शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

वास्तविक नौदुर्गा

उत्तर चरित्र दुर्गा सप्तशती पञ्चमोनध्याय ५ से त्रयोदशोऽध्याय तक में उमा पार्वती के कौशिकी स्वरूप में महासरस्वती अवतार धारण वर्णन के अन्तर्गत नौदुर्गाओं का उल्लेख।
पार्वती ५/८५ ।
पार्वती का ही नया नाम/ रूप हिमालय में विचरण करने वाली कालिका है। ५/८८।)

० कौशिकी ५/ ८७ ।
(जिन्हें सर्वप्रथम चण्डमुण्ड ने देखा था।५/८९)
 (कौशिकी को चण्डी कहा है ८/२२।) 
कौशिकी को ही कात्यायनी भी कहा है।८/२९ 
 तथा कौशिकी की नौदुर्गाओं का वर्णन जिननें शुम्भ निशुम्भ युद्ध में कौशिकी की सहायता की।
१ काली   ७/६ 
(तथा ७/१६ एवम् ७/२३।) 
(काली का ही नाम चामुण्डा भी ७/२७)
२ ब्राह्मी ८/१५। 
३माहेश्वरी८/१६। 
४ कौमारी ८/१७।  
५ वैष्णवी८/१८।
६ वाराही ८/१९।
७ नारसिंही८/२०।
८ ऐन्द्री ८/२१।  
९ चण्डिका शक्ति ८/२३
(चण्डिका शक्ति को ही शिवदुती भी कहा है ८/२८।)

रविवार, 25 सितंबर 2022

दिनांक, समय और स्थान तीनों का साथ साथ उल्लेख आवश्यक है।

१ देश (स्थान) और काल (दिनांक और समय) का उल्लेख एक साथ होना आवश्यक है।तीनों में से एक भी चीज नही लिखी तो समय या स्थान की कोई सार्थकता सिद्ध नहीं होती है। 
जैसे आज दिनांक २५ सितम्बर २०२२ रविवार को २२:३० बजे राऊ (इन्दौर) में यह आलेख लिखा गया। 
पत्र लेखन और समाचार लेखन में यह बात प्रचलित है।
जैसे १४ /१५ अगस्त १९४७ को रात्रि ००:०० के पहले का भारत का नक्षे में हम पाकिस्तान और बांग्लादेश को भारत कहते हैं। और १४ /१५ अगस्त १९४७ को रात्रि ००:०० के बाद का भारत का नक्षे में भारत और पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान अलग अलग है। जबकि बांग्लादेश को मान्यता प्रदान करने के पश्चात वही क्षेत्र भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश कहलाता है।
सिक्किम विलय के पूर्व भारत और सिक्किम दो देश थे जबकि आज सिक्किम भारत का प्रदेश है।
बर्लिन की दीवार बननें के पहले, और दीवार तोड़ने तक पूर्वी बर्लिन और पश्चिम बर्लिन थे। जबकि बर्लिन की दीवार बननें के पहले और दीवार तोड़ने के बाद केवल बर्लिन नगर है। अर्थात दिनांक और समय के बिना देश (स्थान) का कोई अर्थ नही।
२ उज्जैन (भारतवर्ष) पूर्व देशान्तर ७५°४६' में २१ मार्च को सुर्योदय के समय सायन मेष लग्न उदय हो रहा होता है तभी / ठीक उसी समय 
उज्जैन के ९०°पूर्व में परभद्राश्ववर्ष यमकोटि पत्तनम पूर्व देशान्तर १६५°४६' में मध्यान्ह हो रहा होता है और सायन कर्क लग्न उदित हो रहा होता है ।
उज्जैन के १८०° पर कुरुवर्ष सिद्धपुर (मेक्सिको का लियोनेल द्वीप) पश्चिम देशान्तर १०४°१४' सूर्यास्त हो रहा होता है एवम सायन तुला लग्न उदित हो रहा होता है।
उज्जैन के २७०° पर यानी उज्जैन के ९०° पश्चिम में केतुमालवर्ष रोमक पत्तनम। (सहारा/ मोरिटेनिया का सिसिस्नेरोस) पश्चिम देशान्तर १४°१४' में मध्य रात्रि हो रही होती है और सायन मकर लग्न उदित हो रहा होता है।
अर्थात स्थान के बिना समय का कोई अर्थ नही होता।
अतः देश (स्थान) और काल (समय) का उल्लेख एक साथ होना आवश्यक है।

जहाँ भी लग्न का उल्लेख हो या स्थानीय सूर्योदय सूर्यास्त पर आधारित अभिजित मुहूर्त या विजय मुहुर्त, या ब्रह्म मुहूर्त (वाले दो घटि वाले मुहुर्त) या प्रदोष काल, या महानिशिथ काल या उषा काल,  या चौघड़िया आदि का उल्लेख आये वहाँ स्थान का नाम अत्यावश्यक है।
मैरे सभी सन्देशों में स्पष्ट लिखा है कि, ये मुहुर्त इन्दौर के लिए है। ये इन्दौर, राऊ, महू, बेटमा शिप्रा  (उज्जैन रोड पर) धरमपुरी साँवेर तक ही चलेंगे।
धार उज्जैन में लगभग दो मिनट खरगोन में एक मिनट का अन्तर पड़ता है।
लेकिन सब स्थानों पर नही चलेंगे। 

४  चौथी विशेष बात मुहुर्त में मुख्यता प्रातः काल/ मध्यान्ह काल/ प्रदोष काल/ महानिशिथ काल, उषा काल, अरुणोदय  या अभिजित मुहूर्त/ विजय मुहुर्त, ब्रह्म मुहूर्त, आदि दो घड़ि मुहुर्त का तथा इनके साथ वृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ लग्न अर्थात स्थिर लग्न के साथ मिथुन, कन्या,धनु, और मीन लग्न अर्थात द्विस्वभाव लग्न अथव मेष, कर्क,तुला और मकर लग्न अर्थात चर लग्न के साथ मिथुन, कन्या,धनु, और मीन लग्न अर्थात द्विस्वभाव लग्न का ही महत्व है। 
धर्मशास्त्र में चौघड़िया का कोई महत्व नहीं है। यह केवल परम्परागत पद्धति है। 
पाँचवी विशेष बात यह है कि, मैंरे सन्देश में प्रायः गणितागत, वास्तविक, धर्मशस्त्रोक्त सूर्योदय सूर्यास्त के आधार पर ही गणना अंकित रहती है। जहाँ कहीँ भी आभासी दृश्य सूर्योदय सूर्यास्त या आभासी दृश्य सूर्योदय सूर्यास्त पर आधारित गणना अंकित होंगे तो वहाँ मैं स्पष्ट उल्लेख करता हूँ।
सूर्योदय सूर्यास्त दो प्रकार के होते हैं।
 गणितागत, वास्तविक, धर्मशस्त्रोक्त सूर्योदय सूर्यास्त। और दुसरा आभासी दृश्य सूर्योदय सूर्यास्त।
आभासी दृश्य सूर्योदय की तुलना में यह गणितागत, वास्तविक , धर्मशस्त्रोक्त सूर्योदय बाद में होता है। जबकि आभारी दृश्य सूर्यास्त से  गणितागत, वास्तविक, धर्मशस्त्रोक्त सूर्यास्त पहले होता है। इसलिए गणितागत, वास्तविक, धर्मशस्त्रोक्त दिनमान छोटा और रात्रिमान बढ़ा होता है। जबकि आभासी दृष्य दिनमान बड़ा और रात्रिमान छोटा होता है।
यह वायु मण्डल में सूर्य का अप वर्तन होने के कारण होता है। जैसे पानी से भरी बाल्टी में पड़ा सिक्का उपर दिखता है और छड़ टेढ़ी दिखती है वैसे ही सूर्योदय के पहले सूर्य दिखने लगता है और सूर्यास्त के बाद भी सूर्य दिखता रहता है।


बुधवार, 21 सितंबर 2022

संघ, जनसंघ और भाजपा की कमजोरियाँ ।

वर्तमान संघ, जनसंघ और भाजपा को अपनी इन कमजोरियों से सबक लेकर कट्टर वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म को ही अपना आधार बनाकर समत्व वादी आर्थिक नीतियों और वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म हितेषी, संस्कृत और प्राचीन वैदिक संस्कृति और अभ्युत्थानम् धर्मस्य, विनाशाय च दुष्कृताम् तथा विप्र, धैनु, सुर, सन्त हितकारी और कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप को भारत राष्ट्र राज्य बनानें का लक्ष्य लेकर राष्ट्रवादी नीतियों वाले साहसिक निर्णय लेकर तुरन्त कार्यक्रम तैयार कर लागू करने वाला दल बनना चाहिए। अन्यथा निकट भविष्य में भा.ज.पा. कांग्रेस का रूपांतरित वर्ज़न से अधिक कुछ नहीं रहने वाली है।
अभी तो भाजपा की वास्तविकता यह है। ---
दासता मूलक और सनातन धर्म विरोधी कानूनों को स्वतन्त्र भारत में बनाए रखने, संविधान संशोधनों तथा सनातन धर्म विरोधी एवम् मुस्लिम पक्षधर नवीन कानूनों को लाने और बनाये रखने  का दोषी नेहरू था। न कि, गान्धी।
सावरकर पन्थियों का मानना है कि, सावरकर अपनी लाइन बड़ी नही कर पाये और  गान्धी की लाइन बड़ी होती रही इसके लिए गांधी ही दोषी हैं। उनको भ्रम है कि, सावरकर को गान्धी नें आगे नही बढ़ने दिया।
जबकि वास्तविकता यह है कि, इसमें पूर्ण रूपेण दोषी केवल सावरकर स्वयम् थे, न कि, गान्धी। सावरकर स्वयम् नास्तिक थे, और स्वयम् को नास्तिक ही कहते थे, वेदों, गौ, गंगा, ब्राह्मण और वर्णाश्रम धर्म में उनकी आस्था नहीं थी। लेकिन भारतीय मूल के लोगों को हिन्दू कहते थे और ऐसे हिन्दुत्व की बात करते थे। सावरकर कभी कोई युक्ति संगत लोगों को अपील करे ऐसा कोई कार्यक्रम नही दे पाये। इस कारण सावरकर जनता में अपनी पैठ नही बना पाये।
जब कि, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, अशफाक उल्ला खां अपनी पैठ जनता में जमा पाये। जिननें अंग्रेजी खजाना लूटने और दुष्ट अंग्रेज अधिकारियों की हत्या तक की। फिर भी जनता में उनकी पैठ थी। 
सुभाष चन्द्र बोस जन नेता बन गये। नेताजी ने आजाद हिन्द फौज बनाली, विदेशी सहयोग जुटा लिया। युद्ध भी जीते। सरकार भी बना ली।
कम्युनिस्टों नें नेवी में अपनी जबरदस्त पकड़ बना ली और हड़ताल तक करवानें में समर्थ रहे।
अम्बेडकर और जिन्ना तक ने अपनी जात बिरादरी में ही सही पर गहरी पैठ बना ली।
सरदार पटेल लोकप्रिय नेता रहे। पूर्ण जनमत उनके साथ रहा।
नेहरू नें गांधी के बल पर पैठ बना ली तो, 
लाला लाजपत राय, और प. मदनमोहन मालवीय की हिन्दू सभा और हिन्दू महासभा का नेतृत्व और उत्तराधिकार मिलने के बावजूद अकेले सावरकर को ही जन सहयोग क्यों नहीं मिला?
जो गलती आरम्भ में बाल ठाकरे ने की थी सबसे प्रमुख कारण वही थे।
सावरकर ने केवल न्यूज पेपर निकालने के अलावा जन सम्पर्क कभी नहीं रखा। भारत भ्रमण नही किया। महाराष्ट्र और मराठी तक सीमित रहे। शिवाजी के अलावा विक्रमादित्य, राजा भोज, पृथ्वीराज चौहान, छत्रसाल,  राणा सांगा, महाराणा प्रताप, राजेन्द्र चौल जैसे राजाओं का महिमा मण्डन नही किया। इसलिए केवल महाराष्ट्र के क्षेत्रीय नेता बन कर रह गये।
जिनका उत्तराधिकार मिला वे लाला लाजपतराय स्वयम् लाठियों से पीट पीट कर अंग्रेजों द्वारा बलिदान कर दिए गए लेकिन डटे रहे, डरे नही।
सावरकर एक बार जेल हो आये तो जेल की यातनाओं से इतना डर गये कि, उसी जेल यात्रा की यातनाओं को भुनाते रहे। लगातार आन्दोलन  चलाने का साहस नही जुटा पाये।  कहा भी है कि,"जो डर गया वो मर गया।"
सुभाष चन्द्र बोस कभी नही डरे, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, अशफाक उल्ला खान कभी नही डरे। बस केवल सावरकर ही डरे। जिन्हें वीर सावरकर कहलाना पसन्द था। लेकिन वीरता दिखाना नही।
सावरकर ने हिन्दू महासभा जैसे राष्ट्रीय दल को शिवसेना जैसा  छोटा स्थानीय दल बना दिया। इतने बड़े दल का नेतृत्व सम्हालना भी सबके वश में नही होता।
जिन सावरकर जी को वर्तमान में संघ परिवार अपना पितृ पुरुष घोषित करना पसन्द करता है वे ही सावरकर रा. स्व.से. संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार जी को खुलेआम अंग्रेजों का एजेण्ट और देशद्रोही कहते थे। सुभाष चन्द्र बोस सहयोग की आशा लेकर मिले  हेडगेवार जी नें सुभाष चन्द्र बोस को भी अंग्रेजों से लड़ना छोड़ हिन्दू एकता के लिए कार्य करने का गुरु मन्त्र देनें की कोशिश की तो सुभाष चन्द्र बोस अत्यन्त ही निराश होकर लौटे। हेडगेवार जी पर्व में पं. रामप्रसाद बिस्मिल चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह जी को भी अंग्रेजी शासन से आजादी का क्रान्तिकारी कार्यक्रम त्याग कर हिन्दू एकता के लिए काम करनें का उपदेश दे चुके थे। हेडगेवार जी नें भी कभी वेदों, गौ, गंगा, ब्राह्मण और वर्णाश्रम धर्म को अपना लक्ष्य घोषित नही किया। वे भी भारतीय मूल के लोगों को हिन्दू कहते थे और ऐसे हिन्दुत्व की बात करते थे। 
फिर भी जनसंघ और भाजपा कभी  चन्द्रशेखर भगतसिंह, सुभाष चन्द्र बोस जैसे मार्क्सवादियों को अपना आदर्श बतलाते हैं, कभी सरदार पटेल जैसे गांधी वादियों अपना आदर्श बतलाते हैं,  (संकटकाल के बाद) कभी गांधीवादी समाजवाद को अपना अजेण्डा घोषित करते हैं। मोदीजी का गांधी जी के प्रति स्पष्ट आदर सम्मान प्रदर्शित कर अपना रथ बढ़ाते हैं।
इनके पास अपनी कोई विचारधारा ही नहीं है, अपना कोई कार्यक्रम भी नहीं है।
पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेई जी आजीवन नेहरू को फॉलो करते रहे और इन्दिरा गांधी की स्तुति तक कर चुके।
वर्तमान प्रधानमन्त्री मोदी जी भी जवाहर लाल नेहरू की वेशभूषा और व्यक्तित्व से प्रभावित हैं। और नेहरू, नरसिंहा राव और मनमोहन सिंह के घोषित कार्यक्रमों को फॉलो कर रहे हैं।
पं. दीनदयाल उपाध्याय के बाद  अटल बिहारी वाजपेई ने भी भारतीय जनसंघ की ऐसी ही  दुर्दशा कर दी थी कि, लोकसभा में दो सीट पर सिमट गये थे। फिर भी जनसंघी उनको वैसे ही पूजते रहे जैसे अभी मोदी जी को पूज रहे हैं।
संघ परिवार की विशेषता है कि, उननें केशव (बलिराम हेडगेवार) - माधव (सदाशिव गोलवलकर),
पं.दीनदयाल उपाध्याय- बलराज मधौक, अटल- अड़वानी,  मोदी - योगी की जोड़ी को पूजा। इनमें से केवल मोदी - योगी ही  इसलिए सफल दिख रहे हैं क्योंकि,विपक्ष में कोई दमदार विकल्प ही नही बचा इस कारण वे संयोग से सफल हो रहे हैं।
जबकि बैचारे नितिन जयराम गडकरी और हेमन्त बिस्वा सोरेन को भाजपा में वह महत्व नही मिला जिसके वे अधिकारी हैं।

रविवार, 18 सितंबर 2022

नवरात्र पूजन विधि

नवरात्र पूजन विधि
नवरात्र का नियम है कि, 
१ द्वितीया युक्त प्रतिपदा, उदिया तिथि में सूर्योदय से चार घण्टे के अन्दर ही स्थिर / द्विस्वभाव लग्न में घटस्थापना करना चाहिए ।
देवता के दाहिने हाथ की ओर तथा उपासक के बाँये हाथ की ओर घी का दीपक रखें। तथा देवता के बाँये हाथ की ओर तथा उपासक के दाहिने हाथ की ओर तेल का दीपक लगाएँ।
२ नवरात्र में नौ तिथियों का महत्व है। नवरात्र चाहे आठ दिन का हो या नौ दिन का हो या दस दिन का नवरात्र हो महत्वपूर्ण तिथियाँ हैं दिन नही। इसी प्रकार तिथि और नक्षत्र का योग उस तिथि का महत्व बढ़ा देते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण केवल तिथि ही है, नक्षत्र नही।
जो कर्म जिस तिथि में और जिस समय में बतलाया गया है उस तिथि और समय में ही हो। चाहे उस दिन कोई सा भी नक्षत्र पड़े या अपेक्षित नक्षत्र रहे या न रहे। ऐसे ही नवरात्र में वार, योग, चौघड़िया , राहुकाल आदि का भी कोई महत्व नहीं है। 
३ प्रति दिन पहले १०८ मनको वाली तुलसी की माला से दो माला गायत्री का मन्त्र जप करें। 
फिर गीता प्रेस गोरखपुर की दुर्गासप्तशती में बतलाई गई विधि अनुसार प्रतिपदा तिथि से चतुर्थी तिथि तक एक- एक बार दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ करना चाहिए साथ ही तुलसी की एक सौ आठ मनके की माला से एक माला नवार्ण मन्त्र का जप अवश्य करें। ऋगवेदोक्त देवी सूक्त की व्याख्या अर्थात ब्राह्मण भाग श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् है। उसी अथर्वशीर्ष से निकला नवार्ण मन्त्र भी वैदिक मन्त्र ही है; तान्त्रिक मन्त्र नहीं है। अतः सात्विक उपासक तुलसी की १०८ मनकों की माला से ही जप करें। चाहे तो स्फटिक की माला भी प्रयोग कर सकते हैं। सकामोपासक राजसी उपासक रुद्राक्ष की माला का उपयोग करते हैं। तान्त्रिक तमोगुणी साधक मूंगा की माला से जप करते हैं।
और (ललिता) पञ्चमी से (दुर्गा) नवमी तक दो-दो बार दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ करना चाहिए साथ मे तुलसी की एक सौ आठ मनके की माला से दो माला नवार्ण मन्त्र का जप अवश्य करें। 
कुल चौदह पाठ होंगे। जो दशांश हवन, शतांश श्राद्ध-तर्पण और सहस्त्रांश ब्राह्मण भोजन तथा भूल-चूक के लिए अतिरिक्त पाँच पाठ और पाँच माला नवार्ण मन्त्र जप किया जाता है। इसलिए कुल चौदह पाठ और चौदह माला हो जाती है।
४ यथा शक्ति यथा सामर्थ्य या तो नौ दिन तक रोज एक एक कन्या को भोजन कराएँ इस प्रकार नौ दिन में कुल नौ कन्याओं को भोजन कराएँ, या पहली तिथि में एक कन्या द्वितीया में दो कन्या, तृतीया में तीन कन्या ऐसे बढ़ते क्रम में इस प्रकार नौ दिन में ४५ कन्याओं को भोजन कराएँ या प्रत्येक तिथि को नौ-नौ कन्याओं को भोजन कराकर नौ दिन में कुल ८१ कन्याओं को भोजन कराएँ।
५ जो सक्षम है, पूर्ण स्वस्थ्य हैं, कर सकते हैं वे ही प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन व्रत उपवास करें। या नौ दिन न कर पाए तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि को व्रत, उपवास अवश्य ही रखें। यदि तीन दिन न कर पायें तो अष्टमी और नवमी को व्रत उपवास अवश्य करें। यदि दो दिन भी न कर पायें तो नवमी को तो व्रत उपवास अवश्य करें ही। निर्णय सिन्धु पृष्ठ ३४२ पर स्पष्ट निर्देश है कि, पूजा (सेवा) मुख्य है, (भोजन त्याग रूप लंघन) उपास/ उपवास गौण है। उपास/ उपवास पूजा का अङ्ग है। मुख्य तो पूजा ही है। उपास उसमें सहायक है।
मूलतः उपास का अर्थ समीप आसन लगाना या समीप बैठना और उपासना का अर्थ समीप होना या समीप रहना है। भोजन न करने को लङ्घन कहते हैं; उपास या उपवास नहीं कहते।
६ षष्टि तिथि में प्रदोषकाल में बेलपत्र पौधे के पास जाकर जो भी पत्तियाँ पहली बार दिखे उनको प्रणाम कर आव्हान करें / नीमन्त्रण दें कि, दुसरे दिन अर्थात कल सप्तमी तिथि में सरस्वती के रूप में पूजन करने हेतु हम आपका आव्हान करते हैं / निमन्त्रित करते हैं। सप्तमी तिथि में प्रातः काल उक्त बेलपत्र को नमस्कार, पूजन कर आमन्त्रित कर तोड़ लें और घर लेजाकर दुर्गासप्तशती पुस्तक में रखकर प्रतिपदा से नवमी तक सरस्वती के रूप में पूजा करें। बेलपत्र में लक्ष्मी का वास है, तान्त्रिक लोग बेलपत्र के स्थान पर देशी खेजड़ी अर्थात शमी वृक्ष की पत्ती रखकर पूजा करते हैं।
७ मूल नक्षत्र युक्त सप्तमी तिथि महा सप्तमी कहाती है। सप्तमी तिथि मूल नक्षत्र में प्रातः पुनः  बेलपत्र  या शमी की उन्ही पत्तियों को प्रणाम कर आमन्त्रित कर तोड़ लें। और घर पर दुर्गासप्तशती की पोथी में लाकर सरस्वती के रूप में स्थापित कर पूजा करें। यह पोथी पाठ में काम नही आयेगी। अतः बिना फटी पुरानी पोथी लेना उचित है।
८ पूर्वाषाढ़ नक्षत्र युक्त अष्टमी महा अष्टमी कहलाती है। उत्तराषाढ़ नक्षत्र युक्त नवमी महा नवमी कहलाती है।
महा अष्टमी और महा नवमी की पूजा एक ही आसन पर बैठे बैठे ही बिना उठे ही करें। महाअष्टमी और महानवमी के सन्धि काल मे अष्टमी समाप्ति तक महाअष्टमी की पूजा करें फिर नवमी लगते ही महानवमी की पूजा करें।   
९ बलिदान मतलब धार्मिक कर अदायगी। कुष्माण्ड (भूरा कोला), मातुलिङ्ग (बिजोरा नींबू), आँवला, नारिकेल (नारियल), श्रङ्गार सामग्री, वस्त्राभूषण, अन्न - धन, गौ दान करनें को बलिदान कहते हैं। उत्तराषाढ़ नक्षत्र युक्त नवमी तिथि में सरस्वती के निमित्त बलिदान करें। फिर नवरात्र उत्थापन / उद्यापन करें। 
क्षत्रिय जन (सैनिक, पूलिस वाले, गार्ड आदि) लोहाभिसारण (शस्त्र पूजन) करते हैं।
१० दशमी तिथि दसरा/ विजया दशमी है। श्रवण नक्षत्र युक्त दशमी तिथि में प्रातः काल में दुर्गा सप्तशती में स्थापित सरस्वती अर्थात बेलपत्र या शमी के पत्तों का पूजन कर विसर्जन करें। विसर्जन में उक्त बेलपत्र ( या शमी की पत्तियों) का ही सरस्वती मान कर विसर्जन होता है पुस्तक का नहीं। फिर मध्याह्न  में अपराजिता का पूजन करें। 
विजया दशमी पर्वोत्सव पर अपराजिता की पूजा कर दसरा अर्थात दक्षिण दिशा की यात्रा करें।

सन्दर्भ ---

नवरात्र पूजन निर्णय - ठाकुर प्रसाद एण्ड संस द्वारा संवत २०२७ में प्रकाशित कमलाकर भट्ट प्रणीति ग्रन्थ निर्णय सिन्धु के अनुसार।

  प्रतिपदा तिथि उदयकाल में दो मुहुर्त (१ घण्टा ३६ सिनट) हो तो भी नवरात्र घटस्थापना में ग्राह्य है। 
 एक कला और अमावस्या युक्त प्रतिपदा तो नवरात्र घटस्थापना में कदापि न लें। - पृष्ठ ३२९, ३३१,

अधिक तिथि की स्थिति में शुद्ध तिथि होने से अमावस्या रहित प्रथम दिन ही लें। ऐसे ही क्षय तिथि की स्थिति में क्षण मात्र भी शुद्ध प्रतिपदा न हो तो अमावस्या युक्त प्रतिपदा भी ग्रहण करें।- पृष्ठ ३३०,

देवी का आवाहन, प्रवेश,पूजन और विसर्जन आदि समस्त कर्म प्रातः काल मे ही करें। - पृष्ठ ३३०,३३१ 

घटस्थापना सूर्योदय से १० नाड़ी (अर्थात ४ घण्टे) तक में करें। रात्रि में कदापि न करें।- पृष्ठ पर  ३३१, ३३५

महत्व केवल तिथि का है, तिथि देवता का शरीर है। (न दिन संख्या का, न करण का , न नक्षत्र का, न वार का, न योग का केवल तिथि का ही महत्व है शेष सब गौण हैं।) - पृष्ठ ३३१, ३३४,३४७, ३७२

प्रति तिथि में एक एक कन्या को भोजन कराएँ, या प्रतिपदा को एक, द्वितीया को दो, तृतीया को तीन ऐसे नवमी तिथि पर्यन्त बढ़ते क्रम से कन्या पूजन कर भोजन कराएँ। या प्रति तिथि नौ-नौ कन्याओं का पूजन कर भोजन कराएँ। - पृष्ठ ३३८

प्रतिपदा को जितनी पूजा करें, द्वितीया को उससे द्विगुणित, तृतीया को त्रिगुणित ऐसै ही नवमी तिथि पर्यन्त वृद्धि क्रम में पूजा, पाठ, जप आदि करें। - पृष्ठ ३४२, ३७२

नवरात्र में पूजा ही प्रधान है, उपवास आदि तो उसका अङ्ग है।
तिथि के ह्रास में दोनो तिथियों के निमित्त पूजा करें। - पृष्ठ ३४२, ३७२

संकल्प लेने के बाद या नवरात्र घटस्थापना होने के बाद सूतक होने पर सूतक में देवी पूजा और दान कर सकते हैं। निषेध नहीं है। लेकिन रजस्वला स्त्री दुसरे से पूजा करवाए - पृष्ठ ३४५

सौभाग्यवती/ सुहागिन स्त्री नवरात्र उपवास में भी श्रङ्गार कर सकती हैं, ताम्बूलादि चर्वणकर सकती है। (पान खा सकती है।) - पृष्ठ ३४५
नवरात्र में (सप्तमी को) मूल नक्षत्र प्रथम चरण में या मूल नक्षत्र में देवी का स्थापन करें । तथा (दशमी तिथि) श्रवण नक्षत्र प्रथम चरण या श्रवण नक्षत्र तक नित्य पूजन करें। (दशमी तिथि) श्रवण नक्षत्र प्रथम चरण या श्रवण नक्षत्र में विसर्जन करें। ए- पृष्ठ - ३४६

बङ्गाल, उड़िसा, असम आदि पूर्व और उत्तर पूर्व के प्रदेशों में नवरात्र के स्थान पर सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथि में त्रिरात्र का महत्व है। उनके कार्यक्रम ललिता पञ्चमी से विजया दशमी तक चलते हैं। उसमें भी १ज्येष्ठा नक्षत्र, २ मूल नक्षत्र, ३ पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र - ४ उत्तराषाढा नक्षत्र और ५ श्रवण नक्षत्र का विशेष महत्व है।


ज्येष्ठा नक्षत्र युक्त षष्ठी तिथि में बिल्व का अभिमन्त्रण (आवाहन) करे। ३४६, ३४७, 
यदि सप्तमी को पत्रिका प्रवेश दिन के पूर्व दिन सायंकाल में षष्ठी तिथि का अभाव हो तो, अधिवासन करना चाहिए। सायंकाल में अत्यन्त असत्व में अधिवासन का लोप हो जाता है पृष्ठ - ३४७
नवपत्रिका कथनम पृष्ठ ३४८ - १रम्भा (केल के पत्ते/ केला फल के पौधे के पत्ते), २ कवी (दारु हल्दी) के पत्ते, ३ हरिद्रा (हल्दी/ हलदी) के पत्ते, ४ जयन्ती (मेउडी) के पत्ते, ५ बिल्व (बिल्वपत्र/ बेलफल के वृक्ष के पत्ते), ६ दाडिम (अनार) के पौधे के पत्ते , ७ अशोक / सीता अशोक वृक्ष के पत्ते, ८ मानवृक्ष (अमलतास) के पत्ते, ९ धान्य (चांवल) के पत्ते, ९

मूल नक्षत्र युक्त सप्तमी तिथि में पत्रिका (उक्त कथित नव पत्रिका) का प्रवेश करें। (पत्ते तोड़कर घर लायें। सप्तशती पुस्तक में स्थापित करें।)
पूर्वाषाढ़ से युक्त अष्टमी तिथि में पूजा, होम,उपोषण आदि करें। - पृष्ठ ३४६, ३४७

देवता का शरीर तिथि है और तिथि में नक्षत्र आश्रित है। इसलिए तिथि के बिना नक्षत्र में (आह्वान, स्थापना, पूजन, बलिदान, विसर्जन आदि) नही करते हैं।
तिथि नक्षत्र योग हो तो दोनों के युग्म काल में करें। किन्तु तिथि-नक्षत्र के योग का अभाव हो तो केवल तिथि का ग्रहण करना चाहिए। - ३४७, ३४८, ३७२

पत्रिका प्रवेश और स्थापना में षष्टियुक्त सप्तमी न लेकर उदिया सप्तमी अर्थात शुद्ध सप्तमी तिथि में पत्रिका प्रवेश और स्थापना करें‌। पृष्ठ ३४८
नवरात्र व्रत, उपवास, आवाहन, प्रवेश, स्थापना , पूजन, बलिदान, विसर्जन सब में एक घटिका (२४ मिनट) उदिया तिथि मिले तो उदिया तिथि ही ग्रहण करें। एक घटिका (२४ मिनट) उदिया तिथि न मिले तो ही पूर्वविद्धा तिथि ग्रहण करे। - पृष्ठ ३४८, ३५०

पत्रिका पूजन (पत्ते का पूजन) भी पूर्वाह्न में ही करें। मूल नक्षत्र हो या न हो। - पृष्ठ ३४८

जो प्रतिपदा से नवमी तक उपवास करने में असमर्थ हो वे सप्तमी, अष्टमी, नवमी तीन तिथियों में उपवास करें। पृष्ठ - ३४८, ३४९

दक्षिणाभिमुखी दुर्गा प्रतिमा शुभ दात्री, पूर्वाभिमुखी दुर्गा प्रतिमा जय वर्द्धिनी, पश्चिमाभिमुखी दुर्गा प्रतिमा स्थापनार्थ सदा उत्तम है। किन्तु दुर्गा की उत्तराभिमुखी मुर्ति स्थापना कदापि न करें। - पृष्ठ ३५०

शारदीय नवरात्र में नवमी तिथि युक्त अष्टमी तिथि महाअष्टमी पूज्य होती है। - पृष्ठ ३५०

पहले दिन अष्टमी पूर्वाह्न व्यापि (मध्याह्न तक अष्टमी तिथि) हो तो ही पूर्वा अष्टमी तिथि ग्रहण करे। -३५५ 

यदि अष्टमी तिथि सूर्यास्त के पश्चात तक हो तो उसमें दुर्गोत्सव करें। पृष्ठ - ३५६

अष्टमी तिथि नवमी तिथि से युक्त हो तथा साथ में मूल नक्षत्र से युक्त हो तो महानवमी कहलाती है। यह योग अत्यन्त दुर्लभ है।- पृष्ठ ३५५, ३५७

उदिया नवमी तिथि तभी ग्रहण करे जब नवमी तिथि सूर्यास्त के पश्चात तीन मुहुर्त (२ घण्टा २४ मिनट) बाद तक रहे। - पृष्ठ ३६५

अष्टमी तिथि के अवशिष्ट भाग में और नवमी तिथि के पूर्व भाग में की हुई पूजा ही महाफल देने वाली है। 
अष्टमी पूजा मध्यरात्रि में महाविभव के विस्तार से करें। - पृष्ठ ३६६।

पूर्वाषाढ़ नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि में पूजा, होम, और उपवास करें - ३६७

प्रतिपदा से नवमी तकनीकी, या सप्तमी , अष्टमी और नवमी का व्रत उपवास का पारणा दशमी तिथि में करें। पृष्ठ- ३७२, ३७३

पारण में सूतक का निषेध नही है। पृष्ठ ३७४

मध्याह्न के दस पल (चार मिनट) बाद वाले प्रहर अपराह्न व्यापी दशमी तिथि को विजया दशमी कहते हैं।
यदि यह सूर्यास्त पश्चात तीन मुहुर्त (२ घण्टे २४ मिनट) पश्चात तक अर्थात प्रदोष व्यापिनी भी मिले तो सर्वोत्तम। यदि यह श्रवण नक्षत्र युक्त हो तो भी पूर्व विद्धा न करें। - पृष्ठ ३७७

आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को जागरी पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा परा ग्रहण करें। - पृष्ठ ३७८
विशेष --- बङ्गालियों का मत है कि, मुख्य नवरात्र तो चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से रामनवमी तक होती है, लेकिन (किष्किन्धा में सुग्रीव आवास पर रहते) श्री राम ने आश्विन शुक्ल पक्ष में (प्रतिपदा से दुर्गा नवमी तक) शक्ति पूजा कर विजया दशमी/ दसरा से शरद पूर्णिमा के बीच सीता जी की खोज हेतु दल भिजवाए थे। और रावण वध हेतु भी शक्ति पूजा की थी। इसलिए आश्विन मास में शुक्ल पक्ष में (प्रतिपदा से दुर्गा नवमी तक)शारदीय नवरात्र में शक्ति पूजा की नव्य परम्परा प्रारम्भ हुई। इसलिए वे शारदीय नवरात्र को अकाल नवरात्र अर्थात असामयिक नवरात्र कहते हैं।


शनिवार, 17 सितंबर 2022

जैन सम्प्रदाय अनीश्वर वादी, रुद्र, रुद्र-गणों तथा यक्षों के उपासक और तन्त्र मार्गी नास्तिक श्रमण संघीय संस्कृति को मानते हैं।

जैन सम्प्रदाय अनीश्वर वादी, रुद्र, रुद्र-गणों तथा यक्षों के उपासक और तन्त्र मार्गी नास्तिक श्रमण संघीय संस्कृति को मानते  हैं।
भारत में वैदिक काल से दो परम्परा रही पहला प्रवृत्ति मार्ग और दूसरा निवृत्ति मार्ग। 
१ प्रवृत्ति मार्ग का लक्ष्य धर्म,अर्थ, काम और मौक्ष पुरुषार्थ और जीवन पद्यति वैदिक वर्णाश्रम और पञ्चमहायज्ञ सेवी थी। विष्णु परम पद की प्राप्ति मौक्ष पुरुषार्थ का ही एक रूप था। वर्तमान में स्मार्त वैष्णव इन्ही के प्रतिनिधि हैं। 
प्रवृत्ति मार्ग में १ दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति की जोड़ी, २ रुचि प्रजापति - आकुति की जोड़ी, ३ कर्दम प्रजापति -  देवहूति की जोड़ी उत्पन्न किए। इनके अलावा ब्रह्मर्षि गण जिनका विवाह दक्ष- प्रसूति की पुत्रियों से हुआ और जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए) --  ४  ४ मरिची - सम्भूति, १५ अङ्गिरा - स्मृति,५ महर्षि भृगु - ख्याति   ६ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, ७ अत्रि - अनसुया, ८ पुलह - क्षमा, ९ पुलस्य - प्रीति, १० कृतु - सन्तति आदि ऋषियों तथा ११ स्वायम्भू मनु - शतरुपा की जोड़ी के अतिरिक्त विदेह जनक  आदर्श मानें जाते हैं। 
२ निवृत्ति मार्ग भी लक्ष्य धर्म,अर्थ, काम और मौक्ष पुरुषार्थ ही रहा लेकिन ये निसंकोच ब्रह्मचर्य आश्रम में ही सीधे सन्यस्त हो जाते या ग्रहस्थ आश्रम से सीधे सन्यस्त हो जाते थे। इसी प्रकार अन्य यज्ञों की तुलना में केवल ब्रह्मयज्ञ को और ब्रह्मयज्ञ के ही भाग अष्टाङ्ग योग को अधिक महत्व देते हैं। अर्थात वर्णाश्रम व्यवस्था का पूर्णतः पालन नही करते हैं। लेकिन ये निवृत्ति मार्गी भी वेदों को ही प्रमाण मानते हैं, इसलिए आस्तिक ही माने जाते हैं। ये भी विष्णु परमपद, सवितृ, नारायण, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, इन्द्र, आदित्य गण, वसु गण, रुद्रों और अन्य देवताओं को आदर करते हैं । इस लिए ईश्वरवादी मानें जाते हैं। सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन, नारद, वामदेव, ऋषभदेव, कपिल देव, भरत चक्रवर्ती का संन्यास उपरान्त नाम जड़ भरत और  शुकदेव आदि इसी श्रेणी के निवृत्ति मार्गी रहे हैं।
इनके अलावा श्रमण मार्गी भी निवृत्त मान लिये गये। इनमें भी कई सम्प्रदाय रहे। वैदिक आस्तिकों में दो प्रकार हैं।
 ३ अथर्ववेदी - अथर्ववेद के ऋषि महर्षि अङ्गिरा हैं। अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ गोपथ ब्राह्मण है। वस्तुतःअवेस्ता भी अथर्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ही था। इसके साथ गाथाएँ भी पढ़ी जाती थी। जैसे ऋग्वेद में भी गाथाएँ है, वैसेही अवेस्ता के साथ भी गाथाएँ थी। इसलिए कुछ लोग इसे लुप्त इतिहास पुराण भी मानते हैं। दयानन्द सरस्वती भी ब्राह्मण ग्रन्थों को इतिहास पुराण ही मानते हैं।
महर्षि अङ्गिरा के शिष्य अथर्वाङ्गिरस और घोर आङ्गिरस के अनुयाई, अथर्ववेदी ब्राह्मण चरक जो अकेले ही होम, हवन करते हैं। ये कठोर तपस्वी, हठयोगी होते थे। अध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर भौतिक और सांसारिक जीवन को सफल बनाने के उपरान्त उन्मुक्त जीवन यापन करने में विश्वास रखते हैं। ये वेदत्रयि की व्यवस्थाओं को पूर्णतः पालन नही करते।
महाभारत के बाद और विशेषकर वर्तमान में ये लुप्तप्राय हैं महाराष्ट्र में थोड़े से बचे हैं। सम्भवतः श्रीकृष्ण के चचेरे भाई अरिष्टनेमि इसी मत के थे।
पारसियों धर्म की स्थापना के पहले ईरान में प्रचलित याजक मग ब्राह्मणों और मूर्ति पूजक मीढ नामक श्रमण जनसमुदाय के लोगों का धर्मग्रन्थ अवेस्ता भी अथर्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ही था। इसके साथ गाथाएँ भी पढ़ी जाती थी। ईराक  के असीरिया प्रान्त की असीरियाई संस्कृति और धर्म का इष्ट असुर था। इस असुर के उपासक दक्षिण पश्चिम ईरान के निवासी ज़रथ्रुष्ट ने अवेस्ता ब्राह्मण ग्रन्थ की जेन्द टीका लिख कर अवेस्ता में ही गड्डमड्ड कर दी और इसका नाम जेन्दावेस्ता रख दिया। अब जेन्दावेस्ता और गाथा पारसी धर्म ग्रन्थ है।
४ कृष्ण यजुर्वेदीय - शुक्ल यजुर्वेद शुद्ध वैदिक ग्रन्थ है। जबकि कृष्ण यजुर्वेद में ब्राह्मण भाग भी मिश्रित माना गया है इसलिए कृष्ण यजुर्वेद को शुद्ध वेद नही माना जाता।
ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद और सामवेद प्राचीन वैदिक परम्परा के अनुरूप यज्ञ प्रधान है। जबकि कृष्ण यजुर्वेद मूर्ति पूजा और अभिषेक की पद्धति स्वीकार करता है।
ऐसा माना जाता है कि, यजुर्वेद पर रावण ने भाष्य लिखा और उसे मूल संहिता में ही गड्ड मड्ड कर दिया।
तन्त्र की उत्पत्ति कृष्ण यजुर्वेद और अथर्ववेद से ही मानी जाती है।
आस्तिक ईश्वरवादी निवृत्ति मार्ग में दो प्रकार के सम्प्रदाय हैं।
१ नागा साधु - ये पूर्ण आस्तिक, पूर्ण ईश्वरवादी, बाल ब्रह्मचारी या नैष्ठिक ब्रह्मचारी, कठोर तपस्वी संन्यासी होते हैं । रमण महर्षि भी लगभग इसी श्रेणी के सन्त थे।
२  वैरागी जिनके आदर्श भगवान शंकर रहे जो ग्रहस्थ होकर भी संन्यासी के समान ही रहते हैं। उदासीन भी इसी का एक मत है। इनको बाबाजी भी कहते हैं। रामानन्दी,कबीर, नानक, नानक पुत्र श्रीचन्द्रदेव आदि इनके उदाहरण है ।

तान्त्रिकों में भी दो प्रकार के सम्प्रदाय हैं।
१ ईश्वरवादी - दत्तात्रेय के अनुयाई नाथ सम्प्रदाय के श्रमण।
ये  शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा, त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप, भगवान शंकरजी, दत्तात्रेय के अनुयाई भद्रकाली और भैरव के उपासक होते हैं। वर्तमान में नाथ सम्प्रदाय, महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, युक्तेश्वर गिरि, योगानन्द, विशुद्धानन्द, हेड़ाखान,  रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, नीम करोली बाबा आदि इसी श्रेणी के हैं।
२ अनिश्वरवादी - ये बहुत कम पाये जाते हैं। इक्का- दुक्का हैं भी, लेकिन भगवाँ वस्त्र धारी होनें से नही पहचानें जाते हैं। कुछ लोग इन्हें सन्देह वादी मानते हैं। 
 ५ निरपेक्ष - वेदों को प्रमाण मानना है मानों, न मानना है मत मानों। यदि आपको ईश्वर सृष्टिकर्ता और नियन्ता लगता है तो मानों न लगता है तो मत मानों। इनका कोई आग्रह नहीं है। ये माध्यमिक बौद्ध कहलाते हैं।
६ नास्तिक और अनीश्वरवादी -- ये न वेदों को प्रमाण मानते हैं  ईश्वर को सृष्टि रचयिता और नियन्ता  भी नही मानते हैं।
१ पहले चार्वाक पन्थी थे जो वर्तमान में नही पाये जाते हैं।
२ वर्तमान में इस श्रेणी में केवल जैन ही पाये जाते हैं।
जैन रुद्रोपासक शैवपन्थ का ही एक रूप है। ये रुद्र, भैरव,(नाकोड़ा भैरव), भैरवी (पद्मावती), वीरभद्र, भद्रकाली, विनायक/ गजानन, मणिभद्र, कुबेर शीतला, धरनिन्द्र, घण्टाकर्ण महावीर आदि रुद्रगणों को देवताओं के समान पूजते हैं। लेकिन विष्णु विरोधी होने के कारण वैदिक देवताओं विष्णु और इन्द्र को तीर्थंकरों की सेवा करते हुए बतलाते हैं। 
तन्त्राचार्य राक्षसराज रावण को भावी तीर्थंकर मानते हैं।
पहले तो कोई अलग सम्प्रदाय नही था। इनकी गणना भी नास्तिकों और बौद्धों में ही होती थी। पार्श्वनाथ के अनुयाई वर्धमान महावीर स्वामी ने  सम्प्रदाय खड़ा कर नया नाम दिया जैन, ताकि, बौद्धों से प्रथक अस्तित्व दिखे।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

ऋतु का सम्बन्ध केवल सायन सौर संक्रान्तियों से ही नही अपितु भौगोलिक अक्षांशो से भी से है।

ऋतु का सम्बन्ध केवल सायन सौर संक्रान्तियों से ही नही अपितु भौगोलिक अक्षांशो से भी है। अर्थात देश-काल दोनों से है। क्योंकि समय की अवधारणा ही देश और काल/ दिक्काल से ही है।
सभी जानते हैं कि,
भूमध्य रेखा पर शिशिर ऋतु (ठण्ड) कभी नही होती।
ध्रुवों पर ग्रीष्म ऋतु (गर्मी) नही होती।
वर्षा ऋतु केवल मानसून क्षेत्रों में ही होती है। वह भी सब स्थानों में एक साथ नही अपितु अलग - अलग मानसून क्षेत्र में अलग - अलग समय होती है।
उत्तरी गोलार्ध और दक्षिणी गोलार्ध में ऋतुएँ परस्पर विपरीत होती है। पश्चिम यूरोप में वसन्त ऋतु और दक्षिण भारत में वसन्त ऋतु का समय भिन्न भिन्न होता है।
वैदिक साहित्य ब्राह्मण ग्रन्थों, सुत्र ग्रन्थो में जो ऋतु चक्र बतलाया है वह आर्यावर्त के अनुकूल है। आर्यावर्त पञ्जाब - हरियाणा से कश्मीर वाले क्षेत्र कहलाता है इसके लिए यह ऋतु चक्र बिल्कुल सटीक है। उसे यदि कर्क रेखीय क्षेत्र और कर्क रेखा से  दक्षिणी अक्षांशो पर/ दक्षिण भारत में देखें तो अनुचित होगा। वहाँ बिल्कुल भिन्न अवधि रहेगी।
प. बाल गंगाधर तिलक, प. व्यंकटेश बापूजी केतकर, प.शंकर बालकृष्ण दीक्षित,पं. दीनानाथ शास्त्री चुलेट आदि भारत के कई वैदिक विद्वानों के अनुसार आर्यावर्त में वैदिक वसन्त ऋतु विषुव सम्पात / सायन मेष संक्रान्ति/ (२१ मार्च) से आरम्भ होती है और शरद ऋतु शरद सम्पात/ सायन तुला संक्रान्ति/ (२३ सितम्बर) से आरम्भ होती है।
जबकि पौराणिक काल में कर्क रेखा पर स्थित अवन्तिकापुरी/ उज्जैन को भारत का केन्द्र मानकर वसन्त ऋतु आरम्भ सायन मीन संक्रान्ति सायन मीन संक्रान्ति/ (१८ फरवरी) से होना बतलाया है और शरद ऋतु आरम्भ सायन कन्या संक्रान्ति / (२३ अगस्त) से होना बतलाया है।  महाभारत के पश्चात पुष्यमित्र शुंग से राजा भोज तक के पौराणिक काल  में रचित गणित ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थो में भी उज्जैन को केन्द्र मानकर तदनुसार गणना की गई। 
अतः दोनों ही पक्ष अपने अपने स्थान पर पूर्णतः सत्य हैं। इसमें किसी का खण्डन और किसी का समर्थन नही किया जा सकता।

इसी आधार पर वैदिक मधु- माधव मास आरम्भ की संक्रान्तियों में भी मतभेद पड़ गया। प्रथम पक्ष वसन्त सम्पात/ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) से मधु मास आरम्भ मानता हैं। क्योंकि मधु- माधव मास में वसन्त ऋतु होती है। जबकि द्वितीय पक्ष सायन मीन संक्रान्ति (१८ फरवरी) से मधुमास आरम्भ मानता है और वसन्त सम्पात/ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) को मधुमास समाप्त होना मानता है।
प्रथम पक्ष का तर्क है कि, जैसे पूर्णिमान्त मास पर आपत्ति उठाई जाती है कि, आधा चैत्र मास व्यतीत होने पर मध्य चैत्र मास संवत्सर आरम्भ बतलाना अनुचित लगता है वैसे ही वसन्त ऋतु के मध्य में संवत्सर आरम्भ में करना भी अनुचित है।
इसी न्याय के अनुसार वे वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक/ सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति (२१ मार्च से २३ सितम्बर तक) उत्तरायण मानते हैं। जिस अवधि में दिन बड़े और रात छोटी होती है। और शरद सम्पात से वसन्त सम्पात तक सायन तुला संक्रान्ति से सायन मेष संक्रान्ति तक/(२३ सितम्बर से २१ मार्च तक) दक्षिणायन मानते हैं।
इसके पक्ष में भाषा शास्त्रीय प्रमाण देते हैं उत्तर अयन यानी सूर्य की उत्तर में स्थिति और उत्तर में गति होना है। जबकि, 
द्वितीय पक्ष पौराणिक और सिद्धान्त ज्योतिष उत्तर की ओर गति मान कर उत्तर परम क्रान्ति / सायन मकर संक्रान्ति (२२ दिसम्बर) से दक्षिण परम क्रान्ति/ सायन कर्क संक्रान्ति (२२ जून) है तक उत्तरायण मानता है। प. दीनानाथ शास्त्री चुलेट इस अवधि को उत्तर तोयन प्रमाणित करते हैं। और दक्षिण परम क्रान्ति से उत्तर परम क्रान्ति तक अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति से सायन मकर संक्रान्ति तक (२२ जून से २२ दिसम्बर तक) की अवधि को दक्षिण तोयन कहते हैं। जिसे पौराणिक और सिद्धान्त ज्योतिष दक्षिणायन कहते हैं।
 प्रथम पक्ष का तर्क यही है कि, उत्तरायण के मध्य से संवत्सर आरम्भ अनुचित है। आधा उत्तरायण मे संवत्सर में आरम्भ मानना उसी प्रकार अनुचित है जैसे मध्य चैत्र मास में संवत्सरारम्भ अनुचित है।

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र - वेराजदेवों, ऋषियों और मानवों का उत्पत्ति स्थल

हरियाणा का  धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र  (थानेसर जिला) वाला क्षेत्र प्राचीन ऋषि देश कहलाता है ।क्योंकि, प्रजापति ब्रह्मा नें एवम् १अर्धनारीश्वर महारुद्र २ सनक,  ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद, ७ इस क्षेत्र के राजा धर्म, ८ अग्नि - स्वाहा की जोड़ी, ९ पितरः (अर्यमा) - स्वधा की जोड़ी, के अलावा तीन प्रजापति -  १० दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति की जोड़ी, ११ रुचि प्रजापति - आकुति की जोड़ी, १२ कर्दम प्रजापति -  देवहूति की जोड़ी उत्पन्न किए। इनके अलावा ब्रह्मर्षि गण उत्पन्न किए जिनका विवाह दक्ष- प्रसूति की पुत्रियों से हुआ और जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए) --  १३ महर्षि भृगु - ख्याति  (जो मैरे आदि पूर्वज हैं) तथा १४ मरिची - सम्भूति, १५ अङ्गिरा - स्मृति, १६ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १७ अत्रि - अनसुया, १८ पुलह - क्षमा, १९ पुलस्य - प्रीति, २० कृतु - सन्तति आदि ऋषियों तथा २१ स्वायम्भू मनु - शतरुपा की जोड़ी को कुरुक्षेत्र में ही उत्पन्न किया था । 
इसे गोड़ देश भी कहते हैं। पञ्जाब - हरियाणा का मालव प्रान्त भी इससे लगा हुआ है। और कुछ क्षेत्र तो कॉमन ही है।
विक्रमादित्य के दादा जी महाराज नबोवाहन जो सोनकच्छ के निकट गन्धर्वपुरी में आकर बसे थे, उनके पुत्र गन्धर्वसेन ने गन्धर्वपुरी को राजधानी बनाया। कहा जाता है कि, चूँकि,नबोवाहन पञ्जाब हरियाणा के मालवा प्रांत के राजा थे इसलिए उसकी स्मृति में मालवा के पठार का नाम मालवा रखा गया।
आद्यगोड़, श्रीगोड़, गुजरगोड़ आदि पञ्चगोड़ ब्राह्मण यहीँ उत्पन्न हुए थे। हमारे पूर्वज इस गोड़ देश/ ऋषि देश से श्रीनगर में बस गए इसलिए श्रीगोड़़ कहलाए। औरंगजेब के अत्याचारों से त्रस्त होकर  मालवा आ गये तो मालवी श्रीगोड़़ कहलाये।
मैरे पूर्वजों की भूमि श्रीनगर के निकट देवगढ़ नामक स्थान है, इसलिए हमारे पूर्वज देवगढ़ के व्यास कहलाते थे। वहाँ जानें की बचपन से इच्छा रही है। पर अभी तक जा नही पाया।

बुधवार, 14 सितंबर 2022

भागवत पुराण, वायु पुराण, शिव पुराण, मार्कण्डेय पुराण, दुर्गासप्तशती की रचना बोपदेव ने राजा भोज के समय की।

राजा भोज के समय तेलंगाना के तेलंग ब्राह्मण बोपदेव वेदव्यास जी के नाम पर तीन पुराण - 
१ भागवत पुराण -भाद्रपद शुक्ल पक्ष में अष्टमी से पूर्णिमा तक मन्दिरों में भागवत सप्ताह सत्र आयोजित कर कथा वाचक पौराणिक पण्डित एक सप्ताह में भागवत कथा सुनाते हैं। 
२ वायु पुराण जिसका एक भाग शिव पुराण कहलाता है जो शैव सम्प्रदाय का सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। आजकल श्रावण मास में और अन्य माहों में भी शिवपुराण के आयोजन प्रचलित हो गये हैं।
३ मार्कण्डेय पुराण जिसमें जिसका पाठ नवरात्र में होता है। शाक्तपन्थ और तन्त्रशास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ दुर्गा सप्तशती है।
राजा भोज नें उनकी भाषा,शैली और काव्य की प्रशंसा करते हुए कहा कि, यदि आप स्वयम् के नाम पर इसे लिखते तो मैं पुरस्कार देता। लेकिन महर्षि वेदव्यास जी के नाम पर लिखकर आप जनता को धोखा दे रहे हैं इसलिए आप मृत्यु दण्ड के पात्र हैं।
चूंकि ब्राह्मण अवध्य होता है अतः मैं आपको देश निकाला का दण्ड देता हूँ।
इसी भागवत पुराण में सिद्धार्थ गोतम बुद्ध को कलियुग में जन्मा नौवा अवतार बतलाया है।
इसलिए आपके मित्र गलत होते हुए भी एकदम ग़लत नही है।
दोष उनका नही हमारे पोंगे पण्डितों का है जो इन मिथ्या ग्रन्थो का प्रचार कर रहे हैं।

भारत का नाम हिम वर्ष, नाभि वर्ष और भारत वर्ष तथा भरतखण्ड।

भारत का नामकरण - भारतवर्ष होना।

विष्णु पुराण द्वितीय अंश/ प्रथम अध्याय / श्लोक ११ से ३३ के अनुसार जम्बूद्वीप के दक्षिण के भाग हिम वर्ष को ही कालान्तर में राजाओं के नाम पर नाभि वर्ष या अजनाभ वर्ष तथा भारतवर्ष नाम रखा गया।
स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत हुए। प्रियव्रत ने एक पुत्र आग्नीध्र को जम्बूद्वीप का शासनाधिकार दिया।
आग्नीध्र ने अपने एक पुत्र नाभि या अजनाभ को जम्बूद्वीप के दक्षिण का भाग हिम वर्ष पर शासनाधिकार दिया।
इसी हिमवर्ष का नाम अजनाभ / नाभि नें नाभिवर्ष या अजनाभ वर्ष रखा।
अजनाभ/ नाभि ने अपने पुत्र ऋषभदेव को नाभि वर्ष का शासनाधिकार दिया। 
ऋषभदेव अपने पुत्र भरत चक्रवर्ती को नाभि वर्ष का शासनाधिकार दिया। इन्ही भरत ने हिमवर्ष या नाभिवर्ष का नाम भारत वर्ष रखा।
चन्द्रवंशी दुष्यन्त के शकुन्तला से उत्पन्न पुत्र भरत द्वारा शासित क्षेत्र भरतखण्ड कहलाता है।

मंगलवार, 13 सितंबर 2022

समय की कमी - सत्य या आवश्यक कार्य केवल टालने की प्रवृत्ति?

समय की कमी - सत्य या आवश्यक कार्य केवल टालने की प्रवृत्ति?
प्रत्येक व्यक्ति दिनभर व्यर्थ की परिचर्चा में बहुत सा समय व्यतीत कर देता है। आदि से अन्त तक एक ही बात की बारम्बार पुनरावृत्ति करना, या अपनी त्रुटियों/गलतियों को स्वीकार कर सुधारनें का निश्चय करने के स्थान पर, नये नये आधारों और तर्कों से अपनी त्रुटियों/गलतियों को उचित ठहराया जानें का प्रयत्न करते रहने, और इसका प्रारुप तैयार करनें हेतु अत्यधिक सोच विचार करनें में हम अधिकतम समय, शक्ति और सामर्थ्य व्यर्थ करते हैं।
जबकि विश्व की विभूतियों नें इन विषयों पर न कभी विचार किया न चर्चा की। त्रुटि स्वीकारी, सुधारी या भविष्य के लिए सावधान रहे। जो भी कार्य किया पूर्ण जानकारी प्राप्त कर कुशलतापूर्वक एक ही प्रयास में पूर्ण किया। वे बारम्बार सुधारने की गुंजाइश नही रखते हैं। इसलिए सफल होते हैं।
जबकि,  वास्तविक कार्य के लिए हमारे पास प्राथमिकता ही नही रहती और हम व्यर्थ विचार और चर्चाओं में इतने मशगूल रहते हैं कि, उस वास्तविक कार्य करने के लिए समय ही नहीं रहता।
यदि वास्तव में समय की कमी होती तो बड़े-बड़े राजनेताओं, राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमन्त्री - मन्त्रियों, सचिवों, बड़ी-बड़ी कम्पनियों के स्वामियों, चेयरपर्सन, सी.ई.ओ. संचालकों को तो कभी समय ही नही मिलता। लेकिन वे अपने कार्य विस्तार करते रहते हैं। कभी - कभार ही उलझन अनुभव करते हैं। उनके विचार प्रायः सुलझे हुए ही होते हैं।
लेकिन इससे विपरीत समय की कमी उन्हीं को रहती है जो उक्त लोगों की तुलना में नगण्य कार्य करते हैं।  कोई बड़ा व्यवसायी किसी छोटे व्यवसायी को उसके उद्यम के साथ कुछ पूरक उद्यम का सुझाव देता है तो छोटा व्यवसायी उत्तर देता है, इस काम से ही फुर्सत नही मिल पाती, टेमीज नी है भिया। कहाँ से करूँ, एकला पड़ जाता हूँ। जबकि वह यह भूल जाता है कि, सामनें वाला भी अकेला ही बहुत से उद्यम संचालित करते हुए नित नई प्रगति कर रहा है।
घर में बैठे अधिकांश कार्मिकों, गृहणियों, अकुशल श्रमिकों यहाँ तक कि, भिखारियों को कहते सुना जा सकता है कि, समय ही नही मिलता, टेम नी है भिया।

रविवार, 11 सितंबर 2022

सनातन धर्मियों का उद्धारक।

अभी तक तो मोदी राज में भी फ्री राशन और मकान बनाने पर सब्सीडी और सनातन धर्मियों की  सर तन से जुदा होते हुए ही देखे हैं। बङ्गाल के भाजपाई अत्यन्त भयभीत हैं। केरल में संघ कार्यकर्ताओं की हत्या हो रही है।

जिस दिन जो दल और नेता वास्तव में आतंकवादी ट्रेनिंग सेण्टर मदरसे बन्द करवा देगा। अजान पर रोक लगा देगा, सनातन धर्मियों को उत्सवों पर निर्भय कर देगा, हज हाउस और वक्फबोर्ड की सम्पत्ति सरकारी सम्पत्ति घोषित कर देगा, समस्त पुराने एतिहासिक मन्दिरों को उनका गौरव पुनः दिला देगा, बहु विवाह बन्द कर जनसंख्या नियंत्रण कर देगा, विदेशियों को वापस भगा देगा, सनातन धर्मियों का मतान्तरण बन्द कर पहले मतांतरित हुए ईसाई -मुस्लिमों को स्वधर्म में ले आयेगा तभी निर्विवाद रूप से सभी सनातन धर्मी उसे अपना उद्धारक मान लेंगे।

केवल मीडिया सेल के प्रचार से कोई नही मानेगा। कर के दिखाना होगा।

फिर भी निम्नांकित भा.ज.पा. नेता मुझे पसन्द हैं।
१ नरेन्द्र दामोदरदास मोदी प्रधानमन्त्री
२ नितिन गडकरी भारत शासन के केबिनेट मन्त्री (सड़क परिवहन, राजमार्ग, जहाजरानी, जल संसाधन, नदी विकास, गङ्गा संरक्षण मन्त्रालय)।
३ हिमन्ता बिस्वा सरमा असम के मुख्यमन्त्री
४ बासवराज बोम्बई कर्नाटक के मुख्यमन्त्री
५ योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री

मंगलवार, 6 सितंबर 2022

मैरे सन्देश - मैरी मंशा

मैरे सन्देशों में कुछ बातों की आवृत्ति बारम्बार की जाती है। जो सन्देश प्रसारण की मेरी मंशा स्पष्ट करती है।
मेरे मत में ---
मुख्य धर्मशास्त्र ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद , कृष्ण यजुर्वेद संहिता है।  इन वैदिक संहिताओं को ही परम प्रमाण मानता हूँ।
उक्त संहिताओं के ब्राह्मण ग्रन्थ, (ब्राह्मण ग्रन्थों के ही अन्तिम भाग आरण्यक और अन्तिम अध्याय उपनिषद सहित पूरे ब्राह्मण ग्रन्थों) को प्रमाण मानता हूँ। 
वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में जो आदेश, निर्देश, नीति, धर्म मीमान्सा, तत्व मीमान्सा, ज्ञान मीमान्सा दर्शन हैं वही मैरे लिए प्रथम एवम् अन्तिम सत्य है और मुख्य प्रमाण है।

उक्त वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण,आरण्यक और उपनिषदों को समझने के लिए मुख्य आधार ग्रन्थ - उक्त चारों वेदों के उपवेद और वेदाङ्ग के ग्रन्थों तथा दर्शन शास्त्र के ग्रन्थ हैं। इन उपवेद, वेदाङ्ग और दर्शन के ग्रन्थों के आधार पर ही वेदों को समझा जा सकता है। यहीँ तक उल्लेखित ग्रन्थ ही वैदिक धर्मग्रन्थ हैं।
उपवेद - १ आयुर्वेद,२ धनुर्वेद, ३ गन्धर्व वेद ४ स्थापत्य वेद/ शिल्पवेद के ग्रन्थ उपवेद कहलाते हैं। तथा 
वेदाङ्ग -  १ कल्प, २ ज्योतिष, ३ शिक्षा, ४ व्याकरण, ५ निरुक्त, ६ छन्द के ग्रन्थ वेदाङ्ग कहलाते हैं । इसके अलावा जैमिनी की पूर्वमीमान्सा दर्शन और बादरायण की उत्तर मीमान्सा दर्शन और श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन को भी वेदाङ्ग में ही गणना की जा सकती है।

1 कल्प - १ शुल्ब सुत्र २ श्रोत सुत्र ३ गृह्यसुत्र ४ धर्मसुत्र कल्प कहलाते हैं।
(धर्मसुत्रों के सम्पादित ग्रन्थ ही स्मृति कहलाते हैं।)
ब्राह्मण ग्रन्थों की पूर्व मीमान्सा तथा आरण्यकों और उपनिषदों  की उत्तर मीमान्सा दर्शन तथा श्रीमद्भगवद्गीत भी कल्प के ही भाग माने जा सकते हैं। अतः ये भी अत्यन्त महत्वपूर्ण शास्त्र हैं।
2 ज्योतिष - सिद्धान्त ज्योतिष - १ ब्रह्माण्ड विज्ञान २ गणित (एस्ट्रोनॉमी Astronomy), ३ खगोल और ४ संहिता (मौसम विज्ञान, वास्तु शास्त्र, मुहुर्त,  सामुद्रिक शास्त्र, शकुन आदि इसी के भाग हैं)
3 भाषा सम्बन्धी वेदाङ्ग ---
१ शिक्षा / उच्चारण शास्त्र (फोनेटिक्स Phonetics), 
२ निरुक्त और  निघण्टु  - भाषा शास्त्र/ भाषाविज्ञान - शब्द व्युत्पत्ति और शब्दकोश , 
३ व्याकरण, 
४ छन्द/ काव्य शास्त्र, पिङ्गल शास्त्र।

यहाँ तक उल्लेखित ग्रन्थ वैदिक धर्म शास्त्र कहलाते हैं।

4 दर्शन शास्त्र - 
१जेमिनी की पूर्व मीमान्सा, 
२ बादरायण की उत्तर मीमान्सा, 
३ श्रीमद्भगवद्गीता कर्मयोग शास्त्र, 
(उक्त तीनों मीमान्सा दर्शन भी वैदिक धर्म ग्रन्थ ही हैं।)
४ कपिल का सांख्य शास्त्र और ईश्वर कृष्ण आदि की सांख्य कारिकाएँ, 
५ पतञ्जली का योग दर्शन, 
६ गोतम का न्याय दर्शन, 
७ कणाद का वेशेषिक दर्शन।

४ स्मृतियाँ - धर्मसुत्रों के आधार पर रचित बीस स्मृतियाँ। ये तुलनात्मक अर्वाचीन ग्रन्थ हैं। इसमें मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति तथा ब्रहस्पति स्मृति अधिक मान्य हैं।
इतिहास के ग्रन्थ ---
५ वाल्मीकि रामायण।
६ वेदव्यास रचित महाभारत।
७ गर्ग संहिता।(श्रीकृष्ण चरित्र।)
(उक्त ऐतिहासिक ग्रन्थों में उल्लेखित तथ्य भी इतिहास की दृष्टि से प्रमाण की कोटि में आते हैं।)

८ अठारह पुराण, अठारह उप पुराण।
(इनमें विष्णु पुराण वेदव्यास जी के पिता महर्षि पाराशर की रचना मानी जाती है और शेष महर्षि वेदव्यास जी की रचना। जबकि वास्तविकता यह है कि, इतिहास - पुराण का उल्लेख तो वेदों में भी है। महर्षि दयानन्द ब्राह्मण ग्रन्थों को पुराण मानते थे। कुछ लोग (पारसी धर्मग्रन्थ जेन्दावेस्ता का मूल ग्रन्थ अवेस्ता जिसपर ज़रथ्रुष्ट ने व्याख्या की है उक्त मूल ग्रन्थ) अवेस्ता को अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ और कुछ पुराण मानते हैं क्योकि, जेन्दावेस्ता के साथ भी गाथाएँ जुड़ी है जैसे वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों के साथ गाथाएँ जुड़ी है। 
वर्तमान उपलब्ध पुराण पुष्यमित्र शुङ्ग से राजा भोज के शासनकाल में रचे गए ग्रन्थ हैं। 
वेदव्यास जी के नाम से वायु पुराण जिसका एक भाग शिवपुराण है, भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण की रचना कर तेलंङ्ग ब्राह्मण बोपदेव ने धार के राजा भोज (प्रथम) के समक्ष प्रस्तुत किये। राजाभोज नें ग्रन्थो की भाषा, शैली, काव्य की साहित्यिक दृष्टि से प्रशंसा करते हुए कहा कि, यदि इन ग्रन्थों को आपने अपने ही नाम पर लिखा होता तो मैं आपको इनाम देता। लेकिन प्राचीन ऋषि के नाम का दुरुपयोग कर आप मृत्यु दण्ड के भागी बने हैं। लेकिन ब्राह्मण अवध्य होता है, इसलिए आपको देश निकाला का दण्ड देता हूँ।
इसलिए पुराण प्रमाण की कोटि में नही आते हैं। पुराणों के केवल वेद सम्मत भाग ही ग्राह्य हैं।

९ निबन्ध ग्रन्थ - शुल्ब सुत्रों, श्रोत सुत्रों, गृह्यसुत्रों,  धर्मसुत्रों,  स्मृतियों और पुराणों के आधार पर सम्पादित निबन्ध ग्रन्थों में उक्त शास्त्रों के  निर्णयों की मीमान्सा की गई है। इसलिए वर्तमान में कर्मकाण्ड में स्व. शास्त्री दुर्गाशंकर उमाशंकर शर्मा द्वारा रचित तथा उनके पुत्र यज्ञदत्त उमाशंकर ठाकुर द्वारा परिवर्धित ब्रह्मनित्यकर्म समुच्चय तथा यज्ञ एवम् वेदी निर्माण सम्बन्धित ग्रन्थों की मान्यता है । धार्मिक निर्णयों में स्व. कमलाकर भट्ट रचित निर्णय सिन्धु तथा काशीनाथ उपाध्याय रचित धर्मसिंधु को पौराणिक जन प्रमाण के रूप में स्वीकार करते है। जबकि आर्यसमाज महर्षि दयानन्द सरस्वती रचित ग्रन्थों को आधारभूत प्रामाणिक ग्रन्थ मानताहै।
सुचना --- शास्तों के नाम जानने के लिए कृपया मेरा ब्लॉग ब्राह्म धर्म के वैदिक शास्त्र, ब्राह्मण धर्म के ब्राह्मणारण्यकोपनिषद, दर्शन, सनात धर्म के स्मार्त शास्त्र,रामायण, महाभारत,पुराणादि धर्मशास्त्र और आगम,तन्त्र,निबन्ध ग्रन्थ आदि हिन्दू धर्मशास्त्र पढ़नें का कष्ट करें।⤵️
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१० क्रमांक १ से ३ तक वेद, ब्राह्मण, उपवेद, वेदाङ्ग, शास्त्र को श्रोत्रिय / वैदिक लोग मानते हैं। और १ से ४ तक वेद, ब्राह्मण, उपवेद, वेदाङ्ग, शास्त्र और स्मृतियों को स्मार्त जन निर्विवाद स्वीकारते हैं।
१ से ७ तक वेद, ब्राह्मण, उपवेद, वेदाङ्ग, शास्त्र, स्मृतियों , रामायण, महाभारत और पुराणों के वचनों को भी स्मार्त जन आदर देते हैं। लेकिन पूर्णतः पालन केवल पौराणिक ही करते हैं
अतः निबन्ध ग्रन्थों को भी स्मार्त स्वीकार्य मानते हैं।
११ लेकिन अलग-अलग मत, पन्थ, आम्नाय, सम्प्रदायों और मठों के अलग अलग आगम ग्रन्थ हैं। ये आगम ग्रन्थ तन्त्र कहलाते हैं जिन्हें उन मत, पन्थ, आम्नाय, सम्प्रदायों और मठों के अनुयाई ही मानते हैं। उनमें भी कई शाखाएँ हो गई है। उनके अपनी अलग अलग व्याख्या है। वैदिक एम् स्मार्त इन्हें स्वीकार नही करते हैं, मान्यता नही देते हैं।
मत, पन्थ, आम्नाय, सम्प्रदायों और मठों के आगम ग्रन्थों में कई वेद विरुद्ध वचन और मत उधृत किये हैं।मत, पन्थ, आम्नाय, सम्प्रदायों और मठों के अनुयाई इनको भी श्रद्धा पूर्वक स्वीकारते हैं। इसलिए मुझे इन आम्नायों के आगम ग्रन्थों में श्रद्धा नही है। 

१२ वैदिक/ श्रोत्रिय और स्मार्त जन पर्वकाल को महत्व देते हैं। अर्थात जिस व्रत, पर्व या उत्सव की जो ऋतु, जो मास, जो पक्ष, जो तिथि और जो समय शास्त्रों में बतलाये गये हैं जब इन चारों का योग होता है तभी व्रत रखा जाता है, पर्व माना जाता है और उत्सव मनाया जाता है।
इसलिए व्रत उसी निर्धारित तिथि में किया जाता है दुसरे दिन नही। जैसे एकादशी का व्रत एकादशी में ही करते हैं। द्वादशी में नही।  

१३ उत्सव भी उसी समय मनाया जाता है जब सम्बन्धित उत्सव का पर्वकाल हो। जैसे मध्यान्ह में चैत्र शुक्ल नवमी तिथि हो तभी राम नवमी मनाते हैं। सूर्योदय के समय चैत्र पूर्णिमा हो तभी हनुमान जयन्ती मनाते हैं। और सूर्यास्त के समय वैशाख शुक्ल चतुर्दशी तिथि हो तभी नृसिंह जयन्ती मनाते हैं। मध्य रात्रि में अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी होनें पर ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है। न उदिया तिथि को महत्व देते हैं न रोहिणी नक्षत्र पर चन्द्रमा होना आवश्यक मानते हैं।

१४ व्रत पूर्ण तभी माना जाता है जब व्रत की अगली तिथि में ही भोजन कर व्रत का पारण होना आवश्यक है। जैसे एकादशी का पारण द्वादशी तिथि में होना आवश्यक है। लेकिन शंखचक्रांकित महाभागवत, पौराणिक वैष्णव द्वादशी तिथि में भी एकादशी का व्रत करते हैं।

१५ इसी प्रकार ऋतुओं का भी महत्व है। रामनवमी वसन्त ऋतु में और सायन मेष राशि के सूर्य में जन्मोत्सव मनाया जाना चाहिए। 
१५ लेकिन वर्तमान में सायन संक्रान्तियों की तुलना में निरयन सौर मासों का आरम्भ लगभग २४ - २५ दिन बाद होता है। इस कारण ऋतु और सायन सौर मास का पालन नही हो रहा है।
१६ सभी पञ्चाङ्ग शोधन समितियों में सायन संक्रान्तियों पर आधारित सौर मास के गतांश या गते के आधार पर व्रत, पर्व और उत्सव मनाने या सायन संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मास की तिथियों से  व्रत, पर्व और उत्सव मनाने का अभिमत दिया गया। दो- दो शंकराचार्य भी स्वीकार कर चुके हैं। 
१७ लेकिन पञ्चाङ्गकारों का स्वार्थ और उनकी जीद के कारण यह सम्भव नही हो पाया है। इससे सनातन धर्मियों का धर्मभ्रष्ट हो रहा है।
१८ आम्नायों और आगम ग्रन्थो के आधार पर सम्प्रदायों और मठों / मन्दिरों में गलत तिथियों में व्रत, पर्व और उत्सव मनाए जाते हैं। इससे नास्तिकता फैल रही है। 
१९ इसलिए भारत शासन को पहल कर व्रत, पर्व और उत्सवों में एकरूपता लानें के लिए धर्माचार्यों, कर्मकाण्ड करवाने वालों और पञ्चाङ्ग कर्ताओं को वैदिक धर्मशास्त्र, शुल्बसुत्र, श्रोतसुत्र, ग्रह्यसुत्र, धर्मसुत्रों  और सिद्धान्त ज्योतिष  अर्थात गणित और खगोल (एस्ट्रोनॉमी) का गहन अध्ययन करना आवश्यक करना चाहिए। 
२० वर्णाश्रम धर्म के अनुसार जीवन यापन आवश्यक होना चाहिए।
२१ पञ्च महायज्ञ, पञ्चाग्नि सेवा और अष्टाङ्गयोग तथा वैदिक दर्शन का सबको ज्ञान कराया जाए। तथा दृढ़तापूर्वक पालन करवाया जाए। इसके लिए गुरुकुल पुनर्स्थापित किये जाए।
२२ सभी को तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, और सैन्य शिक्षा आवश्यक हो। ताकि, प्रत्येक व्यक्ति में राष्ट्रीयता जागृत हो।
यही मेरा मन्तव्य है जिसके लिए मैं सन्देश प्रसारित करता रहता हूँ।