आदर्श पञ्चाङ्ग/ ज्योतिषपत्रक कैसा हो?
पञ्चाङ्गो में और व्रतोपवास, पर्वोत्सव निर्धारण में मतान्तर के कारण और निवारण ।
भारत में सिद्धान्त ज्योतिषीगण कई वर्गों में बँटे हैं इसकारण पञ्चाङ्गों में एकरूपता नही आ पाई।
1 *पञ्चाङ्गकारों का प्रथम पक्ष वेदिक सुपर्ण चिति पञ्चाङ्ग का है।*
वेदिककालीन धार्मिक कर्मकाण्ड, व्रतोपवास, पर्वोत्सवों का काल निर्धारण कर पर्वोत्सव का दिन और समय निश्चित करनें के लिए वसन्त सम्पात पर सूर्य होनें का समय अर्थात वसन्त विषुव दिवस सबसे मुख्य आधार था। जिसे वर्तमान में 20/21 मार्च को पड़ने वाली सायन मेष संक्रान्ति कहते हैं।
उत्तर भारतीय परम्परानुसार जिन दो सुर्योदय के बीच वसन्त सम्पात (उत्तरायण) या शरद सम्पात (दक्षिणायन) या उत्तर परम क्रान्ति (उत्तर तोयन) या दक्षिण परम क्रान्ति (दक्षिण तोयन) बिन्दु पर सूर्य होता था उस दिन उसी समय जो वासर हो उसी में पर्व मनाया जाता था। अर्थात जिस वासर में इन बिन्दु पर जब सूर्य आता था उसी वासर को पर्व मनाया जाता था। और जिन दो सूर्यास्त के बीच वसन्त सम्पात (उत्तरायण) या शरद सम्पात (दक्षिणायन) या उत्तर परम क्रान्ति (उत्तर तोयन) या दक्षिण परम क्रान्ति (दक्षिण तोयन) बिन्दु पर सूर्य आता था उस दिन उत्सव मनाया जाता था।
*वेदिककाल में मुख्य चार पर्वोत्सव थे।*
*१ वसन्त विषुव दिवस* -- जिस समय सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर उत्तर में प्रवेश करता है। दिन रात बराबर होते हैं। सूर्योदय भूमि के ठीक पूर्व में और सूर्यास्त भूमि के ठीक पश्चिम में होता है। उत्तरीध्रुव पर सूर्योदय और दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है। आगामी छः मास तक सूर्य उत्तरी गोलार्ध में ही रहता हुआ चलता रहता है। अतः इसे उत्तरायण कहते थे।
इसी वसन्त विषुव के समय से संवत्सरारम्भ होता था। उत्तरायण आरम्भ होता था। वसन्त ऋतु आरम्भ होती थी। और मधु मासारम्भ होता था।
मान्यता थी कि, इसी समय देवताओं का सुर्योदय होकर दिनारम्भ होता है और असुरों का सूर्यास्त होकर रात्रि आरम्भ होती है। इसी कारण यह वसन्त विषुव दिवस सबसे प्रमुख पर्व और सबसेबड़ा उत्सव था।
वर्तमान में इसे सायन मेष संक्रान्ति कहते हैं जो 20/21 मार्च को होती है।
*२ उत्तर परम क्रान्ति दिवस --* जिस समय सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति होकर सूर्य कर्क रेखा पर होता है। सूर्य का दक्षिण से उत्तर की ओर की गमन पूर्ण होकर परम उत्तर क्रान्ति पर पहूँच जाता है। इसके बाद सूर्य की गति (चाल) उत्तर से दक्षिण की ओर हो जाती है। इसलिए इसदिन को उत्तर तोयन कहते हैं।इस दिन सबसे बड़ा दिन होता है और सबसे छोटी रात्रि होती है।
इस दिन स्पष्ट मध्याह्न के समय सूर्य अधिकतम उत्तर में दिखता है।इसी समय उत्तरीध्रुव पर मध्याह्न होता है और दक्षिण ध्रुव पर मध्यरात्रि होती है। आगामी छः मास तक सूर्य की गति उत्तर से दक्षिण की ओर रहती है। अतः इसी समय से उत्तर तोयन आरम्भ होता था। और शचि मासारम्भ होता था।
मान्यता थी कि, इसी समय देवताओं का भी मध्याह्न होता है और असुरों की मध्यरात्रि होती है। उत्तर भारत में यह दुसरा प्रमुख पर्व और उत्सव था। वर्तमान में इसे सायन कर्क संक्रान्ति कहते हैं जो 22/23 जून को होती है।
*३ शरद विषुव दिवस --* जिस समय सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर दक्षिण में प्रवेश करता है। दिन रात बराबर होते हैं। सूर्योदय भूमि के ठीक पूर्व में और सूर्यास्त भूमि के ठीक पश्चिम में होता है। दक्षिण ध्रुव पर सूर्योदय और उत्तर ध्रुव पर सूर्यास्त होता है। आगामी छः मास तक सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में ही रहता हुआ गमनशील रहता है। अतः इसे दक्षिणायन कहते थे।
इसी समय से दक्षिणायन आरम्भ होता था। शरद ऋतु आरम्भ होती थी। और ईश मासारम्भ होता था।
मान्यता थी कि, इसी समय देवताओं का सूर्यास्त होकर रात्रि आरम्भ होती है और असुरों का सूर्योदय होकर दिन आरम्भ होता है। यह शारदीय विषुव दिवस तीसरा मुख्य पर्व और उत्सव था।
वर्तमान में इसे सायन तुला संक्रान्ति कहते हैं जो 22/23 सितम्बर को होती है।
*४ दक्षिण परम क्रान्ति दिवस दिवस --* जिस समय सूर्य की दक्षिण परम क्रान्ति होकर सूर्य मकर रेखा पर होता है। सूर्य की उत्तर से दक्षिण की ओर की गमन पूर्ण होकर परम दक्षिण क्रान्ति पर पहूँच जाता है। इसके बाद सूर्य की गति (चाल) दक्षिण से उत्तर की ओर हो जाती है। इसलिए इसदिन को दक्षिण तोयन कहते थे।यह दिन सबसे छोटा होता है और रात सबसे बड़ी होती है।
इस दिन स्पष्ट मध्याह्न के समय सूर्य अधिकतम दक्षिण में दिखता है।इस समय दक्षिणध्रुव पर मध्याह्न होता है और उत्तर ध्रुव पर मध्यरात्रि होती है। आगामी छः मास तक सूर्य की गति दक्षिण से उत्तर की ओर रहती है।
इसी समय से दक्षिण तोयन आरम्भ होता था। और सहस्य मासारम्भ होता था।
मान्यता थी कि, इसी समय देवताओं की भी मध्यरात्रि होती है और असुरों का मध्याह्न होता है। यह दिन चौथा सबसे बड़ा वर्वोत्सव है।
वर्तमान में इसे सायन मकर संक्रान्ति कहते हैं जो 22/23 दिसम्बर को होती है।
स्पष्ट है कि, वेदिक काल में मुख्यता सायन सौर वर्ष, मास दिवस की ही थी।
किन्तु रात्रिकालीन पर्वोत्सवों में सायन सौर मासों में पड़ने वाली अमावस्या, पूर्णिमा और अर्धचन्द्र की रात्रि (अष्टमी) की चन्द्रकलाओं का भी महत्व था।
अतः सायन सौर मासों की प्रधानता रखते हुए सायन सौर मधु - माधवादि मास में पड़नें वाली उक्त अमावस्या, अष्टमी, पुर्णिमा, अष्टमी की चन्द्रकलाओं में भी व्रतपर्वोत्सव मनाये जाते थे।
इसकाल में भी सूर्य, चन्द्रमा और ब्रहस्पति, शुक्र, मंगल, शनि और बुध को नक्षत्रमण्डल में नक्षत्र के योगतारा से युति या प्रतियोग (180° पर होना) दर्शाया जाता था। मतलब नाक्षत्रीय गणना केवल आकाश का नक्षा दर्शानें की उपयोगी जानते थे। नक्षत्रों में ग्रहों की स्थिति, धूमकेतु दर्शन, ग्रहण, तारा या ग्रह का लोप दर्शन आकाश और सूर्य, चन्द्र एवम् ग्रहों के बिम्बों के चमकीले पन (द्युति) और रंग आदि के आधार पर संहिता ज्योतिष के सिद्धान्तानुसार सुवर्षण / सूखा, आन्धी- तुफान, भूकम्प, ज्वालामुखी, सुनामी जैसी प्राकृतिक घटनाओं, क्रानँति, विप्लव,युद्ध, विग्रह जैसी सामाजिक घटना दुर्घटनाओं का पूर्वानुमान भी लगाया जाता था। यात्राओं या बड़े यज्ञानुष्ठान,या उत्सव आरम्भ के पूर्व उचित समय निर्धारण के पूर्व मोसम की अनुकूलता/ प्रतिकूलता विचार में ही इनका उपयोग होता था। कृषक, सेनानायक, समुद्री यात्रियों को इस ज्ञान में विशेषज्ञता होती थी। चूँकि वर्णाश्रम व्यवस्था में ब्राह्मण को शेष तीनों वर्णों से गुजर कर ही ब्राह्मणत्व प्राप्त होता था अतः राजर्षि और ब्रह्मर्षियों को संहिता और सिद्धान्त ज्योतिष का ज्ञान होना स्वाभाविक था।
2 पञ्चाङ्गकारों का द्वितीय पक्ष पौराणिकों का है।
कलिकाल आरम्भ होने पर में ब्रह्मावर्त और उत्तरी आर्यावर्त में वेदिक धर्म कर्म लुप्त होनें लगे थे। मध्य भारत और उसमें भी मगध, का प्रभाव बड़ रहा था।
वेदिक धर्म में भी वेदिककालीन सहज सरल पञ्चमहायज्ञ के साथ राजाओं, सामन्तों, राज्य अधिकारियों (राजन्यवर्ग) और समृद्ध वैष्यों (श्रेष्ठि वर्ग) में स्मार्त पूर्तकर्म और पुरोहितों पर आश्रित क्लिष्ट कर्मकाण्ड बड़ने लगे थे।
वर्णाश्रम व्यवस्था आधारित सामाजिक संरचना विकृत होकर जन्मगत जाति आधारित होनें लगी थी। सम्पन्नता का प्रदर्शन और भौतिकवादी सामाजिक प्रवृत्ति का जोर बड़ रहा था।
आर्यावर्त के दक्षिण भाग और दक्षिण भारत में वेदिक उत्तरायण में वर्षा ऋतु पड़नें और अधिक वर्षा में विवाहोपनयनादि कार्यक्रमों में भव्य समारोह का सम्पादन सम्भव नही हो पाता था।
इस कारण पौराणिक काल के धर्माचार्यों नें सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ होने वाले वेदिक दक्षिण तोयन को उत्तरायण घोषित कर उत्तरायण को तीन माह पहले बतलानें लगे।
दक्षिण तोयन को उत्तरायण बनाने के कारण उन्हें मधुमास का नाम बदलकर माधव मास कर दिया। संवत्सर का प्रथम मास मधुमास के स्थान पर माधवमास होगया। संवत्सर के साथ ही आरम्भ होनें वाली वसन्त ऋतु का प्रथम मास संवत्सर के अन्त में कर दिया। संवत्सर आरम्भ में प्रथम मास वसन्त का और द्वितीय - तृतीय मास ग्रीष्म ऋतु का कर वसन्त ऋतु को संवत्सर के आदि और अन्त दो भागों में बाँट दिया।
उल्लेखनीय है कि, वेदों से लेकर पुराणों तक म़ें यह उल्लेख नही पाया गया कि, संवत्सर के अन्त का मास मधुमास होता है। या संवत्सर के अन्त की ऋतु वसन्त ऋतु होती है या संवत्सर के अन्त का अयन उत्तरायण होता है। ऐसा उल्लेख या वर्णन कहीँ नहीँ पाया गया।
उत्तरायण के प्रथम तीन मास संवत्सर के अन्त में हो गये और संवत्सर के आरम्भ में उत्तरायण के उत्तरार्ध के तीन मास ही रहे। यानी आधा उत्तरायण संवत्सर के आरम्भ में और आधा उत्तरायण संवत्सर के अन्त में आता है। आधी वसन्त ऋतु संवत्सर के आरम्भ में और आधी वसन्त ऋतु संवत्सर के अन्त में, माधव मास से सवंत्सर आरम्भ और मधुमास संवत्सर के अन्त में आने का उल्लेख या वर्णन कहीँ नहीँ पाया गया।
किन्तु व्याकरण और काव्यशास्त्र में प्रवीण विद्वानों की इतनी साख बड़ गई की उनका कथन ब्रह्मवाक्य माना जानें लगा। चूँकि, राजन्य और सम्पन्न श्रेष्ठि वर्ग की समस्या का हल करनें हेतु यह विचित्र अटपटा व्यवस्था परिवर्तन उनके पुरोहितों नें ही किया था इसकारण स्वतन्त्र, सत्यनिष्ठ, सदाचारी, ज्ञानवान ब्राह्मणों की आवाज दब गई। जन साधारण तो राजाज्ञा और पुरोहितों के निर्देशों के प्रति अनुशासित होते हैं। अतः कोई घोर विरोध भी नही हो पाया।
सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ होनें वाले वेदिक दक्षिण तोयन को पौराणिक उत्तरायण घोषित करनें के लिए बहुत से फैर बदल किये गये। वसन्त ऋतु और मधु मासारम्भ को संवत्सरारम्भ से एक मास पहले सायन मीन संक्रान्ति से बतलाना पड़ा। संवत्सर का प्रथम मास मधुमास को संवत्सर का अन्तिम मास घोषित करना पड़ा।और संवत्सर आरम्भ आधी वसन्त ऋतु बीतने पर माधवमास से आरम्भ बतलाना पड़ा। आधा उत्तरायण व्यतीत होनें के बाद शेष बचे आधे उत्तरायण से संवत्सरारम्भ बतलाना पड़ा।
सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ होनें वाले वेदिक दक्षिण तोयन को पौराणिक उत्तरायण घोषित किया। शिशिर ऋतु एक मास पूर्व सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ होना बतलाया गया और तपस्य मास को तपः मास घोषित कर दिया।
उक्त असाधारण विचित्र परिवर्तन के माध्यम से मध्य भारत मे वसन्तारम्भ समय से मिलान (मैल) हो गया । वर्षा ऋतु पौराणिक दक्षिणायन में आ गई।
इस अनुचित परिवर्तन में तत्कालीन सिद्धान्त ज्योतिषियों ने पूर्ण सहयोग देकर इस पाप और अपराध में सहभागीता की ।
सायन मतानुसार वसन्त विषुव से ही संवत्सरारम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ और मधुमासारम्भ एवम् तदनुसार व्रतोपवास, पर्वोत्सव मनानें का स्पष्टता से उल्लेख करने का कर्तव्य पालन नही किया। बल्कि वेदिक तोयन को लुप्त (गायब) कर वेदिक दक्षिण तोयन को (पौराणिक) उत्तरायण बतलाने लगे और वेदिक उत्तरायण को उत्तर गोल नामक नवीन नामकरण किया गया।
पौराणिकों नें पुराणों में और सिद्धान्त ज्योतिषियों नें चान्द्र मासों को सायन सौर संवत्सर और ऋतुओं से सम्बद्ध बतलाया।
सिद्धान्तकारों नें निरयन सौर संस्कृत चान्द्रमासों की गणना पद्यति बनाई। परिणामस्वरूप निरयन मीन राशि के सूर्य में आरम्भ होने वाले निरयन सौर संस्कृत चान्द्र मास चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से संवत आरम्भ करना आरम्भ किया।
परिणाम स्वरूप निरयन सौर संवत्सर और निरयन सौर पञ्चाङ्गो का प्रचलन हो गया। जो आजतक चल रहा है।
प्रथम बार काशी के बापुदेव शास्त्री (नृसिंह) ने वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के सहयोग से सायन सौर संस्कृत चान्द्रमास आधारित पञ्चाङ्ग प्रकाशित करना आरम्भ की। इसे और आगे बड़ाया गुरुग्राम हरियाणा के आचार्य दार्शनेय लोकेश ने राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग के चैत्र वैशाख के अनुरूप सायन सौर माधव, शुक्र,शचि मास के साथ नक्षत्र योगतारा से आरम्भ असमान भोगांश वाले सायन गणना आधारित नक्षत्र और सायन सौर संस्कृत चान्द्रमास आधारित पञ्चाङ्ग श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् प्रकाशन आरम्भ कर जारी रखा। उनका साहस प्रशन्सनीय है।
3 पञ्चाङ्गकारों का तृतीय वर्ग का कथन है कि, बाणवृद्धि रसक्षय।--धर्मशास्त्रानुसार तिथिवृद्धि पाँच घटि से अधिक नही हो सकती और तिथिक्षय छः घटि से अधिक नही हो सकती। इस लिए वे ग्रहलाघव और मकरन्द करण ग्रन्थों पर आधारित पञ्चाङ्ग और केलेण्डर प्रकाशित कर रहे हैं।
जबकि, पञ्चाङ्ग शोधन समितियों की बैठकों में कभी कोई धर्माचार्य या ज्योतिषी धर्मशास्त्र के किसी भी ग्रन्थ में बाणवृद्धि रसक्षय वाक्य नही दिखा पाया।अतः सिद्ध है कि, यह वाक्य मन गड़न्त, पूर्ण अप्रमाणित और गलत है।
मूलतः किसी धर्मग्रंथ में ऐसा कोई बन्धनकारी निर्देश है ही नही। जबकि, सभी धर्मशास्त्रों नें दृग्गणितैक्य का ही निर्देश दिया है अर्थात जो आकाश में दिखे वही स्थिति (पोजीशन) पञ्चाङ्ग में दर्शाई जाये। यह दृग्गणितैक्यजम् वाक्य वे सूर्यसिद्धान्त या ग्रहलाघवी / मकरन्द आधारित पञ्चाङ्गकार स्वयम भी लिखते हैं।
फिरभी ये लोग हट पूर्वक धड़ल्ले से गलत पञ्चाङ्ग और केलेण्डर प्रकाशित कर रहे है।
और बुजुर्गों के अन्धानुकरण को आदर्श मानने वाले तथा विज्ञापनों से प्रभावित होकर धर्मशास्त्राज्ञा से अनभिज्ञ जनता इन गलत पञ्चाङ्गों में गलत दिनों में बतलायें गये दिन में व्रतोपवास कर और पर्वोत्सव मनाकर धर्मभ्रष्ट हो रहे हैं। जिसके लिए धर्म नही जाननें वाली जनता स्वयम् भी उत्तरदायी हैं। इन गलत पञ्चाङ्गो का समर्थन करनें वाले पुरोहित और धर्माचार्य तथा ज्योतिषी भी इस पाप के भागी हैं। पञ्चाङ्गकार भी पाप कर धनार्जन कर रहे हैं। और किंकर्तव्यविमूढ़ शासन प्रशासन आँखें मून्दकर मौन है।
4 पञ्चाङ्गकारों का चतुर्थ वर्ग दृगतुल्य ग्रहगणितम् वालों का है।
चित्रापक्षीय सिद्धान्तकार तैत्तरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण जैसे सशक्त प्रमाणों से यह बात सिद्ध कर चुके हैं कि, वेदिक ग्रन्थों में भी चित्रा तारे को नक्षत्रमण्डल का मध्य बिन्दु माना गया है। अतः चित्रातारे से 180° से नक्षत्रमण्डल का आरम्भ बिन्दु मानकर नाक्षत्रीय गणना की जाये।
श्री निर्मलचन्द्र लाहिरी जी ने यह प्रमाणित किया कि,सभी तारों के समान ही चित्रातारा स्वयम भी अत्यन्त मन्द गति से गतिशील है। तदनुसार गणना कर उननें चित्रापक्षीय अयनांश में आंशिक संशोधन किया जो भारत में लगभग सर्वमान्य होगया।
और अब कई पञ्चाङ्गकर्ताओं ने लाहिरी अयनांश या चित्रापक्षीय अयनांश के आधार पर नाक्षत्रीय गणनानुसार निरयन पञ्चाङ्ग प्रकाशित करना आरम्भ कर उचित कार्य किया है। इससे होराशास्त्रियों को लाभ मिला है। इसी कारण कुण्डली निर्माण के सॉफ्टवेयर में भी लाहिरी अयनांश चयन का विकल्प रहता है।
किन्तु भारतशासन के राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग के अनुसरण और परम्परा वादिता के कारण कई ज्योतिषी तैतरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण आदि वेदिक प्रमाणों के आधार पर चित्रा तारे को नक्षत्रमण्डल का मध्य भाग यानी 180° मानकर चित्रा तारे से 180° पर नक्षत्र मण्डल का आरम्भ मानकर नाक्षत्रीय गणनाओं पर आधारित चित्रापक्षीय निरयन पञ्चाङ्ग बनाते हैं।
5 पञ्चाङ्गकारों का पञ्चम पक्ष झीटापिशियम को नक्षत्र मण्डल का आरम्भ बिन्दु माननें वालों का है। किन्तु अब वे केवल महाराष्ट्र में इक्का दुक्का पञ्चाङ्गकार ही बचे हैं जो झीटापक्षीय अयनांश मानकर पञ्चाङ्ग बना रहे हैं। अतः इसपर विस्तार से चर्चा अनावश्यक है।
6 पञ्चाङ्गकारों का छटा पक्ष सायन वादियों का है।-- धार्मिक दृष्टि से यह पक्ष पूर्णतः उचित समाधान प्रदान करता है।
इनमें भी एक वर्ग नाक्षत्रीय निरयन गणना पद्यति को सिरे से नकारता है। यह अनुचित है क्योंकि,
वेदिक ग्रन्थों और रामायण, महाभारत जैसे इतिहास ग्रन्थों में भी चित्रातारे से 180° पर नाक्षत्रीय आरम्भबिन्दु से गणना कर सूर्य चन्द्रमा, बृहस्पति, शुक्र,मंगल,शनि, बुध आदि पाँच ग्रहों की नक्षत्रमण्डल में स्थिति (सेलेस्ट्रियल पोजीशन) दर्शाकर आकाश दर्शन का वर्णन है। जिससे उनका समय निर्धारण किया जाने में सहयोग मिलता है।
किन्तु सूर्य, चन्द्रमा और ग्रहों की उक्त नाक्षत्रीय निरयन गणना के अनुसार व्रतोपवास पर्वोत्सव मनाना प्रचलन में नही था। नाक्षत्रीय गणना समर्थक निरयनवादियों को भी यह तथ्य निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है कि,वसन्त सम्पात को आरम्भ बिन्दु मानकर सायन गणना के आधार पर ही वेदिककाल में संवत्सरारम्भ, उत्तरायण - दक्षिणायन आरम्भ, उत्तर तोयन -दक्षिण तोयन आरम्भ, ऋतुओं और सायन सौर मधु माधवादि मासों का आरम्भ होता था।
संवत्सरारम्भ, अयन, तोयन, ऋतु और मधु माधवादि मास सायन गणना के बिना सम्भव ही नही है।
इसी प्रकार सूर्य-चन्द्रमा और ग्रहों का उदय- अस्त, लोप- दर्शन, ग्रहण - मौक्ष, पात, लग्न - दशमभाव या ख स्वस्तिक की गणना वसन्त सम्पात को आरम्भ बिन्दु मानकर सायन गणना के आधार पर ही हो सकती है।
साम्पातिक समय, (मेरीडियन पासेस), विशुवांश, क्रान्ति, अक्ष आदि की गणना सायन मान ग्रहण किये बिना नही की जा सकती।
पूराने ज्योतिषियों को यह भ्रम था कि, सायन पद्यति विदेशी पद्यति है। किन्तु ज्योतिर्गणित के विद्वानों और पञ्चाङ्गकर्ताओं ने इस भ्रम का निवारण शिघ्र ही कर दिया। आज विद्वानों द्वारा सगर्व सायन गणना पद्यति को भी निर्विवाद भारतीय मानलिया गया है।
जब संवत्सर अयन, तोयन, ऋतु और मघु, माधव, शुक्र शचि आदि यजुर्वेदीय मास और पवित्रादि ऋग्वेदीय मास सायन गणनानुसार ही होते थे तो व्रत, पर्वोत्सव का आधार भी सायन गणना ही हुई ना?
तब इन निरयन पञ्चाङ्गों की क्या आवश्यकता?
इतिहास बतलानें या नाविकों को रास्ता चलते नक्षत्रों के योग ताराओं के साथ ग्रहों की स्थिति (पोजीशन) दर्शानें के लिये फिक्स झॉडिएक में ग्रहों को दर्शानें हेतु नाक्षत्रीय गणना/ निरयन पद्यति आसान, व्यावहारिक और कारगर है। किन्तु धर्मशास्त्रीय क्रियाओं, कर्मकाण्ड, व्रतोपवास, पर्वोत्सव के दिन और समय निर्धारण में इनका कोई महत्व नही है।
सायनवादि भी निर्विवाद मानते हैं कि, जिस नक्षत्र में पूर्णिमा को चन्द्रमा स्थित होता है उसी नक्षत्र के नाम वाली पूर्णिमा के अनुसार चान्द्र मास कहलाता है। तदनुसार बने चैत्र- वैशाखादि चान्द्रमास का नाक्षत्रीय निरयन गणना से ही सिद्ध होता है। क्योंकि वसन्त सम्पात चलायमान/ गतिशील है। अतः सायन गणनानुसार नक्षत्रभोग बतलानें के चक्कर में नाटकिल अल्मनॉक के कई पृष्ठ भर जाते हैं और बड़ जाते हैं। जबकि निरयन गणना नाक्षत्रीय होनें के कारण वर्ष में एकबार ही नक्षत्र योगताराओं के निरयन भोग प्रकाशित करनें पर भी पुरे वर्ष भर आसानी से काम चल जाता है।
संवत्सर आरम्भ मधुमास से होता है उसे ही संवत्सर का पहला मास मानते हैं। अतः कोई भी निरयन सौर संस्कृत चान्द्र चैत्रादि मास प्रत्यैक संवत्सर में प्रथम मास न होकर बदलता रहता है।
क्योंकि, प्रत्यैक 2150 वर्ष के अन्तराल में वसन्त सम्पात 30° खिसक जाता है।इस कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र मास का एक मास पहले संलत्सर आरम्भ होने लगता है।
अतः चन्द्रमास से संवत्सरारम्भ नही होना चाहिए। बल्कि सायन सौर (मधु, माधवादि) मासों को ही अपनाना पड़ेगा।
अतः सर्वश्रेष्ठ पद्यति यह होगी कि,
*7 पञ्चाङ्गकारों का सप्तम पक्ष वेदिक पञ्चाङ्ग अपनाना।*
1 संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु, मधुमासारम्भ वसन्त विषुव से हो। अर्थात जिस समय वसन्त सम्पात पर सूर्य हो ठीक उसी समय सै संवत्सर आरम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ, मधुमासारम्भ हो। किन्तु यदि सूर्यास्त के बाद वसन्त विषुव / सायन मेष संक्रान्ति हो तो व्यवहार में और धर्मशास्त्रीय संकल्पादि प्रयोजन में अआने वाले / अगले दिन से संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु, मधुमासारम्भ होता है।
शचि मास सायन कर्क संक्रान्ति से उत्तर तोयन आरम्भ होता है।, ईष मास सायन तुला संक्रान्ति से दक्षिणायन आरम्भ होता है। तथा सहस मास सायन मकर संक्रान्ति से दक्षिण तोयन आरम्भ होता है।
मधु माधव मास सायन मेष और वृष के सूर्य मे वसन्त ऋतु, शुक्र शचि मास सायन मिथुन कर्क के सूर्य में ग्रीष्म ऋतु, नभः नभस्य मास सायन सिंह कन्या के सूर्य में वर्षा ऋतु, ईष उर्ज मास सायन तुला वृश्चिक के सूर्य में शरद ऋतु, सहस,सहस्य मास सायन धनु मकर के सूर्य में हेमन्त ऋतु तथा तपस तपस्य मास सायन कुम्भ मीन के सूर्य में शिशिर ऋतु होती है।
मधु,माधव और शुक्र मास सायन मेष, वृष और मिथुन के सूर्य में *उत्तरायण* , दक्षिण तोयन।
शचि, नभस और नभस्य मास सायन कर्क, सिंह कन्या के सूर्य में उत्तरायण, *उत्तर तोयन।*
ईष,उर्ज,सहस मास सायन तुला, वृश्चिक और धनु के सूर्य में *दक्षिणायन* , उत्तर तोयन,।
सहस्य, तपस, तपस्य मास सायन मकर, कुम्भ मीन के सूर्य में दक्षिणायन, *दक्षिण तोयन।*
2 मुख्य व्रतोपवास एवम् पर्वोत्सव अयनारम्भ, तोयनारम्भ, ऋतु आरम्भ, मासारम्भ / सायन संक्रान्तियों को दिन में और, अमावस्या, शुक्लाष्टमी, पूर्णिमा, कृष्णाष्टमी की रात्रि में मनाये जायें।
3 धार्मिक संकल्पादि प्रयोजन में सायन सौर मास का वर्तमान अंश लिया जावे। जबकि व्यवहार में राष्ट्र की मध्याह्न रेखा पर औसत सूर्योदय समय (जैसे भारत में वर्तमान में पूर्वाह्न 06:00 बजे प्रातःकाल के) गतांश को पूरे दिन माना जाये। अथवा तदनुसार मन्दोच्च के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर परिवर्तनीय सायन सौर मासों की दिन संख्या निर्धारित कर सायन सौर संक्रान्तियों के गत दिवस यानी गते को दिनांक घोषित किया जावे।
वर्तमान में मन्दोच्च सायन कर्क 13° 17' 23" या निरयन मिथुन 19°08'37" पर है। अर्थात मन्दोच्च ईष मास गतांश13° पर होने से 31.6 दिन का ईष मास सबसे बड़ा मास होता है। और मन्दनीच सहस्य मास गतांश 13° पर होनें से 29 सावन दिन का सबसे छोटा मास सहस मास होता है।
निरयन गणना में निरयन मिथुन मास सबसे बड़ा मास और सबसे छोटा निरयन सौर धनुर्मास होता है।
इस कारण मधु, माधव, शुक्र, शचि, नभः नभस्य मास 31 दिन के, ईश,उर्ज, सहस मास 30 दिन के, सहस्य मास 29 दिन का, तपः मास 30 दिन का तथा तपस्य मास तीन वर्षों तक 30 दिन का और चतुर्थ वर्ष यानी अधिवर्ष (लिप ईयर) में तपस्य मास 31 दिन का हो।
ईस्वी सन 1971 तक संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमासारम्भ 22 मार्च से होता था।
ईस्वी सन 1972 से संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमासारम्भ 21 मार्च से होता है।
4 कल्प संवत्सर, कलियुग संवत्सर, अयन आरम्भ या अन्त का समय, तोयन आरम्भ या अन्त का समय , ऋतु आरम्भ या अन्त का समय ,
सायन मधु माधवादि मास का नाम , सायन संक्रान्ति का समय ,दिनांक, सायन संक्रान्ति गतांश और समाप्ति काल, सायन संक्रान्ति गते,दशाह का वासर,
युधिष्ठिर संवत्सर निरयन मेष वृषभादि मासनाम एवम् निरयन संक्रान्ति का समय,
निरयन संक्रान्ति गतांश और समाप्ति काल, निरयन संक्रान्ति गते,दशाह का वासर,
विक्रम संवत सायन सौर संस्कृत अमान्त चान्द्र मास का नाम, सप्ताह का वार, करण के समान तिथ्यार्ध समाप्ति काल,
शकाब्द, निरयन सौर संस्कृत अमान्त चान्द्र मास का नाम, सप्ताह का वार, करण के समान तिथ्यार्ध समाप्ति काल,
5 चन्द्रमा, सूर्य एवम् सभी ग्रहों के अठासी नक्षत्र और अट्ठाइस नक्षत्रों का समाप्ति काल ----
१ नक्षत्र योग तारा को केन्द्र मानकर असमान भोग वाले अट्ठाइस सायन नक्षत्र समाप्ति काल,
२ नक्षत्र योग तारा को आरम्भ मानकर असमान भोग वाले अठासी सायन नक्षत्र समाप्ति काल,
३ नक्षत्र योग तारा को केन्द्र मानकर असमान भोग वाले अट्ठाइस निरयन नक्षत्र समाप्ति काल,
४ नक्षत्र योग तारा को आरम्भ मानकर असमान भोग वाले अठासी निरयन नक्षत्र समाप्ति काल,
6 साम्पातिक समय तथा चन्द्रमा, बुध, शुक्र,सूर्य, मंगल, ब्रहस्पति, शनि, युरेनस ,नेपचून और राहु के भूकेन्द्रीय ग्रहस्पष्ट - सायन और निरयन भोगांश,लाहिरी स्पष्ट अयनांश, शर, क्रान्ति,चन्द्रमा और ग्रहों का विशुवांश/ सूर्य का स्पष्ट मध्यान्ह समय, दूरी, पात, बिम्बमान, उदय - अस्त समय,
चन्द्रमा, बुध और शुक्र के लिए पूर्वाह्न 06 बजे,, मध्याह्न 12बजे, सायम् 18 बजे और मध्यरात्रि 00 बजे के लिए सायन और निरयन भोगांश,लाहिरी स्पष्ट अयनांश, शर, क्रान्ति, विशुवांश, दूरी, पात, बिम्बमान, उदय - अस्त समय दर्शाया जाये।
सूर्य और मंगल के लिए प्रतिदिन के प्रातः 06 बजे और सायम् काल 18 बजे के दो बार दिये जायें। सायन और निरयन भोगांश,लाहिरी स्पष्ट अयनांश, शर, क्रान्ति, सूर्य का स्पष्ट मध्यान्ह समय एवम् मंगल का विशुवांश, दूरी, पात, बिम्बमान, उदय - अस्त समयदर्शाया जाये।
ब्रहस्पति, शनि, युरेनस, नेपच्युन के प्रतिदिन प्रातः 06 बजे के लिए भोगांश, शर, क्रान्ति, विशुवांश, दूरी, पात, बिम्बमान, उदय - अस्त समय दर्शाये जाये।
इसके अतिरिक्त आकाशगंगा,एवम् चन्द्रमा, सूर्य, एवम् ग्रहों एवम् उनके उपग्रहों के विषय में मुख्य ज्योतिषीय (एस्ट्रोनॉमिकल) जानकारियाँ जैसे व्यास, परिधि, संहति (Mass),घनत्व, दूरी, सूर्य / भूमि या ग्रह की परिक्रमा समय, मोसम सम्बन्धी जानकारी दी जाये।
7 चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहों के समान तीस अंशो वाली सायन राशि और समान 13°20' वाले सायन नक्षत्रों और 3°20' वाले सायन नक्षत्र चरणों में प्रवेश का दिनांक और समयदर्शाया जावे।
8 चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहों के समान तीस अंशो वाली नियरन राशि और समान 13°20' वाले निरयन नक्षत्रों और 3°20' वाले निरयन नक्षत्र चरणों में प्रवेश का दिनांक और समय दर्शाया जाये।
9 अलग अलग अक्षांशो पर स्थित नगरों/ कस्बों या ग्रामों में ग्रहों के पूर्व या पश्चिम दिशा में उदय - अस्त ,लोप - दर्शन, पारगमन आरम्भ - समाप्ति का दिनांक और समय और उस समय के सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये।
10 ग्रहों के वक्री मार्गी होनें का दिनांक और समय के सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये।
11 अलग अलग अक्षांश देशान्तरों पर स्थित नगरों, कस्बों और ग्रामों में होनें वाले सूर्य ग्रहण का आरम्भ,मौक्ष और पूर्ण / वलयाकार सूर्यग्रहण या अधिकतम ग्रहण आरम्भ, और समाप्ति का समय और उस समय के सूर्य चन्द्रमा के सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये।
12 अलग अलग अक्षांश देशान्तरों पर स्थित नगरों, कस्बों और ग्रामों में होनें वाले पूर्ण या आंशिक चन्द्रग्रहण का आरम्भ मौक्ष और अधिकतम या पूर्ण ग्रहण का आरम्भ, और अधिकतम ग्रहण या पूर्ण ग्रहण की समाप्ति का समय और उस समय के सूर्य चन्द्रमा के सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये।
13 अलग अलग अक्षांश देशान्तरों पर स्थित नगरों, कस्बों और ग्रामों में होनें वाले ग्रहों के लोप और दर्शन,/ उदय- अस्त और पारगमन का समय अलग अलग अक्षांशो पर स्थित नगरों/ कस्बों/ ग्रामें के अनुसार दर्शाया जाये और उनके सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति, विशुवांश आदि दर्शाया जाये।
14 अलग अलग अक्षांश देशान्तरों पर स्थित नगरों, कस्बों और ग्रामों में होनें वाले अगस्तादि ताराओं के उदय अस्त का समय और उस समय उनका सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये।
15 सनातन वेदिक ब्राह्म धर्म के व्रतोपवास, पर्वोत्सव की सुचना मास के पृष्ठ पर दिनांक के सामने तो हो फिर भी प्रथक प्रथक मत, पन्थ, सम्प्रदायों के नियमानुसार व्रतोपवासों, पर्वोत्सवों की प्रथक सुची भी हो। जिसमें शुद्ध वेदिक और स्मार्त मतों के व्रतोपवासों पर्वोत्सवों और जयन्तियों के दिन और समय निर्धारण के नियम और सम्बन्धित मत, पन्थ सम्प्रदाय के नियम भी स्पष्ट कर दिये जायें। तथा मनाने की संक्षिप्त विधि भी दी जाये।
सनातन धर्म के, जैन, बौद्ध खालसा पन्थों/ सम्प्रदायों के, पारसी सम्प्रदाय के और इब्राहिमी सम्प्रदाय यहुदी, इसाई और मुस्लिमों के विभिन्न मत पन्थों के व्रतोपवास ,पर्वोत्सवों और जयन्तियों एवम् राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय आधुनिक पर्वोत्सवों और जयन्तियों की सुची में उनके नियम दर्शाते हुए कब करना चाहिए और उनके पन्थ के आचार्यों नें कब घोषित किये हैं दोनों उल्लेख किया जाये। ताकि, जन साधारण का भ्रम निवारण हो सके।
16 षोडष संस्कारों,शिशुओं महिलाओं, रोगियों, वृद्धों से सम्बन्धित कार्यों के, वास्तुसम्बन्धित ग्रहारम्भ, ग्रहप्रवेश,प्रतिमा स्थापना आदि, व्यवसाय सम्बन्धित दुकान, कारखाना, व्यवसाय आरम्भ, कृषि सम्बन्धी विभिन्न कार्यों हलना, बीजारोपण, फसल काटना, कुआ ट्युबवेल खोदना, तालाब निर्माण,पशुपालन सम्बन्धी कार्य, कृषिभूमि, आवासीय भूमि, व्यावसायिक भूमि क्रय विक्रय करना, उनपर वास्तु निर्माणारम्भ, द्वार,छत आदि कार्यों, वाहन क्रय विक्रय, करना, वाहन पर आरुढ़ होना, ग्रहणादि ब्रहस्पति, शुक्रास्त बाल वृद्धत्व, देवशयन के विधि निषेध, कुम्भ आदि पर्वों के स्नान, शासकीय कार्यों, नोकरी या पदस्थापना या पदोन्नति या स्थानांतरित होकर नवीन स्थान/ पदस्थी पर कार्यग्रण करना या सेवानिवृत्त होना, स्थीपा देना, पद त्याग, वस्तुओं का संग्रह, अन्न भण्डारण ,ऋण लेना ऋण देना,न्यायालयीन वाद प्रतिवाद लगाने आदि के उचित समय, लकी टाईम और मुहूर्त के नियम सहित दिन और समय निर्धारण कर मुहुर्त की सुखी देना चाहिए।
17खगोल और धर्मशास्त्रीय नियमों सम्बन्धित आलेख प्रकाशित करना।
18 साठ घटि, साठ पल और साठ विपल वाली घड़ी बनाई जाये। उत्तर दिशा की दिवार पर टंगी घड़ी के डायल में पूर्व दिशा में 00/ 60 , उपर आकाश की ओर 15 , पश्चिम की ओर 30 तथा नीचे भूमि/ पाताल की ओर 45 अंकित हो। ए.एम. पी.एम. का झंझट नही रखा जाये।
वर्तमान भारतीय मानक समय 06 बजे को 00 बजे।वर्तमान भारतीय मानक समय 12 बजे को 15 बजे। वर्तमान भारतीय मानक समय 18 बजे को 30 बजे। तथा वर्तमान भारतीय मानक समय 00 या 24 बजे को 45 बजे। दर्शाया जाये।
ताकि, घटि की सुई सूर्य की वर्तमान स्थिति सूचित करे।
19 उपयोग कर्ताओं की योग्यता और आवश्यकताओं के अनुरूप विज्ञान के विद्यार्थियों, प्रशासको, ग्रहस्थों , किसानों- व्यापारियों के लिए प्रथक प्रथक छोटे सिमित जानकारी वाले केलेण्डर पञ्चाङ्गो का प्रथक से प्रकाशन होना चाहिए।
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