शनिवार, 20 अगस्त 2022

स्मार्त मत और भागवत धर्म (वैष्णव सम्प्रदाय)

बड़े से बड़े महापुरुषों को भी अपने आसन (पद) की मर्यादा पालन करना पड़ती है।
मैरे एक गुरु नागा साधु थे। जबतक वे नीचे बैठते तबतक कहते भगवान विष्णु तो परमेश्वर हैं, सब देवों के भी पूजनीय है। श्रीमद्भगवद्गीता का कम से कम एक अध्याय रोज पढ़ना ही चाहिए। भैरव तो काशी के कोतवाल हैं।
लेकिन जैसे ही उनके आसन पर चढ़ कर बैठे, कि, पहला वाक्य बोलते, बैटा भेरू सबसे मोटा। (भैरव ही प्रधान देवता हैं।) 
ऐसे ही आत्मज्ञान सम्पन्न रामसुखदास जी महाराज की भी मर्यादा है‌।
जिस पन्थ में दीक्षित हैं, उसकी बात कहना उनकी मर्यादा है‌।


भागवत धर्म का उल्लेख महाभारत के पहले कहीं नही मिलता। तो महाभारत के पहले तो प्रत्येक विष्णु भक्त वैष्णव स्मार्त ही था। स्मृतियों की रचना के पहले तो हर व्यक्ति श्रोत्रिय अर्थात वैदिक ही था।
जब हर व्यक्ति श्रोत्रिय था तब सम्पूर्ण विश्व ही वैदिक था। असुर भी वेदपाठी ही थे। सम्पूर्ण विश्व में एक संस्कृति थी।
श्रुतियों का अवलम्बन छोड़ जब स्मृति पर अवलम्बित हुए तै केवल जम्बूद्वीप ही श्रोत्रिय , पञ्चमहायज्ञ सेवी रह गया। शेष विश्व में अपने अपने पन्थ स्थापित हो गए। बहुत सी स़स्कृतियाँ हो गई। 
जब विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का प्रभाव जम्बूद्वीप पर भी पड़ा तो अफ्रीका का शैव मत नें इराक मे अपना गढ़ बना लिया। ययाति (इब्राहिम) नें शिवाई धर्म चलाया जो ईरान में मीढ संस्कृति कहलाई। भगवान शंकर मीढीश कहलाये,   (एशिया से लगे युनानी क्षेत्र) क्रीट  में शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा द्वारा स्थापित शाक्त पन्थ का गड़ तिब्बत बन गया। मिश्र का सौर पन्थ का गढ़ ईरान (मग संस्कृति) बन गई । मध्य दक्षिण अमेरिकी गाणपत्य सम्प्रदाय मध्य यूरोप होते हुए दक्षिण भारत में जम गया।
ऐसे अनेक सम्प्रदाय बनने के साथ ईराक के असुर पूजक ज़रथ्रुष्ट नें ईरान में पारसी मत स्थापित किया। उसी समय वेदव्यास जी द्वारा नेमिशारण्य में धर्म सभाएँ आयोजित कर भारत में सभी सम्प्रदायों की मर्यादा नियत कर दी। और स्वयम् नें जय संहिता (महाभारत का मूल स्वरूप) की रचना कर भागवत धर्म की स्थापना की।
 तभी से महाभारत युद्ध उपरान्त भारत क्रमशः कमजोर होता गया। वैदिक ब्राह्म धर्म से ब्राह्मण ग्रन्थों का ब्राह्म धर्म बनने तक तो ठीक था। स्मार्त सनातन धर्म बना वहाँ तक भी चल गया। 
लेकिन बाद में बहुत से मत, पन्थ सम्प्रदाय बनते गये। जिन्हें एकीकृत कर भग्वत्पाद आदि शंकराचार्य जी ने पञ्चदेवोपासना पद्यति तैयार कर और दशनामी संन्यासियों को संगठित कर नागा साधुओं की सेना तैयार कर, अवैदिक मत, पन्थों का खण्डन कर मठ मन्दिर परम्परा स्थापित कर दी। फिर भी वैष्णव, सौर, शैव,शाक्त और गाणपत्यों में भी फिर से अनेक सम्प्रदाय बन गये। पाँचों प्रधान सम्प्रदाय भी परस्पर भिड़ने लगे। तो 
भक्ति काल में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस रच कर पुनः विद्वेश मिटाया।तभी भारत में मुस्लिमों के पैर जम चुके थे। उनने भारतियों को हिन्दू नाम से सम्बोधित करना आरम्भ किया। और अंग्रेज़ो नें तो हमारे धर्म का नाम ही हिन्दू धर्म करके भारत से धर्म ही विलुप्त कर दिया।
अब तिर्थ, श्राद्ध, लंघन रूपी वरत, उपवास, मन्दिर, मूर्ति पूजा, स्तोत्र पाठ, रामचरितमानस पाठ, दुर्गा सप्तशती पाठ, कुछेक स्तोत्र पाठ, तन्त्र, टोटके, तान्त्रिक षडकर्म ही कर्मकाण्ड कहलानें लगे । कथावाचक सन्त कहलानें लगे।  बिना यम नियम के पालन करे आसन, प्राणायाम और बिना प्रत्याहार और बिना धारणा के सीधे ध्यानाभ्यास, तन्त्र का हठयोग के षड कर्म अभ्यास, कुण्डली जागरण  बस यह अध्यात्म कहलाने लगा है।
नित्य, पञ्च महायज्ञ, पञ्चाग्निसेवन, वेदाध्ययन, गुरुकुल, स्वधर्म पालन रूप तप सब भूला दिये गये। यही हिन्दू धर्म अर्थात दास्य धर्म है। जैसा स्वामी (यूरोपीय जाति) चाहती है वैसे ही रहना ही तो दास (हिन्दू) का धर्म है।

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