सृष्टि के हर कण, हर तत्व का मूल और वास्तविक स्वरूप, वास्तविक मैं। परम आत्म अर्थात परमात्मा।
अतः परमात्मा गुणातीत है। न सगुण है, न निर्गुण है, न सगुण निर्गुण दोनों है, न सगुण निर्गुण दोनों नहीं है।
मतलब परमात्मा के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी जो भी सोचा जा सकता है, कहा जा सकता है, सब मिलकर भी परमात्मा का ही वर्णन होते हुए भी अपूर्ण ही है।
इसलिए नेति-नेति कहा जाता है।
न इति - मतलब इतना ही नही, इतना ही नहीं।
परमात्मा ही ईश्वर के स्वरूप में प्रकट होकर सृष्टि सृजन, प्रेरण, सञ्चालन और लय करते हैं।
ॐ शब्द नाद के साथ ही सृष्टि सृजन हुआ। इसलिए परमात्मा का सर्वप्रथम/ प्राचीनतम नाम ॐ है।
ॐ कार स्वरूप अनेक गोलाकार तरङ्गों से बनता है। पहले दूरदर्शन पर प्रारम्भ में कई बुल बुलों से बनने वाले क्रिकेट के स्टम्प और गेंन्द जैसा है।
इस ॐ शब्द नाद के साथ ही परब्रह्म प्रकट हुए। जिसे विष्णु और माया के स्वरूप में जाना जाता है। विष्णु परमेश्वर (परम ईश्वर/ प्रथम और अन्तिम शासक) कहलाते हैं।
परब्रह्म से ब्रह्म हुए जो सवितृ और सावित्री के रूप में जाने जाते हैं। ये ही जनक, प्रेरक, रक्षक हैं। इन्हें प्रभविष्णु श्रीहरि और श्री तथा लक्ष्मी के रूप में जाना जाता है। ये महेश्वर (महा ईश्वर) कहलाते हैं।
ब्रह्म से अपरब्रह्म हुए। जिन्हें नारायण और नारायणी के रूप में जाना जाता है। ये जगदीश्वर (जगत के शासक) कहलाते हैं । देखे - ऋग्वेदोक्त पुरुष सूक्त।
ये ईश्वरीय स्वरूप देव कहलाते हैं। ये ही सृष्टि का सृजन, प्रेरण, सञ्चालन तथ लय करने के अधिकारी होने से ईश्वर अर्थात परम शासक कहलाते हैं।
अपर ब्रह्म से हिरण्यगर्भ (पञ्चमुखी) ब्रह्मा हुए। जिन्होंने त्वष्टा और रचना के रूप में ब्रह्माण्ड के गोलों को सुतार की तरह घड़ा। (देखें - ऋग्वेद हिरण्यगर्भ सूक्त)। ये भी ईश्वर श्रेणी के देव हैं।
पञ्च मुखी (अर्थात अण्डाकार) हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से चतुर्मुखी (गोलाकार) प्रजापति ब्रह्मा हुए। जिनको दो देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा तथा तीन भु स्थानी प्रजापति (1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति के रूप में जाना जाता है।
प्रजापति ब्रह्मा से वाचस्पति (वाक के स्वामी) हुए जिन्हें इन्द्र और शचि के रूप में जाना जाता है।
वाचस्पति से ब्रह्मणस्पति हुए जिन्हें द्वादश आदित्य और उनकी शक्ति (पत्नियों) के रूप में जाना जाता है।
ब्रह्मणस्पति से ब्रहस्पति हुए जिन्हें अष्ट वसु और उनकी शक्ति (पत्नियों) के रूप में जाना जाता है।
ब्रहस्पति से पशुपति हुए जिन्हें एकादश रुद्र और रौद्रियों के रूप में जाना जाता है।
पशुपति से (वैदिक) गणपति (समुदायों के अध्यक्ष) हुए जो सूण्डधारी विनायक से भिन्न हैं । सूण्डधारी विनायक प्रमथ गणों (समुदाय) के गणपति थे। जिन्हें बाद में समस्त रुद्रगणों का गणपति नियुक्त किया गया। वैदिक गणपति को देवों में सोम राजा और वर्चा तथा भूमि पर स्वायम्भूव मनु और शतरूपा के रूप में जाना जाता है।
वैदिक गणपति से सदसस्पति (समिति/ सभा के अध्यक्ष) हुए। इनकी शक्ति (पत्नी) मही कहलातीं हैं।
मही से तीन देवियाँ १ भारती २ सरस्वती और ३ इळा (इला) हुई।
इनसे ही विश्व की समस्त प्रजातियाँ उत्पन्न हुई।
तैंतीस देवता -- १ प्रजापति, २ इन्द्र ३ से १४ तक द्वादश आदित्य, १५ से २२ तक अष्ट रुद्र और २३ से ३३ तक एकादश रुद्र ये देवता कहलाते हैं।
भगवान -- जबकि, जब कोई ब्रह्मज्ञ/ आत्मज्ञ किसी लोक विशेष का शासक भूमि पर किसी उद्देश्य विशेष/ कार्य विशेष की पूर्ति हेतु षड ऐश्वर्य युक्त व्यक्ति के रूप में जन्मते हैं और कार्य पूर्ण होने पर अपने लोक में लौट जाते हैं तो वे भगवान कहलाते हैं। समग्र ऐश्वर्य, बल, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, इन छः को “भग” कहते हैं। (ये जिसमें एकत्रित हैं, वह भगवान् है।
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