नवरात्र पूजन विधि
नवरात्र का नियम है कि,
१ द्वितीया युक्त प्रतिपदा, उदिया तिथि में सूर्योदय से चार घण्टे के अन्दर ही स्थिर / द्विस्वभाव लग्न में घटस्थापना करना चाहिए ।
देवता के दाहिने हाथ की ओर तथा उपासक के बाँये हाथ की ओर घी का दीपक रखें। तथा देवता के बाँये हाथ की ओर तथा उपासक के दाहिने हाथ की ओर तेल का दीपक लगाएँ।
२ नवरात्र में नौ तिथियों का महत्व है। नवरात्र चाहे आठ दिन का हो या नौ दिन का हो या दस दिन का नवरात्र हो महत्वपूर्ण तिथियाँ हैं दिन नही। इसी प्रकार तिथि और नक्षत्र का योग उस तिथि का महत्व बढ़ा देते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण केवल तिथि ही है, नक्षत्र नही।
जो कर्म जिस तिथि में और जिस समय में बतलाया गया है उस तिथि और समय में ही हो। चाहे उस दिन कोई सा भी नक्षत्र पड़े या अपेक्षित नक्षत्र रहे या न रहे। ऐसे ही नवरात्र में वार, योग, चौघड़िया , राहुकाल आदि का भी कोई महत्व नहीं है।
३ प्रति दिन पहले १०८ मनको वाली तुलसी की माला से दो माला गायत्री का मन्त्र जप करें।
फिर गीता प्रेस गोरखपुर की दुर्गासप्तशती में बतलाई गई विधि अनुसार प्रतिपदा तिथि से चतुर्थी तिथि तक एक- एक बार दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ करना चाहिए साथ ही तुलसी की एक सौ आठ मनके की माला से एक माला नवार्ण मन्त्र का जप अवश्य करें। ऋगवेदोक्त देवी सूक्त की व्याख्या अर्थात ब्राह्मण भाग श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् है। उसी अथर्वशीर्ष से निकला नवार्ण मन्त्र भी वैदिक मन्त्र ही है; तान्त्रिक मन्त्र नहीं है। अतः सात्विक उपासक तुलसी की १०८ मनकों की माला से ही जप करें। चाहे तो स्फटिक की माला भी प्रयोग कर सकते हैं। सकामोपासक राजसी उपासक रुद्राक्ष की माला का उपयोग करते हैं। तान्त्रिक तमोगुणी साधक मूंगा की माला से जप करते हैं।
और (ललिता) पञ्चमी से (दुर्गा) नवमी तक दो-दो बार दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ करना चाहिए साथ मे तुलसी की एक सौ आठ मनके की माला से दो माला नवार्ण मन्त्र का जप अवश्य करें।
कुल चौदह पाठ होंगे। जो दशांश हवन, शतांश श्राद्ध-तर्पण और सहस्त्रांश ब्राह्मण भोजन तथा भूल-चूक के लिए अतिरिक्त पाँच पाठ और पाँच माला नवार्ण मन्त्र जप किया जाता है। इसलिए कुल चौदह पाठ और चौदह माला हो जाती है।
४ यथा शक्ति यथा सामर्थ्य या तो नौ दिन तक रोज एक एक कन्या को भोजन कराएँ इस प्रकार नौ दिन में कुल नौ कन्याओं को भोजन कराएँ, या पहली तिथि में एक कन्या द्वितीया में दो कन्या, तृतीया में तीन कन्या ऐसे बढ़ते क्रम में इस प्रकार नौ दिन में ४५ कन्याओं को भोजन कराएँ या प्रत्येक तिथि को नौ-नौ कन्याओं को भोजन कराकर नौ दिन में कुल ८१ कन्याओं को भोजन कराएँ।
५ जो सक्षम है, पूर्ण स्वस्थ्य हैं, कर सकते हैं वे ही प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन व्रत उपवास करें। या नौ दिन न कर पाए तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि को व्रत, उपवास अवश्य ही रखें। यदि तीन दिन न कर पायें तो अष्टमी और नवमी को व्रत उपवास अवश्य करें। यदि दो दिन भी न कर पायें तो नवमी को तो व्रत उपवास अवश्य करें ही। निर्णय सिन्धु पृष्ठ ३४२ पर स्पष्ट निर्देश है कि, पूजा (सेवा) मुख्य है, (भोजन त्याग रूप लंघन) उपास/ उपवास गौण है। उपास/ उपवास पूजा का अङ्ग है। मुख्य तो पूजा ही है। उपास उसमें सहायक है।
मूलतः उपास का अर्थ समीप आसन लगाना या समीप बैठना और उपासना का अर्थ समीप होना या समीप रहना है। भोजन न करने को लङ्घन कहते हैं; उपास या उपवास नहीं कहते।
६ षष्टि तिथि में प्रदोषकाल में बेलपत्र पौधे के पास जाकर जो भी पत्तियाँ पहली बार दिखे उनको प्रणाम कर आव्हान करें / नीमन्त्रण दें कि, दुसरे दिन अर्थात कल सप्तमी तिथि में सरस्वती के रूप में पूजन करने हेतु हम आपका आव्हान करते हैं / निमन्त्रित करते हैं। सप्तमी तिथि में प्रातः काल उक्त बेलपत्र को नमस्कार, पूजन कर आमन्त्रित कर तोड़ लें और घर लेजाकर दुर्गासप्तशती पुस्तक में रखकर प्रतिपदा से नवमी तक सरस्वती के रूप में पूजा करें। बेलपत्र में लक्ष्मी का वास है, तान्त्रिक लोग बेलपत्र के स्थान पर देशी खेजड़ी अर्थात शमी वृक्ष की पत्ती रखकर पूजा करते हैं।
७ मूल नक्षत्र युक्त सप्तमी तिथि महा सप्तमी कहाती है। सप्तमी तिथि मूल नक्षत्र में प्रातः पुनः बेलपत्र या शमी की उन्ही पत्तियों को प्रणाम कर आमन्त्रित कर तोड़ लें। और घर पर दुर्गासप्तशती की पोथी में लाकर सरस्वती के रूप में स्थापित कर पूजा करें। यह पोथी पाठ में काम नही आयेगी। अतः बिना फटी पुरानी पोथी लेना उचित है।
८ पूर्वाषाढ़ नक्षत्र युक्त अष्टमी महा अष्टमी कहलाती है। उत्तराषाढ़ नक्षत्र युक्त नवमी महा नवमी कहलाती है।
महा अष्टमी और महा नवमी की पूजा एक ही आसन पर बैठे बैठे ही बिना उठे ही करें। महाअष्टमी और महानवमी के सन्धि काल मे अष्टमी समाप्ति तक महाअष्टमी की पूजा करें फिर नवमी लगते ही महानवमी की पूजा करें।
९ बलिदान मतलब धार्मिक कर अदायगी। कुष्माण्ड (भूरा कोला), मातुलिङ्ग (बिजोरा नींबू), आँवला, नारिकेल (नारियल), श्रङ्गार सामग्री, वस्त्राभूषण, अन्न - धन, गौ दान करनें को बलिदान कहते हैं। उत्तराषाढ़ नक्षत्र युक्त नवमी तिथि में सरस्वती के निमित्त बलिदान करें। फिर नवरात्र उत्थापन / उद्यापन करें।
क्षत्रिय जन (सैनिक, पूलिस वाले, गार्ड आदि) लोहाभिसारण (शस्त्र पूजन) करते हैं।
१० दशमी तिथि दसरा/ विजया दशमी है। श्रवण नक्षत्र युक्त दशमी तिथि में प्रातः काल में दुर्गा सप्तशती में स्थापित सरस्वती अर्थात बेलपत्र या शमी के पत्तों का पूजन कर विसर्जन करें। विसर्जन में उक्त बेलपत्र ( या शमी की पत्तियों) का ही सरस्वती मान कर विसर्जन होता है पुस्तक का नहीं। फिर मध्याह्न में अपराजिता का पूजन करें।
विजया दशमी पर्वोत्सव पर अपराजिता की पूजा कर दसरा अर्थात दक्षिण दिशा की यात्रा करें।
सन्दर्भ ---
नवरात्र पूजन निर्णय - ठाकुर प्रसाद एण्ड संस द्वारा संवत २०२७ में प्रकाशित कमलाकर भट्ट प्रणीति ग्रन्थ निर्णय सिन्धु के अनुसार।
प्रतिपदा तिथि उदयकाल में दो मुहुर्त (१ घण्टा ३६ सिनट) हो तो भी नवरात्र घटस्थापना में ग्राह्य है।
एक कला और अमावस्या युक्त प्रतिपदा तो नवरात्र घटस्थापना में कदापि न लें। - पृष्ठ ३२९, ३३१,
अधिक तिथि की स्थिति में शुद्ध तिथि होने से अमावस्या रहित प्रथम दिन ही लें। ऐसे ही क्षय तिथि की स्थिति में क्षण मात्र भी शुद्ध प्रतिपदा न हो तो अमावस्या युक्त प्रतिपदा भी ग्रहण करें।- पृष्ठ ३३०,
देवी का आवाहन, प्रवेश,पूजन और विसर्जन आदि समस्त कर्म प्रातः काल मे ही करें। - पृष्ठ ३३०,३३१
घटस्थापना सूर्योदय से १० नाड़ी (अर्थात ४ घण्टे) तक में करें। रात्रि में कदापि न करें।- पृष्ठ पर ३३१, ३३५
महत्व केवल तिथि का है, तिथि देवता का शरीर है। (न दिन संख्या का, न करण का , न नक्षत्र का, न वार का, न योग का केवल तिथि का ही महत्व है शेष सब गौण हैं।) - पृष्ठ ३३१, ३३४,३४७, ३७२
प्रति तिथि में एक एक कन्या को भोजन कराएँ, या प्रतिपदा को एक, द्वितीया को दो, तृतीया को तीन ऐसे नवमी तिथि पर्यन्त बढ़ते क्रम से कन्या पूजन कर भोजन कराएँ। या प्रति तिथि नौ-नौ कन्याओं का पूजन कर भोजन कराएँ। - पृष्ठ ३३८
प्रतिपदा को जितनी पूजा करें, द्वितीया को उससे द्विगुणित, तृतीया को त्रिगुणित ऐसै ही नवमी तिथि पर्यन्त वृद्धि क्रम में पूजा, पाठ, जप आदि करें। - पृष्ठ ३४२, ३७२
नवरात्र में पूजा ही प्रधान है, उपवास आदि तो उसका अङ्ग है।
तिथि के ह्रास में दोनो तिथियों के निमित्त पूजा करें। - पृष्ठ ३४२, ३७२
संकल्प लेने के बाद या नवरात्र घटस्थापना होने के बाद सूतक होने पर सूतक में देवी पूजा और दान कर सकते हैं। निषेध नहीं है। लेकिन रजस्वला स्त्री दुसरे से पूजा करवाए - पृष्ठ ३४५
सौभाग्यवती/ सुहागिन स्त्री नवरात्र उपवास में भी श्रङ्गार कर सकती हैं, ताम्बूलादि चर्वणकर सकती है। (पान खा सकती है।) - पृष्ठ ३४५
नवरात्र में (सप्तमी को) मूल नक्षत्र प्रथम चरण में या मूल नक्षत्र में देवी का स्थापन करें । तथा (दशमी तिथि) श्रवण नक्षत्र प्रथम चरण या श्रवण नक्षत्र तक नित्य पूजन करें। (दशमी तिथि) श्रवण नक्षत्र प्रथम चरण या श्रवण नक्षत्र में विसर्जन करें। ए- पृष्ठ - ३४६
बङ्गाल, उड़िसा, असम आदि पूर्व और उत्तर पूर्व के प्रदेशों में नवरात्र के स्थान पर सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि में त्रिरात्र का महत्व है। उनके कार्यक्रम ललिता पञ्चमी से विजया दशमी तक चलते हैं। उसमें भी १ज्येष्ठा नक्षत्र, २ मूल नक्षत्र, ३ पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र - ४ उत्तराषाढा नक्षत्र और ५ श्रवण नक्षत्र का विशेष महत्व है।
ज्येष्ठा नक्षत्र युक्त षष्ठी तिथि में बिल्व का अभिमन्त्रण (आवाहन) करे। ३४६, ३४७,
यदि सप्तमी को पत्रिका प्रवेश दिन के पूर्व दिन सायंकाल में षष्ठी तिथि का अभाव हो तो, अधिवासन करना चाहिए। सायंकाल में अत्यन्त असत्व में अधिवासन का लोप हो जाता है पृष्ठ - ३४७
नवपत्रिका कथनम पृष्ठ ३४८ - १रम्भा (केल के पत्ते/ केला फल के पौधे के पत्ते), २ कवी (दारु हल्दी) के पत्ते, ३ हरिद्रा (हल्दी/ हलदी) के पत्ते, ४ जयन्ती (मेउडी) के पत्ते, ५ बिल्व (बिल्वपत्र/ बेलफल के वृक्ष के पत्ते), ६ दाडिम (अनार) के पौधे के पत्ते , ७ अशोक / सीता अशोक वृक्ष के पत्ते, ८ मानवृक्ष (अमलतास) के पत्ते, ९ धान्य (चांवल) के पत्ते, ९
मूल नक्षत्र युक्त सप्तमी तिथि में पत्रिका (उक्त कथित नव पत्रिका) का प्रवेश करें। (पत्ते तोड़कर घर लायें। सप्तशती पुस्तक में स्थापित करें।)
पूर्वाषाढ़ से युक्त अष्टमी तिथि में पूजा, होम,उपोषण आदि करें। - पृष्ठ ३४६, ३४७
देवता का शरीर तिथि है और तिथि में नक्षत्र आश्रित है। इसलिए तिथि के बिना नक्षत्र में (आह्वान, स्थापना, पूजन, बलिदान, विसर्जन आदि) नही करते हैं।
तिथि नक्षत्र योग हो तो दोनों के युग्म काल में करें। किन्तु तिथि-नक्षत्र के योग का अभाव हो तो केवल तिथि का ग्रहण करना चाहिए। - ३४७, ३४८, ३७२
पत्रिका प्रवेश और स्थापना में षष्टियुक्त सप्तमी न लेकर उदिया सप्तमी अर्थात शुद्ध सप्तमी तिथि में पत्रिका प्रवेश और स्थापना करें। पृष्ठ ३४८
नवरात्र व्रत, उपवास, आवाहन, प्रवेश, स्थापना , पूजन, बलिदान, विसर्जन सब में एक घटिका (२४ मिनट) उदिया तिथि मिले तो उदिया तिथि ही ग्रहण करें। एक घटिका (२४ मिनट) उदिया तिथि न मिले तो ही पूर्वविद्धा तिथि ग्रहण करे। - पृष्ठ ३४८, ३५०
पत्रिका पूजन (पत्ते का पूजन) भी पूर्वाह्न में ही करें। मूल नक्षत्र हो या न हो। - पृष्ठ ३४८
जो प्रतिपदा से नवमी तक उपवास करने में असमर्थ हो वे सप्तमी, अष्टमी, नवमी तीन तिथियों में उपवास करें। पृष्ठ - ३४८, ३४९
दक्षिणाभिमुखी दुर्गा प्रतिमा शुभ दात्री, पूर्वाभिमुखी दुर्गा प्रतिमा जय वर्द्धिनी, पश्चिमाभिमुखी दुर्गा प्रतिमा स्थापनार्थ सदा उत्तम है। किन्तु दुर्गा की उत्तराभिमुखी मुर्ति स्थापना कदापि न करें। - पृष्ठ ३५०
शारदीय नवरात्र में नवमी तिथि युक्त अष्टमी तिथि महाअष्टमी पूज्य होती है। - पृष्ठ ३५०
पहले दिन अष्टमी पूर्वाह्न व्यापि (मध्याह्न तक अष्टमी तिथि) हो तो ही पूर्वा अष्टमी तिथि ग्रहण करे। -३५५
यदि अष्टमी तिथि सूर्यास्त के पश्चात तक हो तो उसमें दुर्गोत्सव करें। पृष्ठ - ३५६
अष्टमी तिथि नवमी तिथि से युक्त हो तथा साथ में मूल नक्षत्र से युक्त हो तो महानवमी कहलाती है। यह योग अत्यन्त दुर्लभ है।- पृष्ठ ३५५, ३५७
उदिया नवमी तिथि तभी ग्रहण करे जब नवमी तिथि सूर्यास्त के पश्चात तीन मुहुर्त (२ घण्टा २४ मिनट) बाद तक रहे। - पृष्ठ ३६५
अष्टमी तिथि के अवशिष्ट भाग में और नवमी तिथि के पूर्व भाग में की हुई पूजा ही महाफल देने वाली है।
अष्टमी पूजा मध्यरात्रि में महाविभव के विस्तार से करें। - पृष्ठ ३६६।
पूर्वाषाढ़ नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि में पूजा, होम, और उपवास करें - ३६७
प्रतिपदा से नवमी तकनीकी, या सप्तमी , अष्टमी और नवमी का व्रत उपवास का पारणा दशमी तिथि में करें। पृष्ठ- ३७२, ३७३
पारण में सूतक का निषेध नही है। पृष्ठ ३७४
मध्याह्न के दस पल (चार मिनट) बाद वाले प्रहर अपराह्न व्यापी दशमी तिथि को विजया दशमी कहते हैं।
यदि यह सूर्यास्त पश्चात तीन मुहुर्त (२ घण्टे २४ मिनट) पश्चात तक अर्थात प्रदोष व्यापिनी भी मिले तो सर्वोत्तम। यदि यह श्रवण नक्षत्र युक्त हो तो भी पूर्व विद्धा न करें। - पृष्ठ ३७७
आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को जागरी पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा परा ग्रहण करें। - पृष्ठ ३७८
विशेष --- बङ्गालियों का मत है कि, मुख्य नवरात्र तो चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से रामनवमी तक होती है, लेकिन (किष्किन्धा में सुग्रीव आवास पर रहते) श्री राम ने आश्विन शुक्ल पक्ष में (प्रतिपदा से दुर्गा नवमी तक) शक्ति पूजा कर विजया दशमी/ दसरा से शरद पूर्णिमा के बीच सीता जी की खोज हेतु दल भिजवाए थे। और रावण वध हेतु भी शक्ति पूजा की थी। इसलिए आश्विन मास में शुक्ल पक्ष में (प्रतिपदा से दुर्गा नवमी तक)शारदीय नवरात्र में शक्ति पूजा की नव्य परम्परा प्रारम्भ हुई। इसलिए वे शारदीय नवरात्र को अकाल नवरात्र अर्थात असामयिक नवरात्र कहते हैं।