जो व्यक्ति सबको अपने समान ही जानकर, सर्वभूत समभाव से सबको प्रेम करे, वह अहिन्सक है।
जो अहिन्सक हो वह सत्यवादी,सत्यव्रती, सत्याग्रही, सदाचारी हो सकता।
सत्य के भेद स्वार्थी, व्यावसायिक, परार्थी, व्यावहारिक, वास्तविक, पारमार्थिक ऐसे भेद मान लिये गए हैं परन्तु हैं नही।
ब्रह्म सत्यम्। सच्चिदानन्द। सत्यम् शिवम् सुन्दरम् और सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म । ॐ तत् सत्।
इन सब वाक्यों में सत्य को ब्रह्म कहा हैं।
जो देखते - समझते हैं, जो मानते हैं, वही व्यक्त करते हैं, कहते हैं वे सत्यनिष्ठ हैं।
परमात्मा आकाश के समान सर्वव्यापी है। या परमात्मा बर्फ में पानी के समान सर्व व्यापक है
इस वाक्य को क्या कहें? सत्य या असत्य?
भाव की दृष्टि से सत्य है। वास्तव में ऐसा भी नहीं है, नेति-नेति , अतः असत्य है। क्योंकि सर्वव्यापकत्व को समझाना लगभग असम्भव है। इसलिए समझोता करना पड़ता है।
ऐसे ही दृष्ट व्यावहारिक सत्य और वास्तविक पारमार्थिक सत्य शब्द गढ़ लिये गए। इन रूढ़ शब्दों की टाँग पकड़ कर बैठे रहना अनुचित है।
कभी-कभी समझाने के लिए आचार्यों को कई प्रकार के समझौते करना पड़ते हैं। इसी कारण भ्रम उत्पन्न हो कर सम्प्रदाय बनते हैं।
एकम् सद बहुदा विप्राः वदन्ति।
जो सदाचारी है, वही यह समझ पाता है कि, जिस हिरण्यगर्भ ने यह सृष्टि रची, उसके शयनकाल में यह सृष्टि उसकी ही नही रहती, तो पराई वस्तु का लोभ क्यों रखना, अतः वह पराई वस्तु पर दृष्टि ही नहीं रखता। वही स्तेय रहित चोरी न करने वाला, अस्तेय सिद्ध व्यक्ति हो सकता है।
जो सबको आत्मवत देख पाता हो, जो सदाचारी हो, जो लोभी - लालची न हो; वही बड़े से भी महा और महा से भी बड़े ब्रह्म की ओर चल सकता है / बढ़ सकता अतः वही ब्रह्मचारी हो सकता। जो जगत के सर्व पदार्थों के प्रति उदासीन हो गया हो अतः ब्रह्म की ओर चल पड़ा हो वह ब्रह्मचारी है।
जो ब्रह्मचारी है वह परमात्मा की इस सृष्टि को स्वयम् अपने लिए ही नही मानता है, बल्कि सब पर सबका अधिकार मानता। जो सर्ववस्तु परमात्मा की ही है, ऐसा मानता है, अतः किसी चीज पर स्वामित्व स्थापित करने का भाव नहीं रखता अतः वह अपरिग्रही होता है।
जिसमें उक्त पाँचो गुण अहिन्सा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य ,अपरिग्रह हो वह स्वच्छ, पवित्र और शुद्ध हो सकता।
जो शुद्ध - पवित्र हो उसे सन्तोष हो सकता। जब व्यक्ति ईश्वर के दिए से पूर्ण सन्तुष्ट हों लेकिन अपने किये को भी ईश्वरीय कृपा से सम्पन्न हुआ माने तभी उसे सन्तोष प्राप्त होता है।
जो सन्तुष्ट है और वह जो पञ्च यज्ञों और योग आदि कर्तव्य कर्म करता रहता है, उसके लिए ही तितिक्षा सम्भव है, वही धर्मपालनार्थ कष्ट सह सकता है। वही तपस्वी होता है।
जिसमें तितिक्षा नही, जो जप, पञ्च यज्ञों और योग आदि के द्वारा एकाग्रता प्राप्त न कर सका वह स्वाध्याय नही कर सकता।
केवल पढ़ना भर स्वाध्याय नही है। पढ़े हुए को समझने के लिए मीमांसा करना आवश्यक है। मीमांसा करने के लिए अध्ययन के साथ और अध्ययन के बाद मनन और चिन्तन करना नितान्त आवश्यक है। अध्ययन, चिन्तन और मनन पूर्वक निदिध्यासन (ध्यान- समाधी) करने को ही स्वाध्याय कहते हैं।
जो स्वाध्याई नही वह ईश्वरार्पित नहीं हो सकता। ईश्वर पर अनन्य, अटल विश्वास करना तभी सम्भव है जिसने उक्त सभी धर्म लक्षण रूपी सद्गुण धारण कर लिया हो। तब उसके लिए वासुदेव सर्वम्, सियाराम मय सब जग जानी के अभ्यास से आत्मवत सर्वभूतानां यः पश्यन्ती सः पश्यन्ती वाली स्थिति हो जाती है तब वह ईश्वर प्रणिधान कर पाता है। अब उसके लिए परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नही रह जाता।
जिसमें उक्त दसों गुण हो वही धृतिवान धीर पुरुष होता है। वही धार्मिक व्यक्ति है।
स्वयम् को या दुसरे किसी को कुछ मानने और होने में अन्तर है।
अधिकांश लोग स्वयम् को धार्मिक मानते हैं। लेकिन यथार्थ में धार्मिक व्यक्ति दुर्लभ है।
वैदिक अभेदवादी यदि नास्तिक अनेकान्तवाद स्वीकार न कर सके तो, समझो भेद दृष्टि बनी हुई है। वैदिक अभेदवादी तो जानता है कि, इतना ही नही - इतना ही नही। नेति-नेति।
नास्तिक अनेकान्तवादी तो कहता है, यह भी सत्य है, वह भी सत्य है। यदि उसे यदि वैदिक अभेद दर्शन स्वीकार्य न हो तो, अनेकानेकान्त कहाँ रहा।
शरीरस्थ तत्वों का ज्ञान या स्वभाव है अर्थात प्रकृति का तत्वज्ञान अध्यात्म है। श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टमोध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि, स्वभाव अर्थात स्व भाव अर्थात प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु का मूल भाव ही, वस्तु की मूल प्रकृति ही अध्यात्म है। अतः जो आडम्बर और दिखाया रहित स्वाभाविक जीवन जीने का आदि है, वह आध्यात्मिक व्यक्ति है। जिसके सर्वोत्तम उदाहरण स्वयम् श्रीकृष्ण ही हैं।
जनता साधकों और सिद्धों, हठयोगियों, अघोरियों और तान्त्रिकों को अध्यात्मिक व्यक्ति मानती है। बुद्ध के पहले आत्मज्ञान, तत्वज्ञान, ज्ञान - विज्ञान, अनुभूति आदि के लिए अध्यात्म शब्द प्रचलन में नही था।
स्वभाव अर्थात व्यक्ति या वस्तु की गुण धर्म - सम्पदा (Property) को अध्यात्म कहते थे।
बुद्ध के पहले प्रकृति का पर्यायवाची शब्द स्वभाव छन्दस में तो ठीक संस्कृत में भी नहीं आया। लेकिन बौद्ध प्रभाव से प्राकृत में और प्राकृत से विकसित हिन्दी आदि भाषाओं में स्वभाव को प्रकृति और प्रकृति को पुरुष का स्वभाव माना जाने लगा; और यह अर्थ रूढ़ हो गया।
आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक शब्द से लोगों नें भौतिक और प्राकृतिक से परे अध्यात्म की कल्पना कर ली।
जबकि ये त्रिताप के नाम हैं। आधिभौतिक ताप मतलब चोरी, लूट, राजदण्ड; आधिदैविक ताप मतलब बिजली गिरना, अतिवर्षा, बाढ़, आंधी-तुफान, भूकम्प आदि से पीड़ा और आध्यात्मिक ताप मतलब दैहिक/ शारीरिक ताप - ज्वर, दर्द, मौच, फ्रेक्चर, इन्फेक्शन आदि होते हैं।
स्पष्ट है कि, आध्यात्मिक मतलब दैहिक है न कि, आत्मिक। रामचरितमानस तक में कहा है कि, दैहिक, देविक, भौतिक तापा; राम राज्य कबहुँ नहीं व्यापा। स्पष्ट है कि यहाँ दैहिक ताप आध्यात्मिक ताप को ही कहा है।
ब्रह्म की दो कृतियाँ (क्रिएशंस) हैं। अपर पुरुष जीव और त्रिगुणात्मक प्रकृति आयु।
ये ही दो प्रकृति जीवभूत परा प्रकृति और अष्टधा प्रकृति कही है।
कृति और रचना में अन्तर होता है। कृति होती है, रचना की जाती है।
परमात्मा के विश्वात्मा स्वरूप (ॐ सङ्कल्प) के साथ ही प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) स्वरूप में प्रकटीकरण होना, और प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) का (दिव्य) परम पुरुष (विष्णु) और परम प्रकृति (माया) के रूप में जाना। अर्थात परम प्रकृति/ परा प्रकृति हुई; रची नही गई।
जैसे महर्षि वाल्मीकि का प्रथम श्लोक उनकी कृति था, रचना नहीं। लेकिन आर्किटेक्ट द्वारा तैयार भवन उसकी रचना होती है, कृति नही।
प्रत्यगात्मा ब्रह्म को सवितृ पुरुष और प्रकृति सावित्री के रूप में जाना जाता है। क्योंकि यह भी प्र कृति है; रचना नहीं। ऐसे ही अपर ब्रह्म प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) को अपर पुरुष नारायण और त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति श्री लक्ष्मी के रूप में जाना गया।
यहाँ तक कोई रचना नही हुई। लेकिन भूतात्मा वाणी - हिरण्यगर्भ (विश्वकर्मा) को (देही) प्राण और धारयित्व/ धृति (अवस्था) हुए जिसे आधिदैविक रूप में त्वष्टा और रचना कहा जाता है।
तात्पर्य यह कि, रचना का प्रारम्भ विश्वकर्मा हिरण्यगर्भ के द्वारा त्वष्टा रूप मे सृष्टि के गोलों को सुतार की भाँति घड़ने / गढ़ने से प्रारम्भ हुआ। इसके पहले कृति/ प्रकृति थी रचना नहीं।
यदि यह मान लिया जाए कि, देह को स्व मानने वाले का अध्यात्म देह है, प्राण (देहि) को स्व मानने वाले के लिए देही (प्राण) अध्यात्म है, जीवभाव को स्व मानने वाले के लिए जीवात्मा अध्यात्म है, पुर (देह) के स्वामी पुरुष को स्व मानने वाले के लिए अन्तरात्मा (प्रत्गात्मा) अध्यात्म है और परम (दिव्य) पुरुष को स्व मानने वाले के लिए प्रज्ञात्मा अध्यात्म है तब तो अध्यात्म शब्द ही निरर्थक हो जाएगा।
अतः यहाँ स्वभाव अष्टधा प्रकृति और जीवभूत परा प्रकृति दोनो से ही भिन्न अर्थ वाला ही मानना पड़ेगा।
प्रापर्टीज़ ऑफ मेटर का प्रापर्टी वाले अर्थ में ही मूल भाव स्वभाव को ही अध्यात्म मानना पड़ेगा।
देवीय सम्पदा और आसुरी सम्पदा शब्द इसी (प्रापर्टीज़) के अर्थ में आए हैं।
किसी भी मानव का मूल स्वभाव उसकी मानवीय वृत्ति - प्रवृत्ति अर्थात मानवता है।
यह प्रवृत्ति शब्द वृत्ति से बना है। वृत्तियाँ चित्त की शक्ति है। इसलिए वृत्ति का निरोध योग है। तभी मानव अपनी मूल मानवीय प्रवृत्ति से उपर उठ पाता है।
जगत, जीव, ईश्वर, आत्मा, परमात्मा का ज्ञान को भ्रमवश आध्यात्मिक ज्ञान बोला जाता है। क्योंकि वे जानकारियों को ज्ञान कहते हैं। जबकि वस्तुतः जगत, जीवन, जगदीश अर्थात जगजीवनराम को जानना ही ज्ञान है।
यहाँ कुछ विद्वान स्वभाव का अर्थ त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति तो कुछ जीवभूता परा प्रकृति करते हैं। लेकिन
श्रीमद्भगवद्गीता सप्तमोऽध्याय श्लोक ४ से ६ में अष्टधा प्रकृति का वर्णन किया। इसके बाद अपर पुरुष के रूप में स्वयम् का वर्णन भी भली-भाँति किया।
जिसे जीवभूता पराप्रकृति कहा है उस जीवात्मा को अध्यात्म कहना होता तो श्रीमद्भगवद्गीता अष्टमोऽध्याय में श्रीकृष्ण स्वभाव शब्द क्यों कहते।
सम्बन्धित कुछ श्लोकों के अर्थ को को उधृत किया जा रहा है। ⤵️
श्रीमद्भगवद्गीता ७/५ अष्टधा प्रकृति से भिन्न जीवभूत परा प्रकृति है।
७/६ सर्वभूत अष्टधा अपरा प्रकृति और जीवभूत परा प्रकृति ही है। मैं जगत का प्रभव और प्रलय हूँ।
७/२५ योग माया से आवृत्त (ढंका हुआ) में सबके लिए अप्रकाशित हूँ। अज्ञानी जन मुझे जन्मरहित और अव्यय नही जानते ।
७/२९ जो मेरे आश्रित होकर जरामरण से मुक्त होने का यत्न करते हैं वे, उस ब्रह्म कृत्स्रम अध्यात्म और अखिल कर्म को जानते हैं।
७/३० जो अन्तकाल में भी अधिभूत,अधिदैव और अधियज्ञ सहित मुझे जानते हैं, वे युक्तचित्त (योगी), मुझे जानते हैं।
८/३ - ४ परम अक्षर ब्रह्म है। स्वभाव अर्थात स्व भाव अर्थात प्रत्येक व्यक्ति/ वस्तु का अपना मूल भाव अध्यात्म कहा जाता है। भूतभाव को उत्पन्न करने वाला विसर्ग कर्म कहा गया है। उत्पत्ति-विनाश वाले क्षर भाव अधिभूत हैं। पुरुष अधिदैव हैं और यहाँ (श्रीकृष्ण के) इस शरीर में मैं अधियज्ञ हूँ।
१५/१६ सर्वभूत क्षर पुरुष है और कूटस्थ अक्षर पुरुष है।
१५/१७ सर्वभूत क्षर पुरुष और कूटस्थ अक्षर पुरुष से अन्य त्रिलोक व्यापी ,सबका पोषक, अव्यय उत्तम पुरुष ईश्वर परमात्मा कहलाता है।
१५/१८ क्षर और अक्षर से उत्तम होने के कारण मुझे पुरुषोत्तम कहते हैं।
१५/१९ में इसे गुह्यतम शास्त्र कहा है, जिसे जानकर व्यक्ति बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है ।
कहीँ भी अध्यात्म नही कहा है।
अध्यात्म केवल स्वभाव को ही कहा है।
अध्याय ७ श्लोक २९-३० में श्रीकृष्ण ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ शब्दों का प्रयोग करते हैं तो अष्टमोऽध्याय श्लोक १- २ में अर्जुन इन शब्दों का स्पष्टीकरण चाहता है, तब श्रीकृष्ण श्लोक ३- ४ में उत्तर देते हुए बतलाते हैं कि, परम अक्षर ब्रह्म है। स्वभाव अर्थात स्व भाव अर्थात प्रत्येक व्यक्ति/ वस्तु का अपना मूल भाव अध्यात्म कहा जाता है। भूतभाव को उत्पन्न करने वाला विसर्ग कर्म कहा गया है। उत्पत्ति-विनाश वाले क्षर भाव अधिभूत हैं। पुरुष अधिदैव हैं और यहाँ (श्रीकृष्ण के) इस शरीर में मैं अधियज्ञ हूँ।
यहाँ यह स्पष्ट है कि, जब अष्टधा प्रकृति और जीवभूत परा प्रकृति का वर्णन श्रीकृष्ण पहले कर चुके थे। यहाँ श्रीकृष्ण ने स्वभाव शब्द का प्रयोग किया। यदि वे अष्टधा प्रकृति या जीवभूत को अध्यात्म बतलाना चाहते तो कहते मैरे द्वारा पूर्व कथित अष्टधा प्रकृति या जीवभूत परा प्रकृति ही अध्यात्म है। लेकिन उनने ऐसा न कहकर स्वभावो अध्यात्म उच्चते कहा। अतः किसी प्रकार के संशय और भ्रम की कोई गुंजाइश ही नहीं है।
मूलतः अपने शरीर को साधना - आसन, प्राणों को साधना - प्राणायाम, मन को साधना - प्रत्याहार, अहंकार को साधना धारणा, बुद्धि को साधना ध्यान और चित्त को साधना समाधि है। तेज को साधना संयम है। इनसे सिद्धि (सफलता) मिल सकती है, अध्यात्म नही।
स्वभावो दुरीतम् अर्थात स्वभाव या सहज प्रवृत्ति में बदलाव अत्यन्त कठिन है। लेकिन यदि कोई वाल्मीकि के समान स्वभाव पलट सके/ बदल सके तब उस साधक को आध्यात्मिक कहा जा सकता है। या जो निराडम्बर एकदम स्वाभाविक जीवन जीता हो वह व्यक्ति आध्यात्मिक है। क्योंकि उसने अपने अहंकार को पूर्णतः त्याग दिया है, तभी तो वह निन्दा - स्तुति में सम रहकर दिखावा रहित स्वाभाविक जीवन जी रहा है।
लोग अघोरियों को आध्यात्मिक होने का भ्रम पाल लेते हैं। जबकि, उन्हें वैसा जीवन जीना सीखना पड़ता है, अघोरी जीवन मानव स्वभाव नहीं है।
इसलिए ये अध्यात्म नही है। बल्कि स्वाभाविक हो जाना ही आध्यात्मिकता है। क्योंकि स्वभाव ही अध्यात्म कहलाता है।
अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानम् ब्रह्म और सर्व खल्विदम् ब्रह्म यह वास्तविक ज्ञान है।