मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

होरा शास्त्र अर्थात फलित ज्योतिष के ग्रन्थ।

होरा शास्त्र या जातक शास्त्र (फलित ज्योतिष) के कुछ प्रमुख ग्रन्थ-

 वृद्ध गर्ग रचित 1 *गार्गीय-ज्योतिष* ।
2 *गर्ग-संहिता* ।
 3 *गर्ग होरा* ।

 वराहमिहिर रचित 
4 *वृहत् संहिता* 
5 *बृहज्जातकम्* ।
6 *लघुजातक* ।
7 *दैवज्ञवल्लभ* ।

 महर्षि पराशर रचित
8 *बृहद पाराशर होराशास्त्र* 

9 *लघु पाराशरी* 

 महर्षि जैमिनि रचित 
10 *जैमिनीसूत्र* ।

आचार्य केशव देवज्ञ रचित 
11 *केशवीय जातक पद्धति* 

 कल्याणवर्मा रचित 
12 *सारावली* 

 मन्त्रेश्वर रचित 
 13 *फलदीपिका* 

 वैद्यनाथ दीक्षित रचित 
14 *जातक पारिजात* 

गणक कालिदास
15 *उत्तरकालामृतम्* 

 गणेश दैवज्ञ रचित 
 16 *जातकालंकार* 

महादेव रेवाशंकर पाठक (रतलाम) रचित 
 17 *जातकतत्त्व* 

व्यंकटेश शर्मा रचित 
 18 *सर्वार्थ चिन्तामणि* 

जनार्दन हरजी रचित 
 19 *मानसागरी* 

व्यंकटेश देवज्ञ रचित
 20 *सर्वार्थचिन्तामणि* 

आचार्य बलभद्र रचित 
21 *होरारत्न* 

मेलपातुर नारायण भट्टतिरि रचित 
22 *चमत्कारचिन्तामणि* 

 राजा स्फुजिध्वज रचित 
 23 *स्फुजिध्वज होरा* 
या
24 *यवनजातक* 

पृथुयासस रचित 
 25 *होरासार* 

आचार्य नीलाकण्ठ रचित 
 26 *ताजिकनीलकण्ठी* 

प्रणकट्टु नम्बूतिरी रचित 
27 *प्रश्नमार्ग* 
गोविन्द भट्टतिरि रचित 
 28 *दशाध्यायी* 

29 *षट्पञ्चाशिका* 
30 *देवकेरलम्* 
31 *कृष्णीयम्* 
 32 *शम्भुहोराप्रकाश*

फलित ज्योतिष में होरा शास्त्र और ताजिक, दशा और गोचर का महत्व।


जिनका जन्म शुक्ल पक्ष में सिंह होरा में हुआ हो या कृष्ण पक्ष में कर्क होरा में हुआ हो उनका फलित देखने हेतु विंशोत्तरी महादशा-अंतर्दशा-प्रत्यन्तर दशा के अलावा षोडश वर्षीय दशा अन्तर्दशा प्रत्यन्तर दशा भी देखते हैं। और प्रश्न के विचारणीय विषय में महादशाशेश - अन्तर्दशेश - प्रत्यन्तर्दशेश के गोचर को ही अधिक महत्व देते हैं। उसमें भी विंषोत्तरी और षोडशोत्तरी महादशा के ग्रहों के नक्षत्रों में ग्रह का भ्रमण भी महत्वपूर्ण मानते हैं।
भारत में अष्टकवर्ग के बलाबल के आधार पर गोचर (ट्रांजिट) देखा जाता है।
युरोप में दशा नहीं चलती, वहाँ गोचर से ही घटना का दिन ज्ञात किया जाता है। वे कुण्डली में और गोचर में ग्रहों में परस्पर अंशात्मक दृष्टियोग के आधार पर फलित करते हैं।

वर्ष फल की यह भी एक विधि है, पूर्व में ईराक में प्रचलित ताजिक को ताजिक नीलकण्ठ नामक ग्रन्थ रचकर भारत में प्रचलित किया गया। इसलिए इसमें अधिकांश तकनीकी शब्द अरबी के हैं। मुन्था और मुन्था दशा इसी ताजिक वर्षफल शास्त्र में उल्लेखित है। इसमें नक्षत्रीय सौर वर्ष अर्थात निरयन सौर वर्षमान के अनुसार जन्मदिन समय से ठीक एक-एक वर्ष बाद का लग्नादि भाव स्पष्ट और ग्रह स्पष्ट देखते हैं।
मुझे यह बहुत अविकसित पद्यति लगती है।
युरोप में सायन सौर वर्ष के आधार पर ही वर्ष कुण्डली बनाते हैं। लेकिन मुन्था और मुन्था दशा तथा इत्यशाल आदि योग नहीं देखते हैं।


गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

वैदिक नव संवत्सर

वेदिक युग में नवसंवत्सरोत्सव, वसन्तोत्सव, नव सस्येष्टि ये सभी उत्सव उस दिन मनाये जाते थे जिस दिन सुर्य ठीक भूमध्यरेखा पर आकर उत्तरीगोलार्ध में प्रवेश.करता है। उस दिन दिन - रात बराबर होते हैं, उत्तरीध्रुव पर सुर्योदय होता है और दक्षिण ध्रुव पर सुर्यास्त होता है । सुर्योदय सुर्यास्त के समय सुर्य भूमध्य रेखा पर होने के कारण सुर्योदय ठीक पुर्व दिशा में और सुर्यास्त ठीक पश्चिम दिशा में होता है।उस दिन मध्याह्न की छाँया देखकर स्व स्थान का अक्षांश देशान्तर ज्ञात करना आसान होता है। उक्त दिवस को महा विषुव, और वसन्त विषुव कहा जाता है। इसे ज्योतिषीय भाषा में सायन मेष संक्रान्ति कहते हैं। मूलतः कलियुग संवत का आरम्भ सायन मेष संक्रान्ति से होता है।

22 मार्च 1957 से भारत शासन ने भी भारतीय राष्ट्रीय शक केलेण्डर के रुप में इस परम्परा को पुनर्जीवित किया है। 

पहले लगभग पुरे विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में वेद ही सर्वमान्य धर्म ग्रन्थ थे। चाहे सबने अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार अलग-अलग अर्थ लगाये। लेकिन एशिया, यूरोप और पूर्वी अफ्रीका में अथर्ववेद और कृष्ण यजुर्वेद सर्वमान्य धर्मशास्त्र थे। जरथ्रुस्त के पहले ईरान में अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता प्रचलित था। इसी अवेस्ता की जेन्द टीका कर जुरथ्रस्थ ने जेन्दावेस्ता ग्रन्थ रचा।

इसलिए वसन्त विषुव 20/21 मार्च को नववर्ष मनाया जाता था। जमशेदी नवरोज नामक पारसी नववर्ष आज भी इसी दिन मनाते हैं। 

सऊदी अरब और ईराक में भी सायन मेष संक्रान्ति वाले माह के आसपास वाले दो माह वसन्त ऋतु आरम्भ के पु्र्व वाला माह और वसन्त विषुव से वसन्त ऋतु प्रारम्भ के बाद वाला माहों को रबीउल अव्वल और रबीउस्सानी कहते हैं।

चीनी केलेण्डर भी सायन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर है। जिसमें नव वर्ष सायन सौर संस्कृत चान्द्र माह के अनुसार सायन कुम्भ संक्रान्ति और सायन मीन संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद से नववर्ष होता है।

ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार 1975 ईस्वी के पहले यह प्रायः 20 मार्च को पड़ता था एवम् 1975 ई. के बाद आगामी हजारों लाखों वर्ष तक यह अधिकांशतः 21 मार्च को होता है और होगा।

चुँकि, ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर वर्ष गणना आधारित केलेण्डर है तथा चार वर्षों में प्लुत वर्ष में एक दिन बढ़ा कर,तथा प्रति 100 वर्षों में प्लुत वर्ष नही करना जैसे सन 1900 ई. में फरवरी 28 दिन का ही था और प्रत्येक 400 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष करना जैसे फरवरी 2000ई. 29 दिन का था।और प्रत्यैक 4000 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष न करना इस प्रकार ग्रेगोरियन केलेण्डर में स्थाई रुप से एक दिन या एक तारीख का अन्तर हजारों लाखों वर्ष में ही आयेगा। तब सायन मेष संक्रान्ति 22 मार्च को पड़ने लगेगी।

नक्षत्रीय सौर संवत्सर ---

इसके अतिरिक्त वेदिक काल में ही महर्षि विश्वामित्र द्वारा नाक्षत्रिय गणना आधारित वर्षगणना प्रचलित की। इस पद्यति में नाक्षत्रिय या निरयन मेष संक्रान्ति से संवत्सर आरम्भ होता है। आज भी पञ्जाब, उड़िसा, बङ्गाल, तमिलनाड़ु, केरल आदि अनेक राज्यों में निरयन मेष संक्रान्ति से ही संवत्सरारम्भ होता है। मूलतः युधिष्ठिर संवत और विक्रम संवत निरयन मेष संक्रान्ति से ही आरम्भ होता है।

सन 285 ईस्वी में दिनांक 22 मार्च 285 ई. को सायन और निरयन मेष संक्रान्ति एकसाथ हुई थी। तब से लगभग हर 71 वर्ष में निरयन मेष संक्रान्ति एक दिनांक बाद में होते होते आजकल दिनांक 14 अप्रेल को होने लगी है।अर्थात 1735 वर्षों में 24 दिन का अन्तर पड़ गया है। सन 2189 में 22 अप्रेल को निरयन मेष संक्रान्ति आयेगी। ऐसे ही तथा 12890 वर्ष में पुरे छः मास का अन्तर पड़ जायेगा। और 25780 वर्ष में पुरे एक वर्ष का अन्तर पड़ने से सायन कलियुग संवत 28882 और निरयन युधिष्ठिर संवत 28881 होगा यानि एक वर्ष का अन्तर होगा।


नक्षत्रीय सौर- चान्द्र संवत्सर 

उत्तर भारत में कुशाण राजाओं विशेषकर कनिष्क द्वारा और दक्षिण भारत में सातवाहन राजाओं विशेषकर शालिवाहन सातकर्णि द्वारा चलाये गये निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शकाब्द का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।

निरयन मीन राशि में सुर्य हो तब अर्थात वर्तमान में लगभग 14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच जो अमावस्या होती है उसी समय से निरयन सौर संस्कृत शक संवत का वर्ष समाप्त होकर नया वर्ष नया शकाब्ध आरम्भ होता है। किन्तु व्यवहार में उसके दुसरे दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शकाब्ध आरम्भ होता है।

जब दो संक्रान्तियों के बीच अमावस्या न पड़े या यों कहें कि जब दो अमावस्याओं के बीच दो संक्रान्ति पड़े तो वह क्षय मास कहलाता है सन 1983 ई. में आश्विन मास क्षय हुआ था। इसके पहले 1964 ई. में भी क्षय मास आया था। माघ मास को छोड़ कोई भी मास क्षय हो सकता है। क्षय मास वाले वर्ष में क्षय मास के पहले और बादमें अधिक मास पड़ते हैं। ऐसा प्रत्यैक 19 वर्ष, 122वर्ष और 141 वर्ष में होता है। 1963 ई. में 141 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था।सन 1964 ई. के बाद 1983 ई. में 19 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था और अब 122 वर्ष बाद वाला क्षय मास सन 2105 ईस्वी में पड़ेगा।

इसी 19 वर्ष, 122 वर्ष, 141 वर्षों के क्रम से निरयन सौर संस्कृत संवत्सर मे पञ्चाङ्ग के मास, तिथि, करण, नक्षत्र, और योग तथा सुर्यग्रहण, चन्द्र ग्रहणों की आवृत्ति होती रहतीहै।

इसी प्रकार जब दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़े या यों कहें कि अमावस्याओं के बीच कोई संक्रान्ति न पड़े तो अधिक मास होता है। ये चैत्र से कार्तिक तक कोई भी मास अधिकमास हो सकता है।

माघ मास न क्षय होता है न अधिक होता है।

ऐसे अधिक मास और क्षय मास के प्रावधान कर 354 दिन के चान्द्र वर्ष को 365.256363 दिन के निरयन सौर वर्ष से बराबरी कर ली जाती है।

अब चुँकि अभी निरयन मीन संक्रान्ति 14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच पड़ती है इसलिये 15 मार्च से 13 अप्रेल के बीच ही शकाब्ध आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पड़ती है। लगभग 1130 वर्ष बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अप्रेल माह में ही पड़ा करेगी।

सुचना ---
पुराणों में लिखा है कि, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की।
लेकिन जब चन्द्रमा की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी। तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि होना सम्भव ही नहीं है।
1 चन्द्रमा भूमि का उपग्रह है। इसलिए पहले भूमि बनी तभी उसका उपग्रह चन्द्रमा बन पाया।
 चन्द्रमा की उत्पत्ति का वैज्ञानिक सिद्धान्त है कि, किसी ग्रह या उल्का के भूमि के टकराव से भूमि का एक टुकड़ा टूट कर भूमि की परिक्रमा करने लगा जो चन्द्रमा कहलाया, और भूमि पर उस स्थान पर प्रशान्त महासागर बन गया।
2 पौराणिक कथाओं के अनुसार चन्द्रमा 
(क) चन्द्रमा की उत्पत्ति मन से हुई।
(ख) चन्द्रमा की उत्पत्ति देवराज पुरन्दर इन्द्र और असुर राजा बलि के समय समुद्र मन्थन में हुई।
(ग) महर्षि अत्रि और अनुसुया का पुत्र चन्द्रमा हुआ।
तीनों सिद्धान्त यह मानते हैं कि, चन्द्रमा की उत्पत्ति सृष्टि उत्पत्ति के बहुत बाद में हुई।
तो चैत्र मास, शुक्ल पक्ष और प्रतिपदा तिथि भी चन्द्रमा की उत्पत्ति के बाद ही हो सकती है।

सुचना -

1 प्लुत वर्ष यानि अन्तिम माह में एक दिन अधिक होना । पहले फरवरी अन्तिम माह था। जुलियन सीजर ने जनवरी को प्रथम मास घोषित किया। अतः अन्तिम मास में एक दिन बढ़ाया गया।

2 भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष के गोलाध्याय (यानि खगोल विज्ञान और भुगोल) में पुरे विश्व के लिये पुर्व पश्चिम दिशा भूमध्यरेखा पर ही मान्य है। वेध लेनें वाले के अक्षांश पर पुर्व पश्चिम मानने से पुर्व पश्चिम दिशा अर्थहीन हो जायेगी। क्यों कि प्रत्यैक देशान्तर के लिये तो पुर्व पश्चिम अलग अलग होती ही है। भारत वासियों का पुर्व और अमेरिका वासियों का पश्चिम लगभग एक ही होता है। ऐसे में यदि अलग अलग अक्षांशों पर उत्तराभिमुख खड़े हुए व्यक्ति द्वारा वेध लेनें वाले के 90° दाँयें बाँयें पुर्व पश्चिम मानें तो कम्युनिकेशन असम्भव सा होजायेगा। सभी अक्षांशों के पुर्व पश्चिम अलग अलग होंगें।

3 जब सुर्य को केन्द्र मानकर देखनें पर भूमि चित्रा नक्षत्र के सम्मुख दिखे यानि सुर्य, भूमि और चित्रा नक्षत्र का तारा एक पङ्क्ति में दिखे। केन्द्रीय ग्रह स्पष्ट में भूमि चित्रा नक्षत्र के योग तारा का भोग एक ही हो या जब चित्रा तारे से भूमि की युति हो तब निरयन मेष संक्रान्ति होती है। 

सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर 

सायन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष गणना लागु करने का प्रयोग काशी के बापुशास्त्री जी ने किया था और कई वर्षों तक सायन सौर संस्कृत पञ्चाङ्ग प्रकाशित किया। किन्तु धर्माचार्यों के असहयोग और लोकप्रिय नही होने के कारण उन्हें प्रकाशन बन्द करना पड़ा। खेर।

ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं 

कविता आदर्श नगर रोहतक हरियाणा के उदयीमान युवा कवि श्री अङ्कुर आनन्द द्वारा रचित है। जो उनके काव्यसंग्रह "कलम जब ठान लेती है" के पृष्ठ 86-87 पर प्रकाशित है। श्री अङ्कुर आनन्द भारत संचार निगम लिमिटेड में कार्यरत हैं।

इस काव्य संग्रह की एक प्रति श्री अंकुर आनन्द ने स्वयम् आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश जी को भेंट की है।

बुधवार, 25 दिसंबर 2024

सनातन धर्म के मुख्य संवत्सर पत्रक (केलेण्डर) और विषुव तथा अयनान्त संक्रान्ति का समय।

वैदिक सनातन धर्म के अनुसार वसन्त विषुव (नव संवत्सर प्रारम्भ) के समय, शारदीय विषुव और और उत्तरायण - दक्षिणायन के अयनान्त के समय तीर्थ स्नान, होम- हवन, अग्निहोत्र और दान किया जाता है।
दुसरे दिन सूर्योदय के पूर्व संध्या, गायत्री मन्त्र जप और सूर्योदय समय वैदिक अग्निहोत्र तथा पैड़-पौधों, गो, कुकर, पक्षियों, पिप्पलिका (चींटी) और यथायोग्य विद्यार्थियों, बिमारों, अपाहिजों, वृद्धों की सेवा की जाती है।

वसन्त विषुव (Vernol Equinox) दिनांक 20 मार्च 2025 गुरुवार को 14:31 बजे अर्थात दोपहर 02:31 बजे होगा। इस समय हमारा वैदिक नव संवत्सर (नव वर्ष) प्रारम्भ होता है। जिसे धार्मिक दृष्टि से इसके बाद सूर्योदय से (21 मार्च 2025 शुक्रवार से) लागू माना जाता है। वसन्त विषुव के समय सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए भूमि की भूमध्य रेखा के शीर्ष पर पहूँच जाता है। और दक्षिण गोलार्ध से उत्तर गोलार्ध में प्रवेश करता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय और दक्षिणी ध्रुव पर सूर्यास्त हो जाता है। वेदों के अनुसार इसे देवों कि दिन प्रारम्भ और पितरों की रात्रि प्रारम्भ कहा गया है।
वैदिक नव संवत्सर प्रारम्भ दिवस —- वसन्त विषुव या वसन्त सम्पात दिवस (20/21 मार्च) जिस दिन दिन रात बराबर होते हैं।  यह एक मात्र पूर्णतः वैज्ञानिक ऋतुबद्ध संवत है। इसे कलियुग संवत से दर्शाया जाता है। लेकिन वर्तमान में हिन्दुओं नें वेदों से परहेज़ कर लिया है इसलिए यह वैदिक, वैज्ञानिक, और वास्तविक नववर्ष दिवस मनाना बन्द कर दिया है।
वसन्त विषुव प्रति वर्ष 20 या 21 मार्च को पड़ता है। क्योंकि कलियुग संवत और ग्रेगरी केलेण्डर दोनों ही सायन सौर केलेण्डर हैं। गोल, ऋतु और ग्रेगोरी केलेण्डर के अनुसार माहों के प्रारम्भ दिनांक और मास अवधि निम्नानुसार है ---
उत्तर गोल। 
वसन्त ऋतु।
1 मधु मास , 21 मार्च से, 31 दिन।
2 माधव मास, 21 अप्रेल से, 31 दिन। 
ग्रीष्म ऋतु।
3 शुक्र मास, 22 मई से, 31 दिन।
4 शचि मास, 22 जून से, 31 दिन। 
वर्षा ऋतु 
5 नभः मास, 23 जुलाई से, 31 दिन।
6 नभस्य मास, 23 अगस्त से, 31 दिन।
दक्षिण गोल।
शरद ऋतु।
7 ईष मास, 23 सितम्बर से, 30 दिन।
8 उर्ज मास, 23 अक्टूबर से, 30 दिन।
हेमन्त ऋतु।
9 सहस मास, 22 नवम्बर 30 दिन।
10 सहस्य मास, 22 दिसम्बर से 29 दिन।
शिशिर ऋतु।
11 तपः मास, 20 जनवरी से, 30 दिन।
12 तपस्य मास, 19 फरवरी से, 30 या 31 दिन होते हैं।
साधारण तीन वर्ष में 30 दिन और प्रत्येक चौथे वर्ष (अधिवर्ष में) 31 दिन का मास होता है।
मासावधि मन्दोच्च पर आधारित होती है। मन्दोच्च 13,384 वर्ष में आवर्तन पूर्ण करता है। अत: प्रत्येक 1074 वर्ष में एक माह पहले वाला माह 29 दिन का और उसका सातवाँ माह 31. 5 दिन का हो जाता है। लेकिन अभी लम्बे समय तक ये ही स्थिति रहने वाली है।

ऐसे ही उत्तरायण या ग्रीष्म अयनान्त (Summer solstice) दिनांक 21 जून 2025 शनिवार को प्रातः 08:11 बजे तथा दूसरे दिन सूर्योदय समय भी होगा।  इस दिन सबसे बड़ा दिन, सबसे छोटी रात्रि होती है। सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति होती है अर्थात सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए अन्तिम सीमा भूमि की कर्क रेखा के शीर्ष पर पहूँचकर उत्तर की ओर होने लगता है। कर्क रेखा हमारे निकट उज्जैन नगर से होकर गुजरती है। इसलिए इस दिन उज्जैन, शिप्रा सङ्गम स्नान और महाकाल वन क्षेत्र की यात्रा का विशेष महत्व है।
एवम्

शरद विषुव (Autumn Equinox) दिनांक 22 सितम्बर 2025 सोमवार को 23:49 बजे अर्थात रात्रि 11:49 बजे  होगा अतः  इस समय और दूसरे दिन 23 सितम्बर 2025 को सूर्योदय समय भी उपर लिखितानुसार तीर्थ स्नान, यज्ञ, होम, दान-पुण्य कर्म किया जाएगा ।

इसके बाद दक्षिणायन या दक्षिण अयनान्त (Winter Solstice) 21 दिसम्बर 2025 रविवार को 20:32 बजे अर्थात रात्रि 8:32 बजे होगा। अतः दूसरे दिन 22 दिसम्बर 2025 को सूर्योदय समय तीर्थ स्नान, यज्ञ, होम, दान-पुण्य कर्म किया जाता है ।



2 नक्षत्रीय नव संवत्सर प्रारम्भ दिवस —- वेदों में चित्रा तारे को क्रान्तिवृत और उसके आसपास आठ-आठ अंश चौड़ी नक्षत्र पट्टी का मन्ध्य बिन्दु कहा गया है। अतः
जब सूर्य के केन्द्र से भूमि का केन्द्र चित्रा तारे के सम्मुख पड़ता है। अर्थात भूमि के केन्द्र से सूर्य का केन्द्र चित्रा तारे से 180° पर होता है। अर्थात अश्विनी नक्षत्र का प्रारम्भ बिन्दु पर सूर्य होता है। तब नक्षत्रीय नव संवत्सर प्रारम्भ होता है। उत्तर वैदिक काल और सुत्र ग्रन्थों के रचना काल से पौराणिक काल तक नक्षत्रीय नव संवत्सर का विशेष महत्व रहा। इसमें वर्तमान में ग्रेगोरी केलेण्डर के अनुसार माहों के प्रारम्भ दिनांक और मास अवधि निम्नानुसार है ---

1 मेष मास, 13 अप्रेल से, 31 दिन। (वैशाखी से)
2 वृषभ मास, 14 मई से, 31 दिन।
3 मिथुन मास, 14 जून से, 32 दिन ।
4 कर्क मास, 16 जुलाई से, 31 दिन ।
5 सिंह मास, 16 अगस्त से,31  दिन ।
6 कन्या मास, 16 सितम्बर से, 31 दिन ।
7 तुला मास, 17 अक्टूबर से, 30 दिन ।
8 वृश्चिक मास, 16 नवम्बर से, 29  दिन ।
9 धनु मास, 15 दिसम्बर से, 30 दिन ।
10 मकर मास, 14 जनवरी से, 29 दिन ।
11 कुम्भ मास, 12 फरवरी से, 30 दिन ।
और 
12 मीन मास,14 मार्च से, 30 दिन ‌होते हैं।
लेकिन ये 71 वर्ष में अगले दिनांक से प्रारम्भ होने लगेगें।
मासावधि मन्दोच्च पर निर्भर है। अतः हर 1074 वर्ष में  31 दिन, 30 दिन या 29 दिन वाली मासावधि  एक माह पीछे वाले माह में चली जाती है।

आज भी पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड में वैशाखी पर्व और विक्रम संवत प्रारम्भ दिवस के रूप में मनाते हैं। बङ्गाल, उड़ीसा, असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर त्रिपुरा, में भी इस दिन नव संवत्सर प्रारम्भ होने का पर्वोत्सव मनाते हैं। इसे विषु के नाम से जाना जाता है।
इसी प्रकार तमिलनाडु और केरल में भी यह दिवस नव संवत्सर के रूप में मनाया जाता है। इसे मेषादि के नाम से मनाते हैं। विषु भी कहते हैं। ऋतुओं से इस संवत का सम्बन्ध स्थिर नहीं रहता, इसलिए यह संवत ऋतु बद्ध नहीं है।
धनुर्मास और मीन मास को खर मास कहते हैं, इसमें संस्कार आदि शुभकार्य वर्जित होते हैं।

3 निरयन सौर चान्द्र शकाब्द —- 
दक्षिण भारत में सात वाहन वंश द्वारा शासित क्षेत्रों महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलङ्गाना, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर भारत में कुषाण वंश द्वारा शासित या प्रभावित गुजरात, राजस्थान, उत्तरी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में  विषु या नक्षत्रीय नव संवत्सर के पहले पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से प्रारम्भ होने वाला शकाब्द को चैत्रादि, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा या गुड़ी पड़वा के नाम से मनाया जाता है। लेकिन यह संवत भी ऋतुबद्ध नहीं है। इसमें पूर्णिमा के दिन जिस नक्षत्र पर या जिस नक्षत्र के आसपास चन्द्रमा होता है उस नक्षत्र के नाम के आधार पर निम्नलिखित माह होते हैं। ये प्रायः 29 या 30 दिन की अवधि के होते हैं। प्रत्येक 38 से 58 माह में चैत्र से कार्तिक मास के बीच एक अधिक मास पड़ता है।
इसलिए वह संवत्सर तेरह माह का होता है। इस अधिक मास को मल मास कहते हैं। इसमें संस्कार आदि शुभ कार्य नहीं होते हैं। और 19 वर्ष बाद, फिर 122 वर्ष बाद फिर 141 वर्ष बाद एक क्षय मास पड़ता है। लेकिन क्षय मास के एक-दो मास पहले और क्षय मास के बाद एक अधिक मास पड़ता है। इस कारण क्षय मास वाले संवत्सर में भी तेरह माह होते हैं।
मासारम्भ के दिनांक निम्नानुसार हैं।
सुचना ---
पुराणों में लिखा है कि, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की।
लेकिन जब चन्द्रमा की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी। तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि होना सम्भव ही नहीं है।
1 चन्द्रमा भूमि का उपग्रह है। इसलिए पहले भूमि बनी तभी उसका उपग्रह चन्द्रमा बन पाया।
 चन्द्रमा की उत्पत्ति का वैज्ञानिक सिद्धान्त है कि, किसी ग्रह या उल्का के भूमि के टकराव से भूमि का एक टुकड़ा टूट कर भूमि की परिक्रमा करने लगा जो चन्द्रमा कहलाया, और भूमि पर उस स्थान पर प्रशान्त महासागर बन गया।
2 पौराणिक कथाओं के अनुसार चन्द्रमा 
(क) चन्द्रमा की उत्पत्ति मन से हुई।
(ख) चन्द्रमा की उत्पत्ति देवराज पुरन्दर इन्द्र और असुर राजा बलि के समय समुद्र मन्थन में हुई।
(ग) महर्षि अत्रि और अनुसुया का पुत्र चन्द्रमा हुआ।
तीनों सिद्धान्त यह मानते हैं कि, चन्द्रमा की उत्पत्ति सृष्टि उत्पत्ति के बहुत बाद में हुई।
तो चैत्र मास, शुक्ल पक्ष और प्रतिपदा तिथि भी चन्द्रमा की उत्पत्ति के बाद ही हो सकती है।


1 चैत्र, 14 मार्च से 12 अप्रैल के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से प्रारम्भ होता है।

2 वैशाख, 14 अप्रेल से 13 मई के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

3 ज्येष्ठ, 14 मई से 13 जून के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

4 आषाढ़, 14जन से 15 जुलाई के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

5 श्रावण,16 जुलाई से 15 अगस्त के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

6 भाद्रपद, 16 अगस्त से 15 सितम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

7 आश्विन, 16 सितम्बर से 16 अक्टूबर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

8 कार्तिक, 17 अक्टूबर से 15 नवम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

9 मार्गशीर्ष, 16 नवम्बर से 14 दिसम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

10 पौष, 15 दिसम्बर से 13 जनवरी के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

11 माघ, 14 जनवरी से 11 फरवरी के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।
और
12 फाल्गुन 12 फरवरी से 13 मार्च के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से मास प्रारम्भ होता है।

वर्तमान में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा/ गुड़ी पड़वा निरयन सौर चान्द्र शकाब्द का प्रारम्भ दिन 14 मार्च से 14 अप्रैल के बीच पड़ता है। प्रत्येक 71 वर्ष में ये एक दिनांक बाद में आने लगता है।

4 सायन सौर चान्द्र संवत —- वसन्त विषुव अर्थात वसन्त सम्पात दिवस के पहले पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से प्रारम्भ होने वाला संवत है। इसे भी शकाब्द और विक्रम संवत दोनों से जोड़ा गया है। ग्रेटर नोएडा के आचार्य दार्शनेय लोकेश द्वारा रचित, सम्पादित और प्रकाशित श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम के माध्यम से इसे प्रचलित किया गया है। यह संवत्सर सायन संक्रान्तियो पर आधारित चान्द्रमास वाला पत्रक (केलेण्डर) है; जो, 18 फरवरी से 21 मार्च के बीच में प्रारम्भ होता है इसलिए यह संवत अधिकतम एक महीने के अन्तर से सदैव ऋतुबद्ध रहता है।
इस पत्रक (केलेण्डर) में भी माह  प्रायः 29 या 30 दिन की अवधि के होते हैं। प्रत्येक 38 से 58 माह में चैत्र से कार्तिक मास के बीच एक अधिक मास पड़ता है।
इसलिए वह संवत्सर तेरह माह का होता है। इस अधिक मास को मल मास कहते हैं। इसमें संस्कार आदि शुभ कार्य नहीं होते हैं। और 19 वर्ष बाद, फिर 122 वर्ष बाद फिर 141 वर्ष बाद एक क्षय मास पड़ता है। लेकिन क्षय मास के एक-दो मास पहले और क्षय मास के बाद एक अधिक मास पड़ता है। इस कारण क्षय मास वाले संवत्सर में भी तेरह माह होते हैं।
मासारम्भ के दिनांक निम्नानुसार हैं।

1 चैत्र, 19 फरवरी से 20 मार्च के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से मास प्रारम्भ होता है।

2 वैशाख, 21 मार्च से 20 अप्रैल के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

3 ज्येष्ठ, 21 अप्रेल से 21 मई के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

4 आषाढ़, 22 मई से 21 जून के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

5 श्रावण, 22 जन से 22 जुलाई के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

6 भाद्रपद, 23 जुलाई से 22 अगस्त के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

7 आश्विन, 22 अगस्त से 22 सितम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

8 कार्तिक, 23 सितम्बर से 22 अक्टूबर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

9 मार्गशीर्ष, 23 अक्टूबर से 22 नवम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

10 पौष, 22 नवम्बर से 21 दिसम्बर के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।

11 माघ, 22 दिसम्बर से 19 जनवरी के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से।
और
12 फाल्गुन, 20 जनवरी से 18 फरवरी के बीच पड़ने वाली अमावस्या समाप्ति से मास प्रारम्भ होता है।

चीनी केलेण्डर भी सायन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर है। जिसमें नव वर्ष सायन सौर संस्कृत चान्द्र माह के अनुसार सायन कुम्भ संक्रान्ति और सायन मीन संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद से नववर्ष होता है। 

मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

वसन्त सम्पात और चित्रा तारे से भूमि और सूर्य के बीच बनने वाले 000°, 90°, 180° और 270° के कोण के आधार पर सनातन वैदिक धर्म के आठ महत्वपूर्ण और मुख्य पर्वोत्सव।

*वसन्त सम्पात और चित्रा तारे से भूमि और सूर्य के बीच बनने वाले 000°, 90°, 180° और 270° के कोण के आधार पर सनातन वैदिक धर्म के आठ महत्वपूर्ण और मुख्य पर्वोत्सव।* 

दक्षिणायन या शीतकालीन अयनान्त या (Winter solstice) दिनांक 21 दिसम्बर 2024 शनिवार को 14:51 बजे अर्थात दोपहर 02:51 बजे हुआ। इस दिन सबसे छोटा दिन तथा सबसे बड़ी रात्रि होती है। इस दिन सूर्य की दक्षिण परम क्रान्ति होती है अर्थात सूर्य उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए अन्तिम सीमा भूमि के मकर रेखा के शीर्ष पर पहूँचकर उत्तर की ओर होने लगता है।
निरयन मकर मासारम्भ 14 जनवरी 2025 मङ्गलवार को प्रातः 08:56 बजे होगा। इसदिन प्रयागराज महाकुम्भ में मुख्य स्नान होगा।
अश्विनी आदि बिन्दु या निरयन मेषादि बिन्दु से 270°° पर अर्थात चित्रा तारे से 90° पर निरयन मकरादि बिन्दु माना जाता है। जिस समय सूर्य निरयन मकरादि बिन्दु पर होता है उस समय से निरयन मकर मासारम्भ होता है। इसे परम्परा से मकर संक्रान्ति भी कहते हैं। इस दिन प्रयागराज में स्नान तथा केरल में अय्यप्पा मन्दिर में दर्शन विशेष परम्परा है।

सनातन धर्म में नव संवत्सर अर्थात नव वर्षारम्भ का पर्व भूमि और सूर्य तथा नक्षत्र मण्डल की स्थिति के आधार पर निम्नलिखित दिनों में मनाया जाता है। इसमें वसन्त विषुव नव संवत्सर प्रारम्भ तथा शरद विषुव और अयनान्त (उत्तरायण और दक्षिणायन संक्रान्ति) मुख्य हैं। इन दिनों में वैदिक सनातन धर्म के अनुसार और वसन्त विषुव (नव संवत्सर प्रारम्भ) के समय और अयनान्त के समय गङ्गा, यमुना, सरस्वती, सिन्धु, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी, शिप्रा, पुष्कर, नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, सौरों, बद्रीनाथ, जगन्नाथ, द्वारिका, रामेश्वरम के तीर्थों में स्नान,  होम- हवन, अग्निहोत्र और दान किया जाता है।
कर्क रेखा उज्जैन नगर से होकर गुजरती है। इसलिए इस दिन उज्जैन, शिप्रा- सरस्वती (कान्ह नदी का सङ्गम पर) त्रिवेणी पर स्नान और महाकाल वन क्षेत्र की यात्रा का विशेष महत्व है। इसी प्रकार प्राकृतिक रूप से ॐ आकृति की पर्वत पर ॐकारेश्वर और उसी के सामने नर्मदा के दुसरे तट पर ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग है। समीप ही नर्मदा और कावेरी नदी का सङ्गम है‌।
अतः इन तीर्थ स्थल पर स्नान दान, होम- हवन किया जाता है।
दुसरे दिन सूर्योदय के पूर्व संध्या, गायत्री मन्त्र जप और सूर्योदय समय वैदिक अग्निहोत्र तथा पैड़-पौधों, गो, कुकर, पक्षियों, पिप्पलिका (चींटी) और यथायोग्य विद्यार्थियों, बिमारों, अपाहिजों, वृद्धों की सेवा की जाती है।

 
वसन्त विषुव (Vernol Equinox) दिनांक 20 मार्च 2025 गुरुवार को 14:31 बजे अर्थात दोपहर 02:31 बजे होगा। इस समय हमारा नव संवत्सर (नव वर्ष) प्रारम्भ होता है। जिसे धार्मिक दृष्टि से इसके बाद सूर्योदय से लागू माना जाता है। वसन्त विषुव के समय सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए भूमि की भूमध्य रेखा के शीर्ष पर पहूँच जाता है। और दक्षिण गोलार्ध से उत्तर गोलार्ध में प्रवेश करता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय और दक्षिणी ध्रुव पर सूर्यास्त हो जाता है। वेदों के अनुसार इसे देवों कि दिन प्रारम्भ और पितरों की रात्रि प्रारम्भ कहा गया है।
वैदिक सनातन धर्म के अनुसार अयनान्त समय और वसन्त विषुव (नव संवत्सर प्रारम्भ) के समय तीर्थ स्नान, होम- हवन, अग्निहोत्र और दान किया जाता है।
दुसरे दिन सूर्योदय के पूर्व संध्या, गायत्री मन्त्र जप और सूर्योदय समय वैदिक अग्निहोत्र तथा पैड़-पौधों, गो, कुकर, पक्षियों, पिप्पलिका (चींटी) और यथायोग्य विद्यार्थियों, बिमारों, अपाहिजों, वृद्धों की सेवा की जाती है।

ऐसे ही उत्तरायण या ग्रीष्म अयनान्त (Summer solstice) दिनांक 21 जून 2025 शनिवार को प्रातः 08:11बजे तथा दूसरे दिन सूर्योदय समय भी किया जाता है। इस दिन सबसे बड़ा दिन, सबसे छोटी रात्रि होती है। सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति होती है अर्थात सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए अन्तिम सीमा भूमि की कर्क रेखा के शीर्ष पर पहूँचकर उत्तर की ओर होने लगता है। कर्क रेखा हमारे निकट उज्जैन नगर से होकर गुजरती है। इसलिए इस दिन उज्जैन, शिप्रा सङ्गम स्नान और महाकाल वन क्षेत्र की यात्रा का विशेष महत्व है।
एवम्

शरद विषुव (Autumn Equinox) दिनांक 22 सितम्बर 2025 सोमवार को 23:49 बजे अर्थात रात्रि 11:49 बजे तथा दूसरे दिन सूर्योदय समय भी उपर लिखितानुसार कर्म किया जाता है ।

इसके बाद दक्षिणायन या दक्षिण अयनान्त (Winter Solstice) 21 दिसम्बर 2025 रविवार को 20:32 बजे अर्थात रात्रि 8:32 बजे होगा।

निरयन मकर मासारम्भ 14 जनवरी 2025 मङ्गलवार को प्रातः 08:56 बजे होगा। इसदिन प्रयागराज महाकुम्भ में मुख्य स्नान होगा।

इसी प्रकार वेदों में चित्रा तारे को क्रान्तिवृत के मध्य में अर्थात 180° पर माना गया है। इसलिए नक्षत्र पट्टी का प्रारम्भ 000° चित्रा तारे से 180° पर स्थित बिन्दु से माना जाता है। इसे अश्विन्यादि बिन्दु कहते हैं। वराहमिहिर के बाद प्रचलित तीस अंशों वाली राशि प्रणाली अपनाई जाने के बाद इस बिन्दु को निरयन मेषादि बिन्दु भी कहते हैं। संयोग से वर्तमान में उस स्थान पर कोई तारा स्थित नहीं है। लेकिन किसी समय इस 000° बिन्दु पर रेवती तारा स्थित था जो वर्तमान में लगभग चार अंश से अधिक खिसक चुका है।
जब भू केन्द्र से सूर्य चित्रा तारे से 180° पर होता है तब निरयन मेष मास प्रारम्भ होता है। इसी दिन से नाक्षत्रीय सौर नव संवत्सर प्रारम्भ होता है जिसे निरयन सौर वर्ष का प्रारम्भ कहते हैं। 
दिनांक 13 उपरान्त 14 अप्रेल 2025 रविवार Monday को उत्तर रात्रि 03:22 बजे निरयन मेषारम्भ मास वैशाखी कि प्रारम्भ होगा। अतः संकल्पादि में पञ्जाब हरियाणा , हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में विक्रम संवत 2082 का प्रारम्भ होगा।
इस दिन से पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में विक्रम संवत प्रारम्भ होता है।
बङ्गाल,उड़ीसा, और उत्तर पूर्व के राज्य असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा आदि मे, तथा तमिलनाडु और केरल में भी नव संवत्सर (नव वर्ष) मनाया जाता है।

अश्विनी आदि बिन्दु या निरयन मेषादि बिन्दु से 90° पर अर्थात चित्रा तारे से 270° पर निरयन कर्कादि बिन्दु माना जाता है। 
जिस समय सूर्य निरयन कर्कादि बिन्दु पर होता है तब निरयन कर्क मास प्रारम्भ होता है।
दिनांक 16 जुलाई 2025 बुधवार को 17:32 बजे अर्थात दिन में 05:33 बजे निरयन कर्क मास प्रारम्भ होगा।

ऐसे ही चित्रा तारे से निरयन तुलादि तुला राशि का प्रारम्भ होता है। अर्थात अश्विनी आदि बिन्दु या निरयन मेषादि बिन्दु से 180° पर निरयन तुलादि बिन्दु कहते है।
जिस समय सूर्य चित्रा तारे पर होता है तब से निरयन तुला मासारम्भ होता है।
दिनांक 17 अक्टूबर 2025 को 13:46 बजे अर्थात दोपहर 01:46 बजे निरयन तुला मासारम्भ होगा।

अश्विनी आदि बिन्दु या निरयन मेषादि बिन्दु से 270°° पर अर्थात चित्रा तारे से 90° पर निरयन मकरादि बिन्दु माना जाता है। जिस समय सूर्य निरयन मकरादि बिन्दु पर होता है उस समय से निरयन मकर मासारम्भ होता है। इसे परम्परा से मकर संक्रान्ति भी कहते हैं। इस दिन प्रयागराज में स्नान तथा केरल में अय्यप्पा मन्दिर में दर्शन विशेष परम्परा है।
14 जनवरी 2026 बुधवार को 15:05 बजे अर्थात दोपहर 03:05 बजे निरयन मकर मास प्रारम्भ होगा।
उक्त चारों दिवसों को भी सायन संक्रान्तियों के समान ही पर्व मनाया जाता है।

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

मनुस्मृति

प्रजापति से उत्पन्न भूलोक के चार प्रजापति (1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।
तथा चौथे स्वायम्भूव मनु हुए।
उक्त तीनों प्रजापतियों की सन्तान ब्रह्मज्ञानी होने से ब्राह्मण कहलाई। 
इसके अलावा प्रजापति से उत्पन्न ये ऋषि हुए जिनकी पत्नियाँ दक्ष- प्रसुति की पुत्रियाँ थी।⤵️
(1) मरीची-सम्भूति, (2) भृगु-ख्याति, (3) अङ्गिरा-स्मृति, (4) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (5) अत्रि-अनसुया, (6) पुलह-क्षमा, (7) पुलस्य-प्रीति, (8) कृतु-सन्तति। 
इनकी सन्तान भी वैदज्ञ विप्र और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए।
प्रजापति से उत्पन्न अग्नि - स्वाहा तथा (3) धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ (१) श्रद्धा, (२) लक्ष्मी, (३) धृति, (४) तुष्टि, (५) पुष्टि, (६) मेधा, (७) क्रिया, (८) बुद्धि, (९) लज्जा, (१०) वपु, (११) शान्ति, (१२) सिद्धि, (१३) कीर्ति ) तथा अर्यमा-स्वधा की भी सन्तान हुए। धर्म की कुछ सन्तान हरियाणा के कुरुक्षेत्र में ही रही। दृविण की की सन्तान दक्षिण भारत में बसी जो दविड़ कहलाई।
महारुद्र शंकर जी ने स्वयम् को दश रुद्र स्वरूप में प्रकट किया जिनके नाम (1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली हैं। इन्हीं के साथ उमा ने भी स्वयम् को दस रौद्रियों के रूप में प्रकट किया। जो रुद्रों की पत्नियाँ हुई। 
इनमें से अधिकांश अरब प्रायद्वीप और पूर्वी अफ्रीका में फैल गये। 
स्वायम्भूव मनु की के पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत राजन्य (राजा) हुए।
भारत का राज्य प्रियव्रत शाखा के हिस्से का है।
लेकिन सप्तम (वैवस्वत) मन्वन्तर के प्रारम्भ में हुए जल प्रलय के बाद स्वायम्भूव मनु की सन्तान परम्परा मनुर्भरत नहीं रहे। अब सभी वैवस्वत मनु के पुत्रों से सूर्यवंशी और पुत्री (ईला) से चन्द्रवंशियों के राज्य रहे।
सूर्यवंशियों से ही वैश्य हुए सूर्यवंशियों और चन्द्रवंशियों के मिश्रण से शुद्र हुए।
प्राचीन काल में स्वायम्भूव मनु का धर्मशास्त्र मानव धर्मशास्त्र मनुर्भरतों का संविधान और विधि-विधान (कानून) था।
वर्तमान में प्राप्त और प्रचलित स्मृतियाँ स्वायम्भूव मनु के धर्मशास्त्र और अन्य ऋषियों के धर्मशास्त्र की स्मृति के आधार पर रचित ग्रन्थ हैं। ये स्मृतियाँ प्राचीन स्मृतियों के आधार पर किसी राज्य का संविधान और विधि-विधान (कानून) की संहिता थी। जो समय समय पर संशोधन होती रही है।

संख्यात्मक संयोगों को धर्म, ज्योतिष और विज्ञान और तकनीकी से जोड़ना व्यर्थ का आडम्बर है।


प्रकृति में कई चीजे ऐसी जिनमें संख्यात्मक समानता पाई जाती है। लेकिन उनका परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध नहीं होता है।  मेसोपोटामिया (प्रायः अरब प्रायद्वीप) मूल की बारह राशियों का द्वादश ज्योतिर्लिंगों से
संख्यात्मक साम्य होना मात्र संयोग है।
महाभारत काल तक भारत में अट्ठाइस नक्षत्र प्रचलित थे, लेकिन क्रान्तिवृत से नौ अंश उत्तर दक्षिण में फैली नक्षत्र पट्टी से अभीजित तारे के  बाहर की ओर विचलित होने के कारण अभिजित नक्षत्र का नक्षत्र दर्जा हटा कर अ समान भोग वाले सत्ताइस नक्षत्र स्वीकार कर लिये गये। जिसमें नक्षत्र चरण का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि चित्रा नक्षत्र केवल चित्रा तारे के आसपास एक अंश के लगभग का ही है। अतः असमान भोगांश वाली तेरह राशि और असमान भोगांश वाले सत्ताइस नक्षत्रों में नक्षत्र चरण रूपी नवांश वाली अवधारणा निरर्थक ही सिद्ध होती है।
पश्चिम टर्की (तथाकथित ग्रीक), मिश्र और इराक में प्रचलित बारह राशिया भारत में पूर्णतः अप्रचलित थी।
सर्वप्रथम विक्रमादित्य और वराहमिहिर के समय भारत में बारह राशियों को अपनाया गया। लेकिन वराहमिहिर ने भी असमान भोगांश वाले तेरह अरों की बात भी कही है। जो आकृतियों के अनुसार नामकरण की गई आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की तेरह साइन (राशियों) से मैल खाती है।
द्वादश आदित्यों का सम्बन्ध द्वादश मास से जोड़ा हुआ है। लेकिन बारह मास का सम्बन्ध यह भी आजतक किसी धर्मशास्त्री, कर्मकाण्डी या ज्योतिर्विद ने नहीं जोड़ा। 
द्वादश राशियों से ज्योतिर्लिंगों को  सम्बन्ध जोड़ने की कोई तुक नहीं है ।
अब कोई वैष्णव 108 वैष्णव तीर्थों का सम्बन्ध नक्षत्र चरण (नवांश) से जोड़कर अपनी कल्पना बतलाएगा।
कोई ज्योतिष के अष्टक वर्ग, आठ दिशाओं या कंप्यूटर और डिजिटल नंबरिंग सिस्टम  में उपयोग की जाने वाली अष्टाधारी संख्या प्रणाली (octal number system) का सम्बन्ध गाणपत्य सम्प्रदाय के महाराष्ट्र में पूणे के आसपास स्थित अष्ट विनायक से जोड़ेगा।
और वर्ष के बावन सप्ताह से इक्कावन या बावन शक्तिपीठों से जोड़ेगा। जिनका कोई औचित्य नहीं बनता।
आजकल भारत के हिन्दू वादी और पाकिस्तान के इस्लाम वादी कुछ तकनीकी वैज्ञानिक ऐसे ही बे सिर-पैर की बातें करके विश्व विज्ञान सम्मेलन आदि में अपना, भारत देश, सनातन धर्म और संस्कृति का उपहास करवाते हैं।

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

वैदिक शिक्षा कैसी हो?

 वेदों की व्याख्या अर्थात (उपनिषद और आरण्यक सहित) सभी ब्राह्मण ग्रन्थ।
1 उच्चारण शास्त्र शिक्षा, 2 व्याकरण, 3 शब्द व्युत्पत्ति और शब्दकोश निघण्टु का भाषा शास्त्र निरुक्त, 4 छन्दशास्त्र, ब्रह्माण्ड विज्ञान और 5 काल गणना हेतु ज्योतिष शास्त्र, तथा १आचरण शास्त्र अर्थात धर्म सूत्र, २ ब्रह्माण्ड के नक्शे मण्डल और मण्डप और यज्ञ वेदी बनाने का शास्त्र शुल्बसूत्र,३ छोटे यज्ञ, पञच महायज्ञ , संस्कार विधान और व्रत-उत्सव विधान के लिए गृह्यसूत्र तथा ४ बड़े यज्ञों के विधि विधान श्रोत सूत्र) 6 कल्प अर्थात षड वेदाङ्ग तथा (१आयुर्वेद, २ धनुर्वेद, ३ संगीत-नाट्य का गान्धर्व वेद ४ शिल्प वेद या स्थापत्य वेद) नामक वैदिक वैज्ञानिक ग्रन्थ, सबको पढ़ना अनिवार्य हो।
फिर ब्राह्मण ग्रन्थों का व्यवहार में उपयोग हेतु पूर्व मीमांसा दर्शन और उपनिषदों का तात्पर्य बोधक शास्त्र उत्तर मीमांसा दर्शन (शारीरिक सूत्र) का गहन अध्ययन करवाया जाए। तत्पश्चात तर्कशास्त्र - न्याय दर्शन, पदार्थ रचना का शास्त्र वैशेषिक दर्शन कर्ममीमांसा - योग दर्शन तथा तत्व मीमांसा - सांख्य दर्शन और सांख्य कारिकाएँ पढ़ाई जाए, फिर वेद निरपेक्ष, ईश्वर निरपेक्ष बौद्ध दर्शन, वेदों के प्रति अनास्थावान अनीश्वरवादी जैन दर्शन तथा नास्तिक दर्शन पढ़ाया जाए।ये उपर लिखित हमारे वास्तविक धर्मग्रन्थ हैं।
इसके बाद कर्मकाण्ड और धर्मशास्त्र पढ़ाया जाए। फिर वाल्मीकि रामायण और महाभारत नामक इतिहास ग्रन्थ पढ़ाये जाएँ।
साथ ही साथ खेतों, उद्यमों, कारखानों और बाजार में व्यावहारिक व्यावसायिक शिक्षण दिया जाए। और आधुनिक शास्त्र भी पढ़ाये जाएँ।वाल्मीकि रामायण और महाभारत इतिहास ग्रन्थ हैं।
 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 25 से 43 तक का भाग श्रीमद्भगवद्गीता कहलाता है। श्रीमद्भगवद्गीता कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। लेकिन वैदिक ऋचाओं और उपनिषदों के मन्त्र और भावों की बहुतायत होने के कारण और बुद्धि योग या समत्व योग का सर्वश्रेष्ठ विवेचन तथा सर्वश्रेष्ठ कर्म मीमांसा होने के कारण श्रीमद्भगवद्गीता का विशिष्ट महत्व है।
तब जाकर बच्चे विशुद्ध वैदिक सनातन धर्मी भारतीय नागरिक बनेंगे ।
रामचरित मानस तो पाँच सौ वर्ष पुराना राजनीति और नीति शास्त्र का श्रेष्ठ ग्रन्थ है। लेकिन धर्मग्रन्थों में रामचरित मानस की गणना करना कोरी भावुकता मात्र है।

बुधवार, 4 दिसंबर 2024

यल्लकोट अर्थात मार्तण्ड भैरव की सप्तकोटी सेना।

यल्ल कोट या सप्त कोटी मतलब सप्त स्तरीय या सात प्रकार की सेना।

वैदिक काल में रथी, हस्ती, अश्वारोही और पदाति ऐसी चतुरङ्गीणी सेना होती थी।
रामायण में 
1 गुप्तचरी और मनोबल गिराना (हनुमान जी और अङ्गद सफल अभियान तथा रावण के शुक- सारण आदि असफल अभियान),
2 गेरीसन इंजिनियर (नल-नील के नेतृत्व में सेतु निर्माण),
3 चतुर और अनुभवी सलाहकार (जाम्बवन्त जी के नेतृत्व वाला दल),
4 स्थानीय जनबल (सुग्रीव की वानर सेना)।
ऐसे नवीन प्रयोग दिखे।
श्रीकृष्ण की नारायणी सेना और महाभारत में और भी कई नवीन उपाय किए गए।
सम्भवतः मार्तण्ड भैरव ने सात प्रकार के भिन्न-भिन्न दल बनाकर सप्तकोटी दल बनाया हो।

रविवार, 1 दिसंबर 2024

गोत्र और प्रवर वर्ण और जाति।

उत्पत्ति - प्रकरण
भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा नें स्वयम् को सुत्रात्मा प्रजापति और सरस्वती स्वरूप में प्रकट किया। 
ये जैविक सृष्टि के रचियता हैं। प्रजापति की पत्नी (शक्ति) सरस्वती कहलाती है। प्रजापति भी अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं।
प्रजापति विश्वरूप (अर्थात ब्रह्माण्ड स्वरूप) हैं। इनकी आयु एक कल्प (चार अरब, बत्तीस करोड़, वर्ष) है। ये प्रथम जीव वैज्ञानिक तत्व हैं। विशाल अण्डाकार हैं। लेकिन शीर्ष चपटे होने के कारण चतुर्मुख कहलाते हैं।
इसलिए पुराणों में कथा है कि, पहले ब्रह्मा के पाँच मुख थे उन्हीं से उत्पन्न रुद्र ने उनका एक सिर काट दिया तो उनके चार सिर रह गये। जबकि हिरण्यगर्भ दीर्घ गोलाकार या लगभग अण्डाकार है इसलिए पञ्चमुखी कहे गए हैं और प्रजापति भी अण्डाकार हैं लेकिन शिर्ष चपटा होने से चतुर्मुखी कहे गए हैं।
ये देवताओं में सबसे वरिष्ठ होने से पितामह और महादेव कहलाते हैं। लेकिन शैवमत में एकरुद्र प्रजापति से पहले उत्पन्न होने के कारण महादेव मानेगये। (बादमें पुराणों में शंकरजी को महादेव कहने लगे।)
पञ्चमुखी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान (1) चतुर्मुख प्रजापति -सरस्वती और (2) अर्धनारीश्वर स्वरूप नील लोहित वर्ण के पञ्चमुखी एकरुद्र,
(3) त्वष्टा-रचना के अलावा (4) सनक, (5) सनन्दन, (6) सनत्कुमार और (7) सनातन तथा (8) नारद ।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद बाल ब्रह्मचारी ही रहे। अतः प्रजापति के स्थान पर मुनि और देवर्षि ही कहे जाते हैं।
[सुचना - इन अर्धनारीश्वर एकरुद्र ने ही कालान्तर में स्वयम् को नर और नारी स्वरूपों में अलग-अलग विभाजित कर शंकर और उमा के स्वरूप में प्रकट किया। बादमें शंकर ने स्वयम् को दश रुद्रों के रूप में प्रकट किया और उमा भी दश रौद्रियों के स्वरूप में प्रकट हुई।  

प्रजापतियों की तीन जोड़ी बतलाया गया है।
(1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।
सूत्रात्मा प्रजापति के ही स्वरूप ओज (तीनों प्रजापति) और अणुरात्मा वाचस्पति के स्वरूप तेज (इन्द्र) अभिकरण अर्थात अधिनस्थ करण या निकटस्थ करण है। अधिनस्थ औजार या इंस्ट्रूमेंट।

प्रसुति, आकुति और देवहूति भी प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान है किन्तु इन्हे स्वायम्भुव मनु-शतरूपा की पुत्री भी कहा जाता है।

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के इन मानस पुत्रों के अलावा ग्यारह मानस पुत्र और भी हैं। जिनमें से तीन देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा तथा (3) धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ (१) श्रद्धा, (२) लक्ष्मी, (३) धृति, (४) तुष्टि, (५) पुष्टि, (६) मेधा, (७) क्रिया, (८) बुद्धि, (९) लज्जा, (१०) वपु, (११) शान्ति, (१२) सिद्धि, (१३) कीर्ति ) ये द्युलोक के/ स्वर्ग स्थानी प्रजापति हैं। धर्म द्युलोक का अर्थात स्वर्गस्थानी देवता है। लेकिन भूमि पर कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहाजाता है। इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की कन्याएँ थी । 

इनके अलावा महारुद्र शंकर (शम्भु) और उमा तथा  पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति हुए। 
महारुद्र शंकर जी ने स्वयम् को दश रुद्र स्वरूप में प्रकट किया जिनके नाम (1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली हैं। इन्हीं के साथ उमा ने भी स्वयम् को दस रौद्रियों के रूप में प्रकट किया। जो रुद्रों की पत्नियाँ हुई। रुद्र- रौद्री (शंकर - उमा) मूलतः अन्तरिक्ष स्थानी देवता है लेकिन भूलोक में हिमालय में शंकरजी कैलाश वासी भी हैं। ये अधिकांशतः हिमालय के कैलाश शिखर से टर्की तक, और अफ्रीका महाद्वीप कै उत्तर पूर्व में फैले हुए थे। एकादश रुद्र भी कई प्रकार के हैं। इसलिए इन्हे आदि एकादश रुद्र लिखा है।
अतःएव एकरुद्र भी प्रजापति आदि के तुल्य हैं और शंकरजी भी दक्ष (प्रथम), रुचि और कर्दम आदि प्रजापतियों के तुल्य हुए। एवम् शेष दश रुद्र तो प्रजापति की सन्तानों (मरीचि, भृगु आदि) के तुल्य हुए।
साथ ही साकार पितरः अर्यमा और स्वधा ने स्वयम् षष्ठ पितरों और उनकी शक्ति (पत्नी) को में प्रकट किया। जिनमें से (१) अग्निष्वात (२) बहिर्षद और (३) कव्यवाह तीन निराकार और (४) अनल (५) सोम और (६) यम नामक साकार पितर हुए। अर्यमा, अनल, सोम और यम ये चार साकार हैं। अर्यमा इनमें मुख्य हैं। अर्यमा सहित ये सप्त पितरः कहलाते हैं।
दक्ष प्रजापति और प्रसुति से आठ भूस्थानी प्रजापति और हुए ये हैं (1) मरीची-सम्भूति, (2) भृगु-ख्याति, (3) अङ्गिरा-स्मृति, (4) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (5) अत्रि-अनसुया, (6) पुलह-क्षमा, (7) पुलस्य-प्रीति, (8) कृतु-सन्तति। दक्ष- प्रसुति सहित ये सभी ब्रह्मर्षि भूस्थानी प्रजापति हुए इस लिए पुराणों में इन्हें नौ ब्रह्मा कहा गया है। और इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की पुत्रियाँ थी। इन ब्रह्मर्षियों का वासस्थान हरियाणा में कुरुक्षेत्र के आसपास का क्षेत्र गोड़ देश ब्रह्मर्षि देश कहलाता है। इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण हुए । 

लोक - प्रकरण

आधिदैविक दृष्टि से द्युलोक में (1) (शतकृतु / शक्र) इन्द्र - शचि, (2) त्रिलोक में अग्नि-स्वधा, तथा (3) धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ।  भूवर्लोक (अन्तरिक्ष) में (4) पितरः (अर्यमा - स्वधा) और (5) भूलोक में  सोम- वर्चा और मतान्तर से स्वायम्भुव मनु- शतरूपा के रूप में जाने जाते है। 
इन्द्र आजानज देव (जन्मजात देवता) हैं। जबकि अग्नि वैराज देव (प्राकृतिक देवता) हैं।"
"प्रजापति के ब्रह्मज्ञानी शिष्य इन्द्र-शचि देवेन्द्र और  देवराज हैं। इन्द्र के अधीन (द्वादश) आदित्य गण, (अष्ट) वसुगण, (एकादश) रुद्रगण हैं।
(1) प्रजापति, (2) इन्द्र, (3 से 14 तक) द्वादश आदित्य, (15 से 22 तक) अष्ट वसु तथा (23 से 33 तक) एकादश रुद्र मिलकर तैंतीस देवता कहलाते हैं।

द्वादश आदित्य (1) विष्णु, (2) सवितृ, (3) त्वष्टा, (4) इन्द्र, (5) वरुण, (6) विवस्वान, (7) पूषा, (8) भग, (9) अर्यमा, (10) मित्र, (11) अंशु और (12) धातृ। 
अष्ट वसु 1) प्रभास, (2) प्रत्युष, (3) धर्म, (4) ध्रुव, (5) अर्क, (6) अनिल, (7) अनल और (8) अप् और
एकादश रुद्र (1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली और (11) शम्भु (शंकर))
[कुछ लोग इन्द्रसभा में प्रजापति और इन्द्र के स्थान पर (1) दस्र और (2) नासत्य नामक अश्विनीकुमारों को रखकर इन्द्रसभा के तैंतीस देवता मानते हैं।]

प्रजापति अजयन्त देव हैं और इन्द्र आजानज देव है। और शेष इकतीस देवता वैराज देव हैं।

(2) अग्नि-स्वधा - द्यु स्थानी देवता होते हुए भी  स्वः में सूर्य, भूवः में विद्युत (तड़ित) और भूः में सप्तज्वालामय अग्नि के रूप में प्रकट होने वाले स्वर्ग अन्तरिक्ष और भू लोक में  व्याप्त है।"

भूमि पर आदित्यों का वासस्थान कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, तिब्बत, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, पश्चिम चीन और युक्रेन तक था। विवस्वान की सन्तान वैवस्वतमनु नें अयोध्या को राजधानी बनाया।
ब्रहस्पति की तीन पत्नियाँ (शक्ति) है - १ शुभा, २ ममता और ३ तारा। 
इसे बुद्धि और बोध या बुद्धि और मेधा के रूप में समझा जाता है। आधिदैविक दृष्टि से इन्हे शक्तियों सहित अष्ट वसु और देवी आदि उनकी शक्तियों के नाम से जाना जाता है।
वसुगण मूलतः आदित्यों के सहचारी रहे लेकिन इनकी सन्तान पूर्ण भारतवर्ष में फैल गई।"
"पशुपति को अहंकार और अस्मिता के रूप में समझा जा सकता है। इन्हे आधिदैविक दृष्टि से शंकर और उमा के रूप में जानते हैं; जिनने स्वयम्  शक्तियों/ रौद्रियों सहित एकादश रुद्र के रूप में प्रकट किया।  ये अधिकांशतः हिमालय पर्वत के कैलाश शिखर से टर्की तक, और अफ्रीका महाद्वीप कै उत्तर पूर्व में फैले हुए हैं।
वर्ण
ये सब सृष्टि के आदि पुरुष और स्त्रियाँ हैं।
ऐसा माना जाता है कि, स्वायम्भूव मन्वन्तर में जितने भी ब्राह्मण थे वे सब; (1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।(4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति की सन्तान थे।
और जो क्षत्रिय थे वे स्वायम्भूव मनु - शतरूपा की सन्तान थे।
क्षात्र धर्म से ही पतित होकर कुछ लोग कृषि-पशुपालन करने लगे, वे वैश्य हो गये। और वैश्य कर्म से पतित होकर जो स्वर्णकार, धातुकर्मी ठठेरा, कुम्भकार (कुम्हार), शिल्पकार, चित्रकार, वैद्य, शल्यक्रिया करनेवाले नापित/ नाई,  शस्त्र निर्माता लौहार , सुतार, रथकार आदि विश्वकर्म करने वाले कारीगर जो सभी वर्णों की सेवा करते थे वे शुद्र कहलाये।
इसलिए मुण्डन, उपनयन, विवाह और अन्त्येष्टि आदि संस्कारों में इनका महत्व ब्राह्मण के सहायक के रूप में होता है।
जुआ खेलने, नशा करने वाले मद्यप, बहेलिए, चिड़ीमार आदि मान्साहारी शुद्र पञ्चम कहलाये। इनसे भी पतित चाण्डाल कहलाये जो नगर के बाहर रहते थे।
जल प्रलय के बाद सप्तम वैवस्वत मन्वन्तर में विवस्वान आदित्य के पुत्र वैवस्वत मनु (श्राद्ध देव और श्रद्धा) की सन्तान सभी सूर्य वंशिय क्षत्रिय माने जाते हैं। और उक्त क्रम में सभी वैश्य-शुद्र आदि हुए।
और वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों के शिष्य ब्राह्मण और विप्र हुए। यही शिष्य परम्परा गोत्र कहलाई।

गोत्र और प्रवर
एक ही गुरुकुल के कुल गुरु के समस्त शिष्य एक ही गोत्र के माने जाते थे। 
उस गुरुकुल से निकले तीन या पाँच प्रमुख शिष्य जो अपना गुरुकुल स्थापित करते थे उनके शिष्यों का गोत्र अलग हो जाता था लेकिन 
उस गुरुकुल से निकले तीन या पाँच प्रमुख शिष्य जो अपना गुरुकुल स्थापित करते थे उनके शिष्यों का प्रवर एक ही होता है। चूंकि मूलतः वे भी सगोत्रीय ही हुए इसलिए एक प्रवर वालों में भी परस्पर विवाह नहीं होता है।

गुरुकुल, वर्ण और आश्रम 
जो व्यक्ति मानसिक या बौद्धिक अक्षमता वश किसी कारण गुरुकुल शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता था, वह पञ्चम वर्ण का कहलाता था।
वैदिक काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी के पुत्र पुत्रियाँ गुरुकुल से शिक्षित होते थे। लेकिन जो कर्मकार (कारीगरी) में कुशल हो जाते थे जो केवल वेदों और उपवेदों की शिक्षा लेकर गुरुकुल छोड़ देते थे, वे शुद्र बने और विशेषज्ञ न बन पाने के कारण विश्वकर्म / कारीगरी तक सीमित रहकर सेवा क्षेत्र में लग गए। और केवल वेदपाठ और गृह्य सुत्रों में उल्लेखित पञ्च यज्ञादि कर्मकाण्ड और संस्कार करवाते थे। वे कर्मकाल में ही जनेऊ धारण करते थे। बाद में निकाल देते थे। उन्हें रोज जनेऊ बदलना पड़ती थी। वे शुद्र कहलाते थे।
जो स्वयम् भी  नित्य पञ्च यज्ञादि कर्मकाण्ड करते थे उन्हें नियम पूर्वक उपनयन संस्कार कर यज्ञोपवीत पहनाया जाता था। ये द्वीज कहलाते थे।
इनमें जो व्यवहार कुशल, कृषि -गोपालन आदि में पारङ्गत होते थे। अपने उत्पाद विक्रय करने के अलावा बाहर से उपभोक्ता वस्तुओं का आयात- निर्यात और विपणन तथा लेखाकर्म में पारङ्गत हो जाते थे ;अर्थात जो वेदाध्ययन के पश्चात नीति और व्यवहार, तथा लेखाकर्म, और सांख्यिकी (अंक गणित) का ज्ञान लेकर निकले वे वैश्य बनकर कृषि, पशुपालन और वाणिज्य में लग गए। वे वैश्य कहलाते थे। 
जो वेदाध्ययन, नीति और व्यवहार, और उपवेदों में निपुण होकर धनुर्वेद विशेषज्ञ हो गये वे क्षत्रिय होकर सेना और नगरीय सुरक्षा में लग गए। जो शस्त्र विद्या में पारङ्गत होकर राष्ट्र और समाज की रक्षा का भार वहन करने का सङ्कल्प लेते थे वे क्षत्रिय कहलाते थे।
जो नित्यप्रति वेदाभ्यास करते थे, वे शिष्य विप्र बनकर निकलते थे।
जो विप्र वेदार्थ समझने हेतु उपवेदों के अतिरिक्त षड वेदाङ्ग का भलीभांति अध्ययन कर लेते थे। और ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड तथा आरण्यकों और उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त कर लेते थे वे ब्राह्मण कहलाते थे।
अर्थात जो 1 ऋग्वेद, 2 यजुर्वेद, 3 सामवेद और 4 अथर्ववेद के अलावा वेदों के भाष्य ब्राह्मण ग्रन्थों (जिनमें- पूर्वभाग में कर्मकाण्ड और कर्म मीमांसा उत्तर भाग में व्यवहार, व्यवस्था का वर्णन आरण्यकों में और ज्ञान मीमांसा का वर्णन उपनिषदों में दिया गया है), उपवेद-  1 आयुर्वेद, 2 धनुर्वेद, 3 गान्धर्व वेद (सङ्गीत, नाट्य आदि), 4 शिल्प वेद - स्थापत्य वेद ( चारो उपवेद), तथा अर्थशास्त्र  के अलावा 1 शिक्षा (उच्चारण), 2 व्याकरण, 3 निरुक्त (यास्क) (भाषाशासत्र, शब्द व्युत्पत्ति, निघण्टु/ शब्दकोश), 4  छन्दशास्त्र (पिङ्गल), 5 ज्योतिष  और  6 कल्प ( १ धर्माधर्म, कार्य अकार्य, कर्तव्याकर्तव्य उचित - अनुचित के विधि- विधान धर्म  सूत्र, २ मण्डल और मण्डप निर्माण विधि विधान के लिए शुल्ब सूत्र, ३ बड़े यज्ञों के लिए श्रोत सुत्र, ४ संस्कारों, नित्य कर्म, पाक्षिक , मासिक और वार्षिक इष्टि, यज्ञों आदि के विधि - विधान हेतु गृह्यसूत्र) रूपी षडवेदाङ्ग का अध्ययन करके कर्मकाण्ड की मीमांसा - जैमिनी का पूर्व मीमांसा दर्शन, ब्रह्मसूत्रों अर्थात उपनिषदों की ज्ञान मीमांसा का बादरायण का उत्तर मीमांसा दर्शन (शारीरिक सूत्र), सांख्यकारिकाओं और कपिल के सांख्य दर्शन की तत्व मीमांसा, पतञ्जली की कर्ममीमांसा का योग दर्शन, कणाद की तत्व मीमांसा का वैशेषिक दर्शन और गोतम की तर्क मीमांसा का न्याय दर्शन, वेदों के प्रति निरपेक्ष सन्देह वादियों का बौद्ध दर्शन, वेद विरोधियों का नास्तिक दर्शन, वेदों के प्रति नास्तिक अनिश्वरवादियों का जैन दर्शन सहित दर्शन शास्त्र में विशेषज्ञता प्राप्त कर आचार्य बने विप्र कहलाते थे। विप्रो में भी जो शुद्ध धर्मनिष्ठ, नित्य पञ्चमहायज्ञ सेवी, नित्य अष्टाङ्गयोग अभ्यासी होकर पूर्ण सदाचारी ब्रह्मचारी होता था वह ब्राह्मण कहलाता था।
ये ब्राह्मण ही वानप्रस्थ आश्रम में गुरुकुल चलाते और नवीन वैज्ञानिक और तकनीकी अनुसंधान करते रहते थे, वे ऋषि कहलाते थे। ऋषि संन्यास आश्रम में सर्वत्यागी मुनि हो जाते थे।

जातियाँ 
प्रवृत्ति, संस्कृति और आचरण के अनुसार देव, गन्धर्व, किन्नर, मानव, कपि, वानर, यक्ष, असुर, देत्य, दानव और राक्षस आदि वास्तविक अपरिवर्तनीय जातियाँ बनी। ये जन्मगत जातियाँ थी जिन्हें बदला नहीं जा सकता।

वर्तमान में प्रचलित जाति प्रथा 
जातिप्रथा का आधार समान व्यवसाय रहा। इसलिए सर्व प्रथम वैश्यों और विश्वकर्माओं की जातियाँ बनी। जैसे - कृषक, माली, गोपाल (गवली), गड़रिया, स्वर्णकार, रत्नपारखी, ठठेरा, लौहार, सुतार, शिल्पकार, कुम्भकार (कुम्हार) राज मिस्त्री, वैद्य, नापित (नाई) (जो शल्य चिकित्सा भी करते थे।) आदि।
फिर राजन्य, सेनापति, सेना नायक, कोतवाल आदि क्षत्रिय जातियाँ बनी। अन्त में विप्रो में भी यज्ञ कर्ता अग्निहोत्री और शर्मा, ज्योतिष ज्ञाता जोशी, पौरहित्य करने वाले पुरोहित आदि जातियाँ बनी 
फिर स्थान परिवर्तन (माइग्रेशन) के आधार पर जातियाँ बनी। जैसे हरियाणा के कुरुक्षेत्र के आसपास के गोड़ देश से निकले पञ्चगोड़ - आद्यगोड, गोड़, श्रीगोड़, गुजरगोड़, सनाड्य, सरयुपारीय, कान्यकुब्ज, जम्बु ब्राह्मण ,नार्मदीय, गुजराती,  महाराष्ट्रीय, कन्नड़, तेलगु, तमिल, केरलीय, वनवासी भिल- भिलाला आदि।

एक ही गोत्र-प्रवर और एक ही ग्राम के निवासियों का परस्पर विवाह निषेध का कारण।
एक ही ग्राम के निवासियों को और एक ही गुरुकल या विश्वविद्यालय से निकले विद्यार्थियों को भ्रातृ भगिनी भाव रहना चाहिए 
एक ही प्रकार से शिक्षित, एक ही प्रकार की रीति नीति पालन करने वालों में परस्पर विवाह होने पर भाषाई वर्ग और पन्थ - सम्प्रदाय उत्पन्न हो जाते हैं जिससे सामाजिक सद्भाव समाप्त हो दुरियाँ बढ़ती है। 
जबकि आंशिक भिन्न परम्परा वालों के मेल मिलाप से ही स्वस्थ्य समाज का गठन होता है। परस्पर ज्ञान, विज्ञान और तकनीकी का आदान-प्रदान होता है। इसलिए समान गोत्र - प्रवर के वर वधू और एक ही ग्राम के निवासियों में परस्पर विवाह निषेध किया गया है।

सपिण्ड
पिता की पन्द्रह पीढ़ी या कम से कम सात पीढ़ी और माता की तेरह पीढ़ी या कम से कम पाँच पीढ़ी के लोगों को सपिण्ड माना जाता है। इसलिए गुणसूत्र (जीन्स) साम्य होने के कारण जेनेटिक आधार पर सपिण्डों में विवाह निषेध किया गया है। 

मनुस्मृति में समान जाति में विवाह को उचित बतलाया है। वहाँ जाति से तात्पर्य देव, गन्धर्व, किन्नर, मानव, कपि, वानर, नाग, गारुड़, यक्ष, असुर, दैत्य, दानव, राक्षस आदि जातियों को जाति मानकर कहा गया है। न कि, लोहार, सुतार, नागर, गोड़, आद्यगोड़, श्रीगोड़, गुजरगोड़, सनाढ्य, औदिच्छ, सरयुपारीय , कान्यकुब्ज, नार्मदीय, महाराष्ट्रीय, देशस्थ, कोकणस्थ, कराड़े,  या अग्रवाल, महेश्वरी,  नामक जातियों का।
वर्तमान में सजातीय विवाह एक प्रकार से सगोत्रीय विवाह का ही रूपान्तरण है। इसलिए यह भी उचित नहीं ठहराया जा सकता।