बुधवार, 17 अगस्त 2022

व्रत, पर्व, उत्सवों की तिथियों का निर्धारण कैसे होता है।

*व्रत, पर्व, उत्सवों की तिथियों का निर्धारण कैसे होता है।* 

सुचना - यह आलेख समझने में कठिनाई आ सकती है। नीचे दिए गए सुझावों को वैदिक विद्वान धर्मशास्त्री आसानी से समझ सकेंगे।
पौराणिक विरोध करेंगे। वैदिक लेकिन पौराणिक सन्दर्भों और सूर्य सिद्धान्त आदि सिद्धान्त ग्रन्थों के आधार पर सायन मकर संक्रान्ति से उत्तरायण आरम्भ मानने वाले, और सायन मीन संक्रान्ति से वसन्त ऋतु और मधुमास आरम्भ मानने वाले भी विरोध करेंगे।

आकाश में विषुव व्रत को भूमि का परिभ्रमण मार्ग क्रान्तिवृत दो स्थानों पर काटता है।  जिसे सम्पात कहते हैं। उत्तरी सम्पात वसन्त ऋतु में पड़ता है अतः वसन्त सम्पात कहलाता है। और दक्षिण सम्पात शरद ऋतु में पड़ता है इसलिए उसे शरद सम्पात कहते हैं। सायन गणना में वसन्त सम्पात को आरम्भ बिन्दु मानकर उससे पूर्व में विशुवांशो और भोगांश की गणना करते हैं।
जबकि नक्षत्रीय गणना में क्रान्तिवृत के उत्तर दक्षिण दोनों ओर लगभग नौ नौ अंशो की सीमा मानकर भचक्र माना जाता है। प्लुटो को छोड़ कर सभी ग्रहों का परिभ्रमण मार्ग इसी पट्टी में ही पड़ता है। स्थिर तारों की इस पट्टी को भचक्र/ नक्षत्र पट्टी या फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) कहते हैं।
इस भचक्र/ नक्षत्र पट्टी या फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) में स्थिर और द्युतिमान तारों से कुछ आकृतियों की कल्पना की गई । उन आकृतियों को नक्षत्र कहते हैं। वैदिक काल में २८ नक्षत्र मानें गए थे। लेकिन परवर्ती काल में अभिजित नक्षत्र नक्षत्र पट्टी की सीमा से बाहर हो जाने के कारण वर्तमान में सत्ताईस नक्षत्र ही माने जाते हैं। इराक के बेबिलोनिया में बारह राशियों की आकृति की कल्पना की गई। अतः वे बारह राशियाँ मानते थे। आधुनिक वैज्ञानिक तेरह साइन और ८८ तारामण्डलों की कल्पना को मान्यता देते हैं। लेकिन इन तारा मण्डलों की उत्तर-दक्षिण में कोई सीमा नहीं है। ऐसे ही सर्पधारी नामक नई राशि भी नक्षत्र पट्टी की सीमा से बाहर है।
नक्षत्र का मतलब ही जो क्षत न हो खिसके नही स्थिर स्थित हो। इस परिभाषा के अनुसार ही तारों को नक्षत्र कहा जाता है लेकिन रूढ़ अर्थ मे वे आकृतियाँ जो अति प्राचीन काल से एक समान बनी हुई है वे नक्षत्र कहलाती हैं। मृगशीर्ष में तीन तारे एक पंक्ति में हैं तो, हस्त नक्षत्र में चार तारे एक चतुष्कोण बनाते हैं तो, कृतिका में छः तारों का समुह है। शतभिषा में सौ तारों का समुह माना जाता था। वर्तमान में शतभिषा में ८८ तारे दिखाई देते हैं। जबकि चित्रा में एक ही तारा है। रेवती का योगतारा झीटापिशियम तारा लगभग चार अंश आगे बढ़ गया/ खिसक चुका है। इसकारण चित्रा से १८०° पर कोई तारा नही है। 
वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में चित्रा तारे को भचक्र के मध्य में अर्थात १८०° पर माना गया है। किन्तु चित्रा से १८०° पर कोई तारा नही होनें के कारण नक्षत्रीय गणना में आरम्भ बिन्दु पर कोई तारा नही है। किन्तु चूँकि, वैदिक काल में नक्षत्रीय गणना में सूर्य- चन्द्रमा, और ग्रहों द्वारा नक्षत्रों की इन विशिष्ट आकृतियों के भेदन करने या निकट से गुजरनें पर कहा जाता था कि, अमुक ग्रह अमुक नक्षत्र में है। और उससे १८०° के नक्षत्र को देख रहा है। जब तक अंशात्मक / दिगंश में गणना नही होती थी इसलिए कोई समस्या नही थी। लेकिन वर्तमान में निरयन गणना नाम से नक्षत्रीय गणना में भी चित्रा तारे से १८०° पर स्थित काल्पनिक बिन्दु को आरम्भ बिन्दु/ निरयन मेषादि बिन्दु मानकर अंशात्मक गणना की जाती है। इसके लिए तीस तीस अंशों की निश्चि  भोगांश वाली बारह राशियाँ इराक के बेबीलोनिया वाली बारह राशियों के समान मान ली गई। और इन राशियों के आरम्भ बिन्दु पर सूर्य होनें (या सूर्य केन्द्रीय गणना में जिस राशि के आरम्भ बिन्दु से १८०° पर भूमि आ जाती है) उसे संक्रान्ति कहते हैं। जबकि इस गणना उत्तर दक्षिण परम क्रान्ति का कोई सम्बन्ध नही होनें से संक्रान्ति शब्द सिद्ध ही नही होता। संक्रान्ति शब्द केवल सायन संक्रान्तियों के लिए ही उचित और सही है। लेकिन संक्रमण के अर्थ में इसे संक्रान्ति कहा जाता है।
सायन गणना भी वसन्त सम्पात अर्थात पात से आरम्भ होती है। उसमें तारों की कोई भूमिका ही नही है।
सायन गणना मूल रूप में विषुव वृत में विषुवांश की गणना करता है साथ ही उत्तर दक्षिण क्रान्ति भी दर्शाई जाती है। लेकिन यह कोई बाध्यता नहीं है। भारतीय क्रान्तिवृत में भी सायन गणना मान्य करते हैं और साथ में आकाशीय अक्षांश अर्थात शर भी दर्शाते हें। लेकिन निरयन गणना नक्षत्र पट्टी आधारित होने के कारण निरयन गणना में क्रान्तिवृत में ही राशि अंशात्मक गणना दर्शाते हैं और शर दर्शाने के अलावा क्रान्ति भी दर्शाते हैं।

ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद, कृष्ण यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद संहिताओं, में उल्लेख के अनुसार संवत्सर आरम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ वसन्तोत्सव और मधुमास आरम्भ  का पर्वोत्सव विषुव दिवस सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) का दिन सबसे मुख्य पर्व उत्सव होता था।
सावन वर्ष ३६० दिन का समाप्त होने के बाद संवत्सर में  गणना किये बगैर पाँच दिन सामुहिक यज्ञ, और उत्सव होता था। 
इसके अलावा दक्षिण तोयन, दक्षिण परम क्रान्ति, सायन कर्क संक्रान्ति (२२ जून), शारदीय विषुव दिवस, शरद ऋतु आरम्भ/ शरदोत्सव , सायन तुला संक्रान्ति (२३ सितम्बर), उत्तर तोयन उत्तर परम क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति (२२ दिसम्बर) ही मुख्य पर्वोत्सव थे। 
इनके अलावा ऋतु आरम्भ के पर्व भी सौर संक्रान्तियों पर आधारित थे। / 
मास संक्रान्ति पर भी स्नान दान और पर्वोत्सव मनाते थे।

 *मास संक्रान्ति (सायन संक्रान्ति) दिवस* 

१ *मधुमास २१ मार्च। वसन्त ऋतु। उत्तरायण। वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक और पौराणिक वसन्त ऋतु मधुमास २१ मार्च। वसन्त ऋतु। उत्तरायण।* 

२ *माधव मास २१ अप्रेल।वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक  वसन्त ऋतु, पौराणिक ग्रीष्म ऋतु, माधव मास २१ अप्रेल।* 

३ *शुक्रमास २२ मई। ग्रीष्म ऋतु। वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक  और पौराणिक ग्रीष्म ऋतु,  शुक्रमास २२ मई। ग्रीष्म ऋतु।* 

४ *शचि मास २२ जून। दक्षिण तोयन। वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक ग्रीष्म ऋतु, पौराणिक वर्षा ऋतु,  शचि मास २२ जून। दक्षिण तोयन।* 

५ *नभस मास २३ जुलाई। वर्षा ऋतु। वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक और पौराणिक वर्षा ऋतु ,नभस मास २३ जुलाई। वर्षा ऋतु।* 

६ *नभस्य मास २३ अगस्त।वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक वर्षा और पौराणिक शरद ऋतु, नभस्य मास २३ अगस्त।* 

७ *ईष मास २३ सितम्बर।शरद ऋतु। दक्षिणायन। वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक और पौराणिक शरद ऋतु, ईष मास २३ सितम्बर।शरद ऋतु। दक्षिणायन।* 

८ *ऊर्ज मास २३ अक्टूबर।वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक  शरद ऋतु, पौराणिक हेमन्त ऋतु, ऊर्ज मास २३ अक्टूबर।*

९ *सहस मास २२ नवम्बर। हेमन्त ऋतु।वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक   और पौराणिक हेमन्त ऋतु, सहस मास २२ नवम्बर।*

१० *सहस्य मास २२ दिसम्बर। उत्तर तोयन।हेमन्त ऋतु। वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक हेमन्त ऋतु, पौराणिक शिशिर ऋतु, सहस्य मास २२ दिसम्बर। उत्तर तोयन।* 

११ *तपस मास २० जनवरी। शिशिर ऋतु। वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक और पौराणिक शिशिर ऋतु, तपस मास २० जनवरी। शिशिर ऋतु।* 

१२ *तपस्य मास १९ फरवरी।वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक शिशिर और पौराणिक वसन्त ऋतु,तपस्य मास १९ फरवरी।* 

जब नाक्षत्रीय पद्यति पर आधारित निरयन संक्रान्तियों और निरयन संक्रान्तियों पर आधारित चैत्र, वैशाख आदि मास बने तो भी संवत्सरारम्भ की तिथि वसन्त विषुव अर्थात मधुमासारम्भ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) की ही मुख्यता रही। 
जिस निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चैत्र- वैशाखादि चान्द्र मास में वसन्त विषुव अर्थात मधुमासारम्भ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) पड़ता है वही प्रथम मास माना जाता है। इस कारण मधु मास सायन मीन के सूर्य में १९ फरवरी से २० मार्च तक माना जाने लगा।  जबकि होना यह चाहिए था कि, मधुमास मे सायन मेष के सूर्य में (२१ मार्च से २० अप्रेल के बीच) जो निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चैत्र- वैशाखादि चान्द्र मास पड़े उसे ही प्रथम मास माना जाना चाहिए था।  
वैदिक काल में अमावस्या, पूर्णिमा, अष्टका- एकाष्टका और नक्षत्रों के व्रत, पर्व, उत्सवों की तिथियों का निर्धारण कैसे होता था।
संहिताओं और (आरण्यकों उपनिषदों सहित) ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार कुछ अमावस्याओं को व्रत और दीपोत्सव और  पूर्णिमाओं को व्रत और रात्रि जागरण उत्सव मानते थे। अष्टका एकाष्टका ( शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी) के व्रत पर्व भी प्रचलित थे।
श्रोतसुत्रों और विशेषकर ग्रह्य सुत्रों में व्रत, पर्व उत्सवों का विस्तार से वर्णन, विवरण और विधि- निषेध बतलाये गये हैं।
कुछ पर्व सायन सौर (मधु- माधव आदि) मासों में नक्षत्र विशेष के दिन पर्व आरम्भ हुए।
तिथियों का उत्पत्ति इसी से हुई थी ‌।
आजकल सम्प्रदायों और पन्थो के आगम ग्रन्थ़ और विशेष आम्नाय के अनुसार ही व्रत, पर्व और उत्सव की तिथियाँ निर्धारित होती है
इसका विवरण आगे दिया है।

 *पञ्चाङ्ग कौनसी सही है।* 

पञ्चाङ्ग एस्ट्रोनॉमी का विषय है।   सम्बन्धित देश के मानक समय में परिवर्तन हेतु समयान्तर जोड़/ घटा कर एक ही पूरे विश्व में एक समान उपयोगी हो सकती है। 

भारत की राष्ट्रीय इफेमेरीज, कोलकाता और जीवाजी वैधशाला उज्जैन से प्रकाशित पञ्चाङ्ग तथा श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम सायन मत की पञ्चाङ्ग हैं इसमें *धर्म कर्म हेत उपयोगी मोहन कृति वैदिक पत्रकम पञ्चाङ्ग  अधिक उपयोगी है।*  
अंग्रेजी पञ्चाङ्गो में निरयन पद्यति में लाहिरी की इण्डियन इफेमेरीज, भारत शासन द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग, केतकी सिद्धान्त पर आधारित पञ्चाङ्ग और मिश्रा की इण्डियन इफेमेरीज के अलावा आजकल केतकी सिद्धान्त पर आधारित पञ्चाङ्ग प्रकाशित हो रहे हैं वे ही निरयन मतावलंबियों के लिए की  ही सही पञ्चाङ्ग हैं। 

पूर्वकाल में व्रतों, पर्वों और उत्सवों का विकास और निर्धारण कैसे हुआ? 

 *वैदिक काल से पुष्यमित्र शुङ्ग  के काल तक।* 

वैदिक काल में तो वसन्त विषुव से संवत्सर आरम्भ होकर सायन संक्रान्ति वाले मधु, माधव मास, अयन और तोयन चलते थे। उत्तरायण/ दक्षिणायन दिवस, उत्तर तोयन/ दक्षिण तोयन दिवस या वर्तमान नामकरण के अनुसार उत्तर गोल, दक्षिणायन, दक्षिण गोल और उत्तरायण के आरम्भ दिवस, जैसे वर्तमान में संवत्सरारम्भ (वैशाखी / विशु, मेषादि,गुड़ी पड़वा, युगादि)मनाते हैं, निरयन मकर संक्रान्ति आदि मनाते हैं। ऋतु आरम्भ दिवस जैसे वर्तमान में वसन्त पञ्चमी, शरद पूर्णिमा मनाते हैं। मास संक्रान्ति वर्तमान में निरयन संक्रान्ति पर स्नान दान आदि करते हैं। इनके अतिरिक्त अर्ध चन्द्र दिवस अष्टका/ एकाष्टका, पूर्णिमा पुनः अर्ध चन्द्र दिवस अष्टका/ एकाष्टका,और अमावस्या पर कुछ व्रत पर्व उत्सव होते थे। जैसे वर्तमान में हरियाली अमावस्या (दिवासा), श्रावणी (रक्षाबंधन), जन्माष्टमी, शरदपूर्णिमा, दिवाली, नव धान्येष्टि अन्नकूट, होली, नव सस्येष्टि होला - उम्बी सेकना, नारियल का होम करना आदि होता है। इनके अलावा मधु माधव मासों में चन्द्रमा किसी विशेष नक्षत्र के साथ होनें के आधार पर कुछ महत्वपूर्ण दिन अर्थात पर्व निर्धारित होते थे। जैसे वर्तमान में कुछ लोग निरयन सिंह के सूर्य और रोहिणी नक्षत्र में चन्द्रमा के दिन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। नवरात्र में भी मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ और श्रवण नक्षत्र में सरस्वती का आव्हान, पूजन, बलिदान और विसर्जन करते हैं। इन्हीं का विकसित विकल्प तिथियाँ है।
इन सबका वर्णन ग्रह्यसुत्रों में देखा जा सकता है।

 *पुष्यमित्र शुङ्ग , उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य, गुप्त वंशी चन्द्रगुप्त द्वितीय, धार के राजा भोज और विजय नगर साम्राज्य के समय में हुए बड़े बड़े आचार्यों और पण्डितों जिनमें वराहमिहिर, हेमाद्रिपंत, सायणाचार्य, माध्वाचार्य, बोपदेव और उनके अनुयाई कमलाकर भट्ट आदि नें  सबकुछ बदल दिया है।*
 *सायन संक्रान्ति का स्थान निरयन संक्रान्तियों ने ले लिया।  नक्षत्रों के स्थान पर तिथियाँ स्थापित हो गई।* 

पुष्यमित्र शुङ्ग के बाद से विक्रमादित्य तक कई स्मतियों की में संशोधन हुए। इसके बाद
विक्रमादित्य से गुप्त वंशी चन्द्रगुप्त द्वितीय तक अधिकांश वर्तमान प्रचलित पुराणों की रचना हुई।
गुप्त वंशी चन्द्रगुप्त द्वितीय से धार के राजा भोज तक भागवत पुराण, भविष्य पुराण, गरुड़ पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि रचे गए।
विजय नगर साम्राज्य से ब्रिटिश काल तक अधिकांश निबन्ध ग्रन्थ लिखे गये।

 *धर्मशास्त्र के अनुसार व्रत, पर्व उत्सव निर्धारित होते हैं।*
*जो सनातन धर्म के लिए प्रायः निर्णय सिन्धु ग्रन्थ और उसकी मेड इजी (कुंजी) धर्म सिन्धु सर्वमान्य हैं।* 
विजयनगरम साम्राज्य में मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रहस्पति स्मृति, पाराशर स्मृति, भविष्य पुराण, गरुड़ पुराण, स्कन्द पुराण, अग्नि पुराण आदि सभी पुराणों के मत एकत्रित कर निबन्ध ग्रन्थ लिखे गये। जिसमें स्मृति रत्नाकर, हेमाद्रिपन्त रचित चतुर्वर्ग चिन्तामणी , सायणाचार्य के भाई  माध्वाचार्य रचित कालमाधव ग्रन्थ मुख्य है।

 *निर्णय सिन्धु में पूर्व प्रचलित गोड़मत, मैथिल मत और दाक्षिणात्य मत के निबन्ध ग्रन्थो का अध्ययन कर रुद्रयामल, शाबर तन्त्र आदि का खण्डन कर  कमलाकर भट्ट ने सम्पूर्ण भारत में लगभग सर्वमान्य निबन्ध ग्रन्थ निर्णय सिन्धु की रचना की। निर्णय सिन्धु के निर्णयों के आधार पर काशीनाथ नें धर्मसिंधु ग्रन्थ रचा,ये ग्रन्थ अधिकांश भारत में ही सर्वाधिक स्वीकार्य हैं।* 

फिर भी गोड़मत मानने वाले , राजस्थान, और उत्तरप्रदेश, बिहार, और बङ्गाल- उड़िसा पूर्व भारत में कुछ मामलों में ये ग्रन्थ स्वीकार नही किए जाते। ऐसे ही  कुछ दाक्षिणात्य मतावलम्बी आचार्य भी इसे पूर्णतः स्वीकार नहीं करते। मैथिली मतावलंबियों के भी अपनी नीजी परम्परा प्रचलित है।
जैसे ---  गोड़मत में वटसावित्री अमावस्या तो निर्णय सिन्धु में वट सावित्री पूर्णिमा।
नाग पञ्चमी -- गोड़ मत में अमान्त आषाढ़ पूर्णिमान्त श्रावण कृष्ण पञमी को और निर्णय सिन्धु में श्रावण शुक्ल पञ्चमी को मनाते हैं।

इसके अलावा वैष्णवों के निम्बार्क सम्प्रदाय, भास्कराचार्य का सम्प्रदाय, रामानुजन सम्प्रदाय इसमें भी स्वामीनारायण सम्प्रदाय, रामानन्द सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदाय (पुष्टि मत), श्रीकृष्ण चेतन्य महाप्रभु का गोड़िय सम्प्रदाय,  (इसमें भी इस्कान), मध्व सम्प्रदाय आदि वैष्णव सम्प्रदाय, सौर सम्प्रदाय, शैव सम्प्रदाय, पाशुपत सम्प्रदाय,  शाक्त सम्प्रदाय में तो बहुत से पन्थ हैं।  नाथ सम्प्रदाय,सतनामी सम्प्रदाय,लिङ्गायत सम्प्रदाय, उदासीन सम्प्रदाय, दशनामी सम्प्रदाय, कबीर पन्थी, नानक पन्थी, निरंकारी पन्थ, राधास्वामी सम्प्रदाय, खालसा पन्थ सबकी अपनी अपनी अलग-अलग परम्पराएँ हैं। उनके निर्णय उनके मत/ पन्थ/ सम्प्रदाय/ आम्नाय  और आगम ग्रन्थों / शास्त्रों के आधार पर ही होता है। सब एक दूसरे से अलग अपना मत ही सही मानते हैं।
इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, और ग्रह्यसुत्रों तथा स्मृतियों तक नियम रहा कि, 
१  व्रत, पर्व, उत्सव उस दिन मनाया जाए जिस दिन सम्बन्धित व्रत, पर्व उत्सव के मुख्य पर्व काल के समय सम्बन्धित तिथि रहे। और
२ व्रत समाप्ति के बाद (व्रत के दुसरे दिन) अगली तिथि में ही पारण करनें (भोजन करनें) पर ही व्रत पूर्ण माना जाता है।
अतः स्मार्त जन अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद अष्टमी को उस दिन जन्माष्टमी मनाते हैं
१  जिस दिन मध्यरात्रि के समय अष्टमी तिथि हो।
२ यदि महानिशिथ काल (मध्यरात्रि से २४ मिनट पहले से मध्यरात्रि के २४ मिनट बाद तक) अष्टमी दो दिन हो तो नवमी युक्त अष्टमी उदीयात् अष्टमी तिथि में व्रत कर दुसरे दिन में नन्दोत्सव कर पारण करते हैं।
या 
३ दोनो दिन महानिशिथ काल में अष्टमी तिथि न हो तो नवमी युक्त अष्टमी उदीयात् अष्टमी तिथि में व्रत कर दुसरे दिन नवमी में नन्दोत्सव कर पारण करते हैं।
जबकि, निम्बार्क सम्प्रदाय, और रामानुजन सम्प्रदाय के लिए अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद अष्टमी के साथ सूर्योदय के समय रोहिणी नक्षत्र में चन्द्रमा होना आवश्यक है।
वल्लभ सम्प्रदाय के लिए भी सूर्योदय के समय अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद अष्टमी होनें का ही महत्व है।
स्मार्त जन एकादशी के दुसरे दिन द्वादशी तिथि में ही पारण करना (भोजन करना) आवश्यक मानते हैं। उनके लिए सूर्योदय के समय एकादशी तिथि होना आवश्यक नही है।
जबकि,

१ दशमी तिथि सूर्योदय से ५६ घटि (२२ घण्टे २४ मिनट) तक या ५६ घटि के बाद तक रहकर उसके बाद एकादशी लगे तो पौराणिक वैष्णव द्वादशी तिथि में एकादशी नामक व्रत करते हैं। 

२ दशमी तिथि सूर्योदय से ५५ घटि (२२ घण्टे) तक या ५५ घटि के बाद तक रहकर उसके बाद एकादशी लगे तो रामानुजन सम्प्रदाय और वल्लभ सम्प्रदाय, और मध्व सम्प्रदाय वाले द्वादशी तिथि में एकादशी नामक व्रत करते हैं। 

३ दशमी तिथि मध्यरात्रि तक या मध्यरात्रि के बाद तक रहकर उसके बाद एकादशी लगे तो निम्बार्क सम्प्रदाय वाले द्वादशी तिथि में एकादशी नामक व्रत करते हैं। 

इस कारण प्रति वर्ष सभी व्रत, पर्व उत्सव दो- दो या तीन अलग अलग दिन मनाए जाते हैं।
इससे सनातन वैदिक धर्म बदनाम होता है।
अन्य मतावलंबियों के व्रत पर्व उत्सव उनके शास्त्रों में दिये गये निर्देशों से निर्धारित होते हैं।
यहुदियों और ईसाइयों के व्रत पर्व उत्सव यहुदी केलेण्डर के आधार पर बाईबल पुराना नियम  में उल्लेखित ऐतिहासिक घटनाओं कई तिथियों कै मनाते हैं। और नया नियम के अनुसार यीशु से सम्बन्धित व्रत उत्सव ईसाई मनाते है़।
इस्लामिक व्रत उत्सव इस्लामी चान्द्र केलेण्डर से कुरान और हदीसों में उल्लेखित ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों के आधार पर मनाते हैं।

सनातन धर्म के व्रत पर्व उत्सव पूरे भारत में एक साथ मनानें के लिए निम्नलिखितानुसार परिवर्तन हो सकता है।⤵️

वैदिक काल में तिथियाँ ही प्रचलित नही थी।
वेदों में पूर्णिमा अमावस्या, अर्ध चन्द्र दिवस के लिए अष्टका एकाष्टका नाम मिलते हैं। लेकिन  सूर्य चन्द्रमा में १२° अन्तर वाली तिथियों से इनका कोई सम्बन्ध नही है।
ऐसा कोई प्रमाण नही है कि, सूर्य और चन्द्रमा में ३५४° से ०६° तक के अन्तर को अमावस्या कहते थे, या वर्तमान प्रचलित ३४८° से ३६०° अन्तर को अमावस्या कहते थे या ००° से १२° अन्तर को अमावस्या कहते थे।
तदनुसार तो सूर्य और चन्द्रमा में ३५४° से ०६° तक के अन्तर को अमावस्या ही अधिक उचित लगता है। सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर १७४° से १८६° तक होनें कै पूर्णिमा ओर ८४° से ९६° तक अष्टमी और २६४° से २७६° तक तेवीसवीं   तिथि (कृष्णाष्टमी) मानी जाना उचित होगा। शेष कोई तिथि नहीं हो।
त्रिकोण दर्शक ११४° से १२६° तक एकादशी, २३४° से २४६° तक एक्कीसवीं तिथि (कृष्ण पक्ष की षष्टी तिथि) भी रखी जा सकती है। जो कृष्णपक्ष की एकादशी (३००° से ३१२° तक) या २९४° से ३०६°तक की तुलना में अधिक सार्थक कोण है।
जब तिथि ही नही थी तो करण का कोई अर्थ ही नही।
नक्षत्र ---
असमान भोग वाले और एक विशेष आकृति वाले क्षेत्र को नक्षत्र कहते थे। नक्षत्रों की सीमा निर्धारक आरम्भ बिन्दु और अन्तिम बिन्दु पर निर्धारित तारे रहते हैं। इसलिए भचक्र में इन वास्तविक नक्षत्र (आकृतियों) के नाक्षत्रीय (निरयन) भोगांश अलग अलग हैं। 
 नक्षत्रों में योग तारा का विशेष महत्व है।योगतारा से ग्रहों की युति वाली स्थिति का विशेष महत्व होता हैं। 
समान भोग वाले नक्षत्रों की तो कल्पना भी नहीं थी।
१३° २०' के समान भोग वाले नक्षत्र और सूर्य चन्द्र के एक समान (१२° के) अन्तर की तिथि की अवधारणा के आधार पर सूर्य और चन्द्रमा के भोगांशो के योग का सत्ताइसवाँ भाग वाले योग की अवधारणा तीनों ही निराधार  है।
इसमें सूर्य और चन्द्रमा के सायन भोगांशों के योग १८०° व्यतिपात और योग ३६०° (०००°) को वैधृतिपात योग (दोनों पात) ही उपयोगी है।
तदनुसार चन्द्र कलाओं के आधार पर बाद में तिथियों की अवधारणा बाद बनी होगी।
फिर करण और योग की अवधारणा आई । वार तो बेबीलोनिया और मिश्र की नकल मात्र है। शायद इसमें भारतीय अकल लगाई गई होती तो दशाह प्रचलित होता। यदि सप्ताह भी मानते और ग्रहों से जोड़ना होता तो १ सोम (चन्द्र), २ बुध, ३ शुक्र, ४ भूमि (या रवि), ५भौम (मंगल), ६ ब्रहस्पति (गुरु), ७ शनि का क्रम होता। 
वेदों में दशाह, सप्ताह, वासर आदि शब्द अवश्य आये हैं, लेकिन मिश्र या बेबीलोनिया वाले वारों से इनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। 
वासर और वार दोनों ही सूर्योदय से बदलते हैं और एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक रहते हैं।
रात बारह बजे Day & Date (डे और डेट) बदलते हैं, वार नहीं।

विद्वान इस सुझाव पर भी ध्यान दें।

खगोल, गणित/ एस्ट्रोनॉमी (Astronomy) के ऐसे जानकार जो १ संस्कृत व्याकरण और निरुक्त - निघण्टू और वेदज्ञ, श्रोत सुत्रों, ग्रह्यसुत्रों और धर्मसुत्रों और मीमांसा के भी जानकार हों, २ जो खगोल, गणित/ एस्ट्रोनॉमी (Astronomy) में प्रवीण हो। ३ वेदज्ञ, श्रोत सुत्रों, ग्रह्यसुत्रों और धर्मसुत्रों और मीमांसा के भी जानकार हों ऐसे लोगों की समिति बनाई जाए।
जिसमें इन सुझावों पर विचार हो।

१ नक्षत्रीय गणना में मुख्यता नक्षत्रों में सूर्य चन्द्रमा और ग्रहचार का विचार मुख्यता हो।
२ निरयन सासारम्भ को संक्रान्ति न कहते हुए नवीन नामकरण किया जाए।
३ सायन सौर संक्रान्तियों से सम्बद्ध चान्द्र मासों के नवीन नामकरण किया जावे। जिसे संख्यात्मक नाम या ऋग्वेदोक्त पवित्रादि २६ पक्षों के नामों के आधार पर नामकरण किया जाए। क्योंकि, सायन गणना में नक्षत्रों की कोई भूमिका नहीं होती।
४ सप्ताह के स्थान पर दशाह लागु किया जाए जिसमें क्रमशः
१ रविवासर  २ सोमवासर  
३ बुधवासर  ४ शुक्र वासर  
५ भूमि वासर ६ भौमवासर (मंगलवासर)
७ गुरु ब्रहस्पतिवासर  ८ शनिवासर
९ अरुणवासर १० वरुणवासर 
नाम रखे जा सकते हैं। पहले दो नाम सूर्य चन्द्र के नाम पर शेष आठ नाम ग्रहों के कक्षा क्रमानुसार रखे गए हैं।
कल्प संवत को नाक्षत्रीय सौर वर्ष मानकर अहर्गण गणना करने पर निरयन मेष मासारम्भ (निरयन मेष संक्रान्ति) दिनांक १४ अप्रैल १९९९ रविवार के दिन दशाह का प्रथम दिन रविवासर आता है।

५ उचित यही होगा कि, केवल अयन, तोयन,ऋतुएं और क्रान्ति - शर के उल्लेख स्पष्ट हैं, अतः संक्रान्ति (सायन संक्रान्ति) को ही मान्यता देना, और दो संक्रान्तियों के बीच सावन दिवस/ दिनांक, गते या गतांश/ वर्तमान अंश की अवधारणा स्वीकारी जाना उचित होगा। 
६सूर्य का माह और चन्द्रमा का नक्षत्र ( या नक्षत्र के योग तारा) के साथ चन्द्रमा होनें के आधार पर पर्व व्रतोत्स्व आदि का वर्णन भी मिलता है। जो दक्षिण भारत और नवरात्र प्रकरण में बङ्गाल क्षेत्र में आजतक प्रचलित है। यही प्रभाव श्रीकृष्ण जन्माष्टमी में भी दिखलाई देता है।

सुचना --- वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय वाले आदरणीय बापूदेव शास्त्री (नृसिंह), आदरणीय शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी, आदरणीय व्यंकटेश बापूजी केतकर द्वारा आरम्भ किया गया यह सुधार कार्यक्रम जिस दिन धर्मशास्त्री गण समझ लेंगे। उसदिन बहुत बड़ी धार्मिक क्रान्ति हो जायेगी।   
जैसे महर्षि औषस्तिपाद नें यज्ञ में आव्हान किये गये देवताओं और यज्ञ की क्रियाओं को जाने - समझे बिना यज्ञ करनें वाले होता, अर्ध्वयु, उद्गोता आदि ऋत्विजों को चुनौती देकर समर्पण करवाया था वैसे ही आज की तिथियों में  व्रत, पर्व और उत्सव मनाने की चर्चा करनें वालों को हर समझदार व्यक्ति चुनोती देकर समर्पण करवा देगा।
जैसे महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के समय कर्मकाण्ड और सामाजिक क्रान्ति हुई तथा उन्ही के शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द जी के समय असाधारण सामाजिक क्रान्ति हुई थी। वैसी ही क्रान्ति व्रत, पर्व, उत्सवों के सम्बन्ध में भी हो जायेगी। कौनसा व्रत, पर्व, उत्सव, कब और क्यों मनाते हैं यह निर्भ्रान्त समझ हर व्यक्ति को हो जायेगी ‌।

अतः अब व्रत पर्व और उत्सवों के दिन कैसे निर्धारित किये जाएँ? इसके लिए नीचे दिए गए सुझावों को वैदिक विद्वान धर्मशास्त्री आसानी से समझ सकेंगे।

 *अतः तिथियों का चक्कर छोड़ सायन सौर मास  और संक्रान्ति गते के अनुसार सभी व्रत, पर्व और उत्सव निर्धारित किये जाना उचित होगा। इसके लिए अधिकांश व्रत, पर्व उत्सवों को तो चैत्र को मधुमास, सायन मेष का सूर्य मानकर तिथी के वास्तविक अंक अर्थात कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को १६ द्वितीया को १७ मानकर अमावस्या को ३० मानकर उन्हीं अंको के संक्रान्ति गते, या गतांश मानकर व्रत, पर्व और उत्सव निर्धारित कर लिये जाएँ।

*जैसे जन्माष्टमी के लिए वर्षा ऋतु में सायन सिंह संक्रान्ति से सायन कन्या संक्रान्ति के बीच सूर्य चन्द्रमा में अन्तर २६४° से २७८° हो उस दिन जन्माष्टमी मनाई जाती है ऐसा मानकर नभस मास २३° या सायन सिंह राशि के वर्तमान अंश २३° या सायन सिंह गते २३ की मध्य रात्रि में श्रीकृष्ण जन्म मनाया जाए। ताकि, यह पर्व, उत्सव सदैव वर्षा ऋतु में ही आयेगा।

इसके अलावा 

*शरद पूर्णिमा के लिए शरद ऋतु में सप्तम- ईष मास के बीच सायन तुला से वृश्चिक संक्रान्तियों के बीच   सूर्य चन्द्रमा के बीच १७४° से १८६° अन्तर, पूर्णिमा के दिन को  निर्धारित किया जाए।* 
और 
*दीपोत्सव के लिए शरद ऋतु में अष्टम- ऊर्ज मास में सायन वृश्चिक से धनु संक्रान्तियों के बीच सूर्य चन्द्रमा के बीच ३५४° से ०६° अन्तर अमावस्या का दिन निर्धारित किया जाए। ताकि दिपोत्सव शरद ऋतु में रात्रि के अन्धकार में मनाया जा सके।* 

*जिसदिन मृगशीर्ष तारामण्डल (Orionis)(नाक्षत्रीय/ निरयन मिथुन ००° से ०१°) या व्याघ तारा (Sirius canis majoris) नाक्षत्रीय/ निरयन मिथुन २०° तारा पर भूमि हो। अर्थात सूर्य नाक्षत्रीय/ निरयन धनु ००° से ०१° के बीच हो या सूर्य नाक्षत्रीय/ निरयन धनु २०° पर होकर  व्याघ या मृगशीर्ष तारामण्डल पूर्ण रात्रि दृष्यमान हो उसदिन महाशिवरात्रि मानी जाए।*

सुचना --- 

स्थिर तो कोई भी पिण्ड नहीं है। कुछ की कोणीय गति अधिक है,  कुछ की कम है।
यह उनकी अपनी निहारिका में  स्थिति, हमारी निहारिका और फिर हमारे सूर्य से कोणीय स्थिति के आधार पर उनकी गति निर्भर होती है।
मघा और चित्रा बहुत कम खिसकते हैं। अभिजित तो बहुत अधिक खिसक गया। परिणाम स्वरूप उसे नक्षत्रों में से ही हटा दिया गया। और अट्ठारह के स्थान पर सत्ताइस नक्षत्र ही रह गये।

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