रविवार, 30 जून 2024

सायन सौर और नाक्षत्रीय (निरयन) सौर वर्ष।

भूमि के सूर्य परिभ्रमण पथ की विशेषता है कि, ३६५.२४२१९ दिन में वसन्त सम्पात से प्रारम्भ होकर वापस वसन्त सम्पात पर ही पहूंच जाती है जिसे सायन सौर वर्ष कहते हैं। और ३६५.२५६३६३ दिन में चित्रा तारे से चलकर चित्रा तारे पर पहूँच जाती है, जिसे नाक्षत्रीय सौर वर्ष कहते हैं। और सामान्य ज्योतिषी इसे निरयन सौर वर्ष कहते हैं।
२५७७८ से २५७७९ नाक्षत्रीय (निरयन) सौर वर्ष में २५७७९ से २५७८० सायन सौर वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। अर्थात एक सायन सौर वर्ष अधिक हो जाता है।
इसलिए औसत २५७८० वर्ष लिखा जाता है।

२५८०० या २५७७८ + में सम्पात का परिभ्रमण पूर्ण होता है। २२ मार्च २८५ को वसन्त सम्पात चित्रा तारे से १८०° पर था और पूर्व काल में ईसापूर्व २५४९३ से २५४९५ ईसापूर्व के बीच में भी वसन्त सम्पात चित्रा तारे से १८०° पर था। और २६०६३ से २६०६५ ईस्वी बीच में भी वसन्त सम्पात चित्रा तारे से १८०° पर ही रहेगा।


सोमवार, 24 जून 2024

गणपति

गणपति नारायण द्वारा सृष्टि रचना के कर्तव्य पालन का कोई सुत्र नहीं मिल रहा था इसके कारण हिरण्यगर्भ को रोष हुआ। इस रोष की झुंझलाहट में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की भृकुटी से अर्धनारीश्वर महारुद्र प्रकट हुए। प्रजापति भी इनके बाद हुए। इसलिए अर्धनारीश्वर महारुद्र महादेव भी कहलाते हैं। वैदिक काल में समुदाय (कबीले) को गण और  समुदाय के मुखिया को गणपति कहते थे। व्रात गणों और प्रमथ गणों के गणपति गजानन विनायक थे। मीढ गण, नन्दी गण आदि अनेक गणों के गणपति शंकर जी थे। साथ ही इन गणों के गणपति भी भगवान शंकर ही थे। वे सभी गणों के प्रिय पति और उनकी पशुधन रूपी निधि के संरक्षक भी थे। इसलिए उन्हें निधिपति भी कहते थे। इसलिए भगवान शंकर जी महा गणाधिपति भी कहलाते हैं। लेकिन बाद में , शंकर भगवान ने निधिपति का कार्यभार अपने मित्र और देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर को सोप दिया। और रुद्र गणों के गणपति का कार्यभार गजानन विनायक को सोप दिया। देवसेनापति नियुक्त होने के बाद रुद्रगणों का रक्षकण कार्य शंकर जी ने कार्तिकेय को सोप दिया। तथा रुद्र गणों का दण्डनायक (कोतवाल) का कार्य भैरवनाथ को सोप दिया।  वीरभद्र को रुद्रगणों का सैन्य नायक नियुक्त किये गए। चण्डी की अधीनस्थ भद्रकाली वीरभद्र की सहायक बनी।जैसे गणराज्य का अध्यक्ष उस गण का गणपति होने के नाते प्रथम नागरिक कहलाता है। प्रथम निमन्त्रण गणपति को दिया जाता है। इसलिए गणपति प्रथम पूज्य कहलाते हैं।शुक्ल पक्ष की मध्याह्न व्यापनी  चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहते हैं। विनायक चतुर्थी को ब्रह्मणस्पति सूक्त का पाठ होता है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गजानन विनायक को जन्मदिन के उपहार में गणपति पद मिला था, इसलिए संकष्टी चतुर्थी भाद्रपद शुक्ल की विनायक चतुर्थी को मध्याह्न में गजानन जन्मोत्सव मनाते हैं।शेष कृष्ण पक्ष की संकष्टी चतुर्थी व्रत में गणेश अथर्व शीर्ष का पाठ करते हैं।

रविवार, 23 जून 2024

भाव और भावना मतलब भूतात्मा (प्राण- धारयित्व)।

भाव और भावना क्या है?
भाव और भावना क्या है?
भाव का प्रवाह ही भावना है। 
लेकिन वस्तुतः भाव क्या है? मूलतः भाव का अर्थ क्या है?
संस्कृत अध्ययन के प्रारम्भिक पाठों में धातु प्रयोग में भू भव मतलब होना बतलाया जाता है।
हमारी भूमि भी हुई थी। इसलिए भू है। मतलब वही भू-भव मतलब होना। भाव भी हुआ है, होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के छियासठवें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि,
नास्ति बुद्धिर्युक्तस्य न चायुक्तस्य भावना |
न चाभाव्यत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम् ||
अयुक्त (जिसके इन्द्रियों और मन पर बुद्धि का नियन्त्रण न हो और बुद्धि पर विवेक का नियन्त्रण न होने से विचलित चित्त वृत्ति वाले व्यक्ति) मे निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती। इस अयुक्त व्यक्ति में भावना नही होती है। भाव रहित व्यक्ति को शान्ति नहीं होती। अशान्त व्यक्ति को सुख कहाँ से होगा।

यदि तत्व मीमांसा में भाव और भावना की खोज की जाए तो।

 
हिरण्यगर्भ सूक्त, ऋग्वेद -10-121-1 के अनुसार 
 हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ --- 
सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ हुआ।
आधिदैविक हिरण्यगर्भ को भूतात्मा कहते हैं।
इसी भूतात्मा को प्राण और धारयित्व (शरीर को धारण करने की प्राण की शक्ति) के रूप में जाना जाता है।
ये प्राण और रयि ही देही और अवस्था कहलाते हैं।
यही भाव और भावना है।

 सावधानी पूर्वक अध्ययन, चिन्तन-मनन कर सत्य स्वीकारने का साहस हो तो शास्त्रों में सबकुछ मिलता है।

भाषा पर ध्यान दो, तो हर एक शब्द अपना अर्थ स्वयम् बतलाता है, बस उसपर ध्यान देने की आवश्यकता है। लेकिन किसी एक-दो पुस्तक या शास्त्र की छाया में विचार करने पर सोच बाधित होता है। अतः वेदों को ही आधार बनाकर सोचना उचित है। अस्तित्व और भव में आकाश-पाताल का अन्तर होते हुए असावधानी वश अस्तित्व मतलब है के स्थान पर भव मतलब होने का भ्रम हो जाता है।।
अस्ति, अस्तित्व को है से ही प्रकट करते हैं, हुआ से नही।
जो है ही उसे हुआ नहीं कह सकते।
आत्म तत्व परमात्मा है, हुआ नहीं। सृष्टि हुई, जगत हुआ, है नहीं।

चित्त को ही विवेक और निश्चयात्मिका बुद्धि कहा जाता है। चित्त में ही संस्कार के रूप में स्मृतियाँ रहती है। मेधा शक्ति के बल पर स्मृतियों को बुद्धि में प्रवेश मिलता है। जिसे रिकॉल करना कहते हैं।
बुद्धि का कार्य आयामों में मापन करके चित्त को डेटा सब्मिट कर देने तक सीमित है। बुद्धि द्वारा प्रेषित डेटा की स्मृतियों से तुलना और मिलान कर चित्त विश्लेषण करता है।
जबकि, बौद्ध मानसिकता के आधुनिक विचारक बुद्धि का कार्य विश्लेषण करना मानते हैं।

गुरुवार, 20 जून 2024

सन्ध्या, यज्ञ, अग्निहोत्र, धार्मिकक्रिया, कर्मकाण्ड, पूजा करते समय सिर और धड़ खुला होना चाहिए।

🙏🏼 ॐ विष्णवै नमः।🙏🏼
सन्ध्या, यज्ञ, अग्निहोत्र, धार्मिकक्रिया, कर्मकाण्ड,  पूजा करते समय सिर और धड़ खुला होना चाहिए।

*श्री योगेन्द्र पाठक* के सौजन्य से प्राप्त पौराणिक सन्दर्भों सहित दिशा निर्देश।
कृपया व्यापक *प्रचार-प्रसार कीजिएगा।* 
आजकल एक कुप्रथा चल पड़ी है कि *पूजन आरंभ होते हीं रूमाल निकाल कर सर पर रख लेते हैं,* और कर्मकांडी पुरोहित और उत्तर भारतीय पूजारी भी नहीं मना करते । 

जबकि *पूजा में सिर ढकने को शास्त्र निषेध करता है।* 
और यह अन्य “मज़हब” विशेष की प्रथा है,
 *सनातन शास्त्र में शौच के समय हीं सिर ढकने को कहा गया है।*
 *प्रणाम करते समय,जप व देव पूजा में सिर खुला रखें।
तभी शास्त्रोचित फल प्राप्त होगा।

शास्त्र क्या कहते हैं ? आइए देखते हैं...

उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।
प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥
अर्थात् -
 *पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग्न होकर, शिखा खोलकर, कण्ठको वस्त्रसे लपेटकर, बोलते हुए, और काँपते हुए जो जप किया जाता है, वह निष्फल होता है ।'

शिर: प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखोऽपि वा |
अकृत्वा पादयोः शौचमाचांतोऽप्यशुचिर्भवेत् ||

( *-कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 9* )

अर्थात्-- *सिर या कण्ठ को ढककर ,शिखा तथा कच्छ(लांग/पिछोटा) खुलने पर,बिना पैर धोये आचमन करने पर भी अशुद्ध रहता हैं(अर्थात् पहले सिर व कण्ठ पर से वस्त्र हटाये,शिखा व कच्छ बांधे, फिर पाँवों को धोना चाहिए, फिर आचमन करने के बाद व्यक्ति शुद्ध(देवयजन योग्य) होता है)।* 

सोपानस्को जलस्थो वा नोष्णीषी वाचमेद् बुधः।

- *कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 10अर्ध।

अर्थात्-- *बुध्दिमान् व्यक्ति को जूता पहनें हुए,जल में स्थित होने पर,सिर पर पगड़ी इत्यादि धारणकर आचमन नहीं करना चाहिए ।* 

शिरः प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते।-( *कर्मठगुरूः* )

अर्थात्-- *वस्त्र से सिर ढककर भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए ।

उष्णीशी कञ्चुकी नग्नो मुक्तकेशो गणावृत।
अपवित्रकरोऽशुद्धः प्रलपन्न जपेत् क्वचित् ॥-

( *शब्द कल्पद्रुम* )

अर्थात्-- *सिर ढककर,सिला वस्त्र धारण कर,बिना कच्छ के,शिखा खुलीं होने पर ,गले के वस्त्र लपेटकर। अपवित्र हाथों से,अपवित्र अवस्था में और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए* ।।

न जल्पंश्च न प्रावृतशिरास्तथा।-योगी याज्ञवल्क्य

अर्थात्-- *न वार्ता करते हुए और न सिर ढककर।* 

अपवित्रकरो नग्नः शिरसि प्रावृतोऽपि वा ।
प्रलपन् प्रजपेद्यावत्तावत् निष्फलमुच्यते ।। (रामार्च्चनचन्द्रिकायाम्)

अर्थात्-- *अपवित्र हाथों से,बिना कच्छ के,सिर ढककर जपादि कर्म जैसे किये जाते हैं, वैसे ही निष्फल होते जाते हैं ।* 

 *शिव महापुराण उमा खण्ड अ.14 ⤵️*
 *सिर पर पगड़ी रखकर,कुर्ता पहनकर ,नंगा होकर,बाल खोलकर ,गले के कपड़ा लपेटकर,अशुद्ध हाथ लेकर,सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।।*

मंगलवार, 18 जून 2024

*ईरान, मेसोपोटामिया और टर्की (अर्थात तुर्किये)*

*ईरान, मेसोपोटामिया और टर्की (अर्थात तुर्किये)*

 *ईरान* 
 *सन् 1935 में रज़ाशाह पहलवी के नवीनीकरण कार्यक्रमों के तहत देश का नाम बदलकर फ़ारस से ईरान कर दिया गया था।* 

 "ईरान का प्राचीन नाम फ़ारस था। इस नाम की उत्पत्ति के पीछे इसके साम्राज्य का इतिहास शामिल है। बाबिल के समय (4000-700 ईसा पूर्व) तक पार्स प्रान्त इन साम्राज्यों के अधीन था। जब 550 ईस्वी में कुरोश ने पार्स की सत्ता स्थापित की तो उसके बाद मिस्र से लेकर आधुनिक अफ़गानिस्तान तक और बुखारा से फ़ारस की खाड़ी तक ये साम्राज्य फैल गया। इस साम्राज्य के तहत मिस्री, अरब, यूनानी, आर्य (ईरान), यहूदी तथा अन्य कई नस्ल के लोग थे। अगर सबों ने नहीं तो कम से कम यूनानियों ने इन्हें, इनकी राजधानी पार्स के नाम पर, पारसी कहना आरम्भ किया। इसी के नाम पर इसे पारसी साम्राज्य कहा जाने लगा। यहाँ का समुदाय प्राचीन काल में हिन्दुओ की तरह सूर्य पूजक था। यहाँ हवन भी हुआ करते थे लेकिन सातवीं सदी में जब इस्लाम धर्म आया तो अरबों का प्रभुत्व ईरानी क्षेत्र पर हो गया। अरबों की वर्णमाला में (प) उच्चारण नहीं होता है। उन्होंने इसे पारस के बदले फ़ारस कहना चालू किया और भाषा पारसी के बदले फ़ारसी बन गई। यह नाम फ़ारसी भाषा के बोलने वालों के लिए प्रयोग किया जाता था।

ईरान (या एरान) शब्द आर्य मूल के लोगों के लिए प्रयुक्त शब्द एर्यनम से आया है, जिसका अर्थ है आर्यों की भूमि। हख़ामनी शासकों के समय भी आर्यम तथा एइरयम शब्दों का प्रयोग हुआ है। ईरानी स्रोतों में यह शब्द सबसे पहले अवेस्ता में मिलता है। अवेस्ता ईरान में आर्यों के आगमन (दूसरी सदी ईसापूर्व) के बाद लिखा गया ग्रंथ माना जाता है। इसमें आर्यों तथा अनार्यों के लिए कई छन्द लिखे हैं और इसकी पंक्तियाँ ऋग्वेद से मेल खाती है। लगभग इसी समय भारत में भी आर्यों का आगमन हुआ था। पहलवी शासकों ने एरान तथा आर्यन दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। बाहरी दुनिया के लिए 1935 तक नाम फ़ारस था। सन् 1935 में रज़ाशाह पहलवी के नवीनीकरण कार्यक्रमों के तहत देश का नाम बदलकर फ़ारस से ईरान कर दिया गया था।"

*मेसोपोटामिया का विभाजन*

*इराक* 
 1917 में ब्रिटेन ने बगदाद को सीज कर दिया था और 1921 में ब्रिटेन ने मेसोपोटामिया में सरकार का गठन किया और क्षेत्र का नाम इराक रख दिया। 1921 में मक्का के शरीफ हुसैन बिन अली के बेटे फैसल को इराक का पहला राजा घोषित किया गया। इसके बाद *1932 में हिंसक झड़पों के एक लंबे इतिहास के बाद इराक स्वतंत्र देश बना।* 

 *सीरिया* 
 "14 मई, 1930 को फ्रांसीसी उच्चायुक्त ने सीरियाई राज्य के लिए एक संविधान लागू किया। *22 मई, 1930 को सीरिया राज्य को सीरिया गणराज्य घोषित किया गया* और फ्रांसीसी उच्चायुक्त द्वारा एक नया सीरियाई संविधान लागू किया गया। 

सीरिया और फ्रांस ने सितंबर 1936 में स्वतंत्रता की संधि पर बातचीत की । फ्रांस ने सिद्धांत रूप से सीरिया की स्वतंत्रता पर सहमति व्यक्त की, हालांकि फ्रांसीसी सैन्य और आर्थिक प्रभुत्व बनाए रखा।"
ब्रिटिश और सीरियाई राष्ट्रवादी समूहों के निरंतर दबाव के कारण अप्रैल 1946 में फ्रांसीसी अपने अंतिम सैनिकों को निकालने के लिए मजबूर हो गए, जिससे देश एक गणतंत्र सरकार के हाथों में चला गया, जो जनादेश के दौरान बनाई गई थी। 

 सीरियाई गणराज्य (1946-63) , संयुक्त अरब गणराज्य , और 1963 सीरियाई तख्तापलट
 *सीरिया 17 अप्रैल 1946 को स्वतंत्र हुआ।* स्वतंत्रता से लेकर 1960 के दशक के अंत तक सीरिया की राजनीति उथल-पुथल से भरी रही। 1946 और 1956 के बीच, सीरिया में 20 अलग-अलग कैबिनेट थे और चार अलग-अलग संविधानों का मसौदा तैयार किया गया था।

 *टर्की अर्थात तुर्किये* 
 *"23 अक्टूबर, 1923 ई. को तुर्की गणतंत्र की घोषणा हुई।"* 

 "1919 ई. के अखिल तुर्क काँग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता मुस्तफा कमाल पाशा ने की। 1923 ई. में तुर्की एवं यूनान के बीच में लोजान की संधि हुई।
 *23 अक्टूबर, 1923 ई. को तुर्की गणतंत्र की घोषणा हुई।* 
20 अप्रैल, 1924 ई. को तुर्की में नये संविधान की घोषणा हुई। तुर्की के नये गणतंत्र का राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा बने। मुस्तफा कमाल पाशा द्वारा किये गये महत्वपूर्ण कार्य निम्न हैं :
1924 ई. में तुर्की को धर्मनिरपेक्ष राज्य की घोषणा।
कमाल पाशा ने तुर्की में 3 मार्च, 1924 ई. को खिलाफत को समाप्त कर दिया।
ग्रेगोरियन कैलेडर का प्रचलन (26 दिसम्बर, 1925 ई. से लागू)।"

गुरुवार, 13 जून 2024

परमात्मा, (देवों) ईश्वर, देवताओं और भगवान में अन्तर।

परमात्मा, (देवों) ईश्वर, देवताओं और भगवान में अन्तर।

सृष्टि के हर कण, हर तत्व का मूल और वास्तविक स्वरूप, वास्तविक मैं। परम आत्म अर्थात परमात्मा।
अतः परमात्मा गुणातीत है। न सगुण है, न निर्गुण है, न सगुण निर्गुण दोनों है, न सगुण निर्गुण दोनों नहीं है।
मतलब परमात्मा के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी जो भी सोचा जा सकता है, कहा जा सकता है, सब मिलकर भी परमात्मा का ही वर्णन होते हुए भी अपूर्ण ही है।
इसलिए नेति-नेति कहा जाता है।
न इति - मतलब इतना ही नही, इतना ही नहीं।

परमात्मा ही ईश्वर के स्वरूप में प्रकट होकर सृष्टि सृजन, प्रेरण, सञ्चालन और लय करते हैं।
ॐ शब्द नाद के साथ ही सृष्टि सृजन हुआ। इसलिए परमात्मा का सर्वप्रथम/ प्राचीनतम नाम ॐ है। 
ॐ कार स्वरूप अनेक गोलाकार तरङ्गों से बनता है। पहले दूरदर्शन पर प्रारम्भ में कई बुल बुलों से बनने वाले क्रिकेट के स्टम्प और गेंन्द जैसा है।
इस ॐ शब्द नाद के साथ ही परब्रह्म प्रकट हुए। जिसे विष्णु और माया के स्वरूप में जाना जाता है। विष्णु परमेश्वर (परम ईश्वर/ प्रथम और अन्तिम शासक) कहलाते हैं।
परब्रह्म से ब्रह्म हुए जो सवितृ और सावित्री के रूप में जाने जाते हैं। ये ही जनक, प्रेरक, रक्षक हैं। इन्हें प्रभविष्णु श्रीहरि और श्री तथा लक्ष्मी के रूप में जाना जाता है। ये महेश्वर (महा ईश्वर) कहलाते हैं।
ब्रह्म से अपरब्रह्म हुए। जिन्हें नारायण और नारायणी के रूप में जाना जाता है। ये जगदीश्वर (जगत के शासक) कहलाते हैं । देखे - ऋग्वेदोक्त पुरुष सूक्त।
ये ईश्वरीय स्वरूप देव कहलाते हैं। ये ही सृष्टि का सृजन, प्रेरण, सञ्चालन तथ लय करने के अधिकारी होने से ईश्वर अर्थात परम शासक कहलाते हैं।
अपर ब्रह्म से हिरण्यगर्भ (पञ्चमुखी) ब्रह्मा हुए। जिन्होंने त्वष्टा और रचना के रूप में ब्रह्माण्ड के गोलों को सुतार की तरह घड़ा। (देखें - ऋग्वेद हिरण्यगर्भ सूक्त)। ये भी ईश्वर श्रेणी के देव हैं।
पञ्च मुखी (अर्थात अण्डाकार) हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से चतुर्मुखी (गोलाकार) प्रजापति ब्रह्मा हुए। जिनको दो देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा तथा तीन भु स्थानी प्रजापति (1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति के रूप में जाना जाता है।
प्रजापति ब्रह्मा से वाचस्पति (वाक के स्वामी) हुए जिन्हें इन्द्र और शचि के रूप में जाना जाता है।
वाचस्पति से ब्रह्मणस्पति हुए जिन्हें द्वादश आदित्य और उनकी शक्ति (पत्नियों) के रूप में जाना जाता है।
ब्रह्मणस्पति से ब्रहस्पति हुए जिन्हें अष्ट वसु और उनकी शक्ति (पत्नियों) के रूप में जाना जाता है।
ब्रहस्पति से पशुपति हुए जिन्हें एकादश रुद्र और रौद्रियों के रूप में जाना जाता है।
पशुपति से (वैदिक) गणपति (समुदायों के अध्यक्ष) हुए जो सूण्डधारी विनायक से भिन्न हैं । सूण्डधारी विनायक प्रमथ गणों (समुदाय) के गणपति थे। जिन्हें बाद में समस्त रुद्रगणों का गणपति नियुक्त किया गया। वैदिक गणपति को देवों में सोम राजा और वर्चा तथा भूमि पर स्वायम्भूव मनु और शतरूपा के रूप में जाना जाता है।
वैदिक गणपति से सदसस्पति (समिति/ सभा के अध्यक्ष) हुए। इनकी शक्ति (पत्नी) मही कहलातीं हैं। 
मही से तीन देवियाँ १ भारती २ सरस्वती और ३ इळा (इला) हुई।
इनसे ही विश्व की समस्त प्रजातियाँ उत्पन्न हुई।

तैंतीस देवता -- १ प्रजापति, २ इन्द्र ३ से १४ तक द्वादश आदित्य, १५ से २२ तक अष्ट रुद्र और २३ से ३३ तक एकादश रुद्र ये देवता कहलाते हैं।
भगवान -- जबकि, जब कोई ब्रह्मज्ञ/ आत्मज्ञ किसी लोक विशेष का शासक भूमि पर किसी उद्देश्य विशेष/ कार्य विशेष की पूर्ति हेतु षड ऐश्वर्य युक्त व्यक्ति के रूप में जन्मते हैं और कार्य पूर्ण होने पर अपने लोक में लौट जाते हैं तो वे भगवान कहलाते हैं। समग्र ऐश्वर्य, बल, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, इन छः को “भग” कहते हैं। (ये जिसमें एकत्रित हैं, वह भगवान् है।

मंगलवार, 11 जून 2024

संक्रान्ति का पुण्यकाल।

विषुव संक्रान्ति अर्थात *मेष* और *तुला* संक्रांति का पुण्यकाल संक्रान्ति से आठ घटि *(०३ घण्टे १२ मिनट) पहले से संक्रान्ति समय के आठ घटि *(०३ घण्टे १२ मिनट) बाद तक* रहता है।
स्थिर राशियों (विष्णुपद) और याम्यायन संक्रान्ति अर्थात *वृष,कर्क, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ* संक्रान्ति का पुण्यकाल संक्रान्ति से *सोलह घटि (०६ घण्टे २४ मिनट) पहले से संक्रान्ति समय तक रहता है।* 
षडशीतिमुख संक्रान्ति अर्थात द्विस्वभाव राशि तथा सौम्यायन संक्रान्ति *मिथुन, कन्या, धनु, मकर और मीन* संक्रान्ति का पुण्यकाल *संक्रान्ति समय के सोलह घटि (०६ घण्टे २४ मिनट) बाद तक रहता है।*

शुक्रवार, 7 जून 2024

अच्छा और बुरा समय।

हमारे, आचार-विचार-व्यवहार और गुण - कर्म का फल ही अच्छा या बुरा समय निर्धारित करते हैं।
नक्षत्र और राशियों में ग्रहचार तो घड़ी की सुइयों के समान समय सूचक मात्र हैं। तथा शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से करने पर देवता प्रसन्न रहते हैं और इससे विपरीत करने पर अप्रसन्न होते हैं। उनकी प्रसन्नता और अप्रसन्नता भी हमारे आचार-विचार-व्यवहार और गुण - कर्म पर ही तो निर्भर है।

रविवार, 2 जून 2024

स्मार्त और वैष्णव एकादशी व्रत।

वैदिक परम्परा के बाद स्मृतियों के आधार पर गुरुकलों में प्रचलित नियमों को स्मृति के रूप में प्रस्तुत किया गया। जिनमें देश-काल के अनुसार कुछ अन्तर है लेकिन बहुत अधिक मतान्तर नही है।
लेकिन पुराणों में बहुत मतभेद हैं।
फिर मठों और सम्प्रदायों नें मनमानी करने के लिए आगम ग्रन्थ रच लिए। उसके कारण वैष्णव -शैव-शाक्त- गाणपत्य -सौर सब परस्पर लड़ने -भिड़ने लगे। तो आद्य शंकराचार्य जी ने पञ्चदेवोपासन पद्यति लागू कर समझोता करवाया।
फिर रामानन्दाचार्य नें वैष्णव- शैव झगड़े मिटाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
*स्मार्त वैष्णव/ भागवत कौन?*
 *जिन्होंनेश्री निम्बार्काचार्य जी, श्री रामानुजाचार्य जी, श्री माध्वाचार्य जी, श्री वल्लभाचार्य जी, श्रीकृष्ण चेतन्य महाप्रभु जी, स्वामीनारायण सम्प्रदाय या रामानन्द सम्प्रदाय के आचार्यों से दीक्षा लेकर भूजा पर शंख चक्र अंकित करवाया है वे ही भागवत या परम भागवत द्वादशी तिथि में एकादशी का व्रत करते हैं।*
 *शेष सभी स्मार्त ही हैं और स्मार्त एकादशी व्रत अर्थात पहली एकादशी करके द्वादशी में व्रत का पारण (व्रत खोलना) करते हैं।* 
श्रीमन्नारायण, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, इन्द्र, द्वादश आदित्यगण,अष्ट वसुगण, एकादश रुद्रगण अर्थात विश्वेदेवाः के निमित्त एकादशी व्रत होता है।
नारायण, शंकर ,चण्डी, विनायक/ कार्तिकेय और सूर्य इन पाँचो देवताओं की उपासना करने वाले *स्मार्त* कहलाते हैं। ये स्मार्त *एकादशी व्रत करते हैं* ।
*वैष्णव* जन *द्वादशी* , पूर्णिमा, अमावस्या, श्रवण नक्षत्र और बुधवार को विष्णु के निमित्त व्रत करते हैं। ये प्रदोष व्रत नहीं करते।
 *शैव* जन *प्रदोष व्रत* (काम्यव्रत) और मास शिवरात्रि (कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी) और सोमवार का व्रत करते हैं। *शैव एकादशी व्रत नहीं करते।*

*भागवत जन द्वादशी तिथि में एकादशी तिथि का व्रत करेंगे।*
भागवत धर्म का नियम है कि *दशमी तिथि यदि* ---
*सूर्योदय के बाद* 56 घटि (22 घण्टे 24 मिनट) तक रहे तो *पौराणिक वैष्णव द्वादशी तिथि में एकादशी तिथि का व्रत करते हैं।* 
सूर्योदय के बाद 55 घटि (22 घण्टे) तक रहे तो *रामानुजाचार्य के सम्प्रदाय के वैष्णव द्वादशी तिथि में एकादशी तिथि का व्रत करते हैं।* 
सूर्योदय के बाद 45 घटि (18 घण्टे) तक रहे तो *निम्बार्काचार्य जी के सम्प्रदाय के वैष्णव द्वादशी तिथि में एकादशी तिथि का व्रत करते हैं।* 

*एकादशी तिथि प्रारम्भ होने के समय सूर्य से चन्द्रमा की अंशात्मक दूरी 300° होती है और एकादशी तिथि समाप्ति के समय सूर्य से चन्द्रमा की अंशात्मक दूरी 312° हो जाती है। जिसे किसी भी वेधशाला में देखा जा सकता है।* 
एकादशी तिथि में व्रत करनें वालों को द्वादशी में पारण करना पड़ता है। अन्यथा व्रत भङ्ग माना जाता है।
चूंकि, भागवत सम्प्रदाय में द्वादशी तिथि का व्रत करना होता है। इसलिए भागवत सम्प्रदाय के लोग एकादशी व्रत नहीं करते।
लेकिन शास्त्रों में एकादशी व्रत नित्य व्रत बतलाया है अर्थात करना आवश्यक बतलाया है अतः इस झूठ का सहारा लिया जाता है और थोथा तर्क दिया जाता है कि, दशमी विद्धा एकादशी व्रत करने के परिणामस्वरूप गान्धारी के सौ पुत्रों का नाश हो गया। दुर्योधन, दुशासन आदि कौरव परम अधर्मी थे। इन लोगों का वंश नाश इनके दुष्कर्मों के कारण हुआ यह सर्वविदित है।  
*भागवत जनों को जब द्वादशी तिथि का व्रत करना है तो एकादशी के नाम से व्रत करने का झूठ क्यों बोलना। सीधे- सीधे सच बोलना चाहिए कि, द्वादशी तिथि के स्वामी विष्णु हैं अतः हमारे सम्प्रदाय में हम द्वादशी तिथि का व्रत करते हैं। चूंकि एकादशी तिथि के व्रत का पारण द्वादशी तिथि में करना चाहिए और हमें द्वादशी तिथि में ही व्रत रखना होता है इसलिए एकादशी तिथि का व्रत नहीं करते। बल्कि द्वादशी तिथि का व्रत करते हैं।*
अन्यथा द्वादशी तिथि में एकादशी के नाम से व्रत क्यों करते हैं?
ऐसे लोग सोमवार का व्रत मंगलवार को क्यों नहीं करते ?