सोमवार, 27 मार्च 2023

वैदिक काल गणना सायन सौर संवत्सर क्यों बदली गई?

सोचो सनातनधर्मी भारतियों सोचो।
कृपया विचार करें।

(१) वर्तमान में २० मार्च या २१ मार्च को होनें वाले विषुव सम्पात से वैदिक युग में नव संवत्सर   प्रारम्भ करने की परम्परा थी। यह संवत ३६५.२४२१९ दिन का होता था। धार्मिक कार्यों में सायन सौर मास गतांश के साथ प्रचलित थे।*
वर्तमान में मन्दोच्च १०३°१७'५६" पर है। इस कारण शुक्र मास सबसे बड़ा और सहस्य सबसे छोटा होता है।
 *ये मास १ मधु, २ माधव, ३ शुक्र, ४ शचि, ५ नभः, ६ नभस्य मास ३१ दिन के, ७ ईष, ८ उर्ज, ९ सहस मास ३० दिन के, १० सहस्य मास २९ दिन का , ११ तपस  एवम् १२ तपस्य मास ३० दिन का लेकिन प्रति चार वर्ष में एक बार बारहवाँ मास अर्थात तपस्य मास ३१ दिन का होजाता था। कभी कभी तीसरे वर्ष में हो जाता लेकिन प्रायः चौथे वर्ष में ही ३१ दिन का होता था। मास के दिनों की संख्या मन्दोच्च पर निर्भर करती है। यह परिवर्तनशील है। अतः मासों की दिन संख्या वर्तमान मन्दोच्च के अनुसार दिए गए हैं। मन्दोच्च का एक भचक्र १,०९,७१६ (एक लाख, नौ हजार, सातसौ सोलह) वर्ष का होता है।* 
*ऐसा गणित द्वारा करनें की आवश्यकता नही थी, बल्कि शुल्बसुत्रों के जानकार ऋषि छाँया देखकर वसन्त सम्पात दिवस जान लेते थे। शुल्बसुत्रों के जानकार ऋषि ही मौसम आदि का आँकलन कर बड़े यज्ञों, नैमित्तिक यज्ञों, संस्कारों और बड़े कार्यक्रमों के लिए उचित समय और स्थान निर्धारित करते थे।* 
*इस कारण दो वसन्त सम्पात दिवसों के बीच का संवत्सर स्वतः शुद्ध होता रहता था। ऐसे ही ये ऋषि वैध द्वारा अयन, तोयन, ऋतु एवम सायन सौर मास का प्रारम्भ और अन्तिम क्षण जान लेते थे। धार्मिक कार्यों में सायन सौर मास और गतांश के साथ तथा असमान भोगांश वाले चन्द्रमा के  नक्षत्र भी प्रचलित थे।* एवम् 
*लोकिक कार्यों में संक्रान्ति गत दिवस (गते) दिनांक के समान प्रचलित थे। इसके साथ दस दिन का दशाह प्रचलित था। जैसे आजकल मिश्र और बेबीलोन (इराक) से लिया गया सप्ताह प्रचलित है।*
*संवत्सर गणना हेतु कल्प संवत, सृष्टि संवत और युग संवत* प्रचलित थे। जैसे वर्तमान में भी कल्प संवत, सृष्टि संवत और कलियुग संवत प्रचलित हैं।*

 २ *सावन वर्ष* --- *वैदिक काल में व्यवहार में ३६० दिन  का सावन सौर वर्ष भी चलता था, इसमें प्रत्येक महिना ३० दिन का ही होता है ‌ तथा साथ में दशाह के वासर प्रचलित थे। इसमें अधिक मास करके संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर द्वारा  समायोजन होता था।*

३ *यदि वैदिक सायन सौर संवत और मधु माधवादि मास वाली परम्परा को ही जारी रखना होता और काल गणना में कोई परिवर्तन ही नही करना होता तो सम्राट विक्रमादित्य नाक्षत्रीय सौर मान ३६५.२५६३६३ दिन वाला वर्तमान में प्रायः १४ अप्रेल निरयन मेष संक्रान्ति से प्रारम्भ होनें वाला विक्रम संवत क्यों चलाते?*  
*यदि कोई व्यवस्था यथावत रखना होती तो केवल संवत का नाम ही क्यों बदलते?*
इसका कारण यह है--- ⤵️

 *वेदिक युग में  भारत में क्रान्तिवृत के उत्तर दक्षिण में नौ- नौ अंश के परिपथ को भचक्र के नाम से जाना जाता था और भचक्र (Fixed zodiac फ़िक्स्ड झॉडिएक) का विभाजन सत्ताइस या अट्ठाइस असमान भोगांश वाले नक्षत्रों में किया जाता था। कुछ स्थिर दिखने वाले ताराओं के समुह से बनी आकृति को नक्षत्र कहते थे। चित्रा तारे को भचक्र का मध्य बिन्दु माना जाता है। तदनुसार चित्रा तारे से १८०° पर भचक्र का आरम्भ बिन्दु माना जाता है। किसी समय रेवती का योगतारा इस बिन्दु पर स्थित था। लेकिन रेवती योगतारा तुलनात्मक अधिक गतिशील होनें से इस स्थान से चार डिग्री पूर्व दिशा में ओर खिसक गया है। इस कारण वर्तमान में इस बिन्दु पर कोई तारा नही स्थित है। इसे नाक्षत्रीय गणना प्रणाली कहा जाता है। वर्तमान खगोलविदों ने ८८ (अठासी) नक्षत्र निर्धारित किए हैं। इस प्रणाली में बिना यन्त्र के केवल खुली आँखों से आकाश में नक्षत्रों में सूर्य चन्द्रमा और ग्रहों की स्थिति देखी जा सकती है। सूर्योदय पूर्व और सूर्यास्त के बाद के तारों को देखकर सूर्य किस नक्षत्र में स्थित है जाना जा सकता है। चन्द्रमा और ग्रहों का अवलोकन रात्रि में किया जा सकता है। महर्षि गर्गाचार्य नें गर्ग संहिता और भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि में असमान भोगांश वाले नक्षत्रों को ही मान्यता दी है। इसमें नक्षत्रों मे गणना दर्शाई जाती है। इसलिए इसे नाक्षत्रीय गणना प्रणाली कहते हैं।* 
*चित्रा नक्षत्र का भोग केवल ००°२३'३१" ही था, स्वाती नक्षत्र का भोग २०°५०'५७" था, जबकि धनिष्ठा नक्षत्र का भोग २५°१४'०८" था; ऐसे ही सभी नक्षत्रों के भोगांश अलग अलग थे। न कि, वर्तमान में प्रचलित १३°२०'।* और 
*इन नक्षत्रों के अथवा नक्षत्रों के मुख्य तारा (योग तारा) से ग्रहों के साथ ०००° का अन्तर होनें पर युति या योग और १८०° होनें पर प्रतियोग के आधार पर शुभाशुभ माना जाता था।* 

*विक्रम संवत* --- *चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु पर सूर्य आनें पर नाक्षत्रीय सौर युधिष्ठिर संवत और निरयन सौर विक्रम संवत तथा निरयन मेष मासारम्भ होता है। जिसे पञ्चाब और हरियाणा में वैशाख मास कहते हैं। जब ३६५.२५६३६३ दिन पश्चात सूर्य पुनः इसी बिन्दु पर लौटता है तब संवत्सर पूर्ण होता है।* *प्रकारान्तर से कह सकते हैं कि, सूर्य के केन्द्र का परिभ्रमण करती भूमि जब चित्रा तारे के समक्ष आती है तब नाक्षत्रीय / निरयन सौर वर्ष प्रारम्भ होता है। और चित्रा तारे के समक्ष भूमि का परिभ्रमण पूर्ण होने पर संवत्सर पूर्ण होता है।*
*वर्तमान में मन्दोच्च ७९°०८'१८" पर है। इस कारण मिथुन मास सबसे बड़ा और धनुर्मास सबसे छोटा होता है।*
 *निरयन सौर मासों के नाम* --- *दक्षिण भारत और पूर्व भारत में मेष वृषभादि नाम प्रचलित है । जबकि पञ्जाब और हरियाणा में वैशाखादि नाम प्रचलित है।*
*इस कारण इसके मासों की दिन संख्या इस प्रकार है* ---
*१ मेष (वैशाख) और २ वृषभ (ज्येष्ठ),३ मिथुन (आषाढ़) , ४ कर्क (श्रावण), ५ सिंह (भाद्रपद)  और ६ कन्या (आश्विन) ३१ दिन का तथा* 
*७ तुला (कार्तिक) और ८ वृश्चिक (मार्गशीर्ष) ३० दिन का तथा* 
*९ धनु पौष २९ दिन का एवम्*
*१० मकर (माघ), ११ कुम्भ (फाल्गुन) और १२ मीन (चैत्र) ३० दिन का होता है।*

*सम्पात के २५,७७८ वर्षीय चक्र के कारण नाक्षत्रीय सौर वर्ष अर्थात निरयन सौर संवत का प्रारम्भ होनें का दिनांक प्रत्येक ७१ वर्ष में एक दिनांक बढ़ जाती है। इस कारण वर्तमान में १४ अप्रेल से प्रारम्भ होनें वाला नाक्षत्रीय सौर युधिष्ठिर संवत और निरयन सौर विक्रम संवत और मेष (वैशाख) मास भविष्य में १५ अप्रेल से आरम्भ होगा।*
*युधिष्ठिर संवत की गणना भी नाक्षत्रीय सौर वर्ष (निरयन सौर वर्ष) में की जाती थी। लेकिन युधिष्ठिर संवत प्रायः अप्रचलित ही रहा। इसी आधार पर विक्रमादित्य ने विक्रम संवत चलाया था। और विक्रम संवत को भी केवल १३५ वर्ष में शक संवत नें विस्थापित कर दिया। *

*बेबीलोन (ईराक), मिश्र और युनान में भचक्र (Fixed zodiac फ़िक्स्ड झॉडिएक) विभिन्न आकृतियों की बारह राशियों की कल्पना की गई थी।  जो भारत में प्रचलित नहीं थी। इन राशियों का भारत में  वराहमिहिर नें परिचय कराया। वर्तमान खगोलविदों ने अलग - अलग भोगांश वाली तेरह राशियों की कल्पना की है।* 
*वराहमिहिर के बाद इन ३०° के समान भोग वाली बारह राशियों को नक्षत्रों के साथ जोड़ने के लिए १३°२०' के समान भोग वाले सत्ताइस नक्षत्रों की प्रणाली प्रारम्भ की गई। जिसमे प्रत्येक नक्षत्र में ३°२०' के चार-चार चरण होते हैं। जो राशि प्रणाली में नवांश कहलाते हैं। इस प्रकार निरयन गणना प्रणाली का उदय हुआ जो वर्तमान में भी भारत में प्रचलित है।* 

*उल्लेखनीय है कि, ईरान या तुर्किस्तान के मूल निवासी होने के कारण वराहमिहिर को शक जाति का माना जाता है। आचार्य वराहमिहिर से प्रभावित होनें के कारण सम्राट विक्रमादित्य ने निरयन सौर विक्रम संवत प्रारम्भ किया।*

विशेष सुचना ---
अथर्ववेद में अट्ठाईस नक्षत्र बतलाये गए हैं। जबकि कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता ४/४/४० में शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण/ दशम काण्ड/पञ्चमोऽध्याय/ चतुर्थ ब्राह्मण में और सामवेद के जैमिनी ब्राह्मण में सत्ताईस नक्षत्र ही बतलाए गए हैं लेकिन सभी में एक बात निश्चित है कि, नक्षत्र भोग असमान था। जैसा कि, पहले बतलाया जा चुका है कि,
 चित्रा नक्षत्र का भोग केवल ००°२३'३१" ही था, स्वाती नक्षत्र का भोग २०°५०'५७" था, जबकि धनिष्ठा नक्षत्र का भोग २५°१४'०८" था; ऐसे ही सभी नक्षत्रों के भोगांश अलग अलग थे।*

 शतपथब्राह्मणम् में सत्ताइस नक्षत्रों का उल्लेख दिया हुआ है।

नक्षत्राणि ह त्वेवैषोऽग्निश्चितः तानि वा एतानि सप्तविंशतिर्नक्षत्राणि सप्तविंशतिः सप्तविंशतिर्होपनक्षत्राण्येकैकं नक्षत्रमनूपतिष्ठन्ते तानि सप्त च शतानि विंशतिश्चाधि षट्त्रिंशत्ततो यानि सप्त च शतानि विंशतिश्चेष्टका एव ताः षष्टिश्चत्रीणि च शतानि परिश्रितः षष्टिश्च त्रीणि च शतानि यजुष्मत्योऽथ यान्यधिषट्त्रिंशत्स त्रयोदशो मासः स आत्मा त्रिंशदात्मा प्रतिष्ठा प्राणा द्वे शिर एव षट्त्रिंश्यौ तद्यत्ते द्वे भवतो द्व्यक्षरं हि शिरोऽथ यदन्तरा नक्षत्रे तत्सूददोहा अथ यन्नक्षत्रेष्वन्नं तत्पुरीषं ता आहुतयस्ताः समिधोऽथ यन्नक्षत्राणीत्याख्यायते तल्लोकम्पृणा तद्वा एतत्सर्वं नक्षत्राणीत्येवाख्यायते तत्सर्वोऽग्निर्लोकम्पृणामभिसम्पद्यते स यो हैतदेवं वेद लोकम्पृणामेनं भूतमेतत्सर्वमभिसम्पद्यते

शतपथब्राह्मणम्/काण्डम् १०/अध्यायः ५/ब्राह्मण ४

सामवेद के जैमिनी ब्राह्मण में सत्ताइस नक्षत्र कहे गए हैं।

यास्सप्तपदाश्शक्वर्यो ये सप्त ग्राम्याः पशवो यानि सप्त चतुरुत्तराणि छन्दांसि ये सप्त मुख्याः प्राणा यानि सप्तविंशतिर्दिव्यानि नक्षत्राणि यस्सप्तविंश स्तोमो यत्किं च सप्त सप्त तस्यैषा सर्वस्यर्द्धिस्तस्योपाप्तिः ।)

परवर्ती ज्योतिष ग्रन्थों में इसका समाधान इस प्रकार किया कि,
जब अट्ठाइस नक्षत्रों के बजाय सत्ताइस नक्षत्र लेने का निर्णय लिया, तो उत्तराषाढ़ा  की अन्तिम चार घटी और श्रवण नक्षत्र के प्रारम्भ की २५ घटी को मिला कर कुल २९ घटी को अभिजित् नक्षत्र मान लिया।

 *महर्षि गर्गाचार्य नें गर्ग संहिता में और सिद्धान्त ज्योतिष के विद्वान भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि में असमान भोगांश वाले नक्षत्रों को ही मान्यता दी। लेकिन वराहमिहिर ने वृहत् संहिता में १३°२०' के समान भोगांश वाले सत्ताइस को मान्यता दी। साथ ही  बेबीलोन (इराक) मिश्र और युनान में प्रचलित ३०° वाली बारह राशियों को भी मान्यता दी। तथा राशियों और नक्षत्रों में समायोजन स्थापित किया।* 

 ३ *निरयन सौर चान्द्र वर्ष * --- * दो अमावस्या के बीच का समय २९.५३०५८९ दिन चान्द्रमास होता है। अतः दो पूर्णिमा भी लगभग २९.५३०५८९ दिन के अन्तर से होती है।* 
*ब्राह्मण ग्रन्थ काल में पूर्णिमा के समय चन्द्रमा प्रायः जिस नक्षत्र में भ्रमण करता था उसी नक्षत्र के नाम पर पूर्णिमा का नामकरण किया गया। अतः बाद में यह चान्द्रमासों के नामकरण का आधार बनी।* 
*लेकिन वैदिक काल में अर्ध चन्द्रमा वाली अष्टका-एकाष्टका, पूर्ण चन्द्रमा वाली पूर्णिमा और बिना चन्द्रमा वाली अमावस्या का ही उल्लेख मिलता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में भी एकाध बार अमावस्या के बाद प्रतिपदा और चन्द्र दर्शन वाली तिथि का उल्लेख भी आया है। अर्थात ब्राह्मण ग्रन्थों, सुत्र ग्रन्थों की रचना काल तक तिथियाँ अप्रचलित ही थी।*
 *तिथियों का सर्वप्रथम उल्लेख क्षेपक रूप में रामायण में और प्रामाणिक रूप में महाभारत में देखने को मिलता है। पूराण पूर्णतः तिथियों पर आधारित हैं।* 

 *शकाब्द* --- *वर्तमान में प्रायः १३ अप्रेल या १४ अप्रेल अर्थात निरयन मेष संक्रान्ति से प्रारम्भ होनें वाला विक्रम संवत वाली निरयन सौर वर्ष वाली काल गणना को ही जारी रखना होती तो, सम्राट विक्रमादित्य द्वारा विक्रम संवत लागू किए जानें के केवल १३५ वर्ष बाद ही  अर्थात विक्रम संवत १३५ के अन्त और विक्रम संवत १३६ के आरम्भ में ही शकाब्द लागू क्यों किया जाता? क्या विक्रम संवत लागू होनें के मात्र १३५ वर्ष बाद ही तिथियों और चान्द्रमास वाला शक संवत प्रणाली लागू होना आश्चर्यजनक नही है? क्या कारण थे? इसका कारण यह था कि,* ---
 *उत्तर भारत में पेशावर के कुषाण क्षत्रपों द्वारा  मथुरा विजय के उपलक्ष में कुषाण वंशिय तुर्क राजाओं नें उत्तर भारत में शक संवत लागू किया और  सातवाहन राजाओं द्वारा मालवा विजय के उपलक्ष में पैठण महाराष्ट्र के सातवाहन राजाओं ने दक्षिण भारत में शकाब्द लागू कर दिया। यह शकाब्द निरयन मीन राशि के सूर्य मे पड़नें वाली अमावस्या के बाद वाली चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से  प्रारम्भ किया जाता है। दक्षिण भारत में इसे शालिवाहन शक संवत  कहते हैं।
*आखिर किस कारण से शकाब्द लागू होने के बाद में बनें पौराणिक ग्रन्थों नें भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होनें वाले शकाब्द के अनुसार अनेक मत - मतान्तर वाले व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार नये सिरे से चान्द्रमासों की तिथियों के अनुसार क्यों लागू किए ? यदि पूर्ववत ही व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाए जाते तो क्या इतने मत मतान्तर रहते।*
*शकाब्द लागू होने के बाद में बनें बाद भारतीय खगोलीय गणना के गणित (एस्ट्रोनॉमी) के सभी सिद्धान्त ग्रन्थों में गणना का आधार शक संवत को ही अपनाया गया? किसी ने भी विक्रम संवत को आधार क्यों नहीं बनाया?*

क्योंकि, 
 *शक देश तुर्किस्तान में उन्नीस वर्षीय चक्र वाला संक्रान्ति के आधार पर अधिक मास वाला सौर चान्द्र केलेण्डर प्रचलित था जो आज भी चीन में प्रचलित है।  वराहमिहिर इस गणना को भारत में प्रचारित कर चुके थे। भारतीय बौद्धों ने इस परम्परा के प्रति विशेष रूचि दिखलाई।* 
 *इसलिए जो बौद्ध आचार्य शुद्धि करवा कर सनातनधर्मी बने थे उनने पौराणिकों के रूप में शक संवत और निरयन सौर महिनों पर आधारित चान्द्र वर्ष लागू करवाया। लेकिन समस्या यह आई कि*,
 *वेदिक काल में संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधु मास का प्रारम्भ वसन्त सम्पात से होता था।*
*चूंकि आर्यावर्त और ब्रह्मावर्त में  वसन्त सम्पात (वर्तमान में २० या २१ मार्च) से उत्तरायण प्रारम्भ होना माना जाता था। और दक्षिण परम क्रान्ति दिवस (वर्तमान में २२ या २३ जून) से दक्षिण तोयन प्रारम्भ होना मानते थे। शरद सम्पात २३ सितम्बर से दक्षिणायन और उत्तर परम क्रान्ति २२ दिसम्बर से उत्तर तोयन माना जाता था।
 *वेदिक काल में  वसन्त सम्पात से शरद सम्पात २०/२१ मार्च से २३ सितम्बर के बीच उत्तरायण  में समस्त शुभकार्य करने का प्रचलन था।*
*लेकिन दक्षिण भारत और वर्तमान भारत के मध्य क्षेत्र में दक्षिण परम क्रान्ति २३ जुन से २२ दिसम्बर के बीच दक्षिण तोयन में दक्षिण परम क्रान्ति दक्षिण तोयन प्रारम्भ २३ जून से शरद सम्पात वैदिक दक्षिणायन प्रारम्भ २३ सितम्बर तक वर्षाकाल रहता है। वर्षाकाल बड़े आयोजन नही किये जा सकते।
*इस कारण  २२-२३ दिसम्बर को उत्तर परम क्रान्ति से प्रारम्भ होनें वाले उत्तर तोयन को उत्तरायण नाम कर दिया गया और २३ जून से आरम्भ दक्षिण तोयन को दक्षिणायन नाम कर दिया गया।* और
*संवत्सर और वसन्त ऋतु के प्रथम मास का नाम मधुमास के स्थान माधव मास कर दिया जो  वैदिक काल में संवत्सर और वसन्त ऋतु का द्वितीय मास था। जबकि वैदिक संवत्सर और वसन्त ऋतु के प्रथम मास मधुमास को अन्तिम मास घोषित कर दिया।* 
लेकिन यह लोगों में मतिभ्रम पैदा कर रहा था। इसलिए ---
*वेदिक सायन सौर संवत्सर और विक्रमादित्य द्वारा प्रचलित निरयन सौर संवत्सर का हायब्रिड कर उस समय वसन्त सम्पात के निकट पड़ने वाली अमावस्या के दुसरे दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) से निरयन सौर मासों पर आधारित १९ वर्षीय, १२२ वर्षीय और १४१ वर्षीय चक्र वाला अधिक मास एवम क्षय मास वाला चान्द्रमासों वाला शकाब्द और चैत्र, वैशाख आदि मास तिथियों के साथ प्रचलित किया गया।*
* जैसा कि, बतलाया जा चुका है कि, चैत्र वैशाख आदि मास वाला शकाब्द निरयन सौर मासों पर आधारित चान्द्र वर्ष है। इसलिए निरयन सौर संवत के अनुरूप ही मन्दोच्च के कारण निरयन सौर संवत के प्रारम्भ के जो छः मास ३१ दिन के है वैसे ही प्रत्येक २८ से ३८ मास उपरान्त शकाब्द के प्रारम्भ के १ चैत्र, २ वैशाख, ३ ज्येष्ठ, ४ आषाढ़, ५ श्रावण, ६ भाद्रपद, ७ आश्विन मास ही प्रायः अधिक होते हैं। और कभी कभार आठवाँ मास कार्तिक मास भी अधिक हो सकता है। लेकिन ९ मार्गशीर्ष, १० पौष ,११ माघ और १२ फाल्गुन मास कभी भी अधिक नही होते। इसी प्रकार ग्यारहवाँ माघ मास कभी क्षय नही होता। शेष सभी मास १९ वर्ष, १२२ वर्ष और १४१ वर्ष के क्रम से क्षय मास हो सकते हैं।*
*क्षय मास के पहले वाला मास और क्षय मास के बाद वाला मास अधिक मास होता है। इस कारण क्षय मास के बाद वाले मास को भी शुद्ध मास जैसा ही मानते हैं।  (१९६३ ई.) शकाब्द १८८५ में १४१ वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था। फिर  (१९८२ ईस्वी) शकाब्द १९०४ में १९ वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था। अब २१०४ ईस्वी शके २०२६ में १२२ वर्ष वाला क्षय मास पड़ेगा।*

*बौद्ध और जैन पन्थ के उदय के मात्र पाँच सौ वर्षों में ही इतनी भारी उठापटक क्यों हो गई? क्या यह आश्चर्यजनक नही है?*

*क्योंकि, इसके पीछे शुद्धि करवा कर की सनातन धर्म में घर वापसी करवानें  वाले बौद्ध आचार्यों का ही दिमाग था। अर्थात बौद्ध मानसिकता वाले सनातनधर्मी आचार्यों का दिमाग था। भारत की बौद्धिक सम्पदा पर अब इन्ही पूर्व बौद्धाचार्यों का नियन्त्रण होने लगा था। इन्ही पूर्व बौद्ध आचार्यों ने क्षत्रियों को सिखाया कि, आततयियों  और अधर्मी आक्रांताओं के विरुद्ध युद्ध में भी धर्मयुद्ध के नियम पालन करना चाहिए। जिससे वे पराजित हो जाएँ और बौद्ध मतावलंबी शक भारत में सुगमता से प्रवेश कर सके। बाद में इन्हीं ने विन्द्यगिरी में शक, हूण, खस, ठस, बर्बरों की यज्ञ में शुद्धि करवा कर इन्हें क्षत्रिय का दर्जा दिया।* 
*इसी कारण इसके तुरन्त बाद ही भारत में बौद्ध मत वाले तुर्किस्तान के शक और कुषाणों के हमले प्रारम्भ हो गये।*
 *और बाद में ईरान, तुर्क और अफगान मुस्लिम आक्रांताओं के हमले, फिर यूरोपीय जातियों की सत्ता कायम होकर भारत लम्बे समय तक पतनोन्मुखी क्यों हुआ?*

पञ्च महायज्ञों की उपयोगिता वेदज्ञान

यदि पञ्चयज्ञ सेवन के बिना केवल समाधी और तप से ही ज्ञान होता तो सबको एक ही ज्ञान होता।
न कोई बौद्ध होते न जैन, न कबीर पन्थ - नानक पन्थ और न ही लाओत्से का ताओ होता, न कुङ्गफु का कन्फ्यूजन कन्फ्युशियस पन्थ होता, न इब्राहिमी पन्थ। सब वैदिक ही होते।

बुधवार, 15 मार्च 2023

कलियुग संवत, युधिष्ठिर संवत/ विक्रम संवत और शक संवत का प्रारम्भ।

भारतवर्ष में मुख्यतया तीन प्रकार के संवत्सर, मास और मिति/ तिथि प्रचलित है।
वसन्त विषुव/ सायन मेष संक्रान्ति २० उपरान्त २१ मार्च २०२३ सोमवार (Tuesday) को उत्तर रात्रि ०२:५४ बजे पूर्वाह्न में होगी।
अतः कलियुग संवत ५१२४ का प्रारम्भ, वैदिक उत्तरायण का प्रारम्भ, वैदिक वसन्त ऋतु का प्रारम्भ, वैदिक मधुमास का प्रारम्भ, वैदिक वसन्तोत्सव पर्व दिनांक २१ मार्च २०२३ मंगलवार को सूर्योदय के साथ होगा।
इन्दौर में धार्मिक कार्यों में प्रयोजनीय वास्तविक सूर्योदय ०६:२८ बजे होगा। एवम् आभासी दृष्य सूर्योदय ०६:३० बजे होगा।

इस दिन विश्व में दिन रात बराबर रहते हैं।
देवताओं का सूर्योदय और असुरों का सूर्यास्त होता है।
उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय और दक्षिणी ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।
वैदिक नव संवत्सर प्रारम्भ का उत्सव वसन्तोत्सव के रूप में मनाया जाता है।
पारसी नववर्ष का भी प्रारम्भ होगा। वे इसे जमशेदी नव वर्ष कहते हैं। (जम शब्द वैदिक यम का अवेस्तन रूप है।)

नाक्षत्रीय गणनानुसार इस वर्ष निरयन मेष संक्रान्ति १४ अप्रेल २०२३ को १४:५८ बजे (दोपहर ०२:५८ बजे) होगी। अतः युधिष्ठिर संवत्सर ५१६१ का प्रारम्भ होगा। पञ्जाब, हरियाणा में सूर्योदय नियमानुसार १४ अप्रेल को वैशाखी पर्व से इस दिन विक्रम संवत २०८० का प्रारम्भ होगा।और 
उड़िसा में सूर्योदय नियमानुसार १४ अप्रेल को उड़िया नववर्ष प्रारम्भ होगा।

केरल में १८ घटिका नियमानुसार १५ अप्रेल को मलयाली नव संवत्सर प्रारम्भ होगा। केरल में कोलम नववर्ष ११९८ निरयन सिंह संक्रान्ति (१७ अगस्त २०२३ को १३:३२ बजे से) प्रारम्भ होगा।

तमिलनाडु में सूर्यास्त नियमानुसार १४ अप्रेल को मेढम मासारम्भ के साथ तमिल नव वर्ष प्रारम्भ होगा। लेकिन 

बङ्गाल और असम में मध्यरात्रि नियमानुसार १५ अप्रेल को बङ्गाली और असमिया नव संवत्सर १४२८ प्रारम्भ का पर्वोत्सव/ त्योहार मनाया जाएगा।

वैशाखी का त्योहार वैदिक सनातन धर्मियों, बौद्धों और खालसा सिखों के लिए महत्वपूर्ण है। 
जिस समय सूर्य का परिभ्रमण करते हुए भूमि भचक्र/ नक्षत्र मण्डल में चित्रा नक्षत्र के योग तारा चित्रा तारे के साथ या समक्ष दिखाई देती है। सापेक्ष में भूमि के केन्द्र से सूर्य चित्रा तारे से १८०° पर निरयन मेषादि बिन्दु पर दिखता है उस समय को निरयन मेष संक्रान्ति कहते हैं।

निरयन मेष संक्रान्ति या निरयन सौर वैशाख मास के पहले दिन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक क्षेत्रों में बहुत से नव वर्ष के त्यौहार वैशाखी , जुड़ शीतल, पोहेला बोशाख, बोहाग बिहू, विशु, पुथण्डु के नाम से मनाया जाता हैं।
ऐसा माना जाता है कि गङ्गा देवी इसी दिन पृथ्वी पर उतरी थीं।
सनातन धर्मी इसे गङ्गा स्नान,पूजा करके और भोग लगाकर मनाते हैं। 
हरिद्वार और ऋषिकेश में निरयन मेष संक्रान्ति अर्थात बैसाखी पर्व पर भारी मेला लगता है। 
उत्तराखंड के बिखोती महोत्सव में लोगों को पवित्र नदियों में डुबकी लेने की परंपरा है। इस लोकप्रिय प्रथा में प्रतीकात्मक राक्षसों को पत्थरों से मारने की परंपरा है।
बिहार और नेपाल के मिथल क्षेत्र में, नया साल जुरशीतल के रूप में मनाया जाता है। यह मैथिली पंचांग का पहला दिन है। परिवार के सदस्यों को लाल चने सत्तू और जौ और अन्य अनाज से प्राप्त आटे का भोजन कराया जाता है।
बंगाली नए साल निरयन मेष संक्रान्ति को 'पाहेला बेषाख' के रूप में मनाया जाता है और पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और बांग्लादेश में एक उत्सव 'मंगल शोभाजात्रा' का आयोजन किया जाता है। 
यह उत्सव 2016 में यूनेस्को द्वारा मानवता की सांस्कृतिक विरासत के रूप में सूचीबद्ध किया गया था।
ओडिशा में (निरयन मेष) संक्रांति को महाविषुव संक्रान्ति कहते हैं। उड़िया नए साल का प्रारम्भ दिवस समारोह में विभिन्न प्रकार के लोक और शास्त्रीय नृत्य शामिल होते हैं, जैसे शिव-संबंधित छाऊ नृत्य।
असमिया नव वर्ष की शुरुआत के रूप में बोहाग बिहू या रंगली बिहू निरयन मेष संक्रान्ति को मनाते हैं। इसे सात दिन के लिए विशुव संक्रांति (मेष संक्रांति) वैसाख महीने या स्थानीय रूप से 'बोहग' (भास्कर कैलेंडर) के रूप में मनाया जाता है।
निरयन मेष संक्रान्ति को तमिलनाड़ू में पुत्ताण्डु या पुत्थांडु या पुथुवरूषम तमिल नववर्ष कहते हैं।
 यह तमिल कैलेंडर के चिथीराई या चिधिराई मास का पहला दिन है। इसे लन्नीसरोल हिन्दू केलेण्डर के सौर चक्र के साथ स्थापित किया गया है।
तमिल लोग "पुट्टू वतुत्काका!" अर्थात नया साल मुबारक हो" कहकर एक-दूसरे को बधाई देते हैं ।
दक्षिणी तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में, त्योहार को चित्तारीय विशु कहा जाता है।
केरल में नव वर्षारम्भ का यह त्योहार 'विशु' कहलाता है।

तमिलनाडु और श्रीलंका दोनों जगहों में इस दिन सार्वजनिक अवकाश होता है। इसी दिन असम, पश्चिम बंगाल, केरल, मणिपुर, त्रिपुरा, बिहार, ओडिशा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पूर्वोत्तर भारत की दाई, ताई दाम जनजातियाँ और साथ ही नेपाल में सनातन धर्मियों द्वारा पारंपरिक नए साल के रूप में मनाया जाता है। 
दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशियाई देश श्रीलंका के सिंहली समुदाय और तमिल समुदाय, मारीशस में तमिल जन, बांग्लादेश के सनातन धर्मी, म्यांमार, कम्बोडिया, लाओस, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर रीयुनियन, के कई बौद्ध समुदाय इस दिन को अपने नए साल के रूप में उसी दिन भी मनाता हैं।
और 

निरयन मीन राशि के सूर्य में पड़ने वाली अमावस्या की समाप्ति के समय से और व्यवहार में दुसरे दिन सूर्योदय व्यापी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नव संवत्सर प्रारम्भ किया जाने वाला निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्रमासों वाला संवत्सर शक संवत १९४५ का प्रारम्भ होगा।
 उत्तर भारत मे राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, गुजरात के जिन भागों कुषाण वंश के कनिष्क का शासन रहा और दक्षिण भारत में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गोआ, कर्नाटक, तेलङ्गाना और आन्ध्र प्रदेश के जिन भागों में सातवाहन वंश के गोतमीपुत्र सातकर्णी का शासन रहा उन क्षेत्रों में निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्रमासों और तिथियों वाला संवत्सर प्रचलित है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गोआ, कर्नाटक, तेलङ्गाना और आन्ध्र प्रदेश में सनातनधर्मियों का नव संवत्सर गुड़ी पड़वा, युगादि आदि नामों से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रारम्भ होता है। जबकि, गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से नव संवत्सर प्रारम्भ होता है।

यह निरयन मीन राशि के सूर्य में पड़ने वाली अमावस्या की समाप्ति के समय से और व्यवहार में दुसरे दिन सूर्योदय व्यापी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नव संवत्सर प्रारम्भ किया जाता है। गुजरात में कन्या राशि के सूर्य में होनें वाली अमावस्या के दुसरे दिन सूर्योदय व्यापी कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से नव संवत्सर प्रारम्भ किया जाता है।

वर्तमान में व्हाट्सएप युनिवर्सिटी के पण्डितजन इसे हिन्दू नववर्ष कहते हैं। जबकि भारतवर्ष में, सनातन वैदिक धर्म को ब्राह्मधर्म, ब्राह्मण धर्म, आर्ष धर्म और वर्णाश्रम धर्म कहा जाता है। और प्राचीन ईरान में पारसी धर्म अपनाने के बाद सिन्धु नदी के पूर्व में बसने वाले गेहुँआ रङ्ग और काले रङ्ग के भारतियों को घ्रणा पूर्वक हिन्दू कहा जाता था। और भारत को हिन्दूस्तान कहा जाता था। वही परम्परा ईरान, इराक, तुर्किस्तान और अफगानिस्तान के आक्रांताओं नें भी अपनाई और भारतीयों को हिन्दू तथा भारतवर्ष को हिन्दूस्तान कहा।

बुधवार, 8 मार्च 2023

परमात्मा द्वारा प्रदत्त ज्ञान वेद है। सनातन वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड और निर्णय में वैदिक ग्रन्थ ही प्रमाण है।

परमात्मा से विश्वात्मा ॐ शब्द प्रकट हुआ।
परमात्मा के ॐ शब्द से प्रज्ञात्मा परब्रह्म हुए। जिन्हें परम दिव्य पुरुष विष्णु और पराप्रकृति माया के रूप में जाना जाता है।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म से प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म (विधाता) प्रकट हुआ। प्रत्यगात्मा ब्रह्म (विधाता) को पुरुष - प्रकृति या सवितृ -सावित्री के रूप में जाना जाता है। इन्हें ही श्री हरि और कमलासना के रूप में दर्शाया जाता है।
प्रत्यगात्मा ब्रह्म (विधाता) से जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) हुआ। जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) को अपर पुरुष नारायण और त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति श्री और लक्ष्मी के रूप जाना जाता है।
जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) से भुतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (विश्वकर्मा) हुआ। भुतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (विश्वकर्मा) को प्राण - धारयित्व / चेतना - धृति / देही - अवस्था के स्वरूप में और त्वष्टा - रचना के आधिदैविक स्वरूप में जाना जाता है।
ऋग्वेद के अनुसार ब्रह्माण्ड के गोलों को त्वष्टा नें ही बढ़ाई की भाँति घड़ा। इसलिए हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को ही मूल विश्वकर्मा कहा जाता है। इनकी आयु दो परार्ध है। इनके प्रत्येक दिन में एक प्रजापति होते है।
भुतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (विश्वकर्मा) से सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा (विश्वरूप) हुआ। सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा (विश्वरूप) को ओज- आभा के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है।  आधिदैविक दृष्टि से प्रजापति (विश्वरूप) के २२ मानस पुत्र  ---
 १ अर्धनारीश्वर महारुद्र, २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन नामक चार ब्रह्मर्षि, ६ नारद ७ दक्ष (प्रथम) - प्रसुति ८ रुचि - आकुति और ९ कर्दम - देवहुति नामक प्रजापति , १० देवेन्द्र इन्द - शचि और ११ भूपेन्द्र स्वायम्भूव मनु - शतरुपा, १२ अग्नि - स्वाहा, १३ पितरः - स्वधा, १४ धर्म, १५ मरीचि - सम्भूति, १६ भृगु - ख्याति, १७ अङ्गिरा - स्मृति, १८ वशिष्ठ - उर्जा, १९ अत्रि - अनसुया, २० कृतु - सन्तति २१ पुलह - क्षमा और २२ पुलस्य - प्रीति नामक जैविक सृष्टि के जनक हुए।
सुत्रात्मा प्रजापति (विश्वरूप) से अणुरात्मा ब्रहस्पति (खम्) हुए। अणुरात्मा ब्रहस्पति (खं) को तेज - विद्युत के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। इनके अधिदेवता इन्द्र और शचि हुए जो प्रजापति की मानस सन्तान हैं।
अणुरात्मा ब्रहस्पति (खं) से विज्ञानात्मा (ब्रह्मणस्पति) हुआ। विज्ञानात्मा (ब्रह्मणस्पति) को विज्ञान - वृत्ति या चित्त - चेत के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है । इनके अधिदेवता  आदित्य और उनकी शक्ति हैं।
विज्ञानात्मा (ब्रह्मणस्पति) से ज्ञानात्मा (वाचस्पति) हुआ ज्ञानात्मा (वाचस्पति) को बुद्धि - बोध के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। इनके अधिदेवता वसु और (वसु शक्ति) देवी हैं।
ज्ञानात्मा (वाचस्पति) से लिङ्गात्मा (पशुपति) हुआ अर्धनारीश्वर महारुद्र ही लिङ्गात्मा के अधिदेवता हैं। लिङ्गात्मा (पशुपति - अर्धनारीश्वर) को अहंकार - अस्मिता के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। इनके अधिदेवता रुद्र- रौद्री है।
 लिङ्गात्मा (पशुपति - अर्धनारीश्वर) से मनसस्पति (गणपति) हुआ।  ये गणपति विनायक नही बल्कि शंकर जी हैं।
मनसस्पति (गणपति) को मन- संकल्प एवम् विकल्प के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। इनके अधिदेवता स्वायम्भूव मनु - शतरुपा है।
मनसस्पति (गणपति शंकर) से स्व (सदसस्पति) हुआ। स्व (सदसस्पति) की शक्ति स्वभाव (मही) है। ये शक्ति कहलाती है। स्व- स्वभाव (सदसस्पति- मही) से १ वैकारिक स्व / स्वाहा (भारती), २ तेजस स्व / वोषट (सरस्वती) और ३ भूतादिक स्व / स्वधा (इळा) हुए। ये क्रमशः आधिदैविक शक्ति, अध्यात्मिक शक्ति, और आधिभौतिक शक्ति कहलातीं हैं। मनोविज्ञान में इन्हें क्रमशः सुपर इगो, इगो और ईड कहते हैं।
इनसे क्रमशः अधिदेव (अष्टादित्य), अध्यात्म (अन्य अष्टवसु)और अधिभूत (अन्य एकादश रुद्र) हुए।
जिन्हें मनोविज्ञान में क्रमशः प्रकट/ प्रत्यक्ष/ साक्षात (कांशियस), सब कांशियस और अप्रकट/ अप्रत्यक्ष/ परोक्ष (अन कांशियस) कहते हैं। भौतिकि में क्रमशः स्काय, टाईम और स्पेस कहते हैं।
परमात्मा से उत्पन्न ॐ ही मूल वेद (ज्ञान) है। जो परब्रह्म  (विष्णु - माया) को प्राप्त हुआ। 
परब्रह्म  से यह ज्ञान (वेद) ब्रह्म (विधाता) (सवितृ - सावित्री) को प्राप्त हुआ।
ब्रह्म (विधाता) से यह वेद (ज्ञान) अपरब्रह्म (विराट) (नारायण - श्रीलक्ष्मी) को प्राप्त हुआ।
अपरब्रह्म (विराट) से हिरण्यगर्भ (विश्वकर्मा) को वेद प्राप्त हुआ।
हिरण्यगर्भ (विश्वकर्मा) से प्रजापति (विश्वरूप) को वेद प्राप्त हुआ। प्रजापति (विश्वरूप) ने ही प्रजा को वेद (ज्ञान) प्राप्त हुआ।
 *शतपथ ब्राह्मण के अनुसार प्रजापति ने अग्नि को ऋग्वेद, वायु को यजुर्वेद, आदित्य को सामवेद और अङ्गिरा को अथर्वेद का ज्ञान दिया।* 
पौराणिक काल में महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास अर्थात वेद व्यास जी अपने चार शिष्यों को अलग अलग वैदिक संहिताओं का ज्ञान प्रदान किया। 
 *वेदव्यास जी ने
 १ पैल को ऋग्वेद, २वैशम्पायन को यजुर्वेद,
३ जैमिनी को सामवेद और 
४ सुमन्तु को अथर्ववेद की शिक्षा दी।* 
५ सुत और शौनक को इतिहास और पुराण पढ़ाया। 
(सुचना - वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर ने विष्णु पुराण की रचना की थी। )


" *ब्राह्मण ग्रन्थ* 

ऋग्वेद :

ऐतरेयब्राह्मण-(शैशिरीयशाकलशाखा)

कौषीतकि-(या शांखायन) ब्राह्मण (बाष्कल शाखा)

सामवेद :

प्रौढ(पंचविंश) ब्राह्मण

षडविंश ब्राह्मण

आर्षेय ब्राह्मण

मन्त्र (या छान्दौग्य) ब्राह्मण

जैमिनीय (या तलवाकार) ब्राह्मण

यजुर्वेद

शुक्ल यजुर्वेद :

शतपथब्राह्मण-(माध्यन्दिनीय वाजसनेयि शाखा)

शतपथब्राह्मण-(काण्व वाजसनेयि शाखा)

कृष्णयजुर्वेद :

तैत्तिरीयब्राह्मण

मैत्रायणीब्राह्मण

कठब्राह्मण

कपिष्ठलब्राह्मण

अथर्ववेद :

गोपथब्राह्मण (पिप्पलाद शाखा)"

 *आरण्यक* 

1जैमिनी, 2सांख्यायन, 3छान्दोग्य, 4 एतरेय, 5 तैत्तरीय  और 6 मैत्रायणी (प्रथक है।) 

अवेस्ता - प्राचीन ईरान में मग - मीढ सम्प्रदाय और संस्कृति का धर्मग्रन्थ अवेस्ता भी अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ही था। 
जिस समय भारत में श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यास अपने शिष्यों को वैदिक शिक्षा और इतिहास पुराण की शिक्षा प्रदान कर रहे थे, उसी समय ईराक के असीरिया क्षेत्र में प्रचलित असुर (अश्शुर) पन्थ संस्कृति से प्रभावित महर्षि जुरथ्रस्त ईरान में आकर अवेस्ता की जैन्द व्याख्या कर ईरान में असूर मत पन्थ की शिक्षा दे रहे थे। जो कालान्तर में पारसी सम्प्रदाय कहलाया।
महर्षि जुरथ्रस्त ने अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता के मन्त्रों के साथ ही अपनी जेन्द व्याख्या इस प्रकार गड्डमड्ड कर दी कि, अब उन्हें अलग-अलग पहचाने में भाषाशास्त्री भी कठिनाई अनुभव करते हैं।
फिर भी अत्यल्प प्रयास के बावजूद भी आंशिक सफलता उक्त कथन की प्रामाणिकता सिद्ध करती है।
अपने मत की पुष्टि हेतु महर्षि जुरथ्रस्त ने गाथाओं में भी आंशिक परिवर्तन कर दिया। और कुछ नई गाथाएँ जोड़ दी।
इसकी जानकारी मिलने पर वेदव्यास जी ने ईरान जा कर महर्षि जुरथ्रस्त से शास्त्रार्थ किया। जिसका एक पक्षीय वर्णन अवेस्ता में उपलब्ध है। श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यास अत्यन्त काले थे, इसी लिए उनका नाम कृष्ण अर्थात काला रखा गया था। जुरथ्रस्त ने भी अवेस्ता में प्राचीन ईरानी भाषा में उन्हें हिन्दू अर्थात काला कहा है। और गेहुँआ रङ्ग के भारतीय निवासियों के सिन्धु नदी के पूर्व क्षेत्र को हिन्दूस्तान कहा है।
यही कार्य पुष्यमित्र शुङ्ग की सफलता से जले भुने बौद्ध और जैन आचार्यों ने भी किया।
पुष्यमित्र शुङ्ग के बाद और धार के राजा भोज के समय तक विशेषकर उत्तर भारत में कुषाण वंश और दक्षिण भारत में सातवाहन वंश के शासनकाल में बौद्ध आचार्यों ने तत्कालीन सनातन धर्म में सम्मिलित होने का ढोंग कर पुराणों के नाम पर अनेक बौद्ध जैन अवधारणा जोड़ दी गई। वशिष्ट, विश्वामित्र, पाराशर आदि ऋषि- मुनियों और इन्द्र, वायु आदि देवताओं को अत्यन्त कामुक, क्रोधी और लोभी सिद्ध करनें वाली कथाएँ जोड़ दी। जिन वेदव्यास जी के नाम पर पुराण रचे उनके पिता महर्षि पराशर और स्वयम् वेदव्यास जी को भी लाञ्छित करने में नही चुके। श्री राम पर मान्स मदिरा का प्रचूर सेवन करना, बाली का छल पुर्वक वध, सीता की अग्निपरीक्षा, गर्भवती सीता का छल पुर्वक परित्याग, शुद्र तपस्वी शम्बुक का वध जैसे आरोप लगाये। श्री कृष्ण का चरित्र तो अत्यन्त घृणित, चोर, छलिया, ब्रहम्म वैवर्त पुराण में तो ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही श्रीकृष्ण को अत्यन्त कामी, कुब्जा के सङ्ग भोग करने जैसे घृणित आरोप लगाये। 
असुर,दैत्य, दानव, राक्षस अत्यन्त नैतिक, बलवान, दानी, धर्मी बतलाया। सभी असुर इन्द्र को विजित कर लेने वाले और स्वर्ग विजेता बतलाया।  केवल ऋषभदेव, बाहुबली, और गोतम बुद्ध को अत्यन्त सच्चरित्र बतलाया। अवतार वाद का सनातनधर्मी सिद्धान्त था कि, जीवन मुक्त सिद्ध महात्माओं जगत हित में महर्लोक आदि से भूलोक में जन्म लेकर निर्धारित लक्षित कार्य पूर्ण करने के लिए अवतरित होते हैं;  इस सिद्धान्त के स्थान पर जातक कथाओं के समान अवतारवाद घुसाया। जिसमे ईश्वरीय देव पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।
महाभारत शान्ति पर्व/ मोक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२- ३३३में अध्याय ३३३ का श्लोक २६ - २७ में लिखा है कि, 
"इस प्रकार अपना प्रभाव दिखाकर शुकदेव जी अन्तर्धान हो गये और शब्द आदि गुणों का परित्याग करके परमपद को प्राप्त हुए।"
वेदव्यास जी पुत्र शोक में बहुत रोये। 
(शरशय्या पर लेटे धर्मोपदेश करते हुए पितामह भीष्म युधिष्ठिर को कहते हैं, बहुत समय व्यतीत हो गया, वेदव्यास जी के पुत्र शुकदेव जी ब्रह्मलोक चले गये।) अर्थात महाभारत युद्ध के बहुत पहले शुकदेव जी देह त्याग चुके थे। उस समय अभिमन्यु पुत्र परीक्षित उत्तरा के गर्भ में ही थे। कृपया गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित (महाभारत पञ्चम खण्ड में) महाभारत शान्ति पर्व/ मोक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२- ३३३में अध्याय ३३३ पढ़ें।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार वे ही शुकदेव जी परीक्षित की मृत्यु के पूर्व उन परीक्षित को भागवत पुराण सुनाते हैं। जिससे परीक्षित मृत्यु पूर्व ही जीवन मुक्त हो पाते हैं। यह कैसे सम्भव है?
शिवपुराण वेदों और अन्य सभी पुराणों से एकदम उलट मत प्रस्तुत करता है। 
वैदिक साहित्य महाभारत और वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर की रचना विष्णु पुराण के अनुसार अर्धनारीश्वर महारुद्र की उत्पत्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के रोष (क्रोध) से हुई। उनने स्वयम् को  रुद्र और  रौद्री (शंकर-उमा) में विभाजित किया। उनसे उनके सहित ग्यारह रुद्र और ग्यारह रौद्रियाँ हुई।
जबकि, शिव पुराण के अनुसार  शंकर जी से ही सबकुछ उत्पन्न हुआ। सभी देवों की उत्पत्ति भी शंकर जी से हुई।
लेकिन विचित्रता यह कि, शंकरजी की पत्नी की कई बार मृत्यु होकर पुनर्जन्म लेती है। मतलब वे एक मन्वन्तर तक जीवित रहने वाले देवताओं में भी सम्मिलित नही है।
बतलाया गया है कि, दक्ष यज्ञ में सती आत्मदाह कर लेती है। और शंकरजी सती की मृत देह लेकर विक्षिप्त की भाँति भटकते रहे। विष्णु जी ने सती की देह के इक्कावन टुकड़े कर दिए। जहाँ जहाँ टुकड़े गिरे वहाँ शक्ति पीठ बन गये।
जबकि महाभारत/ शान्तिपर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक में लिखा है कि, दक्षयज्ञ में गई पार्वती (न कि, सती) शंकरजी के साथ कैलाश पर सकुशल प्रसन्नता पूर्वक लौट आती है। न सती ने आत्मदाह किया, न पुनर्जन्म हुआ, न लाश के इक्कावन टुकड़े हुए, न शक्ति पीठ बने।
वैदों में कहीँ भी ब्रह्मा विष्णु महेश वाला त्रिदेव फार्मुला नही है। यह शंकराचार्य जी द्वारा पञ्चदेवोपासना का उपदेश देने के बाद त्रिदेव फार्मुला घोषित किया गया।

*उपनिषद* 

इन्ही ब्राह्मण आरण्यकों का अन्तिम भाग वेदान्त या ब्रह्मविद्या, ब्रह्मसूत्र, और उपनिषद कहलाते हैं। तेरह उपनिषद मुख्य हैं। 
ऐतरेय आरण्यक के चौथे, पाँचवे और छटे अध्याय अर्थात  ऐतरेयोपनिषद और कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् कहलाते हैं।

शुक्ल यजुर्वेद संहिता माध्यन्दिन शाखा का चालिसवाँ अध्याय ईशावास्योपनिषद है। यह शुक्ल यजुर्वेद की कण्व शाखा में भी थोड़े से अन्तर से उपलब्ध है।

 शुक्ल यजुर्वेद के काण्वी शाखा के वाजसनेयी ब्राह्मण के अन्तसुत और शौनकर्गत आरण्यक भाग के वृहदाकार होनें के कारण  वृहदारण्यकोपनिषद नाम से प्रसिद्ध है।

कृष्णयजुर्वेदीय श्वेताश्वतरोपनिषद तथा कृष्णयजुर्वेदीय कठ शाखा का कठोपनिषद तैत्तरीय शाखा के तैत्तरीय आरण्यक के दस अध्यायों में से सातवें, आठवें और नौवें अध्याय अर्थात तैत्तरीयोपनिषद कहलाता है।

सामवेद के तलवाकार ब्राह्मण के तलवाकार उपनिषद जिसे जेमिनीयोपनिषद भी कहते हैं इसके प्रथम मन्त्र के प्रथम शब्द  केनेषितम् शब्द के कारण केनोपनिषद नाम से प्रसिद्ध है तथा सामवेद के तलवाकार शाखा के छान्दोग्य ब्राह्मण के दस अध्याय में से तीसरे अध्याय से दसवें अध्याय तक को छान्दोग्योपनिषद कहते हैं।

अथर्वेदीय पिप्पलाद शास्त्रीय ब्राह्मण के  प्रश्नोपनिषद एवम् अथर्ववेद की शौनक शाखा के  मुण्डकोपनिषद और  माण्डूक्योपनिषद्

तथा मैत्रायणी आरण्यक का अन्तिम अध्याय  मैत्रायणी उपनिषद है।

1ईश,2 केन 3 कठ, 4 मण्डुक, 5 माण्डूक्य, 6 एतरेय, 7 तैत्तरीय, 8 प्रश्न, 9 श्वेताश्वतर, 10 वृहदारण्यक, 11 छान्दोग्य, उक्त ग्यारह उपनिषदों पर भगवान शंकराचार्य जी ने भाष्य लिखे हैं अतः ये विशेष माने जाते हैं। इनके अलावा दो और वेदिक उपनिषद हैं; 12 कौषीतकि, 13 मैत्रायणी उपनिषद।
ब्राह्मण ग्रन्थों के मन्त्रों में दिखने वाली मतभिन्नता पर मीमांसा और संक्षिप्त व्याख्या जैमिनी ने पूर्व मीमांसा और उपनिषदों के मन्त्रों में दिखने वाली मतभिन्नता पर मीमांसा और संक्षिप्त व्याख्या कर  बादरायण ने उत्तर मीमान्सा दर्शन तैयार किया।
उपवेद भी चार हैं-
 *चार उपवेद -* 
 *१ आयुर्वेद* - ऋग्वेद से (परन्तु सुश्रुत इसे अथर्ववेद से व्युत्पन्न मानते हैं);
 *२ धनुर्वेद* - यजुर्वेद से ;कुछ लोग अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं।
 *३ गन्धर्ववेद* - सामवेद से, तथा
 *४ शिल्पवेद* / *स्थापत्य वेद -* अथर्ववेद से ।
वेदों की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थ में है।  जिसमें यज्ञ विध, संस्कार विधि, देश चयन (वास्तु ),काल चयन (ज्योतिष ),पात्र चयन (अधिकारी /अनधिकारी चयन ), मण्डप, बेदी विधि,  (यज्ञ कुण्ड ) निर्माण विधि, धर्माधर्म निर्णय सब कुछ विस्तार से बतलाया  और  समझाया है।

 *बुद्धियोग/ कर्मयोग शास्त्र* -  किसी भी कर्म को किस आशय और उद्दैश्य से कैसे किया जाय ताकि, कर्म का लेप न हो इसकी विधि कर्मयोग शास्त्र, बुद्धियोग है।(वर्तमान में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता है);

फिर ब्राह्मण ग्रन्थों की विषयवार क्रियात्मक  व्याख्या / प्रेक्टिकल  बुक सुत्र ग्रन्थों का वर्णन वेदाङ्ग वर्णन में  कल्प के अन्तर्गत किया है।

 *उपवेद* - चारों वेदों के उपवेद हैं-

ऋग्वेद - स्थापत्य वेद/ शिल्पवेद - हारीत संहिता

 *स्थापत्य वेद* - आर्किटेक्चर का ज्ञान - विज्ञान है। यह शुल्ब सुत्रों का सहयोगी शास्त्र है। इस से लगभग हर व्यक्ति परिचित है क्योंकि भवन निर्माण, रेल पथ, सड़क, हवाई अड्डे, बन्दरगाह, सेतु, पुल पुलिया आदि का निर्माण हमारे समक्ष होता रहता है। इसी का ज्ञान शिल्पवेद है।

यजुर्वेद - धनुर्वेद - भेल संहिता

 *धनुर्वेद* - क्षत्रियोचित देहयष्टि तैयार कर अस्त्र- शस्त्र ,आग्नेयास्त्र, राकेट आदि का निर्माण कर उनका सफल संचालन, निवारण ,सुरक्षा और संरक्षण करने का सैन्य शास्त्र है। वैमानिकी शास्त्र, रथ, भूमि वाहन,सेतु निर्माण, दुर्ग रंरचना, निर्माण, व्यवस्थापन और संरक्षण, जहाज, नौकायन , विशाल यान्त्रिकी का ज्ञान, विज्ञान  हैं।

सामवेद -  गन्धर्ववेद -  कश्यप संहिता।

 *गन्धर्व वेद* - संगीत, गायन , वादन, वाद्य यंत्र निर्माण, अनुरक्षण, संधारण,  नाट्य, नृत्य, अभिनय, मंच निर्माण, सुत्रधार कर्म आदि का ज्ञान विज्ञान।

अथर्वेद-  आयुर्वेद- चरक संहिता- सुश्रुत संहिता- वाग्भट्ट संहिता, भावप्रकाश संहिता, शार्ङधर संहिता, माधव निदान संहिता।

 *आयुर्वेद* - स्वस्थ्य तन- मन पुर्वक जीवन जीने की कला और अस्वस्थ्य होने पर उपचार विधि, चिकित्सा शास्त्र।
वर्तमान में औशध शास्त्र में चरक संहिता और शल्य चिकित्सा हेतु सुश्रुत संहिता ही उपलब्ध है।
गवायुर्वेद, श्वायुर्वेद, हस्ति आयुर्वेद आदि भी इसी के भाग हैं।

 *वेदाङ्ग* - वेदांग छः हैं। १ कल्प, २ ज्योतिष,   ३ निरुक्त, ४ शिक्षा, ५ व्याकरण  और ६ छन्द

 *कल्प* के अन्तर्गत १श्रोत सुत्र, २ गृह्य सुत्र, ३शुल्ब सुत्र और ४ धर्म सुत्र आते हैं।
सुत्र ग्रन्थ -
 *श्रोत सुत्रों* - में बड़े यज्ञों की विधि है;
 *ग्रह्य सुत्रों* - में संस्कार विधि, उत्सव (त्योहार) और पर्व  मनाने की विधि, जन्म दिन आदि मनाने की विधि है;
 *शुल्बसुत्रों* - में यज्ञ और क्रियाओं/ कर्मकाण्ड के लिये / संस्कारों के लिये ज्योतिष गणना (सिद्धान्त ज्योतिष) और उचित समय निर्धारण (मुहूर्त), उचित स्थान चयन मण्डप और यज्ञ वेदी बनाने की विधि (वास्तुशास्त्र) का ज्ञान प्रदान किया गया है। इसके साथ ही मण्डप, मण्डल और यज्ञवेदी निर्माण विधि बतलाई गई है।
धर्म सुत्र - उचित, अनुचित पात्र, उचित अनुचित कर्म निर्णय, कर्त्तव्याकर्त्तव्य निर्णय अर्थात कार्य अकार्य निर्णय, कर्त्तव्यों की अवहेलना या अकार्य कर्म होने के प्रायश्चित विधि आदि सब धर्म व्याख्या है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि इनके ही पुरक सहायक ग्रन्थ है।

 *ज्योतिष* - त्रीस्कन्ध ज्योतिष के अन्तर्गत 1 सिद्धान्त ज्योतिष गणिताध्याय (ग्रह गणित), एवम् 2 सिद्धान्त ज्योतिष गोलाध्याय (खगोल) 3 संहिता ज्योतिष (नारद संहिता, गर्ग संहिता, रावण संहिता, वराह संहिता,और भद्रबाहु संहिता), मेदिनी ज्योतिष यानी राष्ट्रीय भविष्य ज्ञान, मुहुर्त, वास्तु, सामुहिक शास्त्र, शकुन शास्त्र, अंकविद्या आदि अनेक विभिन्न विषयों के सम्मिलित ज्ञान को संहिता कहते हैं।  तथा 4 होराशास्त्र - जातक शास्त्र अर्थात फलित ज्योतिष को  ( जिसमें  ताजिक अर्थात वर्षफल और प्रश्न ज्योतिष सम्मिलित है।) और 

 *निरुक्त* - भाषा शास्त्र इसी का भाग है। वर्तमान में यास्क का निरुक्त और पाणिनि की अष्टाध्यायी एवम् अमरकोश ग्रन्थ उपलब्ध है।
शब्द व्युत्पत्ति इसका मुख्य विषय है। वेदिक ग्रन्थों को समझने के लिये निरुक्त और मीमांसा का ज्ञान अत्यावश्यक है।
वर्तमान में यास्काचार्य का *निरुक्त* उपलब्ध है।

 *प्रतिशाख्य* - शिक्षा - उच्चारण करने की विधि ---

ऋग्वेद एवम् सामवेद - पुष्पसुत्र ।

शुक्ल यजुर्वेद कृष्ण यजुर्वेद - तैत्तरीय संहिता।
सांख्य दर्शन - ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिकाएँ और महर्षि कपिल ऋषि कृत सांख्य सुत्र या सांख्य दर्शन उपलब्ध है।
 *अष्टाङ्ग योग* धनुर्वेद और आयुर्वेद के लिये बहुत बड़ा सहयोगी ग्रन्थ है। वर्तमान में पतञ्जलि का योग दर्शन और उसपर व्यास भाष्य और उसपर भी व्यास वृत्ति सहित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित उपलब्ध है।

 *वैशेषिक दर्शन* में भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान की दृष्टि से सृष्टि उत्पत्ति वर्णन है  यह सांख्य शास्त्र का सहयोगी है।वर्तमान में कणाद का वैशेषिक दर्शन उपलब्ध है।

 *न्याय दर्शन* - में तार्किक दृष्टिकोण से गहन और विषद तर्कों के माध्यम से सृष्टि उत्पत्ति समझाई गई है।
इसका सर्वाधिक उपयोग मिमांसा दर्शनों में हुआ है।फिर भी इसे वैशेषिक दर्शन का सहयोगी दर्शन माना जाता है।

 *दर्शन* - सभी दर्शनों का उद्देश्य परमात्मा से आज तक की जैविक और भौतिक सृष्टि तक विकास/ पतन चक्र के आधार पर परमात्मा - जीव और जगत के पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या करना है। जगजीवन राम ( जगत- जीवन - ब्रह्म / ईश्वर) का ज्ञान ही दर्शन है।

 *स्मृतियाँ* 

1 अङ्गिरा,2 व्यास,3 आपस्थम्ब, 4 दक्ष, 5 विष्णु, 6 याज्ञवल्क्य, 7 लिखित, 8 संवत, 9 शंख, 10 ब्रहस्पति,11 अत्रि, 12 कात्यायन, 13 पाराशर, 14 मनु, 15औशनस, 16 हारीत, 17गोतम,18 यम।

 *उपस्मृतियाँ* 

1 कश्यप, 2पुलस्य, 3 नारद,  4 विश्वामित्र,  5 देवल,  6  मार्कण्डेय,  7 ऋष्यशङ्ग 8 आश्वलायन,   9 नारायण,  10 भारद्वाज,  11  लोहित,   12 व्याग्रपद,   13 दालभ्य,   14 प्रजापति,  15 शाकातप, 16 वधुला, 17 गोभिल, "

सनातन वैदिक धर्म के विषय में किसी भी निर्णय के लिए उक्त शास्त्रों/ ग्रन्थों का ज्ञान होना आवश्यक है।
केवल उक्त शास्त्रों के आधार पर दिया गया निर्णय ही अन्तिम और मान्य होता है।
 उक्त शास्त्रों के ज्ञाता द्वारा सम्पादित किया गया वैदिक कर्मकाण्ड/ क्रियाओं का क्रियान्वयन भी फलीभूत होता है। अन्यथा हम वर्तमान आचार्यों पुरोहितों के कर्मकाण्ड की क्रियाओं के परिणाम कैसे फलीभूत होते हैं सब जानते हैं।
अतः "एस्ट्रोनॉमी, एस्ट्रोफिजिक्स, ब्रह्माण्ड विज्ञान, मौसम विज्ञान, जीव विज्ञान, नृतत्वशास्त्र - समाजशास्त्र और मनो विश्लेषण और भाषाशास्त्र के जानकार वैदिक विद्वानों की महासभा आयोजित कर सर्वसम्मत निर्णय लिये जाकर वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों,शुल्बसुत्रों, श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, धर्मसुत्रों और पूर्व मीमांसा - उत्तर मीमांसा ग्रन्थों को आधार बनाकर वैदिक विद्वानों द्वारा एकमत हो वैदिक कर्मकाण्ड की क्रियाओं और धर्मशास्त्र पर सर्वसम्मत निबन्ध ग्रन्थ रचना आवश्यक है।
 जैसे कि, वर्तमान में प्रचलित पौराणिक आधार पर हेमाद्रि पन्त ने चतुर्वर्ग चिन्तामणी, सायणाचार्य के भाई माधवाचार्य ने काल माधव, कमलाकर भट्ट ने निर्णय सिन्धु ग्रन्थ रचा और काशीनाथ उपाध्याय नें निर्णयसिन्धु के निर्णयों के आधार पर धर्मसिन्धु जैसे सर्वस्वीकृत ग्रन्थ रचे थे ; उसी प्रकार, वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों,शुल्बसुत्रों, श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, धर्मसुत्रों और पूर्व मीमांसा - उत्तर मीमांसा ग्रन्थों को आधार बनाकर वैदिक विद्वानों द्वारा एकमत हो धर्मशास्त्र पर और वैदिक कर्मकाण्ड की क्रियाओं के लिए सर्वसम्मत निबन्ध ग्रन्थ रचा जाए।"

सोमवार, 6 मार्च 2023

वैदिक ग्रन्थों के आधार पर धर्मशास्त्र और कर्मकाण्ड पर निबन्ध ग्रन्थ की रचना होना चाहिए।

संवत्सर आरम्भ का मुख्य आधार वैदिक काल से लेकर आज तक वसन्त सम्पात ही रहा है। ऐसे ही वैदिक काल में अयन, तोयन और माहों का आधार भी सायन सौर संक्रान्तियाँ ही थी। उत्तरी गोलार्ध/ दक्षिणी गोलार्धों में अलग अलग अक्षांशों पर सायन सौर मास के आधार पर ही ऋतुएँ निर्धारित की गई थी। 
लोकमान्य बालगङ्गाधर तिलक जी, श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित, श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट, श्री नीलेश ओक आदि कई विद्वान सिद्ध कर चुके हैं कि, ब्राह्मण ग्रन्थों के रचना काल से पौराणिक काल तक में भी वसन्त सम्पात चैत्र वैशाखादि अलग अलग मासों में होनें के कारण संवत्सर का चैत्र वैशाख आदि मास परिवर्तित होता रहा है। यही कार्य नेपाल के धर्म शास्त्री पुनः करना चाहते हैं। शायद वे वैशाख मास से संवत्सर प्रारम्भ करना चाहते हैं।
उक्त विद्वानों नें यह भी प्रमाणित किया है कि, वैदिक काल में संवत्सर, वसन्त ऋतु, मधुमास और उत्तरायण का प्रारम्भ वसन्त सम्पात से ही माना जाता था। महाभारत के पश्चात विशेषकर पुष्यमित्र शुंग से धार नरेश राजा भोज के शासनकाल तक पौराणिक काल में वसन्त सम्पात को वसन्त ऋतु के मध्य में, और मधु मास को संवत्सर के अन्त में किया गया। और वैदिक उत्तर तोयन को उत्तरायण नाम दिया गया, और वैदिक उत्तरायण को उत्तर गोल नाम दिया गया।
इससे शुभकार्यों के मुहुर्त और विवाहादि कार्यक्रम वर्षाकाल के बजाय शीत काल में होने लगे। और वर्षाकाल को आराधना उपासना का समय घोषित कर दिया।
वर्तमान में प्रचलित पौराणिक आधार पर हेमाद्रि पन्त ने चतुर्वर्ग चिन्तामणी, सायणाचार्य के भाई माधवाचार्य ने काल माधव, कमलाकर भट्ट ने निर्णय सिन्धु ग्रन्थ रचा और काशीनाथ उपाध्याय नें निर्णयसिन्धु के निर्णयों के आधार पर धर्मसिन्धु जैसे सर्वस्वीकृत ग्रन्थ रचे वैसे ही वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों,शुल्बसुत्रों, श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, धर्मसुत्रों और पूर्व मीमांसा - उत्तर मीमांसा ग्रन्थों को आधार बनाकर वैदिक विद्वानों द्वारा एकमत हो धर्मशास्त्र पर और वैदिक कर्मकाण्ड की क्रियाओं के लिए सर्वसम्मत निबन्ध ग्रन्थ रचना आवश्यक है। 
ताकि,
मुहूर्त,भद्रा, साढ़ेसाती, ढय्या, गुण मिलान, मांगलिक विचार, मुहुर्त शास्त्र में हुई असामान्य गड़बड़ियों, कालसर्प योग के नाम पर डराकर ठगी रोकी जा सके। और छोटे प्लाट में आर्किटेक्चर पॉइंट्स की तुलना में वास्तु के शुभाशुभ को वरीयता देना जैसे परवर्ती भय कारक सभी विषयों पर रोक लगाने के लिए  एस्ट्रोनॉमी, एस्ट्रोफिजिक्स, ब्रह्माण्ड विज्ञान, मौसम विज्ञान, जीव विज्ञान, नृतत्वशास्त्र - समाजशास्त्र और मनो विश्लेषण के जानकार वैदिक विद्वानों की महासभा आयोजित कर निर्णय किया जाना आवश्यक है।
उक्त कार्य में मत, पन्थ और सम्प्रदायों और उनमें भी उप सम्प्रदाय के आचार्यों से कोई आशा रखना व्यर्थ है क्योंकि, वे तो, परस्पर विवादों में ही इतने उलझे हुए हैं कि, उनका एकमत होना दिवास्वप्न देखने जैसा है।

रविवार, 5 मार्च 2023

होली पर्व, उत्सव और त्योहार का अर्थ एवम् महत्व।

*वैदिक पर्व, उत्सव और त्योहारों का आधार भी वैदिक काल गणना ही हो।* 

 *वैदिक ज्योतिष पत्रक/ केलेण्डर और वर्तमान पञ्चाङ्ग में अन्तर* 

*वैदिक काल में तिथियों के नाम पर केवल अर्धचन्द्र अर्थात अष्टका एकाष्टका (अष्टमी तिथि का मध्य भाग), पूर्णचन्द्र अर्थात पूर्णिमा (सूर्य से चन्द्रमा १८०° पर) और चन्द्रमा का अदर्शन/ लोप अर्थात अमावस्या (सूर्य और चन्द्रमा की युति/ सूर्य और चन्द्रमा में अन्तर ०००° का।) बस इनका ही उल्लेख आता है।* 
अर्थात वर्तमान में प्रचलित सूर्य और चन्द्रमा में प्रत्येक १२° अन्तर के आधार पर बनी तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। ऐसे ही
 *स्थिर ताराओं के समुह से बनी आकृति वाले असमान भोग वाले अट्ठाइस नक्षत्र प्रचलित थे।*
अर्थात अलग अलग नक्षत्रों के अंश कला विकला असमान थे। चित्रा नक्षत्र का भोग केवल ००°२३'३१" ही था, स्वाती नक्षत्र का भोग २०°५०'५७" था, जबकि धनिष्ठा नक्षत्र का भोग २५°१४'०८" था; ऐसे ही सभी नक्षत्रों के भोगांश अलग अलग थे न कि, वर्तमान में प्रचलित १३°२०'।*

 *अलग अलग कार्यों के लिए तीन प्रकार से दिनांक की गणना प्रचलित थी।

(१) समस्त प्रयोजनार्थ आधारभूत ज्योतिष पत्रक में ३६५. २४२१९ दिन का सायन सौर वर्ष , सायन संक्रान्तियों पर आधारित मास और सायन संक्रान्ति से गत दिवस (गते)। तथा
(२) धार्मिक प्रयोजनार्थ सायन सौर संक्रान्तियों से प्रारम्भ होनें वाले सायन सौर मास और चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर मिति/ तिथि या दिनांक धार्मिक प्रयोजन में प्रचलित थे।
इनके साथ ही -
सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित उत्तरायण/ दक्षिणायन और उत्तर तोयन/ दक्षिण तोयन। तथा सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित ऋतुएँ प्रचलित थी। जिनका विवरण आगे प्रस्तुत दिया जा रहा है।
(३) व्यवसाय/ व्यवहार में ३६० दिन का सावन वर्ष, ३० दिन का सावन माह और तीस मुहुर्त (साठ घटिका) का सावन दिन और दशाह के दस वासर (वार)। जो वेतन/ मजदूरी देनें में उपयोग किये जाते थे।

१ अयन -
१ (क) जब सूर्य भूमि के उत्तरी गोलार्ध में गतिशील दिखे तब उत्तरायण पौराणिक काल से इसे उत्तर गोल कहा जाने लगा है एवम् 
१ (ख) जब सूर्य भूमि के दक्षिणी गोलार्ध में गतिशील दिखे तब दक्षिणायन। पौराणिक काल से इसे दक्षिण गोल कहा जाने लगा है।
२ तोयन - 
२(क) जब सूर्य मकर रेखा से कर्क रेखा की ओर जाते दिखे अर्थात दक्षिण से उत्तर दिशा में गतिशील दिखे तब उत्तर तोयन। पौराणिक काल से इसे उत्तरायण कहा जाने लगा है।एवम्  
२(ख) जब सूर्य कर्क रेखा से मकर रेखा की ओर जाते दिखे तब दक्षिण तोयन अर्थात उत्तर से दक्षिण दिशा में गतिशील दिखे तब दक्षिण तोयन। पौराणिक काल से इसे दक्षिणायन कहा जाने लगा है।

३ ऋतुएँ - 
सायन संक्रान्तियों पर आधारित ऋतुएँ। जो दो सायन सौर मास के बराबर होती थी। लेकिन अलग अलग गोलार्धों मे अलग अलग ऋतुएँ होती है साथ ही अलग-अलग अक्षांशों पर भी अलग-अलग ऋतुएँ होती है।

४ मास
सायन सौर संक्रान्तियों से प्रारम्भ होनें वाले सायन सौर मास।
 और 
५ दिनांक/ मिति/ तिथि - 
चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर मिति/ तिथि या दिनांक धार्मिक प्रयोजन में प्रचलित थे।

वैदिक काल में न राशियाँ प्रचलित थी न सूर्य और चन्द्रमा के १२° अन्तर के आधार पर बनी तिथियाँ प्रचलित थी। न अर्ध तिथिमान वाले करण प्रचलित थे। तो भद्रा के विचार का प्रश्न ही उपस्थित नही होता था।

न ही चन्द्रमा के १३°२०' अन्तर वाले २७ नक्षत्र प्रचलित थे। न सत्ताईस योग प्रचलित थे‌।

वर्तमान में तिथि, वार, नक्षत्र, योग करण वाली पञ्चाङ्ग का आधार ३६५.२५६३६३ दिन वाला नाक्षत्रीय/ निरयन सौर वर्ष और नक्षत्र मण्डल के ३०° वाले १२ विभाग जिसे राशि कहा जाता है के आधार वाले निरयन सौर मास तथा सूर्य से चन्द्रमा के प्रत्येक १२° अन्तर वाली तिथियों, और सूर्य से चन्द्रमा के प्रत्येक ०६° अन्तर वाले करण, एवम् भचक्र के प्रत्येक १३°२०' पर अलग अलग सत्ताईस नक्षत्र पर आधारित ज्योतिष पत्रक है।

सूर्य और और चन्द्रमा के निरयन भोगांशो के योग को सत्ताईस से भाग देकर योग ज्ञात किया जाता है। जिसका कोई वैज्ञानिक आधार कोई नही जानता। जबकि सूर्य और चन्द्रमा के सायन भोगों का योग १८०° होनें पर व्यतिपात और सूर्य और चन्द्रमा के सायन भोगों का योग ३६०° होनें पर वैधृतिपात पूर्णतः वैज्ञानिक पात हैं।

होली/ होलिका दहन ---

पौराणिक काल से वर्तमान काल तक भी वसन्त ऋतु के आरम्भ में प्रदोष व्यापिनी फाल्गुन पूर्णिमा होली का पर्व दिवस माना जाता है। और प्रदोषकाल होली का पर्वकाल माना जाता है। जिसमे होलिका दहन होना चाहिए।
धार्मिक दृष्टि से सभी पुर्णिमा और अमावस्याओं में प्रदोषकाल और महानिशिथ काल का ही महत्व होने से प्रदोषकाल व्यापी और महानिशिथ काल व्यापी पूर्णिमा और अमावस्या ग्रहण की जाती है।

लेकिन मुहुर्त वादी ज्योतिषियों ने व्रत पर्वों में भी मुहुर्त का प्रवेश करा दिया।
पौराणिक काल में वराह मिहिर की वराह संहिता के प्रभाव से मुहुर्त का महत्व अत्यधिक बढ़ गया। हर कार्य का मुहुर्त देखा जाने लगा। तब से भद्रा,भद्रा मुख, और भद्रा पुच्छ का विचार किया जाने लगा।
अन्यथा वैदिक दृष्टि से न श्रावणी कर्म में न ही होलिका दहन में किसी भी धार्मिक पर्व में भद्रा का कोई विचार नही किया जाना चाहिए। 

*होली पर्व का अर्थ एवम महत्व।* 
 *होलाका नव सस्येष्टि का वैदिक पर्व है। जिसमे वसन्त ऋतु में होनें वाली कृषि उपज का हवन किया जाता है। इसे ही वर्तमान में होली का पर्व कहते हैं। पञ्जाब में आज भी होला ही कहते हैं।* 
हरे चने (छोड़) को घाँस में सेंक कर होला खाने की परम्परा आज भी विद्यमान है। ऐसे ही हरे गेहूँ की बाली (उम्बी) सेंक कर भी खाई जाती है। हरी मटर भी सेंक कर खाई जाती है। यही होला इस पर्व के नामकरण का आधार है।
गेहूँ की बाली, चना (छोड़), मटर की फली सेकने पर उसकी छिलका जल जाता है और पका हुआ बीज खाया जाता है। छिलके से उत्पत्ति नही होनें के कारण माता तो नही कहा जा सकता लेकिन छिलके द्वारा बीज को गर्भ में धारण करने के आधार पर छिलके को बीज की माता के समान माना जाता है। माता की बहन मौसी (मासी) कही जाती है और पिता की बहन भुआ को भी माँ के समान ही माना जाता है। 
विष्णु के अर्पण कर्म को यज्ञ कहा जाता है। यज्ञ में विष्णु को आहुति दी जाती है। इष्टि में भी विष्णु को आहुति दी जाती है। अर्थात नव सस्येष्टि में नवान्न विष्णु अर्पण किया जाता है।
इसी प्रक्रिया को रूपकात्मक वर्णन करते हुए कहा गया कि,(बीज/दाना अर्थात) विष्णु भक्त प्रह्लाद को गोद में लेकर उसकी भूआ होलिका (छिलका) अग्नि में प्रवेश कर गई। होलिका (छिलका) तो जल गया, लेकिन प्रह्लाद तप कर और निखर गया।
यही होला या होली या होला मोहल्ला पर्व, उत्सव और त्योहार का कारण और आधार है।

गुरुवार, 2 मार्च 2023

सायन राशियों और सायन सौर संक्रान्ति आधारित चान्द्रमासों के नवीन नामकरण आवश्यक है।

भारत में भचक्र को अट्ठाईस नक्षत्रों में विभाजन किया गया है। ये नक्षत्र (अंश,कला, विकला) असमान भोग वाले हैं। १३°२०'के समान भोग वाले नही हैं।
इराक के बेबिलोनियाई ज्योतिषियों और उनसे प्रभावित युनान के ज्योतिषियों द्वारा भचक्र का बारह राशियों में विभाजन कर राशियों के नाम भचक्र में ताराओं के समुह से बने आकार के आधार पर राशियों का नामकरण किया गया था। सन २८५ ईस्वी में जब अयनांश शुन्य था तब तो निरयन राशियों के उक्त नाम सायन राशियों पर भी लागू हो जाते थे। लेकिन अब जबकि अयनांश २४° हो गया अर्थात लगभग पूरी एक राशि का अन्तर हो गया तो निरयन मेष राशि सायन मीन राशि हो गई, और निरयन वृष राशि सायन मेष राशि हो गई। अतः सायन राशियों का नवीन नामकरण आवश्यक हो गया है।
ऐसे ही निरयन सौर मासों से संस्कारित चान्द्रमासों के नाम भी सायन संक्रान्तियों से संस्कारित चान्द्रमासों के नाम से भिन्न होने लगे हैं। अतः सायन संक्रान्तियों से संस्कारित चान्द्रमासों के भी नवीन नामकरण आवश्यक हो गया है। 
*अर्थात सायन सौर मासों से संस्कारित चान्द्रमासों के नाम चैत्र वैशाखादि निरयन सौर संस्कारित चान्द्रमास और मधु माधवादि सायन सौर मासों के नाम से अलग नाम रखना होगा।

 १ *चैत्र मास मतलब जिस मास की पूर्णिमा के समय चन्द्रमा चित्रा तारे के आसपास रहे। स्वाभाविक है उस समय सूर्य निरयन मेषादि बिन्दु के आसपास ही रहेगा।

१ (क) --- ईसापूर्व १२६०५ वर्ष में जब अयनांश १८०° रहा होगा तब चैत्र पूर्णिमा को चन्द्रमा चित्रा तारे के साथ था। उस पूर्णिमा के समय सूर्य चित्रा तारे से १८०° पर अर्थात निरयन मेषादि बिन्दु पर ही था। 
*जबकि उस समय सूर्य का सायन भोग १८०° (सायन तुला ००°) था। लेकिन वैदिक ईष मास और पौराणिक ऊर्ज मास होने के आधार पर उस पूर्णिमा को कार्तिक पूर्णिमा तो नही कहा जा सकता।* 
*बल्कि वह चैत्र पूर्णिमा ही कही जाएगी। क्योंकि, पूर्णिमा के समय चन्द्रमा चित्रा के योगतारा के साथ था।* 

और ऐसे ही 
१(ख) --- आगामी वर्ष १३१७५ ईस्वी में जब अयनांश १८०° रहेगा तब भी चैत्र पूर्णिमा के समय चन्द्रमा चित्रा तारे के साथ रहेगा उस समय सूर्य चित्रा तारे से १८०° पर अर्थात निरयन मेषादि बिन्दु पर ही रहेगा। 
*जबकि सूर्य का सायन भोग १८०° (सायन तुला ००°) रहा रहेगा। लेकिन वैदिक ईष मास और पौराणिक ऊर्ज मास होने के आधार पर उस पूर्णिमा को कार्तिक पूर्णिमा तो नही कहा जा सकेगा।* 
 *बल्कि वह चैत्र पूर्णिमा ही कही जाएगी। क्योंकि, पूर्णिमा के समय चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र के योगतारा के साथ रहेगा।* 

 २ *माघ मास मतलब जिस मास की पूर्णिमा के समय चन्द्रमा मघा नक्षत्र के योग तारा (मघा) के आसपास रहे। स्वाभाविक है उस समय सूर्य निरयन कुम्भ राशि के आरम्भ बिन्दु के आसपास ही रहेगा।

२ (क)--- ईसापूर्व १६९०२ में जब अयनांश १२०° था तब भी मघा नक्षत्र के योग तारा का निरयन भोगांश १२०° (निरयन सिंह००° बिन्दु) था। 
उस समय जब पूर्णिमा को चन्द्रमा मघा तारे के साथ रहा होगा तब सूर्य निरयन कुम्भ ००° (३००°) पर था। तो उस पूर्णिमा को माघ पूर्णिमा कहा जाना ही उचित था।
*उस समय सूर्य का सायन भोग ६०° रहा था। अतः वैदिक शुक्र मास/ पौराणिक शचि मास आरम्भ होने के आधार पर उसे आषाढ़ की पूर्णिमा नही कहा जा सकता।* 
*क्योंकि, उस पूर्णिमा के समय चन्द्रमा मघा नक्षत्र के योग तारा के साथ था। अतः वह पूर्णिमा माघ की पूर्णिमा ही कही जा सकती है।*

ऐसे ही 
२(ख)--- ईस्वी सन ८८७८ में जब अयनांश १२०° होगा तब भी मघा नक्षत्र के योग तारा का निरयन भोगांश १२०° (निरयन सिंह राशि के प्रारम्भ बिन्दु) पर रहेगा। उस समय जब पूर्णिमा को चन्द्रमा मघा तारे के साथ रहा होगा तब सूर्य निरयन कुम्भ ००° (३००°) पर रहेगा। तो उस पूर्णिमा को माघ पूर्णिमा कहा जाना उचित ही होगा।
 *उस समय सूर्य का सायन भोग ६०° होगा।अतः वैदिक शुक्र मास/ पौराणिक शचि मास प्रारम्भ होने के आधार पर उसे आषाढ़ी पूर्णिमा कहना अनुचित ही होगा।*
*क्योंकि पूर्णिमा के समय चन्द्रमा मघा नक्षत्र के योग तारा के साथ स्थित रहेगा। अतः वह माघ पूर्णिमा ही कही जा सकती है।*

वैदिक कालीन संवत्सर प्रणाली में पौराणिक पञ्चाङ्ग संशोधन।

वैदिक काल से लेकर आज तक संवत्सर आरम्भ का मुख्य आधार वसन्त सम्पात ही रहा है।
लोकमान्य बालगङ्गाधर तिलक जी, श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित, श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट, श्री नीलेश ओक आदि कई विद्वान सिद्ध कर चुके हैं कि, ब्राह्मण ग्रन्थों के रचना काल से पौराणिक काल तक में भी वसन्त सम्पात चैत्र वैशाखादि अलग अलग मासों में होनें के कारण संवत्सर का चैत्र वैशाख आदि मास परिवर्तित होता रहा है। यही कार्य नेपाल के धर्म शास्त्री पुनः करना चाहते हैं। शायद वे वैशाख मास से संवत्सर प्रारम्भ करना चाहते हैं।
उक्त विद्वानों द्वारा यह भी प्रमाणित किया गया है कि, वैदिक काल में संवत्सर प्रारम्भ, उत्तरायण का प्रारम्भ वसन्त ऋतु प्रारम्भ और मधुमास का प्रारम्भ वसन्त सम्पात से ही माना जाता था। 
महाभारत युद्ध के बाद और विशेषकर पुष्यमित्र शुंग के राज्यकाल से आरम्भ होकर धारानगरी के राजा भोज तक की अवधि में पुराणों में अत्यधिक संशोधन हुआ। इसी अवधि को पौराणिक काल कह सकते हैं। उत्तर भारत में कुशाण वंशिय राजाओं ने और दक्षिण भारत में उन्ही के समकालीन सातवाहन राजाओं ने पूराण संशोधन कार्य में भरपूर राजकीय सहयोग दिया।
उक्त पौराणिक काल में ही सिद्धान्त ज्योतिष (एस्ट्रोनॉमी) और संहिता ज्योतिष के अधिकांश ग्रन्थ रचे गये। पूराणों, ज्योतिष सिद्धान्त ग्रन्थ और संहिता ज्योतिष ग्रन्थों में वर्षा काल में पड़ने वाले मुहुर्तों को तीन माह पहले करने के लिए वैदिक उत्तरायण को उत्तर गोल, और वैदिक उत्तर तोयन को उत्तरायण घोषित कर दिया। वैदिक काल में संवत्सर, उत्तरायण और वसन्त ऋतु एक साथ वसन्त सम्पात से प्रारम्भ के स्थान पर पौराणिको नें उत्तरायण के मध्य से संवत्सर प्रारम्भ करने, वसन्त ऋतु के मध्य से संवत्सर प्रारम्भ किया जानें लगा। मधुमास के स्थान पर संवत्सर का प्रथम मास माधव मास कर दिया और  मधुमास को संवत्सर का अन्तिम मास कर दिया। उत्तरायण के प्रथम तीन माह (आधा उत्तरायण) संवत्सर के प्रारम्भ में और उत्तरायण के अन्तिम तीन माह (आधा उत्तरायण) संवत्सर के अन्त होने लगा।  वसन्त ऋतु का द्वितीय मास संवत्सर के प्रारम्भ में और वसन्त ऋतु का प्रथम मास संवत्सर के अन्त में होने लगा। मधुमास के स्थान पर माधव मास संवत्सर का प्रथम मास हो गया और तपस्य मास के स्थान पर मधुमास संवत्सर का अन्तिम मास हो गया। बाद में तो चैत्र शुक्ल पक्ष संवत के प्रारम्भ में  और चैत्र कृष्ण पक्ष संवत के अन्त में हो गया। अर्थात आधा उत्तरायण, आधी वसन्त ऋतु, मधु मास व्यतीत वर्ष के अन्त में और आधा भाग नव संवत्सर में हो गया। 
इन संशोधनों से वैदिक काल में मध्य देश ( मध्य भारत में) शुभकार्यों के जो मुहुर्त और विवाहादि कार्यक्रम वर्षाकाल में पड़ते थे उसके स्थान पर पौराणिक काल और वर्तमान काल में शीत काल में होने लगे। और वर्षाकाल को आराधना उपासना का समय घोषित कर दिया।
वैदिक सायन सौर संवत्सर प्रणाली और सावन वर्ष के स्थान पर इराक के बेबीलोन तुर्की और पश्चिम चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षीय चक्र वाला सौर चान्द्र वर्ष निरयन सौर संस्कारित चैत्र वैशाख और तीसरे वर्ष में अधिक मास और १९,१२२ और १४१ वर्ष में क्षय मास वाला, चान्द्रमासों वाली पद्यति अपनाई पर आधारित निरयन सौर चान्द्र संवत्सर अपनाया गया गया।
नक्षत्र प्रधान संहिता ज्योतिष को ध्यान में रखते हुए ऋतु आधारित सायन गणना के स्थान पर निरयन गणना को ही स्थापित किया गया। 
एक साथ कुछ ही वर्षों में इतनी उठापटक  हो गई कि, धर्म और ज्योतिष जनता जनार्दन की समझ से परे के विषय हो गये। और जनता धर्म विमुख हो गई। जैन और बौद्ध मत ने इस स्थिति का भरपूर लाभ उठाया।
ईरान में वैदिक धर्म के स्थान पर ज़रथुष्ट्र के नेतृत्व में पारसी सम्प्रदाय आरम्भ हो गया,  तुर्क और अफगानिस्तान में वैदिक सनातन धर्म समाप्त होने लगा। दक्षिण पूर्वी टर्की के हित्ती सम्प्रदाय और संस्कृति और सुमेरियाई सम्प्रदाय और संस्कृति, चीन के ताओ मत, मिश्र के सम्प्रदाय और संस्कृति, क्रीट और युनान के पन्थ, सम्प्रदाय और संस्कृति से प्रभावित इराक के असुर पन्थ और संस्कृति तथा बेबीलोन का बाल पन्थ और बेबिलोनियाई संस्कृति का जन्म हुआ। इसी का नवीनतम स्वरूप इब्राहिमी मत, पन्थों यहुदी, ईसाई, और इस्लाम के रूप में जन्मे।
बाद में भारतीय सम्राटों का प्रभाव तुर्की और अफगानिस्तान से समाप्त हो गया। कुछ वर्षो पश्चात महाभारत युद्ध में क्षत्रिय विहीन भारतीय प्रदेशों पर तुर्को और अफगानों और युनानियों के हमले होनें लगे। कमजोरी पकड़कर यहा उनके राज्य भी स्थापित होनें लगे। उधर सऊदी अरब में इस्लाम के उदय के बाद ईराक के खलीफा नें भी भारत पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। और धीरे धीरे भारत का बड़ा भूभाग दास होनें लगा।