*वैदिक ज्योतिष पत्रक/ केलेण्डर और वर्तमान पञ्चाङ्ग में अन्तर*
*वैदिक काल में तिथियों के नाम पर केवल अर्धचन्द्र अर्थात अष्टका एकाष्टका (अष्टमी तिथि का मध्य भाग), पूर्णचन्द्र अर्थात पूर्णिमा (सूर्य से चन्द्रमा १८०° पर) और चन्द्रमा का अदर्शन/ लोप अर्थात अमावस्या (सूर्य और चन्द्रमा की युति/ सूर्य और चन्द्रमा में अन्तर ०००° का।) बस इनका ही उल्लेख आता है।*
अर्थात वर्तमान में प्रचलित सूर्य और चन्द्रमा में प्रत्येक १२° अन्तर के आधार पर बनी तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। ऐसे ही
*स्थिर ताराओं के समुह से बनी आकृति वाले असमान भोग वाले अट्ठाइस नक्षत्र प्रचलित थे।*
अर्थात अलग अलग नक्षत्रों के अंश कला विकला असमान थे। चित्रा नक्षत्र का भोग केवल ००°२३'३१" ही था, स्वाती नक्षत्र का भोग २०°५०'५७" था, जबकि धनिष्ठा नक्षत्र का भोग २५°१४'०८" था; ऐसे ही सभी नक्षत्रों के भोगांश अलग अलग थे न कि, वर्तमान में प्रचलित १३°२०'।*
*अलग अलग कार्यों के लिए तीन प्रकार से दिनांक की गणना प्रचलित थी।*
(१) समस्त प्रयोजनार्थ आधारभूत ज्योतिष पत्रक में ३६५. २४२१९ दिन का सायन सौर वर्ष , सायन संक्रान्तियों पर आधारित मास और सायन संक्रान्ति से गत दिवस (गते)। तथा
(२) धार्मिक प्रयोजनार्थ सायन सौर संक्रान्तियों से प्रारम्भ होनें वाले सायन सौर मास और चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर मिति/ तिथि या दिनांक धार्मिक प्रयोजन में प्रचलित थे।
इनके साथ ही -
सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित उत्तरायण/ दक्षिणायन और उत्तर तोयन/ दक्षिण तोयन। तथा सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित ऋतुएँ प्रचलित थी। जिनका विवरण आगे प्रस्तुत दिया जा रहा है।
(३) व्यवसाय/ व्यवहार में ३६० दिन का सावन वर्ष, ३० दिन का सावन माह और तीस मुहुर्त (साठ घटिका) का सावन दिन और दशाह के दस वासर (वार)। जो वेतन/ मजदूरी देनें में उपयोग किये जाते थे।
१ अयन -
१ (क) जब सूर्य भूमि के उत्तरी गोलार्ध में गतिशील दिखे तब उत्तरायण पौराणिक काल से इसे उत्तर गोल कहा जाने लगा है एवम्
१ (ख) जब सूर्य भूमि के दक्षिणी गोलार्ध में गतिशील दिखे तब दक्षिणायन। पौराणिक काल से इसे दक्षिण गोल कहा जाने लगा है।
२ तोयन -
२(क) जब सूर्य मकर रेखा से कर्क रेखा की ओर जाते दिखे अर्थात दक्षिण से उत्तर दिशा में गतिशील दिखे तब उत्तर तोयन। पौराणिक काल से इसे उत्तरायण कहा जाने लगा है।एवम्
२(ख) जब सूर्य कर्क रेखा से मकर रेखा की ओर जाते दिखे तब दक्षिण तोयन अर्थात उत्तर से दक्षिण दिशा में गतिशील दिखे तब दक्षिण तोयन। पौराणिक काल से इसे दक्षिणायन कहा जाने लगा है।
३ ऋतुएँ -
सायन संक्रान्तियों पर आधारित ऋतुएँ। जो दो सायन सौर मास के बराबर होती थी। लेकिन अलग अलग गोलार्धों मे अलग अलग ऋतुएँ होती है साथ ही अलग-अलग अक्षांशों पर भी अलग-अलग ऋतुएँ होती है।
४ मास
सायन सौर संक्रान्तियों से प्रारम्भ होनें वाले सायन सौर मास।
और
५ दिनांक/ मिति/ तिथि -
चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर मिति/ तिथि या दिनांक धार्मिक प्रयोजन में प्रचलित थे।
वैदिक काल में न राशियाँ प्रचलित थी न सूर्य और चन्द्रमा के १२° अन्तर के आधार पर बनी तिथियाँ प्रचलित थी। न अर्ध तिथिमान वाले करण प्रचलित थे। तो भद्रा के विचार का प्रश्न ही उपस्थित नही होता था।
न ही चन्द्रमा के १३°२०' अन्तर वाले २७ नक्षत्र प्रचलित थे। न सत्ताईस योग प्रचलित थे।
वर्तमान में तिथि, वार, नक्षत्र, योग करण वाली पञ्चाङ्ग का आधार ३६५.२५६३६३ दिन वाला नाक्षत्रीय/ निरयन सौर वर्ष और नक्षत्र मण्डल के ३०° वाले १२ विभाग जिसे राशि कहा जाता है के आधार वाले निरयन सौर मास तथा सूर्य से चन्द्रमा के प्रत्येक १२° अन्तर वाली तिथियों, और सूर्य से चन्द्रमा के प्रत्येक ०६° अन्तर वाले करण, एवम् भचक्र के प्रत्येक १३°२०' पर अलग अलग सत्ताईस नक्षत्र पर आधारित ज्योतिष पत्रक है।
सूर्य और और चन्द्रमा के निरयन भोगांशो के योग को सत्ताईस से भाग देकर योग ज्ञात किया जाता है। जिसका कोई वैज्ञानिक आधार कोई नही जानता। जबकि सूर्य और चन्द्रमा के सायन भोगों का योग १८०° होनें पर व्यतिपात और सूर्य और चन्द्रमा के सायन भोगों का योग ३६०° होनें पर वैधृतिपात पूर्णतः वैज्ञानिक पात हैं।
होली/ होलिका दहन ---
पौराणिक काल से वर्तमान काल तक भी वसन्त ऋतु के आरम्भ में प्रदोष व्यापिनी फाल्गुन पूर्णिमा होली का पर्व दिवस माना जाता है। और प्रदोषकाल होली का पर्वकाल माना जाता है। जिसमे होलिका दहन होना चाहिए।
धार्मिक दृष्टि से सभी पुर्णिमा और अमावस्याओं में प्रदोषकाल और महानिशिथ काल का ही महत्व होने से प्रदोषकाल व्यापी और महानिशिथ काल व्यापी पूर्णिमा और अमावस्या ग्रहण की जाती है।
लेकिन मुहुर्त वादी ज्योतिषियों ने व्रत पर्वों में भी मुहुर्त का प्रवेश करा दिया।
पौराणिक काल में वराह मिहिर की वराह संहिता के प्रभाव से मुहुर्त का महत्व अत्यधिक बढ़ गया। हर कार्य का मुहुर्त देखा जाने लगा। तब से भद्रा,भद्रा मुख, और भद्रा पुच्छ का विचार किया जाने लगा।
अन्यथा वैदिक दृष्टि से न श्रावणी कर्म में न ही होलिका दहन में किसी भी धार्मिक पर्व में भद्रा का कोई विचार नही किया जाना चाहिए।
*होली पर्व का अर्थ एवम महत्व।*
*होलाका नव सस्येष्टि का वैदिक पर्व है। जिसमे वसन्त ऋतु में होनें वाली कृषि उपज का हवन किया जाता है। इसे ही वर्तमान में होली का पर्व कहते हैं। पञ्जाब में आज भी होला ही कहते हैं।*
हरे चने (छोड़) को घाँस में सेंक कर होला खाने की परम्परा आज भी विद्यमान है। ऐसे ही हरे गेहूँ की बाली (उम्बी) सेंक कर भी खाई जाती है। हरी मटर भी सेंक कर खाई जाती है। यही होला इस पर्व के नामकरण का आधार है।
गेहूँ की बाली, चना (छोड़), मटर की फली सेकने पर उसकी छिलका जल जाता है और पका हुआ बीज खाया जाता है। छिलके से उत्पत्ति नही होनें के कारण माता तो नही कहा जा सकता लेकिन छिलके द्वारा बीज को गर्भ में धारण करने के आधार पर छिलके को बीज की माता के समान माना जाता है। माता की बहन मौसी (मासी) कही जाती है और पिता की बहन भुआ को भी माँ के समान ही माना जाता है।
विष्णु के अर्पण कर्म को यज्ञ कहा जाता है। यज्ञ में विष्णु को आहुति दी जाती है। इष्टि में भी विष्णु को आहुति दी जाती है। अर्थात नव सस्येष्टि में नवान्न विष्णु अर्पण किया जाता है।
इसी प्रक्रिया को रूपकात्मक वर्णन करते हुए कहा गया कि,(बीज/दाना अर्थात) विष्णु भक्त प्रह्लाद को गोद में लेकर उसकी भूआ होलिका (छिलका) अग्नि में प्रवेश कर गई। होलिका (छिलका) तो जल गया, लेकिन प्रह्लाद तप कर और निखर गया।
यही होला या होली या होला मोहल्ला पर्व, उत्सव और त्योहार का कारण और आधार है।
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