🙏🏼 ॐ विष्णवै नमः।🙏🏼
सन्ध्या, यज्ञ, अग्निहोत्र, धार्मिकक्रिया, कर्मकाण्ड, पूजा करते समय सिर और धड़ खुला होना चाहिए।
*श्री योगेन्द्र पाठक* के सौजन्य से प्राप्त पौराणिक सन्दर्भों सहित दिशा निर्देश।
कृपया व्यापक *प्रचार-प्रसार कीजिएगा।*
आजकल एक कुप्रथा चल पड़ी है कि *पूजन आरंभ होते हीं रूमाल निकाल कर सर पर रख लेते हैं,* और कर्मकांडी पुरोहित और उत्तर भारतीय पूजारी भी नहीं मना करते ।
जबकि *पूजा में सिर ढकने को शास्त्र निषेध करता है।*
और यह अन्य “मज़हब” विशेष की प्रथा है,
*सनातन शास्त्र में शौच के समय हीं सिर ढकने को कहा गया है।*
*प्रणाम करते समय,जप व देव पूजा में सिर खुला रखें।*
तभी शास्त्रोचित फल प्राप्त होगा।
शास्त्र क्या कहते हैं ? आइए देखते हैं...
उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।
प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥
अर्थात् -
*पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग्न होकर, शिखा खोलकर, कण्ठको वस्त्रसे लपेटकर, बोलते हुए, और काँपते हुए जो जप किया जाता है, वह निष्फल होता है ।'*
शिर: प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखोऽपि वा |
अकृत्वा पादयोः शौचमाचांतोऽप्यशुचिर्भवेत् ||
( *-कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 9* )
अर्थात्-- *सिर या कण्ठ को ढककर ,शिखा तथा कच्छ(लांग/पिछोटा) खुलने पर,बिना पैर धोये आचमन करने पर भी अशुद्ध रहता हैं(अर्थात् पहले सिर व कण्ठ पर से वस्त्र हटाये,शिखा व कच्छ बांधे, फिर पाँवों को धोना चाहिए, फिर आचमन करने के बाद व्यक्ति शुद्ध(देवयजन योग्य) होता है)।*
सोपानस्को जलस्थो वा नोष्णीषी वाचमेद् बुधः।
- *कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 10अर्ध।*
अर्थात्-- *बुध्दिमान् व्यक्ति को जूता पहनें हुए,जल में स्थित होने पर,सिर पर पगड़ी इत्यादि धारणकर आचमन नहीं करना चाहिए ।*
शिरः प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते।-( *कर्मठगुरूः* )
अर्थात्-- *वस्त्र से सिर ढककर भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए ।*
उष्णीशी कञ्चुकी नग्नो मुक्तकेशो गणावृत।
अपवित्रकरोऽशुद्धः प्रलपन्न जपेत् क्वचित् ॥-
( *शब्द कल्पद्रुम* )
अर्थात्-- *सिर ढककर,सिला वस्त्र धारण कर,बिना कच्छ के,शिखा खुलीं होने पर ,गले के वस्त्र लपेटकर। अपवित्र हाथों से,अपवित्र अवस्था में और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए* ।।
न जल्पंश्च न प्रावृतशिरास्तथा।-योगी याज्ञवल्क्य
अर्थात्-- *न वार्ता करते हुए और न सिर ढककर।*
अपवित्रकरो नग्नः शिरसि प्रावृतोऽपि वा ।
प्रलपन् प्रजपेद्यावत्तावत् निष्फलमुच्यते ।। (रामार्च्चनचन्द्रिकायाम्)
अर्थात्-- *अपवित्र हाथों से,बिना कच्छ के,सिर ढककर जपादि कर्म जैसे किये जाते हैं, वैसे ही निष्फल होते जाते हैं ।*
*शिव महापुराण उमा खण्ड अ.14 ⤵️*
*सिर पर पगड़ी रखकर,कुर्ता पहनकर ,नंगा होकर,बाल खोलकर ,गले के कपड़ा लपेटकर,अशुद्ध हाथ लेकर,सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।।*