भारत पर विदेशी आक्रमणों का इतिहास और भारतियों का आक्रमणकारियों को सहयोग का इतिहास
भारत पर अधिकांश आक्रमण तुर्किस्तान के तुर्क लोगों ने ही किया। चाहे वे सीधे तुर्किस्तान से आए हों या पहले अफगानिस्तान में बस कर फिर भारत आये हों या तेमुरलङ्ग पहले उज़्बेकिस्तान में बसा फिर भारत आया।
शक, कुशाण, हूण, मुहम्मद गजनवी, मुहम्मद घोरी, जलालुद्दीन खिलजी, गयासुद्दीन तुगलक हो, या सैय्यद खिज्रखाँ हो,या तेमुरलङ्ग हो, या अफगानिस्तान का बहलोल लोधी हो या अफगानिस्तान से आया बाबर हो सभी मूलतः तुर्किस्तान के तुर्क ही थे।
केवल, हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, बाली,और ज़रथ्रुष्ट, मुहम्मद बिन कासिम, अफगानिस्तान पर आक्रमण करने वाला याकुब एलस ईराक के थे। चङ्गेज खाँ मङ्गोलिया का था और युरोपीय जातियाँ तुर्क नही थी।
इसी प्रकार दक्षिण भारत के बहमनी वंश और निजाम तथा टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में अभी स्पष्ट जानकारी प्राप्त नही हुई है।
इसी कारण हमारे भक्तिकाल के कबीर दास जी, नानक देव जी, रामानन्दाचार्य जी, सूरदास जी, तुलसीदास जी सबने इस्लामी आक्रान्ताओ को तुर्क ही कहा है।
भारत और वैदिक धर्म के पतन का इतिहास कश्यप ऋषि द्वारा महर्षि कश्यप सागर तट पर तपस्या के दौरान मेसोपोटामिया क्षेत्र में विभिन्न जातियों को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के साथ ही आरम्भ हुआ।
जाने के पहले आदित्यों को तिब्बत से कश्मीर तक का भाग सोप गये थे। यहीँ से विवाद आरम्भ हुआ। सर्वप्रथम कद्रु और विनिता के विवाद में परास्त गरुड़ और अरुण ने आदित्यों की शरण ली। फिर शेषनाग ने। पिछे पिछे वासुकी ने आकर कश्मीर में अधिकार कर लिया। फिर वैवस्वत वंशी सूर्य वंशियों को मनुर्भरतों ने अयोध्या में बहाया। तो चन्द्र वंशियों ने दिवोदास पर आक्रमण कर दिया। यह युद्ध शतवर्षीय युद्ध कहलाता है।
इस बीच हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के आतंकी हमले हुए। और फिर बली ने भारत पर आक्रमण कर केरल में प्रभुत्व स्थापित किया।
माली-सुमाली ने रावण के माध्यम से लक्ष्यद्वीप, सिंहल द्वीप मालदीव, तथा महाराष्ट्र और नर्मदा के दक्षिण तट तक प्रभाव स्थापित कर लिया।
बली का केरल पर शासन--- बलि को वामन द्वारा भारत से निष्कासित कर बोलिविया भेजने पर बलि अपनी सेना सहित सिन्ध, बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, होते हुए लेबनान पहूँचा। लेबनान में फोनिशिया बसा कर लेबनान से दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के बोलिविया में बसा। इस बीच उसके कुछ सैनिक तुर्किस्तान में ही बस गये। इनलोगों ने आदित्यों को तिब्बत में खदेड़ दिया। और तुर्किस्तान पर अधिकार कर लिया। ये ही लोग वर्तमान में उइगर मुसलमान कहलाते हैं।
बाद में इन्हीं के वंशज शक, हूण, मंगोल, और मुस्लिमों के रूप में अफगानिस्तान होते हुए भारत पर बारम्बार आक्रमण करते रहे।
बाद में इन्हीं के वंशज शक, हूण, मंगोल, और मुस्लिमों के रूप में अफगानिस्तान होते हुए भारत पर बारम्बार आक्रमण करते रहे।
अफ्रीका के माली-सुमाली का लक्ष्यद्वीप पर (कुबेर की लङ्का पर रावण के साथ आक्रमण)। लगभग ८,६६,१०० ई,पू.।
ईराक का ईरान पर ज़रथ्रुष्ट द्वारा बौद्धिक हमला। ३२०० ई.पू.। कुछ लोग ३५०० ई.पू. लिखते हैं। लेकिन पारसी ग्रन्थों (शायद गाथा) में उल्लेख है कि, कृष्ण द्वेपायन व्यास जी भारत से ईरान गये थे। वहां ज़रथ्रुष्ट से वेदव्यास जी की चर्चा/ वार्ता हुई थी। और वेदव्यास जी भगवान श्रीकृष्ण एक साथ थे। श्रीकृष्ण के गोलोक गमन से कलियुग आरम्भ माना जाता है। कलियुग ३१०० ई.पू. में आरम्भ हुआ। अतः वेदव्यास जी को अधिकतम ३२००ई.पू. माना जा सकता ।
ईरान पर ईराक की असूर संस्कृति का प्रभाव--- आज से लगभग ५२०० वर्ष पहले में ईराक के अश्शुर प्रान्त की ओर से आये असूर भक्त ज़रथ्रुष्ट ने मग संस्कृति समाप्त कर मीढ संस्कृति को साथ लेकर पारसी धर्म चलाया। मगो ने भारत में शरण लेकर सौर सम्प्रदाय चलाया। जिनमें कुछ कश्मीर, रास्थान गुजरात, महाराष्ट्र और उड़ीसा में बसे।
यमन के कालयमन का मथुरा पर *असफल आक्रमण* ।३२०० ई.पू.
फिर कन्स के सहयोग से कालयमन का हस्तक्षेप भारत में हुआ जिसे श्री कृष्ण ने कूटनीतिक तरीके से समाप्त किया।
ईरानी पारसी कुरूष (सायरस) का आक्रमण --- ५५० ई.पू. में ईरान के पारसी सम्राट सायरस (कुरूष) ने भारत पर आक्रमण कर विदेशी आक्रमणकारियों का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
युनानी अलेक्ज़ेंडर (सिकन्दर) का आक्रमण -- इसके बाद अगला आक्रमण ३२६ ई.पू. में सिकन्दर (अलेक्ज़ेंडर) ने किया। उसने ईरान, अफगानिस्तान, बलुचिस्तान, सिन्ध और पञ्जाब तक आक्रमण किया।
उसी के प्रतिनिधि/ राज्यपाल डेमिट्रियस ने ई.पू. १८३ में पञ्जाब पर आक्रमण कर विजित किया साकल को राजधानी बनाया। युक्रेटीदस ने तक्षशिला को राजधानी बनाया।
मिनेण्डर ने डेमिट्रियस के सहयोग से वृहद्रथ को हराकर सिन्धु नदी पार तक कब्जा कर लिया।बाद में बौद्ध दिक्षा लेकर मिलिन्द नाम धारण किया। उसने अपनी सीमा स्वात घाटी से मथुरा तक विस्तार कर ली।
शक आक्रमण - अधिकांश इतिहासकार शक, कुषाण , युइशि और हूण सभी को वर्तमान चीन के तुर्किस्तान में तकला-मकान मरुभूमि, झींगझियांग प्रान्त के निवासी मानते हैं। जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं। तदनुसार -
शक वर्तमान चीन के पूर्वी तुर्किस्तान के झींगझियांग प्रान्त के निवासी थे जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं।
शको ने बैक्टीया से होते हुए ईरानी साम्राज्य पार्थिया के मिथिदातस से से हार कर हुए अफगानिस्तान में प्रवेश किया और विजित किया । उनका काल १२३ ई.पू. से २०० ईस्वी तक माना गया है।
भारत में युनानी साम्राज्य के कमजोर प्रान्तो पर शकों ने आक्रमण कर जीता। सिन्धु नदी के तट पर मीन नगर को राजधानी बनाया।
जैन जनश्रुति के अनुसार सोनखच्छ के पास गन्धर्व नगरी के राजा गन्धर्वसेन थे जिनके पुत्र भृतहरि और विक्रमादित्य थे। गन्धर्वसेन वैष्णव थे। इस कारण उज्जैन निवासी जैनाचार्य कालक ने काबुल अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर शकराज को गन्धर्वसेन पर आक्रमण करने हेतु प्रेरित और आमन्त्रित किया। उनने शिकार पर वन में गये गन्धर्वसेन को अकेले पाकर गन्धर्वसेन की नृशन्स हत्या कर दी। लेकिन विक्रमादित्य नें शकों को परास्त कर वापस खदेड़ दिया।
बाद में पुनः शकों ने गान्धार से आकर पहले सिन्ध विजय किया फिर सौराष्ट्र विजय कर फिर मथुरा विजय की। फिर शक राज चष्टान ने अवन्तिका पर आक्रमण कर विजय किया। शकों ने महाराष्ट्र के बहुत बड़े भूभाग को सातवाहनों से जीता। उस समय तमिलनाड़ू मे पाण्ड्य शासक थे।
चष्टान ने अपने अभिलेख मे शक संवत का उल्लेख किया है। सम्भवतः ७८ ईस्वी में चष्टान ने ही भारत में शकाब्द / शक संवत चलाया होगा।
उज्जैन का प्रमुख क्षत्रप रुद्रदामा १३० ईसवी से १५० ईस्वी तक था। तदनुसार मालवा में शक शासन १३० ईस्वी से ३८८ ईस्वी तक रहा। गुप्त वंशीय चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने शकों पुनः हराया।
कुषाण आक्रमण - (६० ईस्वी से २४० ईस्वी) -अधिकांश इतिहासकार शक, कुषाण , युइशि और हूण सभी को वर्तमान चीन के तुर्किस्तान में तकला-मकान मरुभूमि, झींगझियांग प्रान्त के निवासी मानते हैं। जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं।
भारतीय इतिहासकार कुष्माण्डा जाति के मानते हैं। कुषाण भी चीन के पूर्वी तुर्किस्तान के झींगझियांग प्रान्त के ही निवासी थे जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं। कुसान इनका आदि पुरुष था जिनके नाम पर ये कुषाण कहलाये।
कुषाण भी शकों के ही पद चिन्हों पर चल कर बैक्टीया से होते हुए ईरानी साम्राज्य पार्थिया होते हुए अफगानिस्तान में प्रवेश किया कन्धार और काबुल को जीतकर और काबुल को राजधानी बनाया ।
कुजल कडफाइसिस ने ईरानी पारसी पल्लहवों को हराकर भारत के उत्तर उत्तर पश्चिमी सीमा पर कब्जा किया। बाद में पश्चिमी पञ्जाब तक सीमा विस्तार कर लिया। कुजल के पुत्र विम तक्षम ने शुङ्ग वंशियों राजा को हराकर मथुरा तक विस्तार कर लिया। कनिष्क (१२७ ईस्वी से १४० ईस्वी तक) ने काबुल, पेशावर और मथुरा को क्षत्रप क्षेत्र घोषित किया। इसका शासन कश्मीर, पूर्व में सारनाथ (वाराणसी) तक था। कनिष्क की मृत्यु १५१ ईस्वी में हुई।
कुषाण वंश में कुजल, विम कडफाइसिस, कनिष्क प्रथम, वशिष्क , कनिष्क तृतीय, वासुदेव कुषाण द्वितीय प्रमुख राजा हुए।
हूण आक्रमण - हूण भी उत्तरी चीन के चीन के पूर्वी तुर्किस्तान के तकला-मकान मरुभूमि, झींगझियांग प्रान्त (जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं) की उत्तरी सीमा से लगे मंगोलिया से आये थे।
फारस के बादशाह बहराम गोर ने सन् ४२५ ई॰ में हूणों को पूर्ण रूप से परास्त करके वंक्षु नद के उस पार भगा दिया।
बहराम गोर के पौत्र फीरोज के समय में हूणों का प्रभाव फारस में बढ़ा। वे धीरे-धीरे फारसी सभ्यता ग्रहण कर चुके थे और अपने नाम आदि फारसी ढंग के रखने लगे थे। फीरोज को हरानेवाले हूण बादशाह का नाम खुशनेवाज था।
हूणों के राजा तोरणमल ने गांधार (अफगानिस्तान) भारतवर्ष मे सीमान्त प्रदेश कपिश (पेशावर - पाकिस्तान) पर अधिकार किया, फिर उज्जैन (मालवा मध्यदेश) की ओर चढ़ाई पर चढ़ाई करने लगे।
गुप्त सम्राट कुमारगुप्त इन्हीं चढ़ाइयों में मारे गये। इन चढ़ाइयों से तत्कालीन गुप्त साम्राज्य निर्बल पड़ने लगा। कुमारगुप्त के पुत्र महाराज स्कंदगुप्त बड़ी योग्यता और वीरता से जीवन भर हूणों से लड़ते रहे। फिर भी सन् ४५७ ई॰ तक मगध पर स्कंदगुप्त का अधिकार रहा।
सन् ४६५ के उपरान्त तोरणमल के नेतृत्व में हुण प्रबल पड़ने लगे और अन्त में स्कंदगुप्त हूणों के साथ युद्ध करने में मारे गए ।
सन् ४९९ ई॰ में हूणों के प्रतापी राजा तुरमान शाह (संस्कृत : तोरमाण) ने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर पूर्ण अधिकार कर लिया। इस प्रकार गांधार, काश्मीर, पंजाब, राजपूताना, मालवा और काठियावाड़ उसके शासन में आए।
तुरमान शाह या तोरमाण का पुत्र मिहिरगुल (संस्कृत : मिहिरकुल) बड़ा ही अत्याचारी और निर्दय हुआ। पहले वह बौद्ध था, पर पीछे कट्टर शैव हुआ।
यशोवर्धन
गुप्तवंशीय नरसिंहगुप्त और मालव के राजा यशोधर्मन् और बालादित्य नें ५२८ ईस्वी में मिहिरकुल को परास्त कर दिया। उसने सन् ५३२ ई॰ मे गहरी हार खाई और अपना इधर का सारा राज्य छोड़कर वह काश्मीर भाग गया। इस प्रकार भारत से हूणों के शासन का अन्त हुआ। लेकिन वे भारतियों में ही घुल मिल गए और यहीँ के होकर रह गये।
कुछ इतिहासकार हूणो को बंजारों के पूर्वज मानते हैं।
हूणों में ये ही दो सम्राट् उल्लेख योग्य हुए। हूण लोग कुछ और प्राचीन जातियों के समान धीरे-धीरे भारतीय सभ्यता में मिल गए ।
यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों का नेता अट्टिला (Attila) था।
भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों को श्वेत हूण तथा यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों को अश्वेत हूण कहा गया।
भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों के नेता क्रमशः तोरमाण व मिहिरकुल थे।
हूणों ने मथुरा प्रान्त में वैष्णव, बौद्ध और जैन मन्दिरों/ स्तुपों को लूटा एवम् भयंकर तोड़फोड़ की। बाद में ये शैव होगये। और भारतीय होकर ही रह गये।
भारत में हूणों के मुख्य राजा मिहिरकुल और तोरणमल दो ही राजा थे।
इस्लामी आक्रमण -
अरब - इराकी मुस्लिम आक्रमण -
मोह मद पेगम्बर की गजवा ए हिन्द की अवधारणा को साकार करने के लिए ६३८ से ७११ के बीच ७४ वर्षों में ९ खलिफाओं के आदेश पर १५ बार सिन्ध पर आक्रमण किये गये
अन्त में ईराक के शासक अल हज्जाम के भतिजे और दामाद मूहमद बीन कासिम ने खलिफा के आदेश पर पहले बलुचिस्तान विजय कर ७११-७१२ ईस्वी मे सिन्ध के ब्राह्मण राजा दाहिरसेन पर आक्रमण किया। दाहिरसेन की नृशन्सता पूर्वक हत्या कर उसकी पुत्रियों की बन्दी बना कर खलिफा को भेंट कर दिया। फिर पञ्जाब और मुल्तान विजय किया।
७१४ईस्वी में इराक के शासक हज्जात की मृत्यु हो गई और ७१५ ईस्वी में खलिफा की भी मृत्यु हो गई। इस कारण मुहमद बिन कासिम को वापस इराक बुला लिया गया। बिन कासिम के लौटते ही भारतीय राजाओं ने अधिकांश क्षेत्रों में वापस अधिकार कर लिया। किन्तु खलिफा के प्रतिनिधि जुनैद ने सिन्ध पर अधिकार जमाए रखा। उसने कई बार आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण किया। लेकिन नागभट्ट प्रथम,पुलकेशी प्रथम और चालुक्य शासक यशोवर्मन ने इसे वापस लौटने को विवश कर दिया।
इतनें आक्रमण झेलने के बावजूद भी ईस्वी की सातवीं शताब्दी में ईरान, अफगानिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के कुछ भागों में ईरानी पारसियों का शासन था और शेष भाग में भारतीय सनातन वैदिक राजा शासन करते थे। सनातन वैदिक धर्मी शासक को अफगानिस्तान में काबुलशाह, महाराज धर्मपति कहा जाता था यहाँ का राजधर्म वैदिक सनातन धर्म और बौद्ध धर्म था। सनातन वैदिक धर्मी राजाओं में प्रमुख कल्लार, सामन्तदेव, भीम,अष्टपाल, जयपाल, आनन्दपाल, त्रिलोचनपाल और भीम पाल उल्लेखनीय है।
८७० ईस्वी में अरब सेनापति याकुब एलेस ने अफगानिस्तान को विजय कर अत्यधिक मारकाट और बलात्कार कर अफगानिस्तान में धर्मपरिवर्तन कराकर सनातन धर्मियों और बौद्धों को मुस्लिम बनाना आरम्भ किया। अन्त में १०१९ में महमूद गजनी नें त्रिलोचन पाल को हराकर कपिशा को छोड़ शेष अफगानिस्तान का इस्लामीकरण कर दिया। १८५९ में स्वतन्त्र देश कपिशा को काबुल के शासक ने विजय कर वहाँ के सनातन वैदिक धर्मियों को मारकाट बलात्कार कर जबरन मुस्लमान बनाया। १८८५- ८६ के बाद ही युरोपीयन लोगों के संज्ञान में यह क्षेत्र आया तब १८९६ में अफगानिस्तान के शासक अब्दिर रहमान खान ने इस क्षेत्र का नाम नूरिस्तान कर दिया।
इन काबुलशाही राजाओं ने लगभग 350 साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिन्धु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया, लेकिन 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किए और 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद यहां के हिन्दू और बौद्धों का जबरन धर्मांतरण अभियान शुरू हुआ।
1019 में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटी खा गया। काफिरिस्तान (नुरीस्तान) को छोड़कर सारे अफगानी लोग मुसलमान बन गए।
714 ईस्वी में हज्जाज की और 715 ई. में मुस्लिम खलीफा की मृत्यु के उपरांत मुहम्मद बिन कासिम को वापस बुला लिया गया। कासिम के जाने के बाद बहुत से क्षेत्रों पर फिर से भारतीय राजाओं ने अपना अधिकार जमा लिया, परंतु सिन्ध के राज्यपाल जुनैद ने सिन्ध और आसपास के क्षेत्रों में इस्लामिक शासन को जमाए रखा।
जुनैद ने कई बार भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण किए लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। नागभट्ट प्रथम, पुलकेशी प्रथम एवं यशोवर्मन (चालुक्य) ने इसे वापस खदेड़ दिया।
तुर्क आक्रमण --
मुहमद गजनवी (977 से) --
अरबों के बाद तुर्कों ने भारत पर आक्रमण किया। अलप्तगीन नामक एक तुर्क सरदार ने गजनी में तुर्क साम्राज्य की स्थापना की। 977 ई. में अलप्तगीन के दामाद सुबुक्तगीन ने गजनी पर शासन किया। सुबुक्तगीन ने मरने से पहले कई लड़ाइयां लड़ते हुए अपने राज्य की सीमाएं अफगानिस्तान, खुरासान, बल्ख एवं पश्चिमोत्तर भारत तक फैला ली थीं। सुबुक्तगीन की मुत्यु के बाद उसका पुत्र महमूद गजनवी गजनी की गद्दी पर बैठा। महमूद गजनवी ने बगदाद के खलीफा के आदेशानुसार भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण करना शुरू किए।
इस्लाम के विस्तार और धन, सोना तथा स्त्री प्राप्ति के उद्देश्य से उसने भारत पर 1001 से 1026 ई. के बीच 17 बार आक्रमण किए।
गजनवी के आक्रमण के समय भारत में अन्य हिस्सों पर राजपूत राजाओं का शासन था।
10वीं शताब्दी ई. के अंत तक भारत अपने पश्चिमोत्तर क्षेत्र जाबुलिस्तान तथा अफगानिस्तान खो चुका था। 999 ई. में जब महमूद गजनवी सिंहासन पर बैठा, तो उसने प्रत्येक वर्ष भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण करने की प्रतिज्ञा की।
महमूद गजनवी के आक्रमण के समय पंजाब एवं काबुल में हिन्दूशाही वंश का शासन था। कश्मीर की शासिका रानी दिद्दा थीं। दिद्दा की मुत्यु के बाद संग्रामराज गद्दी पर बैठा।
सिन्ध पर पहले से ही अरबों का राज था। मुल्तान पर शिया मुसलमानों का राज था।
कन्नौज में प्रतिहार, बंगाल में पाल वंश, दिल्ली में तोमर राजपूतों, मालवा में परमार वंश, गुजरात में चालुक्य वंश, बुंदेलखंड में चंदेल वंश, दक्षिण में चोल वंश का शासन था।
महमूद गजनवी के 17 आक्रमण --
दूसरे आक्रमण में महमूद ने जयपाल को हराया। जयपाल के पौत्र सुखपाल ने इस्लाम कबूल कर लिया। 4थे आक्रमण में भटिंडा के शासक आनंदपाल को पराजित किया। 5वें आक्रमण में पंजाब फतह और फिर पंजाब में सुखपाल को नियुक्त किया, तब उसे (सुखपाल को) नौशाशाह कहा जाने लगा। 6ठे और 7वें आक्रमण में नगरकोट और अलवर राज्य के नारायणपुर पर विजय प्राप्त की। आनंदपाल को हराया, जो वहां से भाग गया।
आनंदपाल ने नंदशाह को अपनी नई राजधानी बनाया तो वहां पर भी गजनवी ने आक्रमण किया। 10वां आक्रमण नंदशाह पर था। उस वक्त वहां का राजा त्रिलोचन पाल था। त्रिलोचनपाल ने वहां से भागकर कश्मीर में शरण ली। नंदशाह पर तुर्कों ने खूब लूटपाट ही नहीं की बल्कि यहां की महिलाओं का हरण भी किया। महमूद ने 11वां आक्रमण कश्मीर पर किया, जहां का राजा भीमपाल और त्रिलोचन पाल था।
इसके बाद महमूद ने कन्नौज पर आक्रमण किया। उसने बुलंदशहर के शासक हरदत्त को पराजित किया। अपने 13वें अभियान में गजनवी ने बुंदेलखंड, किरात तथा लोहकोट आदि को जीत लिया। 14वां आक्रमण ग्वालियर तथा कालिंजर पर किया। अपने 15वें आक्रमण में उसने लोदोर्ग (जैसलमेर), चिकलोदर (गुजरात) तथा अन्हिलवाड़ (गुजरात) पर आक्रमण कर वहां खूब लूटपाट की।
महमूद गजनवी ने अपना 16वां आक्रमण (1025 ई.) सोमनाथ पर किया। उसने वहां के प्रसिद्ध मंदिरों को तोड़ा और वहां अपार धन प्राप्त किया। इस मंदिर को लूटते समय महमूद ने लगभग 50,000 ब्राह्मणों एवं हिन्दुओं का कत्ल कर दिया।
17वां आक्रमण उसने सिन्ध और मुल्तान के तटवर्ती क्षेत्रों के जाटों के पर किया। इसमें जाट पराजित हुए।
तुर्क आक्रमण --
मोहम्मद गोरी--
मोहम्मद बिन कासिम के बाद महमूद गजनवी और उसके बाद मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण कर अंधाधुंध कत्लेआम और लूटपाट मचाई। इसका पूरा नाम शिहाबुद्दीन उर्फ मुईजुद्दीन मुहम्मद गौरी था। भारत में तुर्क साम्राज्य की स्थापना करने का श्रेय मुहम्मद गौरी को ही जाता है।
गौरी गजनी और हेरात के मध्य स्थित छोटे से पहाड़ी प्रदेश गोर का शासक था। मुहम्मद गौरी ने भी भारत पर कई आक्रमण किए।
उसने पहला आक्रमण 1175 ईस्वी में मुल्तान पर किया, दूसरा आक्रमण 1178 ईस्वी में गुजरात पर किया। इसके बाद 1179-86 ईस्वी के बीच उसने पंजाब पर फतह हासिल की। इसके बाद उसने 1179 ईस्वी में पेशावर तथा 1185 ईस्वी में स्यालकोट अपने कब्जे में ले लिया। 1191 ईस्वी में उसका युद्ध पृथ्वीराज चौहान से हुआ। इस युद्ध में मुहम्मद गौरी को बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इस युद्ध में गौरी को बंधक बना लिया गया, लेकिन पृथ्वीराज चौहान ने उसे छोड़ दिया। इसे तराईन का प्रथम युद्ध कहा जाता था।
इसके बाद मुहम्मद गौरी ने अधिक ताकत के साथ पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण कर दिया। तराईन का यह द्वितीय युद्ध 1192 ईस्वी में हुआ था। अबकी बार इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान हार गए और उनको बंधक बना कर अफगानिस्तान ले गया, जहाँ उनकी हत्या कर दी गई।
पृथ्वीराज चौहान के बाद मुहम्मद गौरी ने राजपूत नरेश जयचंद्र के राज्य पर 1194 में आक्रमण कर दिया। इसे चन्दावर का युद्ध कहा जाता है जिसमें जयचंद्र को बंधक बनाकर उनकी हत्या कर दी गई।
जयचंद्र को पराजित करने के बाद मुहम्मद गौरी खुद के द्वारा फतह किए गए राज्यों की जिम्मेदारी को उसने अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप दी और वह खुद गजनी चला गया।
गुलाम वंश (1206-1290) --
1206 से 1290 ई. के मध्य 'दिल्ली सल्तनत' पर जिन तुर्क शासकों द्वारा शासन किया गया उन्हें गुलाम वंश का शासक कहा जाता है।
गुलाम वंश का प्रथम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक था। उसने 1194 ई. में अजमेर को जीतकर यहां पर स्थित जैन मंदिर एवं संस्कृत विश्वविद्यालय को नष्ट कर उनके मलबे पर क्रमशः ‘कुव्वल-उल-इस्लाम’ एवं ‘ढाई दिन का झोपड़ा’ का निर्माण करवाया। इसके अलावा उसने दिल्ली स्थित ध्रुव स्तंभ के आसपास को नक्षत्रालयों को तोड़कर बीच के स्तंभ को 'कुतुबमीनार' नाम दिया।
ऐबक ने 1202-03 ई. में बुन्देलखंड के मजबूत कालिंजर किले को जीता। 1197 से 1205 ईस्वी के मध्य ऐबक ने बंगाल एवं बिहार पर आक्रमण कर उदंडपुर, बिहार, विक्रमशिला एवं नालंदा विश्वविद्यालय पर अधिकार कर लिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक के बाद क्रमश: ये शासक हुए--
आरामशाह, इल्तुतमिश, रुकुनुद्दीन फिरोजशाह, रजिया सुल्तान, मुइजुद्दीन बहरामशाह, अलाउद्दीन मसूद, नसीरुद्दीन महमूद।
इसके बाद अन्य कई शासकों के बाद उल्लेखनीय रूप से गयासुद्दीन बलबन (1250-1290) दिल्ली का सुल्तान बना।
गुलाम राजवंश ने लगभग 84 वर्षों तक शासन किया। दिल्ली पर यह प्रथम मुस्लिम शासक था। इस वंश का संपूर्ण भारत नहीं, सिर्फ उत्तर भारत पर ही शासन था।
मंगोल आक्रमण -
चङ्गेज खाँ का आक्रमण - चंगेज़ खान का जन्म 1162 के आसपास आधुनिक मंगोलिया के उत्तरी भाग में ओनोन नदी के निकट हुआ था। 1227 में उसका निधन हो गया।
चङ्गेज खाँ जन्म से चंगेज़ ख़ान तेन्ग्री धर्म के भक्त था।
अफगानिस्तान में बौद्ध हो गया था।
पूर्वोत्तर एशिया के कई घुमंतू जनजातियों को एकजुट करके सत्ता में आया।
चीन उस समय तीन भागों में विभक्त था - उत्तर पश्चिमी प्रांत में तिब्बती मूल के सी-लिया लोग, जरचेन लोगों का चीन राजवंश जो उस समय आधुनिक बीजिंग के उत्तर वाले क्षेत्र में शासन कर रहे थे तथा शुंग राजवंश जिसके अंतर्गत दक्षिणी चीन आता था। 1209 में सी लिया लोग परास्त कर दिए गए।
चंगेज खान ने गजनी और पेशावर पर अधिकार कर लिया तथा ख्वारिज्म वंश के शासक अलाउद्दीन मुहम्मद को कैस्पियन सागर की ओर खदेड़ दिया जहाँ 1220 में अलाउद्दीन मुहम्मद की मृत्यु हो गई। अलाउद्दीन मुहम्मद का उत्तराधिकारी जलालुद्दीन मंगवर्नी हुआ जो मंगोलों के आक्रमण से भयभीत होकर गजनी चला गया। चंगेज़ खान ने उसका पीछा किया और सिन्धु नदी के तट पर उसको हरा दिया। जलालुद्दीन सिंधु नदी को पार कर भारत आ गया जहाँ उसने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश से सहायता की फरियाद रखी। लेकिन इल्तुतमिश ने शक्तिशाली चंगेज़ ख़ान के भय से उसको सहयता देने से इंकार कर दिया।
चंगेज खान ने अपना अभियान चलाकर ईरान, गजनी सहित पश्चिम भारत के काबुल, कंधार, पेशावर सहित कश्मीर पर भी अधिकार कर लिया था। इस समय चंगेज खान ने सिन्धु नदी को पार कर उत्तरी भारत और असम के रास्ते मंगोलिया वापस लौटने की सोची लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाया। इस तरह उत्तर भारत एक संभावित लूटपाट और वीभत्स उत्पात से बच गया।
इस समय चेगेज खान ने सिंधु नदी को पार कर उत्तरी भारत और असम के रास्ते मंगोलिया वापस लौटने की सोची। पर असह्य गर्मी, प्राकृतिक आवास की कठिनाईयों तथा उसके शमन निमितज्ञों द्वारा मिले अशुभ संकेतों के कारण वो जलालुद्दीन मंगवर्नी के विरुद्ध एक सैनिक टुकड़ी छोड़ कर वापस आ गया। इस तरह भारत में उसके न आने से तत्काल भारत एक संभावित लूटपाट और वीभत्स उत्पात से बच गया।
चंगेज खान की मृत्यु से पहले, उसने ओगदेई खान को अपना उत्तराधिकारी बनाया और अपने बेटों और पोते के बीच अपने साम्राज्य को खानतों में बांट दिया। 1227 में उसका निधन हो गया।
खिलजी आक्रमण-- (1290-1320 ई.)
गुलाम वंश के बाद दिल्ली पर खिलजी वंश के शासन की शुरुआत हुई। इस वंश या शासन की शुरुआत जलालुद्दीन खिलजी ने की थी। खिलजी कबीला मूलत: तुर्किस्तान से आकर अफगानिस्तान में बसा था।
जलालुद्दीन खिलजी प्रारंभ में गुलाम वंश की सेना का एक सैनिक था। गुलाम वंश के अंतिम कमजोर बादशाह कैकुबाद के पतन के बाद एक गुट के सहयोग से यह गद्दी पर बैठा।
जलालुद्दीन के भतीजे जूना खां ने दक्कन के राज्य पर चढ़ाई करके एलिचपुर और उसके खजाने को लूट लिया और फिर 1296 में वापस लौटकर उसने अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर दी और स्वयं सुल्तान बन बैठा।
जूना खां ने 'अलाउद्दीन खिलजी' की उपाधि धारण कर 20 वर्ष तक शासन किया।
इस शासन के दौरान उसने आए दिन होने वाले मंगोल (मुगल) आक्रमणों का मुंहतोड़ जवाब दिया।
इसी 20 वर्ष के शासन में उसने रणथम्भौर, चित्तौड़ और मांडू के किलों पर कब्जा कर लिया था और देवगिरि के समृद्ध हिन्दू राज्यों को तहस-नहस कर अपने राज्य में मिला लिया था।
जलालुद्दीन खिलजी के बाद दिल्ली पर इन्होंने क्रमश: शासन किया- अलाउद्दीन खिलजी, शिहाबुद्दीन उमर खिलजी और कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी। इसके अलावा मालवा के खिलजी वंश का द्वितीय सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी भी खिलजी वंश का था जिसने मरने के पहले ही अपने पुत्र को गद्दी पर बैठा दिया था।
अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने 1308 ईस्वी में दक्षिण भारत पर आक्रमण कर होयसल वंश को उखाड़ मदुरै पर अधिकार कर लिया।
3 वर्ष बाद मलिक काफूर दिल्ली लौटा तो उसके बाद अपार लूट का माल था। 1316 ई. के आरंभ में सुल्तान की मृत्यु हो गई। अंतिम खिलजी शासक कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी की उसके प्रधानमंत्री खुसरो खां ने 1320 ईस्वी में हत्या कर दी।
बाद में तुगलक वंश के प्रथम शासक गयासुद्दीन तुगलक ने खुसरो खां से गद्दी छीन ली।
तुगलक आक्रमण --
खिलजी वंश के बाद दिल्ली सल्तनत तुगलक वंश के अधीन आ गई। गयासुद्दीन तुगलक 'गाजी' सुल्तान बनने से पहले कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी के शासनकाल में उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत का शक्तिशाली गवर्नर नियुक्त हुआ था। उसे 'गाजी' की उपाधि मिली थी। गाजी की उपाधि उसे ही मिलती है, जो काफिरों का वध करने वाला होता है।
खिलजी की तरह तुगलक वंश के शासकों ने भी गुलाम, दिल्ली सहित उत्तर और मध्यभारत के कुछ क्षेत्रों पर राज्य किया जिसमें क्रमश: गयासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद बिन तुगलक, फिरोजशाह तुगलक, नसरत शाह तुगलक और महमूद तुगलक आदि ने दिल्ली पर शासन किया। यद्यपि तुगलक 1412 तक शासन करता रहा तथापि 1399 में तैमूरलंग द्वारा दिल्ली पर आक्रमण के साथ ही तुगलक साम्राज्य का अंत माना जाना चाहिए।
इस वंश का आरंभ तुगलक वंश के अंतिम शासक महमूद तुगलक की मृत्यु के पश्चात खिज्र खां से 1414 ई. में हुआ। इस वंश के प्रमुख शासक थे- सैयद वंश (1414-1451 ईस्वी) : खिज्र खां, मुबारक शाह, मुहम्मद शाह और अलाउद्दीन आलम शाह। अंतिम सुल्तान ने 1451 ई. में बहलोल लोदी को सिंहासन समर्पित कर दिया।
तैमूरलंग का आक्रमण--
तैमूरलंग, मूूूू (लोहा,लंगड़ा) जिसे 'तैमूर', 'तिमूर' या 'तीमूर' भी कहते हैं, (8 अप्रैल 1336 – 18 फरवरी 1405) चौदहवी शताब्दी का एक शासक था जिसने तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी।
वह बरलस तुर्क खानदान में पैदा हुआ था।उनके पूर्वजो ने इस्लाम कबूल कर लिया था। अत: तैमूर भी इस्लाम का कट्टर अनुयायी हुआ।
उज़्बेकिस्तान में तैमूर को आधिकारिक तौर पर एक राष्ट्रीय नायक के रूप में मान्यता प्राप्त है। ताशकंद में उनका स्मारक अब उस स्थान पर है जहां कार्ल मार्क्स की मूर्ति कभी खड़ी थी।
सन् 1369 में समरकंद (उज़्बेकिस्तान) के मंगोल शासक के मर जाने पर उन्होंने समरकंद की गद्दी पर कब्जा कर लिया।
1380 और 1387 के बीच उन्होंने खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान और कुर्दीस्तान आदि पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन किया। 1393 में उसने बगदाद को लेकर मेसोपोटामिया पर अधिपत्य स्थापित किया।
इन विजयों से उत्साहित होकर अब उसनें भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया। जबकि अमीर और सरदार प्रारंभ में भारत जैसे दूरस्थ देश पर आक्रमण के लिये तैयार नहीं थे, लेकिन जब उसनें इस्लाम धर्म के प्रचार के हेतु भारत में प्रचलित मूर्तिपूजा का विध्वंस करना अपना पवित्र ध्येय घोषित किया, तो उसके बाद अमीर और सरदार भारत पर आक्रमण के लिये राजी हो गए।
उस समय दिल्ली की तुगलक सल्तनत फिरोजशाह के निर्बल उत्तराधिकारियों के कारण शोचनीय अवस्था में थी। भारत की इस राजनीतिक दुर्बलता ने तैमूर को भारत पर आक्रमण करने का स्वयं सुअवसर प्रदान दिया।
1398 के प्रारंभ में तैमूर ने पहले अपने एक पोते पीर मोहम्मद को भारत पर आक्रमण के लिये रवाना किया। उसने मुल्तान पर घेरा डाला और छ: महीने बाद उसपर अधिकार कर लिया।
अप्रैल 1398 में तैमूर स्वयं एक भारी सेना लेकर समरकंद से भारत के लिये रवाना हुआ और सितंबर में उन्होंने सिंधु, झेलम तथा रावी को पार किया। 13 अक्टूबर को वह मुल्तान से 70 मील उत्तर-पूरब में स्थित तुलंबा नगर पहुँचे। उसनें इस नगर को लूटा और वहाँ के बहुत से निवासियों को कत्ल किया तथा बहुतों को गुलाम बनाया। फिर मुल्तान और भटनैर पर कब्जा किया। भटनैर से वह आगे बढ़ा और मार्ग के अनेक स्थानों को जीतते और निवासियों को कत्ल तथा कैद करते हुए दिसंबर के प्रथम सप्ताह के अंत में दिल्ली के निकट पहुँच गया। यहाँ पर उसनें एक लाख हिंदू कैदियों को कत्ल करवाया।
पानीपत के पास निर्बल तुगलक सुल्तान महमूद ने 17 दिसम्बर को 40,000 पैदल 10,000 अश्वारोही और 120 हाथियों की एक विशाल सेना लेकर तैमूर का मुकाबला किया लेकिन बुरी तरह पराजित हुआ। भयभीत होकर तुगलक सुल्तान महमूद गुजरात की तरफ चला गया और उसका वजीर मल्लू इकबाल भागकर बारन में जा छिपा।
दूसरे दिन तैमूर ने दिल्ली नगर में प्रवेश किया। पाँच दिनों तक सारा शहर बुरी तरह से लूटा-खसोटा गया और उसके अभागे निवासियों की नृशंस हत्या की या बंदी बनाया गया। पीढ़ियों से संचित दिल्ली की दौलत तैमूर लूटकर समरकंद ले गया। अनेक बंदी बनाई गई औरतों और शिल्पियों को भी तैमूर अपने साथ ले गया।
तैमूर भारत से जिन कारीगरों को अपने साथ ले गया उनसे समरकंद में अनेक इमारतें बनवाईं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध 'बीबी ख़ानिम की मस्जिद' / जामा मस्जिद है।
समरक़न्द उज़बेकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा नगर ७१९ मीटर की ऊँचाई पर ज़रफ़शान नदी की उपजाऊ घाटी में स्थित है।यह तुर्की-मंगोल बादशाह तैमूर द्वारा स्थापित तैमूरी साम्राज्य की राजधानी रहा।
भारत के इतिहास में भी इस नगर का महत्व है क्योंकि बाबर इसी स्थान के शासक बनने की चेष्टा करता रहा था। बाद में जब वह विफल हो गया तो भागकर काबुल आया था जिसके बाद वो दिल्ली पर कब्ज़ा करने में कामयाब हो गया था।
समरकंद शहर के बीच रिगिस्तान नामक एक चौराहा है,जिसे'समरकन्द - संस्कृति का चौराहा' भी कहते हैं। जहाँ पर विभिन्न रंगों के पत्थरों से निर्मित कलात्मक इमारतें विद्यमान हैं।२००१ में यूनेस्को ने इस २७५० साल पुरान शहर को विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल किया। शहर की चारदीवारी के बाहर तैमूर के प्राचीन महल हैं।'बीबी ख़ानिम की मस्जिद' इस शहर की सबसे प्रसिद्ध इमारत है।
ईसापूर्व ३२९ में सिकंदर ने इस नगर का विनाश किया था। १२२१ ई. में इस नगर की रक्षा के लिए १,१०,००० आदमियों ने चंगेज़ ख़ान का मुक़ाबला किया। १३६९ ई. में तैमूर ने इसे अपना निवासस्थान बनाया। १८वीं शताब्दी के प्रारंभ में यह चीन का भाग रहा। फिर बुख़ारा के अमीर के अंतर्गत रहा और अंत में सन् १८६८ ई. में रूसी साम्राज्य का भाग बन गया।
लोदी आक्रमण-- (1451 से 1426 ईस्वी)
कई अफगान सरदारों ने पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी। इन सरदारों में सबसे महत्वपूर्ण बहलोल लोदी था। दिल्ली के शासक पहले तुर्क थे, लेकिन लोदी शासक अफगान थे। बहलोल लोदी के बाद सिकंदर शाह लोदी और इब्राहीम लोदी ने दिल्ली पर शासन किया। इब्राहीम लोदी 1526 ई. में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर के हाथों मारा गया और उसी के साथ ही लोदी वंश भी समाप्त हो गया।
मुगल आक्रमण-- अफगान आक्रमण (1525-1556) -
चंगेज खां के बाद तैमूरलंग शासक बनना चाहता था। वह चंगेज का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। चंगेज खां तो चीन के पास मंगोलिया देश का था। चंगेज खां एक बहुत ही वीर और साहसी मंघोल सरदार था। यह मंघोल ही मंगोल और फिर मुगल हो गया। सन् 1211 और 1236 ई. के बीच भारत की सरहद पर मंगोलों ने कई आक्रमण किए। इन आक्रमणों का नेतृत्व चंगेज खां कर रहा था। मंगोलों के इन आक्रमणों से पहले गुलाम वंश, फिर खिलजी और बाद में तुगलक और लोदी वंश के राजा बचते रहे। चंगेज 100-150 वर्षों के बाद तैमूरलंग ने पंजाब तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। तैमूर 1369 ई. में समरकंद का शासक बना। तैमूर भारत में मार-काट और बरबादी लेकर आया। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। तैमूर मंगोलों की फौज लेकर आया तो उसका कोई कड़ा मुक़ाबला नहीं हुआ। दिल्ली में वह 15 दिन रहा और हिन्दू और मुसलमान दोनों ही कत्ल किए गए। बाद में कश्मीर को लूटता हुआ वह वापस समरकंद लौट गया।
1494 में ट्रांस-आक्सीयाना की एक छोटी-सी रियासत फरगना का बाबर उत्तराधिकारी बना। उजबेक खतरे से बेखबर होकर तैमूर राजकुमार आपस में लड़ रहे थे। बाबर ने भी अपने चाचा से समरकंद छीनना चाहा। उसने दो बार उस शहर को फतह किया, लेकिन दोनों ही बार उसे जल्दी ही छोड़ना पड़ा। दूसरी बार उजबेक शासक शैबानी खान को समरकंद से बाबर को खदेड़ने के लिए आमंत्रित किया गया था। उसने बाबर को हराकर समरकंद पर अपना झंडा फहरा दिया। बाबर को एक बार फिर काबुल लौटना पड़ा। इन घटनाओं के कारण ही अंततः बाबर ने भारत की ओर रुख किया।
1526 ई. में पानीपत के प्रथम युद्ध में दिल्ली सल्तनत के अंतिम वंश (लोदी वंश) के सुल्तान इब्राहीम लोदी की पराजय के साथ ही भारत में मुगल वंश की स्थापना हो गई। इस वंश का संस्थापक बाबर था जिसका पूरा नाम जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर था। इतिहासकार मानते हैं कि बाबर अपने पिता की ओर से तैमूर का 5वां एवं माता की ओर से चंगेज खां (मंगोल नेता) का 14वां वंशज था। वह खुद को मंगोल ही मानता था, जबकि उसका परिवार तुर्की जाति के 'चगताई वंश' के अंतर्गत आता था। पंजाब पर कब्जा करने के बाद बाबर ने दिल्ली पर हमला कर दिया।
बाबर ने कई लड़ाइयां लड़ीं। उसने घूम-घूमकर उत्तर भारत के मंदिरों को तोड़ा और उनको लूटा। उसने ही अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई थी। बाबर केवल 4 वर्ष तक भारत पर राज्य कर सका। उसके बाद उसका बेटा नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूं दिल्ली के तख्त पर बैठा। हुमायूं के बाद जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर, अकबर के बाद नूरुद्दीन सलीम जहांगीर, जहांगीर के बाद शाहबउद्दीन मुहम्मद शाहजहां, शाहजहां के बाद मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब, औरंगजेब के बाद बहादुर शाह प्रथम, बहादुर शाह प्रथम के बाद अंतिम मुगल बहादुर शाह जफर दिल्ली का सुल्तान बना।
इसके अलावा दक्षिण में बहमनी वंश (347-1538) और निजामशाही वंश (1490-1636) प्रमुख रहे, जो दक्षिण के हिन्दू साम्राज्य विजयनगरम साम्राज्य से लड़ते रहते थे।
यूरोपीय और ब्रिटिश इस्ट इण्डिया कंपनी का राज --
17वीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंबई (मुंबई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर कब्जा कर लिया।
उधर फ्रांसीसियों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर कब्जा कर लिया। अंग्रेज जब भारत पर कब्जा करने में लगे थे तब भारत में मराठों, राजपूतों, सिखों और कई छोटे-मोटे साम्राज्य के साथ ही कमजोर मुगल शासक बहादुर शाह जफर का दिल्ली पर शासन था तो हैदराबाद में निजामशाही वंश का शासन था।
अंग्रेजों को सबसे कड़ा मुकाबला मराठों, सिखों और राजपूतों से करना पड़ा।
मैसूर के साथ 4 लड़ाइयां, मराठों के साथ 3, बर्मा (म्यांमार) तथा सिखों के साथ 2-2 लड़ाइयां तथा सिन्ध के अमीरों, गोरखों तथा अफगानिस्तान के साथ 1-1 लड़ाई छेड़ी गई।
इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कंपनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली। इस तरह भारतीय राजाओं की आपसी फूट का फायदा उठाते हुए धीरे-धीरे कंपनी ने संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया।
कंपनी के शासनकाल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक 22 गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा।
*ब्रिटिश राज :*
1857 के विद्रोह के बाद कंपनी के हाथ से भारत का शासन बिटिश राज के अंतर्गत आ गया। 1857 से लेकर 1947 तक ब्रिटेन का राज रहा।
1947 में अंग्रेजों ने शेष भारत का धर्म के आधार पर विभाजन कर दिया।
विशेष सुचना ---
इस आलेख के के सम्बन्ध में मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि, मैं कोई इतिहास विशेषज्ञ हूँ। इतिहासकार होने की तो कल्पना भी नही करता। यह आलेख विकिपीडिया और वेबदुनिया तथा समय समय पर विद्वानों के प्रकाशित आलेखों से प्राप्त सुचनाओं और जानकारियों के आधार पर सम्पादन मात्र है।
इतना अवश्य की अपने सिमित ज्ञान से परिचित होनें के कारण अपने मन से कुछ भी नही जोड़ा घटाया। जैसा मिला यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इस आलेख की प्रेरणा मिली (१)सोशल मीडिया पर वायरल एक सन्देश से जिसमें बतलाया गया कि,
सिंगापुर वासी भारतियों से इसलिए घ्रणा करते हैं कि, हममें से कुछ लोग अपने देश, धर्म संस्कृति के शत्रुओं के विरुद्ध खड़े होनें के स्थान पर धन और सत्ता के लोभ मे या विद्वेष से वशीभूत होकर अपने देश धर्म और संस्कृति से गद्दारी करके शत्रुओं की सहायता की, उन्हे गुप्त जानकारियाँ दी, कमजोरियाँ बतलाई, उन्हें आक्रमण हेतु उकसाया, आमन्त्रित किया और लड़ाई में शत्रुओं के सैनिक बन कर लड़े।
(२) हमारे सोशल मीडिया के लेखक सदा विदेशी आक्रमणकारियों और विशेषकर मुस्लिम आक्रांताओं को मुगल लिखते हैं। क्वोरा एप पर और फेसबुक पर भी कई बार स्पष्ट करने पर भी यह गलती बारम्बार दूहराई जाती है।
(३) साथ ही समय समय पर राजनीतिक विद्वेष वश हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेताओं और क्रान्तिकारियों पर आक्षेप, आरोप प्रत्यारोप लगते रहे। भारत विभाजन के लिए एक दूसरे को दोषी करार दिया जाता है।
इन सब से विचलित हो मेने भारत पर आक्रमणकारियों का इतिहास टटोला। तब इच्छा हुई कि इस जानकारी को एकत्रित कर सार्वजनिक किया जाये। ताकि, किसी को बहुत अधिक परिश्रम न करना पड़े।
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