मंगलवार, 28 जुलाई 2020

पिशाच क्या होते हैं। मानवेत्तर योनि या मानव या दोनों?

*पिशाच योनि*

पिशाच और पिशाचिनियां, कर्ण पिशाचिनी, काम पिशाचिनी आदि भी होती हैं जिनकी साधनाओं का भी प्रचलन है। सिंहासन बत्तीसी में जो पुतलियां थीं वे सभी पिशाचिनी ही थीं। वेदों के अनुसार दैत्य और दानवों का विकृत रूप पिशाच हैं।   प्रेत (शव) भक्षक पिशाच वेताल कहलाते हैं।  ब्रह्मपुराण के अनुसार पिशाच लोगों को गंधर्व, गुह्मक और राक्षसों के समान ही 'देवयोनि विशेष' कहा गया है।
सामर्थ्य की दृष्टि से इन्हें इस क्रम में रखा गया है- गंधर्व, गुह्मक, राक्षस एवं पिशाच।
ये चारों लोग विभिन्न प्रकार से मनुष्य जाति को पीड़ा देते हैं।
इनकी पूजा करने वाला इनके ही जैसा हो जाता है। 
पिशाच राक्षसों और मानवों के साथ और पितरों के विरोधी थे।  वैताल  प्रेत (शव) भक्षक  है।

*पिशाच जाती जो वर्तमान में पठान भी कहलाती है।*
पौराणिक सन्दर्भ ----
गृहीत्वा तु बलं फाल्गुन: पांडुनंदन: दरदान्‌ सह काम्बौजैरजयत्‌ पाकशासिनि:।' [महाभारत, सभापर्व, 27/ 23]
महाभारत के सभापर्व, 27/ 23 केअनुसार अर्जुन ने दिग्विजय यात्रा में दरद देश पर विजय प्राप्त की थी। इसी दरद देश में पिशाच जाती निवास करती थी। जो महाभारत युद्ध में पांडवों की ओर से लड़े थे। महाभारत में दरद के साथ ही काम्बोज (ताजिकिस्तान) का भी वर्णन आया है इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि, यह दरद देश काम्बोज देश के निकट था। अर्थात किर्गिज़स्तान ही दरद देश हो सकता है। मार्कंडेय पुराण में वर्णित दरद प्रदेश उत्तरी कश्मीर और दक्षिणी रूस के सीमांत पर स्थित  गिलगित और यासीन का इलाका दर्दिस्थान कहलाता है इस दरद देश की राजधानी दरतपुरी थी। विष्णु पुराण में भी दरद देश का उल्लेख है। संस्कृत साहित्य में 'दरद' और 'दरत' दोनों ही रूप मिलते हैं। तथा टॉलमी तथा स्ट्रेबो ने भी दरदों का वर्णन किया है।
महाभारत, भीष्मपर्व, 50/50 के अनुसार--
द्रौपदेयाभिमन्युश्च सात्यकिश्च महारथ:,
पिशाचादारदाश्चैव पुंड्रा: कुंडीविषै: सह'।
 महाभारत के अनुसार पिशाच जाती अनार्य तथा असभ्य जातियों में से एक थी ।
कुछ विद्वानों ने 'दरिद्र' शब्द से 'दरद' से ही व्युत्पन्न माना है। और उनके अनुसार यह शब्द दरदवासियों की हीनदशा का द्योतक था।

मूल निवास और प्रवास ---

पिशाच रुस के केस्पियन सागर क्षेत्र ताजिकिस्तान  और चीन के शिंजियांग स्वायत्तशासी क्षेत्र उइग़ुर ख़ाङ्नत आदि के सीमांत प्रदेश, ,ईरानी बलोचिस्तान के कजान ख़ानत या ख़ाङ्नत,  और खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्रों,अफगानिस्तान  का पाकिस्तान से लगा भाग नूरीस्तान ,पाकिस्तानी बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा,और  भारत के पश्चिमोत्तर  अर्थात आधूनिक नूरीस्तान के निवासी थे। इसी क्षेत्र में पिशाचों का दरद देश था। 

सांस्कृतिक इतिहासकार मानते हैं कि, जाता है कि,प्रजापति कश्यप के साथ आये भैरव उपासक शैव मतावलम्बी पिशाच लोग रूस के कैस्पियन क्षेत्र, अफगानिस्तान और  भारत के पश्चिमोत्तर, बलोचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्रों से अर्थात आधूनिक नूरीस्तान से आकर दक्ष प्रजापति (द्वितीय) के राज्य क्षेत्र भारत के पश्चिमोत्तर, उत्तरी कश्मीर (गिलगित और यासीन का क्षेत्र),  कश्मीर, पंजाब और हरियाणा, सिंध नदी के कोहिस्तान के पश्चिम में स्वातनदी का कोहिस्तान  में  बस गये थे। 
कश्यप पहले दक्ष प्रजापति (द्वितीय) के दमाद बने, बाद में प्रजापति भी बने| इतिहासकारों ने इस घटना का समय निर्धारण  लगभग 1700 ईसापूर्व किया है। अर्थात आजके 3700 वर्ष पहले। जो उचित नही लगता।
【सुचना --- स्वायम्भूव मन्वन्तर में यह भाग दक्ष प्रजापति का राज्य क्षेत्र था। चुँकि दक्ष प्रजापति द्वितीय भी लगभग इसी क्षेत्र के शासक रहे। दक्ष प्रजापति द्वितीय ने अपनी पुत्रियों का विवाह केस्पियन सागर क्षेत्र में तप करने वाले कश्यप ऋषि से कर दिया तो कश्यप ऋषि की सन्तान कश्मीर में बस गई। 】

अर्थात पिशाच पहले से  सिंध नदी के कोहिस्तान के पश्चिम में स्वातनदी का कोहिस्तान , उत्तरी कश्मीर (गिलगित और यासीन का क्षेत्र),भारत के पश्चिमोत्तर में बस गये थे। 
आधुनिक पशाई कश्मीरी लोग संभवत: इन्हीं के वंशज हैं।
कर्नाटक के मैंगलूरु के कुछ पै या पाई ब्राह्मण लोग अपने आपको पैशाची लोगों का वंशज कहते हैं, इसी तरह ओडिसा के पाईक, आदिवासी पैगा या बैगा को भी पैशाची लोगों का वंशज कहते हैं।

धर्म और धार्मिक विचारधारा ---

पिशाच लोग इरानी मीढ संस्कृति के श्रमण उग्र शैव थे और शिव व भैरव के उपासक  थे| यह सम्प्रदाय भारत के नाथ सम्प्रदाय से मिलता जुलता है। उन्नीसवी सदी के अंत तक नूरिस्तानियों का धर्म भारत के नाथ पन्थ के समान भैरव उपासक रौद्र शैव मत के समान इरानी मीढ संस्कृति का अति-प्राचीन हिन्द-ईरानी धर्म था।पिशाच कबीलाई गणों मे रहते थे।गण’ या ‘घन’ का शब्द का बिगडा रूप है “घान” या ‘खान’ शब्द बना है। जो पठानों में आज तक प्रचलित है।

सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था ---

पिशाचों में क्षत्रप आधारित गणतंत्र का प्रचलन था
'क्षत्रप' शब्द का प्रयोग ईरान से शु्रू हुआ। यह राज्यों के मुखिया के लिए प्रयुक्त होता था। दारा (डेरियस या दरियुव्ह) के समय में राज्यपालों के लिए यह उपाधि प्रयुक्त होती थी। यही बाद में महाक्षत्रप कही जाने लगी। भारत में क्षत्रप शब्द आज भी राजनीति में प्रयोग किया जाता है।
 नूरिस्तान को इर्द-गिर्द के मुस्लिम इलाक़ों के लोग "काफ़िरिस्तान" के नाम से जानते थे क्योंकि ये नाथ सम्प्रदाय जैसे या ईरान की मीढ संस्कृति जैसे शैव धर्मी थे। सैंकड़ों-हज़ारों वर्षों तक यहाँ के लोग स्वतन्त्र रहे और यहाँ तक कि पंद्रहवी सदी के आक्रमणकारी तैमुरलंग को भी हरा दिया।
१८९५-९६ में अफ़्ग़ानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान ख़ान ने  आक्रमण कर के यहाँ क़ब्ज़ा जमा लिया और यहाँ के लोगों को मुस्लिम बनने पर विवश किया। उसी समय इस इलाक़े का नाम बदलकर 'नूरिस्तान' (यानि 'प्रकाश का स्थान') रख दिया गया।
【 पिशाच शब्द का ही रुपान्तरण पठान होगया।】

नूरिस्तान प्रान्त की सरहदें, जो कि अफगानिस्तान का एक भाग है, पाकिस्तान से लगती हैं। यहाँ के लगभग ९५% लोग नूरिस्तानी हैं।
नूरिस्तानी समुदाय पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान के नूरिस्तान इलाक़े में रहने वाली एक जाती है। नूरिस्तान के लोग अपने सुनहरे बालों, हरी-नीली आँखों और गोरे रंग के लिए जाने जाते हैं।

पहले पिशाच भैरव उपासक शैवशाक्त सम्प्रदाय के मतावलम्बी थे और परम्परागत शैव शामनिक (Shamanic) (श्रमण) संस्कृति का पालन करते थे। परवर्ती काल मे पिशाचों में महायान बौद्ध धर्म अङ्गीकार कर लिया था।

【सुचना --- भाषाशास्त्र पर आधारित इस भाग में विकिपीडिया से मिली जानकरियों का भी समावेश हुआ है। 】
भाषा ---

पश्चिमी नृवंशशास्त्रियों (Western Anthropologist) द्वारा बाहरी पर्यवेक्षक की तरह मंगोलों, तुर्कों और इनके पडोस के तुंगुसी – समोयेड भाषा-परिवार (Tungusic and Samoyedic-speaking peoples) के लोगों धर्म के अध्ययन के समय पहली बार ‘शामनिक (श्रमण) संस्कृति’ शब्द का प्रयोग किया
शामनिक (Shamanic) (श्रमण) व्यवहार/ संस्कृति की मान्यता अनुसार वे समाधि में उतरकर अध्यात्म द्वारा पारलोकिक दैवीय शक्तियों को भूमि पर उतार लाते  है। (यह परम्परा बौद्धों में भी है। और थियोसोफिकल सोसायटी ने जे कृष्णमूर्ति पर भी यह प्रयोग किया था। जो असफल हो गया।)
शामन (Shaman) (श्रमण) समाधि अवस्था में शुभ आत्माओं अशुभ आत्माओं (पिशाचों) को वश में कर के अनुष्ठानों द्वारा इनसे भविष्य-कथन और चिकित्सा करते हैं।
शामन (Shaman) (श्रमण) शब्द उत्तरी एशिया के तुंगुसी – एवेंकी भाषा (Tungusic Evenki language of North Asia) से निकला है।
मिर्सिआ एलियादे (Mircea Eliade) ने लिखा है तुंगुसी – एवेंकी भाषा (Tungusic Evenki language of North Asia) से निकल कर संस्कृत में मिलता हुआ यह शब्द ‘श्रमण’ है। अर्थात चलते रहने वाले (wandering) जङ्गम साधुओं को श्रमण कहते है। श्रमण संस्कृति बौद्ध धर्म के साथ मध्य एशिया के कई देशों में पहूँची। 

इस देश के निवासियों की भाषा 'पैशाची' नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें प्रतिष्ठान, (पेठण) महाराष्ट्र निवासी गुणाढ्य की वृहत्‌कथा लिखी गयी थी। पैशाची को 'भूत भाषा' भी कहा गया है। महाभारत के अनुसार भी पैशाची/ भूत भाषा का क्षेत्र भारत का पश्चिमोत्तर प्रदेश और पश्चिमी कश्मीर था। कहा जाता है कि गुणाढ़्य पिशाच देश (पश्चिमी कश्मीर) में प्रतिष्ठान से जाकर बसे थे।

बुरूशस्की भी पिशाच वर्ग की भाषा है। बुरुशस्की एक भाषा है जो पाक-अधिकृत कश्मीर के गिलगित-बल्तिस्तान क्षेत्र के उत्तरी भागों में बुरुशो समुदाय द्वारा बोली जाती है।
यह एक भाषा वियोजक (language isolate) है, यानि विश्व की किसी भी अन्य भाषा से इसका कोई ज्ञात जातीय सम्बन्ध नहीं है; और यह अपने भाषा-परिवार की एकमात्र ज्ञात भाषा है।
सन् २००० में इसे हुन्ज़ा-नगर ज़िले, गिलगित ज़िले के उत्तरी भाग और ग़िज़र ज़िले की यासीन व इश्कोमन घाटियों में लगभग ८७,००० लोग बुरूशस्की भाषा और बोली बोलते थे।
बुरूशस्की भाषा जम्मू और कश्मीर राज्य के श्रीनगर क्षेत्र में भी लगभग ३०० लोग बोलते हैं।

खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्र के शाहबाजगढी और मनसेहरा में सम्राट अशोक के शिलालेख खरोष्ठी लिपि और पैशाची भाषा में मिले हैं
पाकिस्तान के पंजाब में भी खरोष्ठी लिपि और पैशाची भाषा में शिलालेख मिले हैं
चीन के शिंजियांग स्वायत्तशासी क्षेत्र उइग़ुर ख़ाङ्नत (Xinjiang Uyghur Autonomous Region) के खोतान में भी खरोष्ठी लिपि और पैशाची भाषा में शिलालेख मिले हैं

भारतीय भाषाओं और अफगानिस्तान का आपसी संबंध बहुत पुराना और एतिहासिक है।
अफगानिस्तान और बलुचिस्तान की एक पुरानी भाषा द्रविड़ परिवार की  ब्राहुई भाषा है।  कुछ भाषाशास्त्री इसे ब्राह्मी भाषा भी मानते हैं। किन्तु इसकी लिपि ब्राह्मी लिपि से भिन्न है।

निष्कर्ष ---
देवताओं, असुरों,दैत्यों, दानवों, यक्षों, गन्धर्वों, राक्षसों के के ही समान पिशाच भी एक योनि विशेष भी है और उनके द्वारा प्रेरित मानवीय संस्कृति भी है। 
जैसे कश्यप ऋषि की सन्तानों ने स्वर्गीय देवताओं द्वारा स्थापित प्रेरित संस्कृति पामिर, तिब्बत, कश्मीर में देेव संंस्कृति स्थापित की। बलुचिस्तान और अफगानिस्तान में गन्धर्वों ने गन्धर्व संस्कृति स्थापित की। असिरिया (इराक) में असुर संस्कृति स्थापित की। सिरिया में नागों ने सूर संस्कृति स्थापित की। गर्डेशिया में गरुड़ ने गारुड़ी संस्कृति स्थापित की। पुर्वी चीन में यक्षों ने (सर्वभक्षी थुलथुले शरीर वाली) यक्ष संस्कृति स्थापित की मिश्र और सिनाई , लेबनान के आसपास दैत्यों ने दैत्य संस्कृति स्थापित की। डेन्यूब नदी के आसपास युगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, से जर्मनी तक के क्षेत्रों में दानवों ने दानवी संस्कृति स्थापित की। और अफ्रीका और अमेरिका महाद्वीप (बोलिविया) में राक्षसों ने रक्षाकरनें वाली राक्षस संस्कृति स्थापित की जिसे रावण नें क्रुरता का पाठ पढ़ाकर पथभ्रष्ट करदिया।

शनिवार, 25 जुलाई 2020

वेदिक दर्शन के आधार पर कुछ प्रश्नों के उत्तर।

वेदिक दर्शन के आधार पर कुछ प्रश्नों के उत्तर।

भारतीय दर्शन वेदिक तत्वमीमान्सा पर आधारित है।  इसलिए इस विषय को समझनें के लिये कुछ गुढ़ तत्वों की मीमान्सा की जारही है। ताकि, सन्देह दूर हो और भ्रम निवारण हो।

श्वेताश्वतरोपनिषद  के तीसरे अध्याय का बीसवाँ मन्त्र है। और कठोपनिषद  प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली का बीसवाँ मन्त्र--
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः।।
इसका अर्थ है-- 

इस जीवधारी के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा/ प्रज्ञानात्मा (परब्रह्म) सुक्ष्मतम  भी है और  महा से अतिमहा भी है।  आत्मा/ प्रज्ञानात्मा (परब्रह्म) की महिमा (महत्ता) को उस प्रज्ञात्मा या प्रज्ञानात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामना रहित पुरुष जानता है कि,   जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है ऐसे जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) को जान पाते हैं।

स्पष्टीकरण ---
जन्तु यानि जीवधारी।
गुहा अर्थात बुद्धिगुहा का केन्द्र चित्त ।
निहित अर्थात रहने वाला 
 जन्तोर्निहित --  सृष्टि का प्रथम देहधारी तत्व प्रज्ञानात्मा है। परमात्मा और  विश्वात्मा ॐ देहान्तर्गत नही आते अतः प्रज्ञानात्मा को जन्तोर्निहित कहा गया है। 
अणोरणीयान्  अर्थात इलेक्ट्रॉन, पॉजिट्रॉन या फोटान आदि का भी कारण होने से  सुक्ष्मातिसुक्ष्म है अतःअणोरणीयान्  कहा है।
महतो महीयान् जीवात्मा --  अपरब्रह्म को विराट कहते हैं। इस विराट से महत् विधाता, प्रत्यागात्मा ब्रह्म होता है इस कारण इसे बरः यानि बड़ा से भी महः यानि महा दोनों मिलकर  महा बड़ा होने से ब्रह्म कहते हैं ;जिससे  आगे या जिसके बादमे उस श्रेणी में कुछ नही हो उसे परम कहते हैं। प्रत्यागात्मा ब्रह्म से भी अति परे होने से  प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा को परब्रह्म  कहते हैं ।  अतः महतो महीयान् कहा है।
परमात्मा और विश्वात्मा ॐ गुणातीत हैं तथा शरीरान्तर्वर्ती भी नही अतः उन्हे धारणकर्ता  नही कहा जा सकता।  अतः  प्रज्ञानात्मा को ही जीवनधारक या जीवन को धारण करने वाला कहा जा सकता है।
अक्रत -- क्रियाओं को अपने द्वारा होना न मानने वाले को अक्रत कहते हैं।क्योंकि, वह ज्ञानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों के आपसी व्यवहार या बर्ताव को ही क्रिया कहते है।  अतः उसे अक्रत कहा गया हैं। उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं। क्योंकि, वह किसी भी क्रिया में अपना अहंकार और संकल्प नही जोड़ता।
वीतवोक -- जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है उन्हे वीतशोक कहते हैं।
 वे ही देखपाते है अर्थात   वे ही जान पाते है। 
ऐसे आत्मज्ञ को ईशावास्योपनिषद में धीरपुरुष कहा है। वे सद्योमुक्त यानी जीवनमुक्त होते हैं अर्थात इस जीवन में जीवीत रहते हुए भी मुक्त रहते हैं।

भारतीय वेदिक दर्शनानुसार सभी प्रकार के जन्तु और वनस्पति में जीवात्मा होती है।
अतः
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः
श्वेताश्वतरोपनिषद 03/20 और कठोपनिषद 01/02/20 
मन्त्र से सिद्ध हुआ कि,
इस जीवधारी के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा/ प्रज्ञानात्मा  सुक्ष्मतम  भी है और  महा से अतिमहा भी है।  
जैसे विज्ञान की दृष्टि से उर्जा को भी आप केवल सुक्ष्म या केवल विराट नही कहा जा सकता ऐसे ही प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म और सबसे बड़ा दोनों है।  यह स्पष्ट किया गया है कि, प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा न केवल शरीरान्तर्वर्ती है अपितु समस्त शरीर भी प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा के अन्तर्वर्ती हैं। अतः यह नही कहा जा सकता कि पैड़ पौधों में हृदय या मस्तिष्क नही होता तो आत्मा कहाँ रहेगी। यह भी कहना गलत सिद्ध होजायेगा कि, हृदय या मस्तिष्क के प्रत्यारोपण होनें से आत्मा का भी प्रत्यारोपण होजायेगा। या कृत्रिम हृदय या कृत्रिम मस्तिष्क लगादिया अतः आत्मा कैसे होगी? यह सभी प्रश्न खारिज हो जाते हैं। क्योंकि आत्मा हर कण में है और हर चीज आत्मा में है। क्योंकि मूलतः सब पदार्थ ,दिक, काल,  इलेक्ट्रॉन ,फोटान, आदि सभी सुक्ष्मतर कण भी आत्मा का ही रुपान्तरण मात्र हैं।
इसी सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 एवम् 02 भी अवलोकनीय हैं।
तेषाम् खल्वेषाम् भूतानाम् त्रीण्येव बीजानि भवन्त्याण्डजम् जीवजमुद्भिज्जमिति।। छान्दोग्योपनिषद  06/03/ 01 

अर्थ -- इन (पक्षी आदि) प्रसिद्ध प्राणियों के तीन ही बीज होते हैं --  प्रथम- आण्डज यानि अण्डे से उत्पन्न अण्डज, 
द्वितीय - जीवज यानि जरायुज यथा मानव और पशु आदि गर्भ से सीधे बच्चा होने वाले और
तृतीय-  उद्भिज यानि वनस्पति के बीज / दाने से उत्पन्न।  01
(सुचना -- यहाँ  पसीने से उत्पन्न स्वेदज और उष्मा से उत्पन्न शंकोकज को भिन्न नही माना है।)

सेयम् देवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन , जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरव्राणीति।। छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र  02

अर्थ -- उस  ('सत' नामक) देवता ने ईक्षण किया , 'मै इस जीवात्मा रूप से' इन तीनों देवताओं में अनुप्रवेश कर नाम और रूप की अभिव्यक्ति करूँ।02

अर्थात अण्डज, जरायुज (जीवज) और बीजों से उत्पन्न वनस्पति (उद्भिज) में भी जीवात्मा अपरब्रह्म, (विराट)  रहता ही है।
इसी प्रकार जड़ पदार्थों में भी भूतात्मा (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा)  रहता है। इसलिए इन्हे भूतमात्र और भूताप्राणी भी कहते है।

कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली 03/ मन्त्र 01 , 
ऋतम् पिबन्तौ सुकृतस्य लोके, गुहाम् प्रविष्टौ परमें परार्धे ;
छाँयातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

अर्थ -- तीन बार नचिकेता अग्नि चयनकर्ता पञ्चाग्निसेवी  आत्मज्ञ, ब्रह्मवेत्ता ,परमगति को प्राप्त धीर पुरुष यह कहते हैं कि,---
सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक में,  (या मानव देह में)  परम परार्ध  गुहा (चित्त) मे प्रविष्ट होकर ऋत का पान करने वाले छाँया और धूप के समान प्रत्यागात्मा /अन्तरात्मा (ब्रह्म)  और  प्रज्ञात्मा/  प्रज्ञानात्मा  (परब्रह्म) (रहते) हैं।

स्पष्टीकरण ---
सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक  अर्थात (देश, कुटुम्ब,परिवार और योनि तथा देह  या प्रकारान्तर से मानव देह ।
 परम परार्ध  गुहा में अर्थात अंगुष्ठ प्रमाण पुरुष रूपी बुद्धि आकाश के केन्द्र  चित्त में।
ऋत का पान करने वाले अर्थात परम सत्य परमेश्वरीय विधि को ऋत कहते है इस ऋत का पालन करने वाले।
छाँया और धूप के समान  अर्थात दो विपरीत प्रकृति वाले पुरुष या वेदान्त की भाषा में बिम्ब और प्रतिबिम्ब अर्थात अध्यात्मिक दृष्टि से  प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा (पुरुष-प्रकृति) आधिदैविक दृष्टि से  ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) तथा अध्यात्मिक दृष्टि से   प्रज्ञात्मा/  प्रज्ञानात्मा (परम दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) आधिदैविक दृष्टि से  परब्रह्म  (विष्णु - माया) ।

ऋग्वेद मण्डल 01/सुक्त 164/ मन्त्र 20, 
अथर्ववेद काण्ड 09/ सुक्त14/मन्त्र 20, 
मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/ मन्त्र 01
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 06

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानम् वृक्षम् परिषस्वजाते ;
तयोरन्यः पिप्पलम्  स्वादन्त्यनश्नन्नन्यो, अभिचाकशीति।

प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म  ये दो पक्षी मित्रता पुर्वक एकसाथ  एक ही (पिप्पल) वृक्ष पर रहते हैं।अर्थात  एक ही शरीर में रहते हैं।
उनमें से प्रत्यागात्मा / अन्तरात्मा  (ब्रह्म)  पिप्पल वृक्ष के फलों का (यानि कर्मफलों का) भोगकरता है और दुसरा पक्षी प्रज्ञात्मा  /प्रज्ञानात्मा   (परब्रह्म)   केवल दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है।

स्पष्टीकरण ---
 दो पक्षी यानी   प्रत्यागात्मा /अन्तरात्मा (पुरुष-प्रकृति)  ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) और  प्रज्ञात्मा  /प्रज्ञानात्मा  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) ये दो पक्षी है।
 मित्रता पुर्वक एक ही (पिप्पल) वृक्ष का आश्रय लेकर  अर्थात एक ही शरीर में (रहते हैं)।
उनमें से प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा  (पुरुष-प्रकृति)  ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री)  तो पिप्पल वृक्ष के फलों का स्वाद लेता है  यानि कर्मफल भोगकरता है। 【तथा अन्य अर्थ में गुणों के सङ्ग के कारण गुण सङ्गानुसार विभिन्न योनियों में प्रवेश करता है।】वहीँ
दुसरा पक्षी अर्थात प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है। 
अर्थात स्वार्थ (स्वयम् के लिये) कर्म न करता है। अतः कर्मफल भोगता भी नही है बल्कि केवल दृष्टा है।

मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/मन्त्र 02
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 07

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोनीशया, शोचति मुह्यमान;
जुष्टम् यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य , महिमानमिति वीतशोकः।

अर्थ --- इस समान वृक्ष पर (शरीर में) प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) भोगों में निमग्न होकर अनीश होकर अर्थात आत्मसंयम आत्म नियन्त्रण नही होने के कारण ईशित्व रहीत होकर  अनात्मा में आत्मभाव होने से मोहित होकर शोचनीय अवस्था में रहता है। वही प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म की महिमा को देखता है तब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
क्योंकि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।

स्पष्टीकरण ---
 समान वृक्ष पर अर्थात शरीर में।
अनीश होकर  अर्थात आत्मसंयम स्वनियन्त्रण नही होने के कारण  ईशित्व रहित होकर।
 गुह्यमान अर्थात मोहित होकर अर्थात अनात्मा में आत्मभाव होने से  गलत को ही सही मानने के कारण मोहित होना ।
शोचनीय अवस्था अर्थात दुरावस्था ।
महिमा अर्थात महत्ता (को देखता है ।)
वीतशोक  अर्थात शोकरहित । यानि आनन्दित रहना।
जुष्ट अर्थात जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
जब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म  की महिमा देखता है तब संसर्ग के प्रभाव से शोकरहित हो जाता है अर्थात आनन्द का अनुभव करता है और तब  प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
अब वह अनुभव करता है कि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।  

सुचना --- यहाँ जुष्ट शब्द का अर्थ क्रिया विशेषण रूप में अर्थ जुड़ना किया गया है। जबकि अधिकांशतः जुष्ट शब्द का संज्ञारूप अर्थ जुठा / जुठन यानि उच्चिष्ठ के अर्थ में किया जाता है। जबकि यहाँ उच्चिष्ठ की कोई सार्थकता नही है। भक्तों द्वारा नित्य सेवित अर्थ भी किया गया। लेकिन इस स्थान पर सेवित शब्द भी सार्थक नही है। अतः उचित अर्थ युक्त होना या जुड़जाना ही लगता है।

  श्रीमद्भगवद्गीता में 13 / 22  प्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा को  उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है; 
ऐसा कहा गया है। जिज्ञासु संशय में पड़ जाता है कि, परमात्मा कर्ता और भोक्ता कैसे हो सकता है। इस प्रश्न को हल करने का प्रयत्न किया जा रहा है--
उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है;  मन्त्र का अर्थ समझनें के लिए इसी क्षेत्र क्षेत्रज्ञ प्रकरण के मन्त्रों को समझना होगा। अतः

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 13 मन्त्र 19, 20, 21 और 22 को क्रमशः समझते हैं।

प्रकृतिम् पुरुषम् चैव, विद्ध्यनादी उभावपि,
विकारांश्च गुणांश्चैव, विद्धि प्रकृतिसम्भवान।19

(प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा) परम पुरुष और पराप्रकृति दोनों को ही अनादि जान और  विकारों और (सत्वरज और तम) गुणों को भी प्रकृति से उत्पन्न जान।19

स्पष्टीकरण -- प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा परब्रह्म अनादि हैं । इस स्वरूपमें स्थित पुरुष स्वतः विश्वात्मा ॐ और फिर परमात्मा में स्थित होजाता है। अर्थात 
परम पुरुष विष्णु और पराप्रकृति अर्थात विष्णु की माया दोनों ही अनादि है। शक्ति सदैव शक्तिमान के साथ ही रहती है । विष्णु अनादि हैं तो माया भी अनादि ही कही जायेगी।

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते, 
पुरुषः सुखदुःखानाम् भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते। 20

(पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुत रूपी) कार्य , (दसों इन्द्रियाँ, और अन्तःकरण चतुष्टय रूपी) करण, और  कर्तृत्व  की हेतु प्रकृति कही जाती है। तथा सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का  हेतु पुरुष को कहा जाता है।20

स्पष्टीकरण ---
 पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुतों को कार्य कहते हैं। शब्द, स्पर्ष, रुप, रस और गन्ध तन्मात्रा से ही कृमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि (पृथ्वी) महाभूत उत्पन्न हुए। ये दसों प्रकृति के कार्य कहलाते हैं।
श्रोत (कान), त्वक (त्वचा),नैत्र, रसना (जीव्हा), नाक ये पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ और वाक (कण्ठ), हस्त, पाद (पैर), उपस्थ (शिष्ण या भग लिङ्ग) और पायु (गुदा) ये पञ्च कर्मेन्द्रियाँ हैं। कुल मिलाकर  दसों इन्द्रियाँ बहिर्करण कहलाती हैं , और चित्त,बुद्धि,अहंकार और मन ये अन्तःकरण चतुष्टय कहलाते हैं। बहिर्करण और अन्तःकरण मिलकर  इन सब चौदहों को करण कहते है। करण  क्रियाओं में सहायक होते हैं।
 जैसे उपकरण यानि औजार  कार्य करनें में शरीर को विशेषकर हाथों को बाहर से सहायक होते है वैसे ही ये करण देहिक ,  मान्सिक और बौद्धिक क्रियाओं में आन्तरिक सहायक होते हैं इसलिये ये करण कहलाते हैं।
कर्तृत्व  यानि कर्तापन
प्रकृति इन तीनों की हेतु कही जाती है।
 सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का हेतु पुरुष को कहा जाता है।

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि, भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्,
कारणम् गुणसङ्गोsस्य, सदसद्योनिजन्मसु। 21 

 प्रकृतिस्थ पुरुष यानि मायाश्रित पुरुष अर्थात प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा (पुरुष- प्रकृति) वाला पुरुष या प्रत्यागात्मा/ अन्तरात्मा ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।21

स्पष्टीकरण ---
प्रकृतिस्थ पुरुष अर्थात मायाश्रित पुरुष  ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।

जिसप्रकार अतिसंग्रहकर्ता जमाखोर के प्रति भारत शासन दण्डात्मक कार्रवाई करता है वैसे ही परमेश्वर भी हमारी सरकार के रूप में जमाखोरों को (परिग्रही को) दण्ड देते हैं।
हिन्सा, मिथ्याचार, लोभ, चोरी, नारी के प्रति अभद्रता, परिग्रह, अपवित्रता, गन्दगी फैलाना, कृतघ्नता, मक्कारी, अनुचित चिन्तन,ईश्वर के प्रति अभिमान, अधीरता, आदि के मान्सिक कर्मों का दण्ड भारत शासन नही देपाता किन्तु वह परम शासक तो अविलम्ब आपके संस्कारों में उन कर्मों को भी जोड़ ही देते हैं। और तदनुसार आपके क्लेश, भय आदि रुपों में तत्काल फल भी मिलजाता है।

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः, परमात्मेति चाप्युक्तो देहsस्मिन्पुरुषः परः।22

इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

स्पष्टीकरण -
इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

 *उपदृष्टा* मतलब जो सर्वाधिक निकटता से देखता है।
 *अनुमन्ता* मतलब जिसकी अनुमति के बिना इस जगत में कोई क्रिया नही होती। समस्त क्रियाएँ उसके संकल्प के अनुरूप हो चुकी है जिसका साक्षात्कार हम कर रहे हैं। केवल हमारे अनुभव में अब आ रही है। इसीकारण कोई ध्यानावस्था में कोई तन्द्रा में कोई स्वप्न में और कोई किसी घटना होने के शकुन के आधार पर भविष्यवाणी करते हैं जैसे रामचरितमानस में कहती है लंकिनी ने विकल होय ते कपि के मारे , तो जानो निशिचर संहारे ।
 तो कोई होराशास्त्र के आधार पर  जातक या ताजिक  या सामुद्रिक शास्त्र के आधार पर भविष्यवाणी कर पाते हैं। वस्तुतः उन शास्त्रियों के द्वारा वह परमात्मा के संकल्प अनुसार भविष्य में प्रत्यक्ष होनेवाली घटनाओं की  भविष्यवाणी करते है। 

प्रकृति के गुणों का परस्पर संयोजन और बर्ताव से हुई  क्रियाओं के साथ हम अपनी अहन्ता ममता और संकल्प जोड़ लेते हैं इस कारण उन क्रियाओं मे  हम जिस आशय  और  जिस उद्देश्य की पुर्ती के लिये स्वयम द्वारा किया गया मानलेते हैं वह हमारा कर्म कहलाता है।  मतलब क्रियाएँ कर्म नही है। बल्कि क्रियाओं के साथ हमारे द्वारा जोड़ेगये आषय और उद्देश्य निर्धारित करते हैं कि क्या कर्म हुआ है।
जैसे रहीमदास जी ने कहा कि, मरीजाऊँ माँगूँ नही अपने तन के काज, परमारथ के कारणे मोहि न आवे लाज।
यहाँ स्वयम् के लिये माँगना भिक्षावृत्ति है। भिक्षाटन है।जबतक अपरिहार्य परिस्थिति न हो तबतक स्वयम् के लिये माँगना पाप है। जबकि परमार्थ समाज का सहयोग लेना , किसी सत्कार्य में सभी का योगदान लेना पुण्यकर्म है।
ऐसे ही कुछ विद्यार्थी समझने के उद्देश्य से  पढते हैं। वे अध्यैता कहलाते हैं। तो कोई रट्टु परीक्षा तक याद करनें के लिये ही पढ़ता है।  और कोई लोभी केवल परीक्षा में उत्तर  लिखकर अच्छे अंक प्राप्त्यर्थ ही पढ़ाई करते हैं। 
महान क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल,  चन्द्रशेखर, भगतसिंह शहीद कहलाते हैं क्योंकि,क्रान्तिकारी कार्यक्रम  उनका कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक कार्य नही था। ये क्रान्तिकारी उर्ध्वलोकों के अधिकारी हुए।
चम्बल के बागी आदि डाकु कहलाये। ये पुनर्जन्म लेकर दण्डभोग के अधिकारी हुए।
और वर्तमान आतंकवादी सबकी घ्रणा के पात्र आतंकी कहलाते हैं। ये नीचे के अन्धतम लोकों के अधिकारी हुए।

तीनों की क्रियाओं कोई अन्तर नही है। पर कर्म एकदम भिन्न है।
शहीद उच्चतम लोकों को प्राप्ति के अधिकारी हुए। डाकु निम्न योनियों में जन्म के पात्र हुए। क्योंकि एकतो वे केवल बदले की भावना से किसी को दण्ड देनें के लिए बागी हुए। लूट में भी नैतिकता के आदर्शों का पालन करते थे।और लूट से प्राप्त धन जनकल्याण में निवेश भी करते थे।
और आतंकी  निम्नतम अन्धतम  लोकों के अधिकारी हुए।क्यों कि ये नृशन्स- बर्बर होते हैं। और इनका लक्ष्य भी हड़प नीति है।

किन्तु परमात्मा के ॐ संकल्प  में सर्व कल्याण ही निहित है। उनकी स्वाभाविक लीला है।इसे ही ऋत कहते हैं ऋत को जाने बिना मौक्ष नही होता। ऋते ज्ञानान्मुक्ति।
 उसी ॐ संकल्प के अन्तर्गत ही आजतक जो हो रहा है और भविष्य में भी जो होगा वह प्रभु की लीला मात्र है। उसे भ्रमवश हम अपना कर्म मानते हैं या कर्मफल भोग मान लेते हैं।
इसी ॐ संकल्प को आगे बढ़ाते हुए ही समस्त देव और देवता अपने अपने  शिवसंकल्प के अन्तर्गत ही कर्मकरते रहते हैं। उसमें उनका अपना कोई कर्म नही है।  उनके कर्म ऋत के अनुकूल ही भावना रखकर किये जाते हैं। इसी लिए  परमात्मा के परब्रह्म स्वरूप में विष्णु और माया के परमेश्वर स्वरूप में नियत व्यवस्था के अन्तर्गत विष्णु के शासन के पदाधिकारी देवता गण है। सवितृ, नारायण, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, ब्रहस्पति, इन्द्र, आदित्य ,वसु , रुद्र आदि  जो कुछ करते हैं वह.सबकुछ  कृते परमेश्वर विष्णु परमपद ही करते हैं। अर्थात परमेश्वर विष्णु परमपद के निमित्त ही होता है। देवता लोग परमेश्वर विष्णु के लिए, परमेश्वर विष्णु की सेवा कार्यही करते हैं। अर्थात यज्ञ ही करते हैं। 
 इसलिए वह परब्रह्म प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा (परम पुरुष विष्णु और उनकी माया परा प्रकृति) को अनुमन्ता कहलाता है।

 *भर्ता*  अर्थात पालक, पालनहार, भरण- पोषण करनें वाला, संचालक, अर्थात वह भी ऋत के अन्तर्गत कर्म करते हैं। यही बात भगवान श्रीकृष्ण नें श्रीमद्भगवद्गीता में विष्णु के बीहाफ पर कही है कि, यदि मैं निष्करर्मण्य (निठल्ला) हो जाऊँ तो मेरा ही अनुसरण करके सम्पूर्ण जगत निठल्ला हो जायेगा। अतः मेरे समान सभी को लोकसंग्रहार्थ कर्म करना चाहिए न कि, स्वार्थपूर्ति हेतु।

 *भोक्ता* अर्थात यज्ञभोक्ता। सर्वदेव नमस्कारं केशवम् प्रतिगच्छति। किसी के प्रति जिस किसी भाव (आषय और उद्देष्य) से कियागया कर्म उसी रूप में परब्रह्मप्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा, परम पुरुष, विष्णु परमपद, परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। 
हमारे द्वारा दिया गया दानभी उन्हे ही मिलता है तो हम यदि किसी का हक भी छीनते हैं तो वह भी उन्हे ही लूटते हैं। अर्थात हमारे द्वारा सर्वजन हिताय कर्म अर्थात यज्ञ को भोगने वाले श्री विष्णु ही हैं।

यह सब इसी लिए क्योंकि, हमारे मूल स्वरुप प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा परब्रह्म रूप में वही तो भोक्ता भी है। किन्तु चुँकि उसके किसी कर्म में कोई स्वार्थ निहित नही होता, कोई अहन्ता- ममता नही होती इस कारण उसके कोई नीजी भोग भी नही होते।

सभीने सुना होगा जबतक जगत का प्रत्यैक प्राणी भोजन ग्रहण नही करलेता , तृप्त नही हो जाता तबतक भगवान विष्णु भोजन ग्रहण नही करते।

अर्थात भगवान के समक्ष भोग रखकर नैवेद्य अर्पित करना ही पर्याप्त नही है बल्कि  बलिवैश्वदेव कर्म द्वारा हमसे सम्बन्धित समस्त जन्तु, वनस्पति,जड़- चेतन, दृष्य अदृष्य सभी भूतप्राणियों को भोजन अर्पित कर तृप्त कराये जाने के पश्चात ही भगवान हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य भोग ग्रहण करते हैं। और इस यज्ञ से बचाहुआ अन्न ही पोषण प्रदान करता है। अन्यथा इसके बिना तो वह चोरी का अन्न विष ही है।

ऐसा है परब्रह्म का भोग।

 *महेश्वर* मतलब ईश्वरों का भी ईश्वर महा ईश्वर। 
 *ईश्वरत्व* -- -  इसको ऐसे समझा जासकता है---

*ईश्वर* तो भूतात्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा , महादिक (प्राण-चेतना/ देही- अवस्था / धृति - धारयित्व) भी हैं। यह प्रथम पुर्ण साकार दीर्घवृत्तीय गोलाकार यानि अण्डाकार किन्तु ठोस, दृव गेस, प्लाज्मादि अवस्थाओं से परे है। 
 *जगदीश*   -   जीवात्मा अपरब्रह्म /विराट, महाकाल,  (अपर पुरुष - जीव/ नारायण- श्री लक्ष्मी/ आयु- त्रिगुणात्मक अपराप्रकृति) *जगदीश्वर*  हैं। 
यह स्वरूप तरङ्गाकार रूप में प्रथम साकार और महाकाल है। यह सृष्टि / जगत का अचल केन्द्र स्वरूप है।   वृत्ताकार फीते से निर्मित, आपस में कहीँ काट (क्रास) नही हो ऐसे अंग्रेजी के 8 के समान परिपथ में इसी की परिक्रमा हिरण्गर्भ करते हैं।
 *महेश्वर* प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) , ब्रह्म,विधाता, महाकाश , (पुरुष,/सवितृ,/श्रीहरि - कमला/ सावित्री/ प्रकृति)  महेश्वर हैं। 
यह स्वरूप सर्वगुणसम्पन्न है।किन्तु कालातीत है।
और
 *परमेश्वर*  - प्रज्ञानात्मा/प्रज्ञात्मा परब्रह्म   (परमपुष/ विष्णु- माया/ पराप्रकृति) परमेश्वर हैं।
 प्रज्ञानात्मा/प्रज्ञात्मा परब्रह्म प्रथम / अन्तिम सगुण स्वरूप है।जिसमे  ॐ तत्सत;   सच्चिदानन्द;   सत्यम्, ज्ञानम्, अनन्तम्  ब्रह्म;   सत्यम् शिवम् सुन्दरम्;  अनादिमत्पर ब्रह्म,न सतन्नासदुच्चते श्रीमद्भगवद्गीता 13/12 ऐसे सिमित गुण ही हैं। मूलतः तो यह स्वरूप भी लगभग गुणातीत ही है।
जबकि विश्वात्मा ॐ और परमात्मा तो गुणातीत हैं।

 *परमात्मा* समस्त सृष्टियों में जो कुछ होरहा था, है और होगा। सोचा जा रहा था, है और होगा। बोला जा रहा था, है और होगा।जो नही हो रहा था, है और होगा।जो नही सोचा जा रहा था, है और होगा। जो नही बोला जा रहा है वह सब परमात्मा के बारेमें ही है। फिर भी परमात्मा के बारेमें नही के बराबर ही सोचा,बोला और किया जा सका है। अतः परमात्मा को केवल परमात्मा होकर ही जाना समझा जा सकता है। वही सबकछ है और सबकछ वही है। बस न इति न इति, नेति नेति।
परमात्मा में स्थित होने का साधन -- चुँकि कोई भी व्यक्ति पञ्चमहायज्ञों जिसमें अष्टाङ्गयोग और जप-तप आदि ब्रह्मयज्ञ में निहित ही है उन पञ्चमहायज्ञों  के माध्यम से और स्वयम् को परमात्मा के अर्पित कर, सदेव अविरत सोते- जागते, हँसते-रोते, ग्रहण- उत्सर्जन करते हुए भी हरिनामस्मरण  सदैव जगत्सेवा में तत्पर रहकर यानि बुद्धियोग के माध्यम से अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर  गुरुमुख से वेदश्रवण कर चिन्तन मनन उपरान्त प्रभु कृपा से गुरु मुख से तत्वमस्यादि महावाक्य श्रवण करते ही अहम्ब्रह्मास्मि , सर्वखल्विदम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म और प्रज्ञानम्ब्रह्म का बोध होने पर अपने प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा स्वरूप में स्थित होता है। यहाँ पहूँच कर गति समाप्त होजाती है। अतः इस अवस्था को परमगति कहते हैं। इसके उपरान्त विश्वात्मा ॐ और परमात्मा स्वरूपों में तो स्वतः स्थित हो जाता है।
ॐ तत्सत।इति।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है; मन्त्र का अर्थ।

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है;  मन्त्र का अर्थ।
इस मन्त्र को समझनें के लिए इसी क्षेत्र क्षेत्रज्ञ प्रकरण के मन्त्रों को समझना होगा। अतः

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 13 मन्त्र 19, 20, 21 और 22

प्रकृतिम् पुरुषम् चैव, विद्ध्यनादी उभावपि,
विकारांश्च गुणांश्चैव, विद्धि प्रकृतिसम्भवान।
श्रीमद्भगवद्गीता 13 / 19

कार्यकरणकर्तृत्वे, हेतुः प्रकृतिरुच्यते, 
पुरुषः सुखदुःखानाम् , भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।
श्रीमद्भगवद्गीता 13 / 20

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि, भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्,
कारणम् गुणसङ्गोsस्य, सदसद्योनिजन्मसु।
श्रीमद्भगवद्गीता 13 / 21

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः, परमात्मेति चाप्युक्तो देहsस्मिन्पुरुषः परः।
श्रीमद्भगवद्गीता 13 / 22

प्रकृतिम् पुरुषम् चैव, विद्ध्यनादी उभावपि,
विकारांश्च गुणांश्चैव, विद्धि प्रकृतिसम्भवान।19
(प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा) परम पुरुष और पराप्रकृति दोनों को ही अनादि जान और  विकारों और (सत्वरज और तम) गुणों को भी प्रकृति से उत्पन्न जान।19

स्पष्टीकरण -- प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा परब्रह्म अनादि हैं । इस स्वरूपमें स्थित पुरुष स्वतः विश्वात्मा ॐ और फिर परमात्मा में स्थित होजाता है। अर्थात 
परम पुरुष विष्णु और पराप्रकृति अर्थात विष्णु की माया दोनों ही अनादि है। शक्ति सदैव शक्तिमान के साथ ही रहती है । विष्णु अनादि हैं तो माया भी अनादि ही कही जायेगी।

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते, 
पुरुषः सुखदुःखानाम् भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते। 20
प्रकृति (पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुत रूपी) कार्य  , (दसों इन्द्रियाँ, और अन्तःकरण चतुष्टय रूपी) करण, और  कर्तृत्व  की हेतु कही जाती है; पुरुष सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का  हेतु पुरुष को कहा जाता है।20

स्पष्टीकरण ---
 पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुतों को कार्य कहते हैं।
दसों इन्द्रियाँ, और अन्तःकरण चतुष्टय को करण कहते है। (उपकरण यानि औजार की तरह कार्य करनें में सहायक करण कहलाते हैं।)  और  
कर्तृत्व  यानि कर्तापन
इन चारों की हेतु प्रकृति कही जाती है।
 सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का हेतु पुरुष को कहा जाता है।

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि, भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्,
कारणम् गुणसङ्गोsस्य, सदसद्योनिजन्मसु। 21 
 प्रकृतिस्थ पुरुष अर्थात मायाश्रित पुरुष  ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।21

स्पष्टीकरण ---
प्रकृतिस्थ पुरुष अर्थात मायाश्रित पुरुष  ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः, परमात्मेति चाप्युक्तो देहsस्मिन्पुरुषः परः।22
इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

स्पष्टीकरण -
इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

 *उपदृष्टा* मतलब जो सर्वाधिक निकटता से देखता है।
 *अनुमन्ता* मतलब जिसकी अनुमति के बिना इस जगत में कोई क्रिया नही होती। समस्त क्रियाएँ उसके संकल्प के अनुरूप हो चुकी है जिसका साक्षात्कार हम कर रहे हैं। केवल हमारे अनुभव में अब आ रही है। इसीकारण कोई ध्यानावस्था में कोई तन्द्रा में कोई स्वप्न में और कोई किसी घटना होने के शकुन के आधार पर विकल होय ते कपि के मारे , निश्चय जानो निशिचर संहारे जैसी भविष्यवाणी करते है। तो कोई होराशास्त्र के आधार पर  जातक या ताजिक  या सामुद्रिक शास्त्र के आधार पर भविष्यवाणी कर पाते हैं। वस्तुतः उन शास्त्रियों के द्वारा वह संकल्पित घटनाओं का दर्शन करना ही है। 
किन्तु क्रियाओं के साथ जो हम अपनी अहन्ता ममता के कारण अपने संकल्प जोड़ लेते हैं। उस क्रिया को हम जिस आषय से करते हैं और उस क्रिया को हम किस उद्देश्य की पुर्ती के लिये करते हैं वह हमारा कर्म कहलाता है। 
कुछ विद्यार्थी समझने के उद्देश्य से  पढते हैं।तो कोई याद करनें के लिये और कोई केवल परीक्षा में उत्तर  लिखकर अच्छे अंक प्राप्त्यर्थ ही पढ़ाई करते हैं। पहला अध्यैता है।दुसरा रट्टु और तीसरा लोभी।
महान क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल,  चन्द्रशेखर, भगतसिंह शहीद कहलाते हैं क्योंकि,क्रान्तिकारी कार्यक्रम  उनका कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक कार्य नही था।
चम्बल के बागी आदि डाकु कहलाये।और वर्तमान आतंकवादी सबकी घ्रणा के पात्र आतंकी कहलाते हैं।
तीनों की क्रियाओं कोई अन्तर नही है। पर कर्म एकदम भिन्न है।
शहीद उच्चतम लोकों को प्राप्ति के अधिकारी हुए। डाकु निम्न योनियों में जन्म के पात्र हुए। क्योंकि एकतो वे केवल बदले की भावना से किसी को दण्ड देनें के लिए बागी हुए। लूट में भी नैतिकता के आदर्शों का पालन करते थे।और लूट से प्राप्त धन जनकल्याण में निवेश भी करते थे।
और आतंकी  निम्नतम अन्धतम  लोकों के अधिकारी हुए।क्यों कि ये नृशन्स- बर्बर होते हैं। और इनका लक्ष्य भी हड़प नीति है।
किन्तु परमात्मा के ॐ संकल्प  में सर्व कल्याण ही निहित है। उनकी स्वाभाविक लीला है।इसे ही ऋत कहते हैं जिसे जाने बिना मौक्ष नही होता। उसी ॐ संकल्प के अन्तर्गत ही हम आजतक जो हो रहा है और भविष्य में भी जो होगा वह प्रभु की लीला मात्र है। उसे भ्रमवश हम अपना कर्म और कर्मफल मानेहुए हैं।
इसी ॐ संकल्प को आगे बढ़ाते हुए ही समस्त देव और देवता अपने अपने  शिवसंकल्प के अन्तर्गत ही कर्मकरते रहते हैं। जो ऋत के अनुकूल ही भावना रखकर किये जाते हैं। इसी लिए  परमात्मा के परब्रह्म स्वरूप में विष्णु और माया के परमेश्वर स्वरूप में नियत व्यवस्था के अन्तर्गत विष्णु के शासन के पदाधिकारी देवता गण है। सवित्र, नारायण, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, ब्रहस्पति, इन्द्र, आदित्य ,वसु , रुद्र आदि  जोकुछ करते हैं कृते परमेश्वर विष्णु परमपद ही करते हैं। परमेश्वर विष्णु के निमित्त , परमेश्वर विष्णु के लिए, परमेश्वर विष्णु की सेवा कार्यही करते हैं। अर्थात यज्ञ ही करते हैं। उनका अपना कैई कर्म नही है। इसलिए वह परब्रह्म प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा (परम पुरुष विष्णु और उनकी माया परा प्रकृति) अनुमन्ता कहलाता है।
 *भर्ता*  अर्थात पालक, पालनहार, भरण- पोषण करनें वाला, संचालक, अर्थात वह भी ऋत के अन्तर्गत कर्म करते हैं। यही बात भगवान श्रीकृष्ण नें बीहाफ ऑफ विष्णु कही है कि, यदि मैं निष्करर्मण्य (निठल्ला) हो जाऊँ तो मेरा ही अनुसरण करके सम्पूर्ण जगत निठल्ला हो जायेगा। अतः मेरे समान सभी को लोकसंग्रहार्थ कर्म करना चाहिए न कि, स्वार्थपूर्ति हेतु।
 *भोक्ता* अर्थात यज्ञभोक्ता। सर्वदेव नमस्कारं केशवम् प्रतिगच्छति। किसी के प्रति जिस किसी भाव (आषय और उद्देष्य) से कियागया कर्म उसी रूप में परब्रह्मप्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा, परम पुरुष, विष्णु परमपद, परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। 
हमारे द्वारा दिया गया दानभी उन्हे ही मिलता है तो हम यदि किसी का हक भी छीनते हैं तो वह भी उन्हे ही लूटते हैं।

 जिसप्रकार अतिसंग्रहकर्ता जमाखोर के प्रति भारत शासन दण्डात्मक कार्रवाई करता है वैसे ही परमेश्वर भी हमारी सरकार के रूप में जमाखोरों को (परिग्रही को) दण्ड देते हैं।
हिन्सा, मिथ्याचार, लोभ, चोरी, नारी के प्रति अभद्रता, परिग्रह, अपवित्रता, गन्दगी फैलाना, कृतघ्नता, मक्कारी, अनुचित चिन्तन,ईश्वर के प्रति अभिमान, अधीरता, आदि के मान्सिक कर्मों का दण्ड भारत शासन नही देपाता किन्तु वह परम शासक तो अविलम्ब आपके संस्कारों में उन कर्मों को भी जोड़ ही देते हैं। और तदनुसार आपके क्लेश, भय आदि रुपों में तत्काल फल भी मिलजाता है।
यह सब इसी लिए क्योंकि, हमारे मूल स्वरुप प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा परब्रह्म रूप में वही तो भोक्ता भी है। किन्तु चुँकि उसके किसी कर्म में कोई स्वार्थ निहित नही होता, कोई अहन्ता- ममता नही होती इस कारण उसके कोई नीजी भोग भी नही होते।

सभीने सुना होगा जबतक जगत का प्रत्यैक प्राणी भोजन ग्रहण नही करलेता , तृप्त नही हो जाता तबतक भगवान विष्णु भोजन ग्रहण नही करते।

अर्थात भगवान के समक्ष भोग रखकर नैवेद्य अर्पित करना ही पर्याप्त नही है बल्कि  बलिवैश्वदेव कर्म द्वारा हमसे सम्बन्धित समस्त जन्तु, वनस्पति,जड़- चेतन, दृष्य अदृष्य सभी भूतप्राणियों को भोजन अर्पित कर तृप्त कराये जाने के पश्चात ही भगवान हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य भोग ग्रहण करते हैं। और इस यज्ञ से बचाहुआ अन्न ही पोषण प्रदान करता है। अन्यथा इसके बिना तो वह चोरी का अन्न विष ही है।

ऐसा है परब्रह्म का भोग।

 *महेश्वर* मतलब ईश्वरों का भी ईश्वर महा ईश्वर। 
 *ईश्वरत्व* -- -  इसको ऐसे समझा जासकता है---

*ईश्वर* तो भूतात्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा , महादिक (प्राण-चेतना/ देही- अवस्था / धृति - धारयित्व) भी हैं। यह प्रथम पुर्ण साकार दीर्घवृत्तीय गोलाकार यानि अण्डाकार किन्तु ठोस, दृव गेस, प्लाज्मादि अवस्थाओं से परे है। 
 *जगदीश*   -   जीवात्मा अपरब्रह्म /विराट, महाकाल,  (अपर पुरुष - जीव/ नारायण- श्री लक्ष्मी/ आयु- त्रिगुणात्मक अपराप्रकृति) *जगदीश्वर*  हैं। 
यह स्वरूप तरङ्गाकार रूप में प्रथम साकार और महाकाल है। यह सृष्टि / जगत का अचल केन्द्र स्वरूप है।   वृत्ताकार फीते से निर्मित, आपस में कहीँ काट (क्रास) नही हो ऐसे अंग्रेजी के 8 के समान परिपथ में इसी की परिक्रमा हिरण्गर्भ करते हैं।
 *महेश्वर* प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) , ब्रह्म,विधाता, महाकाश , (पुरुष,/सवितृ,/श्रीहरि - कमला/ सावित्री/ प्रकृति)  महेश्वर हैं। 
यह स्वरूप सर्वगुणसम्पन्न है।किन्तु कालातीत है।
और
 *परमेश्वर*  - परमेश्वर तो प्रज्ञानात्मा/प्रज्ञात्मा परब्रह्म   (परमपुष/ विष्णु- माया/ पराप्रकृति) परमेश्वर हैं। यह प्रथम / अन्तिम सगुण स्वरूप है।जिसमे  ॐ तत्सत;   सच्चिदानन्द;   सत्यम्, ज्ञानम्, अनन्तम्  ब्रह्म;   सत्यम् शिवम् सुन्दरम्;  अनादिमत्पर ब्रह्म,न सतन्नासदुच्चते श्रीमद्भगवद्गीता 13/12 ऐसे सिमित गुण ही हैं। मूलतः तो यह स्वरूप भी लगभग गुणातीत ही है।
जबकि विश्वात्मा ॐ और परमात्मा तो गुणातीत हैं।
 *परमात्मा* चुँकि कोई भी पञ्चमहायज्ञों जिसमें अष्टाङ्गयोग और जप-तप आदि ब्रह्मयज्ञ में निहित है ही के माध्यम से और स्वयम् को परमात्मा के अर्पित कर, सदेव अविरत सोते- जागते, हँसते-रोते, ग्रहण- उत्सर्जन करते हुए भी हरिनामस्मरण  सदैव जगत्सेवा में तत्पर रहकर यानि बुद्धियोग के माध्यम से अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर  गुरुमुख से वेदश्रवण कर चिन्तन मनन उपरान्त प्रभु कृपा से गुरु मुख से तत्वमस्यादि महावाक्य श्रवण करते ही अहम्ब्रह्मास्मि , सर्वखल्विदम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म और प्रज्ञानम्ब्रह्म का बोध होने पर अपने प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा स्वरूप में स्थित होता है। यहाँ पहूँच कर गति समाप्त होजाती है। अतः इस अवस्था को परमगति कहते हैं। इसके उपरान्त विश्वात्मा ॐ और परमात्मा स्वरूपों में तो स्वतः स्थित हो जाता है।
ॐ तत्सत।इति।

शरीरान्तर्वर्ती प्रज्ञात्मा और प्रत्यगात्मा दो पक्षी का अर्थ।

शरीरान्तर्वर्ती प्रज्ञानात्मा और प्रत्यागात्मा दो पक्षी का अर्थ।

कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली 03/ मन्त्र 01 , 

ऋतम् पिबन्तौ सुकृतस्य लोके, गुहाम् प्रविष्टौ परमें परार्धे ;
छाँयातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

तीनबार नचिकेता अग्नि चयनकर्ता पञ्चाग्निसेवी  आत्मज्ञ, ब्रह्मवेत्ता ,परमगति को प्राप्त धीर पुरुष यह कहते हैं कि,---

सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक में,  (या मानव देह में)  परम परार्ध  गुहा (चित्त) मे प्रविष्ट होकर ऋत का पान करने वाले छाँया और धूप के समान प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म  और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म हैं।

स्पष्टीकरण ---

सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक  अर्थात (देश, कुटुम्ब,परिवार और योनि, तथा देह  या प्रकारान्तर से मानव देह ।

 परम परार्ध  गुहा में अर्थात अंगुष्ठ प्रमाण पुरुष रूपी बुद्धि आकाश में चित्त में।

ऋत का पान करने वाले अर्थात परम सत्य परमेश्वरीय विधि के पालन करने वाले।

छाँया और धूप के समान  अर्थात दो विपरीत प्रकृति वाले पुरुष या वेदान्त की भाषा में बिम्ब और प्रतिबिम्ब अर्थात प्रत्यागात्मा (पुरुष-प्रकृति) (अन्तरात्मा) ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) ।

ऋग्वेद मण्डल 01/सुक्त 164/ मन्त्र 20, 
अथर्ववेद काण्ड 09/ सुक्त14/मन्त्र 20, 
मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/ मन्त्र 01
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 06

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानम् वृक्षम् परिषस्वजाते ;
तयोरन्यः पिप्पलम्  स्वादन्त्यनश्नन्नन्यो, अभिचाकशीति।

प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म  ये दो पक्षी मित्रता पुर्वक एकसाथ  एक ही (पिप्पल) वृक्ष अर्थात  एक ही शरीर में रहते हैं।
उनमें से प्रत्यागात्मा (पुरुष-प्रकृति) (अन्तरात्मा) ब्रह्म पिप्पल वृक्ष के फलों का (यानि कर्मफलों का) भोगकरता है और दुसरा पक्षी प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म   केवल दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है।

स्पष्टीकरण ---

 दो पक्षी यानी   प्रत्यागात्मा (पुरुष-प्रकृति) (अन्तरात्मा) ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) ये दो पक्षी है।
 मित्रता पुर्वक एक ही (पिप्पल) वृक्ष का आश्रय लेकर  अर्थात एक ही शरीर में (रहते हैं)।
उनमें से प्रत्यागात्मा (पुरुष-प्रकृति) (अन्तरात्मा) ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री)  जो  पिप्पल वृक्ष के फलों का स्वाद लेता है  यानि कर्मफल भोगकरता है। यानि अन्य अर्थ में गुणों के सङ्ग के कारण गुण सङ्गानुसार विभिन्न योनियों में प्रवेश करता है।
दुसरा पक्षी अर्थात प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया)।
दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है। अर्थात स्वार्थ (स्वयम् के लिये) कर्म न करता है। अतः कर्मफल भोगता भी नही है बल्कि केवल दृष्टा है।

मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/मन्त्र 02
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 07

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोनीशया, शोचति मुह्यमान;
जुष्टम् यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य , महिमानमिति वीतशोकः।

अर्थ --- इस समान वृक्ष पर (शरीर में) प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) भोगों में निमग्न होकर अनीश होकर (आत्मसंयम स्वनियन्त्रण नही होने के कारण ईशित्व रहीत होकर  अनात्मा में आत्मभाव होने से मोहित होकर शोचनीय अवस्था में रहता है। वही प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म की महिमा को देखता है तब संसर्ग के प्रभाव से शोकरहित हो जाता है अर्थात आनन्द का अनुभव करता है तब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से जुड़ जाता है। युक्त हो जाता है। अब वह अनुभव करता है कि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।  


स्पष्टीकरण ---

 समान वृक्ष पर अर्थात शरीर में।

अनीश होकर  अर्थात आत्मसंयम स्वनियन्त्रण नही होने के कारण  ईशित्व रहित होकर।

 गुह्यमान अर्थात मोहित होकर अर्थात अनात्मा में आत्मभाव होने से  गलत को ही सही मानने के कारण मोहित होना ।
 
 शोचनीय अवस्था अर्थात दुरावस्था ।

महिमा अर्थात महत्ता को देखता है ।
वीतशोक  अर्थात शोकरहित । यानि आनन्दित रहना।
(तब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से )
जुष्ट अर्थात जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
【क्योंकि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।】

सुचना --- यहाँ जुष्ट शब्द का अर्थ क्रिया विशेषण रूप में अर्थ जुड़ना किया गया है। जबकि अधिकांशतः जुष्ट शब्द का संज्ञारूप अर्थ जुठा / जुठन यानि उच्चिष्ठ के अर्थ में किया जाता है। जबकि यहाँ उच्चिष्ठ की कोई सार्थकता नही है। भक्तों द्वारा नित्य सेवित अर्थ भी किया गया। लेकिन इस स्थान पर सेवित शब्द भी सार्थक नही है। अतः उचित अर्थ युक्त होना या जुड़जाना ही लगता है।

गुरुवार, 23 जुलाई 2020

सभी प्रकार के जन्तु और वनस्पति में जीवात्मा होती है।

भारतीय वेदिक दर्शनानुसार सभी प्रकार के जन्तु और वनस्पति में जीवात्मा होती है।

श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 03/मन्त्र 20 और 
कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली02/मन्त्र 20 

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ।

इस जीवधारि के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा  सुक्ष्मतम  भी है और महा से अतिमहा भी है। आत्मा की उस महिमा (महत्ता) को उस जीवधारी को धारण करने वाले प्रज्ञात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामनारहित जानता है, वह यह जानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों का आपसी व्यवहार या बर्ताव ही सब क्रियाएँ है। यह जानने वाला अकृत पुरुष ;  जिनके समस्त दुख सन्तान निवृत्त हो गये है वे ही जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञात्मा परब्रह्म को जानपाते हैं।
जैसे विज्ञान की दृष्टि से उर्जा को भी आप केवल सुक्ष्म या केवल विराट नही कहा जा सकता ऐसे ही प्रज्ञात्मा का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म और सबसे बड़ा दोनों है।  यह स्पष्ट किया गया है कि,  प्रज्ञात्मा न केवल शरीरान्तर्वर्ती है अपितु समस्त शरीर भी प्रज्ञात्मा के अन्तर्वर्ती हैं। अतः यह नही कहा जा सकता कि पैड़ पौधों में हृदय या मस्तिष्क नही होता तो आत्मा कहाँ रहेगी। यह भी कहना गलत सिद्ध होजायेगा कि, हृदय या मस्तिष्क के प्रत्यारोपण होनें से आत्मा का भी प्रत्यारोपण होजायेगा। या कृत्रिम हृदय या कृत्रिम मस्तिष्क लगादिया अतः आत्मा कैसे होगी? यह सभी प्रश्न खारिज हो जाते हैं। क्योंकि आत्मा हर कण में है और हर चीज आत्मा में है। क्योंकि मूलतः सब पदार्थ ,दिक, काल, एटम के इलेक्ट्रॉन ,फोटान, आदि सभी सुक्ष्मतर कण भी आत्मा का ही रुपान्तरण मात्र हैं।
इसी सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 एवम् 02 भी अवलोकनीय हैं।

छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 एवम् 02

तेषाम् खल्वेषाम् भूतानाम् त्रीण्येव बीजानि भवन्त्याण्डजम् जीवजमुद्भिज्जमिति।। छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 

 उन इन (पक्षी आदि) प्रसिद्ध प्राणियों के तीन ही बीज होते हैं -- 01आण्डज यानि अण्डे से उत्पन्न अण्डज,
02 जीवज यानि जरायुज यथा मानव और पशु आदि गर्भ से सीधे बच्चा होने वाले और 
03 उद्भिज यानि वनस्पति के बीज / दाने से उत्पन्न। 

(सुचना -- यहाँ  पसीने से उत्पन्न स्वेदज और उष्मा से उत्पन्न शंकोकज को भिन्न नही माना है।)

सेयम् देवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन , जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरव्राणीति।। छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र  02

उस इस ('सत' नामक) देवता ने ईक्षण किया , 'मै इस जीवात्मा रूप से' इन तीनों देवताओं में अनुप्रवेश कर नाम और रूप की अभिव्यक्ति करूँ।

अर्थात अण्डज, जरायुज (जीवज) और बीजों से उत्पन्न वनस्पति (उद्भिज) में भी जीवात्मा अपरब्रह्म, विराट होता है या रहता है।
इसी प्रकार जड़ पदार्थों में भी भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा होता है या रहता है। इसलिए इनके लिये भूतमात्र शब्द प्रयोग किया जाता है।

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य मन्त्र का अर्थ।

  
श्वेताश्वतरोपनिषद के तृतीय अध्याय के बीसवें मन्त्र और कठोपनिषद के प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली के बीसवें मन्त्र अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य मन्त्र का अर्थ।


श्वेताश्वतरोपनिषद  के तीसरे अध्याय का बीसवाँ मन्त्र है। और कठोपनिषद  प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली का बीसवाँ मन्त्र--
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः।।का अर्थ -- 


अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः
श्वेताश्वतरोपनिषद 03/20 और कठोपनिषद 01/02/20 

इस जीवधारी के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा  सुक्ष्मतम  भी है और  महा से अतिमहा भी है।  आत्मा/ प्रज्ञात्मा की उस महिमा (महत्ता) को उस जीवधारी को धारण करने वाले प्रज्ञात्मा या प्रज्ञात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामना रहित पुरुष जानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों का आपसी व्यवहार या बर्ताव ही सब क्रियाएँ  है यह जानने वाला अकृत पुरुष ;  जिनके समस्त दुख सन्तान निवृत्त हो गये है वे वीतशोक पुुुुरुष ही याानि जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञात्मा परब्रह्म को जान पाते हैं।

स्पष्टीकरण ---
जन्तु यानि जीवधारी।
बुद्धिगुहा के केन्द्र मे अर्थात चित्त में ।
निहित अर्थात रहने वाला प्रज्ञात्मा ही देहधारी तत्व है। अतः प्रज्ञात्मा को जन्तोर्निहित कहा गया है।
इलेक्ट्रॉन, पॉजिट्रॉन या फोटान, क्वार्क आदि का भी कारण होने से अणोरणीयान् अर्थात सुक्ष्मातिसुक्ष्म कहा है।
जीवात्मा  अपरब्रह्म को विराट कहते हैं। इस विराट से महत् विधाता, प्रत्यागात्मा ब्रह्म होता है; किन्तु उस प्रत्यागात्मा ब्रह्म से भी परे, सबसे महा (महान) प्रज्ञात्मा परब्रह्म है अतः महतो महीयान् कहा है।इसी कारणउन्हे परम ब्रह्म कहा है। 
 जिससे  आगे या जिसके बादमे उस श्रेणी में कुछ नही हो उसे परम कहते हैं। बरः यानि बड़ा से भी महः यानि महा  होता है।अतःः ब्रह्म का मतलब बड़े से भी महत्तर होता है।अतःपरम ब्रह्म कहते हैं। परब्रह्म कहते हैैं।
परमात्मा और विश्वात्मा ॐ गुणातीत हैं अतः उन्हे धारणकर्ता भी नही कहा जा सकता।अतः जीवनधारक प्रज्ञात्मा ही कही जा सकता है।
क्रियाओं को अपने द्वारा होना न मानने वाला, जो ज्ञानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों के आपसी व्यवहार या बर्ताव को ही सब क्रियाएँ  है उसे अक्रत कहते हैं। उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं।
जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है उन्हे वीतशोक कहते हैं।
 वे ही देखपाते है अर्थात   वे ही जान पाते है। ऐसे आत्मज्ञ को ईशावास्योपनिषद में धीरपुरुष कहा है। वे सद्योमुक्त यानी जीवनमुक्त होते हैं अर्थात इस जीवन में जीवीत रहते हुए भी मुक्त रहते हैं।

शनिवार, 11 जुलाई 2020

वर्णाश्रम धर्म और प्रवृत्ति मार्ग , निवृत्ति मार्ग और श्रमण परम्परा, और नास्तिक मत और तन्त्र मार्ग

वर्णाश्रम धर्म और प्रवृत्ति मार्ग , निवृत्ति मार्ग और श्रमण परम्परा, और नास्तिक मत और तन्त्र मार्ग 
 
वेदिक वर्णाश्रम धर्म (प्रवृत्ति मार्ग) और निवृत्ति मार्ग के साथ ही तन्त्र भी सहचारी रहा हैं। या यदि समयान्तर है भी तो बहुत कम समय का। जिन्हें वेदों में असुर कहा है वे मूलतः तान्त्रिक ही थे। 

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने आरम्भ में सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन और नारद जैसे अकेले पुरुष ही रचे। उनसे सृष्टि का विकास नही होसका अतः फिर उनके रोष से अर्धनारीश्वर महारुद्र शंकर हुए। किन्तु रुद्र के स्वभाव सृजन नहीं प्रलय था। रुद्र हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के आदेश पर रुद्र सृजन नहीं कर पाये अतः हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के आदेश पर रुद्र  तप में संलग्न होगये।
फिर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने प्रजापति और सरस्वति को उत्पन्न किया। 

 प्रवृत्ति मार्ग -- यह वर्णश्रम धर्म कहलाता है। 

 प्रजापति - सरस्वती ने  स्वःलोक यानि देवलोक के लिये 1 देवेन्द्र - शचि, 2अग्नि - स्वाहा  ये दो जोड़े और 3 देवर्षि नारद को उत्पन्न किया।
भुवः लोक (अन्तरीक्ष) के लिए  पितरः (अर्यमा) - स्वधा को उत्पन्न किया और पुर्व में उत्पन्न रुद्र को भी भुवः लोक में स्थापित किया। ऋग्वेद में रुद्र का वास अन्तरीक्ष बतलाया गया है।
फिर भूलोक के लिये 1 दक्ष -  प्रसुति, 2 रुचि - आकुति, 3 कर्दम - देवहूति नामक प्रजापतियों के तीन जोड़े उत्पन्न किये और 1 मरीची, 2 भृगु, 3 अङ्गिरा, 4  वशिष्ठ, 5  अत्रि, 6 कृतु, 7 पुलह, 8 पुलस्य ऋषियों को उत्पन्न किया। दक्ष को छोड़ शेष सबकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी होने से ब्राह्मण कहलाई। जबकि दक्ष प्रजापति राजर्षि हुए। 
स्वायम्भुव मनु  - शतरूपा भूलोक के लिये राजाधिराज महाराज और सम्राट हुए। इनकी सन्तान क्षत्रिय कहलाई। बाद में इन क्षत्रियों में से ही वैष्य और राजकीय सेवक यानि शुद्र भी हुए। 
 1 दक्ष और 2 रुचि और 3 कर्दम तीनों  प्रजापति कहलाये। वर्तमान का उत्तराखण्ड ,कश्मीर, और तिब्बत, पामिर, और ताजिकिस्तान, किरगिस्तान, उजाबेगिस्तान, तुर्कमेनिस्तान,  कजाकिस्तान  इन ऋषियों का क्षेत्र रहा।
शेष 4 मरीचि 5 भृगु,6 अङ्गिरा, 7 वशिष्ठ, 8 अत्रि, 9 कृतु, 10 पुलह और 11 पुलस्य ऋषि कहलाते हैं। दक्ष प्रजापति की पुत्रियों से इनके विवाह हुए।
1 मरीची की पत्नी सम्भूति , 2 भृगु की पत्नी ख्याति , 3 अङ्गिरा की पत्नी स्मृति, 4 वशिष्ठ की पत्नी उर्ज्जा,  5 अत्रि पत्नी अनसूया, 6 कृतु की पत्नी सन्तति, 7 पुलह की पत्नी क्षमा, 8 पुलस्य की पत्नी प्रीति हुई।
वस्तुतः स्वायम्भुव मनु भी प्रजापति ही हैं। इनका क्षेत्र वर्तमान, वर्तमान,इरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान  (उतर पश्चिम सीमान्त प्रान्त,बलुचिस्तान,सिन्ध, पञ्जाब, ) और भारत में पञ्जाब हरियाणा राजस्थान और गुजरात, और उत्तर प्रदेश एवम्  उत्तरी मध्य प्रदेश रहा तथा उत्तर पश्चिमी महाराष्ट्र रहा।
[सुचना - उस समय दक्षिण भारत का हिस्सा भारतीय भूभाग से मिला ही था। विन्द्याचल उँचा हो रहा था। वर्तमान हिमालय के क्षेत्र में उत्तर सागर सिकुड़ कर हिमालय बन रहा था। युराल पर्वत भी उँचा हो रहा था। अतः दक्षिण भारत और पुर्व भारत में बसाहट नही थी। प्रायः वन क्षेत्र था।]
इन सभी (बारहों) नें वर्णाश्रम धर्म यानि प्रवृत्ति मार्ग के प्रवर्तक हुए। ये यज्ञ , योग और ज्ञान मार्गी थे।ये   सर्वव्यापी विष्णु के  स्वरुप मे ईश्वर की आराधना उपासना यज्ञ और योग के द्वारा करते थे।
इन तीनों जोड़ों ने नर नारी रुप सृष्टि की। दक्ष प्रजापति की पत्नी प्रसुति और रुचि प्रजापति की पत्नी आकुति और कर्दम प्रजापति की पत्नी देवहूति को स्वायम्भुव मनु की पुत्री भी माना गया। स्वायम्भुव मनु के पुत्र उत्तानपाद और प्रियवृत हुए। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव और उत्तम हुए। और प्रियवृत के आग्नीन्ध्र आदि नौ पुत्र हुए।
स्वायम्भुव मनु और शतरूपा के पुत्र प्रियवृत को के दस पुत्र और तीन (मानस) पुत्रियाँ हुई। जिनमें तीन पुत्र निवृत्ति परायण हो गये। मनु पुत्रों में निवृत्ति मार्ग का प्रारम्भ यहीँ से हुआ। शेष सात पुत्रों को प्रियवृत ने  1 आग्नीन्ध्र, 2  मेधातिथि, 3  वपुष्मान, 4  ज्योतिष्मान, 5 द्युतिमान, 6 भव्य,  और 7 सवन सप्तद्विपों का उत्तराधिकारी बनाया।
उन में से आग्नीन्ध्र को जम्बूद्वीप का राज्य मिला। शेष को वर्तमान एशिया से बाहर के द्वीप मिले।
आग्नीन्ध्र के नौ पुत्र 1 नाभि (जो अजनाभ भी कहलाता है),  2 किम्पुरुष  3 हरिवर्ष,  4 इलावृत,  5 रम्य,  6 हिरण्यवान, 8 भद्राश्व, 9 केतुमाल  हुए। अजनाभ को जम्मुद्वीप का दक्षिणी भाग का उत्तराधिकार मिला। शेष आठ पुत्रों को भारत से बाहर के क्षेत्र मिले। अजनाभ ने उसके राज्यक्षेत्र को अजनाभ वर्ष नाम दिया। अजनाभ को नाभि भी कहते हैं अतः अजनाभ वर्ष को नाभिवर्ष भी कहते हैं। 
अजनाभ के तीन.पुत्र 1 ऋषभदेव 2 अतिशय और 3 कान्तिमान  हुए। इनमे वरिष्ठ पुत्र ऋषभदेव को भी नाभिवर्ष का राज्य उत्तराधिकार में मिला।  
ऋषभदेव के पुत्र भरत सहित सौ पुत्र हुए। इनमें भरत चकृवर्ती सबसे बड़े थे।
ऋषभदेव नें शरीर और इन्द्रियों के बलवान रहते ही सन्यास धारण कर लिया।
ऋषभदेव के वरिष पुत्र भरत चकृवर्ती को भी नाभिवर्ष (अजनाभ वर्ष) उत्तराधिकार में मिला पर उनने अजनाभ वर्ष / नाभिवर्ष का नाम बदलकर भारतवर्ष रखा। तब से इस देश का नाम भारतवर्ष प्रचलित है।

निवृत्ति मार्ग 

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के मानस पुत्रों  सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन, नारद ने निवृत्ति मार्ग का आरम्भ सृष्टि के आदि में ही कर दिया था। जिसे मानवों में उत्तानपाद और प्रियवृत के पुत्रों ने  अपनाया। कपिल ऋषि भी निवृत्त हुए। वेदव्यास जी के पुत्र शुकदेवजी भी निवृत हुए। किन्त वेदानुयायियों  को वर्णश्रम धर्म ही अधिक प्रिय रहा है।
परवर्ती शैव परम्परा नें निवृत्ति मार्ग को अपनाया किन्तु वैष्णव प्रवृति मार्गी ही रहे।

श्रमण परम्परा

निवृत्ति का भिन्न स्वरूप श्रमण परम्परा -- निवृत्ति मार्ग का ही विकृत स्वरूप श्रम परम्परा है। ये स्वयम को तार्किक और बुद्धिवादी मानते थे इसलिए बौद्ध भी कहे जाते थे। जिनकी परम्परा में ही सिद्धार्थ को गोतम बुद्ध कहा गया। सिद्धार्थ गोतम बुद्ध के समय महावीर ने इस परम्परा को जैन कहा। इस प्रकिया में यह दो बौद्ध और जैन सम्प्रदायों में विभक्त हो गया।
 ऋषभदेव ने सन्यास आश्रम की अन्तिम अवस्था मे नग्न रहना आरम्भ किया। इनके पहले के सन्यासी वन में ही रहते किन्तु दिगम्बर नही रहते थे। तब से निवृत्ति मार्ग का एक नवीन स्वरूप श्रमण परम्परा आरम्भ हुई। श्रमण मार्गियों में जैन परम्परा ने ऋषभदेव को आदिगुरु मान लिया। ऋषभदेव को जैन आदि तिर्थंकर कहते है।

नास्तिक मत

जो वेदों को परम सत्य और प्रमाण नही मानते वे नास्तिक कहलाते हैं।
चुँकि वेद सृष्टिकर्ता, और सृष्टि संचालक तथा प्रलय कर्ता परमात्मा के ईश्वर स्वरूप को मानते हैं अतः ईश्वर को सृष्टिकर्ता, और सृष्टि संचालक तथा प्रलय कर्ता न मानने वाले भी नास्तिक कहलाते हैं।

वेद विरोधी मत

पुर्व काल में असुर भी वेदानुयायी ही थे। किन्तु बाद में देत्यों और दानवों के संसर्ग में असुर वेद विरोधी होगये। इसकारण वे वेदों के अनुशासन को अस्वीकार करने लगे। ये वेदिक व्यवस्था को अस्वीकार कर उसका विरोध करने वाले वेद विरुद्ध मतों के प्रवर्तक हुए। 

तन्त्रमार्ग

तन्त्रमार्ग  --   पशुपति महारुद्र शंकर के शिश्य शुक्राचार्य और शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा और त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप हुए। त्वष्टा और उनके विश्वरूप ने शाक्त सम्प्रदाय और तन्त्रमत आरम्भ किया। उनके अलावा अत्रिपुत्र दत्तात्रय भी विश्वरूप के अनुगामी हुए। पशुपति महारुद्र शंकर जी से हटयोग सीखा और प्रचारित किया।  एवम् पशुपतिनाथ महारुद्र शंकर के शिश्य मण्डला मण्डल के कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन तथा लक्ष्यद्वीप क्षेत्र में लंकावासी रावण भी शाक्त मत, तन्त्र और हटयोग के अनुयायी हुए। इन सबने शाक्त मत, तन्त्र और हटयोग का प्रचार किया।
 तन्त्र का मतलब व्यवस्था है । यह  वेदिक वर्णश्रम व्यवस्था से भिन्न नई व्यवस्था है जो वेदों को अन्तिम प्रमाण नही मानती। तन्त्र अवेदिक और कुछ हद तक वेदविरोधी मत है।
तन्त्रमत वेदिक स्थापनाओं और मान्यताओं का विरोध करते हैं।

 विश्वामित्र और वशिष्ठ ने आपसी संघर्ष के चलते सर्वप्रथम त्वष्टा के तन्त्र का प्रयोग किया । किन्तु त्वष्ठा के पुत्र विश्वरूप के असुर प्रेम को देखते हुए  पहले  वशिष्ठ ने और बादमें  विश्वामित्र ने तन्त्रमत को छोड़ दिया और वेदों की ओर लोट आये। वशिष्ठ और विश्वामित्र द्वारा अपनाया गया त्वष्टा रचित  तन्त्रमत समय मत नाम से प्रचलित है जिसको आगम ग्रन्थों और पाञ्चरात्र  ग्रन्थों में अपनाया गया । सौन्दर्य लहरी के रचियता शंकराचार्य भी इसी मत के थे।

कार्तिकेय के जन्म  से शंकर जी ने फिर तन्त्रमार्ग को आरम्भ किया।  शंकरजी के शिष्य शुक्राचार्य ने तन्त्रमार्ग को आगे बढ़ाया।
शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा ने भी आदित्य त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के मार्ग पर चल कर शाक्त पन्थ की स्थापना की सिन्धु घाँटी में मिली मात्रका और लिङ्ग योनि प्रतिमा इनके प्रमाण है। युनान के पास क्रीट द्वीप की शाक्त परम्परा इन्ही की देन है।  यह परम्परा कलियुग में भारत में पुनः आई। इसमें नन्द यशोदा की पुत्री जो कन्स के हाथों छूट कर तड़ित विद्युत के रूप में आकाश में चली गई थी उन्हे ही आदिशक्ति विन्द्यवासिनी देवी के रूप में पुजा जाने लगा।

फिर दत्तात्रय ने वर्तमान तन्त्र मत की स्थापना की। दत्तात्रय के शिष्य कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हैं। यह भी शैव और शाक्त पनँथ का मिश्रित रूप है। इसमें इष्ट शंकर और उनकी शक्ति पार्वती तथा पुत्र विनायक गजानन और कार्तिकेय भी पुज्य हैं । साथ ही भैरव को शंकर के अवतार के रुप में पुजा जाता है। भैरव इनका मुख्य देव भी है। बगलामुखी देवी और पीताम्बरा पीठ इनकी ही परम्पराए को आगे बढ़ा रहे है। यह भी समय मत का ही विकृत रुप ही था।
दत्तात्रय के दुसरे शिष्य रावण ने सुमाली के सानिध्य में कोल मत आरम्भ किया। मयासुर  से शिक्षा ग्रहण कर रावणपुत्र मेघनाद ने इन्द्रजाल का आरम्भ किया।

इधर जैनाचार्यों ने निवृत्ति के साथ तन्त्र मार्ग को संयुक्त कर अनेकान्त दर्शन के साथ अतिवादी शैवपन्थ का नवीन संस्करण श्रमण संस्कृति तैयार की। जिसे महापीर ने जैन मत नाम दिया। यह भी तन्त्रमार्ग का ही अनुसरण करता हैं

सिद्धार्थ गोतम बुद्ध ने भी इसी परम्परा को आगे बढ़ाया। इनके महायानी शिश्यों नें शुन्यवाद और विज्ञानवाद बनाये। 
इनमें से ही निकला तान्त्रिक सम्प्रदाय वज्रयान मत। जिसपर बादमे ताओ का भी प्रभाव पड़ा।

गिरनार वासी एकमुखी दत्तात्रय ने कापालिक मत का वैतालिक रुप विकसित किया। यह वज्रयान का निकटवर्ती था। जिसे नेपाल के मत्स्येंद्रनाथ को सिखाया। यह लोकमान्य नही हो पाया। मत्स्येंद्रनाथ ने गोरखनाथ को शिष्य बनाया। लेकिन गोरखनाथ ने रावण आदि के ग्रन्थों और अन्य परम्पराओं से सीख कर योग का नवीन स्वरूप हठयोग अपनाया।  तन्त्र में शुन्यवाद और सांख्य दर्शन मिलाकर नया दर्शन तैयार किया जिसका लक्ष्य शिवकेली रखा। इसप्रकार यह भक्तिमत भी दिखता है।यह बहुत लोकप्रिय हुआ।
जलन्धरनाथ ने वैतालिक मत को ही आगे बढ़ाया।
नाथों का एक विचित्र टोटके ने भारत से बौद्धों की समाप्ति में बड़ा योगदान दिया।वह आपने भी पढ़ा होगा। यदि बौद्ध भिक्षु भिक्षा लेने द्वार पर आये वैसे ही उसके सर पर एक लट्ठ मार दो तो वह सोनें का बन जायेगा।
अब वह सोनें का बनें ना बनें भिक्षु तो कम हो ही गया।😂
मोर पंख की झाड़नी भी इनकीही देन है। जो सुफियों ने इस्लाम में भी अपनाई ।

सोमवार, 6 जुलाई 2020

जन्म लग्न के नक्षत्र चरण से जन्मनाम का प्रथम वर्ण और वेदिक सायन सौर मास गतांश के ईकाई अंक से नाम निर्धारण की संस्कृत वर्णमालानुसार प्राचीन विधि

परम्परागत अवकहड़ा चक्र से जन्मनाम रखनें में कई दोष हैं।यथा 
1 वर्ण के स्थान पर अक्षरों का प्रयोग होना। 
2 कुछ ऐसे अक्षर हैं जिनसे कोई शब्द नही बनता। जैसे आर्द्रा  तृतीय चरण का अक्षर ङ  हस्त तृतीय चरण का अक्षर ण, और उत्तराभाद्रपद चतुर्थ चरण का अक्षर से कोई शब्द नही बनता। तो नाम कैसे बनेंगा।
3  किसी भी नक्षत्र चरण में एवम् वर्ण नही होना। इसकारण वर्ण वाले नाम को वृष राशि रोहिणी नक्षत्र द्वितीय,तृतीय और चतुर्थ चरण वा , वी, वू और मृगशिर्ष नक्षत्र प्रथम और द्वितीय चरण के अक्षर वे, वो  मानना पड़ता हैं। अर्थात ओष्ठव्य व्यञ्जन  के स्थान पर दन्त्त्योष्ठव्य व्ययञ्जन  का प्रयोग ध्वनि विज्ञान और संस्कृत वर्णमाला पद्यति के विपरीत है। और वर्ण के लिये हस्त नक्षत्र द्वितीय चरण का अक्षर और कुम्भ राशि में  शतभिषा के द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ  चरण के सा,सी, और सु अक्षर और पुर्वाभाद्रपद नक्षत्र के प्रथम - द्वितीय चरण के से सो अक्षर से काम चलाना पड़ता है।
4 अवकहड़ा चक्र का संस्कृत वर्णमाला से मैल  नही है। अवकहड़ा चक्र किस आधार पर बना इसका कोई प्रमाण भी उपलब्ध नही है। 
उक्त कारणों से असन्तुष्ट होने के कारण मेनें संस्कृत ग्रन्थों में खोजबीन की तो सर्वप्रथम अग्नि पुराण में मन्त्र विद्या में अग्निपुराण अध्याय 293 श्लोक 10 से 15 तक नक्षत्र चक्र राशि चक्र और सिद्धादादि मन्त्र शोधन प्रकार में आधार मिला। इसी आधार पर संस्कृत वर्णमाला पर आधारित यह चक्र तैयार हुआ।

जन्मनाम निर्धारण संस्कृत पद्यति से।

जन्मलग्न के नक्षत्र चरण के अनुसार जन्मनाम/ देह नाम अर्थात प्रचलित नाम जो स्कुल कॉलेज में लिखा जायेगा।आधार कार्ड, पैनकार्ड, पासपोर्ट, बैंक खाते आदि में अंकित होगा उस नाम का प्रथम वर्ण इसी वर्ण पर रखें। या 
जन्मलग्न के नक्षत्र चरण के वर्ण पर नाम नही जम रहा हो तो अपवाद में दशम भाव स्पष्ट के नक्षत्र चरणानुसार कर्मनाम भी रख सकते हैं।
अध्यात्मिक गुरु सुर्य के नक्षत्र चरणानुसार नाम रख  गुरुनाम रखाजाये।
तन्त्र क्रिया हेतु तान्त्रिक आचार्य प्रदत्त नाम मानस नाम जन्म कालिक चन्द्रमा के नक्षत्र चरणानुसार रखें।

राशि/नक्षत्र के चरणानुसार जन्म नाम का प्रथम वर्ण

राशि  /  नक्षत्र चरण       १    २     ३    ४  
  
मेष  /   अश्विनि               अ   अ    अ   अ       
मेष  /    भरणी               आ  आ   आ  आ            
मेष  /   कृतिका               इ    
                 
                                    १    २     ३    ४

वृष   / कृतिका                      इ     ई     ई
वृष   / रोहिणी                 उ   उ     ऊ    ऊ
वृष   / मृगशिर्ष               ऋ  ऋ  

                                    १    २     ३    ४

मिथुन/ मृगशिर्ष                            ऋ  ऋ
मिथुन/ आर्द्रा                   ए    ए     ऐ    ऐ
मिथुन/पुनर्वसु                 ओ  ओ   औ 

                                    १    २     ३    ४

कर्क  / पुनर्वसु                                  औ
कर्क  / पुष्य                    अं  अं    अः  अः
कर्क  / आश्लेषा               क  क    ख   ख 

                                     १    २    ३    ४

सिंह  / मघा                      ग   ग    घ   घ
सिंह/पुर्वाफाल्गुनि              च  च    छ   छ
सिंह/उत्तराफाल्गनि   ज

                                      १    २    ३    ४

कन्या/उत्तराफाल्गुनि                ज   झ   झ
कन्या  /  हस्त                   ट    ट     ठ   ठ
कन्या  /  चित्रा                  ड    ड   

                                      १    २    ३    ४

तुला  /    चित्रा                               ढ   ढ
तुला  /    स्वाती                  त   त    थ   थ
तुला  /  विशाखा                 द   द    ध    

                                      १    २    ३    ४

वृश्चिक/ विशाखा                                  ध
वृश्चिक/ अनुराधा                न    न    न    न
वृश्चिक/ ज्यैष्ठा                    प    प   फ   फ

                                      १    २    ३    ४

धनु   /  मुल                       ब   ब    भ   भ
धनु   / पुर्वाषाढ़ा                 म   म    म    म  
धनु  / उत्तराषाढ़ा                य

                                      १    २    ३    ४

मकर/ उत्तराषाढ़ा                     य    य   य
मकर /  श्रवण                    र    र    र    र
मकर / धनिष्ठा                   ल   ल

                                      १    २    ३    ४

कुम्भ / धनिष्ठा                                ल   ल
कुम्भ / शतभिषा                 व   व    व    व
कुम्भ / पुर्वाभाद्रपद             श   श    ष  

                                       १    २    ३    ४

मीन /  पुर्वाभाद्रपद                                ष
मीन / उत्तराभाद्रपद             स   स    स   स
मीन /  रेवती                       ह   ह     ह    ह




मात्रा लगाने की विधि / नियम --

प्रथम एवम् त्रतीय चरण में मुल स्वर हैं। द्वितीय और चतुर्थ चरण में आ से औ तक की मात्रा वाले अक्षर  जन्मनाम का प्रथमाक्षर रहेगा।

जिन नक्षत्रों में प्रथम और त्रतीय चरण में अलग अलग वर्ण हो उनमें द्वितीय चरण में प्रथम चरण के वर्ण में और चतुर्थ चरण में त्रतीय चरण के वर्ण में ००ं-००' से ००ं-२०' तक आ की मात्रा  की मात्रा लगायें। तदनुसार ही आगे भी ००ं-२१' से ००-४०' तक इ की मात्रा  ि  की मात्रा लगायें। ००ं-४१' से ०१ं-००' तक ई की मात्रा ।०१ं-०१' से ०१ं-२०' तक की मात्रा।०१ं-२१' से ०१ं-४०' तक ऊ की मात्रा की मात्रा।०१ं-४१' से ०२ं-००' तक ऋ की मात्राकी मात्रा।०२ं-०१' से ०२ं-२०'  तक ए की मात्रा   े की मात्रा।०२ं-२१ से ०२ं-४०' तक ऐ की माात्रा की मात्रा। ०२ं-४१' से ०३ं-००' तक ओ की  मात्रा ो ।  ०३ं-००' से ०३ं-२०' तक औ की माात्रा   ौ की मात्रा लगाकर नाम का प्रथमाक्षर रखें।

जबकि, जिन नक्षत्रों में चारों चरणों में एक ही व्यञ्जन हो वहाँ प्रथम एवम् द्वितीय चरण में मुल वर्ण से नाम का प्रथमाक्षर रहेगा।जबकि, तृतीय और चतुर्थ चरण में ००ं-००' से ००ं-४०' तक की मात्रा लगायें। तदनुसार ही आगे भी ००ं-४१' से ०१-२०' तक  ि  की मात्रा लगायें। ०१ं-२१' से ०२ं-००' तक ई की मात्रा ।०२ं-०१' से ०२ं-४०' तक की मात्रा । ०२ं-४१' से ०३ं-२० तक की मात्रा।०३ं-२१' से ०४ं-००' तक की मात्रा।०४ं-०१' से ०४ं-४०'  तक   े की मात्रा।०४ं-४१ से ०५ं-२०' तक की मात्रा। ०५ं-२१ से ०६ं-००' तक की आत्रा । और , ०६ं-०१' से ०६ं-४०' तक की मात्रा लगाकर नाम का प्रथमाक्षर रखें।

नाम की संस्कृत, / हिन्दी या मराठी वर्तनी के अक्षरों के अंक।

जन्मसमय के वेदिक मास के गतांश अर्थात सायन सुर्य के गतांश का ईकाई अंक को मूलांक माना जायेगा और जन्म लग्न के राशि/ नक्षत्र चरण के वर्ण पर रखा जन्मनाम जो नाम शासकीय कार्यों में/ स्कुल में लिखवाया जाना हो उस नाम के साथ उपनाम (सरनेम) सहित नाम के अंको को जोड़कर प्राप्त योगफल का ईकाई अंक भी मुलांक ही हो ऐसा नाम रखा जाये। ताकि, प्रचलित नाम अंकविद्या के अनुकूल होने से जीवन में कठिनाई ना आये।

0-   अ,  क,  ट,  प,  ष,  अः, क्ष, ऽ    0

1-  आ,  ख,  ठ,  फ,  स,  त्र ,           1

 2-   इ,   ई,   ग,   ड,  ब,  ह ,           2

 3-   उ,   ऊ,  घ,   ढ,  भ,                3

 4-   ऋ,   ङ, ण,  म,                      4
  
 5-    ए,   च,  त,  य,                      5

 6-    ऐ,   छ,  थ,  र,  ज्ञ,                 6

 7-   ओ,  ज,  द,  द,  ल,  ड़,ॉ         7

 8-   औ,  झ,  ध,  व,  ढ़                  8
 
 9-    अं,  ञ,   न,  श,                      9

  0-    अ, अः, क,   ट,  प,  ष, ऽ         0


तथा जन्म नाम कीअंग्रेजी स्पेल्लिंग के अक्षरों के अंको का योग का योग या योग कें अंकों का  योगांक ग्रेगोरियन केलेण्डर की सुर्योदय वाली दिनांक एक ही हो। क्योंकि राजकाज की भाषा अंग्रेजी होने के कारण अंग्रेजी में नाम लिखना हम भारतीयों की विवशता है।

किरो विधि अनुसार जन्म नाम कीअंग्रेजी स्पेल्लिंग के अक्षरों के अंक ।

1 = A. I. J. Q. Y      = 1
2 = B. K. R.            = 2
3 = C. G. L. S.        = 3
4 = D. M. T            =  4
5 = E. H. N. X        =  5
6 = U. V. W             = 6
7 = O. Z                  = 7
8 = F. P                   = 8

अंग्रेजी में संस्कृत वर्णमाला से आधे अक्षर हैं। वे भी वर्ण नही हैं।
शुन्य और नौ के लिए कोई अंक ही नही है। पर अंग्रेजी भारतीयों की कानुनी विवशता है।

रविवार, 5 जुलाई 2020

भारतीय होरा ज्योतिष स्कन्द अर्थात फलित ज्योतिष की कुछ विशिष्ठ देन।

ज्योतिषीय जानकारियाँ।

बाथक स्थान- 

चर लग्न - १ मेष, ४ कर्क,  ७ तुला  और १० मकर लग्न के लिये एकादश भाव बाधक स्थान होता है।
स्थिर लग्ऩ - २ वृष, ५ सिंह, ८ वृश्चिक और ११ कुम्भ लग्न के लिये नवम भाव बाधक स्थान होता है।
द्विस्वभाव लग्न - ३ मिथुन, ६ कन्या, ९ धनु और १२ मीन लग्न के लिये सप्तम भाव बाधक स्थान होता है।


कौन सी महादशा किस जातक पर लागु होती है --

विंशोत्तरी दशा :- शुक्ल पक्ष कर्क होरा / कृष्ण पक्ष सिंह होरा।
शोडषोत्तरी दशा :- शुक्ल पक्ष सिंह होरा/कृष्ण पक्ष कर्क  का होरा ।


रोगी प्रश्न लग्न से 

लग्न से वैद्य (डॉक्टर)
चतुर्थ भाव से औषधी
पञ्चम भाव से रोग
दशम भाव से रोगी 

लग्न एवम् दशम में सुसम्बन्ध हो,  मैत्री हो तो वैद्य (डॉक्टर ) से लाभ होगा।
सप्तम और चतुर्थ भाव बलवान एवम् परस्पर मित्र हो तो औषधी से लाभ होगा।
विपरित स्थिति में हानी होगी। रोग बढ़ेगा।

पितृदोष -
सूर्य शनि,राहु - केतु से पीड़ित हो तो पितृदोष, 
चन्द्रमा शनि,राहु - केतु से पीड़ित हो तो मातृ दोष,
शुक्र से पत्नी, मंगल से भाई ।

बुधवार, 1 जुलाई 2020

वेदिक, पौराणिक काल गणना और भारतीय मौसम विज्ञान के आधार।

*वेदिक अहोरात्र, मास, ऋतु ,अयन एवम्  तोयन तथा संवत्सर चक्रीय कालगणना के आधार पर भारतीय मौसम विज्ञान*

वेदिक काल में अयन, तोयन, ऋतुओं, मासों और दिवसों में संवत्सर के विभाग किये गये। 
सुर्य, चन्द्रमा के उदय, अस्त, ग्रहण,दिनमान, रात्रिमान  तथा बुध और शुक्र के पारगमन,व्यतिपात, वैधृतिपात, अलावा बुध,शुक्र,मंगल,ब्रहस्पति और शनि ग्रहों की परस्पर युति, प्रतियोग, दर्शन, लोप, उदय, अस्त, अगस्त तारा उदयास्त ,धुमकेतु दर्शन लोप  से मोसम का सम्बन्ध का अध्ययन गुरुकुलों में कराया जाता था। उक्त सभी  सायन गणना से सिद्ध होते हैं।

इनके साथ नाक्षत्रिय पद्यति / निरयन गणनानुसार आकाश में ताराओं के दर्शन और उनके साथ ग्रहों आदि की युति प्रतियोग, दृष्टि आदि से भी मोसम का सम्बन्ध अध्ययन कराया जाता था।
और आकाश का रंग, सुर्य चन्द्रादि बिम्बों के आसपास बने मण्डल,द्वितीया के चन्द्रमा का उत्तर- दक्षिण में झुकाव का वायु की दिशा, गति, वेग,तथा बादलों के गर्भ, बादलों कारंग-रुप, आकार-प्रकार, उँचाई, गमन, दिशा आदि पर भी सतत ध्यान रखकर इनसे भी मोसम का सम्बन्ध अध्ययन कराया जाता था। 
मोसम को भारतीय पर्वोत्सव से सायन सौर, निरयन सौर एवम् निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणना द्वारा मोसम को सम्बद्ध किया गया था।

इनके अलावा मानवों, पशु-पक्षियों, कीट- पतङ्गों के व्यवहार और व्यवहार परिवर्तनों पर भी ध्यान रखना सिखाया जाता था।
इन सबके आधार पर मोसम की भविष्यवाणी करने के विज्ञान को उपवेद त्रीस्कन्ध ज्योतिष के संहिता स्कन्ध में सिखाया जाता था।

 *घटि, पल विपल* 
साव विपल का एक पल, साठ विपल का एक पल और 3600 विपल अर्थात साठ पल की एक घटि।और साठ घटि का एक अहोरात्र जिसे सावन दिन भी कहते हैं।
दो घटि का एक मुहुर्त होता है। तदनुसार तीस मुहुर्त का एक अहोरात्र (सावन दिन) और तीस सावन दिन का एक सावन मास होता है।

*वेदिक मास,ऋतु ,अयन एवम् तोयन, संवत्सर चक्र* 

 वेदिक मास -- 

(सुचना -- विगत हजारों वर्षों से कलियुग संवत 5071 के तपस्य मास के अन्त तक  अर्थात 20 मार्च 1971ई. तक ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार आरम्भ अगले दिनांक Next dates से आरम्भ होते थे। जैसे  मधुमास 22 मार्च से आरम्भ होता था।) 

वेदिक मास अवधि  निम्नानुसार -  ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार आरम्भ की Dates दी जा रही है।
ये Dates ईसवी वर्ष 1972 से लागु होकर आगामी कई हजारों वर्ष तक लगभग यथावत रहेगी।

मधु मास 21 मार्च से 31 दिन। सुर्य की राशि  सायन मेष ।
माधव मास 21 अप्रेल से31 दिन। सुर्य की राशि सायन वृष।
शुक्र मास 22 मई से 31 दिन। सुर्य की राशि  सायन मिथुन।
शचि मास 22 जून से 31दिन। सुर्य की राशि  सायन कर्क।
नभस मास 23 जुलाई से 31दिन। सुर्य की राशि  सायन सिंह।
नभस्य मास 23 अगस्त 31दिन। सुर्य की राशि  सायन कन्या।
ईष मास 23 सितम्बर से 30दिन। सुर्य की राशि सायन तुला।
उर्ज मास 23 अक्टूबर से 30दिन। सुर्य की राशि सायन वृश्चिक।
सहस मास 22 नवम्बर से 30दिन। सुर्य की राशि सायन धनु।
सहस्य मास 22 दिसम्बर से 29 दिन। सुर्य की राशि  सायन मकर।
तपस मास 20 जनवरी से 30 दिन। सुर्य की राशि  सायन कुम्भ।
तपस्य मास 19 फरवरी से 30 या 31 दिन। सुर्य की राशि   सायन मीन।

 वेदिक ऋतु चक्र 

ऋग्वेद में मुख्य रुप से पाँच ऋतुओं के ही नाम आये हैं हेमन्त ऋतु का नाम नही आया है। और अधिक मास की छटी ऋतु कहा गया है।
किन्तु यजुर्वेद में छः ऋतुएँ और उनके नाम और अवधि की धारणा स्पष्ट है।
तदनुसार

 *वेदिक उत्तरायण में तीन ऋतुएँ होती है।* 

 वेदिक वसन्त ऋतु - 

वेदिक मधु एवम्  माधव मास की वेदिक वसन्त ऋतु  होती थी।21 मार्च से  22 मई तक।
वेदिक मधु मास सायन मेष का सुर्य दिनांक 21 मार्च से 20 अप्रेल तक।
तथा वेदिक माधव मास सायन वृष का सुर्य  21 अप्रेल से 21 मई तक में वेदिक वसन्त ऋतु होती थी। 

 वेदिक ग्रीष्म ऋतु - 

वेदिक शुक्र एवम्  शचि मास की वेदिक ग्रीष्म ऋतु  होती थी। 22 मई से 22 जुलाई तक।
वेदिक शुक्र मास सायन मिथुन का सुर्य 22 मई से 21 जून तक
तथा वेदिक शचि मास सायन कर्क के सुर्य  22 जून से 22 जुलाई तक वेदिक ग्रीष्म ऋतु होती थी ।

 वेदिक वर्षा ऋतु -

वेदिक नभस एवम् नभस्य मास  की वेदिक वर्षा ऋतु  होती थी।23 जुलाई से 22 सितम्बर तक।
वेदिक नभस मास सायन  सिंह  का सुर्य दिनांक 23 जुलाई से 22 अगस्त तक 
तथा वेदिक नभस्य मास सायन कन्या का सुर्य 23 अगस्त से 22 सितम्बर तक में वेदिक वर्षा ऋतु होती थी।

तथा वेदिक दक्षिणायन में तीन ऋतुएँ होती है।


 वेदिक शरद ऋतु -

वेदिक ईष एवम् उर्ज मास की वेदिक शरद ऋतु  होती थी। 23 सितम्बर से 21 नवम्बर तक।
वेदिक ईष मास सायन तुला का सुर्य 23 सितम्बर से 22 अक्टूबर तक 
तथा वेदिक उर्ज मास सायन वृश्चिक का सुर्य 23 अक्टूबर से 21 नवम्बर तक में वेदिक शरद ऋतु होती थी।

 वेदिक हेमन्त ऋतु - 

वेदिक सहस एवम् सहस्य मास की वेदिक हेमन्त ऋतु होती थी। 22 नवम्बर से 19 जनवरी तक।
वेदिक सहस मास सायन धनु का सुर्य  22 नवम्बर से 21 दिसम्बर तक
तथा वेदिक सहस्य मास सायन मकर का सुर्य 22 दिसम्बर से 19 जनवरी तक वेदिक हेमन्त ऋतु होती थी।

 वेदिक शिशिर ऋतु - 

वेदिक तपस मास एवम् तपस्य मास की वेदिक शिशिर ऋतु होती थी। 20 जनवरी से 20 मार्च तक।
वेदिक तपस मास सायन कुम्भ का सुर्य 20 जनवरी से 18 फरवरी तक
तथा वेदिक तपस्य मास मीन का सुर्य 19 फरवरी से 20 मार्च  तक वेदिक शिषिर ऋतु होती थी।
 

 वेदिक अयन और वेदिक तोयन

 वेदिक काल में उत्तरायण  मधु मासारम्भ से से नभस्य मासान्त तक छः मास का होता था । अर्थात-
 सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति  तक
 दिनांक 21 मार्च से दिनांक 23 सितम्बर तक उत्तरायण होता था।
तथा वेदिक काल में दक्षिणायन  ईष मासारम्भ से तपस्य मासान्त तक छः माह का होता था।अर्थात - 
 सायन तुला संक्रान्ति  से सायन मेष संक्रान्ति तक।
 दिनांक 23 सितम्बर से दिनांक 21 मार्च तक दक्षिणायन होता था।

पौराणिक काल में वेदिक  उत्तरायण (सायन मेष संक्रान्ति) दिनांक 21 मार्च से दिनांक 23 सितम्बर (सायन तुला संक्रान्ति) तक को उत्तर गोल कहा जाने लगा। 
 और  पौराणिक काल में वेदिक दक्षिणायन (सायन तुला संक्रान्ति) दिनांक 23 सितम्बर से दिनांक 21 मार्च (सायन मेष संक्रान्ति) तक को दक्षिण गोल कहा जाने लगा। 

इसी प्रकार वेदिक काल में संवत्सर के दो विभाग और थे जिन्हे तोयन कहा जाता था।

 वेदिक काल मेंं उत्तर तोयन  सहस्य मासारम्भ से से शुक्र मासान्त तक छः माह का होता था।
अर्थात वेदिक काल में सायन मकर संक्रान्ति दिनांक 22 दिसम्बर  से सायन कर्क संक्रान्ति दिनांक 23 जून तक उत्तर तोयन कहा जाता था।

 तथा वेदिक काल से दक्षिण तोयन  शचि मासारम्भ से सहस मासान्त तक छः मास का होता था। अर्थात
 वेदिक काल में सायन कर्क संक्रान्ति दिनांक  23 जून से सायन मकर संक्रान्ति दिनांक 22 दिसम्बर तक दक्षिण तोयन कहा जाता था।

 वेदिक संवत्सर वसन्त विषुव सम्पात से अर्थात सायन मेष संक्रान्ति 20/21 मार्च से आरम्भ होता था।

सावन वर्षान्त के बाद के पाँच दिन यज्ञ पुर्वक उत्सव मनाये जाते थे।
आज भी वसन्त पञ्चमी, दशापुजा, होला या होली पर्वोत्सव, तथा गुड़ीपड़वाँ , अक्षय तृतीया इसी के अवशेष हैं।

 पौराणिक सौर संवत्सर
 
वेदिक तोयन को अयन नाम देना, वेदिक अयन को गोल नाम देना।और ऋतुओं को एक मास पहले आरम्भ करना। वेदिक मासों को भी एक मास पहले आरम्भ करना।

पौराणिक काल से वेदिक उत्तर तोयन दिनांक 22 दिसम्बर से  दिनांक 23 जून तक को उत्तरायण कहा जाने लगा तथा वेदिक दक्षिण तोयन दिनांक  23 जून से दिनांक 22 दिसम्बर तक को   दक्षिणायन कहा जाने लगा।
क्योंकि,शुभ कार्य उत्तरायण में यानि सायन मेष के सुर्य से सायन कन्या के सुर्य तक  21मार्च से 23 सितम्बर तक  में किये जाते थे। किन्तु इसी अवधि में जून से सितम्बर तक वर्षा होती है।
इस कारण पौराणिक काल में धर्मशास्त्रियों ने विकल्प खोजा । और 
सायन मकर के सुर्य से सायन मिथुन के सुर्य  दिनांक 22 दिसम्बर से 23 जून तक उत्तर तोयन को उत्तरायण घोषित कर दिया। तथा - 
सायन कर्क के सुर्य से सायन धनु के सुर्य दिनांक 23 जून से 22 दिसम्बर तक दक्षिण तोयन को दक्षिणायन  घोषित कर दिया।
इससे वर्षाकाल की समस्या हल होगयी। कलियुग का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

किन्तु जब वेदिक उत्तर तोयन को पौराणिक उत्तरायण कहा जाने लगा और वेदिक दक्षिण तोयन को पौराणिक दक्षिणायन कहा जाने लगा तो ऋतुओं के आरम्भ माह को एक मास पहले खिसकाना पड़ा। इसके लिये मासों का आरम्भ भी एक माह पहले से करना पड़ा। इसके लिये सावन वर्ष के स्थान पर निरयन सौर वर्ष सें संस्कारित चान्द्र वर्ष लागु किया जिसमें अधिक मास और क्षय मास का लाभ लिया गया। ताकि, प्रजा / जनता समझ नही पाये ।
 किन्तु वसन्त ऋतु का प्रथम मास मधुमास गत संवत्सर में और माधव मास वर्तमान संवत्सर में आने लगा। ऐसे ही पौराणिक उत्तरायण के तीन मास गत संवत्सर गत वर्ष में तो शेष तीन मास वर्तमान संवत्सर में आते है। वेदिक पद्यति में छः मास का वर्ष और दौ वर्ष का एक संवत्सर वाली पद्यति बन्द कर संवत्सर और वर्ष पर्यायवाची मानना पड़े। मधुमास के स्थान पर माधवमास से संवत्सर का आरम्भ  मानना पड़ा।
स्पष्ट ही गोलमाल  दृष्टगोचर हो रहा है।
खेर जो उस अवधि में होगया वह इतिहास तो बदला नही जा सकता पर आगे तो वापस सुधार होना ही चाहिए। 

वर्तमान में प्रचलित मासारम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर से Dates और अवधि निम्नानुसार है -- 
 पौराणिक अयन, पौराणिक गोल, पौराणिक ऋतुएँ और पौराणिक मासारम्भ की  Dates .।

 पौराणिक उत्तरायण। पौराणिक दक्षिण गोल। पौराणिक वसन्त ऋतु।

मधु मास 19 फरवरी से 30 या 31 दिन। सायन मीन।

 *पौराणिक उत्तरायण। पौराणिक उत्तर गोल आरम्भ। पौराणिक वसन्त ऋतु।* 

माधव मास 21 मार्च से 31 दिन। सायन मेष ।

 पौराणिक ग्रीष्म ऋतु। 

शुक्र मास 21 अप्रेल से31 दिन। सायन वृष।
शचि मास 22 मई से 31 दिन। सायन मिथुन।

 पौराणिक दक्षिणायन आरम्भ। पौराणिक उत्तर गोल। पौराणिक वर्षा ऋतु।

नभस मास 22 जून से 31दिन। सायन कर्क।
नभस्य मास 23 जुलाई से 31दिन। सायन सिंह।

 पौराणिक दक्षिणायन ।  पौराणिक उत्तर गोल । पोराणिक शरद ऋतु।
ईष मास 23 अगस्त 31दिन। सायन कन्या।

 पौराणिक दक्षिणायन। पौराणिक दक्षिण गोल आरम्भ। शरद ऋतु

उर्ज मास 23 सितम्बर से 30दिन। सायन तुला।

 पौराणिक हेमन्त ऋतु।

सहस मास 23 अक्टूबर से 30दिन। सायन वृश्चिक।
सहस्य मास 22 नवम्बर से 30दिन। सायन धनु।

 पौराणिक उत्तरायण आरम्भ। पौराणिक दक्षिण गोल।.पौराणिक शिषिर ऋतु।

तपस मास 22 दिसम्बर से 29 दिन। सायन मकर।
तपस्य मास 20 जनवरी से 30 दिन। सायन कुम्भ।

 पौराणिक उत्तरायण। पौराणिक दक्षिण गोल। पौराणिक वसन्त ऋतु।

मधु मास 19 फरवरी से 30 या 31 दिन। सायन मीन।


 संवत्सर, अयन,तोयन, ऋतुओं और मासों के लिए  वेदिक काल में सायन सौर गणना ही प्रयुक्त होती थी। 
किन्तु आकाशीय विवरण के लिए वेदिक काल में नाक्षत्रिय निरयन गणनाएँ  प्रचलित थी।जैसी की आजतक भी है।

सायन गणनानुसार और नाक्षत्रिय निरयन गणनानुसार सौर वर्ष  में लगभग इकहत्तर सायन वर्ष में एक दिन का और 25780 सायन वर्षों में पुरे एक वर्ष का अन्तर पड़ता है। जब सायन सौर युग संवत्सर 25780 होगा तब निरयन सौर युग संवत्सर 25779 होगा।

चुँकि ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर गणनाधारित है अतः यही अन्तर ग्रेगोरियन केलेण्डर ईयर में भी लागु होता है। इस कारण लगभग 71 वर्ष में निरयन संक्रान्तियों की एक तारीख (Date) बढ़ जाती है। निरयन मेष संक्रान्ति 13 अप्रेल के स्थान पर 14 अप्रेल को होने लगती है।

वर्तमान में निरयन मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु मकर, कुम्भ और मीन मास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक निम्नानुसार है।

 वर्तमान में निरयनमास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक-- 

मेष         14 अप्रेल से          30 दिन।
वृष          14 मई से               31 दिन।
मिथुन     15 जून से             32 दिन। 
कर्क        16 जुलाई से         31 दिन।
सिंह        17 अगस्त से       31 दिन।
कन्या       17 सितम्बर से    30 दिन।
तुला         17 अक्टोबर से   30 दिन।
वृश्चिक      16 नवम्बर से      30 दिन।
धनु          16 दिसम्बर से    30 दिन।
मकर        14 जनवरी से      29 दिन।    
कुम्भ        13 फरवरी से      30 दिन।
मीन          14 मार्च से            31 दिन।

सुचना -- 
जब सुर्य और भूमि के केन्द्रों की दूरी जिस अवधि में अधिक होती है उस शिघ्रोच्च   (Apogee एपोजी) के  समय 30° की कोणीय दूरी पार करने में भूमि को अधिक समय लगता है अतः उस अवधि में पड़ने वाला सौर मास 31 दिन से भी अधिक 32 दिन का होता है। इसके आसपास के दो -तीन मास भी 31 होते हैं। इससे विपरीत उससे 180° पर शीघ्रनीच (Perigee  पेरिजी) वाला सौर मास 28 या 29 दिन का छोटा होता है। इसके आसपास के सौर मास भी 30- 30 दिन के होते हैं।
वर्तमान में 05 जनवरी को सुर्य सायन मकर  13°16' 20" या निरयन धनु 19° 08'25 " पर शिघ्रनीच का रहता है इस कारण यह मास 29 दिन का और इसके आसपास  तीन महिनें 30-30 दिन के  होते हैं। इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में यह मास क्षय नही होता।
इसके 180° पर 04 जुलाई को सुर्य सायन कर्क  13°16' 20" या निरयन मिथुन 19° 08'25 " पर शिघ्रोच्च का रहता है इसी कारण यह मास 32 दिन का और इसके आसपास तीन तीन महिनें 31-31 दिन के  होते हैं।इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में इस अवधि में ही कोई  मास  अधिक  होता है।

 निरयन सौर वर्ष और सायन सौर वर्ष में 25780 वर्षों में पुरे एक संवत्सर का अन्तर पड़ जाता है। इस अवधि में एक निरयन सौर संवत्सर से   सायन सौर संवत्सर एक वर्ष अधिक होता है। अर्थात यदि निरयन सौर संवत्सर 25780 है तो सायन सौर संवत्सर 25781 होगा। या यों भी कह सकते हैं कि,जब सायन सौर युग संवत्सर  
 25781होगा तब निरयन सौर युग 25780 रहेगा।
 लगभग 71 वर्षों में एक दिन का अन्तर एवम् 2148 वर्षों में एक मास का अन्तर पड़ जाता है। लगभग 4296 वर्षों में एक ऋतु का अन्तर, 6445 वर्षों में तीन मास का अन्तर पड़ता है।तथा 12890 वर्षों में एक अयन यानि छः मास का अन्तर पड़ जाता है। 

 लगध के ऋग्वेदीय वेदाङ्ग ज्योतिष के समय संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के समय निरयन मकर संक्रान्ति भी पड़ती थी।
तो श्रीमद्भगवद्गीता में ऋतुओं में वसन्त और माहों में मार्गशीर्ष मास को विभूतिमय बतलाया है। क्यों कि किसी समय  संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के समय निरयन सौर वृश्चिक संक्रान्ति पड़ती थी।

इसी कारण कभी संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के समय निरयन सिंह संक्रान्ति भी पड़ती थी।
इसकारण केरल में निरयन सिंह संक्रान्ति को संवत्सर परिवर्तन होता है। 

 निरयन सौर युधिष्ठिर संवत

महाभारत काल के चान्द्र मास आधारित हर उनसाठवें और साठवें मास को अधिक मास कर फिर सामान्य मास वाली क्लिष्ट गणना को बन्द कर शुद्ध निरयन सौर युधिष्ठिर संवत लागु किया।
युधिष्ठिर नें निरयन सौर गणनानुसार  संवत्सर गणना आरम्भ करवा दी। ता कि, तारामंडल देखकर भी चलते रास्ते भी व्यक्ति संवत्सर और मास गणना कर सके।
किन्त इस गणना में 2248 वर्ष में एक मास का, 4296 वर्ष में एक ऋतु का अन्तर पड़ जाता है। इस कारण यह भी विशेष लोकप्रिय नही हुई। 

विक्रम संवत

युधिष्ठिर संवत 3044 पुर्ण होने पर उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने निरयन सौर विक्रम संवत  चला दिया। 


वेदिक सावन वर्ष गणना।

एक  सावन दिन दो सुर्योदय के बीच के समय को सावन दिन कहते हैं।
एक अहोरात्र या एक सावन दिन लगभग 60 घटिका का होता है।  
घटीका को घटी, घड़ी और नाड़ी भी कहते हैं। 
वर्तमान गणनानुसार एक सावन दिन 24 घण्टे का होता है।
एक सावन मास 30 सावन दिन का सावन मास होता है।
सामान्य सावन वर्ष  में बारह मास होते हैं अतः सामान्य सावन वर्ष में 360 सावन दिन होते हैं। 
पाँचवेँ वर्ष में एक अधिकमास किया जाता था अर्थात पाँचवा सावन वर्ष तेरह सावन मास का होता था। इसकारण पाँचवा वर्ष 390 सावन दिन का होता था।
किन्तु चालिसवाँ सावनवर्ष,और 3835 वाँ सावनवर्ष और 3840 वाँ सावन वर्ष 360 दिन का सामान्य वर्ष होता था। चालिसवाँ सावन वर्ष , तीन हजार आठ सौ पेंतीसवें सावन वर्ष और  तीन हजार आठ सौ चालिसवाँ सावन वर्ष बारह सावन मास का ही सामान्य सावन वर्ष होता था। फिर 7308 वाँ (सात हजार तीन सौ आठवाँ) सावन वर्ष भी 360 दिन का होता था।
इस प्रकार इन युग वर्षों में सायन वर्ष और सावन वर्षारम्भ एकसाथ हो जाते थे। यह गणना गणितागत न होकर मुलतः वेध आधारित थी । किन्तु गणीतीय सुत्र उपर्युक्तानुसार बनते हैं यह ऋषि गण जानते थे। 

                  वेदिक चान्द्र मास 

 वेदिक काल में भी अमावास्या से अमावस्या तक वाले चान्द्रमास भी प्रचलित थे। किन्तु संवत्सर आरम्भ का आधार सायन सौर मेष संक्रान्ति ही थी।
मा शब्द चन्द्रमा सुचक है। चन्द्रमा के मा से ही अमा अर्थात बिना चन्द्रमा वाली रात अमावस्या शब्द बना। और पुरे चन्द्रमा वाली रात पुर्णिमा से पुर्णिमा शब्द बना ।
मास यानि चन्द्रमा की एक सत्र पुर्ण होना। यह अवास्या से अमावस्या तक लगभग 29. 531 दिन का चान्द्रमास हो या पुर्णिमा से पुर्णिमा तक 29. 531 दिन का होता है।
तदनुसार बारह चान्द्रमास  354.367 दिन की अवधि को शुद्ध चान्द्र वर्ष कहते हैं। जो निरयन सौर वर्ष / नाक्षत्रीय वर्ष से 10.889 वर्ष छोटा है।और सायन सौर वर्ष से 10.875 दिन छोटा है।
बारह शुद्ध चान्द्रमास वाले शुद्ध चान्द्रवर्ष को सायन सौर वर्ष या निरयन सौर वर्ष से संगति बिठाने हेतु लगभग 32 चान्द्र  मास से 38 चान्द्र मास पश्चात अधिक मास करते हैं। इसकारण प्रायः अधिक मास वाला चान्द्र वर्ष तेरह चान्द्र मास का होता है। यानि अधिक मास वाला चान्द्र वर्ष 383.898 दिन का होता है।
इस पद्यति में चान्द्र मासों का नामकरण  चान्द्रमास के मध्य में  पुर्णिमा तिथि को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में रहता है उस नक्षत्र के नाम के अनुसारं चैत्र, वैशाख, ज्यैष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन  नामकरण किया गया है। जो पुर्णिमा को होने वाले चन्द्र नक्षत्रानुसार  क्रमशः चित्रा से चैत्र, विशाखा से वैशाख, ज्यैष्ठा से ज्यैष्ठ, पूर्वाषाढ़ा से आषाढ़, श्रवण से श्रावण, उत्तराभाद्रपद से भाद्रपद, अश्विनी से आश्विन, कृतिका से कार्तिक, मृगशिर्ष से मार्गशीष, पुष्य से पौष, मघा से माघ और उत्तराफाल्गुनी से फाल्गुन मास नाम पड़े।

चान्द्र मास में अमावस्या से पुर्णिमा तक शुक्ल पक्ष और पुर्णिमा से अमावस्या तक कृष्णपक्ष कहलाता है। साथ ही चान्द्र मास मे अर्ध चन्द बिम्ब  रात्रि यानि शुक्ल पक्ष की साढ़े सप्तमी से कृष्णपक्ष की साढ़े सप्तमी तिथी  (साढ़े बाईसवीँ तिथी) तक उज्वल निषा से  अर्ध चन्द्र बिम्ब यानि कृष्णपक्ष की साढ़े सप्तमी तिथी  (साढ़े बाईसवीँ तिथी)  से शुक्ल पक्ष की साढ़े सप्तमी तक अन्धियारी रात वाले  तथा अष्टका एकाष्टका ( अष्टमी तिथि) के विभाग किये गये थे। यह प्रथक ईकाई है।

सुर्य से चन्द्रमा की 12° के अन्तर वाली  तिथियाँ  नही थी। केवल अमावस्या , पुर्णिमा तथा अर्धचन्द्र बिम्ब वाली रात्रि  अष्टमी तिथी तथा तेईसवीँ चन्द्रकला  (अष्टका - एकाष्टका)  ही प्रचलित थी।

 सुर्य से चन्द्रमा की 06° के अन्तर वाले करण भी प्रचलित नही थे।  सुर्य के सायन भोगांशों और चन्द्रमा के सायन भोगांशों के योग 180° और 369° या 00° होने पर व्यतिपात और वैधृतिपात योग प्रचलित थे।

                    महाभारत काल में

महाभारत काल मे निरयन सौर गणना और  चान्द्र मास तथा सावन दिन और चन्द्र नक्षत्र से तिथि गणना  प्रचलित हो गये थे।
 हर अट्ठावन चान्द्र मास के बाद दो अधिक मास होते थे।अर्थात हर उनसाठवाँ और साठवाँ चान्द्र मास अधिक होकर फिर अगले माह सामान्य होकर संवत्सर षुर्ण किया जाता था।
यह बहुत असहज गणना थी जो केवल भीष्म,विदुर, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, और युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण जैसे धर्मशास्त्री ही समझ पाते थे। दुर्योधन एवम् उसके साथी लोग भी समझाने पर भी नही समझ पाते थे।

पौराणिक निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष 

निरयन सौर संक्रान्तियों से संस्कारित अमावस्या से अमावस्या तक वाले चान्द्र मास वाला निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर 

निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर जिस चान्द्र मास में दो निरयन सक्रान्तियाँ  पड़े अर्थात दो अमावस्याओं के बीच यदि दो निरयन सक्रान्तियाँ  पड़े  तो वह चान्द्रमास क्षय मास कहाता है। यह प्रायः 30 दिन वाले शीघ्र नीच वाले सौर मास के पहले वाले चान्द्रमास और बाद वाले चान्द्र मास में ही सम्भव होता है।  ऐसे क्षय मास 19 वें वर्ष,122 वें वर्ष और 141वें वर्ष मे पड़ते हैं।और
जिस निरयन सौर मास में दो अमावस्या पड़े अर्थात जब दो निरयन संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़े तो वह चान्द्रमास अधिक मास कहलाता है। यह प्रायः 31 दिन वाले शिघ्रोच्च वाले सौर मास के पहले वाले चान्द्रमास और बाद वाले चान्द्र मास में ही सम्भव होता है।
जिस संवत्सर में क्षय मास आता है उस संवतसर में क्षय मास के पहले अधिक मास और क्षयमास के बाद पुनः अधिक मास होता है। इस प्रकार क्षय संवत्सर में दो अधिक मास होते हैं। इस कारण क्षय मास वाला संवत्सर और अधिक मास वाला संवत्सर दोनों ही  संवत्सर में तेरह चान्द्र मास होते हैं। इसकारण प्रायः क्षय मास वाला और अधिक मास वाले वर्ष भी 383.898 दिन का ही होता है। जबकि बिना अधिक मास बिना क्षयमास वाला सामान्य चान्द्रवर्ष शुद्ध चान्द्रवर्ष ही होता है इस कारण यह शुद्ध चान्द्र वर्ष 354.367   दिन का होता है।

 निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शकाब्द

फिर विक्रम संवत 135 पुर्ण होनें पर  पेशावर, पटना और मथुरा में कुषाण वंशी सम्राट कनिष्क के राज्यारोहण पर कनिष्क नें शक संवत चला दिया। और उसी समय  दक्षिण में पैठण महाराष्ट्र में गोतमी पुत्र शातकर्णि  ने निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणनाधारित शकाब्द चला दिया गया। शक संवत चला दिया।जो लगभग अधिकांश.भारत में प्रचलित है।
अर्थात, 
युधिष्ठिर संवत 3178 वर्ष पश्चात युधिष्ठिर संवत 3179 के स्थान पर  और विक्रम संवत 135 समाप्त होने पर विक्रम संवत136 के स्थान पर शक संवत एक के साथ  निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणनाधारित शकाब्द चला दिया गया। जो आजतक चल रहा है।
ईस गणना से पुर्णिमा, अमावस्या तिथियों  और अष्टका एकाष्टका पर्व के अलावा चतुर्थी,  एकादशी, प्रदोष, शिवरात्रि आदि वृत आरम्भ हो गये।

 चन्दमा का भू परिभ्रमण

 चन्द्रमा के एक परिभ्रमण अवधि निरयन मेषादि बिन्दु / अश्विनी नक्षत्र आरम्भ बिन्दु से आरम्भ होकर पुनः निरयन मेषादि बिन्दु /अश्विनी नक्षत्र आरम्भ बिन्दु पर पहूँचने की  27. 322 दिन कीअवधि हो।