१ सायन सौर वर्ष --- वैदिक संवत्सर --- कलियुग संवत
वैदिक युग में नव संवत्सर वसन्त विषुव से आरम्भ होता था। अर्थात सायन मेष संक्रान्ति से नव संवत्सर आरम्भ होता था।
कल्प संवत, सृष्टि संवत और युग संवत प्रचलित थे। सायन संक्रान्तियों से आरम्भ होने वाले मधु-माधवादि मास प्रचलित थे। अतः यह संवत्सर पूर्णतः ऋतु बद्ध और वैज्ञानिक है। मधु-माधवादि मास और उसके अंशों से और सूर्य संक्रान्ति गते (संक्रान्ति से व्यतीत दिन संख्या) द्वारा दिनांक / मिति दर्शाये जाते थे। दस दिन के दशाह के वासर (वार) प्रचलित थे।
सायन सौर मास के अंश/ संक्रान्ति गत दिवस के साथ ही नाक्षत्रमान से सूर्य और चन्द्रमा किस नक्षत्र के साथ है यह दर्शाया जाता था।
सुचना - -
१ तब सप्ताह नही चलता था। भारत में सप्ताह सम्राट विक्रमादित्य ने वराहमिहिर की सलाह पर प्रचलित किया।
२ वैदिक काल में अभिजित सहित अट्ठाइस नक्षत्र प्रचलित थे। जो क्रान्तिवृत में सम्बन्धित नक्षत्र के योगतारा के आसपास के अंशों में फैला रहता था। योगतारा की स्थिति से दो योगताराओं के मध्य बिन्दु को सन्धि स्थान मानकर दो सन्धियों के बीच का बिन्दु को आरम्भ / अन्त बिन्दु माना जाता था। लेकिन उसकी सुचि उपलब्ध नही है।
अतः इसे योगतारा की वर्तमान स्थिति से दो योगताराओं के मध्य बिन्दु को सन्धि स्थान मानकर दो सन्धियों के बीच का बिन्दु को आरम्भ / अन्त बिन्दु माना जा सकता है।
३ नीचे उदाहरण में तत्सम्बन्धी सारणी के अभाव में वर्तमान प्रचलित सत्ताईस नक्षत्रों और चरणों को दर्शाया है।
जैसे इस वर्ष इस कलियुग संवत ५१२३ का आरम्भ २० मार्च २०२२ रविवार को २१:०३ बजे वसन्त विषुव अर्थात सायन मेष संक्रान्ति से होगा। संकल्पादि में और व्यवहार मे २१ मार्च २०२२ रविवार को सूर्योदय के साथ कलियुग संवत ५१२३ का आरम्भ होगा।
उस समय को ऐसे लिखा जायेगा ---
कलियुग संवत ५१२३ मधु गतांश ००° गते ०० । सूर्य उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र प्रथम चरण में और चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र चतुर्थ चरण में।
कृष्ण पक्ष में उज्वलार्ध चल रहा है।
रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्त होने वाला है। रात्रि का चतुर्थ मुहुर्त आरम्भ हुआ है।
पूर्व दिशा में स्वाती नक्षत्र का प्रथम चरण उदय हो रहा है। आकाश के मध्य में ख स्वस्तिक पर पुष्य नक्षत्र का तृतीय चरण दर्शन दे रहा है।
साथ ही उस समय कोई ग्रह आकाश में दृष्ट होता तो उसकी स्थिति नक्षत्र में दर्शाई जाती।
मतलब संवत्सर विषुद्ध सायन संक्रान्तियों पर आधारित था। और आकाश दर्शन का वर्णन नाक्षत्रीय पद्यति से (नक्षत्रों में) किया जाता था।
शुक्ल पक्ष / कृष्ण पक्ष और मास का उज्वलार्ध है या तमार्ध यह बतलाया जाता था।
पूर्णिमा और अमावस्या अथवा अर्धचन्द्र ही बतलाते थे। अन्य कोई तिथि प्रचलित नही थी। अन्य कलाओं को चन्द्रमा का वक्र इस दिशा में है ऐसा ही कहा जाता था।यदि सूर्य ग्रहण/ चन्द्र ग्रहण हो तो उसका अवश्य किया जाता था।
इस प्रकार आकाश का नक्षा उभर कर सम्मुख आ जाता है।
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२ सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर --- युधिष्ठिर संवत
ब्राह्मण ग्रन्थों ,उपवेदों और वेदाङ्गो के समय पूर्वोक्त युग संवत (जैसे वर्तमान में कलियुग संवत है वैसे ही उस युग का युग संवत) सूर्य के मधु माधव आदि मास, गते, वासर के साथ साथ संवत्सर प्रवर्तक उस युग के महत्वपूर्ण सम्राट के नाम का संवत्सर प्रचलित थे। (जैसे वर्तमान मे युधिष्ठिर संवत चल रहा है।) संवत के साथ चैत्र वैशाख मासों की कलाओं के आधार पर तिथि भी दर्शाने लगे। साथ ही आकाश का नक्षा नाक्षत्रीय पद्यति से दर्शाया जाता था।
जैसे इस वर्ष युधिष्ठिर संवत ५१२३ का प्रारम्भ ०२ मार्च २०२२ बुधवार को २३:०६ बजे (अमान्त माघ की) अमावस्या समाप्त होने के साथ होगा। तथा व्यवहार में तथा संकल्प में ०३ मार्च २०२२ को सूर्योदय से युधिष्ठिर संवत ५१२३ का आरम्भ (अमान्त फाल्गुन) शुक्ल प्रतिपदा से होगा।
कलियुग संवत ५१२२ तपस्य मास गतांश १२° गते १२ दर्शाते थे। सूर्य शतभिषा नक्षत्र चतुर्थ चरण में और चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र चतुर्थ चरण में है। युधिष्ठिर संवत ५१२३ के चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि। रात्रि का द्वितीय प्रहर। रात्रि का षष्ट मुहुर्त। पूर्व दिशा में विशाखा नक्षत्र का प्रथम चरण। आकाश के मध्य में ख स्वस्तिक पर आश्लेषा नक्षत्र का तृतीय चरण।
साथ ही उस समय कोई ग्रह आकाश में दृष्ट होता तो उसकी स्थिति नक्षत्र में दर्शाई जाती।
लेकिन इस युधिष्ठिर संवत का आरम्भ मास प्रत्येक २१४८ वर्ष में एक-एक मास आगे खिसकता जाता है। तदनुसार युधिष्ठिर संवत ५५३४ (ईस्वी सन २४३३) में इस संवत्सर का आरम्भ वर्तमान प्रचलित वैशाख शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होगा।
युधिष्ठिर संवत सायन सौर संक्रान्तियों से आधार पर चलने वाला सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर है। अतः यह संवत्सर भी लगभग ऋतुबद्ध ही है। केवल लगभग २९.५३०५८९ दिन अर्थात एक चान्द्रमास आगे होकर लगभग २८ से ३८ माह में अधिक एक मास होकर पूनः बराबर हो जाता है।
इसका चक्र १९ वर्ष और १४१ वर्ष का होता है। प्रायः प्रत्येक १९, ३८,५७,७६,९५, ११४, १२२,१४१ वें वर्ष में पुनः वसन्त विषुव सायन मेष संक्रान्ति से आरम्भ होता है।
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३ नाक्षत्रीय वर्ष / निरयन सौर वर्ष--- विक्रम संवत
विक्रमादित्य ने राज्यारोहण के समय राज्य ज्योतिषी आचार्य वराहमिहिर की राय पर नाक्षत्रीय संवत्सर को ही राजकीय संवत्सर के रूप में तथा सप्ताह के वारों को प्रचलित किया। जो आज भी पञ्जाब, हरियाणा, जम्मू, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के कुछ भागों में यथारूप प्रचलित है। और बङ्गाल, असम, तमिलनाड़ू, केरल में अन्य नामों से प्रचलित है।
विक्रम संवत का आरम्भ वैशाखी अर्थात निरयन मेष संक्रान्ति से होता है। इसके आरम्भ के समय सूर्य के केन्द्र से भूमि चित्रा तारे के ठीक सीध में दिखती है और भुमि के केन्द्र से देखने पर चित्रा तारे से १८०° पर सूर्य दिखता है।
नाक्षत्रीय संवत्सर चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु पर सूर्य के आने से आरम्भ होकर वापस चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु पर सूर्य के आने पर ही पूर्ण होता है।
लेकिन नाक्षत्रीय ऋतुबद्ध नही है। वेदों में संवत्सर को प्रजापति कहा है। और वसन्त विषुव को संवत्सर की आत्मा माना है।
अतः वैदिक परम्परानुसार नाक्षत्रीय संवत्सरारम्भ का प्रथम मास बदलता रहता है। वर्तमान में निरयन मेष संक्रान्ति से आरम्भ होता है। विक्रम संवत
प्रत्येक २१४८ वर्ष में एक मास आगे खिसक जाता है। और प्रत्येक ४२९६ वर्ष में एक ऋतु आगे खिसक जाता है।
मतलब (२८५ ईस्वी को २२ मार्च को) विक्रम संवत ३४२ वसन्त विषुव सायन मेष संक्रान्ति के साथ आरम्भ होता था। वर्तमान में लगभग २४ दिन आगे बड़ गया है और १४/१५ अप्रेल से आरम्भ होता है। ईस्वी सन २४३३ में यह सायन वृष संक्रान्ति २० अप्रेल से आरम्भ होने पर इसे निरयन मीन संक्रान्ति से आरम्भ किया करना होगा। अन्यथा मालवा प्रान्त में ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ में विक्रम संवत आरम्भ होगा। और ईस्वी सन ४५८१ में यह सायन मिथुन संक्रान्ति २१ मई से आरम्भ होगा। तदनुसार मालवा प्रान्त में ग्रीष्म ऋतु के मध्य में प्रारम्भ में और ब्रह्मावर्त एवम् उत्तरी आर्यावर्त्त में ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ मे विक्रम संवत आरम्भ होगा। इसलिए संवत्सर को ऋतुबद्ध रखने के लिए प्रत्येक २१४८ वर्ष में एक नाक्षत्रमास पीछे करना पड़ता है।
अलग अलग नक्षत्रों का प्रथम नक्षत्र होने और अलग अलग महिनों को प्रथम मास होने के प्रमाण वैदिक साहित्य में भरपूर है।
लगभग २५७८० वर्ष में यह पूनः वसन्त विषुव से आरम्भ होने लगता है। लेकिन कलियुग संवत एक वर्ष अधिक हो जायेगा और विक्रम संवत एक वर्ष कम रह जायेगा। कलियुग संवत २९१६६ में विक्रम संवत २६१२१ होगा। अन्तर ३०४५ वर्ष का हो जाएगा जबकि आज ३०४४ वर्ष का अन्तर है।
इसमें विक्रम संवत के साथ मेष, वषभादि मास (या पञ्जाब-हरियाणा में वैशाख, ज्यैष्ठादि मास) के साथ सूर्य की निरयन संक्रान्ति गत दिवस (गते) दर्शाया जाता है। सप्ताह के वार दर्शाते हैं।
इस वर्ष विक्रम संवत २०७९ का प्रारम्भ १४ अप्रेल २०२२ गुरुवार को पूर्वाह्न ०८:४० बजे नाक्षत्रीय वर्षारम्भ निरयन मेष संक्रान्ति से होगा। तथा व्यवहार एवम् संकल्प में १५ अप्रेल २०२२ शुक्रवार वैशाखी से विक्रम संवत २०७९ का आरम्भ होगा।
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४ निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष ---- शकाब्द
आपने देखा प्रत्येक संवत्सर आरम्भ कर्ता नवीन प्रणाली लागू करता है। युधिष्ठिर ने शुद्ध सायन सौर वर्ष को बदल कर सायन सौर संक्रान्तियों से सम्बन्धित चान्द्र मासों वाला संवत्सर लागू किया। ऐसे ही सम्राट विक्रमादित्य ने सायन सौर संवत्सर के स्थान पर नाक्षत्रीय वर्ष वाला निरयन सौर संवत्सर लागु किया।
विक्रमादित्य के १३५ वर्ष बाद विक्रम संवत १३६ के आरम्भ में पेशावर के कुषाण वंशीय क्षत्रप कनिष्क ने मथुरा विजय के उपलक्ष्य में मथुरा और उत्तर भारत में नाक्षत्रीय संवत आधारित चान्द्र संवत शकाब्द लागू किया। लगभग उसी समय पैठण महाराष्ट्र के सातवाहन राजा गोतमिपुत्र सातकर्णी ने महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तेलङ्गाना, और मध्य भारत में नाक्षत्रीय संवत आधारित चान्द्र संवत शकाब्द लागू किया।
शकाब्द विक्रम संवत का अनुगामी है इसके मास निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित हैं। अर्थात शकाब्द का आरम्भ निरयन मीन संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति के बीच होनें वाली अमावस्या के समाप्ति समय से होता है। यदि निरयन मीन मास में दो अमावस्या पड़े तो (बादवाली) दूसरी अमावस्या समाप्ति के समय से शकाब्द आरम्भ होता है। और पहले वाला चान्द्रमास अधिक माना जाता है। तथा दुसरा चान्द्रमास चैत्र मास कहलाता है। संकल्पादि में और व्यवहार में शकाब्द का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है।
शकाब्द का आरम्भ सदैव चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नही होता है। युधिष्ठिर संवत के समान ही आरम्भ का चान्द्रमास बदलता रहता है,
इस वर्ष शकाब्द १९४४ का प्रारम्भ ०१ अप्रेल २०२२ शुक्रवार को पूर्वाह्न ११:५३ बजे अमान्त फाल्गुन अमावस्या समाप्ति समय से होगा। तथा व्यवहार और संकल्प में दिनांक ०२ अप्रेल २०२२ शनिवार को सूर्योदय से शकाब्द १९४४ का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होगा।
नाक्षत्रीय विक्रम संवत पर आधारित होनें के कारण विक्रम संवत के समान ही शकाब्द भी ऋतु आधारित संवत नही है।
प्रत्येक २१४८ वर्ष में शकाब्द का आरम्भ भी विक्रम संवत के समान ही एक मास पीछे खिसक जाता है। और प्रत्येक ४२९६ वर्ष में एक ऋतु पीछे खिसक जाता है।
मतलब शकाब्द २०७ (२८५ ईस्वी को २२ मार्च को) यह वसन्त विषुव सायन मेष संक्रान्ति के साथ आरम्भ होता था। वर्तमान में लगभग २४ दिन आगे बड़ गया है। ईस्वी सन २४३३ में यह सायन वृष संक्रान्ति २० अप्रेल से आरम्भ होगा इसलिए इसे फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ करना पड़ेगा। अन्यथा मालवा प्रान्त में ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ में शकाब्द आरम्भ होगा। और ईस्वी सन ४५८१ में शकाब्द सायन मिथुन संक्रान्ति २१ मई से आरम्भ होने लगेगा; मालवा प्रान्त में ग्रीष्म ऋतु के मध्य में प्रारम्भ होगा और ब्रह्मावर्त एवम् उत्तरी आर्यावर्त्त में ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ मे शकाब्द आरम्भ होगा। अतः एव शकारम्भ माघ शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ करना होगा।
अतः हर २१४८ वर्ष में विक्रम संवत के अनुसार ही एक-एक मास आगे से संवत्सर आरम्भ करना होता है। वैदिक साहित्य में इसके भरपूर प्रमाण हैं।
लगभग २५७८० वर्ष में यह पूनः वसन्त विषुव से आरम्भ होने लगता है। लेकिन युधिष्ठिर संवत एक वर्ष अधिक हो जाता है और शकाब्द एक वर्ष कम रह जाता है।
इसमें चैत्र, वैशाख आदि मासों की तिथियाँ दर्शाई जाती है। साथ ही सप्ताह के वार और चन्द्रमा की १३°२०' के निश्चित भोगांश वाले सत्ताईस नक्षत्र सूर्य चन्द्रमा के निरयन भोगांशो के योग को सत्ताईस से विभाजित कर तदनुसार योग एवम् तिथ्यार्ध करण दर्शाते हैं। इन पाँचों को मिलाकर पञ्चाङ्ग कहलाती है।
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५ शुद्ध चान्द्र वर्ष ---- भारत और सनातन धर्म मे अप्रचलित है। (केवल इस्लामी क्षेत्रों में प्रचलित है।)
भारतवर्ष और सनातन धर्म में ३५४.३६७०६८ दिन का शुद्ध चान्द्र वर्ष अप्रचलित है। यह केवल सऊदी अरब और इस्लामी राष्ट्रों में ही मोहर्रम आदि मासों के साथ हिजरी सन नाम से प्रचलित है।
इसमें न कोई अधिक मास होता है न क्षय मास। अत: शुद्ध चान्द्र वर्ष ऋतुओं से पूर्णतः असम्बद्ध है।
शुद्ध चान्द्र वर्ष युधिष्ठिर संवत और शकाब्द के माहों की तुलना में तीन वर्ष में माह पीछे हो जाता है। और छः वर्ष में एक ऋतु पीछे हो जाता है। एवम् तैंतीस वर्ष में पूरा एक वर्ष अधिक हो जाता है।
मुस्लिम देशों में मोहर्रम से आरम्भ होता है।
कल्प संवत को नाक्षत्रीय संवत मानकर अहर्गण प्राप्त कर ३५४.३६७०६८ दिन का भाग देने पर शेष बचे माह के अनुसार शुद्ध चान्द्र वर्ष का प्रथम मास मोहर्रम आता है। लेकिन यदि अरबी में इन मोहर्रम आदि के अर्थ देखें तो रबिउल अव्वल अर्थात वसन्त का प्रथम मास और रबिउल उस्सानी यानी वसन्त का दुसरा मास। तदनुसार ये सायन सौर मास रहे होंगे। जिन्हें बाद में शुद्ध चान्द्र वर्ष के माह मान लिया गया।
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६ सावन वर्ष --- अप्रचलित
सावन वर्ष ३६० दिन का होता था। लेकिन या तो इसे वसन्त विषुव से जोड़ कर शेष पाँच छः दिन का अवकाश रखकर यज्ञादि धार्मिक कर्म और क्रीड़ा, नाट्य, पुराण श्रवण आदि में व्यतीत किया जाता था जो आज भी पारसियों में प्रचलित है। और गुजरात में भी दीपावली (वर्षान्त) की पूजा कर सौभाग्य पञ्चमी तक पाँच दिन पूर्ण अवकाश रखते हैं। या
प्रति पाँच वर्ष में अधिक मास करके उस अवधि को उपर्युक्त कार्यों में व्यतीत किया जाता था।
जैसा कि, लगधाचार्य के वेदाङ्ग ज्योतिष में बतलाया है।
वर्तमान में यह संवत अब कहीँ भी प्रचलित नही है।
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