शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2023

ग्रहण की सटीक गणना होने के कारण अब सूतक का प्रावधान समाप्त करना चाहिए।

चन्द्रमा पर भूमि की प्रच्छाया पड़ने अर्थात चन्द्रग्रहण और उपछाया ग्रहण (कान्ति मालिन्य) और  भूमि पर चन्द्रमा की प्रच्छाया पड़ने अर्थात सूर्य ग्रहण की सटीक गणना नही कर पाने के कारण अशोच अर्थात सूतक की व्यवस्था की गई थी।
अब आधुनिक वैधशालाओं के माध्यम से सेकण्ड के भी दसवें भाग तक की सटीक गणना होने लगी है अतः सूतक का प्रावधान निरर्थक हो चुका है।
महत्वपूर्ण चन्द्रमा का कान्ति मालिन्य अर्थात चन्द्रमा पर भूमि की उपछाया पड़ने का है और चन्द्रमा पर भूमि की छाया (प्रच्छाया) पड़ने अर्थात चन्द्रग्रहण का है। ऐसे ही भूमि पर चन्द्रमा की छाया पड़ने अर्थात सूर्यग्रहण का है। अतः अब सूतक का कोई महत्व नहीं है।

ग्रहण काल में नदी में स्नान,  जप, होम- हवन, भजन, किर्तन , तर्पण, श्राद्ध, सभी पुण्य माने गए हैं तथा ये ही कार्य सूतक में भी निषिद्ध नही है। मात्र मूर्ति पूजा का ही निषेध है।

आजतक कहीं देखा/ सुना नही होगा कि, किसी के मरने के पहले घर में सूतक हो गया या जनन अशोच (सूतक) बच्चे के जन्म के पहले हो गया। तो फिर ग्रहण के पहले सूतक का क्या औचित्य? और मोक्ष के बाद सूतक क्यों नही? 
जबकि, जिस नक्षत्र में ग्रहण लगता है वह नक्षत्र ग्रहण के बाद में मुहुर्त में अशुद्ध माना जाता है। तो ग्रहण समाप्ति के बाद सूतक क्यों नहीं माना गया? क्योंकि ग्रहण समाप्त होना प्रत्यक्ष देख लेने के बाद कोई शंका शेष नहीं रहती।
अतः सूतक का प्रावधान अब निरर्थक, निष्प्रयोजन हो गया है।
उक्त आलेख पर विद्वान धर्मशास्त्री विचार करनें का कष्ट करें। 
ज्योतिष के जातक स्कन्द / होरा शास्त्र के ज्ञाता फलित शास्त्रियों और दारुवाला, बाटली वाला, डब्बे वाले और पाऊच वालों के अनुयाई  जन सामान्य शायद यह आलेख नही समझ पायेंगे। उनसे क्षमा प्रार्थी हूँ।
निर्णय सिन्धु प्रथम परिच्छेद के ग्रहण विषयक प्रकरण से प्रमाण ---
निर्णय सिन्धु पृष्ठ संख्या
१०५ वृद्ध गोतम का मत -ग्रहण के सूतक में बालक, वृद्ध,और आतुर (रोगी आदि जो भूख नहीं सह पाए या जिनको चिकित्सा की दृष्टि से भूखा नहीं रहना है।) को छोड़कर कोई भोजन न करें।
पृष्ठ १०६ और १०८ (हेमाद्रि वचन) पर और स्पष्ट किया है कि, जिस प्रहर में ग्रहण लगे उसके पहले वाले प्रहर में पकाये हुए अन्न का भक्षण न करें।
पृष्ठ १०७ मनु स्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति की मिताक्षरा टीका के अनुसार नव श्राद्ध का शेष तथा ग्रहण का बासी भोजन न करें। लेकिन मनुस्मृति के टीकाकार मेघातिथि के वचनानुसार आरनाल, (काञ्जिक) दूध, मठा, दधि (दही), तेल तथा घी में पकाया हुआ अन्न, मणिक (जल कलश) का जल ग्रहण के सूतक में दूषित नही होते हैं।
जल, माठा (तक्र अर्थात छाँछ) आदि खाद्य/ पैय काञ्जी, तिल तथा कुशा से दुषित नहीं होते है।
 पृष्ठ १०८ जैमिनी और मार्कण्डेय का वचन --- रविवार, संक्रान्ति तथा चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण में पुत्र वाले ग्रहस्थ पारणा तथा उपवास न करें।

पृष्ठ १०८ हेमाद्रि का वचन --- ग्रहण के प्रारम्भ के ठीक पहले तथा ग्रहण समाप्ति (मोक्ष) के तत्काल बाद स्नान करें। तथा ग्रहण के समय स्नान,होम- हवन,दान, तप, श्राद्ध करें। ग्रहण समाप्त होने पर दान करें।
पृष्ठ १०९ ब्रह्मवैवर्त पुराण का वचन --- ग्रहण के आदि (प्रारम्भ) में स्नान, मध्य में होम तथा देवपूजा करें।
पृष्ठ १०९ में महाभारत का वचन --- चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण में गङ्गा, गण्डकी आदि महानदियों में शास्त्रोक्त विधि से स्नान करें।
पृष्ठ ११० माधवीय में शङ्ख का वचन जहाँ समुद्र , नदी या जो जलाशय हो वहाँ या रोगी घर में उष्णजल से स्नान करें।
इसका महत्व क्रम यह है---
उष्ण जल से < शीतल जल, पराये जल से < अपना जल, उद्धृत जल से < भूमि का जल < पर्वतके झरने का जल < सरोवर का जल, <नदी का जल < तिर्थ का जल < महानदी का जल < गङ्गाजल < समुद्र का जल पवित्र होता है।
११०  चन्द्रग्रहण में गोदावरी नदी में और सूर्य ग्रहण में नर्मदा, गङ्गा,कनखल, प्रयाग और पुष्कर में स्नान का महत्व है।
पृष्ठ १११ ऋष्यश्रङ्ग कथन --- ग्रहण में श्राद्ध करना भूमि दान तुल्य है।
महाभारत में भी ग्रहण में श्राद्ध आवश्यक बतलाया है।
विष्णु का वचन --- आमान्न (आटा सीदा) या स्वर्ण से श्राद्ध करें। यही मत हेमाद्रि और कालमाधव के अनुसार शातातप का भी है ‌।
जबकि अपरार्क के मत में पाकाभाव में ही आमान्न (आटासीदा) से श्राद्ध करें।
वायु पुराण में --- घृत से ब्राह्मण को भोजन कराएँ एवम् पृथ्वी पर घी डाले।
११२ ग्रहण के सूतक (अशोच) में भी स्नान और श्राद्ध करें। लेकिन व्याघ्रपद के मत में स्नान और श्राद्ध, दान आदि के अतिरिक्त स्मार्तकर्म न करें।
भार्गवार्चन दीपिका के अनुसार ग्रहण में होम, जप आदि में रजस्वला को सूतकादि दोष नहीं होता है। मिताक्षरा टीका के अनुसार भी पात्र में रखे तिर्थ जल से रजस्वला स्नान करें।
ग्रहण में रात्रि में भी श्राद्ध करना चाहिए।
अपरार्क में व्यास का कथन --- ग्रहण, विवाह, संक्रान्ति, यात्रा,रोग और प्रसव में नैमित्तिक दान रात्रि में भी करें।
पृष्ठ ११३ -- चन्द्रग्रहण में रात्रि में भी स्नान करें।
पृष्ठ ११४  -- सूर्य ग्रहण में आगम ग्रन्थोक्त राम- गोपाल आदि मन्त्रों की दीक्षा (मन्त्रोपदेश) करें। यही बात शिवार्चन चन्द्रिका के ज्ञानार्णव में तथा रत्न सागर में भी कही है ।
लेकिन योगिनी तन्त्र में चन्द्र ग्रहण में दीक्षा का निषेध कहा है।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2023

अध्यात्म ज्योतिष तत्व

अध्यात्म ज्योतिष में ग्रहों में 
सूर्य को आत्मकारक या वैदिक अन्तरात्मा/ प्रत्गात्मा का कारक माना है। सूर्य अहंकार का शत्रु, अहंकार नाशक और आत्मविश्वास प्रदायक है। सूर्य सिर (मस्तिष्क और मस्तिष्क का), नेत्रों का और व्यक्तित्व का कारक भी है।

बृहस्पति को वैदिक जीवात्मा का कारक माना जाता है।, पौराणिक भी ब्रहस्पति को जीव कारक ही कहते हैं। ब्रहस्पति का नाम जीव भी है। ब्रह्मणस्पति ज्ञान का कारक भी है।
शनि को भूतात्मा देही (प्राण) का कारक माना जाता है।, पौराणिक भी शनि को धृति (धारयित्व/ धारण शक्ति/ और धैर्य) का कारक मानते है। प्राण की शक्ति धृति अर्थात धारणशक्ति है जिससे प्राण शरीर को धारण करता है।
पाराशरी मे शनि को सर्वोच्च मारकता लगती है, दूसरे क्रम पर ब्रहस्पति (जीव) आता है। अर्थात शनि यदि द्वितीय भाव और सप्तम भाव का कारक हो अथवा तृतीय भाव, पष्ट भाव और सप्तम भाव का कारक हो और अष्टम और द्वादश भाव से सम्बद्ध हो तो शनि की महादशा, अन्तर्दशा में ही मृत्यु ओगी। शनि मारक न हो और गुरु ब्रहस्पति मारक हो तो गुरु ब्रहस्पति की महादशा, अन्तर्दशा में ही मृत्यु ओगी। शनि, युरेनस और नेपच्यून को पैरों का कारक भी माना जाता है।
शुक्र ओज का कारक है।, (शुक्र/ वीर्य से ओजस्वी होने का घनिष्ठ सम्बन्ध है।)
मङ्गल तेज कारक, 
पौराणिक मंगल को जठराग्नि/ अग्नि और विद्युत दोनों का कारक मानते हैं। (वैदिक में तेज की शक्ति विद्युत है।)
नेपच्यून चित्त का कारक, चित्त वृतियों का, आस्था का संकेत नेपच्यून से ही मिलता है। श्रद्धा और विश्वास का सम्बन्ध भी नेपच्यून से ही है। फिर भी वैचारिक नवीनता एवम् परम्परा की सही दिशा में/ मूल दिशा में नव्य विचार का कारक भी नेपच्यून है।
यदि आप पात (नोड्स) को मानें तो दक्षिण पात जिसे केतु कहा जाता है को मानना पड़ेगा।
बुध बुद्धि कारक,
युरेनस अहंकार का कारक है। जड़त्व, दम्भ, अडिग निर्णय, उठापटक, व्यवस्था विरोधी भृमित मानसिकता का कारक है।
यदि आप पात (नोड्स) को मानें तो उत्तर पात जिसे राहु कहा जाता है को मानना पड़ेगा।
चन्द्रमा मन का कारक, चन्द्रमा मन से उत्पन्न वैदिक मत है।
दशम भाव आकाश का,
नवम भाव अन्तरिक्ष का,
चतुर्थ भाव पाताल का,
लग्न पूर्व क्षितिज और देह का,
सप्तम पश्चिम क्षितिज और व्यवहार तथा पार्टनर का कारक होता है।

लग्न जातक के व्यक्तित्व, देहयष्टि, तन और सिर का कारक होता है।
द्वितीय भाव जातक के गुणों का, वाणी का, मुख का, दाहिनी आँख (द्वादश बाँयी आँख का) का कारक होता है।
तृतीय भाव जातक के कण्ठ का, (दाहिने कान एकादश बाँये कान का) कानों का, गरदन का, हाथों का, (दाहिने हाथ का), पराक्रम का कारक होता है।
चतुर्थ भाव जातक के वक्ष/ छाती/ सीने का, हृदय का, फेंफड़ों का, (श्वसन तन्त्र और परिसंचारी तन्त्र का) कारक है। दशम पीठ का कारक होता है।
पञ्चम भाव उदर का, पाचन तन्त्र का, गर्भाशय का, ( एकादश भाव कमर का), कारक होता है।
षष्ट भाव रोग का, दाहिनी जाँघ का (अष्टम बाँयी जाँघ का), लिङ्ग का (अष्टम गुदा का), कारक होता है।
सप्तम भाव शरीर के अन्त का (द्वादश भाव भी), पेरों का, (द्वादश भाव भी), घुटनों का कारक होता है।
अष्टम भाव पिण्डलियों का, गुप्तांगों का, पाइल्स- भगन्दर रोग, केन्सर रोग, मृत्यु के समय की अवस्था/ स्थिति का कारक होता है।
नवम भाव कमर का कारक होता है।
दशम भाव वक्षस्थल, पीठ का, धड़ का कारक होता है।
एकादश भाव गरदन, कन्धे, बाँये कान का कारक होता है।
द्वादश भाव सिरों का, शीर्ष का, बाँयी आँख का कारक होता है।
तदनुसार निरयन मेषादि द्वादश राशियों को भी समझना चाहिए।
इसी प्रकार नक्षत्रों को और भी सुक्ष्मता से समझना चाहिए।

सोमवार, 16 अक्टूबर 2023

श्रद्धा, विश्वास और समर्पण तथा निष्काम कर्म ।

यदि विश्वास है तो, माँगने की आवश्यकता ही नहीं है। आप अपने कर्तव्य पूर्ण करो, वे तो अपना कार्य करेंगे ही।
परमात्मा की व्यवस्था ऋत के अनुसार चलती है। ऋत को कोई नही बदल सकता ।
ऋत के अनुसार ही सभी देवी- देवताओं और ग्रह नक्षत्रों को चलना होता है। 
ऋत के अन्तर्गत ही कर्मफल विधान है। मनसा- वाचा- कर्मणा जैसा कर्म होगा तदनुसार फल सृजन भी तुरन्त ही हो जाता है। लेकिन फलित होने के लिए उपयुक्त देश-काल- वंश- देह सब आवश्यक है, अतः सभी परिस्थितियों के अनुकूल होते ही कर्मफल फल जाता है।
क्रिया की प्रतिक्रिया, कार्य का परिणाम और कर्म का फल निश्चित है। इसे भी कोई बदल नही सकता। क्रिया की प्रतिक्रिया तत्काल होती है, कार्य का परिणाम तत्काल भी हो सकता है और कुछ समय लेकर भी परिणाम मिल सकता है। जैसे जाँच रिपोर्ट, परीक्षाफल थोड़ा समय लेकर भी मिलते हैं। और जाँच सम्पन्न होना और पढ़ा हुआ याद होना तत्काल परिणाम है।
शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से लगन, निष्ठा और कुशलता पूर्वक करने पर सफलता निश्चित है।

अध्यात्मिक ज्ञान परक सभी वैदिक सूक्तों को उपनिषद ही मानना चाहिए।




वैदिक संहिताओं के बहुत से सुक्त १०८ उपनिषदों में मान्य हैं।
यह १०८ की संख्या तो खीँचतान कर पूर्ण की गई इसलिए संख्या पर मत जाइए।
रहा प्रश्न तेरह उपनिषदों का तो उसमें मुख्य नौ उपनिषद तो शांकरभाष्य के आधार पर मुख्य कहलाते हैं। ऐसे ही महर्षि बादरायण नें जिन उपनिषदों को आधार बनाया वे मुख्य हो गये।
लेकिन यदि विषय और वैदिक संहिताओं से सम्बन्धित होने को आधार माना जाए तो और भी बहुत से सूक्त यथा - पुरुष सूक्त, उत्तर नारायण सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, अस्यवामिय सूक्त, नासदीय सूक्त, देवी सूक्त आदि विशुद्ध रूप से उपनिषद ही हैं।
पता नहीं संहिताओं को गौण बतलाकर ब्राह्मण ग्रन्थों को आधार मानना वेदव्यास जी को और उनके शिष्य (जैमिनी) को क्यों उचित जान पड़ा!  लेकिन केवल उन उपनिषदों को ही प्रमाण मानकर उक्त अध्यात्म परक वैदिक सूक्तों के महत्व कम नहीं आँके जाना चाहिए।


 

नेति-नेति

नेति-नेति का तात्पर्य है कि, इतना ही नहीं, इतना ही नहीं।अभी और भी है, बहुत बाकी है। इसका अन्त नही, यह अनन्त है।
मतलब परमात्मा के विषय में कितना भी सोच लिया जाए,कितना भी समझ लिया जाए, कितना भी बो दिया जाए फिर भी वह उस अनन्त का अंश मात्र भी नहीं है।

वैदिक ऋषियों का सात्विक तप और तान्त्रिकों का तामस तप।

वैदिक ऋषि धर्म पालनार्थ सहर्ष सहजता पूर्वक कष्ट सहन कर तितिक्षा पालन करते थे। कभी भी वर्षों तक श्वास रोककर, या लङ्घन कर केवल वायु सेवन कर, या केवल पत्ते खा कर, केवल अङ्गुठे के बल खड़े होकर या एक पैर पर खड़े होकर, या शङ्कु पर पटिया रखकर बद्ध पद्मासन में बैठकर या बेलन पर पटिया रखकर पद्मासन लगाकर घण्टों समाधिस्थ नही रहते थे। अर्थात दम्भपूर्ण सकाम तामसिक तप नहीं करते थे। आजकल इसे ही अध्यात्म समझा जाता है। 
वे अघोरियों के समान भक्ष्याभक्ष्य सम भाव , और भोग्या - अभोग्या नारी को समभाव से भोग्या नही मानते थे।
उनका समत्वम् योग उच्चते का तात्पर्य यह नही था कि, मदिरा - मत्स्य, मान्स को सात्विक भक्ष्य भोज्य मानले।  माता - बहन- बैटी को प्रथम भोग्या मानने की कल्पना भी नहीं करते थे।

बल्कि वे तो,नियमित अष्टाङ्गयोगाभ्यास जारी रखते थे।नित्य पञ्च महायज्ञ करते थे। सदाचारी जीवन जीते हुए धर्माचरण करते थे। सावधानी पूर्वक शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही करते थे। 
गुरुकुल चलाते, यज्ञ करते, बड़े बड़े यज्ञ सत्रों में आचार्य पद ग्रहण करते थे। आश्रम चलाते थे, कृषि एवम् गौ-पालन भी करते थे। दान लेते- देते थे। वर्णाश्रम धर्म का निष्ठापूर्वक पालन करते थे।

जबकि तान्त्रिक शैव- शाक्त असुर लोग दम्भ पूर्वक, सकाम उक्त प्रकार के तामस तप करते थे। ध्यान रहे उस समय ऐसी मान्यता थी कि, जैसे यज्ञ में ब्रह्मा ही पुण्याहवाचन कर शुभाशीर्वाद प्रदान करता है, वैसे ही तपस्या पर वरदान ब्रह्मा ही दे सकते हैं। इसलिए पुराणों में असुरों को वरदान ब्रह्मा जी ही देते थे।
दुसरा विरोचन तक देवासुर दोनों प्रजापति ब्रह्मा को अपना गुरु मानते थे।

देव्य अथर्वशीर्ष ब्राह्मण भाग है। देव्य अथर्वशीर्ष से गणेश अथर्वशीर्ष में कोई समानता नहीं।

दैव्य अथर्वशीर्ष से निकला मन्त्र है। अर्थात अथर्ववेदीय मन्त्र है। यह सही है कि, अथर्ववेद वेद त्रयी में नही है।
फिर भी कृष्ण यजुर्वेद और अथर्ववेद को वैदिक ही माना जाता है।
गणेश अथर्वशीर्ष से देव्यथर्वशीर्षम् की तुलना नहीं हो सकती।
प्रथम तो देव्यथर्वशीर्षम् ऋग्वेदोक्तं देवीसूक्तम् की व्याख्या है। अतः ब्राह्मण भाग हुआ।  दुसरा देवी सूक्तम और देव्यथर्वशीर्षम् दोनों में देवी स्वयम् अपने बारे में बतलाती है। जबकि, गणेश अथर्वशीर्ष में उपासक देवता की प्रशंसा करता है।
गणेश अथर्वशीर्ष किसी वैदिक सूक्त की व्याख्या नही है। भक्त ने स्वयम् अपनी भावनाएँ व्यक्त की है।
गणेश अथर्वशीर्ष की तुलना पुष्पदन्त गन्धर्व रचित शिव महिम्न स्तोत्र से की जा सकती है।
जिसमें रुद्र सूक्त पर कोई विचार नहीं किया गया।

 

बुधवार, 11 अक्टूबर 2023

पुराणो और स्मृतियों की रचना किननें की।

क्या वेदव्यास जी रचित पुराण वर्तमान में उपलब्ध है? यदि नही तो
वर्तमान में उपलब्ध पुराण किसकी रचना है? कब रचे गए? और क्यों रचे गए?
 *पुराण* 
हर घर में कोई न कोई पुराण अवश्य मिल ही जाएगा।
प्राचीन काल में यज्ञों के दौरान सायंकाल में सभाओं में पुराणों का पाठ होता था। अतः वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों में भी पुराण शब्द आया है। इन्हीं पुराणों को वेदव्यास जी ने सम्पादित किया। 
वर्तमान में भी मन्दिरों में, और सार्वजनिक पाण्डालों में और घरो में भी पुराण पाठ, पुराण प्रवचन होते रहते हैं। इसलिए पौराणिक ज्ञान व्यापक प्रसारित हुआ।
लेकिन वर्तमान में उपलब्ध पुराण न वैदिक पुराण है, न वेदव्यास जी रचित पुराण है।
विष्णु पुराण वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर की रचना थी।
क्वोरा एप के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध विद्वान लेखक श्री अरविन्द कुमार व्यास महोदय के द्वारा पुराणों के बारे में कुछ जानकारी सहित उनके कुछ विवादास्पद तथ्यों पर जानकारी प्रस्तुत है शीर्षक से लिख गए आलेख में उन्होंने विष्णु पुराण की प्राचीनता के सम्बन्ध में लिखा है कि,---
"विष्णु पुराण में ध्रुव तारे का विवरण उसके थुबन होने का परिचायक है; तथा इसके अनुसार यह लगभग चार हजार वर्ष से अधिक प्राचीन (2600–1900 ईसा पूर्व) खगोलीय परिस्थिति है; जोकि विशाखा नक्षत्र में शारदीय विशुव (2000–1500 ईसा पूर्व) तथा दक्षिण अयनान्त के श्रवण नक्षत्र में (लगभग 2000 ईसा पूर्व) से सुदृढ़ होता है।"
 अर्थात विष्णु पुराण कम-से-कम 2600ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व में रचा गया है।

 जब परीक्षित अभिमन्यु पत्नी उत्तरा गर्भ में थे, उसके बहुत पहले शुकदेव जी का ब्रह्मलोक प्रयाण हो चुका था। यह बात महाभारत युद्ध समाप्त होकर युधिष्ठिर के राज्याभिषेक होने के पश्चात धर्मनीति जिज्ञासु युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को शर शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह ने कही। प्रमाण देखें--- महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२ एवम् ३३३ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड (शान्ति पर्व) पृष्ठ ५३२५ से ५३२९ तक  देखें। विशेषकर श्लोक २६-१/२ पृष्ठ ५३२८ देखें।

शुकदेव जी के ब्रह्मलोक प्रयाण के बहुत बाद में परीक्षित जन्में तो परीक्षित की मृत्यु के समय शुकदेव जी भागवत कथा सुनाने कैसे आ गये, यह बात शुकदेव जी के पिता वेदव्यास जी कैसे लिख सकते हैं? मतलब आश्चर्य तो यह भी है कि, परीक्षित की मृत्यु तक भी पाण्डु और धृतराष्ट्र के जैविक पिता वेदव्यास जी तीसरी पीढ़ी के समाप्ति कैसे तक जीवित थे! और न केवल जीवित रहे अपितु पुराणों की रचना कर रहे थे! यह विचारणीय है।
ऐसे पुराणों को वेदव्यास जी की रचना मानने वालों को हमारा प्रणाम है।

तो फिर वर्तमान उपलब्ध पुराण किसने लिखे? का उत्तर।

आद्य शंकराचार्य जी का सही समय ५०९ ईसापूर्व से ४७७ ईसापूर्व का है।
कामकोटि पीठके ३८वें आचार्य चिदम्बरम वासी श्री विश्वजी के पुत्र आचार्य श्री अभिनवशंकर जी ७८७ ईस्वी से ८४० ईस्वी तक ५३ वर्ष विद्यमान रहे। वे ३० वर्ष तक जगन्नाथ पुरी के गोवर्धन मठ के शंकराचार्य के पद पर रहे।इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। 
वर्तमान इतिहासकार इन्हीं शंकराचार्य अभिनवशंकर जी को आद्य शंकराचार्य बतलाते हैं और उनका काल ७८८ - ८२० ई. का बताते हैं। 

लगभग ईसापूर्व ४९२ से ईसापूर्व से ४७७ की अवधि में आद्य शंकराचार्य जी के द्वारा बौद्धाचार्यों और जैनाचार्यों को शास्त्रार्थ में हरा कर उन बौद्धाचार्यों और जैनाचार्यों को शुद्धिकरण कर सनातन धर्म में वापसी करवाईं। इन पूर्व बौद्धाचार्यों और पूर्व जैनाचार्यों नें अपनी रुचि अनुसार वैष्णव, सौर, शेव, शाक्त और गाणपत्य सम्प्रदाय अपनाकर अपने -अपने मठ स्थापित कर उनके मठाधीश महन्त बनकर अपने सम्प्रदाय के ग्रन्थों की रचना प्रारम्भ की।
वर्तमान पुराण रचयिता ---
इनमें दक्षिण भारत के पूर्व बौद्ध और जैनाचार्यों ने इन मठों में रहकर पूर्व संस्कार और दक्षिण भारत में प्रचलित अथर्ववेद, कृष्ण यजुर्वेद तथा गाथाओं के, तन्त्र, और दृविड़ वेद की परिपाटी और दक्षिण भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के अनुरूप अपने मठ की परिपाटी और परम्पराओं का निर्धारण करने हेतु आगम ग्रन्थ रचे तथा लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व वेदव्यास जी द्वारा रचित पुराणों में अपने सिद्धान्तों के अनुरूप संशोधन कर नवीन पुराणों की रचना की। 
पुराणों में परिवर्तन और परिवर्धन का क्रम (सिलसिला) मुख्य रूप से पुष्यमित्र शुङ्ग के शुङ्गवंश के शासन (१८५ ई.पू. से १४९ ई.पू. तक) से प्रारम्भ हुआ जो शुङ्गवंश, विक्रमादित्य के शासनकाल में भी चलता रहा। शालिवाहन / सातवाहन वंश, गुप्त वंश के बाद पुराणों में परिवर्तन का सिलसिला अधिक बढ़ गया जो धार के राजा भोज के शासनकाल (१०१० ईस्वी से १०५५ ईस्वी) तक चला। जिसका प्रमाण बोपदेव की रचनाएँ हैं।

शास्त्रार्थ में पराजित होकर जैनाचार्य अधिकांशतः शैव हो गये जबकि ,वज्रयान बौद्ध आचार्य शैव-शाक्त हुए। कुछ बौद्ध वैष्णव हुए जिन्होंने बुद्ध को नौवा अवतार घोषित कर दिया। संशोधित पुराणों में देवताओं और ऋषियों के चरित्र पर अनेक कलंक लगाये। असुरों को महा तपस्वी बतलाया।
वेदव्यास कृत पुराण के अनुसार ध्रुव के तप से सन्तुष्ट हो भगवान श्रीहरि नें स्वयम् दर्शन देकर ध्रुव को विष्णु का परमपद प्राप्त करने योग्य आत्मज्ञान/ ब्रह्म ज्ञान प्रदान किया इसकी तुलना में नवीन पराणों में प्रह्लाद की भक्ति की प्रशंसा अधिक कीगई है और ध्रुव को पद लोभी सिद्ध कर दिया। 
वेदों में महाराज दिवोदास के दान की प्रशंसा की गई है। जबकि नवीन पुराणों में असुरराज बलि के दान की प्रशंसा की गई ।असुरों की भूरीभूरी प्रशंसा की। असुरों, दैत्यों, दानवों राक्षसों को महा तपस्वी बतलाया गया।केवल ऋषभदेव और बुद्ध को उत्तम चरित्रवान बताया और ऋषि-मुनियों और देवताओं को कामुक बतलाया गया।
जैनों के अनुसार रावण भविष्य में उनके तीर्थंकर होनें वाले हैं। अतः उस दुष्ट राक्षस को तान्त्रिक के स्थान पर महान शिवभक्त और तपस्वी बतलाया गया। 
जातक कथाओं के अनुरूप नवीन पुराणों में अवतारवाद बनाया। 
ललित सागर ग्रन्थ के अध्याय २१ पृष्ठ १७८ अनुसार बिहार में गया के निकट कीटक नामक स्थान पर पिता श्री अजिन (मतान्तर से हेमसदन) और माता श्रीमती अञ्जना के पुत्र श्रीबुद्ध हुए थे।
वेदव्यास कृत पुराण में आठवें अवतार बलराम और नौवे अवतार कृष्ण को बतलाया है। नवीन भागवत पुराण में पूर्व बौद्धाचार्यों नें नें आठवाँ अवतार श्रीकृष्ण को और नौवा अवतार कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन और उनकी पत्नी माया देवी के पुत्र सिद्धार्थ गोतम बुद्ध को बतला दिया।
"कृपया गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड,शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८४ पृष्ठ ५१६६ या संक्षिप्त महाभारत का पृष्ठ १२८१ देखें।"
महाभारत में  उल्लेखित दक्षयज्ञ विध्वंस की कथा के अनुसार प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय  द्वारा किए गए यज्ञ में सभी देवताओं और ऋषियों को बुलाया लेकिन शंकर पार्वती को नहीं बुलाया।
देवताओं को समुह में जाते देख पार्वती ने शंकर जी से पुछा, तब शंकर जी ने पार्वती को बतलाया कि, दक्ष (द्वितीय) यज्ञ कर रहे हैं, उसमें उनके निमन्त्रण / आह्वान पर देवता यज्ञभाग लेने जा रहे हैं।
पार्वती द्वारा यह आपत्ति जताई कि, आप रुद्र को यज्ञभाग लेने हेतु क्यों आमन्त्रित नहीं किया गया।
तब शंकर जी बतलाते हैं कि, इसमें दक्ष का कोई दोष नहीं है। सृष्टि के आदि में प्रजापति ब्रह्मा ने रुद्र को यज्ञभाग न देने का विधान किया गया था। इसलिए मुझे नहीं बुलाया।
दक्ष द्वारा यज्ञ में न बुलाने और यज्ञभाग न देने की जानकारी से रुष्ट पार्वती (न कि, सती) को साथ लेकर स्वयम् शंकर जी दक्ष यज्ञ स्थल पर गये। वहाँ पार्वती अपनी नाराज़गी प्रकट करती है। केवल दधीचि पार्वती का समर्थन करते हैं। शेष सब मौन ही रहते हैं। दक्ष पर पार्वती के रोष का कोई प्रभाव न देखकर पार्वती जी और रुष्ट हो गई। इसे देखकर शंकरजी ने वीरभद्र और भद्रकाली का आह्वान किया। और वीरभद्र और भद्रकाली को दक्षयज्ञ विध्वंस का आदेश दिया। वीरभद्र और भद्रकाली को दक्षयज्ञ विध्वंस कर दक्ष द्वितीय का सिर काट दिया। और देवताओं को भी प्रताड़ित किया।
फिर प्रजापति ब्रह्मा ने नियमों में संशोधन कर भविष्य में रुद्र को यज्ञभाग देने का नियम बना दिया तब, शंकर जी ने दक्ष द्वितीय को पुनर्जीवित किया। और सहर्ष पार्वती जी को लेकर वापस लौट गए।
 जब सती ने आत्मदाह किया ही नही तो, शंकर जी द्वारा विक्षिप्त हो कर दग्ध सती का शव लेकर घुमने, और भगवान विष्णु द्वारा चक्र से सती के शव के ५१ टुकड़े करने और जहाँ जहाँ वे टुकड़े गिरे, वहाँ शक्तिपीठ स्थापित होने की कहानी स्वतः गलत हो जाती है। साथ ही हिमवान और मैना की सन्तान के रूप में सती का पार्वती के रूप में पुनर्जन्म होना, फिर तपस्या कर शंकर जी से विवाह करना सभी कथाएँ गलत सिद्ध हो जाती है।
तो शिवपुराण सहित जिन पुराणों में उक्त वर्णन है, वे सभी पुराण गलत सिद्ध हो जाते हैं।


स्मृतियों की रचना किननें और कब की?
 *स्मृतियाँ* 

स्मृतियों का आधार वेदाङ्ग - कल्प- धर्मसुत्र है।मनुस्मृति वैवस्वत मनु द्वारा रचित उनका संविधान ग्रन्थ है।
यह सत्य है कि, धर्मसुत्रों में जोड़-तोड़ कर स्मृतियाँ बनाई गई। 
पुष्यमित्र शुङ्ग ने (१८५ ई.पू. से १४९ ई.पू. तक) मनुस्मृति को अपना संविधान घोषित किया। शुङ्गवंश का शासन ७३ ई. पू. तक चला। कुछ प्रमाण पुष्यमित्र शुङ्ग को मोर्य सिद्ध करते हैं। कुछ लोग चीन के शुङ्गवंश का मानते हैं लेकिन इसका कोई प्रमाण नही है। 
बाद में कण्व राजवंश (७३ ई.पू. २८ ई.पू. तकसे ) के प्रमुख राजाओं नें मनु स्मृति को संविधान के रूप में अपनाया। 
इसी बीच उज्जैन के प्रतापी सम्राट विक्रमादित्य (५७ ई.पू. से) के समय भी मनुस्मृति ही संविधान रही।
इसके बाद शालिवाहन या सातवाहन वंश २८ ई. पू. से २२० ईस्वी तक नें भी मनु स्मृति और अन्य स्मृतियों में संशोधन करवा कर और अन्य स्मृतियों की रचना करवा कर स्मृतियों को संविधान घोषित किया।

चुंकि,स्मृतियाँ विधि विधान हैै, संविधान है; कानून की किताब है, लॉ बुक्स है; इसलिए जन साधारण को स्मृृृतियोंंका  ज्ञान नही के बराबर ही रहता है और न ही सामान्य जीवन में स्मृतियों का कोई विशेष काम पड़ता है। इसलिए स्मृतियों के ज्ञाता केवल आचार्य गण और न्यायकर्ता ही रहे थे।
आज भी विधि विशेषज्ञ ही स्मृतियों पर चर्चा करते हैं। लगभग नगण्य घरों में भी कोई स्मृति ग्रन्थ मिल पाएगा।
अतः वैदिक ब्राह्म धर्म को स्मृतियों ने भ्रष्ट नहीं किया अपितु पुराणों ने वैदिक ब्राह्म धर्म को भ्रष्ट किया है।

बुधवार, 4 अक्टूबर 2023

ज्ञान और ज्ञानी

जो व्यक्ति सबको अपने समान ही जानकर, सर्वभूत समभाव से सबको प्रेम करे, वह अहिन्सक है।

जो अहिन्सक हो वह सत्यवादी,सत्यव्रती, सत्याग्रही, सदाचारी हो सकता।
सत्य के भेद स्वार्थी, व्यावसायिक, परार्थी, व्यावहारिक,  वास्तविक, पारमार्थिक ऐसे भेद मान लिये गए हैं परन्तु हैं नही।
ब्रह्म सत्यम्। सच्चिदानन्द। सत्यम् शिवम् सुन्दरम् और सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म । ॐ तत् सत्।
इन सब वाक्यों में सत्य को ब्रह्म कहा हैं।
जो देखते - समझते हैं, जो मानते हैं, वही व्यक्त करते हैं, कहते हैं वे सत्यनिष्ठ हैं‌। 
परमात्मा आकाश के समान सर्वव्यापी है। या परमात्मा बर्फ में पानी के समान सर्व व्यापक है
इस वाक्य को क्या कहें? सत्य या असत्य?
भाव की दृष्टि से सत्य है। वास्तव में ऐसा भी नहीं है, नेति-नेति , अतः असत्य है। क्योंकि सर्वव्यापकत्व को समझाना लगभग असम्भव है। इसलिए समझोता करना पड़ता है।
ऐसे ही दृष्ट व्यावहारिक सत्य और वास्तविक पारमार्थिक सत्य शब्द गढ़ लिये गए। इन रूढ़ शब्दों की टाँग पकड़ कर बैठे रहना अनुचित है।
कभी-कभी समझाने के लिए आचार्यों को कई प्रकार के समझौते करना पड़ते हैं। इसी कारण भ्रम उत्पन्न हो कर सम्प्रदाय बनते हैं।
एकम् सद बहुदा विप्राः वदन्ति।

जो सदाचारी है, वही यह समझ पाता है कि, जिस हिरण्यगर्भ ने यह सृष्टि रची, उसके शयनकाल में यह सृष्टि उसकी ही नही रहती, तो पराई वस्तु का लोभ क्यों रखना, अतः वह पराई वस्तु पर दृष्टि ही नहीं रखता। वही स्तेय रहित चोरी न करने वाला, अस्तेय सिद्ध व्यक्ति हो सकता है।

जो सबको आत्मवत देख पाता हो, जो सदाचारी हो, जो लोभी - लालची न हो; वही बड़े से भी महा और महा से भी बड़े ब्रह्म की ओर चल सकता  है / बढ़ सकता अतः वही ब्रह्मचारी हो सकता। जो जगत के सर्व पदार्थों के प्रति उदासीन हो गया हो अतः ब्रह्म की ओर चल पड़ा हो वह ब्रह्मचारी है।

जो ब्रह्मचारी है वह परमात्मा की इस सृष्टि को स्वयम् अपने लिए ही नही मानता है, बल्कि सब पर सबका अधिकार  मानता। जो सर्ववस्तु परमात्मा की ही है, ऐसा  मानता है, अतः किसी चीज पर स्वामित्व स्थापित करने का भाव नहीं  रखता अतः वह अपरिग्रही होता है।

जिसमें उक्त पाँचो गुण अहिन्सा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य ,अपरिग्रह हो वह स्वच्छ, पवित्र और शुद्ध हो सकता।
जो शुद्ध - पवित्र हो उसे सन्तोष हो सकता। जब व्यक्ति ईश्वर के दिए से पूर्ण सन्तुष्ट हों लेकिन अपने किये को भी ईश्वरीय कृपा से सम्पन्न हुआ माने तभी उसे सन्तोष प्राप्त होता है।

जो सन्तुष्ट है और वह जो पञ्च यज्ञों और योग आदि कर्तव्य कर्म करता रहता है, उसके लिए ही तितिक्षा सम्भव है, वही धर्मपालनार्थ कष्ट सह सकता है। वही तपस्वी होता है।

जिसमें तितिक्षा नही, जो जप, पञ्च यज्ञों और योग आदि के द्वारा एकाग्रता प्राप्त न कर सका वह स्वाध्याय नही कर सकता। 
केवल पढ़ना भर स्वाध्याय नही है। पढ़े हुए को समझने के लिए मीमांसा करना आवश्यक है। मीमांसा करने के लिए अध्ययन के साथ और अध्ययन के बाद मनन और चिन्तन करना नितान्त आवश्यक है। अध्ययन, चिन्तन और मनन पूर्वक निदिध्यासन (ध्यान- समाधी) करने को ही स्वाध्याय कहते हैं।

जो स्वाध्याई नही वह ईश्वरार्पित नहीं हो सकता। ईश्वर पर अनन्य, अटल विश्वास करना तभी सम्भव है जिसने उक्त सभी धर्म लक्षण रूपी सद्गुण धारण कर लिया हो। तब उसके लिए वासुदेव सर्वम्, सियाराम मय सब जग जानी के अभ्यास से आत्मवत सर्वभूतानां यः पश्यन्ती सः पश्यन्ती वाली स्थिति हो जाती है तब वह ईश्वर प्रणिधान कर पाता है। अब उसके लिए परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नही रह जाता।

जिसमें उक्त दसों गुण हो वही धृतिवान धीर पुरुष होता है। वही धार्मिक व्यक्ति है।
 
स्वयम् को या दुसरे किसी को कुछ मानने और होने में अन्तर है।
अधिकांश लोग स्वयम् को धार्मिक मानते हैं। लेकिन यथार्थ में धार्मिक व्यक्ति दुर्लभ है।

वैदिक अभेदवादी यदि नास्तिक अनेकान्तवाद स्वीकार न कर सके तो, समझो भेद दृष्टि बनी हुई है। वैदिक अभेदवादी तो जानता है कि, इतना ही नही - इतना ही नही। नेति-नेति।
नास्तिक अनेकान्तवादी तो कहता है, यह भी सत्य है, वह भी सत्य है। यदि उसे यदि वैदिक अभेद दर्शन स्वीकार्य न हो तो, अनेकानेकान्त कहाँ रहा।

शरीरस्थ तत्वों का ज्ञान या स्वभाव है अर्थात प्रकृति का तत्वज्ञान अध्यात्म है। श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टमोध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि, स्वभाव अर्थात स्व भाव अर्थात प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु का मूल भाव ही, वस्तु की मूल प्रकृति ही अध्यात्म है। अतः जो आडम्बर और दिखाया रहित स्वाभाविक जीवन जीने का आदि है, वह आध्यात्मिक व्यक्ति है। जिसके सर्वोत्तम उदाहरण स्वयम् श्रीकृष्ण ही हैं।
जनता साधकों और सिद्धों, हठयोगियों, अघोरियों और तान्त्रिकों को अध्यात्मिक व्यक्ति मानती है। बुद्ध के पहले आत्मज्ञान, तत्वज्ञान, ज्ञान - विज्ञान, अनुभूति आदि के लिए अध्यात्म शब्द प्रचलन में नही था। 
स्वभाव अर्थात व्यक्ति या वस्तु की गुण धर्म - सम्पदा (Property) को अध्यात्म कहते थे।
बुद्ध के पहले प्रकृति का पर्यायवाची शब्द स्वभाव छन्दस में तो ठीक संस्कृत में भी नहीं आया। लेकिन बौद्ध प्रभाव से प्राकृत में और प्राकृत से विकसित हिन्दी आदि भाषाओं में स्वभाव को प्रकृति और प्रकृति को पुरुष का स्वभाव माना जाने लगा; और यह अर्थ रूढ़ हो गया।

आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक शब्द से लोगों नें भौतिक और प्राकृतिक से परे अध्यात्म की कल्पना कर ली।
जबकि ये त्रिताप के नाम हैं। आधिभौतिक ताप मतलब चोरी, लूट, राजदण्ड; आधिदैविक ताप मतलब बिजली गिरना, अतिवर्षा, बाढ़, आंधी-तुफान, भूकम्प आदि से पीड़ा और आध्यात्मिक ताप मतलब दैहिक/ शारीरिक ताप - ज्वर, दर्द, मौच, फ्रेक्चर, इन्फेक्शन आदि होते हैं।
स्पष्ट है कि, आध्यात्मिक मतलब दैहिक है न कि, आत्मिक। रामचरितमानस तक में कहा है कि, दैहिक, देविक, भौतिक तापा; राम राज्य कबहुँ नहीं व्यापा। स्पष्ट है कि यहाँ दैहिक ताप आध्यात्मिक ताप को ही कहा है।

ब्रह्म की दो कृतियाँ (क्रिएशंस) हैं। अपर पुरुष जीव और त्रिगुणात्मक प्रकृति आयु। 
ये ही दो प्रकृति जीवभूत परा प्रकृति और अष्टधा प्रकृति कही है।

कृति और रचना में अन्तर होता है। कृति होती है, रचना की जाती है। 
परमात्मा के विश्वात्मा स्वरूप (ॐ सङ्कल्प) के साथ ही प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) स्वरूप में प्रकटीकरण होना, और प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) का (दिव्य) परम पुरुष (विष्णु) और परम प्रकृति (माया) के रूप में जाना। अर्थात परम प्रकृति/ परा प्रकृति हुई; रची नही गई।
जैसे महर्षि वाल्मीकि का प्रथम श्लोक उनकी कृति था, रचना नहीं। लेकिन आर्किटेक्ट द्वारा तैयार भवन उसकी रचना होती है, कृति नही।

प्रत्यगात्मा ब्रह्म को सवितृ पुरुष और प्रकृति सावित्री के रूप में जाना जाता है। क्योंकि यह भी प्र कृति है; रचना नहीं। ऐसे ही अपर ब्रह्म प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) को अपर पुरुष नारायण और त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति श्री लक्ष्मी के रूप में जाना गया।
यहाँ तक कोई रचना नही हुई। लेकिन भूतात्मा वाणी - हिरण्यगर्भ (विश्वकर्मा) को (देही) प्राण और धारयित्व/ धृति (अवस्था) हुए जिसे आधिदैविक रूप में त्वष्टा और रचना कहा जाता है।
तात्पर्य यह कि, रचना का प्रारम्भ विश्वकर्मा हिरण्यगर्भ के द्वारा त्वष्टा रूप मे सृष्टि के गोलों को सुतार की भाँति घड़ने / गढ़ने से प्रारम्भ हुआ। इसके पहले कृति/ प्रकृति थी रचना नहीं।

यदि यह मान लिया जाए कि, देह को स्व मानने वाले का अध्यात्म देह है, प्राण (देहि) को स्व मानने वाले के लिए देही (प्राण) अध्यात्म है, जीवभाव को स्व मानने वाले के लिए जीवात्मा अध्यात्म है, पुर (देह) के स्वामी पुरुष को स्व मानने वाले के लिए अन्तरात्मा (प्रत्गात्मा) अध्यात्म है और परम (दिव्य) पुरुष को स्व मानने वाले के लिए प्रज्ञात्मा अध्यात्म है तब तो अध्यात्म शब्द ही निरर्थक हो जाएगा।
अतः यहाँ स्वभाव अष्टधा प्रकृति और जीवभूत परा प्रकृति दोनो से ही भिन्न अर्थ वाला ही मानना पड़ेगा।
प्रापर्टीज़ ऑफ मेटर का प्रापर्टी वाले अर्थ में ही मूल भाव स्वभाव को ही अध्यात्म मानना पड़ेगा।

देवीय सम्पदा और आसुरी सम्पदा शब्द इसी (प्रापर्टीज़) के अर्थ में आए हैं।
किसी भी मानव का मूल स्वभाव उसकी मानवीय वृत्ति - प्रवृत्ति अर्थात मानवता है।
यह प्रवृत्ति शब्द वृत्ति से बना है। वृत्तियाँ चित्त की शक्ति है। इसलिए वृत्ति का निरोध योग है। तभी मानव अपनी मूल मानवीय प्रवृत्ति से उपर उठ पाता है।

जगत, जीव, ईश्वर, आत्मा, परमात्मा का ज्ञान को भ्रमवश आध्यात्मिक ज्ञान बोला जाता है। क्योंकि वे जानकारियों को ज्ञान कहते हैं। जबकि वस्तुतः जगत, जीवन, जगदीश अर्थात जगजीवनराम को जानना ही ज्ञान है।
यहाँ कुछ विद्वान स्वभाव का अर्थ  त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति तो कुछ जीवभूता परा प्रकृति करते हैं। लेकिन 
श्रीमद्भगवद्गीता सप्तमोऽध्याय श्लोक ४ से ६ में अष्टधा प्रकृति का वर्णन किया। इसके बाद अपर पुरुष के रूप में स्वयम् का वर्णन भी भली-भाँति किया। 
जिसे जीवभूता पराप्रकृति कहा है उस जीवात्मा को अध्यात्म कहना होता तो श्रीमद्भगवद्गीता अष्टमोऽध्याय में श्रीकृष्ण स्वभाव शब्द क्यों कहते।

सम्बन्धित कुछ श्लोकों के अर्थ को को उधृत किया जा रहा है। ⤵️

श्रीमद्भगवद्गीता ७/५ अष्टधा प्रकृति से भिन्न जीवभूत परा प्रकृति है। 
७/६ सर्वभूत अष्टधा अपरा प्रकृति और जीवभूत परा प्रकृति ही है। मैं जगत का प्रभव और प्रलय हूँ।
७/२५ योग माया से आवृत्त (ढंका हुआ) में सबके लिए अप्रकाशित हूँ। अज्ञानी जन मुझे जन्मरहित और अव्यय नही जानते ‌।
७/२९ जो मेरे आश्रित होकर जरामरण से मुक्त होने का यत्न करते हैं वे, उस ब्रह्म कृत्स्रम अध्यात्म और अखिल कर्म को जानते हैं।
७/३० जो अन्तकाल में भी अधिभूत,अधिदैव और अधियज्ञ सहित मुझे जानते हैं, वे युक्तचित्त (योगी), मुझे जानते हैं।
८/३ - ४ परम अक्षर ब्रह्म है। स्वभाव अर्थात स्व भाव अर्थात प्रत्येक व्यक्ति/ वस्तु का अपना मूल भाव अध्यात्म कहा जाता है। भूतभाव को उत्पन्न करने वाला विसर्ग कर्म कहा गया है। उत्पत्ति-विनाश वाले क्षर भाव अधिभूत हैं। पुरुष अधिदैव हैं और यहाँ (श्रीकृष्ण के) इस शरीर में मैं अधियज्ञ हूँ।
१५/१६ सर्वभूत क्षर पुरुष है और कूटस्थ अक्षर पुरुष है।
१५/१७ सर्वभूत क्षर पुरुष और कूटस्थ अक्षर पुरुष से अन्य त्रिलोक व्यापी ,सबका पोषक, अव्यय उत्तम पुरुष ईश्वर परमात्मा कहलाता है।
१५/१८ क्षर और अक्षर से उत्तम होने के कारण मुझे पुरुषोत्तम कहते हैं।
१५/१९ में इसे गुह्यतम शास्त्र कहा है, जिसे जानकर व्यक्ति बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है ।
कहीँ भी अध्यात्म नही कहा है।
अध्यात्म केवल स्वभाव को ही कहा है।

अध्याय ७ श्लोक २९-३० में श्रीकृष्ण ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ शब्दों का प्रयोग करते हैं तो अष्टमोऽध्याय श्लोक १- २ में अर्जुन इन शब्दों का स्पष्टीकरण चाहता है, तब श्रीकृष्ण श्लोक ३- ४ में उत्तर देते हुए बतलाते हैं कि, परम अक्षर ब्रह्म है।  स्वभाव अर्थात स्व भाव अर्थात प्रत्येक व्यक्ति/ वस्तु का अपना मूल भाव अध्यात्म कहा जाता है। भूतभाव को उत्पन्न करने वाला विसर्ग कर्म कहा गया है। उत्पत्ति-विनाश वाले क्षर भाव अधिभूत हैं। पुरुष अधिदैव हैं और यहाँ (श्रीकृष्ण के) इस शरीर में मैं अधियज्ञ हूँ।
यहाँ यह स्पष्ट है कि, जब अष्टधा प्रकृति और जीवभूत परा प्रकृति का वर्णन श्रीकृष्ण पहले कर चुके थे। यहाँ श्रीकृष्ण ने स्वभाव शब्द का प्रयोग किया। यदि वे अष्टधा प्रकृति या जीवभूत को अध्यात्म बतलाना चाहते तो कहते मैरे द्वारा पूर्व कथित अष्टधा प्रकृति या जीवभूत परा प्रकृति ही अध्यात्म है। लेकिन उनने ऐसा न कहकर स्वभावो अध्यात्म उच्चते कहा। अतः किसी प्रकार के संशय और भ्रम की कोई गुंजाइश ही नहीं है।

मूलतः अपने शरीर को साधना - आसन, प्राणों को साधना - प्राणायाम, मन को साधना - प्रत्याहार, अहंकार को साधना धारणा, बुद्धि को साधना ध्यान और चित्त को साधना समाधि है। तेज को साधना संयम है। इनसे सिद्धि (सफलता) मिल सकती है, अध्यात्म नही।
स्वभावो दुरीतम् अर्थात स्वभाव या सहज प्रवृत्ति में बदलाव अत्यन्त कठिन है। लेकिन यदि कोई वाल्मीकि के समान स्वभाव पलट सके/ बदल सके तब उस साधक को आध्यात्मिक कहा जा सकता है। या जो निराडम्बर एकदम स्वाभाविक जीवन जीता हो वह व्यक्ति आध्यात्मिक है। क्योंकि उसने अपने अहंकार को पूर्णतः त्याग दिया है, तभी तो वह निन्दा - स्तुति में सम रहकर दिखावा रहित स्वाभाविक जीवन जी रहा है। 
लोग अघोरियों को आध्यात्मिक होने का भ्रम पाल लेते हैं। जबकि, उन्हें वैसा जीवन जीना सीखना पड़ता है, अघोरी जीवन मानव स्वभाव नहीं है।
इसलिए ये अध्यात्म नही है। बल्कि स्वाभाविक हो जाना ही आध्यात्मिकता है। क्योंकि स्वभाव ही अध्यात्म कहलाता है।
अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानम् ब्रह्म और सर्व खल्विदम् ब्रह्म यह वास्तविक ज्ञान है।