प्रथम पूज्य कौन? अग्नि, ऋषि,आचार्य, गुरु, देवगणाधिपति इन्द्र, गणराज्य का गणपति, रुद्र गणाधिपति शंकर या रुद्रगणपति विनायक गजानन कौन प्रथम पुज्य है ?
प्रथम पुज्य अग्नि ---
वेदिक परम्परा में अग्नि प्रथम पुज्य हैं। ऋग्वेद के दसों मण्डलों में प्रथम सुक्त के देवता अग्नि हैं। अग्नि ही प्रथम आह्वानीय देवता है। आज भी सभी कर्मों के आरम्भ में दीप प्रज्वलित किया जाता है। अग्नि देवताओं के पुरोहित भी मानें गये हैं।
अग्नि के बाद ही इन्द्र का आह्वान होता है।
ऋषि, आचार्य या गुरु की प्रथम पुज्यता ---
स्मार्त परम्परा में आचार्य / ऋषि यानि गुरु को प्रथम पुज्य माना गया।
प्रत्येक वैदिक सुक्त और मन्त्र के ऋषि को सर्वप्रथम स्मरण करना प्रथम पुज्य गुरु/आचार्य या ऋषि को मानने का प्रमाण है।
प्रत्येक यज्ञ का आरम्भ किसी ऋषि को आचार्य वरण कर होता था।
पौराणिक परम्परा में भी सत्गुरु परमपूज्य और प्रथमपूज्य है।
महाभारत काल में युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में या तत्कालीन महापुरुषों में या उपस्थित महापुरुषों में जो पुरुषोत्तम हो उन्हें प्रथमपूज्य माना गया। इसी आधार पर योग्य गुरुजनों की सम्मति से युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की सर्वप्रथम पूजा की।
इसके बाद वैदिक वाक्य मात्र देवो भव, पित्र देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवोभव के आधार पर माता-पिता की पूजा का उदाहरण विनायक गजानन द्वारा नारदजी का उपदेश मानकर माता-पिता की प्रदक्षिणा करनें पर गणनायक का पदभार सोपने की कथा में मिलता है। दूसरा उदाहरण तुलसीकृत रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड की एक कथा के अनुसार काकभुशुण्डि जी को किसी जन्म में गुरु को प्रणाम किये बिना शिवलिङ्ग पूजा करने पर साक्षात शंकरजी ने रुष्ट होकर सर्प होने का शाप देना और फिर उस उनके गुरु ने स्वयम् भगवान शंकर की रुद्राष्टक द्वारा स्तुति कर शंकरजी को प्रसन्न कर शिष्य को क्षमादान दिलवाने की कथा भी गुरु की प्रथम पुज्यता का प्रमाण है। और तुलसीदासकृत हनुमान चालीसा की प्रथम पङ्क्ति श्रीगुरुचरण सरोज रज .... मध्यकाल तक गुरु की प्रथम पुज्यता का उदाहरण/ प्रमाण है।
श्रमण संस्कृति में सद्गुरु ही प्रथम पुज्य है। श्रमण संस्कृति में भी विशेषकर दत्त सम्प्रदाय में सत्गुरु या गुरु को ही मुख्य पुज्य और प्रथम पुज्य माना जाने लगा।
प्रजापति की प्रथम पुज्यता ---
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान प्रजापति हुए। आदि प्रजापति से ही -द्युलोक में इन्द्र-शचि, अग्नि-स्वाहा, भुवःलोक में अर्धनारीश्वर महारुद्र, पितृगणों के मुख्य अर्यमा-स्वधा तथा भूलोक में दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, रूचि प्रजापति-आकुति, कर्दम प्रजापति-देवहूति, स्वायभ्भुव मनु-शतरूपा हुए।
राज्यों की उत्पत्ति के पहले प्रत्येक कुल के कुलपति को प्रजापति के रुप में प्रथम पुज्यता थी। गोत्रोच्चार केरुप में यह परम्परा जीवित है। अन्य उदाहरण - अग्रवालों में अग्रसेन महाराज कुल के कार्यों में प्रथम पुज्य हैं।
देवगणाधिपति इन्द्र की प्रथम पुज्यता ---
कुछ यज्ञों में, देवगणों के अधिपति (गणपति) इन्द्र को प्रथम स्थान मिला। राजसूय यज्ञ में राजा को उच्च आसन दिया जाता है। पुरोहित को द्वितीय स्थान प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण के समय वर्षाऋतु के आरम्भ में इन्द्र पूजा होती थी। जो आज भी उज्जयिनी के नाम से वन रसोई के रुप में प्रचलित है।
गणपति की प्रथम पुज्यता---
गणराज्य के राष्ट्राध्यक्ष अर्थात गणपति की प्रथम पुज्यता। ----
राज्यों की उत्पत्ति महाराज प्रथु से मानी गई है। यह परम्परा राज्यों कि उत्पत्ति के साथ ही प्रचलित है। समस्त राजकार्य में राष्ट्राध्यक्ष/ राजा को प्रथम स्थान प्राप्त है।
गणराज्यों के गणों अर्थात प्रदेशों के प्रमुख (राज्यपाल) को गणपति और गणराज्य के राष्ट्राध्यक्ष को भी गणाधिपति कहा गया है। आज भी राज्यों के समस्त कार्य राज्यपाल के नाम से और भारत गणराज्य के सभी कार्य भारत के राष्ट्रपति (गणाधिपति) के नाम से ही होते हैं।
रुद्रगणाधिपति शंकरजी की प्रथम पुज्यता ---
परवर्ती शैव परम्परा में शंकर भगवान द्वारा रुद्रगणों के गणाधिपति पद विनायक गजानन को सोपने के बाद विनायक गजानन को श्रीगणेश के रुप में प्रथम पूज्य माना जाने लगा हैं।
वर्तमान परम्परानुसार विनायक गजानन की प्रथम पुज्यता ---
इस प्रसङ्ग में कुछ मतभेदों पर प्रकाश डालना समीचीन है।---
1 उल्लेखनीय है कि,पहले कबिलों को गण कहते थे और कबिलों के सरदार को गणपति कहते थे।
एक ही क्षेत्र के अन्तर्गत आनेवाले सभी कबिलों अर्थात गणों के सरदार को गणाधिपति कहते थे।
सभ्यजनों/ नागरिकों में गणराज्यों के नायक गणपति कहलाते थे। तदनुसार भारत गणराज्य के गणपति भारत मे प्रथम पुज्य हैं।
2 पहले रुद्रगणों के और प्रमथ गणों के गणपति और मीढीश का पद भगवान शंकर जी के पास था। सम्भवतया उस समय निधिपति का पद भी शंकरजी के पास ही था। जो उनने अपने मित्र यक्ष कुबेर को सोप दिया।
कामदेव के प्रियपति हो जाने पर कामदेव से रुष्ट होकर उन्हें भस्म कर दिया। उनका पुनर्जन्म भी श्रीकृष्ण-रुक्मिणी पुत्र अनिरुद्ध के रुप में हुआ।
रुद्रगण यज्ञयाग में और सामाजिक कार्यक्रमों में विघ्न उत्पन्न करते थें। चौथ वसुलते थे। जैसे आजकल वृहन्नला वसुलते हैं। तब डर के मारे समाज ने सर्वप्रथम इनको बुलाकर संन्तुष्ट करनें के बाद कार्यक्रम आरम्भ करने लगे। शीतला पूजन और गणपति पूजन, पितृ पूजन के बाद, शुभकार्यारम्भ इसी का परिष्कृत रूप है।
3 महाभारत शान्तिपर्व/ मौक्षपर्व/ज्वर उत्पत्ति/अध्याय 283 के अनुसार प्रचेताओं के पुत्र दक्ष (द्वितीय) द्वारा कनखल में किये जा रहे यज्ञ में को शंकरजी को नही बुलानें के विषय में पार्वतीजी के प्रश्न पर शंकर जी नें सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित परम्परा अनुसार दक्षयज्ञ में रुद्र को यज्ञभाग न देने को उचित ठहराया था। किन्तु दक्ष द्वितीयके यज्ञ में पार्वतीजी ने शंकरजी के साथ आकर विरोध किया।
फिर शंकरजी की आज्ञा से वीरभद्र और काली के नैत्रत्व में दक्षयज्ञ विध्वंसक किया गया। फलस्वरूप ब्रह्माजी ने रुद्र को भी यज्ञभाग देनें की नवीन व्यवस्था की। वास्तोष्पति पूजा, अहनस्पति, और क्षेत्रपाल बली की व्यवस्था इसी का परिणाम है।
4 महाभारत से विपरीत, शिवपुराण आदि शैव पुराणों की सर्वविदित और प्रचलित कथा के अनुसार ---
प्रचेताओं के पुत्र कनखल के राजा दक्ष प्रजापति (द्वितीय) (और वीरण प्रजापति की पुत्री असिक्नी) की पुत्री सती शंकरजी की प्रथम पत्नी थी। जिसने दक्षयज्ञ में रुद्रभाग न देनें के विरोध में स्वयम् की देह को यज्ञाग्नि में भस्मीभूत कर लिया। फिर शंकरजी सती के भस्मीभूत शव को लेकर विक्षिप्त की भाँति विचरने लगे तो भगवान विष्णु नें चक्र से सती की भस्मीभूत देह के एक्कावन टुकड़े कर डाले तब शंकरजी का मोह भङ्ग हुआ। जहाँ जहाँ सती के अलग-अलग अङ्ग गिरे वहाँ वहाँ शक्तिपीठ स्थापित किये गये।
(शंकर भगवान सती की भस्मीभूत देह को उठाकर घूमना और भगवान विष्णु द्वारा 51 टुकड़े करना आदि कथन समझ से परे है।)
बादमें सती का पुनर्जन्म हिमाचल और मैनावती की पुत्री उमा पार्वती के रूप में हुआ। और कामदेव द्वारा शंकरजी को समाधि से उठाने पर शंकरजी द्वारा कामदेव को भस्मकर दिया था।
बादमें शंकरजी ने पार्वती से विवाह किया और तन्त्र मार्ग की उत्पत्ति की एवम् पार्वतीजी से कार्तिकेय का जन्म हुआ। पार्वतीजी नें विनायक को उत्पन्न किया। शंकरजी ने विनायक का शिरोच्छेदन कर दिया। फिर पार्वतीजी के कहने पर विनायक के धड़ पर हाथी के बच्चे का सिर लगाकर पुनर्जीवित किया। तब वे गजानन कहलाये। (शंकरजी नें विनायक का सिर वापस नही लगाकर किसी मानवीय शरीर पर हस्तिमुख प्रत्यारोपण जैसा असम्भव कार्य करना भी समझ से परे है।)
उत्तराधिकारी परिक्षा में विनायक नें नारदजी की राय मानकर माता-पिता की परीक्रमा कर पृथ्वी परीक्रमा के तुल्य बतलाने के चातुर्य से प्रसन्न होकर शंकरजी ने अपना रुद्रगणाधिपति का पदभार प्रमथेश विनायक गजानन को सोप दिया। और ऋद्धि सिद्धि से उनका विवाह कर दिया। रुष्ट कार्तिकेय दक्षिण में प्रस्थान कर गये।
5 इसी कथा में एक बात और जोड़ी जाती है कि, सती द्वारा दक्षयज्ञ में स्वयम् को भस्मीभूत करनें का कारण ---
पौराणिक कथा जिसका उल्लेख रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने भी किया है उसके अनुसार---
रामचरितमानस के बालकाण्ड (दोहा 52 से) में माता सती नें श्रीराम की परीक्षा लेने हेतु माता सीता का रूप धारण कर श्रीराम की परीक्षा की। फलतः भगवान शंकर ने सती देवी का मानसिक त्याग कर दिया।
इससे विचलित सतीमाता नें अपने पिता एवम् प्रचेताओं के पुत्र दक्ष (द्वितीय) द्वारा कनखल में किये जा रहे यज्ञ में अकेले जानें का निश्चय किया। और शंकरजी को न बुलानें और रुद्र को यज्ञभाग न देनें के विरोध में यज्ञाग्नि में जलकर प्राणत्याग दिया। कुछ काल बाद सतीजी का पार्वतीजी के रूप मे दुसरा जन्म हुआ। जिससे कार्तिकेय और विनायक गजानन जन्मे।
इस कथा के अनुसार विनायक का जन्म द्वापर युग में हुआ। तो विनायक गजानन की प्रथम पुज्यता वर्तमान द्वापर के पहले सम्भव नही है।
वैसे उक्त दोनों ही पौराणिक कथाएँ अप्रामाणिक हैं। पाठक ही स्वविवेक से निर्णय करेंगे।
अग्नि को आचार्य रुप में भी मान्यता है। तदनुसार प्रथम पुज्य तो अग्नि ही हुए।
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