मंगलवार, 29 जुलाई 2025

आजकल प्रचलित कर्मकाण्ड केवल दिखावा मात्र हो गया है।

आजकल तो सत्यनारायण कथा तक बन्द हो गई।
पहले मन्दिरों में ही भागवत सप्ताह चलता था।
अब पाण्डालों में नाचने-गाने के कार्यक्रम को भागवत कथा कहते हैं।
अब तो वह भी बन्द हो गई और प्रदीप मिश्रा और उनके अनुयाइयों द्वारा शिव पुराण के नाम पर टोने-टोटके सिखाये जाने लगे हैं।
अब एक चपेट पत्थर पर एक बेलनाकार पत्थर रखकर (स्थापित कर) उसपर दूध, घी, शहद, इत्र आदि रगड़ मसलकर पानी से बहाकर फिर उसपर भाँग-धतुरे का लेप कर बाद में उसे प्रसाद कहकर सेवन करने और चीलम में गाँजा भरकर धुम्रपान करते हुए पैदल यात्रा निकाल कर सड़कें जाम कर एक स्थान का पानी दुसरे स्थान पर लाकर उस पत्थर पर ढोल देने को ही धर्म-कर्म घोषित कर दिया गया है।
न किसी को वेद मन्त्रों का, न शिक्षा का, न विधि का ज्ञान है केवल पुस्तकों में देख-रेख कर रेसिपी से भोजन बनाने जैसे कर्मकाण्ड की क्रियाएँ करवा देते हैं। तो उसका फल क्या होगा?

संस्कृत का धर्मशास्त्र और हिन्दी में नीतिशास्त्र एक ही विषय है।

समुचित स्थान पर, समुचित समय पर किया गया समुचित प्रयत्न (कार्य) ही सफल होता है। यही धर्म है जिसे हिन्दी में नीति कहते हैं।
समुचित स्थान का चयन ही वास्तुशास्त्र है, समुचित समय का निर्धारण ही मुहूर्त शास्त्र है, और व्यवस्थित प्रयत्न करने की कला ही धर्मशास्त्र (हिन्दी में नीतिशास्त्र) है।
धर्मशास्त्र में आचरण के नियमों और निषेधों का उल्लेख होता है। कर्मकाण्ड की क्रियाओं का धर्मशास्त्र में कोई उल्लेख नहीं मिलता।
धर्मशास्त्र को ब्रह्माण्ड में खगोल-भुगोल के माध्यम से उचित स्थान और पञ्चाङ्ग की सहायता से उचित समय की जानकारी के लिए सिद्धान्त (गणित) ज्योतिष की सहायता लेना पड़ती है, इसलिए ज्योतिष को धर्मशास्त्र का नेत्र कहा जाता है।
जबकि, लोग कर्मकाण्ड को ही धर्म समझते हुए लिखते हैं कि, धर्म से बड़ा कर्म है।

सोमवार, 28 जुलाई 2025

यात्रा मुहूर्त के नियम/ सिद्धान्त।

सुखद यात्रा ---
योगिनी बाँये हाथ पर या बाँये हाथ पर और पीठ पीछे हो।
दिशाशूल बाँये हाथ पर हो।
चन्द्रमा दाहिने हाथ की ओर हो।
राहु सामने और पीठ पीछे न हो।




वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी पीठ पीछे हो।
दिशाशूल पीठ पीछे हो या पीठ पीछे और बाँये हाथ पर हो।
चन्द्रमा सामने हो।
राहु सामने और पीठ पीछे न हो।




धन हानि कारक यात्रा से बचाव हेतु ---

योगिनी दाहिने हाथ पर या दाहिने हाथ पर और सामने न हो।
दिशाशूल दाहिने हाथ पर न हो।
चन्द्रमा बाँये हाथ पर न हो।
राहु सामने और पीठ पीछे न हो।



मृत्यु कारक यात्रा से बचाव हेतु ---

योगिनी सामने या सामने और दाहिने हाथ पर न हो।
दिशाशूल सामने न हो।
चन्द्रमा पीठ पीछे न हो।
राहु सामने या पीठ पीछे न हो।

यात्रा मुहूर्त।

पूर्व दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी द्वितीया, सप्तमी, दशमी या पूर्णिमा तिथि हो।
दिशाशूल बुधवार हो।
चन्द्रमा वृषभ , कन्या या मकर राशि में हो।
राहु मंगलवार या शनिवार न हो।


पूर्व दिशा में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी षष्टी, सप्तमी, चतुर्दशी या पूर्णिमा तिथि हो।
दिशाशूल रविवार या शुक्रवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह या धनु राशि में हो।
राहु मङ्गलवार या शनिवार न हो।




पश्चिम दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी तृतीया, पञ्चमी, एकादशी या त्रयोदशी तिथि हो।
दिशाशूल गुरुवार हो।
चन्द्रमा कर्क, वृश्चिक या मीन राशि में हो।
राहु मङ्गलवार या शनिवार न हो।


पश्चिम दिशा में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी प्रतिपदा, तृतीया, नवमी या एकादशी तिथि हो।
दिशाशूल सोमवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु मङ्गलवार या शनिवार न हो।




उत्तर दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी चतुर्थी, षष्ठी, द्वादशी या चतुर्दशी तिथि हो।
दिशाशूल शुक्रवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह या धनु राशि में हो।
राहु रविवार या गुरुवार न हो।


उत्तर दिशा में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी चतुर्थी, पञ्चमी, द्वादशी या त्रयोदशी तिथि हो।
दिशाशूल शुक्रवार हो।
चन्द्रमा कर्क, वृश्चिक या मीन राशि में हो।
राहु रविवार या गुरुवार न हो।




दक्षिण दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी प्रतिपदा, अष्टमी, नवमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल सोमवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु रविवार या गुरुवार न हो।


दक्षिण दिशा में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी द्वितीया, अष्टमी, दशमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल मङ्गलवार या बुधवार हो ।
चन्द्रमा वृषभ, कन्या या मकर राशि में हो।
राहु रविवार या गुरुवार न हो।




ईशान (पूर्वोत्तर) कोण में सुखद यात्रा ---
योगिनी चतुर्थी, षष्ठी , द्वादशी या चतुर्दशी तिथि हो।
दिशाशूल रविवार या शुक्रवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह, धनु राशि में हो।
राहु बुधवार न हो।


ईशान (पूर्वोत्तर) कोण में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी चतुर्थी, षष्ठी, द्वादशी या चतुर्दशी तिथि हो।
दिशाशूल रविवार या शुक्रवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह या धनु राशि में हो।
राहु बुधवार न हो।



नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण मे सुखद यात्रा ---
योगिनी प्रतिपदा, अष्टमी, नवमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल सोमवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु बुधवार न हो।


 नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी प्रतिपदा, अष्टमी, नवमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल सोमवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु बुधवार न हो।



आग्नेय (दक्षिण पूर्वी) दिशा में सुखद यात्रा ---
योगिनी द्वितीया, अष्टमी, दशमी या अमावस्या तिथि हो।
दिशाशूल मंगलवार, बुधवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा वृषभ, कन्या या मकर हो।
राहु सोमवार या शुक्रवार न हो।

आग्नेय (दक्षिण पूर्वी) कोण में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी द्वितीया, सप्तमी, दशमी या पूर्णिमा तिथि हो।
दिशाशूल मङ्गलवार, बुधवार या शनिवार हो।
चन्द्रमा मेष, सिंह, या धनु राशि में हो।
राहु सोमवार या शुक्रवार न हो।



वायव्य (पश्चिमोत्तर) कोण में सुखद यात्रा ---
योगिनी चतुर्थी , पञ्चमी, द्वादशी या त्रयोदशी तिथि हो।
दिशाशूल रविवार हो।
चन्द्रमा कर्क, वृश्चिक या मीन राशि में हो।
राहु सोमवार या शुक्रवार न हो।

 वायव्य (पश्चिमोत्तर) कोण में वाँच्छित फल दायक, धन लाभ कारी यात्रा ---

योगिनी तृतीया, पञ्चमी, एकादशी या त्रयोदशी तिथि हो।
दिशाशूल गुरुवार हो।
चन्द्रमा मिथुन, तुला या कुम्भ राशि में हो।
राहु सोमवार या शुक्रवार न हो।

भारत में वैदिक धर्म को सनातन धर्म के रूप में राजधर्म बनाए रखने का इतिहास।

भारत में जैन और बौद्ध मत के व्यापक प्रचार-प्रसार के बाद आचार्य श्री कुमारिल भट्ट ने बौद्ध मत का खण्डन कर बौद्धाचार्य को शास्त्रार्थ में हरा कर पुनः वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना की। उनके इसी कार्य को ईसापूर्व 509 से 477 के बीच आगे बढ़ाया भगवान श्री आद्य शंकराचार्य जी ने।
 
तत्पश्चात श्री विष्णु गुप्त चाणक्य ने बौद्ध मतावलम्बी धनानन्द को पदच्युत कर ईसा पूर्व 321 में चन्द्रगुप्त मौर्य को सत्तासीन करवा कर भारत की बिखरी राजसत्ता को केन्द्रीय सत्ता में परिवर्तित किया। वैदिक सनातन धर्म में बौद्धों और जैनों के प्रति सह अस्तित्व का भाव उपजा।
लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य की आस्था जैन मत में थी। और उसका उत्तराधिकारी अशोक बौद्ध हो गया। इसी परम्परा में अशोक के उत्तराधिकारी वृहदृथ ने तो भी बौद्ध मत का पालन करते हुए यूनानी क्षत्रप के आक्रमण के विरुद्ध प्रतिकार करने से इन्कार कर समर्पण की मंशा प्रकट की तो ईसापूर्व 187 में सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कायर वृहदृथ की हत्या कर स्वयम् सत्ता सम्भाली। और अश्वमेध यज्ञ कर भारत में वैदिक धर्म की जाग्रति फैलाई।

शुंग वंश के बाद ईसापूर्व 73 से ईसा पूर्व 28 तक मगध में वासुदेव कण्व द्वारा स्थापित कण्व वंशीय राजाओं ने भी वैदिक धर्म को ही राजधर्म बनाया।

इसी समय कुरुक्षेत्र के आसपास हरियाणा के मालव प्रान्त के महाराज नाबोवाहन ने मध्यप्रदेश के सोनकच्छ के निकट आकर गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। 
गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु और शिव के भक्त थे। उनके पुत्र राजा भृतुहरि हुए। भृतुहरि को गोरखनाथ ने नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित कर उन्हें संन्यास दिला दिया।राजा भृतुहरि ने अपने छोटे भाई विक्रम सेन को राजपाट सौंप दिया। जो बाद में विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।
विक्रमादित्य सम्राट हुए। सम्राट के अधिनस्थ बहुत से छोटे- बड़े राजा होते हैं जो सम्राट को कर देते हैं। विक्रमादित्य का शासन प्रबन्ध टर्की, युनान, मिश्र और रोमन साम्राज्य (इटली) तक था। उन्होंने रोम के जुलियन सीजर को बन्दी बनाकर उज्जैन में घुमाया था। विक्रमादित्य ने वैदिक सनातन धर्म का मान पूरे एशिया महाद्वीप में बढ़ाया था।
सम्राट विक्रमादित्य के बाद ईसापूर्व 30 में महाराष्ट्र के जुन्नर नगर में सिमुक ने कण्व वंश से राजसत्ता छीनकर सात वाहन वंश की स्थापना की और शुङ्ग वंश को भी समाप्त कर दिया। बादमें गोतमिपुत्र सातकर्णी ने पेठण को राजधानी बनाया।
सनातन धर्म का वर्तमान पौराणिक स्वरूप सातवाहन वंश के समय ही विकसित हुआ।

फिर वैदिक धर्मी श्री गुप्त ने 240ईस्वी में गुप्त वंश की स्थापना कर वैदिक धर्म को और मजबूत बनाया। चन्द्रगुप्त प्रथम ने 320 ईस्वी में सम्राट की उपाधि धारण कर तथा समुद्रगुप्त ने विशाल साम्राज्य स्थापित कर तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सनातन धर्म को राजधर्म घोषित कर इस कार्य को आगे बढ़ाया।
फिर उज्जैन में मुञ्जराज हुए जिनके भतिजे राजा भोज ने 1010 ईस्वी में धारा नगरी (धार) को राजधानी बनाया। 
फिर राजपूत राजाओं का दौर चला जिसमें अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान ने 1166 से 1192 के बीच अन्तिम अश्वमेध यज्ञ कर सम्राट की उपाधि ग्रहण की। लेकिन मोह मद घोरी से परास्त होने से भारत में इस्लामिक राज्य प्राम्भ हुआ।

जिसे महाराष्ट्र के रायगढ़ दुर्ग में शिवाजी राजे भोसले ने 1674 ईस्वी में पुनः हिन्दू स्वराज्य की स्थापना कर चूनोति दी। लेकिन उनके पुत्र सम्भाजी राव भोसले ओरंगजेब से हार गये और मराठा साम्राज्य समाप्त हो गया।

मंगलवार, 15 जुलाई 2025

मृत्यु पूर्व क्या कर्तव्य है।

पहले एकादशी उद्यापन, तीर्थ यात्रा में गोदान , भूमि दान, स्वर्ण दान, अन्नदान, वस्त्र दान, कन्या दान  सब कर लेना चाहिए। 
तीर्थ में, पुण्यप्रदा नदी किनारे, या घर में पञ्चगव्य से स्नान कर शुद्धोदक स्नान कर पञ्चगव्य पान कर गङ्गा जल से आचमन कर, देशी गाय की कुंवारी केड़ी या देशी गाय के गोबर से लीपकर गौमुत्र छिड़ककर,  पद्मासन लगाकर कर तुलसीदल मुख मे रखकर गङ्गा जल से आचमन कर प्राणायाम करके ॐ का उच्चारण करके ईशावास्योपनिष का पाठ कर ॐ का जप करते हुए  शुद्ध अन्तःकरण से परमात्मा की धारणा खर परमात्मा के ध्यान करते हुए समाधिस्थ हो कर प्राणों को ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित कर परमात्मा में लीन हो जाना कर्तव्य है।
इतना न हो सके तो जितना हो सके उतना तो करे ही।
गोबर से लीपकर गौमुत्र छिड़ककर,  पद्मासन लगाकर कर तुलसीदल मुख मे रखकर गङ्गा जल से आचमन कर जलप्राणायाम करके ॐ का उच्चारण करके दक्षिण दिशा में पेर करके पीठ के बल लेट जाएँ। और परमात्मा कोदक्षिण दिशा में पेर करके स्मरण करते हुए प्राणोत्सर्ग करना चाहिए।
यह भी न हो तो मरने के पहले मुख में गङ्गा जल और तुलसीदल रखकर गोबर से लीपकर गौमुत्र छिड़ककर, दक्षिण दिशा में पेर करके पीठ के बल लिटा दिया जाए।
मृत्योपरान्त कर्मकाण्ड में ये सब नहीं कर पाने का प्रायश्चित करवाया जाता है।

रविवार, 13 जुलाई 2025

देवताओं की वरीयता क्रम।

परमात्मा के इस ॐ संकल्प के साथ ही परमात्मा स्वयम् परब्रह्म स्वरूप में प्रकट हुए। मानवीय स्वभाव वश हम इस स्वरूप का एकात्मक स्वरूप नहीं समझ पाते हैं इसलिए इसे परमेश्वर परम पुरुष विष्णु और परा प्रकृति माया के रूप में जानते समझते हैं।
ऋग्वेद में कहा है, विष्णु परमपद को देखने के लिए देवता भी तरसते हैं।
यहाँ से ईश्वर - शासक की अवधारणा प्रारम्भ होती है। जो उत्तरोत्तर नीचे की ओर ब्रह्म (महेश्वर प्रभविष्णु-श्रीलक्ष्मी अर्थात सवितृ- सविता ) हुए फिर 
अपर ब्रह्म (जगदीश्वर नारायण श्री हरि-कमला लक्ष्मी) हुए। फिर 
पञ्च मुखी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा - वाणी ( ईश्वर त्वष्टा-रचना और अर्धनारीश्वर महारुद्र)। फिर 
चतुर्मुख प्रजापति-सरस्वती ब्रह्मा (दक्ष प्रथम-प्रसूति, रुचि-आकुति और कर्दम देवहूति) हुए। उधर महा रुद्र से रुद्र- रौद्री हुए। फिर 
वाचस्पति (इन्द्र- शचि) हुए। फिर 
इसके बाद देवताओं की उत्पत्ति हुई।
ब्रह्मणस्पति (द्वादश आदित्य और उनकी शक्तियाँ) हुए। फिर 
ब्रहस्पति (जिसके नाम पर ब्रहस्पति ग्रह का नाम करण हुआ) (अष्ट वसु और उनकी शक्तियाँ) हुए। फिर 
पशुपति (एकादश रुद्र और उनकी शक्तियाँ) हूए। इन एकादश रुद्रों में एक शंकर-शंम्भु भी है। फिर  
गणपति (सोम राजा और वर्चा) हुए। यह गणपति उमा-शंकर सुत गजानन विनायक नहीं है।
फिर सदसस्पति हुए , सदसस्पति की शक्ति मही हुई। फिर 
मही से भारती, सरस्वती और इळा (इला) हुए।

(> यह चिह्न बड़ा है का है। अर्थात बढ़ा से > छोटा हुआ।)
कहने का तात्पर्य परमात्मा> परब्रह्म, परमेश्वर विष्णु> ब्रह्म महेश्वर प्रभविष्णु > अपरब्रह्म जगदीश्वर नारायण श्री हरि>  ईश्वर हिरण्यगर्भ त्वष्टा और महारुद्र से > प्रजापति  दक्ष > वाचस्पति इन्द्र > ब्रह्मणस्पति आदित्य > ब्रहस्पति वसु > पशुपति रुद्र (जिससे ग्यारह रुद्र हुए जिसमें एक कैलाश वासी शंकरजी भी हैं।) > गणपति (सोम-वर्चा) > सदसस्पति > मही > भारती > सरस्वती > इळा।

तैंतीस देवता - (1) प्रजापति (2) इन्द्र (3 से 14) तक द्वादश आदित्य (15 से 22) तक अष्ट वसु और (23 से 33) तक एकादश रुद्र। ये तैंतीस देवता हैं।

ग्रेडेशन का एक सूत्र है --- नारायण श्रीहरि के बाँये पेर के अङ्गठे से निकली गङ्गा ब्रह्मा जी के कमण्डलु में रही। वहाँ से निकल कर इन्द्र के स्वर्ग लोक में रही। स्वर्ग से निकलकर शंकर जी के सिर की जटा में समाई।
मतलब नारायण बड़े हैं ब्रह्मा से। 
ब्रह्मा बड़े हैं इन्द्र से
इन्द्र बड़े हैं शंकर जी से

शनिवार, 12 जुलाई 2025

हिरण्यगर्भ सूक्त


हिरण्यगर्भ सूक्त में हिरण्यगर्भ, प्रजापति, दक्ष , वृहति और आप ये पाँच ही सञ्ज्ञा आई है।
त्रिविक्रम विष्णु का नाम नहीं है। न प्रभविष्णु सवितृ का है ।
यदि हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने ही प्रजा का सृजन भी किया होता तो ऐसी भाषा आती कि, हिरण्यगर्भ ही प्रजापति है। लेकिन ऐसा वर्णन नहीं है।
और न ही ऐसा कहीं वर्णन है कि,
हिरण्यगर्भ ही दक्ष है। हिरण्यगर्भ ही वाचस्पति है, हिरण्यगर्भ ही ब्रह्मणस्पति है, हिरण्यगर्भ ही ब्रहस्पति है।
लेकिन ऐसा वर्णन नहीं है।
विष्णु सर्वव्यापी को त्रिविक्रम कहकर यह बतलाता गया कि, वह प्रत्येक स्थान, प्रत्येक लोक, प्रत्येक भुवन में पहले से है।
यही बात ईशावास्योपनिषद में भी कही है।
प्रभविष्णु जिससे सृजन प्रारम्भ हुआ। भू भव यानी होना। इस लिए प्रभ शब्द आया।
 प्रभा, प्रभात, प्रभु, प्रभुत्व, प्रभाव इन सभी शब्दों में वही होने का भाव है।
यही सवितृ में है, प्रसवित्र (जिसने सृष्टि को प्रसुत किया।) इसलिए जनक, प्रेरक और रक्षक अर्थ हैं।
हिरण्यगर्भ जिसका गर्भ (केन्द्र) हिरण्यमय है। गर्भ शब्द का प्रयोग कर जनक बतलाया गया। जो हिरण्य आदि भौतिक जगत का जनक है।
प्रजापति जिससे प्रजाएँ उत्पन्न हुई।
दक्ष जिसने धर्मसूत्र रचकर धर्म मर्यादा स्थापित कर प्रजा को धर्म में दीक्षित किया।
अपः तत्व (नार) प्रकृति (श्री-लक्ष्मी) का प्रतीक है जिसपर नारायण श्रीहरि आश्रित हैं।
वृहति वृहत के अर्थ में है।

ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलने का कारण।

भारतीय उप महाद्वीप, तुर्किस्तान और मेसोपोटामिया (ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान,  उज़्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, अजरबेजान, आर्मेनिया, दक्षिण पूर्वी टर्की, पश्चिम टर्की (सु संस्कृत होने के कारण जिसे युनान/ ग्रीस कहते हैं, जबकि युनान अलग देश है।) तथा सीरिया, इराक, सऊदी अरब,यमन,ओमान, जोर्डन,  लेबनान), मिश्र, केनिया, सोमालिया , नेरोबी और ईरान , अफगानिस्तान, तिब्बत , पश्चिमी चीन, युक्रेन और दक्षिण पूर्वी रूस,  तथा लेटिन अमेरिका मेक्सिको, बोलिविया, आदि देशों के इतिहास, धर्म, संस्कृति, वैज्ञानिक उपलब्धियों के रेकार्ड शक हूण, पारसी, श्रमणों-बौद्धों और अब्राहीमीक (सबाइन, दाउदी, सुलेमानी, यहुदी, ईसाई और इस्लामी) आक्रान्ताओ ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
इसलिए प्राचीन वैज्ञानिक अनुसंधान के दौरान किये गये प्रयोगों और निरीक्षणों का इतिहास नहीं मिलता है।
निष्कर्ष भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अन्तरित होते-होते कितने बदल गए कह नहीं सकते।



रविवार, 6 जुलाई 2025

सृष्टि का कारण और सृष्टि के पहले क्या था?

प्रश्न यह है कि, 

1 जिसके पहले सत भी नहीं था, असत भी नहीं था ।

2 दुसरा कहीं लिखा है कि, पहले केवल असत था, और असत से सत की उत्पत्ति हुई 

दुसरे ऋषि का कहना है कि, पहले केवल सत था और सत से उत्पत्ति हुई 

3 तीसरी ओर कहा जाता है कि, सृष्टि उत्पत्ति एकार्णव जल से हुई।

इन सब की मीमांसा कैसे की जाए? सत्य क्या है? किसे सत्य माना जाए?

  उत्तर - 
1 सत मतलब अस्तित्व नही था। लेकिन अनस्तित्व भी तो नहीं था। क्योंकि परमात्मा तो सदैव से है, सदैव रहेगा। सनातन है। इसलिए सृष्टि नहीं होने से जगत का अस्तित्व नही होते हुए भी परमात्मा तो था ही इसलिए अनस्तित्व भी नहीं था।

2 पहले असत था; असत से ही सत (अस्तित्व) हुआ । मतलब सृष्टि के पहले जगत का अस्तित्व नही था। उस अभाव की पूर्ति जगत की उत्पत्ति से हुई।

सत से ही सत की उत्पत्ति हुई मतलब परमात्मा के (विश्वात्मा) ॐ संकल्प से परमात्मा स्वयम [प्रज्ञात्मा अर्थात परम पुरुष  और परा प्रकृति] परब्रह्म परमेश्वर (अर्थात विष्णु और माया) के स्वरूप में प्रकट हुआ। फिर [प्रज्ञात्मा अर्थात पुरुष और प्रकृति)  ब्रह्म (अर्थात प्रभविष्णु जनक, प्रेरक रक्षक सवितृ और श्री लक्ष्मी या सावित्री) के स्वरूप में प्रकट हुआ। जिसने सृष्टि सृजन किया।

3 एकार्णव जल से सृष्टि उत्पत्ति -- यह एकार्णव जल पुरुष (प्रभविष्णु सवितृ) की प्रकृति (श्री लक्ष्मी सावित्री) है। इस प्रकृति से ही आगे की सृष्टि हुई।
परमात्मा ही जीवात्मा (अर्थात अपर पुरुष जीव और त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति आयु) अपर ब्रह्म (अर्थात नारायण श्रीहरि और नारायणी पद्मासना कमला गज लक्ष्मी) हुए।
ये अपर पुरुष नारायण त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति नार पर अवस्थित हैं। और प्रत्यागात्मा ब्रह्म (पुरुष और प्रकृति)  पर आश्रित हैं। क्योंकि प्रत्येक का व्यक्तिगत अस्तित्व प्रत्यागात्मा ब्रह्म के कारण ही है।
जीवात्मा अपर ब्रह्म से भूतात्मा (देहि और अवस्था) हिरण्यगर्भ (विश्वकर्मा/ पञ्च मुखी ब्रह्मा/ अण्डाकार) (त्वष्टा और रचना) हुआ। त्वष्टा ने ब्रह्माण्ड के गोले घड़े। इस प्रकार भौतिक सृष्टि हुई।
जैविक सृष्टि के लिए परमात्मा सुत्रात्मा (ओज और आभा या रेतधा और स्वधा) प्रजापति हुए। प्रजापति को देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा ।
अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति (3) रुद्र - रौद्री और  (4) पितर - स्वधा भू स्थानी प्रजापति (5) दक्ष प्रथम - प्रसुति, (6) रुचि - आकुति (7) कर्दम - देवहूति के रूप में जानते हैं। इनके अलावा आठवें स्वायम्भुव मनु और शतरूपा हूए जो राजन्य हुए। इन लोगों ने ही जैविक सृष्टि की।
इनके अलावा भूमि पर ये
आठ भूस्थानी प्रजापति ये हुए (1) मरीची-सम्भूति, (2) भृगु-ख्याति, (3) अङ्गिरा-स्मृति, (4) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (5) अत्रि-अनसुया, (6) पुलह-क्षमा, (7) पुलस्य-प्रीति, (8) कृतु-सन्तति। जिन्होंने मैथुनिक सृष्टि उत्पत्ति की। इनके अलावा नारद जी मुनि होगये। इस कारण नारद जी को प्रजापति नहीं कहते हैं।
ये सभी आत्मज्ञानी ब्रह्मज्ञानी महापुरुष हैं इसलिए ब्राह्मण कहलाते हैं।
इस प्रकार प्रत्यागात्मा ब्रह्म (पुरुष और प्रकृति)  पर आश्रित और  त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति नार अर्थात एकार्णव जल पर अवस्थित जीवात्मा (अर्थात अपर पुरुष जीव और त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति आयु) अपर ब्रह्म (अर्थात नारायण श्रीहरि और नारायणी पद्मासना कमला गज लक्ष्मी) को भौतिक और जैविक सृष्टि का कारण माना जाता है। यही एकार्णव जल (त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति) सृष्टि के आदि में था।
इस प्रकार मीमांसा पूर्ण हुई।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

आस्तिक ईश्वरवाद, आस्तिक ईश्वर की अवधारणा अनावश्यक मानने वाले पूर्व मीमांसक और सांख्य दर्शन तथा आस्तिक अनीश्वरवादी पूर्व मीमांसक।

ईश्वर है या नहीं है, ईश्वर की अवधारणा अनावश्यक है या आवश्यक है; ये समस्याएँ वेदों के प्रति आस्थावान आस्तिकों (वैदिकों) में भी है। इनमे प्रमुख तीन है।
1 ईश्वरवादी जो परमात्मा के ॐ सङ्कल्प से परमात्मा के सगुण प्रकट स्वरूप परब्रह्म (विष्णु-माया) की प्रेरणा से ब्रह्म (प्रभविष्णु-श्रीलक्ष्मी)  (सवितृ- सावित्री) सृष्टि का जनक प्रेरक रक्षक  को मानते हैं। जिसकी प्रेरणा से वाणी हिरण्णगर्भ - (त्वष्टा - रचना) ने बढ़ाई (सुतार- लौहार, सुनार, कम्भकार) की भाँति सृष्टि में ब्रह्माण्डों को और ब्रह्माण्ड के गोलों को घड़ा।

2 - तार्किक दृष्टि वाले साधक गण कहते हैं, कि, पुरुष के लिए केवल धर्म, अर्थ, काम मौक्ष पुरुषार्थ कहे गए हैं। इनको प्राप्त करने में न ईश्वर आवश्यक है, न सहायक है न बाधक है; तो इस अव्याकृत तथ्य पर विचार करना भी अनावश्यक है।
सिद्धार्थ गोतम बुद्ध को सांख्य दर्शन का ज्ञान प्रदाता गुरु ने यही शिक्षा दी गई थी। इसलिए वे नास्तिक अनीश्वरवादी शान्तिनाथ, नेमिनाथ पारसनाथ की परम्परा से हटकर प्रचार करने लगे।

3 - अनीश्वरवादी पूर्व मीमांसक- जो ईश्वर की अवधारणा की आवश्यकता पर और  प्रश्न  ईश्वर के अनस्तित्व मानने से क्या क्षति हो जाएगी यह प्रश्न उठाते हुए ईश्वर के होने पर भी हिंसा, बलात्कार, लूट जैसे अनाचार होने का कारण पूछते हुए ईश्वर के न होने पर बहुत से तर्क प्रस्तुत करते हैं। जिनका उत्तर उत्तर मीमांसक वेदान्तियों ने दिया है उसमें भी विशेषकर शंकराचार्य परम्परा के अद्वैत वेदान्तियों ने उत्तर दिये हैं।

इनके अलावा वेदों को न मानने वाले, वेद विरोधी नास्तिक अनीश्वरवादी जैन दर्शन के शान्तिनाथ, नेमिनाथ पारसनाथ, वर्धमान महावीर से लेकर स्टीफन हॉकिंग तक उक्त तर्क और वैदिक ईश्वर वादियों द्वारा दिए गए उनके प्रामाणिक उत्तरो को ही संकलित किया जाए तो महाभारत से बड़ा ग्रन्थ बन जाएगा।