सोचो सनातनधर्मी भारतियों सोचो।
कृपया विचार करें।
(१) वर्तमान में २० मार्च या २१ मार्च को होनें वाले विषुव सम्पात से वैदिक युग में नव संवत्सर प्रारम्भ करने की परम्परा थी। यह संवत ३६५.२४२१९ दिन का होता था। धार्मिक कार्यों में सायन सौर मास गतांश के साथ प्रचलित थे।*
वर्तमान में मन्दोच्च १०३°१७'५६" पर है। इस कारण शुक्र मास सबसे बड़ा और सहस्य सबसे छोटा होता है।
*ये मास १ मधु, २ माधव, ३ शुक्र, ४ शचि, ५ नभः, ६ नभस्य मास ३१ दिन के, ७ ईष, ८ उर्ज, ९ सहस मास ३० दिन के, १० सहस्य मास २९ दिन का , ११ तपस एवम् १२ तपस्य मास ३० दिन का लेकिन प्रति चार वर्ष में एक बार बारहवाँ मास अर्थात तपस्य मास ३१ दिन का होजाता था। कभी कभी तीसरे वर्ष में हो जाता लेकिन प्रायः चौथे वर्ष में ही ३१ दिन का होता था। मास के दिनों की संख्या मन्दोच्च पर निर्भर करती है। यह परिवर्तनशील है। अतः मासों की दिन संख्या वर्तमान मन्दोच्च के अनुसार दिए गए हैं। मन्दोच्च का एक भचक्र १,०९,७१६ (एक लाख, नौ हजार, सातसौ सोलह) वर्ष का होता है।*
*ऐसा गणित द्वारा करनें की आवश्यकता नही थी, बल्कि शुल्बसुत्रों के जानकार ऋषि छाँया देखकर वसन्त सम्पात दिवस जान लेते थे। शुल्बसुत्रों के जानकार ऋषि ही मौसम आदि का आँकलन कर बड़े यज्ञों, नैमित्तिक यज्ञों, संस्कारों और बड़े कार्यक्रमों के लिए उचित समय और स्थान निर्धारित करते थे।*
*इस कारण दो वसन्त सम्पात दिवसों के बीच का संवत्सर स्वतः शुद्ध होता रहता था। ऐसे ही ये ऋषि वैध द्वारा अयन, तोयन, ऋतु एवम सायन सौर मास का प्रारम्भ और अन्तिम क्षण जान लेते थे। धार्मिक कार्यों में सायन सौर मास और गतांश के साथ तथा असमान भोगांश वाले चन्द्रमा के नक्षत्र भी प्रचलित थे।* एवम्
*लोकिक कार्यों में संक्रान्ति गत दिवस (गते) दिनांक के समान प्रचलित थे। इसके साथ दस दिन का दशाह प्रचलित था। जैसे आजकल मिश्र और बेबीलोन (इराक) से लिया गया सप्ताह प्रचलित है।*
*संवत्सर गणना हेतु कल्प संवत, सृष्टि संवत और युग संवत* प्रचलित थे। जैसे वर्तमान में भी कल्प संवत, सृष्टि संवत और कलियुग संवत प्रचलित हैं।*
२ *सावन वर्ष* --- *वैदिक काल में व्यवहार में ३६० दिन का सावन सौर वर्ष भी चलता था, इसमें प्रत्येक महिना ३० दिन का ही होता है तथा साथ में दशाह के वासर प्रचलित थे। इसमें अधिक मास करके संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर द्वारा समायोजन होता था।*
३ *यदि वैदिक सायन सौर संवत और मधु माधवादि मास वाली परम्परा को ही जारी रखना होता और काल गणना में कोई परिवर्तन ही नही करना होता तो सम्राट विक्रमादित्य नाक्षत्रीय सौर मान ३६५.२५६३६३ दिन वाला वर्तमान में प्रायः १४ अप्रेल निरयन मेष संक्रान्ति से प्रारम्भ होनें वाला विक्रम संवत क्यों चलाते?*
*यदि कोई व्यवस्था यथावत रखना होती तो केवल संवत का नाम ही क्यों बदलते?*
इसका कारण यह है--- ⤵️
*वेदिक युग में भारत में क्रान्तिवृत के उत्तर दक्षिण में नौ- नौ अंश के परिपथ को भचक्र के नाम से जाना जाता था और भचक्र (Fixed zodiac फ़िक्स्ड झॉडिएक) का विभाजन सत्ताइस या अट्ठाइस असमान भोगांश वाले नक्षत्रों में किया जाता था। कुछ स्थिर दिखने वाले ताराओं के समुह से बनी आकृति को नक्षत्र कहते थे। चित्रा तारे को भचक्र का मध्य बिन्दु माना जाता है। तदनुसार चित्रा तारे से १८०° पर भचक्र का आरम्भ बिन्दु माना जाता है। किसी समय रेवती का योगतारा इस बिन्दु पर स्थित था। लेकिन रेवती योगतारा तुलनात्मक अधिक गतिशील होनें से इस स्थान से चार डिग्री पूर्व दिशा में ओर खिसक गया है। इस कारण वर्तमान में इस बिन्दु पर कोई तारा नही स्थित है। इसे नाक्षत्रीय गणना प्रणाली कहा जाता है। वर्तमान खगोलविदों ने ८८ (अठासी) नक्षत्र निर्धारित किए हैं। इस प्रणाली में बिना यन्त्र के केवल खुली आँखों से आकाश में नक्षत्रों में सूर्य चन्द्रमा और ग्रहों की स्थिति देखी जा सकती है। सूर्योदय पूर्व और सूर्यास्त के बाद के तारों को देखकर सूर्य किस नक्षत्र में स्थित है जाना जा सकता है। चन्द्रमा और ग्रहों का अवलोकन रात्रि में किया जा सकता है। महर्षि गर्गाचार्य नें गर्ग संहिता और भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि में असमान भोगांश वाले नक्षत्रों को ही मान्यता दी है। इसमें नक्षत्रों मे गणना दर्शाई जाती है। इसलिए इसे नाक्षत्रीय गणना प्रणाली कहते हैं।*
*चित्रा नक्षत्र का भोग केवल ००°२३'३१" ही था, स्वाती नक्षत्र का भोग २०°५०'५७" था, जबकि धनिष्ठा नक्षत्र का भोग २५°१४'०८" था; ऐसे ही सभी नक्षत्रों के भोगांश अलग अलग थे। न कि, वर्तमान में प्रचलित १३°२०'।* और
*इन नक्षत्रों के अथवा नक्षत्रों के मुख्य तारा (योग तारा) से ग्रहों के साथ ०००° का अन्तर होनें पर युति या योग और १८०° होनें पर प्रतियोग के आधार पर शुभाशुभ माना जाता था।*
*विक्रम संवत* --- *चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु पर सूर्य आनें पर नाक्षत्रीय सौर युधिष्ठिर संवत और निरयन सौर विक्रम संवत तथा निरयन मेष मासारम्भ होता है। जिसे पञ्चाब और हरियाणा में वैशाख मास कहते हैं। जब ३६५.२५६३६३ दिन पश्चात सूर्य पुनः इसी बिन्दु पर लौटता है तब संवत्सर पूर्ण होता है।* *प्रकारान्तर से कह सकते हैं कि, सूर्य के केन्द्र का परिभ्रमण करती भूमि जब चित्रा तारे के समक्ष आती है तब नाक्षत्रीय / निरयन सौर वर्ष प्रारम्भ होता है। और चित्रा तारे के समक्ष भूमि का परिभ्रमण पूर्ण होने पर संवत्सर पूर्ण होता है।*
*वर्तमान में मन्दोच्च ७९°०८'१८" पर है। इस कारण मिथुन मास सबसे बड़ा और धनुर्मास सबसे छोटा होता है।*
*निरयन सौर मासों के नाम* --- *दक्षिण भारत और पूर्व भारत में मेष वृषभादि नाम प्रचलित है । जबकि पञ्जाब और हरियाणा में वैशाखादि नाम प्रचलित है।*
*इस कारण इसके मासों की दिन संख्या इस प्रकार है* ---
*१ मेष (वैशाख) और २ वृषभ (ज्येष्ठ),३ मिथुन (आषाढ़) , ४ कर्क (श्रावण), ५ सिंह (भाद्रपद) और ६ कन्या (आश्विन) ३१ दिन का तथा*
*७ तुला (कार्तिक) और ८ वृश्चिक (मार्गशीर्ष) ३० दिन का तथा*
*९ धनु पौष २९ दिन का एवम्*
*१० मकर (माघ), ११ कुम्भ (फाल्गुन) और १२ मीन (चैत्र) ३० दिन का होता है।*
*सम्पात के २५,७७८ वर्षीय चक्र के कारण नाक्षत्रीय सौर वर्ष अर्थात निरयन सौर संवत का प्रारम्भ होनें का दिनांक प्रत्येक ७१ वर्ष में एक दिनांक बढ़ जाती है। इस कारण वर्तमान में १४ अप्रेल से प्रारम्भ होनें वाला नाक्षत्रीय सौर युधिष्ठिर संवत और निरयन सौर विक्रम संवत और मेष (वैशाख) मास भविष्य में १५ अप्रेल से आरम्भ होगा।*
*युधिष्ठिर संवत की गणना भी नाक्षत्रीय सौर वर्ष (निरयन सौर वर्ष) में की जाती थी। लेकिन युधिष्ठिर संवत प्रायः अप्रचलित ही रहा। इसी आधार पर विक्रमादित्य ने विक्रम संवत चलाया था। और विक्रम संवत को भी केवल १३५ वर्ष में शक संवत नें विस्थापित कर दिया। *
*बेबीलोन (ईराक), मिश्र और युनान में भचक्र (Fixed zodiac फ़िक्स्ड झॉडिएक) विभिन्न आकृतियों की बारह राशियों की कल्पना की गई थी। जो भारत में प्रचलित नहीं थी। इन राशियों का भारत में वराहमिहिर नें परिचय कराया। वर्तमान खगोलविदों ने अलग - अलग भोगांश वाली तेरह राशियों की कल्पना की है।*
*वराहमिहिर के बाद इन ३०° के समान भोग वाली बारह राशियों को नक्षत्रों के साथ जोड़ने के लिए १३°२०' के समान भोग वाले सत्ताइस नक्षत्रों की प्रणाली प्रारम्भ की गई। जिसमे प्रत्येक नक्षत्र में ३°२०' के चार-चार चरण होते हैं। जो राशि प्रणाली में नवांश कहलाते हैं। इस प्रकार निरयन गणना प्रणाली का उदय हुआ जो वर्तमान में भी भारत में प्रचलित है।*
*उल्लेखनीय है कि, ईरान या तुर्किस्तान के मूल निवासी होने के कारण वराहमिहिर को शक जाति का माना जाता है। आचार्य वराहमिहिर से प्रभावित होनें के कारण सम्राट विक्रमादित्य ने निरयन सौर विक्रम संवत प्रारम्भ किया।*
विशेष सुचना ---
अथर्ववेद में अट्ठाईस नक्षत्र बतलाये गए हैं। जबकि कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता ४/४/४० में शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण/ दशम काण्ड/पञ्चमोऽध्याय/ चतुर्थ ब्राह्मण में और सामवेद के जैमिनी ब्राह्मण में सत्ताईस नक्षत्र ही बतलाए गए हैं लेकिन सभी में एक बात निश्चित है कि, नक्षत्र भोग असमान था। जैसा कि, पहले बतलाया जा चुका है कि,
चित्रा नक्षत्र का भोग केवल ००°२३'३१" ही था, स्वाती नक्षत्र का भोग २०°५०'५७" था, जबकि धनिष्ठा नक्षत्र का भोग २५°१४'०८" था; ऐसे ही सभी नक्षत्रों के भोगांश अलग अलग थे।*
शतपथब्राह्मणम् में सत्ताइस नक्षत्रों का उल्लेख दिया हुआ है।
नक्षत्राणि ह त्वेवैषोऽग्निश्चितः तानि वा एतानि सप्तविंशतिर्नक्षत्राणि सप्तविंशतिः सप्तविंशतिर्होपनक्षत्राण्येकैकं नक्षत्रमनूपतिष्ठन्ते तानि सप्त च शतानि विंशतिश्चाधि षट्त्रिंशत्ततो यानि सप्त च शतानि विंशतिश्चेष्टका एव ताः षष्टिश्चत्रीणि च शतानि परिश्रितः षष्टिश्च त्रीणि च शतानि यजुष्मत्योऽथ यान्यधिषट्त्रिंशत्स त्रयोदशो मासः स आत्मा त्रिंशदात्मा प्रतिष्ठा प्राणा द्वे शिर एव षट्त्रिंश्यौ तद्यत्ते द्वे भवतो द्व्यक्षरं हि शिरोऽथ यदन्तरा नक्षत्रे तत्सूददोहा अथ यन्नक्षत्रेष्वन्नं तत्पुरीषं ता आहुतयस्ताः समिधोऽथ यन्नक्षत्राणीत्याख्यायते तल्लोकम्पृणा तद्वा एतत्सर्वं नक्षत्राणीत्येवाख्यायते तत्सर्वोऽग्निर्लोकम्पृणामभिसम्पद्यते स यो हैतदेवं वेद लोकम्पृणामेनं भूतमेतत्सर्वमभिसम्पद्यते
शतपथब्राह्मणम्/काण्डम् १०/अध्यायः ५/ब्राह्मण ४
सामवेद के जैमिनी ब्राह्मण में सत्ताइस नक्षत्र कहे गए हैं।
यास्सप्तपदाश्शक्वर्यो ये सप्त ग्राम्याः पशवो यानि सप्त चतुरुत्तराणि छन्दांसि ये सप्त मुख्याः प्राणा यानि सप्तविंशतिर्दिव्यानि नक्षत्राणि यस्सप्तविंश स्तोमो यत्किं च सप्त सप्त तस्यैषा सर्वस्यर्द्धिस्तस्योपाप्तिः ।)
परवर्ती ज्योतिष ग्रन्थों में इसका समाधान इस प्रकार किया कि,
जब अट्ठाइस नक्षत्रों के बजाय सत्ताइस नक्षत्र लेने का निर्णय लिया, तो उत्तराषाढ़ा की अन्तिम चार घटी और श्रवण नक्षत्र के प्रारम्भ की २५ घटी को मिला कर कुल २९ घटी को अभिजित् नक्षत्र मान लिया।
*महर्षि गर्गाचार्य नें गर्ग संहिता में और सिद्धान्त ज्योतिष के विद्वान भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि में असमान भोगांश वाले नक्षत्रों को ही मान्यता दी। लेकिन वराहमिहिर ने वृहत् संहिता में १३°२०' के समान भोगांश वाले सत्ताइस को मान्यता दी। साथ ही बेबीलोन (इराक) मिश्र और युनान में प्रचलित ३०° वाली बारह राशियों को भी मान्यता दी। तथा राशियों और नक्षत्रों में समायोजन स्थापित किया।*
३ *निरयन सौर चान्द्र वर्ष * --- * दो अमावस्या के बीच का समय २९.५३०५८९ दिन चान्द्रमास होता है। अतः दो पूर्णिमा भी लगभग २९.५३०५८९ दिन के अन्तर से होती है।*
*ब्राह्मण ग्रन्थ काल में पूर्णिमा के समय चन्द्रमा प्रायः जिस नक्षत्र में भ्रमण करता था उसी नक्षत्र के नाम पर पूर्णिमा का नामकरण किया गया। अतः बाद में यह चान्द्रमासों के नामकरण का आधार बनी।*
*लेकिन वैदिक काल में अर्ध चन्द्रमा वाली अष्टका-एकाष्टका, पूर्ण चन्द्रमा वाली पूर्णिमा और बिना चन्द्रमा वाली अमावस्या का ही उल्लेख मिलता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में भी एकाध बार अमावस्या के बाद प्रतिपदा और चन्द्र दर्शन वाली तिथि का उल्लेख भी आया है। अर्थात ब्राह्मण ग्रन्थों, सुत्र ग्रन्थों की रचना काल तक तिथियाँ अप्रचलित ही थी।*
*तिथियों का सर्वप्रथम उल्लेख क्षेपक रूप में रामायण में और प्रामाणिक रूप में महाभारत में देखने को मिलता है। पूराण पूर्णतः तिथियों पर आधारित हैं।*
*शकाब्द* --- *वर्तमान में प्रायः १३ अप्रेल या १४ अप्रेल अर्थात निरयन मेष संक्रान्ति से प्रारम्भ होनें वाला विक्रम संवत वाली निरयन सौर वर्ष वाली काल गणना को ही जारी रखना होती तो, सम्राट विक्रमादित्य द्वारा विक्रम संवत लागू किए जानें के केवल १३५ वर्ष बाद ही अर्थात विक्रम संवत १३५ के अन्त और विक्रम संवत १३६ के आरम्भ में ही शकाब्द लागू क्यों किया जाता? क्या विक्रम संवत लागू होनें के मात्र १३५ वर्ष बाद ही तिथियों और चान्द्रमास वाला शक संवत प्रणाली लागू होना आश्चर्यजनक नही है? क्या कारण थे? इसका कारण यह था कि,* ---
*उत्तर भारत में पेशावर के कुषाण क्षत्रपों द्वारा मथुरा विजय के उपलक्ष में कुषाण वंशिय तुर्क राजाओं नें उत्तर भारत में शक संवत लागू किया और सातवाहन राजाओं द्वारा मालवा विजय के उपलक्ष में पैठण महाराष्ट्र के सातवाहन राजाओं ने दक्षिण भारत में शकाब्द लागू कर दिया। यह शकाब्द निरयन मीन राशि के सूर्य मे पड़नें वाली अमावस्या के बाद वाली चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ किया जाता है। दक्षिण भारत में इसे शालिवाहन शक संवत कहते हैं।*
*आखिर किस कारण से शकाब्द लागू होने के बाद में बनें पौराणिक ग्रन्थों नें भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होनें वाले शकाब्द के अनुसार अनेक मत - मतान्तर वाले व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार नये सिरे से चान्द्रमासों की तिथियों के अनुसार क्यों लागू किए ? यदि पूर्ववत ही व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाए जाते तो क्या इतने मत मतान्तर रहते।*
*शकाब्द लागू होने के बाद में बनें बाद भारतीय खगोलीय गणना के गणित (एस्ट्रोनॉमी) के सभी सिद्धान्त ग्रन्थों में गणना का आधार शक संवत को ही अपनाया गया? किसी ने भी विक्रम संवत को आधार क्यों नहीं बनाया?*
क्योंकि,
*शक देश तुर्किस्तान में उन्नीस वर्षीय चक्र वाला संक्रान्ति के आधार पर अधिक मास वाला सौर चान्द्र केलेण्डर प्रचलित था जो आज भी चीन में प्रचलित है। वराहमिहिर इस गणना को भारत में प्रचारित कर चुके थे। भारतीय बौद्धों ने इस परम्परा के प्रति विशेष रूचि दिखलाई।*
*इसलिए जो बौद्ध आचार्य शुद्धि करवा कर सनातनधर्मी बने थे उनने पौराणिकों के रूप में शक संवत और निरयन सौर महिनों पर आधारित चान्द्र वर्ष लागू करवाया। लेकिन समस्या यह आई कि*,
*वेदिक काल में संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधु मास का प्रारम्भ वसन्त सम्पात से होता था।*
*चूंकि आर्यावर्त और ब्रह्मावर्त में वसन्त सम्पात (वर्तमान में २० या २१ मार्च) से उत्तरायण प्रारम्भ होना माना जाता था। और दक्षिण परम क्रान्ति दिवस (वर्तमान में २२ या २३ जून) से दक्षिण तोयन प्रारम्भ होना मानते थे। शरद सम्पात २३ सितम्बर से दक्षिणायन और उत्तर परम क्रान्ति २२ दिसम्बर से उत्तर तोयन माना जाता था।*
*वेदिक काल में वसन्त सम्पात से शरद सम्पात २०/२१ मार्च से २३ सितम्बर के बीच उत्तरायण में समस्त शुभकार्य करने का प्रचलन था।*
*लेकिन दक्षिण भारत और वर्तमान भारत के मध्य क्षेत्र में दक्षिण परम क्रान्ति २३ जुन से २२ दिसम्बर के बीच दक्षिण तोयन में दक्षिण परम क्रान्ति दक्षिण तोयन प्रारम्भ २३ जून से शरद सम्पात वैदिक दक्षिणायन प्रारम्भ २३ सितम्बर तक वर्षाकाल रहता है। वर्षाकाल बड़े आयोजन नही किये जा सकते।*
*इस कारण २२-२३ दिसम्बर को उत्तर परम क्रान्ति से प्रारम्भ होनें वाले उत्तर तोयन को उत्तरायण नाम कर दिया गया और २३ जून से आरम्भ दक्षिण तोयन को दक्षिणायन नाम कर दिया गया।* और
*संवत्सर और वसन्त ऋतु के प्रथम मास का नाम मधुमास के स्थान माधव मास कर दिया जो वैदिक काल में संवत्सर और वसन्त ऋतु का द्वितीय मास था। जबकि वैदिक संवत्सर और वसन्त ऋतु के प्रथम मास मधुमास को अन्तिम मास घोषित कर दिया।*
लेकिन यह लोगों में मतिभ्रम पैदा कर रहा था। इसलिए ---
*वेदिक सायन सौर संवत्सर और विक्रमादित्य द्वारा प्रचलित निरयन सौर संवत्सर का हायब्रिड कर उस समय वसन्त सम्पात के निकट पड़ने वाली अमावस्या के दुसरे दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) से निरयन सौर मासों पर आधारित १९ वर्षीय, १२२ वर्षीय और १४१ वर्षीय चक्र वाला अधिक मास एवम क्षय मास वाला चान्द्रमासों वाला शकाब्द और चैत्र, वैशाख आदि मास तिथियों के साथ प्रचलित किया गया।*
* जैसा कि, बतलाया जा चुका है कि, चैत्र वैशाख आदि मास वाला शकाब्द निरयन सौर मासों पर आधारित चान्द्र वर्ष है। इसलिए निरयन सौर संवत के अनुरूप ही मन्दोच्च के कारण निरयन सौर संवत के प्रारम्भ के जो छः मास ३१ दिन के है वैसे ही प्रत्येक २८ से ३८ मास उपरान्त शकाब्द के प्रारम्भ के १ चैत्र, २ वैशाख, ३ ज्येष्ठ, ४ आषाढ़, ५ श्रावण, ६ भाद्रपद, ७ आश्विन मास ही प्रायः अधिक होते हैं। और कभी कभार आठवाँ मास कार्तिक मास भी अधिक हो सकता है। लेकिन ९ मार्गशीर्ष, १० पौष ,११ माघ और १२ फाल्गुन मास कभी भी अधिक नही होते। इसी प्रकार ग्यारहवाँ माघ मास कभी क्षय नही होता। शेष सभी मास १९ वर्ष, १२२ वर्ष और १४१ वर्ष के क्रम से क्षय मास हो सकते हैं।*
*क्षय मास के पहले वाला मास और क्षय मास के बाद वाला मास अधिक मास होता है। इस कारण क्षय मास के बाद वाले मास को भी शुद्ध मास जैसा ही मानते हैं। (१९६३ ई.) शकाब्द १८८५ में १४१ वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था। फिर (१९८२ ईस्वी) शकाब्द १९०४ में १९ वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था। अब २१०४ ईस्वी शके २०२६ में १२२ वर्ष वाला क्षय मास पड़ेगा।*
*बौद्ध और जैन पन्थ के उदय के मात्र पाँच सौ वर्षों में ही इतनी भारी उठापटक क्यों हो गई? क्या यह आश्चर्यजनक नही है?*
*क्योंकि, इसके पीछे शुद्धि करवा कर की सनातन धर्म में घर वापसी करवानें वाले बौद्ध आचार्यों का ही दिमाग था। अर्थात बौद्ध मानसिकता वाले सनातनधर्मी आचार्यों का दिमाग था। भारत की बौद्धिक सम्पदा पर अब इन्ही पूर्व बौद्धाचार्यों का नियन्त्रण होने लगा था। इन्ही पूर्व बौद्ध आचार्यों ने क्षत्रियों को सिखाया कि, आततयियों और अधर्मी आक्रांताओं के विरुद्ध युद्ध में भी धर्मयुद्ध के नियम पालन करना चाहिए। जिससे वे पराजित हो जाएँ और बौद्ध मतावलंबी शक भारत में सुगमता से प्रवेश कर सके। बाद में इन्हीं ने विन्द्यगिरी में शक, हूण, खस, ठस, बर्बरों की यज्ञ में शुद्धि करवा कर इन्हें क्षत्रिय का दर्जा दिया।*
*इसी कारण इसके तुरन्त बाद ही भारत में बौद्ध मत वाले तुर्किस्तान के शक और कुषाणों के हमले प्रारम्भ हो गये।*
*और बाद में ईरान, तुर्क और अफगान मुस्लिम आक्रांताओं के हमले, फिर यूरोपीय जातियों की सत्ता कायम होकर भारत लम्बे समय तक पतनोन्मुखी क्यों हुआ?*