शुक्रवार, 6 मई 2022

मिथ्या शब्द का अर्थ।


शंकराचार्य जी ने निरालम्बोपनिषद का एक वचन उधृत किया। ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या। 
मिथ्या को असत समझ कर वैष्णवाचार्यों के अनुयायियों और तान्त्रिकों को शंकराचार्य जी का खण्डन करने का एक हथियार मिल गया। वे कहने लगे प्रत्यक्ष जगत असत कैसे हो सकता है?  अतः जगत मिथ्या नही सत है। सदा से है अनादि है।
(सुचना-- अनादि है तो अनश्वर भी होगा ही।)
वास्तव मे  मिथ्या शब्द का अर्थ सत असत अनिर्वचनीय होता है; न कि, असत। कैसे?
आइये इसे स्वप्न के माध्यम से समझते हैं। क्योंकि स्वप्न का अनुभव सबको है। हिप्नोटिज्म (सम्मोहन) से भी ऐसे ही समझा जा सकता है लेकिन उसका अनुभव सबको नही होता है, अतः वह उदाहरण नही दिया गया।
मिथ्या का अर्थ क्या है? मिथ्या का अर्थ स्वप्न के उदाहरण से ---
(सुचना -- यहाँ स्वप्न दृष्टा का काल्पनिक नाम शिशिर है।)
बचपन का कोई स्वप्न याद करो जिसमें आप किसी क्रीड़ा में विजित हो रहे थे और आप को जगा दिया गया हो और आपने कहा, मम्मी बहुत मज़ा आ रहा था, मेनें ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया, मजा आ गया।

या स्वप्न में आप के पीछे कुत्ते, गाय/ साण्ड, या बाघ/ सिंह अथवा कोई शत्रु लगा हो और आप भाग रहे हैं और भागते भागते पेर जवाब दे रहे हों, हाँपनें लगे हो और आपको उठा देने पर भी आप उस भय से उबर नही हो पा रहे हों। थकान महसूस कर रहे हों।

कोई दुःखद दृष्य देखा हो, और आप विलाप कर रहे हों और उठाने के बाद भी बहुत देर सिसकियां लेते रहे हों।

 इन सभी सपनों में 
पहला (शिशिर) बिस्तर पर लेटा है। जिसे सब जानते हैं। यह मूलतः तटस्थ और निरपेक्ष ही रहते हुए भी अनुमन्ता, भर्ता, दृष्टा (केमरापर्सन) कर्ता (एक्टर/ एक्ट्रेस) और भोक्ता (सुख: दुःख अनुभव करनें वाला) इसी को माना जाता हैं।
दुसरा अदृष्य (शिशिर) जिसे हर प्रकार का सुख-दुख, दर्द-वेदना, चिन्ता-फिक्र, अपना पराया, मैं तु, यह सबका अनुभव हो रहा है।
यह दुसरा (शिशिर) जो भावनाओं को अनुभव कर रहा था, सुखी-दुःखी हो रहा था और जगा देनें के बाद भी उससे उबर नही पा रहा था।
वह भी इन सभी क्रियाओं/ प्रतिक्रियाओ, कार्यों - परिणामों, कर्मों - कर्म फलों में हर दृष्य में साथ रहते हुए ही पूर्ण अदृष्य रहता हैं। पूर्ण जागृति के पहले तन्द्रावस्था मे ही ध्यान दो या जागनें के तत्काल बाद बहुत ध्यान दो तो ही तभी समझ आयेगा। जागने के साथ ही यह शरीर से तादात्म्य स्थापित कर लेता है।
तिसरा (शिशिर) स्वप्न दृष्टा (केमरामैन)  जिसे कर्ता (एक्टर) की पीठ भी दिखती है, यदि एक्टर की आँख में कोई कचरा चला गया तो स्वप्न दृष्टा (केमरामैन) को स्वप्न में कर्ता के रूप में दिखनें वाला (एक्टर) की आँख तक दिखती है। यह तिसरा स्वप्न देखने वाला दृष्टा (केमरापर्सन) और अनुमन्ता (डायरेक्टर) भी है। जिसे स्वप्नावस्था में भी कभी कभार अनुभव किया जा सकता है।

चौथा शिशिर स्वप्न में कर्ता (एक्टर/ एक्ट्रेस) दोड़ भाग कर रहा है, संघर्ष कर रहा है, मोज-मजे कर रहा है, प्रमुदित दिख रहा था। इसे चोंट भी लग सकती, घायल हो सकता है, परेशान दिख सकता है। है, यह सबकुछ करता है/ यह कर्ता (एक्टर) है। इसे सबने देखा है। सब जानते हैं।

(पहला लेटा हुआ शिशिर और तीसरा स्वप्न में कर्ता-भोक्ता शिशिर ये दो तो स्पष्ट हैं जिन्हे सभी जानते हैं। लेकिन अनुमन्ता, भर्ता भोक्ता की स्मृति बहुत कम ही रहती है। लेकिन दृष्टा (केमरापर्सन) को थोड़े से प्रयत्न से ध्यान दिया जा सकता है।)

दुसरे वाला शिशिर  जो भावनाओं का अनुभव (इमोशन्स फिल) कर रहा था, सुखी-दुःखी हो रहा था और जगा देनें के बाद भी उससे उबर नही पा रहा था; उस अनुभव कर्ता दुसरे वाले शिशिर के लिए क्या वह कर्ता (चौथा वाला एक्टर) कभी सही में था? क्या उसका वास्तविक अस्तित्व था? सत था? यदि उसका वास्तविक अस्तित्व होता तो उसके अवशेष खोजे जा सकते। तो जिसे वास्तविक शिशिर नें स्वप्नावस्था मे प्रत्यक्ष देखा, अनुभव किया, भोगा गया था; क्या वह वास्तव में था ही नही? असत था? यह कैसे कहा जा सकता है। स्वप्नकाल मे स्वप्न देश (स्थान) में हो रही घटनाओं में उस देश काल के लिए तो वह पात्र पूर्ण सत्य था। तो अब कहां गया उसका कोई अस्तित्व दिखता क्यों नही जबकि उसके प्रभाव (मोद/ मुदित होना, भय, थकान,) सभी मौजूद हैं बस वही नही है। न उसके संगी साथी हैं न वह स्थान है, न परिस्थितियां है। 
(डिस्कवरी वाले पुछेंगे वो कौन था? वह कहाँ था? वह किनके साथ था? कहां गये वो लोग? वो कहां से आये थे? क्या वो फिर आयेंगे? तो क्या जवाब दोगे?😃)
कहना होगा कि, वह सत असत अनिर्वचनीय है। वह माया है। जैसे ऐन्द्रजालिक (जादूगर) इन्द्रजाल (जादू नामक कला) के माध्यम से जो वास्तव में है ही नही वह सब दिखला देता है। लेकिन वास्तव में वे होते नही यह सब जानते हैं। वैसे ही स्वप्न का दृष्टा (एक्टर) ,उसके साथी, उसका संसार सब मिथ्या ही थे। पर उन्हे हम सबने अनुभव किया है। देखा है। तो इस आधार पर उसे सत्य तो नही कहा जा सकता ।

बस यही *सत असत अनिर्वचनीयत्व के लिए ही अद्वैत वेदान्त दर्शन में एक शब्द है मिथ्या* । 

अब सृष्टि को भी उक्त स्वप्न के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।
 
(परमात्मा के शेष तीन चौथाई भाग के लिए तो पुरुष सुक्त और नासदीय सुक्त भी मौन ही है। लेकिन इन सब को समझनें में  शुक्ल यजुर्वेद अध्याय ३१ (पुरुष सुक्त, उत्तर नारायण सुक्त) एवम, ३२ (सर्वमेध सुक्त) एवम् ४० (ईशावास्योपनिषद), ऋग्वेद के अस्य वामीय सुक्त और नासदीय सुक्त, हिरण्यगर्भ सुक्त पढ़ना - समझना आवश्यक है।)

पुरुष सुक्त के अनुसार परमात्मा के एक चौथाई अंश में विश्वात्मा (ॐ संकल्प) प्रकट हुआ। इसी  ॐ संकल्प से प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) प्रकट हुए। उक्त  संकल्प से व्युत्पन्न यह कल्प परब्रह्म (विष्णु) के लिए तो मनोराज्यम् मात्र है। जबकि, हमारे  के लिए यह पूर्ण सत्य है। जैसे स्वप्न के दृष्टा (एक्टर) के लिए वह स्वप्न सत्य ही था ऐसा ही अज्ञानावस्था में तो हमारे लिए भी यत्किञ्च जगत सत्य ही है।।   
शुद्ध अन्तःकरण वाले भक्त जिन्हें अभी ऋत का ज्ञान नहीं हुआ है इस कारण अभी भी वे जीवन मुक्त अवस्था में नही है, उनके लिए यह सत असत अनिर्वचनीय है अर्थात मिथ्या ही है। क्योंकि अनुभव तो उन्हें भी हो रहा है। अतः वे भी इन्कार तो नही कर सकते पर मन में सब जानते समझते भी हैं कि, जैसा वास्तविक सत्य परमात्मा है वैसा यह वास्तविक सत्य यह जगत नही है। 
और आत्मज्ञ के लिए तो यह न कभी सत्य था, न है। उनके लिए तो केवल आत्मतत्व परमात्मा ही सत्य है, सबकुछ है।

विश्व / सृष्टि के सन्दर्भ में --

१  प्रज्ञात्मा परब्रह्म (परम पुरुष विष्णु शेष शय्या पर लेटे हुए) इस सृष्टि की कल्पना करते हैं।  इसलिए इसे कल्प कहा जाता है। प्रज्ञात्मा परब्रह्म (परम पुरुष विष्णु) के लिए वह मनोराज्यम् (दिवास्वप्न) मात्र था। 
(शायद इसीलिए भगवान प्रज्ञात्मा परब्रह्म विष्णु की बहुत सी प्रतिमाएँ और चित्रों में उन्हें लेटा हुआ बतलाया जाता है।)
(प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) की तुलना स्वप्न के उदाहरण में  बिस्तर पर लेटे व्यक्ति से कीजिए।)

२ यह प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) पेण्डुलम की भाँति कभी प्रज्ञात्म भाव की ओर झुक कर ज्ञानवान के सदृष्य सोच विचार और आचार व्यवहार वाला हो जाता है तो कभी जीवात्म भाव की ओर मुड़कर मोहित चित्त हो जाता है और संसार में रम जाता है।
सुख - दुख अनुभवकर्ता; प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म का विवेक जागृत होने पर वह प्रज्ञात्मा परब्रह्म में ही लय होते हुए प्रत्यक्ष सक्रिय रहता है। उसके लिए चौथा तत्व (एक्टर) भूतात्मा (हिरण्यगर्भ) और वह कल्प या (स्वप्न संसार) गायब हो जाता है।  प्रत्यगात्मा का विवेक जागृत होते ही ( पूर्ण जागृति) पर कल्प/ स्वप्न रूपी पूर्व अनुभव का कोई महत्व नही रहता। लेकिन अन्यों के लिए यह परिवर्तनशील जगत बना रहता है।
( श्रीमद्भगवद्गीता का वचन ध्यान दें -- उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता -भोक्ता, महेश्वर। यह कर्ता नही भर्ता है। देखता है, करने देता है। पर स्वयम् तटस्थ है। पर अनुभव करता है तभी तो सहचारी हो पाता है। )
(स्वप्न के उदाहरण के दुसरा  जो सुख - दुख अनुभव कर्ता था; जिसे जगाने पर वह लेटे हुए व्यक्ति में ही सक्रीय हो कर प्रत्यक्ष हो गया। उसके लिए चौथा दृष्टा व्यक्ति (एक्टर) और वह स्वप्न संसार गायब हो गया। (पर जगत यथावत रहता है।) वह कर्ता- भोक्ता (सुख-दुःख अनुभव कर्ता) की तुलना प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म से कीजिए।)

३  (जीव भाव में ही सब भोग हैं, जन्म - मृत्यु है।) लेकिन यह जीवभाव केवल भावात्मक अस्तित्व रखता है।  यदि विवेक जागृत हो जाए तो  प्रत्यगात्मा ब्रह्म का स्थाई झुकाव प्रज्ञात्मा परब्रह्म की ओर हो जाता है तब इसके लिए जीवात्मा भाव का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यही निर्वाण है। अब यह जान जाता है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुण ही गुणों में व्यवहृत हो रहे हैं गुणों के गुणो में इस व्यवहार होने को ही सृष्टि की क्रियाएँ कहा जा रहा है, माना जा रहा है। वास्तव में तो न इनका कोई कर्ता है न भोक्ता है। क्योंकि, इसका किसी प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) पर कोई वास्तविक प्रभाव नही पड़ता है अतः कोई भोक्ता भी नही है।
जैसे बिम्ब या दर्पण में से किसी भी एक को हटा दो तो प्रतिबन्ध का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। वैसे ही यदि केमरामैन हट जाये तो आभासी दृष्य (स्वप्न) का अस्तित्व ही नही रहता। 
मतलब जिसे हम अनुभव करने के कारण सत्य मान बैठे थे वास्तव में तो वह था ही नही। अर्थात स्वप्न और प्रतिबिम्ब जो अनुभव हो रहे थे वस्तुतः वे मिथ्या थे।
(स्वप्न के उदाहरण में जीवात्मा अपर ब्रह्म से स्पप्न के केमरामेन  से तुलना कीजिए।)
और 
४  (ऋग्वेद का वचन ध्यान दें -- त्वष्टा ने बढ़ाई की भाँति ब्रह्माण्ड को घड़ा /(रचना की)।)
भुतात्मा (हिरण्यगर्भ) निर्धारित आयु वाला प्रथम तत्व है। इनकी आयु दो परार्ध है। अर्थात जबतक इनकी रचना है तभी तक  इनका भी अस्तित्व है ।
प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) का जीवात्म भाव समाप्त होते ही उसके लिए भूतात्म भाव भी स्वतः लय हो जाता है।
ये इंजिनियर है। जिस प्रकार मकान, पुल, सड़क बना कर इंजीनियर गायब हो जाता है। लोग इसके गुण-दोषों की समीक्षा करते रहते हैं पर यह सुनने के लिए मौजूद नही रहता। 
भूतात्मा जड़ है इसलिए भोग रत रहते समय भी मुदित नही होता। बल्कि प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ही मोद का भोक्ता होता है। चोटिल होने पर इसे चोंट कष्ट और दुःख  प्रत्यगात्मा को होता। 
(स्वप्न के उदाहरण में भुतात्मा  (हिरण्यगर्भ) की तुलना स्वप्न के दृष्टा (एक्टर) से कीजिए जो दोड़ -भाग कर रहा था और स्वप्न समाप्त होते ही गायब हो गया था । 
 
सुचना -- 
0  विश्वात्मा को ही ॐ संकल्प कहते हैं।
१ प्रज्ञात्मा (परम पुरुष या दिव्य पुरुष या अक्षर पुरुष - परा प्रकृति ) परब्रह्म (विष्णु - माया)) कहते हैं ।
२ प्रत्यगात्मा (पुरुष- प्रकृति)/ ब्रह्म (सवित्र -सावित्री) कहते हैं।
३ जीवात्मा(अपर पुरुष - त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति या जीव- आयु ) अपर ब्रह्म (नारायण - श्री लक्ष्मी) कहते हैं। 
४ भुतात्मा - प्राण - धारयित्व/ धृति / चेतना - संज्ञा (चेतन्यता), हिरण्यगर्भ (त्वष्टा - रचना) कहते हैं।

(फल श्रुति  -- इस प्रकार जानने समझने से संसार के प्रति आसक्ति (लगाव) हटाने में सहायक होगा। इसका लाभ यह होगा कि, निषिद्ध कर्मों के प्रति स्वाभाविक उपरामता आकर अनासक्त भाव से / निर्लिप्त भाव से निष्ठा पूर्वक कर्तव्य कर्मों का निर्वहन हो सकेगा।)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें