वैदिक काल में योग्यता के आधार पर प्रमुख या राजा का निर्वाचन होता था। वाल्मीकि रामायण में श्रीराम का युवराज पद पर चयन सम्बन्धी उल्लेख भी इसी का प्रमाण है।
राज्य के राजा, प्रान्त प्रमुख (क्षत्रप), नगर प्रमुख आदि को प्रथम नियन्त्रण और प्रथम वन्दना तब से आजतक प्रोटोकॉल में प्रचलित है।
गणराज्य के अध्यक्ष (राजा) को गणपति कहा जाता था और अनेक छोटे-बड़े गणराज्यों का महा गणाधिपति होता था। यह तथ्य सर्वविदित है। इसमें कुछ भी नया नही है।
लेकिन गणपति को प्रथम निमन्त्रण, गणपति की प्रथम वन्दना का दूसरा सामाजिक, राजनीति पहलू पर किसी ने ध्यान नही दिया।
गणराज्य के अध्यक्ष (राजा) को गणपति कहा जाता है। जिससे वाराणसी और लखनऊ से प्रकाशित दैनिक आज ने राष्ट्रपति शब्द गढ़ा और प्रचलित करवा दिया।
शंकर जी को महागणाधिपति का पद मिलने पर प्रमथ गणों के अध्यक्ष / गणपति पद प्राप्ति के लिए कार्तिकेय के साथ विनायक के कुछ विवादों के निपटारे पश्चात शंकर जी ने विनायक को उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया।
स्वाभाविक है, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ ज्वर उत्पत्ति अध्याय २८३ पृष्ठ ५१६० और संक्षिप्त महाभारत द्वितीय खण्ड में पृष्ठ १२८० में उल्लेखित दक्ष यज्ञ विध्वन्स जैसी घटना के कर्ता-धर्ता शंकरजी के उत्तराधिकारी भी उनके समान अपने समुदाय प्रमथ गणों में दमखम वाला ही हुआ।
पाण्डुरङ्ग वामन काणे रचित धर्मशास्त्र का इतिहास प्रथम भाग, द्वितीय खण्ड, संस्कार प्रकरण पृष्ठ १८६ में मानव गृह्यसुत्र २/४ में उल्लेखित चार विनायकों शालकटंकट, कुष्मांड राजपुत्र,उस्मित एवम् देवयजन अष्ट विनायक को पिशाच सिद्ध किया है। साथ ही तथा भाग २ पृष्ठ ११३० में विनायकों को विघ्नकर्ता ही कहा है।
यहीं से भय की भक्ति स्वरूप सर्वप्रथम उक्त रुद्र गणों (उग्र लोगों) को प्रथम निमन्त्रण और प्रथम वन्दना की परम्परा प्रचलित हुई। जो आज भी गली- मोहल्ले के सामाजिक कार्यक्रमों से लेकर बड़े राजनीतिक कार्यक्रमों तक प्रचलित है।
ब्राह्मी लिपि के ॐ या वैदिक ॐ से गजानन का स्वरूप बना कर कई चित्रकार यह प्रमाणित कर चुके हैं कि, विनायक का गजानन स्वरूप ॐ से परिकल्पित है।
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