वैदिक काल में वसन्त ऋतु में पूर्णिमा के दुसरे दिन और शरद ऋतु में अमावस्या के दुसरे दिन होनें वाले इष्टि (यज्ञों) में फसलों और उपज का आवण्टन होता था जिसे यज्ञभाग आवण्टन कहते थे। जो आज भी होली पर होला - उम्बी सेकनें और नारियल की आहुति देने तथा दीपावली के दीपकों में ज्वार, गन्ना और साल (धान) की धानी के हवन के रूप में प्रचलित है।
लगभग इसी समय खलिहानों से पूरोहितों (पण्डितों/ परसाइयों) तथा नाई, कुम्भकार, ढोली, दरजी आदि सेवा क्षेत्र के शुद्रों और धोबी, बलाई (चोकिदार) तथा चरवाहों को फसल का भाग देनें की ग्रामों में प्रथा है।
प्रजापति ने रुद्रों को यज्ञभाग निषिद्ध किया था।
ऋग्वेद के अनुसार जब शंकर जी भारत में आये तब वे पशुओं के कुशल चरवाहे के रूप में रहे। पशु चिकित्सा में विशेषज्ञ थे। इसलिए उन्हें पशुपति का पदभार सोपा गया। इसी चिकित्सा प्रयोग में वे विभिन्न औषधियों पर प्रयोग करते रहते थे। शंकर जी बहुत बड़े विष विज्ञानी थे। वे नन्दीगणों और व्रातगणों के नायक बनें इसी कारण वे बहुत से विषों का प्रयोग स्वयम् पर और उनके अपने साथी व्रातगणों पर करते थे। बाद में प्रमथ गणों नें भी उन्हें अपना नायक चूना। इसलिए वे गणाधिपति कहलाये। ईरान की मीढ संस्कृति नें भी उनके गुणों को पहचान कर उन्हें पूज्य घोषित किया।
उनकी हीमेन पर्सनेलिटी, नङ्ग-धड़ङ्ग घूमनें और दृविड़ क्षेत्र के ऋषियों की पत्नियों के उनके प्रति आकर्षित होनें के कारण वैदिक ऋषिगण उनके विरोधी थे। लेकिन दधीचि,अत्रि, आदि कुछ ऋषि और भरत मुनि उनके भक्त हो गये थे।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ ज्वर उत्पत्ति अध्याय २८३ पृष्ठ ५१६० और संक्षिप्त महाभारत द्वितीय खण्ड में पृष्ठ १२८० में उल्लेखित दक्ष यज्ञ विध्वन्स के वर्णन के अनुसार देवताओं और ऋषियों के समुह एक ही और जाते हुए देख कर पार्वती जी के पुछनें पर शंकरजी ने पार्वती जी को बतलाया कि, आपके पिता श्री दक्ष द्वितीय (हरिद्वार के निकट) कनखल में यज्ञ कर रहे हैं, उसमें सम्मिलित होनें देवगण और ऋषिगण जा रहे हैं। तब पार्वती जी द्वारा उन्हें न बुलाए जाने पर आपत्ति उठानें पर यज्ञ में उन्हें न बुलानें का कारण शंकर जी नें ही पार्वती जी को बतलया कि, सृष्टि आरम्भ में प्रजाओं को रचकर ब्रह्मा जी नें नियम बनाया था कि, रुद्र को यज्ञ भाग नही मिलेगा। अतः दक्ष प्रजापति (द्वितीय) ने मुझे नही बुलाया इसमें उनका किञ्चित भी दोष नही है।
लेकिन पार्वती जी रुष्ट होकर विरोध प्रकट करनें जानें लगी तो शंकरजी भी साथ में गये। पार्वती को तुष्ट करनें के लिए शंकरजी नें वीरभद्र और भद्रकाली को सैना सहित आव्हान किया और उन्हें दक्षयज्ञ विध्वन्स का आदेश दिया। यह उत्पात देख और दधीचि आदि कुछ ऋषियों द्वारा रुद्र के समर्थन में आनें पर ब्रह्मा जी द्वारा रुद्र को भी यज्ञभाग देनें का नियम घोषित करनें के बाद में सन्तुष्ट हो शंकर पार्वती सहर्ष कैलाश पर वापस लौट आये।
न कहीँ सती के आत्मदाह का वर्णन है न सती के शव के इक्कावन टुकड़े करनें का वर्णन है। न सती का पुनर्जन्म होकर हिमाचल -मैना पुत्री पार्वती के रूप में जन्मने का। बल्कि सती और पार्वती एक ही के दो नाम बतलाये हैं।
तब से शंकरजी की पूजा होनें लगी।
वे विष विज्ञानी होनें के नाते विषैले जीव जन्तु पालते थे,उनसे डसवाकर चिकित्सा कर ठीक होनें का प्रयोग करते, इसलिए थोड़ा थोड़ा विष लेते रहते थे। ताकि, विषाक्तता का अचानक दुष्प्रभाव न हो। यही उनके गांजा - भांग , धतुरा सेवन का रहस्य है। आज के विष विज्ञानी भी ऐसे प्रयोग करते हैं। कुछ स्वयम् पर भी करते हैं कुछ केवल वालेण्टियरों पर ही करते हैं।
उनकी नकल में भक्तों द्वारा भांग - गांजा प्रयोग मुर्खतापूर्ण कृत्य है।
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