गुरुवार, 29 जुलाई 2021

धर्म, धर्मराज, मार्तण्ड, यम और मृत्यु का मृत्यलोक से सम्बन्ध।

धर्म, धर्मराज, मार्तण्ड,  यम  और मृत्यु  का मृत्यलोक से सम्बन्ध।

दक्ष प्रथम और उनकी पत्नी प्रसुति का जोड़ा,मरीचि और धर्म तीनों ही  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान थे। 

प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान दक्ष प्रथम और उनकी पत्नी प्रसुति का जोड़ा  हुआ।
दक्ष प्रथम और उनकी पत्नी प्रसुति की चौवीस कन्या सन्तान हुई।

धर्म नामक देवता प्रजापति  ब्रह्मा जी के मानस पुत्र  हैं। ये देवस्थानी प्रजापति हैं भूमि पर धर्म का क्षेत्र धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र था।
 दक्ष प्रथम और प्रसुति की चौवीस कन्याओं में से तेरह पुत्रियाँ धर्म की पत्नी हैं।  धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ । (1 श्रद्धा,2 लक्ष्मी, 3 धृति, 4 तुष्टि, 5 पुष्टि, 6 मेधा, 7 क्रिया,8 बुद्धि, 9 लज्जा, 10 वपु, 11 शान्ति,12 सिद्धि,13 कीर्ति ) ये देवस्थानी प्रजापति हैं। इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की कन्याएँ थी ।धर्म की पत्नियों (दक्ष पुत्रियों) की सन्तान-
1 श्रद्धा से काम।काम की पत्नी   रति से हर्ष हुआ ।
2 चला ( लक्ष्मी) से दर्प।
3 धृति से नियम।
4 तुष्टि से सन्तोष।
5 पुष्टि से लोभ।
6 मेधा से श्रुत।
7 क्रिया से दण्ड, नय और विनय।
8 बुद्धि से बोध।
9 लज्जा से विनय।
10 वपु से व्यवसाय।
11 शान्ति से क्षेम।
12 सिद्धि से सुख।
13 कीर्ति से यश हुआ।

महर्षि मरीचि भी प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान थे। प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र  दक्ष प्रथम और प्रसुति की पुत्री  सम्भूति का विवाह मरीचि से हुआ। मरीचि और उनकी पत्नी सम्भूति  के पुत्र महर्षि कश्यप हुए।  

प्रचेताओं के पुत्र  दक्ष (द्वितीय) थे। एवम् वरुण के वंशज वीरण प्रजापति की पुत्री असीक्नि दक्ष (द्वितीय)की पत्नी थी। उनकी साठ पुत्रियों में से तेरह पुत्रियों का विवाह महर्षि कश्यप से हुआ।
महर्षि कश्यप नें कश्यप सागर (केस्पियन सागर) से कश्मीर तक कई स्थानों पर तप किया । 
महर्षि कश्यप नें कश्यप सागर से कश्मीर तक के भिन्न भिन्न स्थानों पर  अलग - अलग पत्नी से अलग अलग सन्ताने उत्पन्न की। ये सन्तानें विभिन्न प्रजातियों की आदि पुरुष कहलाई।

महर्षि कश्यप की इन सन्तानों से ही अलग अलग संस्कृतियाँ उत्पन्न हुई। इतिहास में ये सब सभ्यता/ संस्कृतियाँ सिथियन नाम से जानी जाती है।

कश्यप - अदिति के पुत्र द्वादश आदित्य  हुए। द्वादश आदित्यों में विवस्वान और विश्वकर्मा त्वष्टा भी हैं। विश्वकर्मा त्वष्टा और रचना की पुत्री सरण्यु  है।सरण्यु का विवाह विवस्वान से हुआ।

 विवस्वान और सरण्यु की सन्तान यम और यमी (यमुना नदी) हुई। यम का क्षेत्र दक्षिण पश्चिम ईरान में था। तथा
विवस्वान और सरण्यु  के ही पुत्र श्राद्धदेव (सातवें और वर्तमान मनु) वैवस्वत मनु कहलाते हैं।उनकी की पत्नी श्रद्धा है।

सरण्यु की ही छाँया विवस्वान की दुसरी पत्नी  कही गई है। उनकी सन्तान  शनि और मान्दी (भद्रा) हैं। (कुछ स्थानों पर मान्दी और भद्रा अलग अलग मानी गई है।)

सरण्यु का ही तीसरा रूप अश्विनी के विवस्वान से  दस्र और नासत्य नामक दो पुत्र हुए जो अश्विनी कुमार कहलाते हैं।

यम, यमी (यमुना), शनि, मान्दी, भद्रा, दस्र और नासत्य ये सब वैवस्वत मन्वन्तर में जन्मी प्रथम सन्तान  कहलाते हैं।

दक्ष (द्वितीय) और असीक्नि  पुत्रीअदिति से महर्षि कश्यप की आठ सन्तान और हुई वे अष्टादित्य कहलाती है। 
इन अष्टादित्यों में से एक मार्तण्ड हमारे सुर्य देव हैं। मार्तण्ड के प्रकाश सेआलोकित लोक मृत्युलोक कहलाता है।
 मृत्यलोक के शासक को धर्मराज कहते हैं। जिनके पास राजदण्ड के रूप में  उनकी शक्ति मृत्यु रहती है।
यम की मृत्यु सर्वप्रथम हुई। धर्म नें सर्वप्रथम मरनें वाले यमराज को मृत्यु उपरान्त धर्मराज  के पद पर अभिषिक्त किया। अर्थात मृत्यलोक का शासक धर्मराज के पद पर नियुक्त किया। उनके सहायक चित्रगुप्त जी हैं।
इस प्रकार धर्म, धर्मराज (यम), और चित्रगुप्त तीनों अलग अलग देवता हैं।

यम धर्मराज के रूप में धर्मपुर्वक मृत्यलोक पर शासन करते हैं। उनकी शक्ति मृत्यु है। उनके वाहन का आकार प्रकार (डिजाइन) महिष (भेंसे) के समान है। उनके शस्त्र मृत्युपाश और गदा है।

सोमवार, 26 जुलाई 2021

शरीर आपके पास ईश्वर की धरोहर है, उत्तरदायित्व है। भोग साधन नही।

शरीर आपके पास ईश्वर की धरोहर है, उत्तरदायित्व है। भोग साधन नही।
यह कहनें का अधिकार मुझे भी नही है, मेने भी शरीर के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन कभी नही किया। किन्तु इस विषय में सबको सचेत करना मेरा दायित्व है। ताकि मेरी गलती अन्य कोई न दुहराए।
ऋत के अनुकूल जो और जैसा भी शरीर आपको मिला है उसे  अष्टाङ्गयोग यम नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा ध्यान, समाधि के द्वारा स्वस्थ्य, सुघड़, और सुरूप बनाना ही चाहिए। तथा पञ्चमहायज्ञ द्वारा अन्तःकरण शुद्धि कर स्वस्थ्य देह, स्वस्थ्य अन्तःकरण, स्वस्थ्य अधिकरण, स्वस्थ्य अभिकरण के बल पर ही आप स्वस्थ (आत्मस्थ) हो सकते हो। विवेक जाग्रत हो सकता है और स्थितप्रज्ञ हो सकते हो। ताकि, निर्वाण के बाद कैवल्य और कैवल्य के  उपरान्त सद्योमुक्ति हो सके।

व्रतपर्वोत्सव सायन सौर वर्ष,मास, वर्तमानांश से और सायन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष मास तिथि, करण के अनुसार ही मनाया जाना चाहिए।

केवल सायन सौर वर्ष मास ही मौसम आधारित हैं। और  हमारे सभी व्रत, पर्व और उत्सव (त्योहार) भी मोसम आधारित ही हैं। अतः  सायन सौर वर्ष मास और वर्तमानांश एवम् सायन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष मास तिथि एवम् अर्धतिथि (करण) को आधार मानकर तदनुसार ही व्रतपर्वोत्सव मनाया जाना चाहिए।

 इसके ठीक विपरीत निरयन सौर वर्ष , मास मौसम आधारित नही है। बल्कि आसमान में ताराओं की स्थिति दर्शाने के ही लिए उपयुक्त है। अतःएव निरयन सौर गणना आधारित 19, 122 और 141 वर्षीय चक्र वाला चान्द्रवर्ष तथा चैत्रादि मास का मौसम से किंचितमात्र भी सम्बन्ध नही है। 
अतः सायन सौर गणना आधारित वैदिक (सायन सौर) वर्ष और मधुमाधव आदि मास ही सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है। जो पूराणों को भी निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है। इसीकारण पुराणोंमें सभी व्रत, पर्व और उत्सव (त्योहार) मोसम आधारित बतलाये गये हैं।
ज्योतिर्गणणना के आचार्य अत्रि,नारद, गर्ग आदि सभी ऋषियों नें व्रत, पर्व, उत्सवों को सायन सौर वर्ष, और सायन सौर मधु, माधव मास के साथ ही सायन सौर  संस्कृत चान्द्र वर्ष के मासों के अनुसार ही मनाये जाने का निर्देश दिया है।

 रोमक सिद्धान्त तो सायन गणना का ही ग्रन्थ है। आर्यभट्ट, सूर्यसिद्धान्तकार (मयासुर), भास्कराचार्य ने भी अपने सिद्धान्त ग्रन्थ आर्यभटीय, सूर्यसिद्धान्त, सिद्धान्त शिरोमणि आदि में भी सायन सौर गणना भी दीगई। 
किन्तु ज्योतिष संहिताओं में ग्रहों की नाक्षत्रीय स्थिति  बतलाने और इराक, मिश्र, युनान में प्रचलित फलित ज्योतिष (होराशास्त्र) के चक्कर में ज्योतिष सिद्धान्तो के गणिताध्याय में १९,१२२ और १४१ वर्षीय नियमन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर और निरयन पद्यति को वरीयता देने के  कारण व्रत पर्व उत्सव को भी निरयन सौर वर्ष आधारित चान्द्र पञ्चाङ्ग के चैत्र, वैशाखादि मासों से जोड़ दिया। जिसे पौराणिकों ने पुराणों में सम्मिलित कर लिया। गलती यहीँ से आरम्भ हुई ।
इसी त्रुटि सुधार के लिए वाराणसी (काशी) के बापूदेव शास्त्री ने सायन सौर गणना आधारित वेदिक संवत्सर और मधु माधव आदि मासों से जुड़ा सायन सौर संस्कारित चान्द्र पञ्चाङ्ग बनाया। किन्तु लोकमान्यता नही मिलने से उन्हें बन्द करना पड़ा।
अब आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश ने सायन संक्रान्तियों के आधार पर सायन सौर संस्कृत चान्द्रमास वाली पञ्चाङ्ग श्री मोहन कृति आर्ष पञ्चाङ्गम् प्रकाशन आरम्भ कर वेदिक धर्म की महती सेवा की है। इसमें समान भोगमान वाले २७ नक्षत्रों के स्थान पर नक्षत्र योगतारा से आरम्भ कर आसमान भोगांश वाले २८ नक्षत्रों को सायन गणना आधारित दिये गये हैं।
वर्तमान में  वैदिक सनातन धर्म के व्रतपर्वोत्सव निर्णय हेतु श्री मोहन कृति आर्ष पञ्चाङ्गम् एकमात्र  उचित पञ्चाङ्ग है।

ग्रह शान्ति प्रयोग और बलिदान घर में ही किया जाना चाहिए।

 ग्रह शान्ति प्रयोग और बलिदान घर में ही की जाना उचित है।

पूतना,  शीतला,मोतीझरा,काला ज्वर,नाग,विनायक,भैरव, काली, वीरभद्र आदि ग्रह हैं।   इनकी शान्ति भी घर में ही करना उचित है।
बुध, शुक्र, मंगल, ब्रहस्पति, शनि को पञ्च तारा  कहते हैं। ग्रह नही। ग्रह शान्ति प्रयोग यानी ग्रसने वालों की शान्ति न कि, केवल प्लेनेट्स की शान्ति होता है।
तिर्थ यात्रा में भी विशेष शान्ति और बलिदान कर सकते हैं। पर मुख्य रुप से घर में ही करना चाहिए।
नाग बलि, गौ बलि, नर बलि,श्वान बलि, पिप्पलिका बलि, क्षेत्रपाल बलि का  मतलब इन जीवों के निमित्त दान करना,इनको भोजनादि खाद्य पदार्थ अर्पित करना  इनकी सेवा, परिचर्या करना होता है; न कि, इनकी हत्या करना। ये कर्म बलिवैश्वदेव के अङ्ग हैं अतः भोजन के पहले घर पर ही करेंं। 

शनिवार, 24 जुलाई 2021

प्रथम पुज्य कौन? अग्नि, आचार्य, देवगणाधिपति इन्द्र या प्रजापति, गणराज्याधिपति, रुद्रगणाधिपति शंकरजी या विनायक गजानन ।

प्रथम पूज्य कौन? अग्नि, ऋषि,आचार्य, गुरु, देवगणाधिपति इन्द्र, गणराज्य का गणपति, रुद्र गणाधिपति शंकर या रुद्रगणपति विनायक गजानन कौन प्रथम पुज्य है ?

प्रथम पुज्य अग्नि ---
वेदिक परम्परा में अग्नि प्रथम पुज्य हैं। ऋग्वेद के दसों मण्डलों में प्रथम सुक्त के देवता अग्नि हैं। अग्नि ही प्रथम आह्वानीय देवता है। आज भी सभी कर्मों के आरम्भ में दीप प्रज्वलित किया जाता है। अग्नि देवताओं के पुरोहित भी मानें गये हैं।
अग्नि के बाद ही इन्द्र का आह्वान होता है।

ऋषि, आचार्य या गुरु की प्रथम पुज्यता ---
स्मार्त परम्परा में आचार्य / ऋषि यानि गुरु को प्रथम पुज्य माना गया।
प्रत्येक वैदिक सुक्त और मन्त्र के ऋषि को सर्वप्रथम स्मरण करना  प्रथम पुज्य गुरु/आचार्य या ऋषि को मानने का प्रमाण है। 
प्रत्येक यज्ञ का आरम्भ किसी ऋषि को आचार्य वरण कर होता था।

पौराणिक परम्परा में भी सत्गुरु परमपूज्य और प्रथमपूज्य है।
महाभारत काल में युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में  या तत्कालीन महापुरुषों में या उपस्थित महापुरुषों में जो पुरुषोत्तम हो उन्हें प्रथमपूज्य माना गया। इसी आधार पर योग्य गुरुजनों की सम्मति से युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की सर्वप्रथम पूजा की।
इसके बाद वैदिक वाक्य मात्र देवो भव, पित्र देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवोभव के आधार पर माता-पिता की पूजा का उदाहरण विनायक गजानन द्वारा नारदजी का उपदेश मानकर माता-पिता की प्रदक्षिणा करनें पर गणनायक का पदभार सोपने की कथा में मिलता है। दूसरा  उदाहरण तुलसीकृत रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड की एक कथा के अनुसार काकभुशुण्डि जी को किसी जन्म में  गुरु को प्रणाम किये बिना शिवलिङ्ग पूजा करने पर साक्षात शंकरजी ने रुष्ट होकर  सर्प होने का शाप देना और फिर उस  उनके गुरु ने  स्वयम् भगवान शंकर की रुद्राष्टक द्वारा स्तुति कर शंकरजी को प्रसन्न कर शिष्य को क्षमादान दिलवाने की कथा भी गुरु की प्रथम पुज्यता का प्रमाण है। और  तुलसीदासकृत हनुमान चालीसा की प्रथम पङ्क्ति श्रीगुरुचरण सरोज रज .... मध्यकाल तक गुरु की प्रथम पुज्यता का उदाहरण/ प्रमाण है।
श्रमण संस्कृति में सद्गुरु ही प्रथम पुज्य है। श्रमण संस्कृति में भी  विशेषकर दत्त सम्प्रदाय में सत्गुरु या गुरु को ही मुख्य पुज्य और प्रथम पुज्य माना जाने लगा।

प्रजापति की प्रथम पुज्यता ---
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान प्रजापति हुए। आदि प्रजापति से ही -द्युलोक में इन्द्र-शचि, अग्नि-स्वाहा, भुवःलोक में अर्धनारीश्वर महारुद्र, पितृगणों के मुख्य अर्यमा-स्वधा तथा भूलोक में  दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, रूचि प्रजापति-आकुति, कर्दम प्रजापति-देवहूति,  स्वायभ्भुव मनु-शतरूपा हुए।
 राज्यों की उत्पत्ति  के पहले प्रत्येक कुल के कुलपति को प्रजापति के रुप में प्रथम पुज्यता थी। गोत्रोच्चार केरुप में यह परम्परा जीवित है। अन्य उदाहरण -  अग्रवालों में अग्रसेन महाराज कुल के कार्यों में प्रथम पुज्य हैं।

देवगणाधिपति इन्द्र की प्रथम पुज्यता ---
कुछ यज्ञों में, देवगणों के अधिपति (गणपति) इन्द्र को प्रथम स्थान मिला। राजसूय यज्ञ में राजा को उच्च आसन दिया जाता है। पुरोहित को द्वितीय स्थान प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण के समय वर्षाऋतु के आरम्भ में इन्द्र पूजा होती थी। जो आज भी उज्जयिनी के नाम से वन रसोई के रुप में प्रचलित है।

गणपति की प्रथम पुज्यता---

गणराज्य के राष्ट्राध्यक्ष अर्थात गणपति की प्रथम पुज्यता। ----
राज्यों की उत्पत्ति महाराज प्रथु से मानी गई है। यह परम्परा राज्यों कि उत्पत्ति के साथ ही प्रचलित है। समस्त राजकार्य में राष्ट्राध्यक्ष/ राजा को प्रथम स्थान प्राप्त है।
गणराज्यों के गणों अर्थात प्रदेशों के प्रमुख (राज्यपाल) को गणपति और गणराज्य के राष्ट्राध्यक्ष को भी गणाधिपति कहा गया है। आज भी राज्यों के समस्त कार्य राज्यपाल के नाम से और भारत गणराज्य के सभी कार्य भारत के राष्ट्रपति (गणाधिपति) के नाम से ही होते हैं।

रुद्रगणाधिपति शंकरजी की प्रथम पुज्यता ---

परवर्ती शैव परम्परा में शंकर भगवान द्वारा रुद्रगणों के गणाधिपति पद विनायक गजानन को सोपने के बाद विनायक गजानन को श्रीगणेश के रुप में प्रथम पूज्य माना जाने लगा हैं।  

वर्तमान परम्परानुसार विनायक गजानन की प्रथम पुज्यता ---
इस प्रसङ्ग में कुछ मतभेदों पर प्रकाश डालना समीचीन है।---

1 उल्लेखनीय है कि,पहले कबिलों को गण कहते थे और कबिलों के सरदार को गणपति कहते थे।
एक ही क्षेत्र के अन्तर्गत आनेवाले सभी कबिलों अर्थात गणों  के सरदार को गणाधिपति कहते थे।
सभ्यजनों/ नागरिकों में गणराज्यों के नायक गणपति कहलाते थे। तदनुसार भारत गणराज्य के गणपति भारत मे प्रथम पुज्य हैं। 

2 पहले रुद्रगणों के और प्रमथ गणों के गणपति और मीढीश का पद भगवान शंकर जी के पास था। सम्भवतया उस समय निधिपति का पद भी शंकरजी के पास ही था। जो उनने अपने मित्र यक्ष कुबेर को सोप दिया।
कामदेव के प्रियपति हो जाने पर कामदेव से रुष्ट होकर उन्हें भस्म कर दिया। उनका पुनर्जन्म भी श्रीकृष्ण-रुक्मिणी पुत्र अनिरुद्ध के रुप में हुआ।
रुद्रगण यज्ञयाग में और सामाजिक कार्यक्रमों में विघ्न उत्पन्न करते थें। चौथ वसुलते थे। जैसे आजकल वृहन्नला वसुलते हैं। तब डर के मारे समाज ने सर्वप्रथम इनको बुलाकर संन्तुष्ट करनें के बाद कार्यक्रम आरम्भ करने लगे। शीतला पूजन और गणपति पूजन, पितृ पूजन के बाद, शुभकार्यारम्भ इसी का परिष्कृत रूप  है।

3  महाभारत शान्तिपर्व/ मौक्षपर्व/ज्वर उत्पत्ति/अध्याय 283 के अनुसार प्रचेताओं के पुत्र दक्ष (द्वितीय) द्वारा कनखल में किये जा रहे यज्ञ में को शंकरजी को नही बुलानें के विषय में पार्वतीजी के प्रश्न पर शंकर जी नें सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित परम्परा अनुसार दक्षयज्ञ में रुद्र को यज्ञभाग न देने को उचित ठहराया था। किन्तु दक्ष द्वितीयके यज्ञ में पार्वतीजी ने शंकरजी के साथ आकर विरोध किया। 
फिर शंकरजी की आज्ञा से वीरभद्र और काली के नैत्रत्व में दक्षयज्ञ विध्वंसक किया गया। फलस्वरूप ब्रह्माजी ने रुद्र को भी यज्ञभाग देनें की नवीन व्यवस्था की। वास्तोष्पति पूजा, अहनस्पति, और क्षेत्रपाल बली की व्यवस्था इसी का परिणाम है। 

 4 महाभारत से विपरीत,  शिवपुराण आदि शैव पुराणों की  सर्वविदित और प्रचलित कथा के अनुसार ---
प्रचेताओं के पुत्र कनखल के राजा दक्ष प्रजापति (द्वितीय) (और वीरण प्रजापति की पुत्री असिक्नी) की पुत्री सती शंकरजी की प्रथम पत्नी थी। जिसने दक्षयज्ञ में रुद्रभाग न देनें के विरोध में स्वयम् की देह को यज्ञाग्नि में भस्मीभूत कर लिया। फिर शंकरजी सती के भस्मीभूत शव को लेकर विक्षिप्त की भाँति विचरने लगे तो भगवान विष्णु नें चक्र से सती की भस्मीभूत देह के एक्कावन टुकड़े कर डाले तब शंकरजी का मोह भङ्ग हुआ। जहाँ जहाँ सती के अलग-अलग अङ्ग गिरे वहाँ वहाँ शक्तिपीठ स्थापित किये गये।
(शंकर भगवान सती की भस्मीभूत देह को उठाकर घूमना और भगवान विष्णु द्वारा 51 टुकड़े करना आदि कथन समझ से परे है।)

बादमें सती का पुनर्जन्म हिमाचल और मैनावती की पुत्री उमा पार्वती के रूप में हुआ। और कामदेव द्वारा शंकरजी को समाधि से उठाने पर शंकरजी द्वारा कामदेव को भस्मकर दिया था।
बादमें शंकरजी ने पार्वती से विवाह किया और तन्त्र मार्ग की उत्पत्ति की एवम् पार्वतीजी से कार्तिकेय का जन्म हुआ। पार्वतीजी नें विनायक को उत्पन्न किया। शंकरजी ने विनायक का शिरोच्छेदन कर दिया। फिर पार्वतीजी के कहने पर विनायक के धड़ पर हाथी के बच्चे का सिर लगाकर पुनर्जीवित किया। तब वे गजानन कहलाये। (शंकरजी नें विनायक का सिर वापस नही लगाकर किसी मानवीय शरीर पर हस्तिमुख प्रत्यारोपण जैसा असम्भव कार्य करना भी समझ से परे है।)

उत्तराधिकारी परिक्षा में विनायक नें नारदजी की राय मानकर माता-पिता की परीक्रमा कर पृथ्वी परीक्रमा के तुल्य बतलाने के चातुर्य से प्रसन्न होकर शंकरजी ने अपना रुद्रगणाधिपति का पदभार प्रमथेश विनायक गजानन को सोप दिया। और ऋद्धि सिद्धि से उनका विवाह कर दिया। रुष्ट कार्तिकेय दक्षिण में प्रस्थान कर गये। 

5 इसी कथा में एक बात और जोड़ी जाती है कि, सती द्वारा दक्षयज्ञ में स्वयम् को भस्मीभूत करनें का कारण ---

 पौराणिक कथा  जिसका उल्लेख रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने भी किया है उसके अनुसार---
रामचरितमानस के बालकाण्ड (दोहा 52 से) में माता सती नें श्रीराम की परीक्षा लेने हेतु माता सीता का रूप धारण कर श्रीराम की परीक्षा की। फलतः भगवान शंकर ने सती देवी का मानसिक त्याग कर दिया।
इससे विचलित सतीमाता नें अपने पिता एवम् प्रचेताओं के पुत्र दक्ष (द्वितीय) द्वारा कनखल में किये जा रहे यज्ञ में अकेले जानें का निश्चय किया। और शंकरजी को न बुलानें और रुद्र को यज्ञभाग न देनें के विरोध में यज्ञाग्नि में जलकर प्राणत्याग दिया। कुछ काल बाद सतीजी का पार्वतीजी के रूप मे दुसरा जन्म हुआ। जिससे कार्तिकेय और विनायक गजानन जन्मे।
इस  कथा के अनुसार विनायक का जन्म द्वापर युग में हुआ। तो विनायक गजानन की प्रथम पुज्यता वर्तमान द्वापर के पहले सम्भव नही है।
वैसे उक्त दोनों ही पौराणिक कथाएँ अप्रामाणिक हैं। पाठक ही स्वविवेक से निर्णय करेंगे।
 अग्नि को आचार्य रुप में भी मान्यता है। तदनुसार प्रथम पुज्य तो अग्नि ही हुए।

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

नेपाल के विभिन्न नामों पर पर पूज्यपाद शंकराचार्य जी काञ्चीकामकोटी का विवेचन ।


सुचना --- इस आलेख के मूल लेखक श्री अरूण कुमार उपाध्याय  सर्वज्ञ शंकररेन्द्र (काञ्ची कामकोटि पीठ) हैं। सम्पूर्ण श्रेय उन्हें ही जाता है।  आलेख को व्यवस्थित करने हेतु सम्पादन मात्र किया गया है।

नेपाल के विभिन्न नाम ---

शाल वृक्षों के कारण यह शालग्राम तथा वहां के ऋषि को सालङ्कायन कहा है। गण्डकी नदी के पत्थरों को भी शालग्राम कहते हैं, जिन पर विष्णु का चिह्न चक्र जल प्रवाह में घिसने से अंकित हो जाता है। 
कोसल तथा विदेह की सीमा बूढ़ी गण्डक को सदानीरा भी कहते थे। लिखा है कि सूर्य कर्क राशि में रहने से (आषाढ़ मास में) सभी नदियां जल से भरी रहती हैं, किन्तु सदानीरा में सदा जल रहता है।-

सन्दर्भ ---

तर्हि विदेघो माथव आस । सरस्वत्यां स तत एव प्राङ्दहन्नभीयायेमां पृथिवीं
तं गोतमश्च राहूगणो विदेघश्च माथवः पश्चाद्दहन्तमन्वीयतुः स इमाः
सर्वा नदीरतिददाह सदानीरेत्युत्तराद्गिरेर्निर्घावति -- (शतपथ ब्राह्मण, 1/4/1/14)
अथादौ कर्कटे देवी त्र्यहं गङ्गा रजस्वला। सर्व्वा रक्तवहा नद्यः करतोयाम्बुवाहिनी॥ इति भरतः।

(2) गुह्य-गुह्य काली का स्थान होने के कारण यह गुह्य देश था तथा इसके निवासियों को गुह्यक कहते थे (वराह पुराण उद्धरण)। गुह्यक की देव जातियों में गणना है जो हिमालय या स्वः लोक की जातियां थीं। 

गुह्यकाल्या महास्थानं नेपाले यत् प्रतिष्ठितम्। (देवी भागवत पुराण, 7/38/11)
वाराणसी कामरूपं नेपालं पौण्ड्रवर्धनम्॥ (ब्रह्माण्ड पुराण, 3/4/44/93- एक्कावन  शक्तिपीठ)
पौण्ड्रवर्धन नेपालपीठं नयनयोर्युगे (वायु पुराण, 104/79)
दुर्द्धर्षोनाम राजाभून्नेपालविषये पुरा। 
पुण्यकेतुर्यशस्वी च सत्यसंधो दृढव्रतः॥2॥ 
क्व गतो हि महीपाल नेपालविषयस्तव॥29॥ (स्कन्द पुराण, 5/2/70) 

विक्रमादित्य ने शकों के नाश तथा धर्म रक्षा के लिए गुह्य देश में शिव का तप किया था। 

भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व 1, अध्याय 7--
शकानां च विनाशार्थमार्यधर्म विवृद्धये। 
जातश्शिवाज्ञया सोऽपि कैलासाद् गुह्यकालपात्॥15॥
विक्रमादित्य नामानं पिता कृत्वा मुमोद ह। 
स बालोऽपि महाप्राज्ञः पितृमातृ प्रियङ्करः॥16॥

(3) रुरु-रुरु मृगों द्वारा एक तपस्विनी कन्या का पालन हुआ था, अतः इसे रुरु क्षेत्र भी कहा गया।
सन्दर्भ ---
 (वराह पुराण, अध्याय 146) 

(4) गोस्थल-यहां से गायें निकल गयीं थी, जहां महर्षि और्व ने पुनः गायों को बसाया। अतः इसे गो-निष्क्रमण तथा गाय बसाने पर गोस्थलक नाम हुआ। 
(वराह पुराण, अध्याय 147) गोरक्ष या गोरखा नाम का यह मूल हो सकता है।
 यहां के महाभारत पूर्व के राजाओं को भी गोपाल वंश का कहा गया है। कश्मीर के प्राचीन राजा गोनन्द वंश के थे।

(5) नेपाल-नेपाल नाम का उल्लेख गुह्य काली क्षेत्र के वर्णनों में हुआ है। इससे वहां की एक जाति का नाम नेवार हुआ है। नेपाल नाम के विषय में बहुत सी कल्पना हैं।
लेपचा भाषा में ने = पवित्र, दिव्य तथा पाल = गुहा। उस भाषा में यह गुह्य का अनुवाद है। 
नेवारी भाषा में ने = मध्य, पाल = देश। यह मध्य के शिव विटप का भाग है। 
तिब्बती भाषा में नेपाल का अर्थ ऊन का क्षेत्र है। लिम्बू भाषा में नेपाल का अर्थ है समतल भाग। यह तराई भाग के लिए है। 
एक अन्य कथा है कि यहां का राजा बाइसवें जैन तीर्थंकर नेमि-नाथ का शिष्य था। नेमिनाथ द्वारा पालित होने से भी यह नेपाल हुआ। नेमिनाथ भगवान् कृष्ण के भाई थे। उनके भाइयों में केवल युधिष्ठिर ही राजा बने थे और कृष्ण के परलोकगमन के बाद संन्यासी रूप में पच्चीस वर्ष तक पूरे भारत का भ्रमण किया। भारत में भी ओंकारेश्वर क्षेत्र नेमाळ (निमाड़) है। ओड़िशा में भी नेमाळ एक सिद्ध पीठ है। 

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 देव जातियां-त्रिविष्टप का अर्थ स्वर्ग है तथा उस क्षेत्र की जातियों को देव जातियां कहा गया है।

विद्याधराप्सरो यक्ष रक्षो गन्धर्व किन्नराः।
पिशाचो गुह्यको सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः॥ (अमरकोष, 1/1/11)

नेपाल के या गण्डकी क्षेत्र के गुह्यक हुए। भूत देश भूटान है, जहां भूत लिपि प्रचलित थी। यक्ष कैलास के निकट के थे, जहां कुबेर का शासन था। कुबेर का स्थान शून्य देशान्तर पर स्थित था (प्राचीन काल में उज्जैन का देशान्तर), जो कैलास से थोड़ा पूर्व होगा। 

ब्रह्माण्ड पुराण (1/2/18)
मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः।
तस्मिन्निवसति श्रीमान्कुबेरः सह राक्षसैः॥1॥
अप्सरो ऽनुचरो राजा मोदते ह्यलकाधिपः।
 कैलास पादात् सम्भूतं पुण्यं शीत जलं शुभम्॥2॥ 
मदं नाम्ना कुमुद्वत्त्तत्सरस्तूदधि सन्निभम्।
 तस्माद्दिव्यात् प्रभवति नदी मन्दाकिनी शुभा॥3॥
दिव्यं च नन्दनवनं तस्यास्तीरे महद्वनम्। 
प्रागुत्तरेण कैलासाद्दिव्यं सर्वौषधिं गिरिम्॥4॥
मत्स्य पुराण (१२१/२-२८) 
मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः। 
तस्मिन् निवसति श्रीमान् कुबेरः सह गुह्यकैः॥2॥ 
अप्सरो ऽनुगतो राजा मोदते ह्यलकाधिपः। 
कैलास पाद सम्भूतं पुण्यं शीत जलं शुभम्॥3॥
मन्दोदकं नाम सरः पयस्तु दधिसन्निभम्। 
तस्मात् प्रवहते दिव्या नदी मन्दाकिनी शुभा॥4॥

शून्य देशान्तर पर होने के कारण अलका, उज्जैन या लंका का समय पृथ्वी का समय था। कुबेर नाम का यही अर्थ है-कु = पृथ्वी, बेर = समय।
कुबेर के अनुचरों को यक्ष तथा ऊपर के श्लोकों में अप्सर कहा है। आजकल भी राजा के अनुचरों को अफसर कहते हैं, जो संस्कृत, पारसी मूल से अंग्रेजी में गया है।
विद्याधर तथा सिद्ध लासा तथा उसके पूर्व के भाग के हैं। पिशाच कैलास से पश्चिम के थे जिनकी पैशाची भाषा में बृहत्-कथा थी। किन्नर कैलास के दक्षिण पश्चिम के थे। हिमाचल का उत्तरी भाग किन्नौर है।

वराह पुराण, अध्याय 141-
अन्यच्च गुह्यं वक्ष्यामि सालङ्कायन तच्छृणु।
शालग्राममिति ख्यातं तन्निबोध मुने शुभम्॥28॥
योऽयं वृक्षस्त्वया दृष्टः सोऽहमेव न संशयः॥29॥
मम तद् रोचते स्थानं गिरिकूट शिलोच्चये।
शालग्राम इति ख्यातं भक्तसंसारमोक्षणम्॥32॥
गुह्यानि तत्र वसुधे तीर्थानि दश पञ्च च॥34॥
तत्र विल्वप्रभं नाम गुह्यं क्षेत्र मम प्रियम्॥36॥
तत्र कालीह्रदं नाम गुह्यं क्षेत्रं परं मम।
अत्र चैव ह्रदस्रोतो बदरीवृक्ष निःसृतः॥ 45॥
तत्र शङ्खप्रभं नाम गुह्यं क्षेत्रं परं मम।। 49॥
गुह्यं विद्याधरं नाम तत्र क्षेत्रे परं मम।
पञ्च धाराः पतन्त्यत्र हिमकूट विनिःसृताः॥ 62॥
याति वैद्याधरान् भोगान् मम लोकाय गच्छति॥ 64॥
शिला कुञ्जलताकीर्णा गन्धर्वाप्सरसेविता॥65॥
गन्धर्वेति च विख्यातां तस्मिन् क्षेत्रं परं मम।
एकधारा पतत्यत्र पश्चिमां दिशोमाश्रिता॥ 68॥
गन्धर्वाप्सरसश्चैव नागकन्याः सहोरगैः॥ 80॥
देवर्षयश्च मुनयः समस्त सुरनायकाः।
सिद्धाश्च किन्नराश्चैव स्वर्गादवतरन्ति हि।। 81॥
नेपाले यच्छिवस्थानं समस्त सुखवल्लभम्॥ 82॥
एतद् गुह्यं प्रं देवि मम क्षेत्रे वसुन्धरे॥97॥
अहमस्मिन् महाक्षेत्रे धरे पूर्वमुखः स्थितः।
शालग्रामे महाक्षेत्रे भूमे भागवतप्रियः॥98॥

पौराणिक भुगोल वर्णन पर पूज्यपाद शंकराचार्य जी काञ्चीकामकोटी का विवेचन ।

सुचना --- इस आलेख के मूल लेखक श्री अरूण कुमार उपाध्याय  सर्वज्ञ शंकररेन्द्र (काञ्ची कामकोटि पीठ) हैं। सम्पूर्ण श्रेय उन्हें ही जाता है। प्रस्तोता द्वारा मात्र अक्षांश देशान्तर और कर्क रेखा पर उन देशान्तर पर स्थित नगर/ द्वीपों के नाम और आलेख को व्यवस्थित करने हेतु सम्पादन किया गया है।

पौराणिक भुगोल वर्णन ।

 भूमि के उत्तरी गोलार्ध (सुमेरु) का नक्शा चार खण्डों में बनता था; जिसे सुमेरु के चार पार्श्व कहते थे। 
मानचित्र में सुमेरु के चार पार्श्वों को चार अलग-अलग रङ्गों में दर्शाते हैं। आज भी मानचित्र मे चार अलग-अलग रङ्गों का ही प्रयोग होता है।
 इस सुमेरु अर्थात उत्तरी गोलार्ध का आधार विषुवत रेखा है तथा शिर्ष पर उत्तर ध्रुव है।
सुमेरु की सतह पर पृथ्वी गोल के सतह विन्दुओं के प्रक्षेप से समतल नक्शा बनता था।  
उत्तरी गोलार्ध में उत्तरी ध्रुव सागर है और दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिणी ध्रुव प्रदेश स्थल भाग है।  इस प्रक्षेप में दक्षिणी ध्रुव का आकार अनन्त हो जाता है। अतः इसे अनन्त द्वीप कहते थे। 

 भूमि के उत्तरी गोलार्ध के 90°-90° अंशों के चार खण्डों को भू-पद्म का चतुर्दल कहा गया है। इनके नाम हैं।-- 
1 भारतवर्ष 2 भद्राश्ववर्ष 3 कुरुवर्ष  4 केतुमालवर्ष।

भारत का भाग ---पुराणों में भारत के तीन अर्थ हैं -- भारत वर्ष, भरतखण्ड और कुमारी खण्ड।

 भारत वर्ष का क्षेत्र ---  उज्जैन के देशान्तर 75-°46' के दोनों तरफ  45°-45° अंश पूर्व पश्चिम अर्थात  पूर्व देशान्तर 30°46' से पूर्व देशान्तर 120°46' तक तथा  अक्षांश 00°00' यानी विषुवत रेखा से से उत्तर ध्रुव अक्षांश 90°00'तक का भाग भारतवर्ष है।
 
1 भारत वर्ष -–- उत्तरी गोलार्ध में, विषुवत रेखा से से उत्तरी ध्रुव तक यानी अक्षांश 00°00' से अक्षांश 90°00'तक एवम पूर्वी गोलार्ध में पूर्व देशान्तर 30°46' से पूर्व देशान्तर 120°46' तक भारतवर्ष कहलाता है। 
भारत वर्ष के मध्य में पूर्व देशान्तर 75°-46'पर उज्जैन स्थित है। 
भारतवर्ष के पूर्वी छोर पर पूर्व देशान्तर 120-°46' पर  इन्द्र की अमरावतीपूरी स्थित है।(सेवान द्वीप का तहोकु अथवा फिलिपीन्स की राजधानी मनीला सम्भव है।) और भारत के पश्चिम छोर  पूर्व देशान्तर 30°-46' पर यम की संयमनीपूरी स्थित है। ( यमन का सना,या जोर्डन का अम्मान सम्भव है।)

2 भद्राश्व वर्ष--- उत्तरी गोलार्ध में ही भारत के पूर्व में पूर्व देशान्तर 120°46' से पश्चिम देशान्तर 149°14' तक  भद्राश्ववर्ष स्थित है।
 भद्राश्ववर्ष के मध्य मे  पूर्व देशान्तर 165°46'पर यमकोटी पत्तनम् स्थित है।(वर्तमान में यहाँ कोई द्वीप नही है।) 
भद्राश्ववर्ष के पूर्वी छोर    पश्चिम देशान्तर 149°14' पर वरुण की सूषापूरी (सूखापुरी) स्थित है। (हवाई द्वीप का होनोलुलु या फ्रेञ्च पोलिनेसिया सम्भव है।)  तथा भद्राश्ववर्ष के पश्चिम छोर पूर्व देशान्तर 120°46'  पर इन्द्र की अमरावतीपूरी स्थित है।(सेवान द्वीप का तहोकु अथवा फिलिपीन्स की राजधानी मनीला सम्भव है।)

3 कुरुवर्ष --- भारतवर्ष से 180° देशान्त पर भारतवर्ष के विपरीत दिशा में  पश्चिम देशान्तर 149°14'से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक  कुरु वर्ष स्थित है। 
कुरुवर्ष के मध्य में  पश्चिम देशान्तर 104°-14' पर सिद्धपूर स्थित है। (मेक्सिको का लियोनेल द्वीप सम्भव है।) 
कुरुवर्ष के पश्चिमी छोर पर वरुण की सूषापूरी (होनोलूलू सम्भव है।) पश्चिम देशान्तर 149°-14' पर।और कुरुवर्ष के पूर्वी छोर  पश्चिम देशान्तर 59°14'पर सोम की विभावरीपूरी स्थित है। (ट्रिनिडाड-टोबेको या पोर्टोरीको सम्भव है।) 

4 केतुमालवर्ष--- भारतवर्ष के पश्चिम में पूर्व देशान्तर 30°46' से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक केतुमालवर्ष स्थित है। या यों कहें कि,भारतवर्ष के पश्चिम में पश्चिम देशान्तर 59°14' से पूर्व देशान्तर 30°46'तक। केतुमाल वर्ष स्थित है।
केतुमालवर्ष के मध्य में  पश्चिम देशान्तर 14°14' पर  रोमकपत्तनम् (सहारा/ मोरिटेनिया का विला सिसिस्नेरोस सम्भव है।) स्थित है। 
केतुमालवर्ष के पश्चिमी छोर पर सोम की  विभावरी पुरी पश्चिम देशान्तर 59°14' पर स्थित है।(ट्रिनिडाड-टोबेको या पोर्टोरीको सम्भव है।) एवम् केतुमालवर्ष के पूर्वी छोर पूर्व देशान्तर 30°46' पर यम की संयमनीपूरी स्थित है। (साना-यमन या अम्मान- जोर्डन सम्भव है।)
सन्दर्भ ---
(विष्णु पुराण 2/2)-भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पश्चिमे। 
वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्यमिलावृतः॥24॥
भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा। 
पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलबाह्यतः।40॥
विष्णु पुराण (2/8)-मानसोत्तर शैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी।
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वारुणस्य च। 
उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥8॥
वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा। 
पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी॥9॥

सूर्य सिद्धान्त (12/38 से 42)-भू-वृत्त-पादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता।
 भद्राश्व वर्षे नगरी स्वर्ण प्राकार तोरणा॥38॥
याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी। 
पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥39॥
उदक् सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता॥ 40॥ 
भू-वृत्त-पाद विवरास्ताश्चान्योऽन्यं प्रतिष्ठिता॥41॥
स्वर्मेरुर्स्थलमध्ये नरको बड़वामुखं च जल मध्ये (आर्यभटीय, 4/12)
मेरुः स्थितः उत्तरतो दक्षिणतो दैत्यनिलयः स्यात्॥3॥
 एते जलस्थलस्था मेरुः स्थलगोऽसुरालयो जलगः। 
(लल्ल, शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र, 17/3 एवम्  4)
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1 सूर्य सिद्धान्त के अनुसार भारत में पूर्व देशान्तर 75°46 पर उज्जैन है।

2 सूर्य सिद्धान्त के अनुसार  ( पूर्व देशान्तर 75°46 से पूर्व में  90° अर्थात पूर्व देशान्तर 165°46'पर यानी) उज्जैन से पूर्व में  90°  पर  यानी  यमकोटिपत्तन स्थित है। (वर्तमान में यहाँ कोई द्वीप नही है।)
3 सूर्य सिद्धान्त के अनुसार उज्जैन से 90° पश्चिम में (यानी पूर्व देशान्तर 75°46 से 90° अंश पश्चिम  में यानी पश्चिम देशान्तर 165°46' पर)  रोमक पत्तन स्थित है।(सहारा/ मोरिटेनिया का विला सिसिस्नेरोस सम्भव है।) ।       तथा
4 उज्जैन से 180° पर  विपरीत दिशा में यानी पूर्व देशान्तर 75°46 से 180° पर विपरीत दिशा में  यानी  पश्चिम देशान्तर 75°46 पर सिद्धपूर स्थित है। (मेक्सिको का लियोनेल द्वीप सम्भव है।) 

सन्दर्भ ---
सूर्य सिद्धान्त (12/38 से 42)-
भू-वृत्त-पादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता। 
भद्राश्व वर्षे नगरी स्वर्ण प्राकार तोरणा॥38॥
याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी। 
पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥39॥
उदक् सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता॥40॥
 भू-वृत्त-पाद विवरास्ताश्चान्योऽन्यं प्रतिष्ठिता॥41॥
स्वर्मेरुर्स्थलमध्ये नरको बड़वामुखं च जल मध्ये (आर्यभटीय, 4/12)
मेरुः स्थितः उत्तरतो दक्षिणतो दैत्यनिलयः स्यात्॥3॥ 
एते जलस्थलस्था मेरुः स्थलगोऽसुरालयो जलगः।।4।।
(लल्ल, शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र, 17/3 एवम् 4)

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इन्द्र, वरुण,सोम और यम की चार पूरियाँ -- अमरावतीपूरी,सूषापुरी,विभावरीपूरी, और संयमनीपुरी पूरी,

पुराणों के अनुसार --
1  भारतवर्ष के पूर्व छोर पूर्व देशान्तर 120-°46'  पर इन्द्र की अमरावतीपूरी स्थित है। ।(सेवान द्वीप का तहोकु अथवा फिलिपीन्स की राजधानी मनीला सम्भव है।)
 2  भारतवर्ष के पश्चिम छोर पूर्व देशान्तर 30°-46' पर यम की संयमनीपूरी स्थित है। (सना, अम्मान, मृत सागर, यमन)।
3   (भारत के पूर्वी छोर इन्द्र की अमरावतीपूरी (पूर्व देशान्तर 120°-46')  से 90° अंश पूर्व में)  पश्चिम देशान्तर 149°-14' पर  वरुण की सूषापूरी (सूखापूरी) स्थित है। (हवाई द्वीप का होनोलुलु या फ्रेञ्च पोलिनेसिया सम्भव है।)  और
4  (भारत के पूर्वी छोर इन्द्र की अमरावतीपूरी पूर्व देशान्तर 120°-46' से 180° अंश पूर्व में)  पश्चिम देशान्तर 59°14' पर सोम की विभावरीपूरी स्थित है। ट्रिनिडाड-टोबेको या पोर्टोरीको सम्भव है।) 

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 भारत पद्म के लोक-भारत नक्शे के सप्त लोक आकाश के सप्त लोकों के नाम पर हैं---
द्यु लोकों के अनुरूप भारत पद्म (भारतवर्ष) में सप्त लोक  --- 

1 भू लोक (विन्ध्य से दक्षिण)।
2 भुवः लोक (विन्ध्य-हिमालय के बीच)।
3  स्वर्ग लोक (त्रिविष्टप = तिब्बत स्वर्ग का नाम, हिमालय)। इन्द्र के त्रिलोक थे-भारत, चीन, रूस।
4 महर्लोक (चीन के लोगों का महान् = हान नाम था)।
5 जनःलोक (मंगोलिया, अरबी में मुकुल = पितर)।
6 तपः लोक (पामीर, युक्रेन, तजाकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और तुर्किस्तान के घाँस के मैदान (स्टेपीज), रूस का साइबेरिया )।
7 सत्यलोक (उत्तरीध्रुव वृत)।

 सन्दर्भ ---- 
विष्णु पुराण (2/8)-मानसोत्तर शैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी।
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वारुणस्य च। 
उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥8॥
वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा। 
पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी॥9॥

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द्यु लोकों के अनुरूप भारत पद्म (भारतवर्ष) में सप्त लोकोंके भू स्थानी देवगण --- 
 देव जातियां----त्रिविष्टप का अर्थ स्वर्ग है तथा उस क्षेत्र की जातियों को देव जातियां कहा गया है।

नेपाल के या गण्डकी क्षेत्र के गुह्यक हुए। 
भूत देश भूटान है, जहां भूत लिपि प्रचलित थी। 
यक्ष कैलास के निकट के थे, जहां कुबेर का शासन था। कुबेर का स्थान शून्य देशान्तर पर स्थित था (प्राचीन काल में उज्जैन का देशान्तर), जो कैलास से थोड़ा पूर्व होगा। कुबेर नाम का यही अर्थ है-कु = पृथ्वी, बेर = समय।

कुबेर के अनुचरों को यक्ष तथा ब्रह्माण्ड पुराण (1/2/18/1) मे मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः। 
तस्मिन्निवसति श्रीमान्कुबेरः सह राक्षसैः॥1॥
 में कुबेर के साथी राक्षस  बतलाये गये हैं।
मत्स्य पुराण (121/2/28/2) में मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः। 
तस्मिन् निवसति श्रीमान् कुबेरः सह गुह्यकैः॥2॥ 
में  कुबेर के साथी गुह्यक बतलाये गये हैं।
 यक्ष और राक्षस और गुह्यक एक ही प्रजाति की उपप्रजातियाँ है।
ब्रह्माण्ड पुराण के (1/2/28/ 2)  तथा मत्स्य पुराण (121/2/28/3) मेंं 
"अप्सरो ऽनुचरो राजा मोदते ह्यलकाधिपः। 
कैलास पादात् सम्भूतं पुण्यं शीत जलं शुभम्॥
श्लोकों  में कुबेर के अनुचर अप्सर (अप्सरा - गन्धर्वराज)  बतलाये गये हैं।
 आजकल भी राज्य के अनुचरों को अफसर कहते हैं, जो संस्कृत, पारसी मूल से अंग्रेजी में गया है।
विद्याधर तथा सिद्ध लासा तथा कैलाश शिखर के पूर्वी के भाग के हैं।
 पिशाच कैलास से पश्चिम दिशा के थे जिनकी पैशाची भाषा में बृहत्-कथा थी। 
किन्नर कैलास के दक्षिण पश्चिम के थे। हिमाचल का उत्तरी भाग किन्नौर है।

सन्दर्भ --- 
विद्याधराप्सरो यक्ष रक्षो गन्धर्व किन्नराः।
पिशाचो गुह्यको सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः॥ (अमरकोष, 1/1/11)

ब्रह्माण्ड पुराण (1/2/18)
मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः। 
तस्मिन्निवसति श्रीमान्कुबेरः सह राक्षसैः॥1॥
अप्सरो ऽनुचरो राजा मोदते ह्यलकाधिपः।
 कैलास पादात् सम्भूतं पुण्यं शीत जलं शुभम्॥2॥ 
मदं नाम्ना कुमुद्वत्त्तत्सरस्तूदधि सन्निभम्। 
तस्माद्दिव्यात् प्रभवति नदी मन्दाकिनी शुभा॥3॥
दिव्यं च नन्दनवनं तस्यास्तीरे महद्वनम्। 
प्रागुत्तरेण कैलासाद्दिव्यं सर्वौषधिं गिरिम्॥4॥
मत्स्य पुराण (121/2 - 28) 
मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः। 
तस्मिन् निवसति श्रीमान् कुबेरः सह गुह्यकैः॥2॥ 
अप्सरो ऽनुगतो राजा मोदते ह्यलकाधिपः। 
कैलास पाद सम्भूतं पुण्यं शीत जलं शुभम्॥3॥
मन्दोदकं नाम सरः पयस्तु दधिसन्निभम्। 
तस्मात् प्रवहते दिव्या नदी मन्दाकिनी शुभा॥4॥

शून्य देशान्तर पर होने के कारण अलका, उज्जैन या लंका का समय पृथ्वी का समय था। कुबेर नाम का यही अर्थ है-कु = पृथ्वी, बेर = समय।
कुबेर के अनुचरों को यक्ष तथा ऊपर के श्लोकों में अप्सर कहा है। आजकल भी राजा के अनुचरों को अफसर कहते हैं, जो संस्कृत, पारसी मूल से अंग्रेजी में गया है।
विद्याधर तथा सिद्ध लासा तथा उसके पूर्व के भाग के हैं। पिशाच कैलास से पश्चिम के थे जिनकी पैशाची भाषा में बृहत्-कथा थी। किन्नर कैलास के दक्षिण पश्चिम के थे। हिमाचल का उत्तरी भाग किन्नौर है।


वराह पुराण, अध्याय 141-
अन्यच्च गुह्यं वक्ष्यामि सालङ्कायन तच्छृणु।
शालग्राममिति ख्यातं तन्निबोध मुने शुभम्॥28॥
योऽयं वृक्षस्त्वया दृष्टः सोऽहमेव न संशयः॥29॥
मम तद् रोचते स्थानं गिरिकूट शिलोच्चये।
शालग्राम इति ख्यातं भक्तसंसारमोक्षणम्॥32॥
गुह्यानि तत्र वसुधे तीर्थानि दश पञ्च च॥34॥
तत्र विल्वप्रभं नाम गुह्यं क्षेत्र मम प्रियम्॥36॥
तत्र कालीह्रदं नाम गुह्यं क्षेत्रं परं मम।
अत्र चैव ह्रदस्रोतो बदरीवृक्ष निःसृतः॥ 45॥
तत्र शङ्खप्रभं नाम गुह्यं क्षेत्रं परं मम।। 49॥
गुह्यं विद्याधरं नाम तत्र क्षेत्रे परं मम।
पञ्च धाराः पतन्त्यत्र हिमकूट विनिःसृताः॥ 62॥
याति वैद्याधरान् भोगान् मम लोकाय गच्छति॥ 64॥
शिला कुञ्जलताकीर्णा गन्धर्वाप्सरसेविता॥65॥
गन्धर्वेति च विख्यातां तस्मिन् क्षेत्रं परं मम।
एकधारा पतत्यत्र पश्चिमां दिशोमाश्रिता॥ 68॥
गन्धर्वाप्सरसश्चैव नागकन्याः सहोरगैः॥ 80॥
देवर्षयश्च मुनयः समस्त सुरनायकाः।
सिद्धाश्च किन्नराश्चैव स्वर्गादवतरन्ति हि।। 81॥
नेपाले यच्छिवस्थानं समस्त सुखवल्लभम्॥ 82॥
एतद् गुह्यं प्रं देवि मम क्षेत्रे वसुन्धरे॥97॥
अहमस्मिन् महाक्षेत्रे धरे पूर्वमुखः स्थितः।
शालग्रामे महाक्षेत्रे भूमे भागवतप्रियः॥98॥

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सप्त पाताल --
 भारत भाग को छोड़ कर उत्तर के तीन तथा दक्षिण के चार खण्ड, सप्ततल या सात पाताल कहलाते हैं।

 भूमि के उत्तरी गोलार्ध (सुमेरु) में --

1 अतल - (भारतवर्ष के पश्चिम में पूर्व देशान्तर 30°46' से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक। या यों कहें कि, पश्चिम देशान्तर 59°14' से पूर्व देशान्तर 30°46'तक। केतुमाल वर्ष के रोमकपत्तन के आसपास में ) अतललोक स्थित है।

 2 सुतल -  (भारत के पूर्व में  पूर्व देशान्तर 120°46' से पश्चिम देशान्तर 149°14' तक  भद्राश्ववर्ष के मध्य मे पर  स्थित  यमकोटी पत्तन के आसपास में।) सुतल लोक स्थित है।

 3 पाताल - भारत के विपरीत दिशा में पश्चिम देशान्तर 149°14'से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक कुरुवर्ष के मध्य में  पश्चिम देशान्तर 104°-14' में स्थित (सिद्धपूर के आसपास में) पाताल लोक स्थितहै।

 भूमि के दक्षिणी गोलार्ध में 
 4 महातल - भारतवर्ष  अर्थात पूर्व देशान्तर 30°46' से पूर्व देशान्तर 120°46' तक भारत वर्ष स्थित है। भारतवर्ष में पूर्व देशान्तर 75-°46' पर स्थित उज्जैन के ही देशान्तर पर ही श्रीलंका भी स्थित है। और श्रीलंका के दक्षिण में तललोक या महातल लोक स्थित है।
(दोनों कुमारिका खण्ड कहलाते हैं। ; वर्तमान काल में भारत देश तथा भारतीय समुद्र कहलाते हैं।) 

5 तलातल - (भारतवर्ष के पश्चिम में पूर्व देशान्तर 30°46' से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक। या यों कहें कि, पश्चिम देशान्तर 59°14' से पूर्व देशान्तर 30°46'तक। ( केतुमालवर्ष के रोमकपत्तन के दक्षिण में ) अतललोक के दक्षिण तलातल लोक स्थित है।

6 वितल - (भारत के पूर्व में पूर्व देशान्तर 120°46' से पश्चिम देशान्तर 149°14' तक  भद्राश्ववर्ष में यमकोटी के दक्षिण में ) सुतललोक के दक्षिण वितललोक स्थित है।

7 रसातल - भारत के विपरीत दिशा में  पश्चिम देशान्तर 149°14'से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक  कुरुवर्ष के मध्य में   पश्चिम देशान्तर 104°-14' में स्थित सिद्धपुर  के आसपास में पाताललोक स्थित है और पाताललोक के दक्षिण में  रसातल लोक स्थित  है।

विष्णु पुराण (2/5)---दशसाहस्रमेकैकं पातालं मुनिसत्तम। 
अतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत्। 
महाख्यं सुतलं चाग्र्यं पातालं चापि सप्तमम्॥2॥
शुक्लकृष्णाख्याः पीताः शर्कराः शैल काञ्चनाः। 
भूमयो यत्र मैत्रेय वरप्रासादमण्डिताः॥3॥
पातालानामधश्चास्ते विष्णोर्या तामसी तनुः। 
शेषाख्या यद्गुणान्वक्तुं न शक्ता दैत्यदानवाः॥13॥
योऽनन्तः पठ्यते सिद्धैर्देवो देवर्षि पूजितः। 
स सहस्रशिरा व्यक्तस्वस्तिकामलभूषणः॥14॥

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भारत वर्ष के 9 खण्ड--  
  मत्स्य पुराण, अध्याय 114/9
न खल्वन्यत्र मर्त्यानां भूमौकर्मविधिः स्मृतः। 
भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान् निबोधत॥7॥
1 कुमारिका खण्ड - हिमालय के मध्य भाग में कैलाश पर्वत शिखर स्थित है। कैलाश शिखर के पूर्व-पश्चिम क्षैत्र और दक्षिण में दक्षिणी समुद्र तक फैले क्षेत्र  में भारत या कुमारिका खण्ड कहलाता है। (वर्तमान भारत ,पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, तिब्बत सहित) है।)
सन्दर्भ---
मत्स्य पुराण, अध्याय 114/5, 6 एवम् 10 ,⤵️-
अथाहं वर्णयिष्यामि वर्षेऽस्मिन् भारते प्रजाः। 
भरणाच्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते॥5॥ 
निरुक्तवचनाच्चैव वर्षं तद् भारतं स्मृतम्। 
यतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यमश्चापि हि स्मृतः॥6॥
आयतस्तु कुमारीतो गङ्गायाः प्रवहावधिः। 
तिर्यगूर्ध्वं तु विस्तीर्णः सहस्राणि दशैव तु॥10॥

2 इन्द्रद्वीप खण्ड (बर्मा, थाइलैण्ड, कम्बोडिया, वियतनाम, कम्बोडिया जिसमें वैनतेय जिला है)। 
सन्दर्भ ---
मत्स्य पुराण, अध्याय  114/ 8  इन्द्रद्वीपः कशेरुश्च ताम्रपर्णो गभस्तिमान्।

3 नागद्वीप खण्ड  (अण्डमान-निकोबार, पश्चिमी इण्डोनेसिया)।
सन्दर्भ ---
मत्स्य पुराण, अध्याय  114/8
नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः॥8॥

4 कशेरुमान् खण्ड (पूर्व इण्डोनेसिया, बोर्नियो, न्यूगिनी, फिलिपीन)।

5 सौम्य खण्ड (उत्तर में तिब्बत)।

6 गन्धर्व खण्ड(अफगानिस्तान, ईरान)। 

7 वारुण खण्ड (इराक, अरब)।

 8 ताम्रपर्ण खण्ड (तमिलनाड़ु के निकट सिंहलद्वीप (श्रीलंका)। 
 
9 समुद्र से आवृत्त (घीरा हुआ) द्वीप। लक्कादीव से मालदीव तक अर्थात लक्षद्वीप से मालदीव तक, (रावण की लंका)।

सन्दर्भ ---
  मत्स्य पुराण, अध्याय  114/ 9 मे- 
अयं तु नवमस्तेषं द्वीपः सागरसंवृतः। 
योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः॥9॥ 

मत्स्य पुराण, अध्याय 114-
अथाहं वर्णयिष्यामि वर्षेऽस्मिन् भारते प्रजाः। भरणाच्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते॥5॥ 
निरुक्तवचनाच्चैव वर्षं तद् भारतं स्मृतम्। यतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यमश्चापि हि स्मृतः॥6॥
न खल्वन्यत्र मर्त्यानां भूमौकर्मविधिः स्मृतः। भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान् निबोधत॥7॥
इन्द्रद्वीपः कशेरुश्च ताम्रपर्णो गभस्तिमान्। नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः॥8॥
अयं तु नवमस्तेषं द्वीपः सागरसंवृतः। योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः॥9॥
आयतस्तु कुमारीतो गङ्गायाः प्रवहावधिः। तिर्यगूर्ध्वं तु विस्तीर्णः सहस्राणि दशैव तु॥10॥

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उज्जयिनी रेखा का महत्व ---

कुबेर नाम का यही अर्थ है-कु = पृथ्वी, बेर = समय।
शून्य देशान्तर पर होने के कारण अलका, उज्जैन या लंका का समय पृथ्वी का समय था। अर्थात उज्जैन और लंका की देशान्तर रेखा उस समय की सू्योदय रेखा मानी जाती थी। जैसे वर्तमान में ग्रीनविच रेखा को मध्याह्न रेखा (मेरेडियन लाईन) कहते हैं। (वास्तवमे ग्रीनविच रेखा  मध्यरात्रि रेखा को कह सकते हैं। क्योंकि, जब ग्रीनविच रेखा पर मध्यरात्रि होती है उसके लगभग 26 मिनट 56 सेकण्ड बाद हैं उज्जैन में औसत सूर्योदय समय होता है। अर्थात केवल 26 मिनट 56 सेकण्ड के अन्तर से आज भी उजैयनी रेखा सूर्योदय रेखा ही है।।

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रविवार, 11 जुलाई 2021

पौराणिक भुगोल वर्णन संक्षिप्त में।


 उत्तर गोलार्ध का नक्शा चार खण्डों में बनता था; जिसे सुमेरु के चार पार्श्व कहते थे। 
मानचित्र में सुमेरु के चार पार्श्वों को चार अलग-अलग रङ्गों में दर्शाते हैं। आज भी मानचित्र मे चार अलग-अलग रङ्गों का ही प्रयोग होता है।
 इस सुमेरु अर्थात उत्तरी गोलार्ध का आधार विषुवत रेखा है तथा शिर्ष पर उत्तर ध्रुव है।

 सुमेरु की सतह पर पृथ्वी गोल के सतह विन्दुओं के प्रक्षेप से समतल नक्शा बनता था।  
 दक्षिण गोल में ध्रुव प्रदेश स्थल भाग है इस प्रक्षेप में दक्षिणी ध्रुव का आकार अनन्त हो जाता है। अतः इसे अनन्त द्वीप कहते थे। 
 उत्तरी गोल के 90°-90° अंशों के चार खण्डों को भू-पद्म का चतुर्दल कहा गया है। इनके नाम हैं।-- 
1 भारतवर्ष 2 भद्राश्ववर्ष 3 कुरुवर्ष  4 केतुमालवर्ष।

भारत का भाग - पुराणों में भारत के तीन अर्थ हैं -- भारत वर्ष, भरतखण्ड और कुमारी खण्ड।

 भारतवर्षउज्जैन के देशान्तर 75-°46' के दोनों तरफ ४५-४५ अंश पूर्व पश्चिम अर्थात  पूर्व देशान्तर 30°46' से पूर्व देशान्तर 120°46' तक तथा  अक्षांश 00°00' यानी विषुवत रेखा से से उत्तर ध्रुव अक्षांश 90°00'तक का भाग भारतवर्ष है। 

भारत वर्ष - उत्तरी गोलार्ध में, विषुवत रेखा से से उत्तर ध्रुव तक यानी अक्षांश 00°00' से अक्षांश 90°00'तक एवम पूर्वी गोलार्ध में पूर्व देशान्तर 30°46' से पूर्व देशान्तर 120°46' तक भारतवर्ष कहलाता है। भारत वर्ष के मध्य में पूर्व देशान्तर 75°-46'पर उज्जैन स्थित हैभारतवर्ष के पूर्वी छोर पर पूर्व देशान्तर 120-°46' पर  इन्द्र की अमरावतीपूरी स्थित है।(सेवान द्वीप का तहोकु अथवा फिलिपीन्स की राजधानी मनीला सम्भव है।) और भारत के पश्चिम छोर  पूर्व देशान्तर 30°-46' पर यम की संयमनीपूरी स्थित है। यमन का सना,या जोर्डन का अम्मान सम्भव है।)।

भद्राश्व वर्ष- उत्तरी गोलार्ध में ही भारत के पूर्व में पूर्व देशान्तर 120°46' से पश्चिम देशान्तर 149°14' तक  भद्राश्ववर्ष स्थित है। भद्राश्ववर्ष के मध्य मे  पूर्व देशान्तर 165°46'पर यमकोटी पत्तनम् स्थित है।(वर्तमान में यहाँ कोई द्वीप नही है।) भद्राश्ववर्ष के पूर्वी छोर    पश्चिम देशान्तर 149°14' पर वरुण की सूषापूरी (सूखापुरी) स्थित है। (हवाई द्वीप का होनोलुलु या फ्रेञ्च पोलिनेसिया सम्भव है।)  तथा भद्राश्ववर्ष के पश्चिम छोर पूर्व देशान्तर 120°46'  पर इन्द्र की अमरावतीपूरी स्थित है।(सेवान द्वीप का तहोकु अथवा फिलिपीन्स की राजधानी मनीला सम्भव है।)

कुरुवर्ष - भारतवर्ष से 180° देशान्त पर भारतवर्ष के विपरीत दिशा में  पश्चिम देशान्तर 149°14'से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक  कुरु वर्ष स्थित है। कुरुवर्ष के मध्य में  पश्चिम देशान्तर 104°-14' पर सिद्धपूर स्थित है। (मेक्सिको का लियोनेल द्वीप सम्भव है।) कुरुवर्ष के पश्चिमी छोर पर वरुण की सूषापूरी (होनोलूलू सम्भव है।) पश्चिम देशान्तर 149°-14' पर।और कुरुवर्ष के पूर्वी छोर  पश्चिम देशान्तर 59°14'पर सोम की विभावरीपूरी स्थित है। (ट्रिनिडाड-टोबेको या पोर्टोरीको सम्भव है।) 

केतुमालवर्ष- भारतवर्ष के पश्चिम में पूर्व देशान्तर 30°46' से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक केतुमालवर्ष स्थित है। या यों कहें कि,भारतवर्ष के पश्चिम में पश्चिम देशान्तर 59°14' से पूर्व देशान्तर 30°46'तक। केतुमाल वर्ष स्थित है।केतुमालवर्ष के मध्य में  पश्चिम देशान्तर 14°14' पर  रोमकपत्तनम् (सहारा/ मोरिटेनिया का विला सिसिस्नेरोस सम्भव है।) स्थित है। केतुमालवर्ष के पश्चिमी छोर पर सोम की  विभावरी पुरी पश्चिम देशान्तर 59°14' पर स्थित है।(ट्रिनिडाड-टोबेको या पोर्टोरीको सम्भव है।) एवम् केतुमालवर्ष के पूर्वी छोर पूर्व देशान्तर 30°46' पर यम की संयमनीपूरी स्थित है। (साना-यमन या अम्मान- जोर्डन सम्भव है।)
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पुनश्च  --
कुरुवर्ष - भारत के विपरीत दिशा में  पश्चिम देशान्तर 149°14'से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक  कुरु वर्ष। कुरुवर्ष के मध्य में पश्चिम देशान्तर 104°-14' पर  सिद्धपूर स्थित है। (मेक्सिको का लियोनेल द्वीप सम्भव है।) कुरुवर्ष के पश्चिमी छोर पर वरुण की सूषापूरी (हवाई द्वीप का होनोलुलु या फ्रेञ्च पोलिनेसिया सम्भव है।) पश्चिम देशान्तर 149°-14' पर।और कुरुवर्ष के पूर्वी छोर पर सोम की विभावरीपूरी (ट्रिनिडाड-टोबेको या पोर्टोरीको सम्भव है।) पश्चिम देशान्तर 59°14' पर।
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 सूर्य सिद्धान्त के अनुसार भारत में पूर्व देशान्तर 75°46 पर उज्जैन है।
 सूर्य सिद्धान्त के अनुसार उज्जैन से पूर्व में 90° यानी पूर्व देशान्तर 75°46 से 90° अंश पूर्व में यानी पूर्व देशान्तर 165°46'पर यमकोटिपत्तन स्थित है।
सूर्य सिद्धान्त के अनुसार उज्जैन से 90° पश्चिम में यानी पूर्व देशान्तर 75°46 से 90° अंश पश्चिम  में यानी पश्चिम देशान्तर 165°46' पर रोमक पत्तन स्थित है।  तथा
उज्जैन से 180° पर  विपरीत दिशा में यानी पूर्व देशान्तर 75°46 से 180° पर विपरीत दिशा में  यानी  पश्चिम देशान्तर 75°46 पर सिद्धपूर स्थित है।

इन्द्र, वरुण,सोम और यम की चार पूरियाँ --

पुराणों के अनुसार --
1  भारतवर्ष के पूर्व छोर पूर्व देशान्तर 120-°46'  पर इन्द्र की अमरावतीपूरी स्थित है। पश्चिम छोर पूर्व देशान्तर 30°-46' पर यम की संयमनीपूरी स्थित है। (सना, अम्मान, मृत सागर, यमन)।

2   भारत के पूर्वी छोर इन्द्र की अमरावतीपूरी पूर्व देशान्तर 120°-46' से 90° अंश पूर्व  पश्चिम देशान्तर 149°-14' पर  वरुण की सुषापूरी (सुखापूरी) स्थित है। (हवाई द्वीप या फ्रेञ्च पोलिनेसिया)। और
3  भारत के पूर्वी छोर इन्द्र की अमरावतीपूरी पूर्व देशान्तर 120°-46' से 180° अंश पूर्व में पश्चिम देशान्तर 59°14' पर सोम की विभावरीपूरी स्थित है। (न्यूयार्क या सूरीनाम) ।

4 भारत पद्म के लोक-भारत नक्शे के सप्त लोक आकाश के सप्त लोकों के नाम पर हैं-
1 भू लोक (विन्ध्य से दक्षिण)।
2 भुवः लोक (विन्ध्य-हिमालय के बीच)।
3  स्वर्ग लोक (त्रिविष्टप = तिब्बत स्वर्ग का नाम, हिमालय)। इन्द्र के त्रिलोक थे-भारत, चीन, रूस।
4 महर्लोक (चीन के लोगों का महान् = हान नाम था)।
5 जनःलोक (मंगोलिया, अरबी में मुकुल = पितर)।
6 तपः लोक (पामीर, युक्रेन, तजाकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और तुर्किस्तान के घाँस के मैदान (स्टेपीज), रूस का साइबेरिया )।
7 सत्यलोक (उत्तरीध्रुव वृत)।
 
सप्त पाताल --
 भारत भाग को छोड़ कर उत्तर के तीन तथा दक्षिण के चार खण्ड, सप्ततल या सात पाताल कहलाते हैं।

 भूमि के उत्तरी गोलार्ध में --

1 अतल - (भारतवर्ष के पश्चिम में पूर्व देशान्तर 30°46' से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक। या यों कहें कि, पश्चिम देशान्तर 59°14' से पूर्व देशान्तर 30°46'तक। केतुमाल वर्ष के रोमकपत्तन के आसपास में ) अतललोक स्थित है।

 2 सुतल -  (भारत के पूर्व में  पूर्व देशान्तर 120°46' से पश्चिम देशान्तर 149°14' तक  भद्राश्ववर्ष के मध्य मे पर  स्थित  यमकोटी पत्तन के आसपास में।) सुतल लोक स्थित है।

 3 पाताल - भारत के विपरीत दिशा में पश्चिम देशान्तर 149°14'से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक कुरुवर्ष के मध्य में  पश्चिम देशान्तर 104°-14' में स्थित (सिद्धपूर के आसपास में) पाताल लोक स्थितहै।

 भूमि के दक्षिणी गोलार्ध में 
 4 महातल - भारतवर्ष  अर्थात पूर्व देशान्तर 30°46' से पूर्व देशान्तर 120°46' तक भारत वर्ष स्थित है। भारतवर्ष में पूर्व देशान्तर 75-°46' पर स्थित उज्जैन के ही देशान्तर पर ही श्रीलंका भी स्थित है। और श्रीलंका के दक्षिण में तललोक या महातल लोक स्थित है।
(दोनों कुमारिका खण्ड कहलाते हैं। ; वर्तमान काल में भारत देश तथा भारतीय समुद्र कहलाते हैं।) 

5 तलातल - (भारतवर्ष के पश्चिम में पूर्व देशान्तर 30°46' से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक। या यों कहें कि, पश्चिम देशान्तर 59°14' से पूर्व देशान्तर 30°46'तक। ( केतुमालवर्ष के रोमकपत्तन के दक्षिण में ) अतललोक के दक्षिण तलातल लोक स्थित है।

6 वितल - (भारत के पूर्व में पूर्व देशान्तर 120°46' से पश्चिम देशान्तर 149°14' तक  भद्राश्ववर्ष में यमकोटी के दक्षिण में ) सुतललोक के दक्षिण वितललोक स्थित है।

7 रसातल - भारत के विपरीत दिशा में  पश्चिम देशान्तर 149°14'से पश्चिम देशान्तर 59°14' तक  कुरुवर्ष के मध्य में   पश्चिम देशान्तर 104°-14' में स्थित सिद्धपुर  के आसपास में पाताललोक स्थित है और पाताललोक के दक्षिण में  रसातल लोक स्थित  है।

भारत वर्ष के ९ खण्ड--  
1 कुमारिका खण्ड - हिमालय के मध्य भाग में कैलाश पर्वत शिखर स्थित है। कैलाश शिखर के पूर्व-पश्चिम क्षैत्र और दक्षिण में दक्षिणी समुद्र तक फैले क्षेत्र  में भारत या कुमारिका खण्ड कहलाता है। (वर्तमान भारत ,पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, तिब्बत सहित) है।)

2 इन्द्रद्वीप खण्ड (बर्मा, थाइलैण्ड, कम्बोडिया, वियतनाम, कम्बोडिया जिसमें वैनतेय जिला है)। 
3 नागद्वीप खण्ड  (अण्डमान-निकोबार, पश्चिमी इण्डोनेसिया)।
4 कशेरुमान् खण्ड (पूर्व इण्डोनेसिया, बोर्नियो, न्यूगिनी, फिलिपीन)।
5 सौम्य खण्ड (उत्तर में तिब्बत)।
6 गन्धर्व खण्ड(अफगानिस्तान, ईरान)। 
7 वारुण खण्ड (इराक, अरब)।
 8 ताम्रपर्ण खण्ड (तमिलनाड़ु के निकट सिंहलद्वीप (श्रीलंका)।  
9 समुद्र से आवृत्त (घीरा हुआ) द्वीप। लक्कादीव से मालदीव तक अर्थात लक्षद्वीप से मालदीव तक, (रावण की लंका)।


बुधवार, 7 जुलाई 2021

ब्राह्म धर्म के वैदिक शास्त्र,ब्राह्मण धर्म के ब्राह्मणारण्यकोपनिषद,दर्शन,सनातन धर्म के स्मार्त शास्त्र,रामायण, महाभारत,पुराणादि धर्मशास्त्र और आगम,तन्त्र,निबन्ध ग्रन्थ आदि हिन्दू धर्मशास्त्र

हमारे शास्त्रों को मुख्य रूप से तीन भागों में वर्णन किया जा सकता है।
1  वैदिक शास्त्र या श्रोत्रिय शास्त्र या
  ब्राह्म धर्मशास्त्र; -- वेदिक संहिताएँ, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद, चार उपवेद, छः वेदाङ्ग तथा षड दर्शन।
2  स्मार्त शास्त्र या आर्ष शास्त्र या सनातन धर्मशास्त्र; स्मृतियाँ,उप स्मृतियाँ, इतिहास ग्रन्थ - वाल्मीकि रामायण और महाभारत एवम् विष्णुपुराण आदि पुराण- उप पुराण,।
3 हिन्दू धर्मशास्त्र - आगम ग्रन्थ, तन्त्र, और कर्मकाण्ड एवम् धर्म निर्णयों के निबन्ध ग्रन्थ।

सर्वप्रथम ब्राह्म धर्म के वैदिक धर्मशास्त्रों का विवरण -
 1ऋग्वेद संहिता,
2 शुक्ल यजुर्वेद संहिता एवम् कृष्ण यजुर्वेद संहिता,
3 सामवेद संहिता और
4 अथर्ववेद संहिता।
5 वैदिक गाथाएँ,वैदिक इतिहास, वैदिक पुराण  वैदिक आख्यान और वैदिक व्याख्यान अब पूर्ण सुव्यवस्थित रूप से उपलब्ध नही है किन्तु कुछ भाग बिखरे हुए और खिल भाग के रूप में उपलब्ध भी है। जिससे कुछ कुछ ऐतिहासिक अनुमान लगाया जाता है किन्तु उनमें भी भाषा पूर्णरूपेण न समझनें वाले मतभेद व्यक्त करते हैं।

 *ब्राह्मण धर्म के धर्मशास्त्र --* 
*ब्राह्मण ग्रन्थ -* 
 *ऋग्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ* -
ऐतरेयब्राह्मण-(शैशिरीयशाकलशाखा)
कौषीतकि-(या शांखायन) ब्राह्मण (बाष्कल शाखा)

*यजुर्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ* -
*शुक्ल यजुर्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ* - 
शतपथब्राह्मण-(माध्यन्दिनीय वाजसनेयि शाखा)
शतपथब्राह्मण-(काण्व वाजसनेयि शाखा)

*कृष्णयजुर्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ* - 
तैत्तिरीयब्राह्मण
मैत्रायणीब्राह्मण
कठब्राह्मण
कपिष्ठलब्राह्मण

*सामवेदीय  ब्राह्मण ग्रन्थ* -
प्रौढ(पंचविंश) ब्राह्मण
षडविंश ब्राह्मण
आर्षेय ब्राह्मण
मन्त्र (या छान्दिग्य) ब्राह्मण
जैमिनीय (या तावलकर) ब्राह्मण

*अथर्ववेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ* - 
 *गोपथब्राह्मण* -  (पिप्पलाद शाखा और शौनक शाखा का) *गोपथब्राह्मण* 

*आरण्यक*--

*ऋग्वेदीय आरण्यक* --

ऐतरेय आरण्यक
कौषीतकि आरण्यक या शांखायन आरण्यक

*शुक्ल यजुर्वेदीय आरण्यक* --

वृहदारण्यक

*कृष्ण यजुर्वेदीय आरण्यक* --

तैत्तिरीय आरण्यक
मैत्रायणी आरण्यक

*सामवेदीय आरण्यक* --
तावलकर (या जैमिनीयोपनिषद्) आरण्यक
छान्दोग्य आरण्यक
*अथर्ववेदीय आरण्यक  उपलब्ध नहीं है।*

 *तृयोदश उपनिषद* - 

इन्ही ब्राह्मण आरण्यकों का अन्तिम भाग वेदान्त या ब्रह्मविद्या, ब्रह्मसूत्र, और उपनिषद कहलाते हैं। तेरह उपनिषद मुख्य हैं। 

*ऋग्वेदीय उपनिषद*
देव्युपनिषद् मूल संहिता का देवी सूक्त है। यह उपनिषद अथर्वेदीय भी माना जाता है। ऐसे ही बह्वृचोपनिषद् भी देवी सूक्तम का ही भाग है।
सौभाग्य लक्ष्म्युपनिषद् ऋग्वेद संहिता का श्री सूक्त है।
मुद्गलोपनिषद् ऋग्वेद का पुरुष सूक्त है।
1 *ऐतरेयोपनिषद * -    ऐतरेय आरण्यक के चौथे, पाँचवे और छटे अध्याय अर्थात    *ऐतरेयोपनिषद* और  

2 *कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्*  -    कौषीतकि आरण्यक या शांखायन (वाष्कल शाखा)  का अन्तिम भाग  *कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्* इसे *वाष्कलोपनिषद* भी कहते हैं।

*शुक्ल यजुर्वेद संहिता अध्याय 40* 
  3  *ईशावास्योपनिषद* -    शुक्ल यजुर्वेद संहिता माध्यन्दिन शाखा का चालिसवाँ अध्याय  *ईशावास्योपनिषद* है।
 यह शुक्ल यजुर्वेद की कण्व शाखा में भी थोड़े से अन्तर से उपलब्ध है।
 *शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण*  के *वृहद आरण्यक*  का उपनिषद -
 4 *वृहदारण्यकोपनिषद*   - शुक्ल यजुर्वेद के काण्वी शाखा के वाजसनेयी ब्राह्मण के अन्तर्गत आरण्यक भाग के वृहदाकार होनें के कारण  *वृहदारण्यकोपनिषद* नाम से प्रसिद्ध है।

*कृष्ण यजुर्वेदीय संहिता का उपनिषद* - 5 *श्वेताश्वतरोपनिषद* ।

*कृष्ण यजुर्वेदीय ब्राह्मणारण्यको के उपनिषद* -
  6 *कठोपनिषद* -   कृष्णयजुर्वेदीय कठ शाखा का  *कठोपनिषद* 
7 *तैत्तरीयोपनिषद* -    तैत्तरीय शाखा के तैत्तरीय आरण्यक के दस अध्यायों में से सातवें, आठवें और नौवें अध्याय अर्थात  *तैत्तरीयोपनिषद* कहलाता है।
 8 *मैत्रायणीयोपनिषद* -   मैत्रायणी आरण्यक का अन्तिम अध्याय *मैत्रायणीयोपनिषद* 

*सामवेदीय उपनिषद* -
 9 *केनोपनिषद* -   सामवेद के तलवाकार ब्राह्मण के तलवाकार उपनिषद जिसे जेमिनीयोपनिषद भी कहते हैं इसके प्रथम मन्त्र के प्रथम शब्द  केनेषितम् शब्द के कारण  *केनोपनिषद* नाम से प्रसिद्ध है ।
10 *छान्दोग्योपनिषद* -  सामवेद के तलवाकार शाखा के छान्दोग्य ब्राह्मण के दस अध्याय में से तीसरे अध्याय से दसवें अध्याय तक को  *छान्दोग्योपनिषद* कहते हैं।

*अथर्ववेदीय उपनिषद* -
 11  *प्रश्नोपनिषद* -    अथर्वेदीय पिप्पलाद शास्त्रीय ब्राह्मण के  प्रश्नोपनिषद एवम् 
12  *मुण्डकोपनिषद* -  अथर्ववेद की शौनक शाखा के  *मुण्डकोपनिषद*
 और 
13 *माण्डूक्योपनिषद्*  - अथर्ववेद की शौनक शाखा के  *माण्डूक्योपनिषद्*

 *उपवेद* भी चार हैं-

 *ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद है* 
 (परन्तु सुश्रुत इसे अथर्ववेद से व्युत्पन्न मानते हैं),

 *यजुर्वेद का उपवेद  धनुर्वेद है।-* 
 (कुछ लोग अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं।),

 *सामवेद का उपवेद गन्धर्ववेद  है।* तथा

 *अथर्ववेद का उपवेद शिल्पवेद है।* 
 *परन्तु सुश्रुत इसे अथर्ववेद से व्युत्पन्न मानते हैं)।* 
(कुछलोग इसे स्थापत्य वेद भी कहते हैं।)


*ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद के रचनाकार - अश्विनी कुमार, ऋभुगण और भगवान धन्वन्तरि।* 

वृहत्त्रयी :
*आचार्य चरक रचित  चरकसंहिता* - विषय रोगनिदान और औषधि
*आचार्य सुश्रुत रचित  सुश्रुतसंहिता* - विषय शल्य किया 
*वाग्भट रचित अष्टांगहृदय* - विषय सुगम चिकित्सा।

लघुत्रयी 


*भाव मिश्र रचित भावप्रकाश* - औषधि निर्माण
*माधवकर रचित माधव निदान* - रोग निदान
* शार्ङ्गधर रचित  शार्ङ्गधरसंहिता - औषधि निर्माण।
इनके अलावा 
अष्टांगसंग्रह  
भेलाचार्य रचित भेलसंहिता 
काश्यपसंहिता में कौमारभृत्य (बालचिकित्सा) की विशेष रूप से चर्चा है।)
 वंगसेनकृत वंगसेनसंहिता (या चिकित्सासारसंग्रह) -- 

 *रसविद्या* 
आयुर्वेद का ही एक भाग रस रसायन विद्या भी मानी जाती है। इसमें धातुकर्म मुख्य है।

 गोविन्दाचार्य आनन्दकन्द कृत रसार्णव,
गोविन्द भगवतपाद कृत रसहृदयतन्त्र,
 वाग्भट कृत रसरत्नसमुच्चय ,एवम्
रसकामधेनु
 शालिनाथ कृत रसमञ्जरी,
यशोधर कृत रसप्रकाशसुधाकर, एवम्
रसप्रकाश ,
नित्यनाथ सिद्ध कृत रसरत्नाकर,
चामुण्डा कृत रससङ्केतकलिका, 
रसाध्याय
रसजलनिधि
सुधाकर रामचन्द्र कृत रसेन्द्रचिन्तामणि,
ढुण्ढुकनाथ कृत रसेन्द्रचिन्तामणि,
सोमदेव कृत रसेन्द्रचूडामणि
 नागार्जुन कृत रसेन्द्रमङ्गल,
 सर्वज्ञचन्द्र कृत रसकौमुदी,
 गोविन्द आचार्य कृत रससार,
दत्तो बल्लाल बोरकर कृत रसचण्डाशु या रसरत्नसंग्रह
रसेन्द्र सार
रसोपनिषत
रस पद्धति
रामेश्वर भट्ट कृत रसराजलक्ष्मी
रसपारिजात
देवनाथ कृत रसमुक्तावली
देव्यरसरत्नाकर
स्वर्णतन्त्र
स्वर्णसिद्धि
गोरख संहिता
दत्तात्रेय संहिता
वज्रोदन
शैलोदक कल्प
गन्धक कल्प
रुद्रयामल तंत्र
सुरेश्वर कृत लौहपद्धति
लोह सर्वस्व
योगसार
रत्न घोष
पारद सूर्य विज्ञान
कपिल सिद्धान्त
सूर्य पण्डित कृत रसभेषजकल्प
नासिरशाह कृत कङ्कालीग्रन्थ
आयुर्वेद ग्रन्थ
भावमिश्र कृत भावप्रकाश
शार्ङ्गधर कृत शार्ङ्गधरसंहिता
वाग्भट कृत अष्टाङ्गहृदय एवम्
अष्टाङ्गसंग्रह 
कैयदेवनिघण्टु
मदनपालनिघण्टु
राजनिघण्टु

*यजुर्वेद का उपवेद  धनुर्वेद है।-* 
 (कुछ लोग अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं।),

 *धनुर्वेद के  रचनाकार- महर्षि विश्वामित्र* 

वसिष्ठ कृत धनुर्वेद (प्रकाशित), 
विश्वामित्र कृत धनुर्वेद (पाण्डुलिपि)  जमदग्नि कृत धनुर्वेद, 
औषानस कृत धनुर्वेद, 
वैशम्पायन कृत धनुर्वेद,
 सार्ङ्गधर कृत वीरचिन्तामणि (सार्ङ्गपद्धति ), 
शिवोक्त  धनुर्वेद 
 विक्रमादित्य कृत धनुर्वेदप्रकरण (वीरेश्वरीयम) 
 कोदण्डमण्डन  (पाण्डुलिपि),
दिलीपभूभृत कृत कोदण्डशास्त्र  धनुर्विद्यादीपिका, धनुर्विद्यारम्भप्रयोग,
नरसिंह भट्ट कृत धनुर्वेदचिन्तामणि, ईसापसंहिता, 
कोदण्डचतुर्भुज, 
सारसंग्रह, 
संग्रामविधि, 

*सामवेद का उपवेद गन्धर्ववेद  है।*

 *गन्धर्ववेद के रचनाकार -  भरतमुनि और शंकर जी* 

मातंक द्वारा रचित ‘बृहद्देशी’ ,
नारद द्वारा रचित ‘संगीत मकरंद’
सारंगदेव द्वारा रचित ‘संगीत रत्नाकर’ 

*अथर्ववेद का उपवेद शिल्पवेद है।* 
(कुछलोग इसे स्थापत्य वेद भी कहते हैं।)

 *अथर्ववेद का उपवेद शिल्पवेद*

  *शिल्पवेद /स्थापत्य वेद के रचनाकार- विश्वकर्मा और मयासुर*
विश्वकर्मा रचित प्रकाश

*वेदाङ्ग* 

शिक्षा रचनाकार - पाणिनी, कात्यायन
व्याकरण - पाणिनी रचित अष्टाध्यायी 
निरुक्त रचनाकार  - यास्काचार्य रचित निघण्टु
ज्योतिष  रचनाकार - लगधाचार्य रचित ऋग्वेदीय वेदाङ्ग ज्योतिष,अत्रि, गर्ग, नारद, आर्यभट्ट, वराहमिहिर , मयासुर।
छन्द रचनाकार - पिंगल ऋषि।
कल्प रचनाकार  -   आपस्तम्ब ,गौतम, बौधायन आदि।

वेदाङ्गो के वर्णित विषय -

1. शिक्षा - वेदस्‍य वर्णोच्‍चारणप्रकिया ।
2. व्याकरणम् - शब्‍दनिर्माणप्रक्रिया ।
3. ज्योतिषम् - कालनिर्धारणम् ।
4. निरुक्तम् - शब्‍दव्‍युत्‍पत्ति: ।
5. कल्पः - यज्ञवेदीनिर्माणप्रक्रिया ।
6. छन्दः - छन्‍दज्ञानम्

उपलब्ध वेदाङ्ग ग्रन्थ - 
 *शिक्षा* - वेदस्‍य वर्णोच्‍चारणप्रकिया ।
उच्चारण शास्त्र फोनेटिक्स के ग्रन्थ प्रातिशाख्य कहलाते हैं।--

 *प्रतिशाख्य के उपलब्ध ग्रन्थ* 
 
 *शौनकाचार्यकृत ऋग्वेदीय शाकल शाखा की अवांतर शैशिरीय शाखा का प्रातिशाख्य* पद्यों में निर्मित और सबसे बड़ा प्रातिशाख्य है । जिसमें छह-छह पटलों के तीन अध्याय हैं।  व्याख्याकारों ने पद्यों को टुकड़ों में विभक्त कर सूत्ररूप में  व्याख्या की ।

 शौनकाचार्यकृत प्रातिशाख्य के प्रथम 1-15 अध्यायों में शिक्षा और व्याकरण से संबंधित विषयों (वर्णविवेचन, वर्णोच्चारण के दोष, संहितागत वर्णसंधियाँ, क्रमपाठ आदि) का प्रतिपादन है ।इसमें  अध्याय 10 और 11 में क्रमपाठ का विस्तृत प्रतिपादन
और अंत के तीन (16-18) अध्यायों में छंदों की चर्चा है। छंदों के विषय का प्रतिपादन,  किसी अन्य प्रातिशाख्य में नहीं है। क्रमपाठ का विस्तृत प्रतिपादन  भी इस प्रातिशाख्य का एक उल्लेखनीय वैशिष्ट्य है।  प्रातिशाख्य पर प्राचीन उवटकृत भाष्य प्रसिद्ध है। 

 *कात्यायनाचार्य कृत शुक्ल यजुर्वेदीय वाजसनेयि प्रतिशाख्य*
 *कात्यायनाचार्य कृत प्रतिशाख्य* सूत्रशैली में निर्मित है। इसमें आठ अध्याय हैं। प्रातिशाख्यीय विषय के साथ इसमें पदों के स्वर का विधान (अध्याय 2 तथा 6) और पदपाठ में अवग्रह के नियम (अध्याय 5) विशेष रूप से दिए गए हैं। जो  कात्यायनाचार्य कृत प्रातिशाख्य का एक वैशिष्ट्य है। साथ ही इसमें पाणिनि की घु, घ जैसी संज्ञाओं के समान 'सिम्‌'   (उसमानाक्ष), 'जित्‌' (क, ख, च, छ आदि) आदि अनेक कृत्रिम संज्ञाएँ दी हुई हैं।
कात्यायनाचार्य कृत प्रातिशाख्य  के 'तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य' (1/134) आदि अनेक सूत्र पाणिनि के सूत्रों से अभिन्न हैं। अन्य अनेक प्राचीन आचार्यों के साथ साथ इनमें शौनक आचार्य का भी उल्लेख है। 
इसपर भी अन्य टीकाओं के साथ साथ उवट की प्राचीन व्याख्या प्रसिद्ध है। 

 *कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय प्रातिशाख्य*  भी सूत्रशैली में निर्मित है। इसमें 24 अध्याय हैं। सामान्य प्रातिशाख्यीय विषय के साथ साथ इसमें (अध्याय तीन और चार में) पदपाठ की विशेष चर्चा की गई है। इसकी एक विशेषता यह है कि इसमें 20 प्राचीन आचार्यों का उल्लेख है। इसकी कई प्राचीन व्याख्याएँ, त्रिभाष्यरत्न प्रसिद्ध हैं। 

 *अथर्ववेदीय शौनक शाखा का प्रातिशाख्य - शौनकीय चतुराध्यायिका* 
 *शौनकीय चतुराध्यायिका प्रातिशाख्य* का संबंध अथर्ववेद की शौनक शाखा से है। यह भी सूत्रशैली में और चार अध्यायों में है।
 तीन प्रपाठकों में एक  सामवेदीय प्रातिशाख्य  - *ऋक्तंत्र साम प्रातिशाख्य* तथा दूसरा  अधर्वेदीय प्रतिशाख्य *अथर्व प्रातिशाख्य* भी प्रकाशित हुए हैं।

 *व्याकरण* - पाणिनीकृत अष्टाध्यायी, अष्टाध्यायी पर पतञ्जलि भाष्य, और कात्यायन का वार्तिक, इनपर धारानगरी के नरेश राजा भोज की टीका।

 *ज्योतिष* - तैत्तरीय संहिता,अत्रि संहिता, नारद संहिता, गर्गसंहिता, लगधाचार्य का ऋग्वेदीय वेदाङ्ग ज्योतिष, आर्यभटीय, ब्रह्मभट्ट सिद्धान्त,मयासुर का  सूर्यसिद्धान्त, भास्कराचार्य की  सिद्धान्त शिरोमणि, वराहमिहिर कृत पञ्चसिद्धान्तिका, वराह संहिता, आदि।

 *निरुक्त* - यास्काचार्य कृत निघण्टु। पाणिनीकृत अष्टाध्यायी में भी शब्दव्युत्पत्ति बतलाई गई है।

 *छन्द* - महर्षि पिङ्गल कृत छन्दशास्त्र।


 *शुल्बसुत्र*

निम्नलिखित शुल्ब सूत्र इस समय उपलब्ध हैं:

आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र
बौधायन शुल्ब सूत्र
मानव शुल्ब सूत्र
कात्यायन शुल्ब सूत्र
मैत्रायणीय शुल्ब सूत्र (मानव शुल्ब सूत्र से कुछ सीमा तक समानता है)
वाराह (पाण्डुलिपि रूप में)
वधुल (पाण्डुलिपि रूप में)
हिरण्यकेशिन (आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र से मिलता-जुलता)

 *प्रमुख श्रौतसूत्र ग्रन्थ हैं:* 

बौधायन श्रौतसूत्र
शांखायन श्रौतसूत्र
मानव श्रौतसूत्र
वाधूल श्रौतसूत्र
आश्वलायन श्रौतसूत्र
कात्यायन श्रौतसूत्र
वाराह श्रौतसूत्र
लाटयायन श्रौतसूत्र

 *ग्रह्यसुत्र* 

 शुक्ल यजुर्वेद का एकमात्र गृह्यसूत्र - *पारस्करगृह्यसूत्र* है। 
 कृष्ण यजुर्वेद की विभिन्न शाखाओं से संबंद्ध गृह्यसुत्र निम्नांकित
हैं। 
बौधायान गृह्यसूत्र के अंत में गृह्यपरिभाषा, गृह्यशेषसूत्र और पितृमेध सूत्र हैं। 
मानव गृह्यसूत्र पर अष्टावक्र का भाष्य है। भारद्वाजगृह्यसूत्र के विभाजक प्रश्न हैं। वैखानसस्मार्त सूत्र के विभाजक प्रश्न की संख्या दस हैं। 
आपस्तंब गृह्यसूत्र के विभाजक आठ पटल हैं। 
हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र के विभाजक दो प्रश्न हैं।
 वाराहगृह्यसूत्र मैत्रायणी शाखा से संबंद्ध हैं। इसमें एक खंड है। 
काठकगृह्यसूत्र चरक शाखा से संबंद्ध है। लौगक्षिगृह्यसूत्र पर देवपाल का भाष्य है।

 सामवेद की कौथुम शाखा से संबद्ध गृह्यसूत्र *गोभिलगृह्यसूत्र* है।
 गोभिलगृह्यसूत्र पर भट्टनारायण का भाष्य है। इसमें चार प्रपाठक हैं। प्रथम में नौ और शेष में दस दस कंडिकाएँ हैं। 
सामवेद के गृह्यसूत्र -- *द्राह्यायणगृह्यसूत्र, जैमिनिगृह्यसूत्र और कौथुम तथा खादिरगृह्यसूत्र गृह्यसूत्र* हैं। 
 
अथर्ववेदीय गृह्यसूत्र -- *कोशिकागृह्यसूत्र* है। 

 *धर्मसुत्र*    के प्रणेता -
 प्रमुख सूत्रकार गौतम, आपस्तम्ब, बौधायन, वशिष्ठ, सांख्यायन, आश्वालायन आदि हैं।

मानव धर्मसुत्र अनुपलब्ध है।

षडदर्शन -

इन वेदाङगों के ज्ञान प्राप्त करे बगैर वेदों को समझना असम्भव है।

 *ज्ञानमिमांसा* - *ब्रह्मसूत्र* / शारीरक सुत्र (बादरायण का उपलबद्ध है) में शुक्ल यजुर्वेद के  अन्तिम चतुर्थांश  अध्याय 30 से 40 (शुक्ल यजुर्वेद अध्याय 40 यानी ईशावास्योपनिषद)  और ब्राह्मण ग्रन्थों के उत्तरार्ध आरण्यकों और  आरण्यकों के अन्तिम अध्याय  उपनिषदों की मिमांसा और व्याख्या है।
बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर व्यास भाष्य, और राजाभोज का वार्तिक उपलब्ध है।;

 *धर्म मिमांसा* / कर्म मिमांसा -
 *पुर्व मिमांसा दर्शन* ( *जेमिनी* का पुर्व मिमांसा दर्शन उपलब्ध है। जिसपर *शबर स्वामी का भाष्य, कुमारील भट्ट का कातंत वार्तिक और श्लोक वार्तिक माधवाचार्य का जेमिनीय न्यायमाला भाष्य )* में ब्राह्मण ग्रन्थों के पुर्वार्ध क्रियात्मक भाग की मिमांसा और व्याख्या है ; प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि नामक साधनों की चर्चा की गई है। यह यज्ञ प्रधान और स्वर्ग को अन्तिम गति मानने वाला दर्शन है।

 *बुद्धियोग/ कर्मयोग शास्त्र* -  किसी भी कर्म को किस आशय और उद्दैश्य से कैसे किया जाय कि, कर्म का लेप न हो की विधि कर्मयोग शास्त्र, बुद्धियोग (वर्तमान में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ *श्रीमद्भगवद्गीता* है);

 *तत्व मिमांसादर्शन* या  
*सांख्य दर्शन* -  सांख्य दर्शन में तत्व मिमांसा है, पुरुषसुक्त की स्रष्टि उत्पत्ति विवरण और वर्णन की मिमांसा और व्याख्या है। इसे ब्रह्मसूत्र का सहायक भाग कह सकते हैं।(वर्तमान में *ईश्वर कृष्ण की सांख्य कारिकाओं* के अतिरिक्त *कपिल का सांख्य दर्शन* उपलब्ध है।

 *योग दर्शन* - में *अष्टाङ्ग योग* में  स्वस्थ्य चित्त और स्वस्थ्य, सुघड़, बलिष्ठ देह और धृतिमान होकर सफल जीवन की कला सिखाई गई है।
अष्टाङ्ग योग धनुर्वेद और आयुर्वेद के लिये बहुत बड़ा सहयोगी ग्रन्थ है। वर्तमान में *पतञ्जलि का योग दर्शन और उसपर व्यास भाष्य और उसपर भी व्यास वृत्ति* सहित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित उपलब्ध है।

 *वैशेषिक दर्शन* -  वैशेषिक दर्शन में भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान की दृष्टि से सृष्टि उत्पत्ति वर्णन है  यह सांख्य शास्त्र का सहयोगी है।वर्तमान में *कणाद का वैशेषिक दर्शन* उपलब्ध है।

 *न्याय दर्शन* - न्याय दर्शन में तार्किक दृष्टिकोण से गहन और विषद तर्कों के माध्यम से सृष्टि उत्पत्ति समझाई गई है। वर्तमान में गोतम का न्याय दर्शन उपलब्ध है।
न्याय दर्शन का सर्वाधिक उपयोग मिमांसा दर्शनों में हुआ है।फिर भी न्याय दर्शन को  वैशेषिक दर्शन का सहयोगी दर्शन माना जाता है।

दर्शन - सभी दर्शनों का उद्देश्य परमात्मा से आज तक की जैविक और भौतिक सृष्टि तक विकास/ पतन चक्र के आधार पर परमात्मा - जीव और जगत के पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या करना है। जगजीवनराम ( जगत- जीवन - ब्रह्म / ईश्वर) का ज्ञान ही दर्शन है।

अठारह स्मृतियाँ और अठारह  उप स्मृतियाँ है।
 *सनातन धर्म के स्मार्त धर्मशास्त्र* --

 *स्मृतियाँ* - स्मृतियाँ धर्मसुत्रों की व्याख्या कही जा सकती  है। मानव धर्मशास्त्र उपलब्ध नही है किन्तु मनुस्मृति को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। ऐसा माना जाता है कि, पुष्यमित्र शुङ्ग के राज्य का विधान मनुस्मृति के आधार पर ही संचालित होता था।
मनुस्मृति के बाद याज्ञवल्क्य स्मृति को भी हिन्दू पर्सनल लॉ में बहुत मान्यता है।
हिन्दू पर्सनल लॉ में मिताक्षरा टीकाऔर दायभाग टीका को  आधार माना गया है।

उपलब्ध स्मृतियाँ निम्नलिखित हैं।--
मुख्य स्मृतियाँ संपादित करें
1 मनुस्मृति
2 याज्ञवल्क्य स्मृति
3 अत्रि स्मृति
4 विष्णु स्मृति
5 हारीत स्मृति
6 औशनस स्मृति
7 अंगिरा स्मृति
8 यम स्मृति
9 कात्यायन स्मृति
10 बृहस्पति स्मृति
11 पराशर स्मृति
12व्यास स्मृति
13 दक्ष स्मृति
14 गौतम स्मृति
15 वशिष्ठ स्मृति
16 आपस्तम्ब स्मृति
17 संवर्त स्मृति
18 शंख स्मृति
19 लिखित स्मृति
20 देवल स्मृति
21 शतातप स्मृति

 *उपस्मृतियाँ* 

1कश्यप, 2पुलस्य, 3 नारद,  4 विश्वामित्र,  5 देवल,  6  मार्कण्डेय,  7 ऋष्यशङ्ग 8 आश्वलायन,   9 नारायण,  10 भारद्वाज,  11  लोहित,   12 व्याग्रपद,   13 दालभ्य,   14 प्रजापति,  15 शाकातप, 16 वधुला, 17 गोभिल, 

इतिहास -वैदिक  इतिहास, गाथा, पुराण, व्याख्यान और अनुव्याख्यान बिखरे हुए ही मिलते हैं। क्रमबद्ध सुरक्षित नही है।
वाल्मीकि रामायण और वेदव्यासजी रचित महाभारत को भी इतिहास ग्रन्थ माना जाता है।

*पुराण एवम् उप पुराण-* 

विष्णु पुराण वेदव्यास जी के पिता पाराशर ऋषि की रचना है। जबकि शेष पुराण वेदव्यास जी की रचना माने जाते हैं।
जबकि श्रीमद्भागवत पुराण, वायु पुराण , शिवपुराण, मार्कण्डेयपुराण, राजा भोज के समय बोपदेव नामक तेलङ्ग ब्राह्मण की रचना बतलाई जाती है। भविष्य पुराण में विक्टोरिया और वायसरायों के नाम भी आये हैं अतः इसे नित्य परिवर्तनशील माना जाता है।
विष्णुपुराण' के अनुसार अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैं—ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शैव (वायु), भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिङ्ग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड और ब्रह्माण्ड। क्रमपूर्वक नाम-गणना के उपरान्त श्रीविष्णुपुराण में इनके लिए स्पष्टतः 'महापुराण' शब्द का भी प्रयोग किया गया है। श्रीमद्भागवत, मार्कण्डेय एवं कूर्मपुराण में भी ये ही नाम एवं यही क्रम है। अन्य पुराणों में भी 'शैव' और 'वायु' का भेद छोड़कर नाम प्रायः सब जगह समान हैं, श्लोक-संख्या में कहीं-कहीं कुछ भिन्नता है। नारद पुराण, मत्स्य पुराण और देवीभागवत में 'शिव पुराण' के स्थान में 'वायुपुराण' का नाम है। भागवत के नाम से आजकल दो पुराण मिलते हैं—एक 'श्रीमद्भागवत', दूसरा 'देवीभागवत'। इन दोनों में कौन वास्तव में महापुराण है, इसपर विवाद रहा है।
विकिपीडिया के अनुसार  - 
बृहदारण्यक उपनिषद् और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि गीली लकड़ी से जैसे धुआँ अलग अलग निकलता है वैसे ही महान भूत के निःश्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वांगिरस, इतिहास, पुराणविद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनुव्याख्यान हुए। छान्दोग्य उपनिषद् में भी लिखा है कि इतिहास पुराण वेदों में पाँचवाँ वेद है। अत्यंत प्राचीन काल में वेदों के साथ पुराण भी प्रचलित थे जो यज्ञ आदि के अवसरों पर कहे जाते थे। 
ब्रह्मांड पुराण में लिखा है कि वेदव्यास ने एक पुराणसंहिता का संकलन किया था। इसके आगे की बात का पता विष्णु पुराण से लगता है। उसमें लिखा है कि व्यास का एक 'लोमहर्षण' नाम का शिष्य था जो सूति जाति का था। 
व्यास जी ने अपनी पुराण संहिता उसी के हाथ में दी। लोमहर्षण के छह शिष्य थे— सुमति, अग्निवर्चा, मित्रयु, शांशपायन, अकृतव्रण और सावर्णी। इनमें से अकृतव्रण, सावर्णी और शांशपायन ने लोमहर्षण से पढ़ी हुई पुराणसंहिता के आधार पर और एक एक संहिता बनाई।
 
वेदव्यास ने जिस प्रकार मंत्रों का संग्रहकर उन का संहिताओं में विभाग किया उसी प्रकार पुराण के नाम से चले आते हुए वृत्तों का संग्रह कर पुराणसंहिता का संकलन किया। 
उसी एक संहिता को लेकर सुत के चेलों के तीन और संहीताएँ बनाई। इन्हीं संहिताओं के आधार पर अठारह पुराण बने होंगे।

  *मुख्य पुराणों के नाम*--
1ब्रह्म पुराण
2 पद्म पुराण
3 विष्णु पुराण --( विष्णु पुराण के उत्तर भाग को - विष्णुधर्मोत्तर पुराण कहते हैं।)
4 वायु पुराण -- (मतान्तर से - शिव पुराण)
5 भागवत पुराण -- (मतान्तर से -  देवीभागवत पुराण)
6नारद पुराण
7 मार्कण्डेय पुराण
8 अग्नि पुराण
9 भविष्य पुराण
10 ब्रह्मवैवर्त पुराण
11लिङ्ग पुराण
12 वाराह पुराण
13 स्कन्द पुराण
14 वामन पुराण
15 कूर्म पुराण
16 मत्स्य पुराण
17 गरुड पुराण
18 ब्रह्माण्ड पुराण

यदि विष्णु धर्मोत्तर पुराण, शिव पुराण और देवी भागवत पुराण को भी गीना जाये तो पुराणों की संख्या 21 हो जाती है।

 *उप पुराण* --

 *उपपुराणों के नाम* --
1आदि पुराण (सनत्कुमार द्वारा कथित)
2 नरसिंह पुराण
3 नन्दिपुराण (कुमार द्वारा कथित)
4 शिवधर्म पुराण
5 आश्चर्य पुराण (दुर्वासा द्वारा कथित)
6 नारदीय पुराण (नारद द्वारा कथित)
7 कपिल पुराण
8 मानव पुराण
9 उशना पुराण (उशनस्)
10 ब्रह्माण्ड पुराण
11 वरुण पुराण
12 कालिका पुराण
13 माहेश्वर पुराण
14 साम्ब पुराण
15 सौर पुराण
16 पाराशर पुराण (पराशरोक्त)
17 मारीच पुराण
18 भार्गव पुराण
19 विष्णुधर्म पुराण
20 बृहद्धर्म पुराण
21 गणेश पुराण
22 मुद्गल पुराण
23एकाम्र पुराण
24 दत्त पुराण

 *हिन्दू धर्मशास्त्र।* 
 तीन प्रकार है: *वैष्णव आगम (पाँचरात्र तथा वैखानस आगम), शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धांत, त्रिक आदि) तथा शाक्त आगम।* द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं।आगमों में  वैदिक क्रिया, कर्मकाण्डों में तन्त्र का प्रवेश है।

 *निबन्धग्रन्थ --* 
धार्मिक क्रियाओं सम्बन्धी निबन्ध ग्रन्थ --कर्मकाण्ड भास्कर, कर्मकाण्ड प्रदीप, ब्रह्मनित्यकर्म समुच्चय, आन्हिक सुत्रावली,

धर्मनिर्णय - हेमाद्रि, कालमाधव, निर्णय सिन्धु, धर्मसिन्धु आदि।

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