बुधवार, 27 मार्च 2024

वैदिक कालीन संवत्सर व्यवस्था और वेदों में सूर्यग्रहण विवरण।

*वैदिक कालीन संवत्सर व्यवस्था।* 
(श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित रचित और हिन्दी समिति उ.प्र. शासन से प्रकाशित ग्रन्थ भारतीय ज्योतिष ,   श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वैदकाल निर्णय एवम् श्री पाण्डुरङ्ग काणे रचित धर्मशास्त्र का इतिहास से उद्धृत) -

 *संवत्सर व्यवस्था -* 
उत्तरायण की तीन ऋतु - वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा। - 
*देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।* 
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80
*उदगयन शब्द और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।* 
मैत्रायण्युपनिषद में उत्तरायण और नारायण उपनिषद अनु 80
(भा. ज्यो.पृष्ठ 44 एवम् 45)

*वसन्त को प्रथम ऋतु और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।* 
तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1
*हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*
तै.ब्रा. 3/10/4/1
(भा. ज्यो. पृष्ठ 47)
उक्त आधार पर प्रमाणित होता है कि, वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक वैदिक उत्तरायण होता था। और शरद सम्पात से वसन्त सम्पात तक वैदिक दक्षिणायन होता था। वैदिक काल के उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु होती थी। और दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती थी।
तदनुसार संवत्सर का प्रारम्भ वसन्त सम्पात, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास से होता था।

*तीन मौसम / ऋतु के नाम आये हैं।* 
अग्निर्ऋतुः सूर्य ऋतुश्चन्द्रमा ऋतु।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1
(भा.ज्यो पृष्ठ 49)
इससे प्रमाणित होता है कि, वर्तमान के ही समान वैदिक युग में भी तीन मौसम मुख्य रहते थे १ गर्मी, वर्षा और ठण्ड।

 *फाल्गुन पूर्णिमा/ पूर्वाफाल्गुनी के दिन को संवतर का अन्तिम दिन कहा है। और उसके अगले दिन उत्तराफाल्गुनी को संवतरारम्भ कहा है।*
वैदिक असमान विस्तार वाले नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र की सन्धि पर पूर्णिमा का चन्द्रमा होगा तो इससे १८०° पर स्थित नक्षत्र पर सूर्य होगा।
तैत्तिरीय संहिता 7/4/8 में तथा पृष्ठ 51 पर सामवेद के ताण्यब्राह्मण 5/9
 तैत्तिरीय ब्राह्मण 7/4/8
(भा.ज्यो.पृष्ठ 50)

*अधिक मास वर्षान्त में जुड़ता था।*
 वाजसनैय संहिता 22/30 एवम् 31 
ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 और 17 और तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/8/3
(भा. ज्यो. पृष्ठ 40 एवम् 41)
अर्थात वर्तमान में निरयन सौर वर्ष या सायन सौर वर्ष से चान्द्र वर्ष को बराबर करने के लिए निर्धारित १९ वर्ष, १२२ वर्ष और १४१ वर्ष वाला चक्र प्रचलित नहीं था।
महाभारत काल में हर अट्ठावन माह बाद उनसठवाँ और साठवाँ माह अधिक मास करते थे। ऐसे ही वैदिक काल में वर्षान्त पश्चात तेरहवाँ माह अधिक मास करते थे। सम्भवतः कितने वर्ष पश्चात करते थे यह स्पष्ट नहीं है।

इससे सिद्ध होता है कि, सामान्यतः अमान्त मास भी प्रचलित थे लेकिन संवत्सर आरम्भ के लिए सायन मेष संक्रान्ति ही मुख्य थी। उस दिन पड़ने वाले चन्द्रमा जिस नक्षत्र के साथ होता था उस नक्षत्र से भी इंगित करते थे। साथ ही  उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि से भी इंगित करते थे। 

*शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष को अर्धमास कहा है।* 
*अर्धमासों के नाम पवित्रादि हैं।* 
अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोरणरजा इति। एष एव तत्। ए ह्येव तेर्धमासाः एषः मासाः ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/6/3 ।
(भा. ज्यो.पृष्ठ 48)
इससे प्रमाणित होता है कि, छब्बीस पक्षों के भी नामकरण किया गया था।

तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। केवल उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि का ही उल्लेख है।

 *कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को व्यष्टका और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उदृष्ट कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/8/2 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
 *कृष्णपक्ष की अष्टमी को अष्टका और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एकाष्टका कहा है।* 
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/5/12 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
(भा.ज्यो.पृष्ठ 59)
इससे प्रमाणित होता है कि, तिथियाँ प्रचलित नही थी। लेकिन चन्द्रमा के चारो फेस का निर्धारण गणना करते थे। यानी अमावस्या, उदृष्यका या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, एकाष्टका (शुक्ल पक्ष की अष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा), अष्टका (कृष्ण पक्ष की अष्टमी), और अमावस्या की गणना की जाती थी।

दिन के विभाग -
*दिन के पाँच विभाग - प्रातः, सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न और सायम्* 
 तै.ब्रा. 1/5/3 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 64)
*दिन के तीन विभाग - सङ्गव, मध्याह्न और अपराह्न चार प्रहरों की संधि या दिन के तीन विभाग बतलाये हैं।* 
शतपथ ब्राह्मण 2/2/3/9 एवम् अथ. सं. 9/6/46 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 65)
इससे सिद्ध होता है कि, दिनमान और रात्रिमान के भी तीन- तीन और पाँच-पाँच विभाग किये गए थे।

सूर्यग्रहण की गणना अत्रि ऋषि ने की---

*ऋग्वेद में खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन तथा सूर्यग्रहण की गणना सर्वप्रथम अत्रि ऋषि ने की थी। और आगामी सूर्य ग्रहण की सफल भविष्यवाणी की थी।*

*खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन में कहा है* -- इन्द्र तुम द्यु के नीचे रहने वाली स्वर्भानु की मायाओं का नाश करते हो। *अपव्रत तम से आच्छादित सूर्य को अत्रि ने तूरीय ब्रह्म द्वारा प्राप्त किया।* 
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 6 ।

*सूर्य ने अत्रि और वरुण से अन्धकार से निगल न जाये अस्तु रक्षा याचना की जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित किया उसे अत्रि ने प्राप्त किया।दुसरा कोई प्राप्त न कर सका।* 
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 7

*अत्रि नें ग्रावा की योजना कर देवताओं के लिए सोम निकाल कर स्तोत्रों से देवताओं का यजन कर नमस्कार कर स्वर्भानु की मायाएँ दूर की। और सूर्य के प्रकाश के स्थान पर अपना नैत्र रख दिया।* 
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 8 ।

 *जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित कर दिया था उसे अत्रि ने प्राप्त किया और कोई न कर सका।* 
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 9 ।
(भा.ज्यो. पृष्ठ 82)

ब्राह्मण ग्रन्थों में सूर्यग्रहण वर्णन --
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13, 6/6/8, 14/11/14एवम् 15, 23/16/5 में सूर्य ग्रहण का उल्लेख है। 
ताण्डय ब्राह्मण 6/6/8, 14/11/14एवम् 15 में उल्लेख है कि, *अत्रि ने भास (तेज) द्वारा अन्धकार का नाश किया।* 
गोपथ ब्राह्मण 8/19 मे कहा है कि, *स्वर्भानु ने तम से सूर्य को वेधित किया और अत्रि ने उसका अपनोद किया।* 
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13,में कहा है कि, *देवों नें अन्धकार का नाश किया* तथा शतपथ ब्राह्मण 5/3/22 में कहा है कि, *सोम तथा रुद्र ने तम का नाश किया।*
(भा.ज्यो.पृष्ठ 83)  
इससे सिद्ध होता है कि, महर्षि अत्रि ने सूर्यग्रहण और मौक्ष की ठीक ठीक गणना करना सीख लिया था।

ग्रहण की आवृत्ति ---

*6586 दिन अर्थात 223 चान्द्रमासों में अर्थात सौर 18 वर्ष 12 दिन में पहले के ग्रहण पुनः पुनः आते हैं। रीपीट होते रहते हैं।* 
(भा.ज्यो.पृष्ठ 83)  

पण्डित दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वेदकाल निर्णय ग्रन्थ से उधृत---

निरयन गणना का आधार --- 
स्थिर भचक्र के मध्य में चित्रा नक्षत्र अतएव चित्रा तारे से १८०° स्थित स्थिर बिन्दु भचक्र का प्रारम्भ बिन्दु। 
 वेदकाल निर्णय पृष्ठ २० 
शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ आधारित पास्कर गृह्यसुत्र के व्याख्यकार कर्काचार्य ---
दक्षिणायने तु चित्रां यावदादित्य उपसर्फति। उदगयने स्वातिमेति। विषुवतीयेत्वहनि चित्रास्वात्योर्मध्य एवोदयः।अतस्तन्मध्ये शङकुगतैवच्छाया भवति। एवमम् च सति अहरन्तरेषु स़ैव प्राची न भवतीत्यत्रोच्यते। तं पाञ्चमुद्धरतित्यनेन प्राच्युद्धरणे कृतेऽनेकाहः साध्येपि कर्मणि तदेवोद्धरणमित्यहरन्तरे दोषो न भवति।
अर्थात -- जब तक सूर्य चित्रा पर नहीं आता है तस तक उसका दक्षिण में उदय होता है। अर्थात चित्रा तक दक्षिणायन रहता है। बाद में जब सूर्य स्वाती पर पर चला जाता है, यब उसका उदय उत्तर में होने लगता है। क्योंकि, स्वाती (तारे) के पास सूर्य आने पर उत्तरायण शुरू हो जाता है। इसलिए चित्रा तारे को जस सूर्य पार कर जाता है और स्वाती पर नही पहुँचता, इस चित्रा स्वाती के बीच के काल में सूर्य ठीक ठीक पूर्व में उदय होता है। क्योंकि, विषुवान् दिन में सूर्य ठीक चित्रा और स्वाती के बीच उदय होता है। इस कारण उस दिन द्वादशांङ्गुल शङ्कु की छाया से सीधी हुई पूर्व पश्चिम रेखा शङ्कु को पार कर जाती है। अन्य दिनों में भी शङ्कु की छाया का अग्रभाग के मण्डल में प्रवेश निर्गम चिह्नों से पूर्व पश्चिम रेखा होती है। किन्तु वह शङ्कु को पार नहीं करती। और संवत्सर में जिस दिन सूर्य चित्रा और स्वाती के बीच आता है उसके उदक्ष से साधित की हुई प्राची को अन्य दिनों में भी काम में ला सकते हैं।

वेदकाल निर्णय पृष्ठ २० पर स्पष्ट उल्लेख है कि, पास्कर गृह्यसुत्र के व्याख्याकार कर्काचार्य के समय जब तक सूर्य चित्रा से अश्विनी तक रहता है तब तक उत्तरायण रहता है। और चित्रा से स्वाती के बीच आने पर उत्तरायण होता है।
अर्थात मायासुर रचित सूर्य सिद्धान्त कथित अयनांश गति सीमा २७° का खण्डन हो जाता है। वैदिक ज्योतिष और आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की समान मान्यता अयनांश चक्र ३६०° की ही है।
उल्लेखनीय है कि, सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना पौराणिक काल की है। अतः सिद्धान्त ग्रन्थों में पौराणिक मान्यताओं, मिश्र, बेबीलोन (इराक) और यूनानी मान्यताओं का समावेश स्पष्ट झलकता है।

दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वेदकाल निर्णय पृष्ठ ७०- ७१
व्यास तन्त्र और सिद्धान्त दैवज्ञ कामधेनु अध्याय २ श्लोक ४ एवम् ५
पूर्वार्धमुत्तरंगोल माचित्रार्दधमादिशेत।। चित्रान्ताऽर्द्धप्रहृत्यैव पश्चिमार्धञ्च  दक्षिणम्।। १।।
पादोना तारकासप्त पाद इत्यत्र निश्चितः।। सपाद तारका द्वं द्वं राशि रित्यभिधीयते।।२।।
अर्थ --- चित्रा नक्षत्र के अर्ध विभाग पर्यन्त के क्रान्तिवृत के पूर्वार्ध (अश्विनी से चित्रा तक) को उत्तरगोल, और चित्रा नक्षत्र के अर्ध विभाग से क्रान्तिवृत के पश्चिमार्ध (चित्रा से रेवती तक) को दक्षिण गोल कहना चाहिये।१
यहाँ रेवती अश्विनी नक्षत्र सन्धि से चित्रा तारे तक सूर्य रहने पर उत्तरायण बतलाया है। 

तथा यहाँ से पौने छः नक्षत्रों का एकपाद इस तरह साढ़े तेरह नक्षत्रों, सवा बीस नक्षत्रों और सत्ताइस नक्षत्रों के क्रम से दो, तीन और चार पाद होते हैं। और आरम्भ स्थान से सवा दो नक्षत्रों की एक राशि इस प्रकार सत्ताइस नक्षत्रों में बारह राशि हो जाती है।

तैत्तिरीय ब्राह्मण १-५-२/ १-२ मे भी 
यो वै नक्षत्रियम् प्रजापतिम् वेद उभयो रेनं लोकयोर्विदुः। हस्त एविस्य हस्तः। चित्राशिरः निष्ट्या हृदयम्। उरू विशाखे। प्रतिष्ठानूराधाः।
अर्थात  -- जो इस नक्षत्रीय प्रजापति को जानता है, वह जानता है कि, यह नक्षत्रीय प्रजापति देवासुर दोनों लोक के मध्य में है। हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा और अनुराधा इन्हें क्रमशः प्रजापति के हस्त, शिर, हृदय, ऊरू (जञ्घा), तथा पाद (चरण) माने हैं।
तात्पर्य यह कि, चित्रा नक्षत्र (तारे) का निरयन भोग १८०° ही रहता है । यह बात तेत्तरीय ब्राह्मण और व्यास तन्त्र और सिद्धान्त दैवज्ञ कामधेनु का मत है।

यहाँ चित्रा तारे को प्रजापति का शीर्ष (सिर) कहा है।

स्व. श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वेदकाल निर्णय पृष्ठ ९०-९१ से।
कृष्णम् नियानम् हरयः सुपर्णाऽअपो वसाना दिवमुत्पतन्ति।

अर्थात --- (कृष्ण नियानं) दक्षिण निरयण के (अपो वसना) तोयन स्थान को प्राप्त हुए (हरयः) छोटे हुए (सुपर्णाः) दिध प्रमाण (दिवं उत्पतन्ति) बड़े होने लगते हैं।

यान अर्थात गमन। नियान मतलब गमन का बन्द हो जाना।
उत्तर परम क्रान्ति दिवस (सायन कर्क संक्रान्ति) पर सूर्य का उत्तर गमन बन्द होकर सूर्य दक्षिण की ओर लौटने लगता है तथा दक्षिण परम क्रान्ति दिवस (सायन मकर संक्रान्ति) पर सूर्य का दक्षिण गमन बन्द होकर पुनः उत्तर की ओर लौटने लगता है।
इसलिए यास्काचार्य ने उक्त स्थान को निययण कहा है।
इसी प्रकार वसन्त सम्पात  (सायन मेष संक्रान्ति) और शरद सम्पात (सायन तुला संक्रान्ति) के समय सूर्य का गोल में अयन होता है।

कृष्णम् नियानम् हरयः सुपर्णाऽअपो वसाना दिवमुत्पतन्ति।
मन्त्र पर निरुक्त उत्तर षटक अध्याय १ कण्डिका २४ के कथनानुसार वर्तमान ज्योतिः सिद्धान्त पद्यति से अन्वय ऐसा होता है ⤵️
नियानम् निरयणम् कृष्णम् 
नियानम् दक्षिण गोलार्धे भवम् निरयणम् स्थानम्।
अपो वसनाः = अद्भय स्थानम् प्राप्तः हरयः हरणत्व मनुप्राप्ताः कृषीभूताः सुपर्णा दिवसां दिन प्रमाणानि दिवम् उत्पतन्ति उर्ध्व गच्छति वृद्धिंगता भवन्तीत्यर्थः।

नियान को अपम भी कहते हैं।
परम क्रान्ति को परम अपम और अर्क काष्ठा भी कहते हैं।

इति वैदिक संवत्सर वर्णन।
चित्रा नक्षत्र स्थिर भचक्र के मध्य में १८०° पर माना जाता था और माना जाता है।
इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन कमेटी रिपोर्ट भाग १ और २ ग्रन्थ से उधृत---
इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन कमेटी रिपोर्ट भाग २ से
पृष्ठ क्रमांक १९ - विधान ४  समाधान ०४ (अ)
सूर्यसिद्धान्त की रङ्गनाथ टीका में कहा है।- चित्रायाश्चत्वारिंशत
चित्रा कोठीक भार्ध (भचक्र का आधा) में राशिचक्र के ठीक-ठीक मध्य की सूर्य सिद्धान्त और ब्रह्म सिद्धान्त में लिखे भोगों रङ्गनाथ ने सिद्ध किया है। तब जो चित्रा के १८०° से दस कला कम हो और इसका करणागत भगणारम स्थान से मैल होता हो उसके, अर्थ में रङ्गनाथ ने रेवती कहा है।

पृष्ठ २० समाधान ४ (आ)
सोम सिद्धान्त में चित्रा  को भगण के ठीक मध्य में बतलाया है। चित्रा तारे की नीज गति मात्र एक हजार वर्ष में १ कला ही है।
ऋग्वेद निविद अध्याय में चित्रा से गणना प्रारम्भ की है।
समाधान ४(इ)
चित्रा तारे को क्रान्तिवृत के ठीक मध्य में मानकर नक्षत्रों के वर्तमान में वेधोपलब्ध अन्तर  शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी ने भारतीय ज्योतिष में पृष्ठ ४५२-४५५ पर, व्यंकटेश बापूजी केतकर जी ने नक्षत्र विज्ञान में कोष्टक ६ में और श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट ने वेदकाल निर्णय पृष्ठ ८० पर मैंने योगताराओं के भोग शर लिखे हैं।

 पृष्ठ २२ समाधान ४(ई)
भास्कराचार्य ने भचक्रेऽश्विनी मुखे कहा है।

सिद्धान्त शिरोमणि में विष्णु धर्मोत्तर का वचश लिखा है --- चैत्रादौ। अश्विन्यादौ काल प्रवृतिः। कहा है।
विधान ५
व्यास तन्त्र और सिद्धान्त दैवज्ञ कामधेनु अध्याय २ में लिखा है कि, पूर्व्वारधमुत्तरम् गोलमाचित्रा दर्ध मादिशेत्। चित्रान्तांर्ध्दे प्रह्वत्यैव पश्चिमार्धश्च दक्षिण म्।४
अर्थात राशिचक्र की पूर्वार्ध, उत्तरार्ध की मर्यादा चित्रा तारे तक और चित्रा तारे से ही प्रारम्भ करके राशि चक्र के पश्चिमार्ध, दक्षिणार्ध की गणना करना चाहिए।४

पृष्ठ 34 और 35 पर विधान ६ समाधान ६ (अ) और ६(आ)
चित्रा तारा को स्थिर भचक्र के ठीक मध्य में बतलाया गया है। जिससे प.सुधाकर द्विवेदी जी के भाष्य के आधार पर सिद्ध किया है।
३ पास्कर गृह्यसुत्र और ४ कात्यायन शुल्ब सुत्र का प्रमाण प्रस्तुत किया है। जिसे महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी जी के भाष्य से पुष्टि की है।

पृष्ठ ५४ (विधान ७ समाधान ७)
पेराग्राफ तीन में शक ४२७ में वराहमिहिर के अनुसार भी चित्रा तारे को भचक्र के मध्य में बतलाया है।

पृष्ठ १०६- १०७ विधान ३९-४० समाधान पूरा ही पठनीय है।


भूमि पर स्वर्ग जहाँ के सम्राट प्रजापति, राजा इन्द्र, सभासद आदित्य और वसु थे।और रुद्रों की सेना थी।⤵️ 
ब्रह्मावर्त में स्वर्ग।
कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और किर्गिज़स्तान, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, तथा तिब्बत, गिलगित- बाल्टिकिस्तान, नेपाल , भूटान, लद्दाख और कश्मीर ब्रह्मावर्त कहलाता था। इसमें तिब्बत के कुछ भाग में स्वर्ग (सुवर्ग) कहलाता था। जहाँ कश्यप और दक्ष पुत्री अदिति पुत्रों अर्थात अष्ट आदित्यों का राज्य था। जिनके राजा इन्द्र कहलाते थे। कश्यप और दक्ष पुत्री वसु के पुत्र अष्ट वसु भी यहाँ वास करते थे। 
 
भूमि पर पृथ्वी 
ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, वर्तमान पाकिस्तान के बलुचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त, सिन्ध, पञ्जाब और भारत का पञ्चाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश और उत्तरी, मध्यप्रदेश में सम्राट दक्ष प्रजापति, राजा स्वायम्भूव मनु थे।

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि, दिक - काल का संयुक्त वर्णन ही सम्भव है।
यथा राजनितिक भुगोल में आपनें मोर्यकालीन भारत या गुप्त कालीन भारत के नक्षे देखे होंगे। अर्थात स्थान के विवरण के साथ समय दर्शाना आवश्यक है। इसी प्रकार ग्रीनविच मीन टाइम मा भारतीय मानक समय में समय के साथ स्थान दर्शाना आवश्यक है। ऋतुएँ अक्षांश और सूर्य की सायन संक्रान्तियों पर आधारित होती है। 
अतः पहले वैदिक ऋषियों प्रजापतियों और राजन्यों का कार्यक्षेत्र समझ लिया जाना आवश्यक है। क्योंकि वैदिक ग्रन्थों में इन्ही स्थानों (अक्षांशों) की ऋतुकाल के अनुसार वर्णन मिलना स्वाभाविक है। 
वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर रचित विष्णु पुराण द्वितीय अंश/ प्रथम अध्याय / श्लोक ११ से ३३ के अनुसार हरियाणा का धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र (थानेसर जिला) वाला क्षेत्र प्राचीन ऋषि देश कहलाता है ।
क्योंकि, प्रजापति ब्रह्मा नें १अर्धनारीश्वर महारुद्र २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद, ७ इस क्षेत्र के राजा धर्म, ८ अग्नि - स्वाहा की जोड़ी, ९ पितरः (अर्यमा) - स्वधा की जोड़ी, के अलावा तीन प्रजापति - १० दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति की जोड़ी, ११ रुचि प्रजापति - आकुति की जोड़ी, १२ कर्दम प्रजापति - देवहूति की जोड़ी उत्पन्न किए। इनके अलावा ब्रह्मर्षि गण उत्पन्न किए जिनका विवाह दक्ष- प्रसूति की पुत्रियों से हुआ और जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए) -- १३ महर्षि भृगु - ख्याति (जो मैरे आदि पूर्वज हैं) तथा १४ मरिची - सम्भूति, १५ अङ्गिरा - स्मृति, १६ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १७ अत्रि - अनसुया, १८ पुलह - क्षमा, १९ पुलस्य - प्रीति, २० कृतु - सन्तति आदि ऋषियों तथा २१ स्वायम्भू मनु - शतरुपा की जोड़ी को कुरुक्षेत्र में ही उत्पन्न किया था । 
हरियाणा के इस मालवा प्रान्त के कुरुक्षेत्र, थानेसर क्षेत्र को गोड़ देश भी कहते हैं। पञ्जाब - हरियाणा के अन्य प्रान्त भी इससे लगे हुए है। और कुछ क्षेत्र तो कॉमन ही है।
मालवा प्रान्त से अफगानिस्तान तक और गुजरात से तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, उज़्बेकिस्तान, तिब्बत, मङ्गोलिया के दक्षिण में पश्चिमी चीन पर स्वायम्भुव मनु के वंशज मनुर्भरतों का शासन था। अर्थात लगभग उत्तर अक्षांश २३° से ३५° विशेष क्षेत्र रहा।

(विक्रमादित्य के दादा जी महाराज नबोवाहन ने भी इसी क्षेत्र से आकर मध्यप्रदेश में सिहोर जिले के सोनकच्छ के निकट गन्धर्वपुरी में आकर गन्धर्वपुरी को राजधानी बनाया था। उनके बाद विक्रमादित्य नें अवन्तिकापुरी (उज्जैन) को राजधानी बनाया। राजा भोज के काका श्री मुञ्जदेव नें धारानगरी (धार) बसायी और राजा भोज ने धार को राजधानी बनाया। मालवा के पठार का नामकरण भी उक्त मालव प्रान्त के शासकों द्वारा शासित होनें के आधार पर ही हुआ। खेर यह विषयान्तर होगया।)


इससे निम्नांकित तथ्य प्रमाणित होते हैं।
१ ब्रह्मावर्त और उत्तरी आर्यावर्त में संवत्सर प्रारम्भ, उत्तरायण प्रारम्भ, वसन्त ऋतु प्रारम्भ, मधुमास प्रारम्भ सब सूर्य के वसन्त सम्पात पर होने के समय से प्रारम्भ होते थे।
२ वैदिक संवत्सरारम्भ विषुव सम्पात यानी सायन मेष संक्रान्ति (वर्तमान में २०/२१ मार्च) से होता था जिस दिन सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है। दिनरात बराबर होते हैं, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है और दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।
३ इसी वसन्त सम्पात दिवस से उत्तरायण आरम्भ होता था।
४ वसन्त ऋतु का आरम्भ भी इसी वसन्त सम्पात दिवस से होता था।
वैदिक मास मधुमास का आरम्भ भी इसी वसन्त सम्पात दिवस से होता था।
५ चित्रा तारे को स्थिर भचक्र में मध्य में अर्थात १८०° पर कहा गया है। तदनुसार चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु स्थिर भचक्र का प्रारम्भ बिन्दु मान्य था।
६ उस समय रेवती तारा या अश्विनी नक्षत्र का प्रारम्भ भचक्र का प्रारम्भ बिन्दु मान्य था। किन्तु रेवती तारा लगभग ०४° खिसक गया और वर्तमान में वहाँ कोई तारा नही है।
७  प्रायः चन्द्रमा पूर्णिमा के समय जिस नक्षत्र पर रहता तदनुसार चान्द्रमासों के नाम रखे गए थे। क्योंकि पूर्णिमा के समय का नक्षत्र उस पूरे माह में रातभर दिखता है।
८ उक्त कारण पूर्णिमा के नक्षत्र से १८०° पर सूर्य रहता है। ऐसे ही पूर्णिमा के नक्षत्र से १८०° पर स्थित नक्षत्र पर अमावस्या का चन्द्रमा रहता है। चूंकि उस दिन सूर्य और चन्द्रमा साथ-साथ एक ही नक्षत्र पर रहते हैं इस लिए उस दिन चन्द्रमा नहीं दिखता है। उस दिन चन्द्रमा का वह भाग पृथ्वी के सामने रहता है जिसपर उस समय सूर्य प्रकाश न रहने से चन्द्रमा पर अन्धकार रहता है ।
०९ उक्त आधार पर चैत्र-वैशाखादि चान्द्रमास नाक्षत्रीय पद्यति से होने के कारण नाक्षत्रीय पद्यति के नीकटतम निरयन गणना अनुसार चलते हैं।
१० जिस चान्द्रमास में वसन्त सम्पात पड़ता है उसे संवत्सर का प्रथम मास कहते हैं।

ज्योतिष का सामान्य ज्ञान जो उक्त तथ्यों को समझनें में सहायक होंगे।⤵️

सूर्य ग्रहण के समय ही नये तथ्यों पर कार्य करने का अवसर मिलता है। 1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मण्डल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था।

आईन्स्टीन का यह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर ही सही सिद्ध हो सका, जिसमें उन्होंने अन्य पिण्डों के गुरुत्वकर्षण से प्रकाश के पडने की बात कही थी। 
चन्द्रग्रहण तो अपने सम्पूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में ही देखा जा सकता हैसम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिक से अधिक 11 मिनट ही हो सकती है उससे अधिक नहीं। 
संसार के समस्त पदार्थों की संरचना सूर्य रश्मियों के माध्यम से ही सम्भव है। यदि सही प्रकार से सूर्य और उसकी रश्मियों के प्रभावों को समझ लिया जाए तो समस्त धरा पर आश्चर्यजनक परिणाम लाए जा सकते हैं। सूर्य की प्रत्येक रश्मि विशेष अणु का प्रतिनिधित्व करती है और जैसा कि स्पष्ट है, प्रत्येक पदार्थ किसी विशेष परमाणु से ही निर्मित होता है। अब यदि सूर्य की रश्मियों को पूँजीभूत कर एक ही विशेष बिन्दु पर केन्द्रित कर लिया जाए तो पदार्थ परिवर्तन की क्रिया भी सम्भव हो सकती है।
 खगोल शास्त्रियों नें गणित से निश्चित किया है कि 18 वर्ष 18 दिन की समयावधि में 41 सूर्य ग्रहण और 29 चन्द्रग्रहण होते हैं। एक वर्ष में 5 सूर्यग्रहण तथा 2 चन्द्रग्रहण तक हो सकते हैं। किन्तु एक वर्ष में 2 सूर्यग्रहण तो होने ही चाहिए। हाँ, यदि किसी वर्ष 2 ही ग्रहण हुए तो वो दोनो ही सूर्यग्रहण होंगे। यद्यपि वर्षभर में 7 ग्रहण तक सम्भाव्य हैं, तथापि 4 से अधिक ग्रहण बहुत कम ही देखने को मिलते हैं। प्रत्येक ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन बीत जाने पर पुन: होता है। किन्तु वह अपने पहले के स्थान में ही हो यह निश्चित नहीं हैं, क्योंकि सम्पात बिन्दु निरन्तर चल रहे हैं।

साधारणतय सूर्यग्रहण की अपेक्षा चन्द्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं, परन्तु सच्चाई यह है कि चन्द्र ग्रहण से कहीं अधिक सूर्यग्रहण होते हैं। 3 चन्द्रग्रहण पर 4 सूर्यग्रहण का अनुपात आता है। चन्द्रग्रहणों के अधिक देखे जाने का कारण यह होता है कि वे पृ्थ्वी के आधे से अधिक भाग में दिखलाई पडते हैं, जब कि सूर्यग्रहण पृ्थ्वी के बहुत बड़े भाग में प्राय सौ मील से कम चौड़े और दो से तीन हजार मील लम्बे भूभाग में दिखलाई पडते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि मध्यप्रदेश में खग्रास सूर्यग्रहण हो जो सम्पूर्ण सूर्य बिम्ब को ढकने वाला होता है तो गुजरात में खण्डग्रास सूर्यग्रहण ही दिखलाई देगा जो सूर्य बिम्ब के अंश को ही ढँकता है। और उत्तर भारत में वो दिखायी ही नहीं देगा।

मकर डॉल्फिन जैसा कोई मत्स्य होगा मगर नही।

वाहन के रूप में अश्व और वृषभ वाहन सर्वाधिक लोकप्रिय हैं क्योंकि वे हिन्सक नहीं है।
वाहन के रूप में हाथी सर्वप्रिय रहा। क्योंकि वह हिन्सक कभी-कभार ही होता है।अर्थात शास्त्रों में वाहन के रूप में कम हिन्सक प्राणी को ही दर्शाया गया है।
(सुचना --- हस्ती चर्म को वस्त्र के रूप में केवल शंकर जी ही धारण करते हैं।)
 
अफ्रीकी मादा सिंह अधिक हिन्सक होती है। गिर के सिंहों के कुनबे के बीच से गुजरती लोग आराम से निकल जाते हैं। पशुओं तक को ले जाते हैं।
मादा सिंह शिकारी होती है, नर सिंह केवल अपने परिवार की रक्षार्थ ही युद्ध करता है। अन्यथा आलसी जैसा पड़ा रहता है। मादा सिंहों द्वारा किए गए शिकार से ही उदर पूर्ति करता है।
जबकि व्याघ्र में नर- मादा दोनों ही शिकारी होते हैं।
इसलिए शास्त्रों में व्याघ्र वाहन की तुलना में सिंह वाहन अधिक लोकप्रिय हुआ। जबकि, बाघम्बर वस्त्र और आसन के रूप में ही प्रचलित हुई।
मतलब जीवित सिंह स्वयम् वाहन के रूप में लोकप्रिय है जबकि, मृतक व्याघ्र का चर्म ही लोकप्रिय हुए।
 
डायनासोर का वंशज छिपकली जैसा दिखने वाला घड़ियाल जाति का ताँत वाला और बिना ताँत वाला मगर मूलतः शुद्ध जलचर नहीं है। यानी मत्स्य नहीं है।
मकर राशि में दर्शाया गया मकर घड़ियाल वंशीय छिपकली जैसे रूप वाले मगर से भिन्न है ।

गङ्गा और नर्मदा का वाहन मकर कहा गया है। वह भी घड़ियाल वंशीय मगर से भिन्न ही होना चाहिए।
मगर जलचर और स्थलचर दोनों है, अर्थात उभयचर है। जबकि शास्त्रों में मकर को झष यानी मत्स्य कहा गया है। जो केवल जलचर ही होता है।
शास्त्रों में मकर के प्रति जो श्रद्धा भाव है, वह लोगों में मगर के प्रति नहीं है।
मगर का गुणसाम्य घड़ियाल से है। मकर से नही।जबकि
मगर में केवल नाम साम्य है, गुण साम्य नहीं।
 
मैरा अनुमान है कि, मकर डॉल्फिन के समान कोई लोकप्रिय जलचर था। या गङ्गा डॉल्फिन जैसा किसी प्रजाति का डॉल्फिन ही हो सकता है।
 

(सुचना --- मेष (मेंढ़ा) भी भेड़ से भिन्न दिखता है। मेढ़ा यानी मेष वर्तमान में भारत में नहीं मिलता। अरब प्रायद्वीप में मिलता है। मुसलमान उसे दुम्बा या दूम्बा कहते हैं।)

रविवार, 24 मार्च 2024

व्यायाम, खेल, गृहकार्य, वृत्ति और परिश्रम सब अलग-अलग बातें हैं।

वास्तव में पहले चलना, योगासन और मल्ल व्यायाम कर शरीर को लचीला बनाना, फिर पसीना बह निकले ऐसा गृह कार्य या कमाई हेतु कठोर परिश्रम करें । फिर योगिक रिलेक्स हो, फिर संध्या काल में मैदानी खेल खेलें, पुनः हल्के व्यायाम द्वारा लचीलापन लाएँ।
यह सही प्रक्रिया है। लेकिन वास्तविकता से दूर आधुनिक चिकित्सा ने व्यायाम और श्रम दोनों को मिला दिया।
दासत्व के गहरे संस्कारों के कारण ना कहने का साहस भारतीय खो चुके हैं।
यही पूंजीवाद यूरोपियों अमरीकियों पर ऐसा दबाव नहीं बना पाता।
वहाँ की व्यवस्था भी उद्यमियों की सहायक है। जबकि हमारे यहाँ भ्रष्टाचार में बच्चा-बच्चा आकण्ठ डुबा है।
समय तो सबके पास उतना ही है, लेकिन हम अपव्यय कर समय काटते हैं बुद्धिमान उपयोग कर विकास करते हैं।

चार्वाक नास्तिक और अनीश्वरवादी दार्शनिक ऋषि थे; अनैतिकतावादी, अनाचारवादी और दुराचारवादी असुर नहीं थे।

वेद विरोधी, वेदों को न मानने वाले नास्तिक जैन भी अनीति और अनाचार को दोष मानते हैं। इसलिए जैन ग्रन्थों में सदाचार और नैतिकता को आवश्यक माना है।
वेदों के प्रति तटस्थ और वेद निरपेक्ष बुद्ध (न कि बौद्ध) भी सदाचार और नैतिकता अनिवार्य मानते थे। इसलिए विनय पिटक और सुत्त पिटक में सदाचार और नैतिकता को आवश्यक माना है।

वैदिक काल में अनीश्वरवादी होते थे। चार्वाक भी अनीश्वरवादी थे। 
वे वैदिक व्यवस्था को मान्यता देते थे या न देते थे केवल इसपर विवाद है।
चाहे व्यक्तिवादी राज्य को आवश्यक बुराई मानते हों, लेकिन राज्य विहीन व्यवस्था नहीं चाहते।आज तक भी अराजकता वाद बुरा ही माना जाता है।
अनैतिकता, अनाचार का व्यवहार करने वाले तान्त्रिक भी अनैतिकता, अनाचार का खुलेआम प्रचार तो नही कर पाते थे। और आज भी नहीं कर पाते हैं; तो चार्वाक यदि अनीति और अनाचार का समर्थन करते तो उनकी बात कोई क्यों मानता।
  
वेदिक व्यवस्था न मानने वाले तान्त्रिक अनार्य, दास-दस्यु को खराब/ बुरा माना जाता था, अनीश्वरवादी को नहीं।
वैदिक काल से अनीश्वरवादी होना कोई दोष नहीं माना गया। क्योंकि परमात्मा को सर्वोपरि मानते वालों के लिए ईश्वर श्रेणी के देवता कोई महत्व नहीं रखते। महर्षि भृगु लात मार देते हैं, नारद शाप दे देते हैं।
चार्वाक को भी अवतार और ऋषि का पद दिया गया है। चार्वाक दर्शन माना गया है।
लेकिन फिलासफी और फिलासफर लोगों को केवल विचारधारा और विचारक कहते हैं। इसलिए आधुनिक विचारकों से चार्वाक की तुलना नहीं हो सकती। 
नास्तिक, अनीश्वरवादी, अनैतिक होने के साथ अनाचारी होना जैसे तान्त्रिक कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन, रावण और कन्स आदि तथा आसुरी वृत्ति का अनाचारवादी होना अलग बात है जबकि दैत्य हिरण्यकशिपु और इब्राहीम एवम् इब्राहीमियों का दुराचारवादी होना अलग बात हैं। 
आसुरी वृत्ति का  होना यथा हिरण्यकशिपु और इब्राहीम और इब्राहीमी दुराचारवादी होना और अनैतिकता और अनाचार का समर्थक तीनों समान बातें हैं।
चार्वाक की तुलना कभी भी किसी ने आसुरी वृत्ति का होना यथा हिरण्यकशिपु और इब्राहीम इब्राहीमी से नहीं की, न उन्हें असुर-दैत्य-दानव कहा गया।

अनैतिकता और अनाचार का समर्थन समाज कभी स्वीकार नहीं करता। इब्राहीमी यहूदी पन्थ में यीशु को बौद्ध संस्कार जोड़ना पड़े, तब दानव जाति के यूरोपियों  नें उसे स्वीकार किया।

मंगलवार, 19 मार्च 2024

भूमि पर स्वर्ग और पृथ्वी - ब्रह्मावर्त और आर्यावर्त

भूमि पर स्वर्ग जहाँ के सम्राट प्रजापति, राजा इन्द्र, सभासद आदित्य और वसु थे।और रुद्रों की सेना थी।⤵️ 
कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और किर्गिज़स्तान, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, तथा तिब्बत, गिलगित- बाल्टिकिस्तान, नेपाल , भूटान, लद्दाख और कश्मीर 
 
भूमि पर पृथ्वी 
ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, वर्तमान पाकिस्तान के बलुचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त, सिन्ध, पञ्जाब और भारत का पञ्चाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश और उत्तरी, मध्यप्रदेश में सम्राट दक्ष प्रजापति, राजा स्वायम्भूव मनु थे।

शनिवार, 16 मार्च 2024

सवितृ और GOD में अन्तर।

जनक (सृजेता), प्रेरक (सक्रिय करने वाला), और रक्षक (निर्विघ्न जीवन दाता) को सवितृ कहते हैं। हिन्दी में इसे सविता बोला जाता है। 
अङ्ग्रेजी में जिसे GOD कहते हैं। G for Generator, O for Organiser D for Destroyer कहते हैं। वह सनातन धर्म के हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, सवितृ या हरि या प्रभविष्णु और रुद्र है।
संस्कृत में आ कारान्त केवल स्त्रीलिंग शब्द ही होते हैं। लेकिन हिन्दी में आ कारान्त पूर्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग और नपुंसक लिङ्ग तीनो प्रकार के शब्द होते हैं। जैसे संस्कृत राजन राजा हो गया। पितृ पिता, मातृ माता और भ्रातृ भ्राता हो गया।

बुधवार, 13 मार्च 2024

पुरुष सूक्त उत्तर नारायण सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, अस्यवामिय सूक्त और नासदीय सूक्त के आधार पर सर्वमेध यज्ञ वर्णन।

*धर्म --  मूलतः अहिन्सा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अर्थात पञ्च यम की साधना ही आत्म साधन हैं। सर्वजन हिताय, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ईश्वरार्पण सौद्देष्य निष्काम सामाजिक कर्तव्य निर्वहन कर्म प्रधान संस्कृति जिसे संक्षिप्त में यज्ञ कहा जाता है।*
* यज्ञ -- ईश्वरीय कार्यों में सहयोगार्थ वेदों में पञ्चमहायज्ञ की व्यवस्था है।
*व्रत -- आत्म साधना हेतु सर्वप्रथम कृच्छ्र चांद्रायण व्रत किया जाता है।*

जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म का मर्म भली-भांति समझ गया, जो पञ्च महायज्ञों का नियमित सेवन करता है और जिसने धर्म पालन पूर्वक ग्रहस्थ आश्रम में जिसने क्रच्छ चान्द्रायण व्रत पूर्वक समस्त यज्ञों का सम्पादन करते हुए व्यावहारिक जीवन जी लिया। जिसके समस्त सांसारिक कर्तव्य पूर्ण हो चुके वही व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में गुरुकुल स्थापित कर आत्म साधना करते हुए नई पीढ़ी को धर्माचरण का शिक्षिण- प्रशिक्षण प्रदान करता है। साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बड़े-बड़े यज्ञों में आचार्य का पद ग्रहण करते हैं। 
समस्त वैदिक वैज्ञानिक अनुसंधान इन्हीं ऋषियों द्वारा किया गया।  ब्राह्मण ग्रन्थ आदि समस्त वैदिक शास्त्र इन्हीं ऋषियों की रचना हैं। समस्त यज्ञ पूर्ण कर चुके धर्म तत्व के ऐसे मर्मज्ञ जब वानप्रस्थ के कर्तव्य पूर्ण हुआ जानकर सर्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ करते हैं। अर्थात यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद अन्तर्मुखी होकर धारणा - ध्यान और समाधि की अवस्था में देह के अन्दर की झलक देखते हैं। उस अवस्था में ही वे पुरुष सूक्त, नासदीय सुक्त और  अस्यवामिय सुक्त और देवी सूक्त, श्री सूक्त, लक्ष्मी सूक्त,और शुक्लयजुर्वेद का अध्याय ३१ (पुरुष सूक्त और उत्तर नारायण सूक्त ) तथा बत्तीसवां अध्याय (सर्वमेध यज्ञ) और चालिसवां अध्याय (ईशावास्य उपनिषद्) के दृष्टा होते हैं।एवम् कृष्ण यजुर्वेद संहिता का श्वेताश्वतरोपनिषद; केनोपनिषद, कठोपनिषद, प्रश्नोपनिषद,  एतरेयोपनिषद, तैत्तरियोपनिषद, मण्डुकोपनिषद, माण्डुक्योपनिषद, छान्दोग्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद, मेत्रायणी उपनिषद, कौशितकी ब्राह्मणोपनिषद और इन ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों में किया गया है। 
उक्त ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों के आधार पर रचित पुर्व मिमांसा दर्शन , उत्तर मिमांसा दर्शन (शारीरिक सुत्र) के अलावा सांख्य कारिकाएँ, कपिल का सांख्य दर्शन, पतञ्जली का योग दर्शन, अक्षपाद गोतम का न्याय दर्शन, कणाद का वैशेषिक दर्शन में  किया गया है।

ऐसी ही अवस्था में वैदिक ऋषियों द्वारा पुरुष सूक्त, (यजुर्वेद का अध्याय ३१ उत्तर नारायण सूक्त सहित पुरुष सूक्त), नासदीय सूक्त और  अस्यवामिय सूक्त और ,श्री सूक्त, लक्ष्मी सूक्त,और देवी सूक्त और शुक्लयजुर्वेद का एकतीसवां और बत्तीसवां और चालिसवां अध्याय के दृष्टा होने के समय किया गया अनुभव शुक्ल यजुर्वेद के बत्तीसवां अध्याय (सर्वमेध यज्ञ) में उल्लेखित इसी अवस्था के अनुभवों का विवरण एवम् वर्णन सारांश में निम्नलिखित हैं।⤵️

१ सर्वमेधयाजी ने देखा जाना - समझा कि,"पिण्ड (पदार्थ) है जिसे भौतिकि में एलिमेण्ट का एटम कहते हैं। जीव विज्ञान में इसे कोषिका ( सेल Cell) कहते हैं। तथा मेडिकल साइन्स की दृष्टि से यह तन (शरीर) है।"

 २ पिण्ड (1) सुशुम्ना (2) पिङ्गला और (3) ईड़ा का संयुक्त संघात है। एटम के मुख्य भाग प्रोटॉन, न्रूटॉन और इलेक्ट्रॉन हैं; जिनका संघात एटम है। कोशिका के मुख्य भाग प्रोटोप्लाज्म, साइटोप्लास्म और एण्डोप्लाज्म है; जिनका संघात कोशिका है।
आगे का वर्णन अध्यात्म परक (देहान्तर्गत तत्व सम्बन्धित) ही किया जाएगा। ताकि अति विस्तार न हो। जहाँ-जहाँ आवश्यक होगा वहाँ-वहाँ ही भौतिक विज्ञान और मनोविज्ञान से जुड़े तथ्य लिखे जाएँगे।

सुशुम्ना (नाड़ी) कारण-शरीर (साध्यगण) से  उत्पन्न हुई है। 
सुशुम्ना के अधिदेवता दस विश्वैदेवगण (विश्वैदेवगणों के प्रमुख प्रचेताओं के पुत्र और सति के पिता, शंकरजी के श्वसुर दक्ष द्वितीय हैं।)
दस विश्वैदेवगण - [(1) दक्ष (द्वितीय), (2) कृतु, (3) सत्य, (4) काल (यम), (5) काम, (6) मुनि, (7) एल पुरुरवा, (8) श्रव, (9) रोचमान, (10) आर्द्रवान हैं।

(2) पिङ्गला (नाड़ी) सुक्ष्मशरीर से हुई। 
पिङ्गला के अधिदेवता शुक्राचार्य के पौत्र , त्वष्टापुत्र त्रिशिरा विश्वरूप हैं। जो देवताओं के पुरोहित होकर भी चुपके से असुरों को यज्ञभाग देते थे। इन्द्र नें जिनका वध किया था। ये वत्रासुर के अग्रज भाई थे।

(ईळा से ईड़ा तक के क्रम में।)   
(3) ईड़ा (नाड़ी) लिङ्ग शरीर (यह्व) से हुई है। 
ईड़ा के अधिदेवता एल भैरव ईला नामक रौद्री के पुत्र  हैं। ( या वैवस्वतमनु की पुत्री ईला या बुध के पुत्र एल पुरुरवा हैं)। 

४ सर्वमेधयाजी ने कारण - शरीर को देखा और जाना कि, अथर्ववेद में वर्णित अष्टचक्र और हटयोग और तन्त्रमत के चार मुख्य चक्र और चार उप चक्र को जाना।
कारण शरीर के अधिदेवता के अधिदेवता द्वादश साध्यगण[ (1) मन, (2) अनुमन्ता, (3) प्राण, (4) अपान, (5) विति , (6) हय, (7) हन्स, (8) विभु, (9) प्रभु, (10) नय, (11) नर और (12) नारायण )] हैं। अष्ट चक्रों के स्वरूप में जाने जानेवाला तत्व कारण शरीर है।
अथर्ववेद में वर्णित अष्टचक्र और हटयोग और तन्त्रमत के चार मुख्य चक्र और चार उप चक्र [(1) ब्रह्मरन्ध्र चक्र - आज्ञा चक्र, (2) अनाहत- विशुद्ध चक्र, (3) मणिपुरचक्र - स्वाधिस्ठानचक्र और (4) मूलाधार चक्र - कुण्डलिनी)] को देखा और जाना कि, चक्रों के अधिदेवता चौरासी सिद्धगण हैं ।
 सुचना - हठ योग और तन्त्र में कुण्डलिनी को चक्र नाम नही दिया गया किन्तु अथर्ववेद में अष्ट चक्र और नौ द्वार का उल्लेख है। तथा चक्रों से सीधा सम्बन्ध कुण्डलिनी को उपचक्र के रूप में ही दर्शाता है। 
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, कारण-शरीर अधिदेव (अष्टादित्य) से उत्पन्न  हुआ है।

 सर्वमेधयाजी ने (2) सुक्ष्म शरीर को देखा ,जिसके अधिदेवता देवशिल्पी विश्वकर्मा प्रभास वसु और (ब्रहस्पति की बहन) वरस्त्री के पुत्र  हैं।
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, सुक्ष्म शरीर को संस्थान और तन्त्र के रूप में जानते हैं।[(1)मस्तिष्क - तन्त्रिका तन्त्र, (2) हृदय - श्वसन तन्त्र, (3) यकृत - पाचन तन्त्र और (4) लिङ्ग - जनन तन्त्र) के रूप में जानते है।] इन ग्रन्थियों / अङ्गो - तन्त्रों के अधिदेवता त्वष्टा (शुक्राचार्य के पुत्र)  हैं।

सर्वमेधयाजी ने जाना कि, सुक्ष्म शरीर जिसके अधिदेवता प्रभास वसु और वरस्त्री है। अध्यात्म (द्वितीयअष्टवसु) से हुआ।
 
सर्वमेधयाजी ने (3) लिङ्ग शरीर को देखा । जिसके अधिदेवता यह्व ( महादेव) हैं। 
ऋग्वेद में अग्नि को भी यह्व कहा है।(यह्व का मतलब महादेव है।) यह्व शब्द से ही यहुदियों के परमेश्वर यहोवा या याहवेह (शब्द) बना है।
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, लिङ्गशरीर को हम अष्ट सिद्धि (चार मुख्य सिद्धि एवम चार उप सिद्धि) [(1) ईशित्व- वशित्व, (2) अणिमा-लघिमा, (3) महिमा- गरिमा और (4) प्रकाम्य - प्राप्ति) के रूप में जानते हैं। सिद्धियों के अधिदेवता अष्ट विनायक हैं। [(1)सम्मित-उस्मित, (2) मित- देवयजन, (3) शाल - कटंकट और (4) कुष्माण्ड - राजपुत्र हैं] ये आठों पिशाच हैं और शिवगण हैं।)  
(सुचना - ये अष्ट विनायक मूलतः पिशाच हैं। ये शुभकार्यों में विघ्नकर्ता ग्रह (ग्रसने वाले) हैं। तन्त्र में विनायक शान्ति प्रयोग द्वारा विघ्नबाधाएँ दूर करनें का विधान है। )
४ सर्वमेधयाजी ने जाना कि, लिङ्ग शरीर अधिभूत (अष्टमूर्ति एकादश रुद्र) से उत्पन्न हुआ।

५ सर्वमेधयाजी ने (1) अधिदेव को देखा। अधिदेव का देवता अष्टादित्य हैं जो कश्यप और अदिति के पुत्र हैं।[ (1) मार्तण्ड {विवस्वान}, (2) इन्द्र, (3) वरुण, (4) मित्र, (5) धाता, (6) भग, (7) अंश और (8) अर्यमा)] हैं ।
अधिदेव को भौतिकि में दृष्य़ आकाश (Sky) और मनोविज्ञान में साक्षात या प्रत्यक्ष अनुभूति (कांशियस Councious) कहते है। (कृपया इसे चेतना न समझें। चेतना प्राण अर्थात देही को कहते हैं‌। आगे जिसका वर्णन भूतात्मा हिरण्यगर्भ में दिया गया है।)
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, अधिदेव को पञ्च मुख्य प्राण और पञ्च उपप्राण [(1) उदान -देवदत्त, (2) व्यान - धनञ्जय, (3) प्राण - कृकल, (4) समान - नाग, (5) अपान -कुर्म)] के रूप में जाना जाता हैं। प्राण- उपप्राण के अधिदेवता द्वादश तुषितगण [(1) बुद्धि, (2) मन, (3) उदान, (4) व्यान, (5) प्राण, (6) समान, (7) अपान, (8) श्रोत, (9) स्पर्ष, (10) चक्षु, (11) रसना और (12) घ्राण ] के रूप में भी जाने जाते हैं। 
अधिदेव (अष्टादित्य) सात्विक स्वभाव / स्वाहा भारती (मही) से उत्पन्न  हुआ है।

सर्वमेधयाजी ने (2)अध्यात्म को देखा जिसके देवता दुसरे अष्ट वसु [(1) द्रोण, (2) प्राण, (3) ध्रुव, (4) अर्क, (5) अग्नि (6) दोष, (7) वसु और (8) विभावसु )] हैं। ये बाद में बतलाये जाने वाले अष्ट वसु से भिन्न हैं। इसे भौतिकि में समय (Time) या तथा मनोविज्ञान का आंशिक प्रकट या तन्द्रा (सब कांशियस Subcouncious) कहते है।
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, अध्यात्म को पञ्चज्ञानेन्द्रिय तथा पञ्च कर्मेन्द्रिय [(१)श्रोत - वाक (कण्ठ) , (२) त्वक - हस्त , (३) चक्षु - पाद , (४) रसना - उपस्थ (शिश्न या भग) और (५) घ्राण - पायु (गुदा)] के रूप में जाना जाता हैं। 
इन्द्रियों के अधिदेवता शक्तियों सहित उनचास मरुद्गण है। 
उनचास मरुद्गणों में सात प्रमुख माने गये हैं 
(1) आवह, (2) प्रवह, (3) संवह, (4) उद्वह, (5) विवह, (6) परिवह और (7) परावह है। ये सातों सैन्य प्रमुख के समान गणवेश धारण करते है। इनके प्रत्येक के छः छः स्वरूप (या पुत्र) अर्थात बयालीस मिलाकर उनचास मरुद्गण हुए।
 ये भी सुकर्मों के फलस्वरूप देवता श्रेणी में पदोन्नत हुए।अतः कर्मदेव कहलाते हैं।
अध्यात्म (दुसरे अष्टवसु) राजसी स्वभाव/ वषट सरस्वती से उत्पन्न हुआ है।

सर्वमेधयाजी ने कि, (3) अधिभूत को देखा। अधिभूत का देवता दुसरे एकादश रुद्र [(1) मन्यु, (2) मन , (3) महिनस, (4) महान, (5) शिव, (6) उग्ररेता, (7) भव, (8) काल, (9) वामदेव, (10) धृतवृत और (11) मृगव्याध या मतान्तर] से अन्य नाम [(1) सर्प, (2) निऋति,(3) पिनाकी, (4) कपाली, (5) स्थाणु, (6) ईशान नाम और (7) दहन भी।] हैं। जो बाद में बतलाये जाने वाले एकादश रुद्रों से भिन्न हैं। इसे भौतिकि में अन्तरिक्ष (Spece) और मनोविज्ञान में परोक्ष या सुप्त (अन् कांशियस Uncouncious) कहते हैं। 

सर्वमेधयाजी ने जाना कि अधिभूत को पञ्च महाभूत और पञ्च तन्मात्रा [(1)आकाश -शब्द, (2) वायु - स्पर्ष, (3) अग्नि - रूप, (4) जल - रस और (5) भूमि - गन्ध ] के रूप में जाना जाता हैं। महा भूतों के अधिदेवता अनेकरुद्र हैं।
तन्मात्राओं का सम्बन्ध उर्जाओं से जोड़ा जा सकता है --[(1) शब्द -ध्वनि से, (2) स्पर्ष विद्युत से, (3) रूप प्रकाश से सीधे सम्बंधित हैं, (4) रस का सम्बन्ध भी पकानें के रूप में ऊष्मा से लगता है। किन्तु (5) गन्ध का ही सीधा सम्बन्ध चुम्बकत्व नही दिखता है लेकिन भूमि का सम्बन्ध गुरुत्वाकर्षण बल से है। जो चुम्बकीय प्रभाव वाला है।)] 
अनेक रुद्र का स्वरूप (विशेले कीट पतङ्ग, सर्प, बिच्छू, घोघा (कपर्दी) (पाईला) और सीपी (युनियो), सिंह, व्याघ्र आदि हिन्सक प्राणी, आतंकी, गुण्डे, बदमाश, चोर, उचक्के, डाकु, लुटेरे, वनवासी, पुलिस, सेना आदि रुलाने वाले सभी अनेकरुद्र हैं।)
अधिभूत तामसी स्वभाव/ स्वधा/ ईळा से उत्पन्न  हुआ है।

६ (क) सर्वमेधयाजी ने स्वभाव (स्व भाव) को देखा और जाना कि, स्वभाव की अधिदेवता मही है।
"शुचिर्देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती। इळा सरस्वती मही बर्हिः सीदन्तु यज्ञिया: ॥" ऋग्वेद 01/142/09
इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः।। ऋग्वेद 01/13/09
स्व की शक्ति "स्वभाव" है। स्व के बिना स्वभाव का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है।
"स्वभाव" का अधिदेवता मही देवी हैं। भूमि को भी मही कहा जाता है। भू देवी को वराह की पत्नी भी कहते हैं 
स्व और स्वभाव तत्व भौतिकि के डार्क मेटर (Dark matter) और डार्क इनर्जी (Dark Energy) से भी मैल रखते हैं और भौतिकि की सिंग्युलरिटी (Singularity) और इनर्जी Energy से भी स्व और स्वभाव की तुलना कर सकते हैं। पर इसका अर्थ यह नही कि, ये यही भौतिक तत्व हैं।

सर्वमेधयाजी ने तीन प्रकारों में विभक्त स्वभाव को देखा और जाना कि,
"शुचिर्देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती। इळा सरस्वती मही बर्हिः सीदन्तु यज्ञिया: ॥" ऋग्वेद 01/142/09
इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः।। ऋग्वेद 01/13/09
स्वभाव तीन स्वरूप में विभक्त हुआ है ---
(1) वैकारिक स्वभाव अर्थात स्वाहा (स्व का हनन या समर्पण)। स्वाहा का अधिदेवता भारती देवी हैं। यह भौतिकि विज्ञान की दृष्टि से यह आधिदैविक शक्ति कहाती है। मनोविज्ञान में इसे में सुपर ईगो कहते है।

(2) तेजस स्वभाव या वषटकार (मस्तिष्क सम्बन्धी/ वैचारिक) का अधिदेवता सरस्वती देवी है। भौतिकि में अध्यात्मिक शक्ति और मनोविज्ञान में यह ईगो कहाता है। येही मान्सिकता शक्ति (क्षमता) (willpower) है।

(3) भूतादिक स्वभाव अर्थात स्वधा (स्व को धारण करना है अर्थात स्वार्थ) का अधिदेवता ईळादेवी हैं। मनोवैज्ञानिक इड (Id) और भौतिकि की कास्मिक ईनर्जी (Cosmetic Energy) की तुलना स्वधा से कर सकते हैं।

६ (ख) सर्वमेधयाजी ने स्व को देखा और जाना कि,
स्व अङ्गुष्ठ तुल्य पुरुषाकृति है। मनसात्मा के लिए स्व देह के समान है।
मनसात्मा को सदसस्पति (सभापति) के रूप में जानते हैं। लोकसभा अध्यक्ष से इनकी तुलना हो सकती है।
मनसात्मा से "स्व" उत्पन्न हुआ था

७ सर्वमेधयाजी ने मनसात्मा को देखा और जाना कि,
 मनसात्मा अङ्गुष्ठ तुल्य,अङ्गुष्ठ आकर के हैं। 
मनसात्मा को आधिदैविक दृष्टि से गणपति कहते हैं। गणपति की पत्नियाँ (शक्ति) ऋद्धि और सिद्धि कही जाती है। ये गणपति सूण्डधारी विनायक से भिन्न हैं।
इनकी तुलना समुदाय के अध्यक्ष या राष्ट्रपति से कर सकते हैं। अतः सोम राजा और वर्चा प्रथम गणपति रहे। या मतान्तर से स्वायम्भूव मनु और शतरूपा प्रथम गणपति रहे।

सुचना --- प्रमथ गणों के गणपति विनायक को गणाधिपति शंकर जी नें रुद्रगणों का गणपति पद पर नियुक्त किया । और निधिपति के पद पर कुबेर को नियुक्त किया जबकि, गणानान्त्वाम्ँ गणपति हवामहे वाले ये गणपति सभी गणों के अध्यक्ष हैं। निधिपति भी हैं, प्रियपति भी हैं अर्थात ये विनायक नही हो सकते। 
मनसात्मा (गणपति) को मन और संकल्प के रूप में समझ सकते है। मन की संकल्प शक्ति के बराबर और विपरीत विकल्प शक्ति भी है। विकल्प भी सृष्टि संचालन में आवश्यक तत्व है। किन्तु विवेक (निश्चयात्मिका बुद्धि) के अभाव में संकल्प की दृढ़ता न होनें पर यही विकल्प पारसी धर्म का शैतान कहलाता है।
आधिदैविक दृष्टि से मन और संकल्प विकल्प का अधिदेवता अन्तरिक्ष में सप्तवीश नक्षत्र में मृगशीर्ष नक्षत्र का स्वामी सोम राजा या वैवस्वत मनु को जाना जाता है। सोम का वास मृगशीर्ष नक्षत्र में है। जैसे श्रोत्रियों/वैदिको के मुख्य देवता नारायण हैं ऐसे ही मिश्र के मुख्य देवता सोम हैं। पिरामिड मृगशीर्ष नक्षत्र की अनुकृति ही है। पिरामिड से मृगशीर्ष नक्षत्र सीधा दिखता है। ऐसा माना जाता है कि, अवेस्ता के होम मूलतः वैदिक देवता सोम ही हैं। सेमेटिक वंश सोमवंश भी कहलाता है। जबकि भूस्थानीय स्वायम्भूव मनु और शतरूपा  (स्वायम्भूव मन्वन्तर के मनु) मन और संकल्प के अधिदेवता हैं।

मन उस कर्म के प्रति अपनें सङ्कल्प विकल्प तैयार कर अगली क्रियाओं के लिये मान्सिकता तैयार कर लेता है। जो रिफ्लेक्स के रूप में प्रकट होती है। 
तब मस्तिष्क की तन्त्रिकाएँ कर्मेन्द्रियों को व्यवहार करनें के सिगनल दे देती है। लेकिन संकल्प चेहरे के हावभाव बदल देता है जिससे देखनें वालों को वह क्रिया कर्म के रूप में समझ आनें लगती है और देखने समझने वाले तदनुसार प्रतिक्रिया करते हैं।
मनसात्मा (गणपति), लिङ्गात्मा (पशुपति) से हुआ। मनसात्मा लिङ्गात्मा के लिए देह के समान है।

८ सर्वमेधयाजी ने लिङ्गात्मा को देखा। और जाना कि, लिङ्गात्मा के अधिदेवता पशुपति हैं।
लिङ्गात्मा भी अङ्गुष्ठ तुल्य,अङ्गुष्ठ आकर के हैं। लिङ्गात्मा को आधिदैविक दृष्टि से पशुपति के नाम से जाना जाता है। हिरण्यगर्भ के प्रथम मानस पुत्र एकरुद्र का तपस्या से जब उत्थान हुआ तब उन्हें पशुपति पद सोपा गया।
लिङ्गात्मा पशुपति को अहंकार और अस्मिता के रूप में समझा जा सकता है। इन्हे आधिदैविक दृष्टि से शंकर और उमा के रूप में जानते हैं; जिनने स्वयम् शक्तियों/ रौद्रियों सहित आदि एकादश रुद्र [(1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली और (11) शम्भु (शंकर))] के रूप में प्रकट किया। ये अधिकांशतः कैलाश पर्वत से टर्की तक, और अफ्रीका महाद्वीप कै उत्तर पूर्व में फैले हुए थे।
(एकादश रुद्र भी कई प्रकार के हैं। इसलिए इन्हे आदि एकादश रुद्र लिखा है।)

अहङ्कार उसमें अहन्ता- ममत्व (मैं - मेरा) जोड़ कर क्रियाओं का स्वरूप में तो कोई परिवर्तन नही करता। किन्तु अहंकार क्रियाओं में अहन्ता - ममता (मैं-मेरा) जोड़कर क्रिया को कर्म में परिवर्तित कर देता है।
कर्म के हेतु, आशय और उद्देश्य के अनुरूप संस्कार बनकर चित्त के स्वरूप में विकृति उत्पन्न करता है। जिसका प्रभाव देही (प्राण) पर भी पड़ता है। जीव के जन्म मृत्यु का कारण ये कर्म ही होते हैं।
लिङ्गात्मा (पशुपति) ज्ञानात्मा (ब्रहस्पति) से हुआ। लिङ्गात्मा (पशुपति), ज्ञानात्मा (ब्रहस्पति) के लिए देह के समान है।
९ सर्वमेधयाजी ने ज्ञानात्मा को देखा। और जाना कि, ज्ञानात्मा अङ्गुष्ठ तुल्य,अङ्गुष्ठ आकर के हैं। 
ज्ञानात्मा का अधिदेवता ब्रहस्पति है। ब्रहस्पति की तीन पत्नियाँ (शक्ति) है - १ शुभा, २ ममता और ३ तारा। 
ज्ञानात्मा को बुद्धि और बोध या बुद्धि और मेधा के रूप में समझा जाता है। आधिदैविक दृष्टि से इन्हे शक्तियों सहित प्रथम अष्ट वसु [(1) प्रभास, (2) प्रत्युष, (3) धर्म, (4) ध्रुव, (5) अर्क, (6) अनिल, (7) अनल और (8) अप् )] के नाम से जाना जाता है।
वसुगण मूलतः प्रथम आदित्यों के सहचारी रहे लेकिन इनकी सन्तान सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैल गई।

ज्ञानात्मा (ब्रहस्पति) विज्ञानात्मा (ब्रह्मणस्पति) से हुआ।
विज्ञानात्मा के लिए ज्ञानात्मा देह के समान है।

१० सर्वमेधयाजी ने विज्ञानात्मा को देखा। और जाना कि, विज्ञानात्मा सुक्ष्मातिसुक्ष्म होकर सम्पूर्ण देह में व्याप्त रहते हैं। विज्ञानात्मा का अधिदेवता ब्रह्मणस्पति हैं। ब्रह्मणस्पति की पत्नी (शक्ति) सुनृता है। 
विज्ञानात्मा को चित्त और चेत या चित्त और वृत्तियों के रूमें समझा जा सकता है। चित्त में ही सारे संस्कार, प्रत्येक घटना अंकित रहती है। अन्तःकरण चतुष्ठय (चित्त, बुद्धि, अहंकार और मन) का यह प्रथम तत्व है।
 आधिदैविक दृष्टि से इन्हे इनकी शक्तियों सहित (प्रथम) द्वादश आदित्य (1) विष्णु, (2) सवितृ, (3) त्वष्टा, (4) इन्द्र, (5) वरुण, (6) विवस्वान, (7) पूषा, (8) भग, (9) अर्यमा, (10) मित्र, (11) अंशु और (12) धातृ) के नाम से जाना जाता है। 
भूमि पर आदित्यों का वासस्थान कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, तिब्बत, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, पश्चिम चीन और युक्रेन तक था। विवस्वान की सन्तान वैवस्वत मनु नें अयोध्या को राजधानी बनाया।
उपनिषदों का महत और सांख्य दर्शन का महत्तत्व (महत् तत्व) चित्त ही हैहृदयस्थ बुद्धि गुहा में अतिसुक्ष्म चित्त का निवास माना जाता है। किन्तु कुछ विज्ञानियों के अनुसार यह तत्व वैज्ञानिक दृष्टि से कोशिकाओं के केन्द्रक (Nucleus) में माना जाता है। क्योंकि, हृदय (Heart) नामक संस्थान केवल मानवादि विकसित जीवो में ही पाया जाता है। हृदय प्रत्यारोपण (Heart replacement) की स्थिति में अन्तःकरण चतुष्टय का क्या होगा? इस प्रश्न का कोई समाधान नही निकलता। 
वस्तुतः ये सब तत्व वैशेषिक के परमाणु अर्थात इलेक्ट्रॉन,फोटॉन आदि मूल कणों का भी मूल परम अणु में स्थित हैं। क्योंकि, तथाकथित जड़ योनियों में भी ये समस्त तत्व होते हैं। मात्रात्मक अन्तर से सक्रीयता और चेतन्य दिखता है। किन्तु कम हो या ज्यादा हो पर होता सभी में है। अर्थात सभी में चित्त होता ही है ।

जबतक चित्त स्थिर है, चित्त में तरङ्ग नही उठ रही तब तक शरीर समाधिस्थ है।
जैसे ही तरङ्गे लहराने लगे/उठनें लगे शरीर जागृत कहलाता है।
तरङ्गे तो है, लेकिन ताल में है तो तन्द्रावस्था। 
तरङ्गे बहूत मन्द मन्द हैं तो निन्द्रा /सुषुप्ति अवस्था। 
यदि तरङ्गे बे तरतीब हो तो अशान्त चित्त होता है। विक्षिप्त कहलाता है।
१० विज्ञानात्मा (ब्रह्मणस्पति) अणुरात्मा से हुआ।

११ सर्वमेधयाजी ने अणुरात्मा को देखा और जाना कि, अणुरात्मा परमाणु तुल्य, परम अणु आकार हैं। आयु एक मन्वन्तर (तीस करोड़, सड़सठ लाख, बीस हजार वर्ष) है।
अणुरात्मा के अधिदेवता वाचस्पति हैं। वाचस्पति की पत्नी (शक्ति) वाक कहलाती है। वाक वाणी से भिन्न तत्व है। वाचस्पति आजानज देव (जन्मजात देवता) हैं। इन्हें "ख" भी कहते हैं।
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, अणुरात्मा वाचस्पति को तेज और विद्युत के रूप में समझते हैं। तेज भी अभिकरण है।
जबतक शरीर में तेज-विद्युत है तबतक शरीर सक्रिय रहता है। 
कुछ विज्ञानियों के अनुसार यह तत्व वैज्ञानिक दृष्टि से कोशिकाओं के केन्द्रक में माइक्रोकोंण्ड्रिया में माना जा सकता है। किन्तु यह मत विश्वसनीय नही है।
तेज- विद्युत के कारण शरीर सक्रिय रहता है। तेज मतलब शरीर की उर्जा। तन्त्रिकाओं में दोड़ने वाले रासायनिक सिगनल भी इसी तेज - विद्युत पर आधारित है।
अणुरात्मा (वाचस्पति) में सुत्रात्मा (प्रजापति) नें स्वयम् को प्रकट किया।

१२ सर्वमेधयाजी ने सुत्रात्मा को देखा और जाना कि, सुत्रात्मा अभिकरण है। सुत्रात्मा प्रथम जीव वैज्ञानिक तत्व हैं। विशाल अण्डाकार हैं। लेकिन शीर्ष चपटे हैं।
सुत्रात्मा को आधिदैविक रूप से प्रजापति कहते हैं। क्योंकि ये जैविक सृष्टि के रचियता हैं। प्रजापति की पत्नी (शक्ति) सरस्वती कहलाती है। प्रजापति भी अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं।
प्रजापति विश्वरूप (अर्थात ब्रह्माण्ड स्वरूप) हैं। इनकी आयु एक कल्प (चार अरब, बत्तीस करोड़, वर्ष) है। प्रजापति देवताओं में सबसे वरिष्ठ होने से पितामह और महादेव कहलाते हैं।
सुचना --- सुत्रात्मा प्रजापति विशाल अण्डाकार हैं। लेकिन शीर्ष चपटे होने के कारण चतुर्मुख कहलाते हैं।
इसलिए पुराणों में कथा है कि, पहले ब्रह्मा के पाँच मुख थे उन्हीं से उत्पन्न रुद्र ने उनका एक सिर काट दिया तो उनके चार सिर रह गये। जबकि हिरण्यगर्भ दीर्घ गोलाकार या लगभग अण्डाकार है इसलिए पञ्चमुखी कहे गए हैं और प्रजापति भी अण्डाकार हैं लेकिन शिर्ष चपटा होने से चतुर्मुखी कहे गए हैं।
ये देवताओं में सबसे वरिष्ठ होने से पितामह और महादेव कहलाते हैं। लेकिन शैवमत में एकरुद्र प्रजापति से पहले उत्पन्न होने के कारण महादेव मानेगये। (बादमें पुराणों में शंकरजी को महादेव कहने लगे।)
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, सुत्रात्मा प्रजापति को समझने की दृष्टि से ओज और आभा (Ora) या रेतधा और स्वधा कहा जाता है।
ओज अभिकरण है। (दुसरा अभिकरण तेज है।)
बुद्धि केवल नापतोल आदि मापन का विश्लेषण कर चित्त को सुचनाएँ देती है। चित्त जब संस्कार रूप तदाकार वृत्ति से तुलना कर निर्णय करता है कि, यह क्या पदार्थ या वस्तु है। तब, तदानुसार ओज निर्णय करता है कि, इसके प्रति क्या प्रतिक्रिया देना है और कार्यादेश का सिगनल तेज को भेजदेता है।
ओज और आभा को आधिदैविक दृष्टि से इन्हें मुख्यरूप से तीन प्रजापतियों की जोड़ी बतलाया गया है।
(1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।
प्रसुति, आकुति और देवहूति भी ब्रह्मा की मानस सन्तान है किन्तु इन्हे स्वायम्भुव मनु-शतरूपा की पुत्री भी कहा जाता है।
सुत्रात्मा (प्रजापति) के स्वरूप में भूतात्मा (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा) ने स्वयम् को प्रकट किया।
प्रजापति के ब्रह्मज्ञानी शिष्य इन्द्र-शचि देवेन्द्र और देवराज हैं। इन्द्र के अधीन (द्वादश) आदित्य गण, (अष्ट) वसुगण, (एकादश) रुद्रगण हैं।
(1) प्रजापति, (2) इन्द्र, (3 से 14 तक) द्वादश आदित्य, (15 से 22 तक) अष्ट वसु तथा (23 से 33 तक) एकादश रुद्र मिलकर तैंतीस देवता कहलाते हैं। कुछ लोग इन्द्रसभा में प्रजापति और इन्द्र के स्थान पर (1) दस्र और (2) नासत्य नामक अश्विनीकुमारों को रखकर इन्द्रसभा के तैंतीस देवता मानते हैं।

(1) प्रजापति अजयन्त देव हैं और इन्द्र आजानज देव है। और शेष इकतीस देवता वैराज देव हैं।
(2) अग्नि-स्वधा - द्यु स्थानी देवता होते हुए भी स्वः में सूर्य, भूवः में विद्युत (तड़ित) और भूः में सप्तज्वालामय अग्नि के रूप में प्रकट होने वाले स्वर्ग अन्तरिक्ष और भू लोक में व्याप्त है।

(3) सप्त पितरः अन्तरिक्ष स्थानी देवता हैं।- 
(1) अर्यमा पितरों के प्रमुख हैं। अर्यमा आदित्य भी हैं।  
(2) अनल कहीँ-कहीँ अग्निक नाम भी आता है। अनल /अग्नि वसु भी हैं। और त्रिलोकी में व्यापक हैं। 
(3) सोम का वास मृगशीर्ष नक्षत्र में है। ये वसु भी हैं। 
(4) यम (यम मनु पुत्र होकर मानवों में प्रथम मरने वाले, मृत्यु के स्वामी के रूप में नियुक्त हैं।) 
(1) अर्यमा, (2) अनल, (3) सोम और (4) यम ये चारों साकार पितरः हैं। इनके अलावा ये तीन निराकार पितर हैं।
(5) अग्निष्वात कहीँ-कहीँ अग्निष्वाताः और कहीँ-कहीँ साग्निक नाम भी आता है,  
(6) बहिर्षद और 
(7) कव्यवाह ये तीनों निराकार हैं।

(4) सोम राजा - वर्चा या स्वायम्भुव मनु- शतरूपा भूलोक के इन्द्र ही हैं, इन्द्र के साथ ही उत्पन्न होते और इन्द्र के साथ ही लय भी होते हैं तथा भूस्थानी प्रजापति भी हैं। स्वायम्भूव मनु की सन्तान मनुर्भरत (राजन्य / क्षत्रिय) कहलाती है। इनका राज्यक्षेत्र यों तो समुचि भूमि ही थी। लेकिन इनका वासस्थान या राजधानी क्षेत्र पञ्जाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू, कश्मीर, राजस्थान, गुजरात, सिन्ध, बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ईरान तक था ।

१३ सर्वमेधयाजी ने भूतात्मा को देखा और जाना कि, भूतात्मा , अधिभूत है, भूतात्मा प्रथम अनुभव गम्य तत्व हैं।
 (सुचना --- कास्मिक सूप से तुलना करें।) 
भूतात्मा हिरण्यगर्भ अति विशाल आकार, दीर्घगोलाकार (लगभग अण्डाकार होने से पञ्चमुखी कहलाते हैं।) 
भूतात्मा के अधिदेवता हिरण्यगर्भ हैं। भूतात्मा हिरण्यगर्भ की आयु दो परार्ध (इकतीस नील,दस खरब, चालिस अरब वर्ष) है। 
हिरण्यगर्भ की पत्नी (शक्ति) वाणी कहलाती हैपुरुषसूक्त के विश्वकर्मा हिरण्यगर्भ ही हैं। हिरण्यगर्भ अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं। ये महादिक हैं। इन्हे "क" भी कहते हैं। 
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, भूतात्मा हिरण्यगर्भ को प्राण और धारयित्व अथवा चेतना और धृति अथवा देही और अवस्था के रूप में जाना जाता है। प्राण भी अधिकरण है।
आधिदैविक दृष्टि से इन्हें त्वष्टा और रचना कहते हैं। त्वष्टा भी अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं। ये ईश्वरीय सत्ता मे मात्र ईश्वर ही कहे जाते हैं। ये भौतिक जगत के रचियता हैं। ऋग्वेद के अनुसार त्वष्टा नें ब्रहाण्ड के गोलों को सुतार की भाँति घड़ा

जो बालक, कुमार, किशोर, युवा, अधेड़ वृद्धावस्था में परिवर्तनशील दिखता है वह प्राण ही देही और शरीरी कहलाता है। शरीर से प्राण (देही) निकल जाने पर वापसी भी सम्भव है। जबतक शरीर में प्राण है तभी तक आन्तरिक शारिरीक क्रियाएँ चलती है। शरीर में संज्ञान रहता है, शरीर सचेष्ट रहता है।

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान (1) त्वष्टा-रचना के अलावा (2) सनक, (3) सनन्दन, (4) सनत्कुमार और (5) सनातन तथा (6) नारद , (7) प्रजापति, और (8) एकरुद्र हैं।
सुचना - इन अर्धनारीश्वर एकरुद्र ने ही कालान्तर में स्वयम् को नर और नारी स्वरूपों में अलग-अलग विभाजित कर शंकर और उमा के स्वरूप में प्रकट किया। बादमें शंकर ने स्वयम् को दश रुद्रों के रूप में प्रकट किया और उमा भी दश रौद्रियों के स्वरूप में प्रकट हुई। ये सब एकादश रुद्र कहलाये। अतःएव एकरुद्र भी प्रजापति आदि के तुल्य हैं और शंकरजी, दक्ष (प्रथम), रुचि और कर्दम आदि प्रजापतियों के तुल्य हुए। एवम् शेष दश रुद्र तो प्रजापति की सन्तानों (मरीचि, भृगु आदि) के तुल्य हुए।
सुचना --- हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के इन मानस पुत्रों के अलावा ग्यारह मानस पुत्र और भी हैं। जिनमें से दो देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा एवम् एक (3) देवर्षि नारद मुनि हैं अविवाहित होने से प्रजापति नहीं हैं।  
प्रजापति से उत्पन्न आठ भूस्थानी प्रजापति ये हैं (4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति। ये सभी ब्रह्मर्षि भूस्थानी प्रजापति हुए। और इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और उनकी पत्नी प्रसुति की पुत्रियाँ थी। इन ब्रह्मर्षियों का वासस्थान ब्रह्मर्षि देश कहलाता है। (ब्रह्मर्षि देश यानी हरियाणा में गोड़ देश अर्थात कुरुक्षेत्र के आसपास का क्षेत्र मालवा प्रान्त) एवम इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण हुए। 
 इन्द्र - शचि और अग्नि - स्वाहा और नारद जी के अलावा निम्नलिखित स्वर्गस्थानी देवगण हुए 
 (12) रुद्र- रौद्री (शंकर - सति पार्वती) - रुद्र मूलतः अन्तरिक्ष स्थानी देवता है लेकिन भूलोक में हिमालय में शंकरजी कैलाश वासी भी हैं।
(13) धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ । (१) श्रद्धा, (२) लक्ष्मी, (३) धृति, (४) तुष्टि, (५) पुष्टि, (६) मेधा, (७) क्रिया, (८) बुद्धि, (९) लज्जा, (१०) वपु, (११) शान्ति, (१२) सिद्धि, (१३) कीर्ति ) ये देवस्थानी प्रजापति हैं। इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की कन्याएँ थी । धर्म द्युलोक का अर्थात स्वर्गस्थानी देवता है। लेकिन भूमि पर कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहाजाता है। इनके अलावा (14) पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति हुए। पितरः ने स्वयम् सप्त पितरों और उनकी शक्ति (पत्नी) को में प्रकट किया। जिनमें से (१) अग्निष्वात (२) बहिर्षद और (३) कव्यवाह तीन निराकार और (४) अर्यमा, (५) अनल (६) सोम और (७) यम चार साकार हैं। अर्यमा इनमें मुख्य हैं।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद बाल ब्रह्मचारी ही रहे। अतः प्रजापति के स्थान पर मुनि और देवर्षि ही कहे जाते हैं।
१३ भूतात्मा (हिरण्यगर्भ) के स्वरूप में जीवात्मा अपरब्रह्म ने स्वयम् को प्रकट किया।

१४ सर्वमेधयाजी ने जीवात्मा को देखा और जाना कि, जीवात्माअधिकरण है। जीवात्मा स्वभाव (स्व भाव) हैं, अध्यात्म हैं, यही महाकाल है। जीवात्मा प्रथम साकार तत्व, महा तरङ्गाकार हैं, जीवात्मा प्रकृति जनित गुणों का भोक्ता होने से गुण सङ्गानुसार योनि में जन्मते हैं। जीवात्मा क्षर हैं। पुरुष सूक्त में उल्लेखित विराट यही है।
जीवात्मा को आधिदैविक दृष्टि से अपर ब्रह्म कहते हैं। जीवात्मा अपरब्रह्म वेद वक्ता हैं
जीवात्मा अपरब्रह्म को अपर पुरुष जीव और आयु त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति के रूप में जाना जाता है। जीव अधिकरण है। (दुसरा अधिकरण प्राण अर्थात चेतना अर्थात देही है।)
जीव और आयु को आधिदैविक दृष्टि से नारायण और नारायणी कहते हैं। ये जिष्णु भी कहलाते हैं मतलब स्वाभाविक विजेता या अजेय भी कहते हैं। ये अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं। ये जगदीश्वर कहे जाते हैं इनको शिशुमार चक्र (उर्सा माइनर) में क्षीर सागर में स्थित बतलाया जाता है। ध्यान मन्त्रों के आधार पर चित्रों में नारायण और नारायणी एक ही कमल पर विराजित बतलाते हैं।

जिसकी आयु निश्चित है वह जीव। जिसके देह त्याग पर शरीर की मृत्यु हो जाती है। निर्धारित आयु जीव की ही विशेषता है। मानव आयु की गणना समय में करता है जबकि प्रकृति आयु गणना श्वाँसों की संख्या में करती है। इसी कारण प्राणायाम के फलस्वरूप धृति वृद्धि (प्राण की धारण करने की शक्ति में वृद्धि) होनें से व्यक्ति दीर्घायु (चिरञ्जीवी) हो जाता है। मृत्यु के तत्काल बाद या तो उर्ध्व लोकों मे या अधो लोकों मे या भूमि पर ही नवीन योनि धारण कर लेता है। यात्रा में अधिकतम बारह दिन लग सकते हैं या अधिकतम दस दिनों तक तक जीव मृतदेह के आसपास रह सकता है और बारह दिन तक भूमि पर रह सकता है। इसलिए रुचि प्रजापति और महर्षि भरद्वाज आदि ने मृत्यु उपरान्त दस दिन का अशोच और बारह दिनों तक श्राद्ध कर्म का नियम बनाए।
१४ जीवात्मा (अपरब्रह्म) के रूप में प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म ने स्वयम् को प्रकट किया

१५ सर्वमेधयाजी ने प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) को देखा और जाना कि, प्रत्यगात्मा अधिष्ठान है। 
प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) को आधिदैविक दृष्टि से ब्रह्म कहते हैं। प्रत्यगात्मा (ब्रह्म) विधाता है, ये ही महा-आकाश है। ये अधिदेव हैं, क्षेत्र हैं। प्रत्यगात्मा ब्रह्म प्रथम सगुण तत्व होने से सर्वगुण सम्पन्न हैं, कालातीत हैं, दृष्टा हैं। 
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, प्रत्यगात्मा ब्रह्म को पुरुष और प्रकृति के स्वरूप में जानते हैं। पुरुष अधिष्ठान है। इन्हें आधिदैविक दृष्टि से सवितृ और सावित्री कहते हैं। लोक में इन्हें श्रीहरि प्रभविष्णु कहते हैं। और कमलासना श्री लक्ष्मी इनकी शक्ति है। ध्यान मन्त्रों के आधार पर इन्हे कमल के अलग-अलग आसन पर विराजित बतलानें की परम्परा है। जबकि कहीं कहीं श्रीहरि लेटे हुए और श्री देवी चँवर डुलाते और लक्ष्मी देवी चरण सेवा करते दिखाया जाता है। 
 श्रीहरि प्रभविष्णु अजयन्त देव (जन्मजात देवता) हैं। ये महेश्वर कहे जाते हैं।
 सुचना - गुण- धर्म, सत्ता, साख, स्थाई सम्पत्ति, भूमि श्री का क्षेत्र है और चल सम्पत्ति रत्न, स्वर्ण, नगदी लक्ष्मी का क्षेत्र है। 

व्यक्तिगत स्वरूप प्रत्यगात्मा यानी अन्तरात्मा।
सर्वमेधयाजी ने जाना कि, प्रत्यगात्मा में (जीवभाव के बजाय) केवल प्रज्ञात्म भाव ही रहे तो प्रत्यगात्मा सद्योमुक्त अवस्था में ही आयु पर्यन्त रहते हुए सद्यो मुक्त ही देह त्यागता है। देह धारण कर आयु समाप्त होने पर जीवादि तत्व अपनें कारण प्रत्गात्मा में लय होजाते है। और प्रत्यगात्मा भी अपनें कारण प्रज्ञात्मा में लीन हो जाता है। अतः पूनर्जन्म की परम्परा का लोप हो जाता है।
किन्तु प्रत्गात्मा का झुकाव यदि जीव की ओर हो जाता है तो संचित कर्मों में से कर्म फल भोग हेतु प्रारब्ध का उदय होकर नवीन योनि में जन्म लेना पड़ता है।
विज्ञान की दृष्टि से समझने हेतु उदाहरण है कि, जैसे क्वाण्टा कण और तरङ्ग दोनों व्यवहार करता है। तरङ्ग रूप में रहे तो जीवन-मुक्त है और कण रूप में रहने पर पुनर्जन्म होता है।

१५ सृष्टिकर्म को आगे बड़ने के क्रम में प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) के रूप में प्रज्ञात्मा परब्रह्म ने स्वयम् को प्रकट किया।

१६ सर्वमेधयाजी नें प्रज्ञात्मा को देखा और जाना कि, प्रज्ञात्मा ही शरीरस्थ आत्म तत्व (वास्तविक मैं) है, अधियज्ञ है, सनातन अक्षर है, कुटस्थ है, परम गति है, निर्गुण है, सर्वव्यापी हैं अतः निराकार है, क्षेत्रज्ञ है।
प्रज्ञात्मा को आधिदैविक दृष्टि से परब्रह्म कहते हैं । 
प्रज्ञात्मा परब्रह्म स्वरूप को परम पुरुष और पराप्रकृति के रूप मे जानते/ समझते हैं। आधिदैविक वचनों में परम पुरुष और परा प्रकृति को ही दिव्य पुरुष विष्णु और माया कहते हैं। ये परमेश्वर हैं। ऋग्वेद और एतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ में विष्णु को परम पद कहा है। और कहा है कि, देवता भी विष्णु परम पद को देखते रहते हैं।

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥ ऋग्वेद 1/22/20

विष्णु लिङ्ग अर्थात विष्णु का प्रतीक चिह्न शालिग्राम शिला है।
विष्णु के हाथ में नियति चक्र है । ऋग्वेदोक्त 90×4 =360 अरों का चक्र है। (चार गुणित नब्बे अर्थात 360अरोंं का संवत्सर चक्र है।) तीनसौ साठ सायन सौर दिनों का संवत्सर ही नियति चक्र कहलाता है।

"चतुर्भि: साकं नवतिं च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतीँरवीविपत्। बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्वभिर्युवाकुमार: प्रत्येत्याहवम् ॥" ऋग्वेद 01/155/06
 यही काल है। (पहले बतलाया जा चुका है कि जीवात्मा अपरब्रह्म को महाकाल कहते हैं। वे यही नियति चक्र हैं।)

सभी तत्वों के कर्म ऋत के अनुसार निर्धारित हैं। वे क्रमानुसार अपने कर्म में प्रवृत्त होते रहते हैं।
प्रज्ञात्मा तो विश्वात्मा में लीन रहती ही है। दृष्टाभाव से प्रत्यगात्मा के साथ रहते हुए भी असङ्ग ही रहती है।

१६ प्रज्ञात्मा परब्रह्म के स्वरूप में विश्वात्मा ॐ ने स्वयम् को प्रकट किया। 

१७ सर्वमेधयाजी ने विश्वात्मा को देखा और जाना कि, परमात्मा में सृष्टि का संकल्प हुआ जो विश्वात्मा है। जो ॐ कहलाता है। विश्वात्मा ॐ के बारे में भी कितना ही विचार किया जाए, व्यक्त किया जाए, कहा जाए सब अपूर्ण ही है। नेति-नेति।
१७ परमात्मा में सृष्टि का ॐ संकल्प हुआ जो विश्वात्मा है। जो ॐ कहलाता है। 

१८ अन्त में सर्वमेधयाजी ने अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मा को देखा और जाना। सर्वप्रथम केवल परमात्मा ही था। परमात्मा ने ही अपने आप को ही सृष्टि के रूप में सृजित किया।
जो सम्पूर्ण सृष्टि में कुछ सोचा जा रहा है, व्यक्त किया जा रहा है, व्यक्त नहीं हो पा रहा है, दृष्य है-अदृष्य है, दृष्ट है-अदृष्ट है, हुआ है, हो चुका है, हो रहा है, होगा, सबकुछ परमात्मा ही है। अतः उसके बारे में न कुछ सोचा जा सकता है, न अभिव्यक्ति की जा सकती है, न कुछ किया जा सकता है। इस कारण वेदों में न इति, न इति अर्थात नेति-नेति कहते हैं।

इस प्रकार सर्वमेध यज्ञ पूर्ण हुआ। और सर्वमेधयाजी आत्मस्वरुप में स्थित हो सद्योमुक्त (सदेह मुक्त) होगये।
ॐ तत् सत्। ॐ तत् सत्। ॐ तत् सत्।

सोमवार, 11 मार्च 2024

धर्म, धर्मकर्म, आत्म साधन,मन्त्र साधना और अध्यात्म।

धर्म, धर्मकर्म, आत्म साधन,मन्त्र साधना और अध्यात्म।
*धर्म, धर्मकर्म, धार्मिक क्रियाएंँ, आत्म साधन, मन्त्र साधना, तन्त्र और अध्यात्म में अन्तर और परम्पर सम्बन्ध।* 

धर्म प्रथम पुरुषार्थ है और मौक्ष अन्तिम पुरुषार्थ है। मौक्ष का साधन रूप अभिन्न हिस्सा धर्म पालन में दृढ़ता ही है।

धर्म का अर्थ — धर्म स्वयमेव साधना है। धर्म पालनार्थ दृढ़ निश्चय के साथ अविचल बुद्धि रखते हुए मनःस्थिति इस प्रकार की रखना आवश्यक है।

१अहिन्सा - क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ),दया, सबको आत्मवत मानकर प्रेम करना, शान्ति, अक्रोध (क्रोध का अभाव ); 
सबको आत्मवत मान समझकर सबको अपने ही समान प्रेम करना, सबके प्रति स्नेह होना, अपने मन, वचन, कर्म, आचरण और व्यव्हार से अपने कारण तथा अपने द्वारा किसीको कष्ट न हो, कोई हानि न हो यह पुर्ण सावधानी रखना,कटुता, और परपिड़न का पुर्ण अभाव होना अहिन्सा है।

२ सत्य - (सद्विचार, सदा सत्य वचन बोलना, सद्व्यवहार, सदाचरण करना, मौन रहनें का स्वभाव और परमात्मा के जिस नियम के द्वारा सृष्टि सृजन, प्रेरण, नियमन, पालन और प्रलय होता है उस नियम यानि ऋत के अनुकूल होकर; यथार्थ, सत्य वचन बोलना- लिखना, प्रकट करना,सत्य भाषण करना, सत्य वक्ता होना, सदाचारी होना, सद्विचार रखना, सद्व्यव्हार ही करना यह सत्य नामक यम है।

३ अस्तेय - (चोरी न करना पराई वस्तु के प्रति आकर्षण नही होना, परायी किसी भी सम्पत्ति तथा परस्त्री का आकर्षण न होना,लोभ न होना अर्थात अलोभ, निर्लोभता,चोरी न करना अस्तैय नामक यम कहलाता है

४ ब्रह्मचर्य - ब्रह्म की और चलनें की प्रवृत्ति, समत्व, आर्जव (सरलता/ सीधापन) के भावों से सदा ओतप्रोत रहना।
 ब्रह्म की ओर चलना, ब्रह्म का मतलब ज्ञान भी होता है, मतलब ज्ञानि होने की ओर अग्रसर होना, वीर्य रक्षण, धृतिवर्धन, परस्त्री को मातृवत समझना होना, स्वपत्नी से भी केवल ऋतुकाल में ही सन्तानोत्पत्ति के निमित्त ही मैथुन करना, निर्वयसनी रहना ब्रह्मश्चर्य नामक यम कहलाता है।
(उक्त प्रकार की मनोवृत्ति होना ही दैवी सम्पदा/ दैवी प्रकृति है।)

४ अपरिग्रह - दान, त्याग भाव; 
सम्पुर्ण सम्पत्ति केवल परमात्मा की ही है यह जान समझकर अपने आधिपत्य की सम्पत्ति पर केवल अपना ही सत्व न मान कर अपने उपभोग के लिये केवल जीवन यापन हेतु अत्यावश्यक चीजें ही उपयोग में लेना, स्वयम् को केवल ट्रस्टी समझकर अपने स्वामित्व और आधिपत्य की सम्पत्ति का व्यवस्थापन करना, यह अपरिग्रह नामक यम कहलाता है।
तथा

६ शोच - (स्वच्छता), पवित्रता ( वाह्याभ्यान्तर शुद्धि, पवित्र भाव ),
 तन, मन,वचन,और कर्मों से पुर्ण स्वच्छ, पवित्र होना, स्वास्य्यवर्धक कर्म करना, प्राण की धारणा शक्ति धृति बढ़ाते रहना करना, धैर्य धारण करना यह शोच नामक नियम कहलाता है।

७ सन्तोष - (ईश्वर प्रदत्त भोगों में सन्तुष्टी का भाव) लेकिन साथ ही अपने सद्कर्मों में लगातार सुधार और गुणवत्ता लानें हेतु तत्परता;
 ईश्वर के दिये और दुसरों के किये से पुर्ण सन्तुष्ट रहना तथा अपने किये को कमतर मान कर निरन्तर सुधार लाना, दुसरों की त्रुटी नजर अन्दाज करना, परदोष दर्शन न करना यह सन्तोष नामक नियम कहलाता है।

८ तप - तितिक्षा (धर्म पालनार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलता में समत्व,बिना कष्ट अनुभव किये प्रतिकूलताएँ सहना), इन्द्रिय निग्रह (मन और दशेन्द्रियों को वश में रखना यानी इन्द्रियों पर ऐसा नियन्त्रण कि, वे आपके निर्देश के बिना विषयों की ओर प्रवृत्त न हो।) अर्थात, शम (इन्द्रिय शमन करना/ शान्त करना), दम (दबाना, इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर स्वैच्छया जाने से रोकना, संयम धारण करना), धृति (धैर्य धारण करना/ दृढ़ता, जिस धारण शक्ति से प्राण देह को धारण करता है उस धारण शक्ति अर्थात धृति को आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार द्वारा बढ़ाना, धैर्य धारण करना ),
 जीव- निर्जीव भूतमात्र की सेवा, इज्या (पञ्चमहायज्ञ सेवन);
अपने कर्त्तव्य पालन में सत्यनिष्ठा पुर्वक जुटे रहनें में किसी प्रकार का कष्ट न मानना, निरन्तर ईश्वर के प्रति पुर्ण प्रेमभाव पुर्वक ईश्वर को ध्यान में रखकर रखते हुए अविरत जगत सेवा में तत्पर रहते हुए जुटे रहना, स्वदेश, अपने राष्ट्र के प्रति पुर्ण निष्ठा, समर्पण, सेवा भाव, राष्ट्रहित में सर्वस्व त्याग भाव, आक्रान्ताओं का समूल नाश करनें हेतु तत्परता यह तप नामक नियम कहलाता है।
(सुचना - पञ्चमहायज्ञ प्रकरण में इज्या पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।)

९ स्वाध्याय (अध्ययन, चिन्तन, मनन, जप, भजन, किर्तन), आत्म विमर्श (मन के अच्छे-बुरे विचारों का मनन करना या निरीक्षण करना।), धी (सद्बुद्धि या प्रज्ञावान होना,स्थित्प्रज्ञ होना), विद्या (यथार्थ ज्ञान होना , बत्तीस विद्याओं और चौसठ कलाओं के साथ परमात्म भाव में सदा स्थित रहना); 
 सत्साहित्य अध्ययन ,चिन्तन, मनन, गुरुमन्त्र का जप करना स्वाध्याय नामक नियम कहलाता है।
(सुचना - पञ्चमहायज्ञ प्रकरण में ब्रह्मयज्ञ में स्वाध्याय पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।)

१० *ईश्वर प्रणिधान* - ईश्वर के प्रति अनन्य भाव से समर्पण होना आदि नियमों के पालन में दृढ़ता होना।
ईश्वर भक्ति, भजन, जप करना, ईश्वर के प्रति पुर्ण समर्पण / पुर्ण समर्पित होना ईश्वर प्रणिधान नामक नियम कहलाता है।

उक्त सत्कर्म तो धर्म है।इनके विपरीत आचरण अधर्म है।

जिसका जीवन उक्त प्रकार से संयमित नियमित हो, वह व्यक्ति धार्मिक कहलाता है। उसका जीवन धार्मिक जीवन है।
 *अधर्म लक्षण उक्त धर्म लक्षण के ठीक विपरीत होते हैं।* 

1 हिन्सा, मान्साहार, दुसरों को पीढ़ा देना,
2 मिथ्याभाषी, दुराचारी,
3 चोर, लोभी,
4 परस्त्रीगामी, वासनामय, दुर्वयसनी,
5 अनावश्यक संग्रह रखकर नकली अभाव पैदा कर लाभ लेनेवाला,
6 गन्दा शरीर, गन्दा सोच, अश्लील विचार वाला,
7 ईश्वर के दिये और दुसरों के उपकार से असन्तुष्ट,
8 आत्म प्रशंसक,प्रवञ्चक, सेवा करने में कष्ट मानने वाला,
9 सत्साहित्य अध्ययन, चिन्तन मनन न करने वाला बल्कि हिन्सक, अश्लील साहित्य में रुचि लेने वाला, दुराचार, हिन्सा,चोरी,डकेती, लूट, बलात्कार करने का चिन्तन करने वाला,
10 सम्पुर्ण जगत में सर्वव्यापी, सर्वव्यापक, सर्वकालिक, परमात्मा के प्रति निस्वार्थ, निष्काम प्रेम और भक्तिभाव न रखते हुए किसी स्थान विशेष पर रहने वाले, एकदेशीय, किसी समय विशेष में ही विद्यमान किसी व्यक्ति के माध्यम से स्वयम् की सेवा, पुजा, भजन, भक्ति करने का उपदेश देनेवाले किसी व्यक्ति/ जीव या वस्तु या स्थान या समय को को ईश्वर, सृष्टि रचियता, प्रेरक, रक्षक, सृष्टि पालक, सृष्टि संहारक, मानकर उससे भयभीत रहने वाला, डरने वाला व्यक्ति अधर्मी कहलाता है। और ऐसे सिद्धान्तों पर चलनेवाले मत , पन्थ या सम्प्रदाय अधार्मिक कहलाते हैं।
दो पेरों पर चलने वाला अधर्मी तो मानव कहलाने योग्य ही नही होता तो उसमें मानवता खोजना बड़े बड़े सन्तों की विशेषता हो सकती है सामान्य मानव की नही।

 *जो धार्मिक नही हो पाया उसका अध्यात्म में प्रवेष सम्भव ही नही है।* 

 *धर्म की व्याख्या -* 

 *सृष्टि हितेशी, प्रकृति के अनुकूल स्वाभाविक कर्त्तव्य पालन के वृत और नियम पालन करना ही धर्म है। इसके कुछ यम और कुछ नियम और कुछ संयम होते है। 
योग शास्त्र में भी पाँच यम और पाँच नियम बतलाये हैं। मनुस्मृति में भी धर्म के दशलक्षण बतलाये हैं।* 
*याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के नौ लक्षण बतलाए गए हैं। राम के आदर्श चरित्र द्वारा वाल्मीकि रामायण में और महाभारत में विदुर नीति के अन्तर्गत ये धर्म धर्म के आठ अंग बतालाए हैं ।*
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड १९/ ३५७-३५८ में धर्म का सार कहा गया है -
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। 

(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।)

मनुस्मृति 06/92के अनुसार धर्म के दश लक्षण बतलाए गए हैं --

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।

अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )। यही धर्म के दस लक्षण है।

याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२ में धर्म के नौ लक्षण बतलाए हैं --

अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌।। (याज्ञवल्क्य स्मृति 
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)

श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध, अध्याय ११ के श्लोक ०८ से १२ में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :

सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। 

महाभारत में विदुर नीति के अन्तर्गत धर्म के आठ अंग बतालाए हैं। 

इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।

पद्म पुराण के अनुसार धर्म लक्षण --
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)

*आधुनिक भाषाओं में नैतिकता के मूलभूत सिद्धान्त कहलाते हैं उनमें से मुख्य और सर्वमान्य सिद्धान्त ये हैं।—* 
*नास्तिक और अनिश्वर वादी -* 
सनातन वैदिक धर्मी वेदों को परम प्रमाण मानते हैं। ईश्वरवादी हो या अनिश्वर वादी हो लेकिन, वेदों को न माननें वाला, वेदों को परम प्रमाण न मानने वाला उनकी दृष्टि में नास्तिक है।  
अर्थात *किसी भी मतावलम्बी की दृष्टि में नास्तिक वह है जो उस मत, पन्थ, सम्प्रदाय में परम प्रमाण के रूप में मान्य धर्म ग्रन्थ को न मानता हो या उस धर्मग्रन्थ को परम प्रमाण न मानता हो। आस्तिक अनिश्वर वादी भी हो सकता है जैसे सांख्य दर्शन या वैशेषिक दर्शन को मानने वाले और नास्तिक ईश्वरवादी भी हो सकता है । नास्तिक ईश्वर निरपेक्ष भी हो सकता है जैसे बौद्ध मतावलम्बी। और नास्तिक अनिश्वर वादी भी हो सकता है जैसे जैन मतावलम्बी।* 

नास्तिकता भिन्न तथ्य है। *नास्तिकता के निम्न प्रकार हैं —*
*1 किसी विशेष सिद्धान्त को न मानने वाला,* 
*2 किसी ग्रन्थ के प्रति आस्था न रखने वाला,*
*3 किसी देव विशेष के प्रति आस्था न रखनेवाला,*
*4 ईश्वर को सृजक, प्रेरक, रक्षक, नियामक और लय करनेवाला (प्रलय करने वाला) न मानने वाला।* 
ऐसे कई प्रकार के नास्तिक कहलाते हैं।

 *अनीश्वर वादी -* 
जबकि, *अनीश्वर वादी केवल वह है जो किसी सृजक, प्रेरक, रक्षक, नियामक और लय करनेवाला (प्रलय करने वाला) न मानने वाले निमित्त कारण में विश्वास नही रखता हो।* 

 *काफिर और मुशरिक -* 
इस्लाम के अनुसार केवल अल्लाह को ही ईश्वर मानना पर्याप्त नही है, इसके साथ मोह मद को अल्लाह द्वारा प्रेषित पेगम्बर मानना भी आवश्यक है। तथा अल्लाह और पेगम्बर मोहमद के समकक्ष किसी को मानना भी प्रतिबन्धित है। ऐसे लोग मुशरिक माने गये हैं।

यहूदी और ईसाई सम्प्रदायों के मत में दो या दो से अधिक ईश्वरों की मान्यता होती है। जैसे परमपिता परमेश्वर और पवित्रआत्मा परमेश्वर आदि।
इस्लाम की दृष्टि से ये मुशरिक हैं।

क्योंकि, इस्लाम के अनुसार उनके ईष्ट अल्लाह के साथ उसके समकक्ष किसी और देवता को मानना भी मुस्लिमों को अस्वीकार्य होती है।

 *धार्मिकता और आस्तिकता/ नास्तिकता। -* 
किन्तु नास्तिकता और अनेक ईष्टदेवों का धार्मिकता और अधार्मिकता से कोई सम्बन्ध या प्रतिवाद नही है। 
धार्मिकता का सम्बन्ध केवल नैतिकता से है। इष्टदेवों या पुस्तकों के प्रति आस्था अनास्था से नही होता।

 *सन्त कौन? -*
*देवीप्रकृति वाले व्यक्ति एवम् आसुरीप्रकृति वाले व्यक्तियों में समभाव रखना, देवता और असुर में समभाव रखना, हिन्सक और अहिन्सक में समभाव रखने वाला सन्त कहलाता है।* 

 *धर्म रहित मानव भी दानव जैसा ही है।* मत, पन्थ , सम्प्रदाय केवल नीजी सन्तोष के लिए होते हैंं,। मत, पन्थ सम्प्रदाय धर्म आधारित ही हो यह अनिवार्य नही है कई मत, पन्थ सम्प्रदाय धर्म विरुद्घ या धर्म विरोधी, अनैतिकता के सिद्धान्त पर आधारित भी हुवे हैं। । धर्म से इनका कोई लेनादेना नही है।
किन्तु *विभिन्न मतों,पन्थों सम्प्रदायों के प्रति निरपैक्ष रहना तटस्थ रहना सामान्य सभ्य मानव की पहचान है।* 

 *साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ।* 
साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ---

 *मूलतः अहिन्सा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अर्थात पञ्च यम की साधना ही आत्म साधन हैं। उक्त साधन के उपसाधन धर्मकर्म अर्थात धार्मिक क्रियाएँ और कर्मकाण्ड हैं।* 
यदि मूल भारतीय धर्म-दर्शन और संस्कृति की बात की जाये तो वह थी *सर्वजन हिताय, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ईश्वरार्पण सौद्देष्य निष्काम सामाजिक कर्तव्य निर्वहन कर्म प्रधान संस्कृति जिसे संक्षिप्त में यज्ञ कहा जाता है।*
*ईश्वरीय कार्यों में सहयोगार्थ वेदों में पञ्चमहायज्ञ की व्यवस्था है।* 

 *पञ्च महायज्ञ -* 
यहांँ पञ्च महायज्ञ के विषय में जानकारी अति संक्षिप्त में बतलाई जा रही है। विस्तार से पञ्चमहायज्ञ विधि जानने के लिए गृह्यसुत्र आदि शास्त्राध्ययन ही उचित है । और संक्षिप्त विधि गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित नित्यकर्म पूजा प्रकाश नामक पुस्तक में देखी जा सकती है।

 *यज्ञ मतलब परमार्थ — परम के लिए। परम के निमित्त। विष्णु के प्रति समर्पित हो, विष्णु के निमित्त, विष्णुअर्पण कर्म।* 
 *पञ्चमहायज्ञ और उनका आषय -* 
 *१ ब्रह्मयज्ञ — संध्या-जप-स्वाध्याय- निधिध्यासन- धारणा, ध्यान, समाधि, अष्टाङ्गयोग, अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन, चिन्तन-मनन, भजन-किर्तन सभी ब्रह्मयज्ञ के अन्तर्गत आते हैं।* अष्टाङ्ग योग- यम,नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ब्रह्मयज्ञ का भाग ही है।
 *वेदाध्ययन - 
*वेद मतलब ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद संहिताओं को वेद कहते हैं।* 
*आरण्यकों और उपनिषद सहित ब्राह्मण ग्रन्थों को भी श्रुति की मान्यता है।*
*उपवेद* 
*१ आयुर्वेद* (मेडिकल साइन्स), 
*२ धनुर्वेद* (अस्त्र-शस्त्र निर्माण एवम् मिलिट्री साइन्स),
*३ शिल्पवेद/ स्थापत्य वेद* सिविल इंजीनियरिंग एवम् आर्किटेक्ट और 
*४ गन्धर्ववेद* संगीत एवम् नाट्य
 ये चार उपवेद है।

 *वेदाङ्ग* ---
१ *कल्प* -- चार प्रकार के सुत्र ग्रन्थों को कल्प कहते हैं। १ *शुल्बसुत्र २ श्रोतसुत्र ३ गृह्यसुत्र और ४ धर्मसुत्र।* 

 *शुल्बसुत्र* - ब्रह्माण्ड के नक्षों/ मानचित्रों की प्रतिकृति अनुसार यज्ञ वेदी और मण्डप निर्माण विधि,  
 *श्रोत सुत्र* - बड़े यज्ञों की विधि, 
 *गृह्यसुत्र* - संस्कार, व्रत, उत्सव विधि, 
 *धर्म सुत्र* - आचरण संहिता/ संविधान हैं। 
धर्मसुत्रों की स्मृतियों को ही मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि कहते हैं। 
*२ ज्योतिष* --- कॉस्मोलॉजी, एस्ट्रोनॉमी एवम् मौसम विज्ञान, 
*३ शिक्षा* -- उच्चारण विधि/ फोनेटिक, 
*४ निरुक्त* --भाषाविज्ञान, शब्द व्युत्पत्ति, 
*५ व्याकरण* - वाक्य रचना। और 
*६ छन्द* -- काव्यशास्त्र या पिङ्गल शास्त्र।
इन छः शास्त्रों को वेदाङ्ग कहते हैं। वेदों का तात्पर्य समझनें के लिए उपवेदों और वेदाङ्गों का ज्ञान आवश्यक है।
 *उपवेद, वेदाङ्ग और ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्म काण्ड भाग की व्याख्या जैमिनी की पूर्व मीमान्सा दर्शन और आरण्यकों- उपनिषदों की व्याख्या उत्तर मीमान्सा दर्शन (षड दर्शनों) में पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा एवम् श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात कर्म मीमांसा भी वेदों के समान ही आदरणीय मान्य है, श्रुति के समान ही आदरणीय है। उक्त समस्त अध्ययन भी वेदाध्ययन कहलाता ही है।* 
 *वेदाध्ययन द्वारा निश्चयात्मक बुद्धि का विकास और विवेक जागृत होनें उपरान्त ही गोतम के न्याय दर्शन,कणाद के वैशेषिक दर्शन, पतञ्जली के योग दर्शन, ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिकाएँ - कपिल के सांख्य दर्शन का अध्ययन करना चाहिए।* ताकि, विभिन्न मत मतान्तर के अध्ययन से मतिभ्रम न हो 
उक्त ग्रन्थों - वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों, उपनिषदों, उपवेदों,वेदाङ्गों, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा सहित षडदर्शनों में ही बत्तीस विद्याएँ , चौसठ कलाएँ, ज्ञान विज्ञान, धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब प्रकार का अध्ययन, मनन, चिन्तन,जप, एवम् अष्टाङ्ग योग के अन्तर्गत यम, नियमों के पालन पूर्वक बहिरङ्ग योग आसन, प्राणायाम के द्वारा धृति वर्धन के साथ प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि (अन्तरङ्ग योग) के माध्यम से मानसिक, बौद्धिक विकास करते हुए चित्त वृत्तियों का निरोध कर देवयज्ञ के द्वारा अहंकार का स्वाहा (स्व का पूर्ण समर्पण) करके नृयज्ञ में मानव सेवा, भूत यज्ञ में बलिवैश्वदेव कर्म करके सर्व प्राणियों, वनस्पतियों, दृष्य अदृश्य जीवन जी रहे दैविक शक्तियों की सेवा और पितृ यज्ञ के माध्यम से हमारे वरिष्ठो, पूर्वजो,पितरों के समाजसेवा, जन सेवा, भूतमात्र की सेवा के संकल्पों को आगे बढ़ाकर पूर्ण करने हेतु पूर्तकर्म करना सम्मिलित था। आगे इनका वर्णन करते हैं।---
 *२ देवयज्ञ* — यह है वैदिक पूजा पद्यति। इनकी शास्त्रोक्त विधि वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों - आरण्यको - उपनिषदों, और श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, शुल्बसुत्रों, धर्मसुत्रों, पूर्व मीमांसा दर्शन- उत्तर मीमांसा दर्शन (ब्रह्मसुत्र) एवम् कर्मयोग शास्त्र (श्रीमद्भगवद्गीता) में अध्ययन किया जा सकता है।
 *देव मतलब प्रकाश स्वरूप/ प्रकाशक। ज्ञान दाता। अतः प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुख - सुविधाओं, सेवाओं का लाभ लेनें के पूर्व, लेते समय और लेनें के बाद उन सेवा-सुविधाओं के अधिष्ठाता अधिकारी देवता का स्मरण कर उनके प्रति स्व का हनन कर स्वाहाकार, हवन करना, अग्निहोत्र, इष्टि आदि।*
*पूजा शब्द का अर्थ सेवा है।*
*यदि आप अपने माता— पिता, और गुरुजनों की सेवा करना चाहते हैं तो सर्वोत्तम तरीका उनके कार्यों में हाथ बंटाना ही होगा।* 
वैदिक धर्म में किसी देवालय या मन्दिर, चैत्यालय, मठ आदि का कोई स्थान नहीं है। न कोई मुर्ति न मूर्ति पूजा की कोई अवधारणा है। बस समर्पित भाव से सेवा ही धर्म है।
*३ नृयज्ञ/ अतिथि यज्ञ* — अतिथि यज्ञ- *अपरिचित, आगन्तुक, गुरुकुल, गुरुकुल के ब्रह्मचारी, सन्यासी, वृद्ध, रोगी, असहाय, असमर्थ की सफाई, जल, भोजन, आवास, दवाई/ चिकित्सा/ शारीरिक सेवा, शिक्षा आदि में योगदान आदि के माध्यम से यथायोग्य सेवा-सहायता करना।* 
*४ भूतयज्ञ* — *मानवेत्तर योनियों, गौ, कुत्ता, काक (कव्वा), चिटियों (पिप्पलिका), जलचर, वनचर, पाल्य पशुपक्षियों, वृक्ष, पैड़-पौधे, गन्धर्व, यक्ष आदि अदृष्य योनियों में जो जीव हैं उनकी जल, भोजन, सफाई आदि से सेवा— सहायता करना।* 
*५ पितृयज्ञ* — *श्राद्ध अर्थात अपने दिवङ्गत माता— पिता, दादा- दादी, परदादा— परदादी, वृद्ध प्रपितामह — वृद्ध प्रपितामही आदि पितृकुल की सात पीढ़ियों, मातृकुल की पाँच पीढ़ियों के दिवङ्गत पूर्वजों की अधूरी— अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिए पूर्तकर्म -सदावृत, अतिथि-गृह, धर्मशाला, विश्रान्ति गृह, विद्यालय, वाचनालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, औशधालय, चिकित्सालय, कुए, तालाब, नहर, बाग-बगीचे, मार्गों के आसपास फलदार और छाँयादार वृक्षारोपण जैसे कार्यों में सहकारिता , सामुहिक योगदान, धन दान, श्रमदान, आवश्यकता अनुरूप वस्तु या सेवा उपलब्ध करवाना।* 
*ताकि, हमारे पूर्वजों ने जिन अभावों को भोगा, जिन कष्टों को सहा वे जिनके लिए तरसे, आगे उनका सामना किसी को न करना पड़े उनकी इस इच्छा की पूर्ति हो सके।* 
यह वास्तविक श्राद्ध है, वास्तविक पितृ यज्ञ है। वास्तविक पूर्तकर्म है। 

यह प्रक्रिया दम्पत्ति के विवाह और गर्भाधान संस्कार से आरम्भ होती थी तो सन्तान के षोडष संस्कार के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण में भलीभाँति स्थापित कर दी जाती थी।
वर्तमान में इसे वैदिक/ आर्य सभ्यता और संस्कृति कहा जाता है। यह मूल भारतीय संस्कृति है। 
इस संस्कृति में गुरुकुल होते थे। समाज के लिए योग्य सक्षम, समर्थ,और योग्य मानव तैयार करना गुरुकुल शिक्षा का लक्ष्य था।
*यह साधन करना या आत्म साधना है। इसमें नेमित्तिक कर्म, अनुष्ठान आदि की आवश्यकता नही है।*
अब आते हैं मन्त्र साधना पर -

*मन्त्र साधना* -
*वेदप्राप्त्यर्थ मन्त्र साधना ब्रह्मचर्य आश्रम में की जाती है।*
*मन्त्र साधना हेतु सर्वप्रथम कृच्छ्र चांद्रायण व्रत किया जाता है। जिसमें अमावस्या को निराहार रहकर प्रतिपदा को आँवले के बराबर एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास ऐसे बढ़ाते हुए पुर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन कर पूर्णाहुति यज्ञ में सम्पूर्ण धन सम्पत्ति योग्य पात्रों को दान कर आश्रम या ग्राम के मध्य में खड़े होकर अपने शारीरिक, मानसिक,और भावनात्मक (अध्यात्मिक) असावधानियों, त्रुटियों, अपराधों का वर्णन कर क्षमा प्रार्थना करना होता है।*
*कुछ लोग अमावस्या से अमावस्या तक कृच्छ्र चान्दद्रायण व्रत करते हैं। उसमें अमावस्या को निराहार रहकर प्रतिपदा को आँवले के बराबर एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास ऐसे बढ़ाते हुए पुर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन कर कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चौदह ग्रास, द्वितीया को तेरह ग्रास कर अमावस्या को निराहार रहकर पूर्णाहुति यज्ञ में सम्पूर्ण धन सम्पत्ति योग्य पात्रों को दान कर आश्रम या ग्राम के मध्य में खड़े होकर अपने शारीरिक, मानसिक,और भावनात्मक (अध्यात्मिक) असावधानियों, त्रुटियों, अपराधों का वर्णन कर क्षमा प्रार्थना करना होता है।
कुछ लोग पूर्णिमा से पूर्णिमा तक करते हैं।
 लेकिन यह मूलतः वानप्रस्थ प्रवेश के पहले किया जाना उचित है।*
*लेकिन वेद प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा से ब्रह्मचारी भी ऐसा व्रत करते थे।*
*तदुपरान्त ही सावित्री मन्त्र (गायत्री मन्त्र) का पुरुश्चरण किया जाता है। पुरुश्चरण की पूर्णता पर पूर्णाहुति यज्ञ में पुनः सर्वस्व दान कर अपराध क्षमा प्रार्थना की जाती है।*
*यह मन्त्र साधना मूलतः सकाम कर्म है। लेकिन वेद प्राप्ति, वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश की योग्यता प्राप्त करने हेतु और वानप्रस्थ आश्रम पूर्ण कर सन्यास आश्रम में प्रवेश करने हेतु आवश्यक है। अतः इसमें सकामता होते हुए भी कोई स्वार्थ और अहन्ता ममता युक्त कर्म न होने और विश्वकल्याण की मानसिकता होनें से दोषपूर्ण और बन्धन का कारण बनने वाला कर्म नही है।*

 *तन्त्र परम्परा* 

*वैदिक मत से ठीक विपरीत तन्त्र मत है।* मठ- मन्दिर इस संस्कृति के ही अङ्ग हैं। वैष्णव, सौर, शैव सम्प्रदाय के तन्त्र आगम के अनुसार ही मन्दिरों में मुर्ति पूजा होती है। *आगमों के अतिरिक्त पुराण इस मत के आदरणीय ग्रन्थ हैं।*
त्रेतायुग के अन्त में यह प्रक्रिया आरम्भ हुई। 
*इसका प्रथम उल्लेख वशिष्ठ - विश्वामित्र युद्ध, जमदग्नि - कार्तवीर्यार्जुन विवाद, रावण द्वारा निकुम्भला पूजन और मेघनाद के तान्त्रिक हवन का वर्णन वाल्मीकि रामायण में आता है। भरत के साथ गये ऋषि जबाली द्वारा नास्तिक बौद्ध मत का प्रवचन सुन श्रीराम के क्रुद्ध होनें का प्रसङ्ग भी है।*
*द्वापर अन्त में भी नेमिनाथ नास्तिक श्रमण मतावलम्बी थे। काश्यप ब्राह्मण द्वारा वृक्ष सुखाकर पुनर्जीवित करनें का उल्लेख है।*
*वैदिक वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों के त्याग पूर्वक निर्वहन में अ

गुरुवार, 7 मार्च 2024

शिवरात्रि कारण और पारण।

शिवरात्रि पर्व का कारण प्रदोष व्रत और शिवरात्रि व्रत साथ होने पर पारण नियम।

 महाभारत और विष्णु पुराण आदि के अनुसार कल्पारम्भ पश्चात और मन्वन्तर आरम्भ के पहले सन्धि काल में अमान्त माघ पूर्णिमान्त फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि (शिवरात्रि) में मध्यरात्रि में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के रोष से अर्धनारीश्वर स्वरूप एकरुद्र या महारुद्र का प्राकट्य हुआ था।
मैथुनिक सन्तान का जन्म होता है और मानस सन्तान का प्रकटीकरण प्राकट्य कहलाता है। इसलिए इसे जयन्ती नहीं कहते हैं।
नारायण द्वारा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी को सृष्टि सृजन का दायित्व सोपा था। जिसको प्रारम्भ करने का कोई सुत्र हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी को नहीं मिल रहा था। तब उन्हें रोष हुआ और भृकुटी टेड़ी हो गई। उस वक्र भृकुटियों के मध्य से एकरुद्र/ महारुद्र प्रकट हुए।

इसे वैज्ञानिक भाषा में यूँ समझ सकते हैं कि,कि, हिरण्यगर्भ नामक दीर्घ गोलाकार अण्डाकार सूर्य जैसे गोले में विक्षोभ हुआ और एक टुकड़ा प्रथक हो गया।

आज दिनांक 08 मार्च 2024 शुक्रवार को ही प्रदोष व्रत भी है और शिवरात्रि व्रत भी है। 
प्रदोष व्रत में सूर्यास्त से लगभग दो घण्टा चौबीस मिनट के अन्दर ही भोजन कर पारण करना होता है। लेकिन,  
शिवरात्रि का व्रत दूसरे दिन सूर्योदय पश्चात पूर्ण होता है। तत्पश्चात ही चतुर्दशी तिथि में ही या चतुर्दशी तिथि सूर्योदय के पहले समाप्त हो जाए तो अमावस्या तिथि में प्रातः काल (सूर्योदय से सूर्योदय पश्चात दिनमान का पाँचवा भाग अर्थात लगभग 02 घण्टे 24 मिनट तक) में भोजन कर पारण करना होता है।
इस वर्ष यह धर्म संकट है कि, प्रदोष व्रत कर्ता पारण कैसे करें?
उपाय यह है कि, चूंकि दोनों व्रत एक ही देवता अर्थात रुद्र देव से सम्बन्धित हैं अतः दिन में निराहार रहकर सूर्यास्त पश्चात सूर्यास्त से रात्रिमान का पाँचवा भी अर्थात लगभग 02 घण्टे 24 मिनट के अन्दर प्रदोषकाल में कोई फलाहार लेकर प्रदोष व्रत का पारण करें और उसके पश्चात पुनः निराहार रहकर कल शनिवार को सूर्योदय पश्चात प्रातः काल में चतुर्दशी तिथि में शिवरात्रि व्रत का पारण करें। जब दुसरे दिन सूर्योदय पूर्व ही चतुर्दशी तिथि समाप्त हो जाए तो ही अमावस्या तिथि में सूर्योदय में शिवरात्रि व्रत का पारण करें।
यह नियम केवल एक ही देवता के दो व्रत एक के बाद एक लगातार आने पर ही लागू होगा।
सब जगह नहीं।
यथा एकादशी व्रत और प्रदोष व्रत में लागू नहीं होता है।

विशेष ---
पुराणों की भाषा रूपकात्मक है।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा दीर्घ गोलाकार सूर्य जैसे हैं। गोले के सभी ओर (चारों ओर) मुख होता है। लेकिन अण्डाकार में एक मुख उपर की ओर भी उभरा रहता है। अतः वह पञ्चमुखी हो गया। इससे निकलने वाले एकरुद्र की आकृति भी अण्डाकार है। लेकिन नील लोहित द्विरङ्गी है इसलिए अर्धनारीश्वर हो गया। नील भाग नर का और लोहित (रोहित) या लाल भाग नारी का माना गया।
हिरण्यगर्भ से ही निकले प्रजापति नामक अण्डाकार गोला निकला लेकिन उसके शीर्ष चपटे थे, इसलिए उन्हें चतुर्मुख माना जाता है और कहा गया कि, रुद्र ने ब्रह्मा जी का एक सिर काट दिया। साथ ही उन्हें हमेशा कमल पर बैठा हुआ ही बतलाते हैं। (निचला भाग भी चपटा है ना, इसलिए।) इसके लिए कथा रची कि, रुद्र नें ब्रह्मा के पाँच मुख देखे तो एक गर्दन काट दी। या सद्योजात मुख से ब्रह्मा वेद निन्दा करने लगे तो रुद्र ने ब्रह्मा का उपरी सिर काट दिया। या हिरण्यगर्भ *ब्रह्मा* के पुत्र प्रजापति *ब्रह्मा* के साथ ही प्रकट उनकी शक्ति (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की पुत्री) सरस्वती के प्रति प्रजापति ब्रह्मा को आकर्षित होते देख रुद्र ने प्रजापति ब्रह्मा का उपरी सिर काट दिया। ब्रह्मा का पुत्र ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ *ब्रह्मा की पुत्री सरस्वती* । *प्रजापति ब्रह्मा की बहन सरस्वती* । प्रजापति *ब्रह्मा की शक्ति (पत्नी) सरस्वती।* 
 दक्ष प्रजापति का शिरोच्छ भी इसी कथा का रूपान्तर है।
नृसिंह पुराण में तो नारायण ब्रह्मा लिखा है।
मतलब नारायण ब्रह्मा-नारायणी से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा-वाणी, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा-वाणी से प्रजापति-सरस्वती।
तीनों ब्रह्मा है। (स्वाभाविक ही है। पिता का सरनेम पुत्र को मिलता ही है।😁) लेकिन तीनों की पत्नी अलग-अलग है। 
ऋग्वेद में ऋचा है, जिसके अनुसार उषा के पीछे-पीछे सूर्य दोड़ा।
मृगशीर्ष नक्षत्र के तीन तारे (हिरणी) के पीछे-पीछे व्याघ का तारा (रुद्र) शिकार करने दोड़ा। 
जिसे रातभर बिल्वपत्र के वृक्ष पर बैठे शिवपुराण के व्याघ (शिकारी) ने रातभर आकाश में व्याघ तारे को मृगशीर्ष नक्षत्र का पीछा करते हुए देखा देखा। (क्योंकि उस समय सूर्य व्याघ तारे और मृगशीर्ष नक्षत्र से १८०° पर था। निरयन धनु ०१° से निरयन धनु २०° पर अर्थात मूल-पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र पर था) और दिनभर से भूखे व्याघ/ बहेलिए नें रात में चारों प्रहर में एक-एक बार मुख मार्जन किया और बिल्वपत्र तोड़ कर नीचे मिट्टी के टीले पर गिराता गया। तो भोले शंकर समझे यह मेरे प्रकटीकरण दिवस शिवरात्रि पर शिवलिङ्ग पर जल चढ़ाकर बिल्वपत्र अर्पित कर मैरी पूजा उपासना कर रहा है। अतः उस बहेलिए पर प्रसन्न होकर उसे दर्शन देकर वरदान देकर अपना गण बना लिया।
पौराणिकों को इनका भाव स्पष्ट करना था, तो कहानी रच दी।

बुधवार, 6 मार्च 2024

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को संवत्सर का प्रथम दिन मानना मतलब निरयन गणना स्वीकारना है।

चैत्र को प्रथम मास और संवत्सर का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मानना मतलब चित्रा तारे को भचक्र के १८०° पर मानना। और चित्रा तारे को भचक्र के १८०° पर मानना मतलब निरयन गणना को स्वीकारना।
क्योंकि निरयन गणना का आधार ही वैदिक संहिताओं में चित्रा तारे को भचक्र के १८०° पर अर्थात मध्य में होने का वचन है।

रविवार, 3 मार्च 2024

सावित्री मन्त्र के अलावा सूर्य को अर्घ्य देने का मन्त्र

गायत्री मन्त्र से सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। इसके अलावा इस मन्त्र से भी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
मन्त्र और उसका अर्थ यह है।
 ॐ एहि सूर्य! सहस्त्रांशो! तेजो राशे! जगत्पते!
 अनुकम्प्यं मां भक्त्या गृहाणार्घ्य दिवाकर। 
 ॐ घ्रणि सूर्याय नमः।
 
अर्थ- *ॐ एहि सूर्य, सहस्त्रांशो, तेजो राशे, जगत्पते,* 
 *अनुकम्प्यं मां भक्त्या गृहाणार्घ्य दिवाकर।*
का अर्थ ---
*हे सहस्त्रांश (हे हजारों किरणों वाले)! हे तेज पुञ्ज! हे जगतपति! मुझ पर अनुकम्पा करें। मेरे द्वारा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक दिए गए इस अर्घ्य को स्वीकार कीजिए, आपको बारंबार शीश नवाता हूँ।* 

सूर्य की उपासना करने वाले जातक नित्य प्रातः तांबे के लोटे में शुद्ध जल भर लें। फिर सूर्य देवता के सम्मुख खड़े होकर दोनों हाथों से लोटे को ऊंचा उठाकर अर्घ्य देना चाहिए।