गुरुवार, 2 मार्च 2023

वैदिक कालीन संवत्सर प्रणाली में पौराणिक पञ्चाङ्ग संशोधन।

वैदिक काल से लेकर आज तक संवत्सर आरम्भ का मुख्य आधार वसन्त सम्पात ही रहा है।
लोकमान्य बालगङ्गाधर तिलक जी, श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित, श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट, श्री नीलेश ओक आदि कई विद्वान सिद्ध कर चुके हैं कि, ब्राह्मण ग्रन्थों के रचना काल से पौराणिक काल तक में भी वसन्त सम्पात चैत्र वैशाखादि अलग अलग मासों में होनें के कारण संवत्सर का चैत्र वैशाख आदि मास परिवर्तित होता रहा है। यही कार्य नेपाल के धर्म शास्त्री पुनः करना चाहते हैं। शायद वे वैशाख मास से संवत्सर प्रारम्भ करना चाहते हैं।
उक्त विद्वानों द्वारा यह भी प्रमाणित किया गया है कि, वैदिक काल में संवत्सर प्रारम्भ, उत्तरायण का प्रारम्भ वसन्त ऋतु प्रारम्भ और मधुमास का प्रारम्भ वसन्त सम्पात से ही माना जाता था। 
महाभारत युद्ध के बाद और विशेषकर पुष्यमित्र शुंग के राज्यकाल से आरम्भ होकर धारानगरी के राजा भोज तक की अवधि में पुराणों में अत्यधिक संशोधन हुआ। इसी अवधि को पौराणिक काल कह सकते हैं। उत्तर भारत में कुशाण वंशिय राजाओं ने और दक्षिण भारत में उन्ही के समकालीन सातवाहन राजाओं ने पूराण संशोधन कार्य में भरपूर राजकीय सहयोग दिया।
उक्त पौराणिक काल में ही सिद्धान्त ज्योतिष (एस्ट्रोनॉमी) और संहिता ज्योतिष के अधिकांश ग्रन्थ रचे गये। पूराणों, ज्योतिष सिद्धान्त ग्रन्थ और संहिता ज्योतिष ग्रन्थों में वर्षा काल में पड़ने वाले मुहुर्तों को तीन माह पहले करने के लिए वैदिक उत्तरायण को उत्तर गोल, और वैदिक उत्तर तोयन को उत्तरायण घोषित कर दिया। वैदिक काल में संवत्सर, उत्तरायण और वसन्त ऋतु एक साथ वसन्त सम्पात से प्रारम्भ के स्थान पर पौराणिको नें उत्तरायण के मध्य से संवत्सर प्रारम्भ करने, वसन्त ऋतु के मध्य से संवत्सर प्रारम्भ किया जानें लगा। मधुमास के स्थान पर संवत्सर का प्रथम मास माधव मास कर दिया और  मधुमास को संवत्सर का अन्तिम मास कर दिया। उत्तरायण के प्रथम तीन माह (आधा उत्तरायण) संवत्सर के प्रारम्भ में और उत्तरायण के अन्तिम तीन माह (आधा उत्तरायण) संवत्सर के अन्त होने लगा।  वसन्त ऋतु का द्वितीय मास संवत्सर के प्रारम्भ में और वसन्त ऋतु का प्रथम मास संवत्सर के अन्त में होने लगा। मधुमास के स्थान पर माधव मास संवत्सर का प्रथम मास हो गया और तपस्य मास के स्थान पर मधुमास संवत्सर का अन्तिम मास हो गया। बाद में तो चैत्र शुक्ल पक्ष संवत के प्रारम्भ में  और चैत्र कृष्ण पक्ष संवत के अन्त में हो गया। अर्थात आधा उत्तरायण, आधी वसन्त ऋतु, मधु मास व्यतीत वर्ष के अन्त में और आधा भाग नव संवत्सर में हो गया। 
इन संशोधनों से वैदिक काल में मध्य देश ( मध्य भारत में) शुभकार्यों के जो मुहुर्त और विवाहादि कार्यक्रम वर्षाकाल में पड़ते थे उसके स्थान पर पौराणिक काल और वर्तमान काल में शीत काल में होने लगे। और वर्षाकाल को आराधना उपासना का समय घोषित कर दिया।
वैदिक सायन सौर संवत्सर प्रणाली और सावन वर्ष के स्थान पर इराक के बेबीलोन तुर्की और पश्चिम चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षीय चक्र वाला सौर चान्द्र वर्ष निरयन सौर संस्कारित चैत्र वैशाख और तीसरे वर्ष में अधिक मास और १९,१२२ और १४१ वर्ष में क्षय मास वाला, चान्द्रमासों वाली पद्यति अपनाई पर आधारित निरयन सौर चान्द्र संवत्सर अपनाया गया गया।
नक्षत्र प्रधान संहिता ज्योतिष को ध्यान में रखते हुए ऋतु आधारित सायन गणना के स्थान पर निरयन गणना को ही स्थापित किया गया। 
एक साथ कुछ ही वर्षों में इतनी उठापटक  हो गई कि, धर्म और ज्योतिष जनता जनार्दन की समझ से परे के विषय हो गये। और जनता धर्म विमुख हो गई। जैन और बौद्ध मत ने इस स्थिति का भरपूर लाभ उठाया।
ईरान में वैदिक धर्म के स्थान पर ज़रथुष्ट्र के नेतृत्व में पारसी सम्प्रदाय आरम्भ हो गया,  तुर्क और अफगानिस्तान में वैदिक सनातन धर्म समाप्त होने लगा। दक्षिण पूर्वी टर्की के हित्ती सम्प्रदाय और संस्कृति और सुमेरियाई सम्प्रदाय और संस्कृति, चीन के ताओ मत, मिश्र के सम्प्रदाय और संस्कृति, क्रीट और युनान के पन्थ, सम्प्रदाय और संस्कृति से प्रभावित इराक के असुर पन्थ और संस्कृति तथा बेबीलोन का बाल पन्थ और बेबिलोनियाई संस्कृति का जन्म हुआ। इसी का नवीनतम स्वरूप इब्राहिमी मत, पन्थों यहुदी, ईसाई, और इस्लाम के रूप में जन्मे।
बाद में भारतीय सम्राटों का प्रभाव तुर्की और अफगानिस्तान से समाप्त हो गया। कुछ वर्षो पश्चात महाभारत युद्ध में क्षत्रिय विहीन भारतीय प्रदेशों पर तुर्को और अफगानों और युनानियों के हमले होनें लगे। कमजोरी पकड़कर यहा उनके राज्य भी स्थापित होनें लगे। उधर सऊदी अरब में इस्लाम के उदय के बाद ईराक के खलीफा नें भी भारत पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। और धीरे धीरे भारत का बड़ा भूभाग दास होनें लगा।

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