गयोग, अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन, चिन्तन-मनन, भजन-किर्तन सभी ब्रह्मयज्ञ के अन्तर्गत आते हैं।* अष्टाङ्ग योग- यम,नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ब्रह्मयज्ञ का भाग ही है।
*वेदाध्ययन -
*वेद मतलब ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद संहिताओं को वेद कहते हैं।*
*आरण्यकों और उपनिषद सहित ब्राह्मण ग्रन्थों को भी श्रुति की मान्यता है।*
*उपवेद*
*१ आयुर्वेद* (मेडिकल साइन्स),
*२ धनुर्वेद* (अस्त्र-शस्त्र निर्माण एवम् मिलिट्री साइन्स),
*३ शिल्पवेद/ स्थापत्य वेद* सिविल इंजीनियरिंग एवम् आर्किटेक्ट और
*४ गन्धर्ववेद* संगीत एवम् नाट्य
ये चार उपवेद है।
*वेदाङ्ग* ---
१ *कल्प* -- चार प्रकार के सुत्र ग्रन्थों को कल्प कहते हैं। १ *शुल्बसुत्र २ श्रोतसुत्र ३ गृह्यसुत्र और ४ धर्मसुत्र।*
*शुल्बसुत्र* - ब्रह्माण्ड के नक्षों/ मानचित्रों की प्रतिकृति अनुसार यज्ञ वेदी और मण्डप निर्माण विधि,
*श्रोत सुत्र* - बड़े यज्ञों की विधि,
*गृह्यसुत्र* - संस्कार, व्रत, उत्सव विधि,
*धर्म सुत्र* - आचरण संहिता/ संविधान हैं।
धर्मसुत्रों की स्मृतियों को ही मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि कहते हैं।
*२ ज्योतिष* --- कॉस्मोलॉजी, एस्ट्रोनॉमी एवम् मौसम विज्ञान,
*३ शिक्षा* -- उच्चारण विधि/ फोनेटिक,
*४ निरुक्त* --भाषाविज्ञान, शब्द व्युत्पत्ति,
*५ व्याकरण* - वाक्य रचना। और
*६ छन्द* -- काव्यशास्त्र या पिङ्गल शास्त्र।
इन छः शास्त्रों को वेदाङ्ग कहते हैं। वेदों का तात्पर्य समझनें के लिए उपवेदों और वेदाङ्गों का ज्ञान आवश्यक है।
*उपवेद, वेदाङ्ग और ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्म काण्ड भाग की व्याख्या जैमिनी की पूर्व मीमान्सा दर्शन और आरण्यकों- उपनिषदों की व्याख्या उत्तर मीमान्सा दर्शन (षड दर्शनों) में पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा एवम् श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात कर्म मीमांसा भी वेदों के समान ही आदरणीय मान्य है, श्रुति के समान ही आदरणीय है। उक्त समस्त अध्ययन भी वेदाध्ययन कहलाता ही है।*
*वेदाध्ययन द्वारा निश्चयात्मक बुद्धि का विकास और विवेक जागृत होनें उपरान्त ही गोतम के न्याय दर्शन,कणाद के वैशेषिक दर्शन, पतञ्जली के योग दर्शन, ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिकाएँ - कपिल के सांख्य दर्शन का अध्ययन करना चाहिए।* ताकि, विभिन्न मत मतान्तर के अध्ययन से मतिभ्रम न हो
उक्त ग्रन्थों - वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों, उपनिषदों, उपवेदों,वेदाङ्गों, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा सहित षडदर्शनों में ही बत्तीस विद्याएँ , चौसठ कलाएँ, ज्ञान विज्ञान, धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब प्रकार का अध्ययन, मनन, चिन्तन,जप, एवम् अष्टाङ्ग योग के अन्तर्गत यम, नियमों के पालन पूर्वक बहिरङ्ग योग आसन, प्राणायाम के द्वारा धृति वर्धन के साथ प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि (अन्तरङ्ग योग) के माध्यम से मानसिक, बौद्धिक विकास करते हुए चित्त वृत्तियों का निरोध कर देवयज्ञ के द्वारा अहंकार का स्वाहा (स्व का पूर्ण समर्पण) करके नृयज्ञ में मानव सेवा, भूत यज्ञ में बलिवैश्वदेव कर्म करके सर्व प्राणियों, वनस्पतियों, दृष्य अदृश्य जीवन जी रहे दैविक शक्तियों की सेवा और पितृ यज्ञ के माध्यम से हमारे वरिष्ठो, पूर्वजो,पितरों के समाजसेवा, जन सेवा, भूतमात्र की सेवा के संकल्पों को आगे बढ़ाकर पूर्ण करने हेतु पूर्तकर्म करना सम्मिलित था। आगे इनका वर्णन करते हैं।---
*२ देवयज्ञ* — यह है वैदिक पूजा पद्यति। इनकी शास्त्रोक्त विधि वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों - आरण्यको - उपनिषदों, और श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, शुल्बसुत्रों, धर्मसुत्रों, पूर्व मीमांसा दर्शन- उत्तर मीमांसा दर्शन (ब्रह्मसुत्र) एवम् कर्मयोग शास्त्र (श्रीमद्भगवद्गीता) में अध्ययन किया जा सकता है।
*देव मतलब प्रकाश स्वरूप/ प्रकाशक। ज्ञान दाता। अतः प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुख - सुविधाओं, सेवाओं का लाभ लेनें के पूर्व, लेते समय और लेनें के बाद उन सेवा-सुविधाओं के अधिष्ठाता अधिकारी देवता का स्मरण कर उनके प्रति स्व का हनन कर स्वाहाकार, हवन करना, अग्निहोत्र, इष्टि आदि।*
*पूजा शब्द का अर्थ सेवा है।*
*यदि आप अपने माता— पिता, और गुरुजनों की सेवा करना चाहते हैं तो सर्वोत्तम तरीका उनके कार्यों में हाथ बंटाना ही होगा।*
वैदिक धर्म में किसी देवालय या मन्दिर, चैत्यालय, मठ आदि का कोई स्थान नहीं है। न कोई मुर्ति न मूर्ति पूजा की कोई अवधारणा है। बस समर्पित भाव से सेवा ही धर्म है।
*३ नृयज्ञ/ अतिथि यज्ञ* — अतिथि यज्ञ- *अपरिचित, आगन्तुक, गुरुकुल, गुरुकुल के ब्रह्मचारी, सन्यासी, वृद्ध, रोगी, असहाय, असमर्थ की सफाई, जल, भोजन, आवास, दवाई/ चिकित्सा/ शारीरिक सेवा, शिक्षा आदि में योगदान आदि के माध्यम से यथायोग्य सेवा-सहायता करना।*
*४ भूतयज्ञ* — *मानवेत्तर योनियों, गौ, कुत्ता, काक (कव्वा), चिटियों (पिप्पलिका), जलचर, वनचर, पाल्य पशुपक्षियों, वृक्ष, पैड़-पौधे, गन्धर्व, यक्ष आदि अदृष्य योनियों में जो जीव हैं उनकी जल, भोजन, सफाई आदि से सेवा— सहायता करना।*
*५ पितृयज्ञ* — *श्राद्ध अर्थात अपने दिवङ्गत माता— पिता, दादा- दादी, परदादा— परदादी, वृद्ध प्रपितामह — वृद्ध प्रपितामही आदि पितृकुल की सात पीढ़ियों, मातृकुल की पाँच पीढ़ियों के दिवङ्गत पूर्वजों की अधूरी— अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिए पूर्तकर्म -सदावृत, अतिथि-गृह, धर्मशाला, विश्रान्ति गृह, विद्यालय, वाचनालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, औशधालय, चिकित्सालय, कुए, तालाब, नहर, बाग-बगीचे, मार्गों के आसपास फलदार और छाँयादार वृक्षारोपण जैसे कार्यों में सहकारिता , सामुहिक योगदान, धन दान, श्रमदान, आवश्यकता अनुरूप वस्तु या सेवा उपलब्ध करवाना।*
*ताकि, हमारे पूर्वजों ने जिन अभावों को भोगा, जिन कष्टों को सहा वे जिनके लिए तरसे, आगे उनका सामना किसी को न करना पड़े उनकी इस इच्छा की पूर्ति हो सके।*
यह वास्तविक श्राद्ध है, वास्तविक पितृ यज्ञ है। वास्तविक पूर्तकर्म है।
यह प्रक्रिया दम्पत्ति के विवाह और गर्भाधान संस्कार से आरम्भ होती थी तो सन्तान के षोडष संस्कार के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण में भलीभाँति स्थापित कर दी जाती थी।
वर्तमान में इसे वैदिक/ आर्य सभ्यता और संस्कृति कहा जाता है। यह मूल भारतीय संस्कृति है।
इस संस्कृति में गुरुकुल होते थे। समाज के लिए योग्य सक्षम, समर्थ,और योग्य मानव तैयार करना गुरुकुल शिक्षा का लक्ष्य था।
*यह साधन करना या आत्म साधना है। इसमें नेमित्तिक कर्म, अनुष्ठान आदि की आवश्यकता नही है।*
अब आते हैं मन्त्र साधना पर -
*मन्त्र साधना* -
*वेदप्राप्त्यर्थ मन्त्र साधना ब्रह्मचर्य आश्रम में की जाती है।*
*मन्त्र साधना हेतु सर्वप्रथम कृच्छ्र चांद्रायण व्रत किया जाता है। जिसमें अमावस्या को निराहार रहकर प्रतिपदा को आँवले के बराबर एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास ऐसे बढ़ाते हुए पुर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन कर पूर्णाहुति यज्ञ में सम्पूर्ण धन सम्पत्ति योग्य पात्रों को दान कर आश्रम या ग्राम के मध्य में खड़े होकर अपने शारीरिक, मानसिक,और भावनात्मक (अध्यात्मिक) असावधानियों, त्रुटियों, अपराधों का वर्णन कर क्षमा प्रार्थना करना होता है।*
*कुछ लोग अमावस्या से अमावस्या तक कृच्छ्र चान्दद्रायण व्रत करते हैं। उसमें अमावस्या को निराहार रहकर प्रतिपदा को आँवले के बराबर एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास ऐसे बढ़ाते हुए पुर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन कर कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चौदह ग्रास, द्वितीया को तेरह ग्रास कर अमावस्या को निराहार रहकर पूर्णाहुति यज्ञ में सम्पूर्ण धन सम्पत्ति योग्य पात्रों को दान कर आश्रम या ग्राम के मध्य में खड़े होकर अपने शारीरिक, मानसिक,और भावनात्मक (अध्यात्मिक) असावधानियों, त्रुटियों, अपराधों का वर्णन कर क्षमा प्रार्थना करना होता है।
कुछ लोग पूर्णिमा से पूर्णिमा तक करते हैं।
लेकिन यह मूलतः वानप्रस्थ प्रवेश के पहले किया जाना उचित है।*
*लेकिन वेद प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा से ब्रह्मचारी भी ऐसा व्रत करते थे।*
*तदुपरान्त ही सावित्री मन्त्र (गायत्री मन्त्र) का पुरुश्चरण किया जाता है। पुरुश्चरण की पूर्णता पर पूर्णाहुति यज्ञ में पुनः सर्वस्व दान कर अपराध क्षमा प्रार्थना की जाती है।*
*यह मन्त्र साधना मूलतः सकाम कर्म है। लेकिन वेद प्राप्ति, वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश की योग्यता प्राप्त करने हेतु और वानप्रस्थ आश्रम पूर्ण कर सन्यास आश्रम में प्रवेश करने हेतु आवश्यक है। अतः इसमें सकामता होते हुए भी कोई स्वार्थ और अहन्ता ममता युक्त कर्म न होने और विश्वकल्याण की मानसिकता होनें से दोषपूर्ण और बन्धन का कारण बनने वाला कर्म नही है।*
*तन्त्र परम्परा*
*वैदिक मत से ठीक विपरीत तन्त्र मत है।* मठ- मन्दिर इस संस्कृति के ही अङ्ग हैं। वैष्णव, सौर, शैव सम्प्रदाय के तन्त्र आगम के अनुसार ही मन्दिरों में मुर्ति पूजा होती है। *आगमों के अतिरिक्त पुराण इस मत के आदरणीय ग्रन्थ हैं।*
त्रेतायुग के अन्त में यह प्रक्रिया आरम्भ हुई।
*इसका प्रथम उल्लेख वशिष्ठ - विश्वामित्र युद्ध, जमदग्नि - कार्तवीर्यार्जुन विवाद, रावण द्वारा निकुम्भला पूजन और मेघनाद के तान्त्रिक हवन का वर्णन वाल्मीकि रामायण में आता है। भरत के साथ गये ऋषि जबाली द्वारा नास्तिक बौद्ध मत का प्रवचन सुन श्रीराम के क्रुद्ध होनें का प्रसङ्ग भी है।*
*द्वापर अन्त में भी नेमिनाथ नास्तिक श्रमण मतावलम्बी थे। काश्यप ब्राह्मण द्वारा वृक्ष सुखाकर पुनर्जीवित करनें का उल्लेख है।*
*वैदिक वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों के त्याग पूर्वक निर्वहन में अ
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