यज्ञ का तात्पर्य परमार्थ कर्म है। सर्वभूतहितेरता व्यक्ति द्वारा किये जानें वाले ऐसे कर्म जिससे सर्वहित हो वे यज्ञ कहलाते हैं। पञ्च महायज्ञों में से एक ब्रह्मयज्ञ का ही एक भाग वेदाध्ययन या स्वाध्याय ,जप तथा अष्टाङ्ग योग है। देव यज्ञ में प्रकृति से प्राप्त सुख सुविधाओं, उपहारों के लिए देवताओं के रूप में परमात्मा का आरधन है। भूत यज्ञ में सर्वभूतों की यथायोग्य सेवा है। पर्यावरण रक्षण है। नृ यज्ञ में मानवसेवा है। तो पितृयज्ञ में असहायों ,बेसहाराओं, रोगी, अशक्तों वृद्धों की सेवा तथा समस्त पूर्वजों के प्रति श्रद्धावन्त हो कूप, तड़ाग, धर्मशाला, सदावृत, विद्यालय, चिकित्सालय आदि बनवाने में सहयोग कर उनकी अतृप्त इच्छा पूर्ति करना और श्राद्ध तर्पण करना निहित है। अतः
पञ्चमहायज्ञ किसी भी व्यक्ति विशेष का हित साधन नही अपितु सर्वजन हिताय कर्म है। पञ्च महायज्ञ कर्तव्य है।करणीय कर्म या श्रीमद्भगवद्गीतोक्त कार्य कर्म है।अतः पञ्च महायज्ञ धर्म ही है। और धर्म पालन में आई बाधाओं का समाधान निश्चयात्मिका बुद्धि से धैर्यपूर्वक करनें के दौरान तितिक्षा यानी बिना परेशानी महसूस किये, प्रसन्नता पूर्वक कष्ट सहन करना ही तप है।
देह - इन्द्रियाँ (बहिर्करण), मन, अहंकार, बुद्धि और चित्त रूपी अन्तःकरण चतुष्टय तथा तेज - ओज रूपी अधिकरण, तथा प्राण (देही) - जीव (अपर पुरुष) रूपी अभिकरण के माध्यम से प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) द्वारा किये जानेवाले कर्म केवल उक्त करणों की निर्मलता और शुद्धि में सहायक है। इन करणों की क्षमता वर्धन में सहयोगी है। ये प्रत्यगात्मा को प्रज्ञात्मा (परब्रह्म / विष्णु) से स्वयम् की अभिन्नता जाननें में प्रत्यक्ष सहायक नही है। क्योंकि- कर्म उपाद्य,विकार्य, संस्कार्य, और आप्य ये चार प्रकार के ही होते हैं। कर्म से ज्ञान नही हो सकता।
कर्म के परिणाम भी चार प्रकार के ही होते हैं उत्पाद्य कर्म से आकृति देना, विकार्य कर्म से विकृति देना या विकार उत्पन्न करना, संस्कार्य कर्म से संस्कृति देना यानि संस्कारित कर उपयोगी या सुन्दर बनाना और आप्य कर्म से प्रकृति देना या स्थानान्तरण कर एक स्थान से दुसरे स्थान पर लाना लेजाना ही हो सकता है।
1 तकनीकी द्वारा उत्पाद करना या आकृति देना जैसे - उपादान कारण मिट्टी आदि से कोई वस्तु निर्माण करना उत्पाद्य कर्म है।
2 रासायनिक क्रिया द्वारा विकृति लाना या विकार उत्पन्न करना जैसे दूध का दहीँ बनाना, आटे से रोटी और चाँवल से भात बनाना जिसे पुनः मूलरूप में नही लाया जा सकता। या निर्मित सुन्दर वस्तु को तोड़़फोड़ देना विकार्य कर्म है।
3 अग्नि में तपाकर अशुद्ध स्वर्ण से शुद्ध स्वर्ण में परिवर्तन करना, धोकर ,पौंछ कर, रङ्गरोगन कर सुन्दर बनाना संस्कार्य कर्म है। और
4 स्थानांतरण करना या एक स्थान से दुसरे स्थान पर लाना लेजाना आप्य कर्म है।
जन सामान्य सुचनाओं के संग्रह को स्मृति में बिठालेनें को ज्ञान समझते हैं। यह समझने वालों की गलती है। शास्त्रों में सुचनाओं के भण्डार या जानकरियों को कभी भी कहीं भी ज्ञान नही कहा।
अतः कर्म से ज्ञान होना सम्भव नही है। जबकि ब्रह्मसूत्र / वेदान्त दर्शन में उल्लेख है कि, ऋतेज्ञानान्मुक्ति। अर्थात मुक्ति का प्रथम चरण ऋत का ज्ञान है। सृष्टि चक्र को जाने समझे बिना बिना मुक्ति सम्भव नही है। मतलब मौक्ष का कारण ज्ञान है न कि, कर्म।
प्रज्ञानम् ब्रह्म भी उपनिषद वाक्य है। उपनिषद ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम भाग आरण्यक के भी अन्तिम अध्याय होनें के कारण ही वेदान्त अर्थात अन्तिम ज्ञान कहलाते हैं।
स्पष्ट है कि,विवेक से उपजे और आचरण में उतरे वास्तविक ज्ञान प्राप्त जिज्ञासु और मुमुक्षु को गुरु मुख से सर्वखल्विदम् ब्रह्म, ईशावास्यम् इदम् सर्वम, प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म और तत्वमसि महावाक्य श्रवण करते ही अहम् ब्रह्मास्मि का बोध होजाता है।
शुक्ल यजुर्वेद 32/1 से 32/12 तक यही बात कही है।
तब उस सर्वमेधयाजी को तत्काल अनुभव होता है कि, ब्रह्म ही अग्नि है, और अग्नि ब्रह्म ही है। सूर्य ब्रह्म है, और ब्रह्म ही सूर्य है। वही वायु है, वही चन्द्रमा है, और वायु -चन्द्रमा भी ब्रह्म ही है। वही लोक प्रसिद्ध शुद्ध वेद है और शुद्ध वेद ही वह (ब्रह्म) है। ये जल और.वह प्रजापति ब्रह्म ही है और ब्रह्म ही जल और प्रजापति है। शुक्ल यजुर्वेद 32/1
तब सर्वमेधयाजी को तत्काल अनुभव हुआ कि,
आकाश और पृथ्वी ब्रह्म है, लोक ब्रह्म है, दिशाएँ ब्रह्म है और आदित्य भी ब्रह्म है।
उसने ब्रह्म को जाना और वह तत्काल आत्म को अर्थात अपनें आप को ब्रह्म अनुभव करने लगा; क्योंकि, वह पहले से ब्रह्म ही था। शुक्ल यजुर्वेद 32/12
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