परमात्मा से विश्वात्मा ॐ शब्द प्रकट हुआ।
परमात्मा के ॐ शब्द से प्रज्ञात्मा परब्रह्म हुए। जिन्हें परम दिव्य पुरुष विष्णु और पराप्रकृति माया के रूप में जाना जाता है।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म से प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म (विधाता) प्रकट हुआ। प्रत्यगात्मा ब्रह्म (विधाता) को पुरुष - प्रकृति या सवितृ -सावित्री के रूप में जाना जाता है। इन्हें ही श्री हरि और कमलासना के रूप में दर्शाया जाता है।
प्रत्यगात्मा ब्रह्म (विधाता) से जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) हुआ। जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) को अपर पुरुष नारायण और त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति श्री और लक्ष्मी के रूप जाना जाता है।
जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) से भुतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (विश्वकर्मा) हुआ। भुतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (विश्वकर्मा) को प्राण - धारयित्व / चेतना - धृति / देही - अवस्था के स्वरूप में और त्वष्टा - रचना के आधिदैविक स्वरूप में जाना जाता है।
ऋग्वेद के अनुसार ब्रह्माण्ड के गोलों को त्वष्टा नें ही बढ़ाई की भाँति घड़ा। इसलिए हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को ही मूल विश्वकर्मा कहा जाता है। इनकी आयु दो परार्ध है। इनके प्रत्येक दिन में एक प्रजापति होते है।
भुतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (विश्वकर्मा) से सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा (विश्वरूप) हुआ। सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा (विश्वरूप) को ओज- आभा के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। आधिदैविक दृष्टि से प्रजापति (विश्वरूप) के २२ मानस पुत्र ---
१ अर्धनारीश्वर महारुद्र, २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन नामक चार ब्रह्मर्षि, ६ नारद ७ दक्ष (प्रथम) - प्रसुति ८ रुचि - आकुति और ९ कर्दम - देवहुति नामक प्रजापति , १० देवेन्द्र इन्द - शचि और ११ भूपेन्द्र स्वायम्भूव मनु - शतरुपा, १२ अग्नि - स्वाहा, १३ पितरः - स्वधा, १४ धर्म, १५ मरीचि - सम्भूति, १६ भृगु - ख्याति, १७ अङ्गिरा - स्मृति, १८ वशिष्ठ - उर्जा, १९ अत्रि - अनसुया, २० कृतु - सन्तति २१ पुलह - क्षमा और २२ पुलस्य - प्रीति नामक जैविक सृष्टि के जनक हुए।
सुत्रात्मा प्रजापति (विश्वरूप) से अणुरात्मा ब्रहस्पति (खम्) हुए। अणुरात्मा ब्रहस्पति (खं) को तेज - विद्युत के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। इनके अधिदेवता इन्द्र और शचि हुए जो प्रजापति की मानस सन्तान हैं।
अणुरात्मा ब्रहस्पति (खं) से विज्ञानात्मा (ब्रह्मणस्पति) हुआ। विज्ञानात्मा (ब्रह्मणस्पति) को विज्ञान - वृत्ति या चित्त - चेत के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है । इनके अधिदेवता आदित्य और उनकी शक्ति हैं।
विज्ञानात्मा (ब्रह्मणस्पति) से ज्ञानात्मा (वाचस्पति) हुआ ज्ञानात्मा (वाचस्पति) को बुद्धि - बोध के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। इनके अधिदेवता वसु और (वसु शक्ति) देवी हैं।
ज्ञानात्मा (वाचस्पति) से लिङ्गात्मा (पशुपति) हुआ अर्धनारीश्वर महारुद्र ही लिङ्गात्मा के अधिदेवता हैं। लिङ्गात्मा (पशुपति - अर्धनारीश्वर) को अहंकार - अस्मिता के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। इनके अधिदेवता रुद्र- रौद्री है।
लिङ्गात्मा (पशुपति - अर्धनारीश्वर) से मनसस्पति (गणपति) हुआ। ये गणपति विनायक नही बल्कि शंकर जी हैं।
मनसस्पति (गणपति) को मन- संकल्प एवम् विकल्प के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। इनके अधिदेवता स्वायम्भूव मनु - शतरुपा है।
मनसस्पति (गणपति शंकर) से स्व (सदसस्पति) हुआ। स्व (सदसस्पति) की शक्ति स्वभाव (मही) है। ये शक्ति कहलाती है। स्व- स्वभाव (सदसस्पति- मही) से १ वैकारिक स्व / स्वाहा (भारती), २ तेजस स्व / वोषट (सरस्वती) और ३ भूतादिक स्व / स्वधा (इळा) हुए। ये क्रमशः आधिदैविक शक्ति, अध्यात्मिक शक्ति, और आधिभौतिक शक्ति कहलातीं हैं। मनोविज्ञान में इन्हें क्रमशः सुपर इगो, इगो और ईड कहते हैं।
इनसे क्रमशः अधिदेव (अष्टादित्य), अध्यात्म (अन्य अष्टवसु)और अधिभूत (अन्य एकादश रुद्र) हुए।
जिन्हें मनोविज्ञान में क्रमशः प्रकट/ प्रत्यक्ष/ साक्षात (कांशियस), सब कांशियस और अप्रकट/ अप्रत्यक्ष/ परोक्ष (अन कांशियस) कहते हैं। भौतिकि में क्रमशः स्काय, टाईम और स्पेस कहते हैं।
परमात्मा से उत्पन्न ॐ ही मूल वेद (ज्ञान) है। जो परब्रह्म (विष्णु - माया) को प्राप्त हुआ।
परब्रह्म से यह ज्ञान (वेद) ब्रह्म (विधाता) (सवितृ - सावित्री) को प्राप्त हुआ।
ब्रह्म (विधाता) से यह वेद (ज्ञान) अपरब्रह्म (विराट) (नारायण - श्रीलक्ष्मी) को प्राप्त हुआ।
अपरब्रह्म (विराट) से हिरण्यगर्भ (विश्वकर्मा) को वेद प्राप्त हुआ।
हिरण्यगर्भ (विश्वकर्मा) से प्रजापति (विश्वरूप) को वेद प्राप्त हुआ। प्रजापति (विश्वरूप) ने ही प्रजा को वेद (ज्ञान) प्राप्त हुआ।
*शतपथ ब्राह्मण के अनुसार प्रजापति ने अग्नि को ऋग्वेद, वायु को यजुर्वेद, आदित्य को सामवेद और अङ्गिरा को अथर्वेद का ज्ञान दिया।*
पौराणिक काल में महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास अर्थात वेद व्यास जी अपने चार शिष्यों को अलग अलग वैदिक संहिताओं का ज्ञान प्रदान किया।
*वेदव्यास जी ने
१ पैल को ऋग्वेद, २वैशम्पायन को यजुर्वेद,
३ जैमिनी को सामवेद और
४ सुमन्तु को अथर्ववेद की शिक्षा दी।*
५ सुत और शौनक को इतिहास और पुराण पढ़ाया।
(सुचना - वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर ने विष्णु पुराण की रचना की थी। )
" *ब्राह्मण ग्रन्थ*
ऋग्वेद :
ऐतरेयब्राह्मण-(शैशिरीयशाकलशाखा)
कौषीतकि-(या शांखायन) ब्राह्मण (बाष्कल शाखा)
सामवेद :
प्रौढ(पंचविंश) ब्राह्मण
षडविंश ब्राह्मण
आर्षेय ब्राह्मण
मन्त्र (या छान्दौग्य) ब्राह्मण
जैमिनीय (या तलवाकार) ब्राह्मण
यजुर्वेद
शुक्ल यजुर्वेद :
शतपथब्राह्मण-(माध्यन्दिनीय वाजसनेयि शाखा)
शतपथब्राह्मण-(काण्व वाजसनेयि शाखा)
कृष्णयजुर्वेद :
तैत्तिरीयब्राह्मण
मैत्रायणीब्राह्मण
कठब्राह्मण
कपिष्ठलब्राह्मण
अथर्ववेद :
गोपथब्राह्मण (पिप्पलाद शाखा)"
*आरण्यक*
1जैमिनी, 2सांख्यायन, 3छान्दोग्य, 4 एतरेय, 5 तैत्तरीय और 6 मैत्रायणी (प्रथक है।)
अवेस्ता - प्राचीन ईरान में मग - मीढ सम्प्रदाय और संस्कृति का धर्मग्रन्थ अवेस्ता भी अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ही था।
जिस समय भारत में श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यास अपने शिष्यों को वैदिक शिक्षा और इतिहास पुराण की शिक्षा प्रदान कर रहे थे, उसी समय ईराक के असीरिया क्षेत्र में प्रचलित असुर (अश्शुर) पन्थ संस्कृति से प्रभावित महर्षि जुरथ्रस्त ईरान में आकर अवेस्ता की जैन्द व्याख्या कर ईरान में असूर मत पन्थ की शिक्षा दे रहे थे। जो कालान्तर में पारसी सम्प्रदाय कहलाया।
महर्षि जुरथ्रस्त ने अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता के मन्त्रों के साथ ही अपनी जेन्द व्याख्या इस प्रकार गड्डमड्ड कर दी कि, अब उन्हें अलग-अलग पहचाने में भाषाशास्त्री भी कठिनाई अनुभव करते हैं।
फिर भी अत्यल्प प्रयास के बावजूद भी आंशिक सफलता उक्त कथन की प्रामाणिकता सिद्ध करती है।
अपने मत की पुष्टि हेतु महर्षि जुरथ्रस्त ने गाथाओं में भी आंशिक परिवर्तन कर दिया। और कुछ नई गाथाएँ जोड़ दी।
इसकी जानकारी मिलने पर वेदव्यास जी ने ईरान जा कर महर्षि जुरथ्रस्त से शास्त्रार्थ किया। जिसका एक पक्षीय वर्णन अवेस्ता में उपलब्ध है। श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यास अत्यन्त काले थे, इसी लिए उनका नाम कृष्ण अर्थात काला रखा गया था। जुरथ्रस्त ने भी अवेस्ता में प्राचीन ईरानी भाषा में उन्हें हिन्दू अर्थात काला कहा है। और गेहुँआ रङ्ग के भारतीय निवासियों के सिन्धु नदी के पूर्व क्षेत्र को हिन्दूस्तान कहा है।
यही कार्य पुष्यमित्र शुङ्ग की सफलता से जले भुने बौद्ध और जैन आचार्यों ने भी किया।
पुष्यमित्र शुङ्ग के बाद और धार के राजा भोज के समय तक विशेषकर उत्तर भारत में कुषाण वंश और दक्षिण भारत में सातवाहन वंश के शासनकाल में बौद्ध आचार्यों ने तत्कालीन सनातन धर्म में सम्मिलित होने का ढोंग कर पुराणों के नाम पर अनेक बौद्ध जैन अवधारणा जोड़ दी गई। वशिष्ट, विश्वामित्र, पाराशर आदि ऋषि- मुनियों और इन्द्र, वायु आदि देवताओं को अत्यन्त कामुक, क्रोधी और लोभी सिद्ध करनें वाली कथाएँ जोड़ दी। जिन वेदव्यास जी के नाम पर पुराण रचे उनके पिता महर्षि पराशर और स्वयम् वेदव्यास जी को भी लाञ्छित करने में नही चुके। श्री राम पर मान्स मदिरा का प्रचूर सेवन करना, बाली का छल पुर्वक वध, सीता की अग्निपरीक्षा, गर्भवती सीता का छल पुर्वक परित्याग, शुद्र तपस्वी शम्बुक का वध जैसे आरोप लगाये। श्री कृष्ण का चरित्र तो अत्यन्त घृणित, चोर, छलिया, ब्रहम्म वैवर्त पुराण में तो ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही श्रीकृष्ण को अत्यन्त कामी, कुब्जा के सङ्ग भोग करने जैसे घृणित आरोप लगाये।
असुर,दैत्य, दानव, राक्षस अत्यन्त नैतिक, बलवान, दानी, धर्मी बतलाया। सभी असुर इन्द्र को विजित कर लेने वाले और स्वर्ग विजेता बतलाया। केवल ऋषभदेव, बाहुबली, और गोतम बुद्ध को अत्यन्त सच्चरित्र बतलाया। अवतार वाद का सनातनधर्मी सिद्धान्त था कि, जीवन मुक्त सिद्ध महात्माओं जगत हित में महर्लोक आदि से भूलोक में जन्म लेकर निर्धारित लक्षित कार्य पूर्ण करने के लिए अवतरित होते हैं; इस सिद्धान्त के स्थान पर जातक कथाओं के समान अवतारवाद घुसाया। जिसमे ईश्वरीय देव पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।
महाभारत शान्ति पर्व/ मोक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२- ३३३में अध्याय ३३३ का श्लोक २६ - २७ में लिखा है कि,
"इस प्रकार अपना प्रभाव दिखाकर शुकदेव जी अन्तर्धान हो गये और शब्द आदि गुणों का परित्याग करके परमपद को प्राप्त हुए।"
वेदव्यास जी पुत्र शोक में बहुत रोये।
(शरशय्या पर लेटे धर्मोपदेश करते हुए पितामह भीष्म युधिष्ठिर को कहते हैं, बहुत समय व्यतीत हो गया, वेदव्यास जी के पुत्र शुकदेव जी ब्रह्मलोक चले गये।) अर्थात महाभारत युद्ध के बहुत पहले शुकदेव जी देह त्याग चुके थे। उस समय अभिमन्यु पुत्र परीक्षित उत्तरा के गर्भ में ही थे। कृपया गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित (महाभारत पञ्चम खण्ड में) महाभारत शान्ति पर्व/ मोक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२- ३३३में अध्याय ३३३ पढ़ें।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार वे ही शुकदेव जी परीक्षित की मृत्यु के पूर्व उन परीक्षित को भागवत पुराण सुनाते हैं। जिससे परीक्षित मृत्यु पूर्व ही जीवन मुक्त हो पाते हैं। यह कैसे सम्भव है?
शिवपुराण वेदों और अन्य सभी पुराणों से एकदम उलट मत प्रस्तुत करता है।
वैदिक साहित्य महाभारत और वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर की रचना विष्णु पुराण के अनुसार अर्धनारीश्वर महारुद्र की उत्पत्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के रोष (क्रोध) से हुई। उनने स्वयम् को रुद्र और रौद्री (शंकर-उमा) में विभाजित किया। उनसे उनके सहित ग्यारह रुद्र और ग्यारह रौद्रियाँ हुई।
जबकि, शिव पुराण के अनुसार शंकर जी से ही सबकुछ उत्पन्न हुआ। सभी देवों की उत्पत्ति भी शंकर जी से हुई।
लेकिन विचित्रता यह कि, शंकरजी की पत्नी की कई बार मृत्यु होकर पुनर्जन्म लेती है। मतलब वे एक मन्वन्तर तक जीवित रहने वाले देवताओं में भी सम्मिलित नही है।
बतलाया गया है कि, दक्ष यज्ञ में सती आत्मदाह कर लेती है। और शंकरजी सती की मृत देह लेकर विक्षिप्त की भाँति भटकते रहे। विष्णु जी ने सती की देह के इक्कावन टुकड़े कर दिए। जहाँ जहाँ टुकड़े गिरे वहाँ शक्ति पीठ बन गये।
जबकि महाभारत/ शान्तिपर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक में लिखा है कि, दक्षयज्ञ में गई पार्वती (न कि, सती) शंकरजी के साथ कैलाश पर सकुशल प्रसन्नता पूर्वक लौट आती है। न सती ने आत्मदाह किया, न पुनर्जन्म हुआ, न लाश के इक्कावन टुकड़े हुए, न शक्ति पीठ बने।
वैदों में कहीँ भी ब्रह्मा विष्णु महेश वाला त्रिदेव फार्मुला नही है। यह शंकराचार्य जी द्वारा पञ्चदेवोपासना का उपदेश देने के बाद त्रिदेव फार्मुला घोषित किया गया।
*उपनिषद*
इन्ही ब्राह्मण आरण्यकों का अन्तिम भाग वेदान्त या ब्रह्मविद्या, ब्रह्मसूत्र, और उपनिषद कहलाते हैं। तेरह उपनिषद मुख्य हैं।
ऐतरेय आरण्यक के चौथे, पाँचवे और छटे अध्याय अर्थात ऐतरेयोपनिषद और कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् कहलाते हैं।
शुक्ल यजुर्वेद संहिता माध्यन्दिन शाखा का चालिसवाँ अध्याय ईशावास्योपनिषद है। यह शुक्ल यजुर्वेद की कण्व शाखा में भी थोड़े से अन्तर से उपलब्ध है।
शुक्ल यजुर्वेद के काण्वी शाखा के वाजसनेयी ब्राह्मण के अन्तसुत और शौनकर्गत आरण्यक भाग के वृहदाकार होनें के कारण वृहदारण्यकोपनिषद नाम से प्रसिद्ध है।
कृष्णयजुर्वेदीय श्वेताश्वतरोपनिषद तथा कृष्णयजुर्वेदीय कठ शाखा का कठोपनिषद तैत्तरीय शाखा के तैत्तरीय आरण्यक के दस अध्यायों में से सातवें, आठवें और नौवें अध्याय अर्थात तैत्तरीयोपनिषद कहलाता है।
सामवेद के तलवाकार ब्राह्मण के तलवाकार उपनिषद जिसे जेमिनीयोपनिषद भी कहते हैं इसके प्रथम मन्त्र के प्रथम शब्द केनेषितम् शब्द के कारण केनोपनिषद नाम से प्रसिद्ध है तथा सामवेद के तलवाकार शाखा के छान्दोग्य ब्राह्मण के दस अध्याय में से तीसरे अध्याय से दसवें अध्याय तक को छान्दोग्योपनिषद कहते हैं।
अथर्वेदीय पिप्पलाद शास्त्रीय ब्राह्मण के प्रश्नोपनिषद एवम् अथर्ववेद की शौनक शाखा के मुण्डकोपनिषद और माण्डूक्योपनिषद्
तथा मैत्रायणी आरण्यक का अन्तिम अध्याय मैत्रायणी उपनिषद है।
1ईश,2 केन 3 कठ, 4 मण्डुक, 5 माण्डूक्य, 6 एतरेय, 7 तैत्तरीय, 8 प्रश्न, 9 श्वेताश्वतर, 10 वृहदारण्यक, 11 छान्दोग्य, उक्त ग्यारह उपनिषदों पर भगवान शंकराचार्य जी ने भाष्य लिखे हैं अतः ये विशेष माने जाते हैं। इनके अलावा दो और वेदिक उपनिषद हैं; 12 कौषीतकि, 13 मैत्रायणी उपनिषद।
ब्राह्मण ग्रन्थों के मन्त्रों में दिखने वाली मतभिन्नता पर मीमांसा और संक्षिप्त व्याख्या जैमिनी ने पूर्व मीमांसा और उपनिषदों के मन्त्रों में दिखने वाली मतभिन्नता पर मीमांसा और संक्षिप्त व्याख्या कर बादरायण ने उत्तर मीमान्सा दर्शन तैयार किया।
उपवेद भी चार हैं-
*चार उपवेद -*
*१ आयुर्वेद* - ऋग्वेद से (परन्तु सुश्रुत इसे अथर्ववेद से व्युत्पन्न मानते हैं);
*२ धनुर्वेद* - यजुर्वेद से ;कुछ लोग अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं।
*३ गन्धर्ववेद* - सामवेद से, तथा
*४ शिल्पवेद* / *स्थापत्य वेद -* अथर्ववेद से ।
वेदों की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थ में है। जिसमें यज्ञ विध, संस्कार विधि, देश चयन (वास्तु ),काल चयन (ज्योतिष ),पात्र चयन (अधिकारी /अनधिकारी चयन ), मण्डप, बेदी विधि, (यज्ञ कुण्ड ) निर्माण विधि, धर्माधर्म निर्णय सब कुछ विस्तार से बतलाया और समझाया है।
*बुद्धियोग/ कर्मयोग शास्त्र* - किसी भी कर्म को किस आशय और उद्दैश्य से कैसे किया जाय ताकि, कर्म का लेप न हो इसकी विधि कर्मयोग शास्त्र, बुद्धियोग है।(वर्तमान में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता है);
फिर ब्राह्मण ग्रन्थों की विषयवार क्रियात्मक व्याख्या / प्रेक्टिकल बुक सुत्र ग्रन्थों का वर्णन वेदाङ्ग वर्णन में कल्प के अन्तर्गत किया है।
*उपवेद* - चारों वेदों के उपवेद हैं-
ऋग्वेद - स्थापत्य वेद/ शिल्पवेद - हारीत संहिता
*स्थापत्य वेद* - आर्किटेक्चर का ज्ञान - विज्ञान है। यह शुल्ब सुत्रों का सहयोगी शास्त्र है। इस से लगभग हर व्यक्ति परिचित है क्योंकि भवन निर्माण, रेल पथ, सड़क, हवाई अड्डे, बन्दरगाह, सेतु, पुल पुलिया आदि का निर्माण हमारे समक्ष होता रहता है। इसी का ज्ञान शिल्पवेद है।
यजुर्वेद - धनुर्वेद - भेल संहिता
*धनुर्वेद* - क्षत्रियोचित देहयष्टि तैयार कर अस्त्र- शस्त्र ,आग्नेयास्त्र, राकेट आदि का निर्माण कर उनका सफल संचालन, निवारण ,सुरक्षा और संरक्षण करने का सैन्य शास्त्र है। वैमानिकी शास्त्र, रथ, भूमि वाहन,सेतु निर्माण, दुर्ग रंरचना, निर्माण, व्यवस्थापन और संरक्षण, जहाज, नौकायन , विशाल यान्त्रिकी का ज्ञान, विज्ञान हैं।
सामवेद - गन्धर्ववेद - कश्यप संहिता।
*गन्धर्व वेद* - संगीत, गायन , वादन, वाद्य यंत्र निर्माण, अनुरक्षण, संधारण, नाट्य, नृत्य, अभिनय, मंच निर्माण, सुत्रधार कर्म आदि का ज्ञान विज्ञान।
अथर्वेद- आयुर्वेद- चरक संहिता- सुश्रुत संहिता- वाग्भट्ट संहिता, भावप्रकाश संहिता, शार्ङधर संहिता, माधव निदान संहिता।
*आयुर्वेद* - स्वस्थ्य तन- मन पुर्वक जीवन जीने की कला और अस्वस्थ्य होने पर उपचार विधि, चिकित्सा शास्त्र।
वर्तमान में औशध शास्त्र में चरक संहिता और शल्य चिकित्सा हेतु सुश्रुत संहिता ही उपलब्ध है।
गवायुर्वेद, श्वायुर्वेद, हस्ति आयुर्वेद आदि भी इसी के भाग हैं।
*वेदाङ्ग* - वेदांग छः हैं। १ कल्प, २ ज्योतिष, ३ निरुक्त, ४ शिक्षा, ५ व्याकरण और ६ छन्द
*कल्प* के अन्तर्गत १श्रोत सुत्र, २ गृह्य सुत्र, ३शुल्ब सुत्र और ४ धर्म सुत्र आते हैं।
सुत्र ग्रन्थ -
*श्रोत सुत्रों* - में बड़े यज्ञों की विधि है;
*ग्रह्य सुत्रों* - में संस्कार विधि, उत्सव (त्योहार) और पर्व मनाने की विधि, जन्म दिन आदि मनाने की विधि है;
*शुल्बसुत्रों* - में यज्ञ और क्रियाओं/ कर्मकाण्ड के लिये / संस्कारों के लिये ज्योतिष गणना (सिद्धान्त ज्योतिष) और उचित समय निर्धारण (मुहूर्त), उचित स्थान चयन मण्डप और यज्ञ वेदी बनाने की विधि (वास्तुशास्त्र) का ज्ञान प्रदान किया गया है। इसके साथ ही मण्डप, मण्डल और यज्ञवेदी निर्माण विधि बतलाई गई है।
धर्म सुत्र - उचित, अनुचित पात्र, उचित अनुचित कर्म निर्णय, कर्त्तव्याकर्त्तव्य निर्णय अर्थात कार्य अकार्य निर्णय, कर्त्तव्यों की अवहेलना या अकार्य कर्म होने के प्रायश्चित विधि आदि सब धर्म व्याख्या है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि इनके ही पुरक सहायक ग्रन्थ है।
*ज्योतिष* - त्रीस्कन्ध ज्योतिष के अन्तर्गत 1 सिद्धान्त ज्योतिष गणिताध्याय (ग्रह गणित), एवम् 2 सिद्धान्त ज्योतिष गोलाध्याय (खगोल) 3 संहिता ज्योतिष (नारद संहिता, गर्ग संहिता, रावण संहिता, वराह संहिता,और भद्रबाहु संहिता), मेदिनी ज्योतिष यानी राष्ट्रीय भविष्य ज्ञान, मुहुर्त, वास्तु, सामुहिक शास्त्र, शकुन शास्त्र, अंकविद्या आदि अनेक विभिन्न विषयों के सम्मिलित ज्ञान को संहिता कहते हैं। तथा 4 होराशास्त्र - जातक शास्त्र अर्थात फलित ज्योतिष को ( जिसमें ताजिक अर्थात वर्षफल और प्रश्न ज्योतिष सम्मिलित है।) और
*निरुक्त* - भाषा शास्त्र इसी का भाग है। वर्तमान में यास्क का निरुक्त और पाणिनि की अष्टाध्यायी एवम् अमरकोश ग्रन्थ उपलब्ध है।
शब्द व्युत्पत्ति इसका मुख्य विषय है। वेदिक ग्रन्थों को समझने के लिये निरुक्त और मीमांसा का ज्ञान अत्यावश्यक है।
वर्तमान में यास्काचार्य का *निरुक्त* उपलब्ध है।
*प्रतिशाख्य* - शिक्षा - उच्चारण करने की विधि ---
ऋग्वेद एवम् सामवेद - पुष्पसुत्र ।
शुक्ल यजुर्वेद कृष्ण यजुर्वेद - तैत्तरीय संहिता।
सांख्य दर्शन - ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिकाएँ और महर्षि कपिल ऋषि कृत सांख्य सुत्र या सांख्य दर्शन उपलब्ध है।
*अष्टाङ्ग योग* धनुर्वेद और आयुर्वेद के लिये बहुत बड़ा सहयोगी ग्रन्थ है। वर्तमान में पतञ्जलि का योग दर्शन और उसपर व्यास भाष्य और उसपर भी व्यास वृत्ति सहित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित उपलब्ध है।
*वैशेषिक दर्शन* में भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान की दृष्टि से सृष्टि उत्पत्ति वर्णन है यह सांख्य शास्त्र का सहयोगी है।वर्तमान में कणाद का वैशेषिक दर्शन उपलब्ध है।
*न्याय दर्शन* - में तार्किक दृष्टिकोण से गहन और विषद तर्कों के माध्यम से सृष्टि उत्पत्ति समझाई गई है।
इसका सर्वाधिक उपयोग मिमांसा दर्शनों में हुआ है।फिर भी इसे वैशेषिक दर्शन का सहयोगी दर्शन माना जाता है।
*दर्शन* - सभी दर्शनों का उद्देश्य परमात्मा से आज तक की जैविक और भौतिक सृष्टि तक विकास/ पतन चक्र के आधार पर परमात्मा - जीव और जगत के पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या करना है। जगजीवन राम ( जगत- जीवन - ब्रह्म / ईश्वर) का ज्ञान ही दर्शन है।
*स्मृतियाँ*
1 अङ्गिरा,2 व्यास,3 आपस्थम्ब, 4 दक्ष, 5 विष्णु, 6 याज्ञवल्क्य, 7 लिखित, 8 संवत, 9 शंख, 10 ब्रहस्पति,11 अत्रि, 12 कात्यायन, 13 पाराशर, 14 मनु, 15औशनस, 16 हारीत, 17गोतम,18 यम।
*उपस्मृतियाँ*
1 कश्यप, 2पुलस्य, 3 नारद, 4 विश्वामित्र, 5 देवल, 6 मार्कण्डेय, 7 ऋष्यशङ्ग 8 आश्वलायन, 9 नारायण, 10 भारद्वाज, 11 लोहित, 12 व्याग्रपद, 13 दालभ्य, 14 प्रजापति, 15 शाकातप, 16 वधुला, 17 गोभिल, "
सनातन वैदिक धर्म के विषय में किसी भी निर्णय के लिए उक्त शास्त्रों/ ग्रन्थों का ज्ञान होना आवश्यक है।
केवल उक्त शास्त्रों के आधार पर दिया गया निर्णय ही अन्तिम और मान्य होता है।
उक्त शास्त्रों के ज्ञाता द्वारा सम्पादित किया गया वैदिक कर्मकाण्ड/ क्रियाओं का क्रियान्वयन भी फलीभूत होता है। अन्यथा हम वर्तमान आचार्यों पुरोहितों के कर्मकाण्ड की क्रियाओं के परिणाम कैसे फलीभूत होते हैं सब जानते हैं।
अतः "एस्ट्रोनॉमी, एस्ट्रोफिजिक्स, ब्रह्माण्ड विज्ञान, मौसम विज्ञान, जीव विज्ञान, नृतत्वशास्त्र - समाजशास्त्र और मनो विश्लेषण और भाषाशास्त्र के जानकार वैदिक विद्वानों की महासभा आयोजित कर सर्वसम्मत निर्णय लिये जाकर वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों,शुल्बसुत्रों, श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, धर्मसुत्रों और पूर्व मीमांसा - उत्तर मीमांसा ग्रन्थों को आधार बनाकर वैदिक विद्वानों द्वारा एकमत हो वैदिक कर्मकाण्ड की क्रियाओं और धर्मशास्त्र पर सर्वसम्मत निबन्ध ग्रन्थ रचना आवश्यक है।
जैसे कि, वर्तमान में प्रचलित पौराणिक आधार पर हेमाद्रि पन्त ने चतुर्वर्ग चिन्तामणी, सायणाचार्य के भाई माधवाचार्य ने काल माधव, कमलाकर भट्ट ने निर्णय सिन्धु ग्रन्थ रचा और काशीनाथ उपाध्याय नें निर्णयसिन्धु के निर्णयों के आधार पर धर्मसिन्धु जैसे सर्वस्वीकृत ग्रन्थ रचे थे ; उसी प्रकार, वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों,शुल्बसुत्रों, श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, धर्मसुत्रों और पूर्व मीमांसा - उत्तर मीमांसा ग्रन्थों को आधार बनाकर वैदिक विद्वानों द्वारा एकमत हो धर्मशास्त्र पर और वैदिक कर्मकाण्ड की क्रियाओं के लिए सर्वसम्मत निबन्ध ग्रन्थ रचा जाए।"
अत्यन्त उपयोगी और महत्त्वपूर्ण यह लेख पढ कर परम प्रसन्नता के साथ इन लेखक महोदय जी का आभार सहर्ष प्रस्तुत करता हूँ.
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