वैदिक ऋषि धर्म पालनार्थ सहर्ष सहजता पूर्वक कष्ट सहन कर तितिक्षा पालन करते थे। कभी भी वर्षों तक श्वास रोककर, या लङ्घन कर केवल वायु सेवन कर, या केवल पत्ते खा कर, केवल अङ्गुठे के बल खड़े होकर या एक पैर पर खड़े होकर, या शङ्कु पर पटिया रखकर बद्ध पद्मासन में बैठकर या बेलन पर पटिया रखकर पद्मासन लगाकर घण्टों समाधिस्थ नही रहते थे। अर्थात दम्भपूर्ण सकाम तामसिक तप नहीं करते थे। आजकल इसे ही अध्यात्म समझा जाता है।
वे अघोरियों के समान भक्ष्याभक्ष्य सम भाव , और भोग्या - अभोग्या नारी को समभाव से भोग्या नही मानते थे।
उनका समत्वम् योग उच्चते का तात्पर्य यह नही था कि, मदिरा - मत्स्य, मान्स को सात्विक भक्ष्य भोज्य मानले। माता - बहन- बैटी को प्रथम भोग्या मानने की कल्पना भी नहीं करते थे।
बल्कि वे तो,नियमित अष्टाङ्गयोगाभ्यास जारी रखते थे।नित्य पञ्च महायज्ञ करते थे। सदाचारी जीवन जीते हुए धर्माचरण करते थे। सावधानी पूर्वक शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही करते थे।
गुरुकुल चलाते, यज्ञ करते, बड़े बड़े यज्ञ सत्रों में आचार्य पद ग्रहण करते थे। आश्रम चलाते थे, कृषि एवम् गौ-पालन भी करते थे। दान लेते- देते थे। वर्णाश्रम धर्म का निष्ठापूर्वक पालन करते थे।
जबकि तान्त्रिक शैव- शाक्त असुर लोग दम्भ पूर्वक, सकाम उक्त प्रकार के तामस तप करते थे। ध्यान रहे उस समय ऐसी मान्यता थी कि, जैसे यज्ञ में ब्रह्मा ही पुण्याहवाचन कर शुभाशीर्वाद प्रदान करता है, वैसे ही तपस्या पर वरदान ब्रह्मा ही दे सकते हैं। इसलिए पुराणों में असुरों को वरदान ब्रह्मा जी ही देते थे।
दुसरा विरोचन तक देवासुर दोनों प्रजापति ब्रह्मा को अपना गुरु मानते थे।
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