शनिवार, 9 अप्रैल 2022

विक्रमादित्य कौन थे तथा विक्रम संवत और शकाब्द।

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निकट सोनकच्छ जिला मुख्यालय है। सोनकच्छ के निकट गन्धर्वपुरी नामक कस्बा / ग्राम है। यहाँ एक शिवमंदिर है। कहा जाता है कि रात्रि में कुछ नाग शिवलिङ्ग की प्रदक्षिणा करते हैं। प्रातःकाल मन्दिर खोलने पर शिवलिङ्ग के आसपास वृत्ताकार परिपथ में सर्पों की विष्ठा पाई जाती है।

महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब के मालव प्रान्त से आकर उक्त गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।

गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु और शिव के भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा गन्धर्वसेन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप महाराज गंधर्वसेन की जंगल में ही मृत्यु हो गई। ईसापूर्व ५० में प्राकृत भाषा में रचित जैन कल्प सूत्र में कालकाचार्य कथा में इसका उल्लेख है।इसमें गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।

गन्धर्वसेन के दो पुत्र भृतहरि और विक्रमसेन (विक्रमादित्य) और पुत्री मैनावती थी। मैनावती के पुत्र गोपीचन्द थे। भृतहरि की पत्नी पिङ्गला से अलाका, शंख नामक दो पुत्र हुए।

गन्धर्वसेन के बड़े पुत्र भृतहरि ने उज्जैन को राजधानी बनाया। भृतहरि ने अपने अनुज विक्रमसेन को सेनापति बनाया। लेकिन भृतहरि की प्रिय पत्नी महारानी पिङ्गला ने महाराज भृतहरि को विक्रम के विरुद्ध भड़का कर विक्रमसेन को देश निकाला दिलवा दिया। सुदृढ़ सेनापति के अभाव में उज्जैन पर शकों के आक्रमण बढ़ने लगे। भृतहरि और विक्रम की बहन मैनावती के पुत्र गोपीचन्द पहले ही नाथ सम्प्रदाय के सम्पर्क में आकर नाथयोगी हो गये। योगी गोरखनाथ भृतहरि को अपना शिष्य बनाना चाहते थे। इसलिए गोरखनाथ जी ने भृतहरि को रानी पिङ्गला की आसक्ति से मुक्त कर भृतहरि को धारा नगरी में नाथ पन्थ में दीक्षित किया।

नाथ पन्थ में दीक्षित होकर वैरागी होने के कारण राजा भृतहरि ने अपने अनुज विक्रम सेन को खोज कर राज्यभार विक्रम सेन को सोंप दिया। विक्रम सेन ने सैन्य सङ्गठन मजबूत कर शकों को देश से निकाल कर अपनी राज्य सीमा अरब तक पहूँचा दी। इस उपलक्ष्य में विक्रम सेन सम्राट विक्रमादित्य कहलाये। और उननें विक्रम संवत प्रवर्तन किया। जो वर्तमान में भी पञ्जाब हरियाणा में प्रचलित नाक्षत्रीय निरयन सौर विक्रम संवत के मूल स्वरूप में प्रचलित है ।

भविष्य पुराण के अनुसार विक्रमादित्य का जन्म कलियुग के तीन हजार वर्ष व्यतीत होनें पर अर्थात 101 ईसापूर्व हुआ था। और उनने शतवर्ष राज्य किया।

गन्धर्वसेन की मृत्यु पश्चात शकों के भारत पर आक्रमण के होंसले बुलन्द होगये। महाराज भृतहरि के समय भी अनेकबार शक आक्रमण हुए जिनका सामना उनके छोटेभाई विक्रमसेन (विक्रमादित्य) नें किया।

कलियुग संवत 3068 अर्थात34 ईस्वी में रचित ज्योतिर्विदाभरण ग्रन्थ के अनुसार करुर नामक स्थान पर शकों को परास्त कर शक विजय कर विक्रमसेन ने उज्जैन का राज्य सम्भाला। और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। विक्रमादित्य के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में कलियुग संवत 3044 आरम्भ दिन निरयन मेष संक्रान्ति को अर्थात 57 ईसापूर्व में विक्रमादित्य नें विक्रम संवत चलाया।

कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर के युधिष्ठिर के वंशज राजा हिरण्य की मृत्यु निस्सन्तान रहते होजानें के कारण अवन्ति नरेश विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य सोपा था। नेपाल के राजवंशावली के अनुसार - नेपाल के राजा अंशुवर्धन के समय विक्रमादित्य नेपाल भी गये थे।

विक्रमादित्य ने अलग अलग देश और संस्कृति की पाँच पत्नियाँ थी मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल, और चिल्लमहादेवी। जिनसे पुत्र विक्रम चरित और विनयपाल तथा विद्योत्तमा प्रियमञ्जरी और वसुन्धरा हुई।

विक्रमादित्य के राजपुरोहित त्रिविक्रम एवम् वसुमित्र थे। विक्रमादित्य के सेनापति विक्रमशक्ति एवम् चन्द्र बतलायें गये हैं। भट्टमात्र जो नौरत्नों में से एक वेतालभट्ट भी कहलाते हैं वे विक्रमादित्य के मित्र थे।

1आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि, 2 ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर, 3 महाकवि कालीदास, 4 व्याकरणाचार्य वररुचि, 5 तन्त्राचार्य वेतालभट्ट, 6 अमरकोश अर्थात संस्कृत शब्दकोश रचियता अमरसिंह, 7 शंकु  8 जैन आचार्य क्षपणक और 9 घटखर्पर विक्रमादित्य के शासन के नौरत्न थे।

भविष्य पुराण और स्कन्दपुराण के उल्लेख  अनुसार तथा तुर्की के शहर इस्ताम्बुल के पुस्तकालय मकतब - ए - सुल्तानिया में रखी अरब के अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में उल्लेख के अनुसार ईरान,अरब, ईराक, सीरिया, टर्की, मिश्र देशों पर विक्रमादित्य की विजय का उल्लेख है और अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में विक्रमादित्य से सम्बन्धित शिलालेख का उल्लेख है; जिसमे विक्रमादित्य को उदार, दयालु, कर्तव्यनिष्ठ, प्रत्यैक व्यक्ति का हितचिन्तक और हितकारी कहकर विक्रमादित्य के शासन काल में जन्में और जीवन व्यतीत करने वाले लोगों को सौभाग्यशाली कहा है। साथ ही कहा है विक्रमादित्य नें मिश्र, टर्की, सीरिया, ईराक, सऊदी अरब, यमन और ईरान में वेदिकधर्म के प्रकाण्ड पण्डित विद्वानों को भेजकर ज्ञानप्रकाश फैलाया। ऐसा उल्लेख भी पाया गया है कि, विक्रमादित्य ने रोम के शासक को बन्दी बनाकर उज्जैन में घुमाया था। तथा विक्रमादित्य का शासन युनान (ग्रीस) में भी था।

विक्रमादित्य ने जो विक्रम संवत प्रवर्तन किया था वही वर्तमान में भी पञ्जाब हरियाणा में नाक्षत्रीय निरयन सौर विक्रम संवत के मूल स्वरूप में प्रचलित है ।

विक्रम संवत का आरम्भ निरयन मेष संक्रान्ति/ वैशाखी (वर्तमान में १४/१५ अप्रेल) से होता है। इस संवत में ३६५.२५६३६३ दिन होते हैं।

विक्रम संवत लागू होनें के १३५ वर्ष बाद विक्रम संवत १३६ में आन्ध्र प्रदेश के सातवाहन वंशीय गोतमीपुत्र सातकर्णी नें अपने राज्यारोहण या मतान्तर से नासिक क्षेत्र महाराष्ट्र के पेठण विजय के अवसर पर अपने राज्य क्षेत्र महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तेलङ्गाना, और मध्य भारत में निरयन सौर संक्रान्तियों से सम्बद्ध चान्द्र संवत शालिवाहन शकाब्द आरम्भ किया और पैशावर (पञ्जाब— पाकिस्तान) के कुशाण वंशीय क्षत्रप कनिष्क नें मथुरा विजय के पलक्ष्य में मथुरा और उत्तर भारत में निरयन सौर संक्रान्तियों से सम्बद्ध चान्द्र संवत शकाब्द लागू किया।

शक और कुषाण तिब्बत में तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में (उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त) शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान) के मूल निवासी थे।

शकाब्द पञ्चाङ्ग में १९, १२२ और १४१ वर्षिय चक्र पूर्ण कर पुनः पुनः निरयन सौर/ नाक्षत्रीय विक्रम संवत के साथ हो जाता है। अर्थात उन्नीस-उन्नीस वर्षों में विक्रम संवत की मेष वृष आदि मास के गतांश या वैशाख ज्येष्ठ आदि सौर मास के संक्रान्ति गत दिवस/ गते एक साथ हो जाते है। इसके लिए अट्ठाइस से अड़तीस माह के बीच जिस चान्द्रमास में अर्थात जिन दो अमावस्याओं के बीच निरयन संक्रान्ति न पड़े उसे अधिक मास और जिस निरयन सौर मास में अर्थात जिन दो निरयन संक्रान्तियों के बीच अमावस्या न पड़े उसे क्षय मास माना जाता है।  क्रम से पहले उन्नीस वर्ष में, फिर एक सौ बाइस वर्ष में फिर एक सौ इकतालिस वर्ष में क्षय मास पड़ता है। जिस वर्ष क्षय मास पड़ता है उस क्षय मास के पहले एवम् बादमें एक-एक अधिक मास पड़ता हैं। इस प्रकार अधिक मास वाला वर्ष हो या क्षय मास वाला वर्ष हो दोनों शकाब्द में अमावस्या से अमावस्या तक वाले तेरह अमान्त चान्द्रमास होते हैं। यह १९, १२२, १४१ वर्षीय चक्र मूलतः उन्नीस वर्षीय चक्र ही है। 

वर्तमान में यह भ्रम प्रचलित है कि, विक्रम संवत भी शुद्ध निरयन सौर वर्ष न होकर आरम्भ से निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष ही था। 

यदि ऐसा होता तो केवल १३५ वर्ष बाद ही शक संवत में निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मास वाली यह नवीन प्रणाली लागू करने के लिए शक संवत आरम्भ करने की क्या आवश्यकता थी?

विक्रमादित्य के पूर्वजों के क्षेत्र पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश में आज तक विक्रम संवत निरयन सौर संक्रान्तियों वाले महिने और संक्रान्ति गते क्यों प्रचलित रहता?

कुछ लोग गुजरात के कार्तिकादि संवत को विक्रम संवत मानते हैं। यह भी उचित नहीं है। क्योंकि यह केवल गुजरात में ही सीमित है। 

जबकि, सातवाहन और कुशाणों के राज्यक्षेत्र में ही निरयन सौर संस्कृत शक पञ्चाङ्ग प्रचलित है। शेष भारत में अर्थात पञ्चाङ्ग, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, बङ्गाल,उड़िसा, असम आदि सेवन सिस्टर्स प्रदेश, तमिलनाडु, केरल आदि प्रदेशों में निरयन सौर संक्रान्तियों  वाले महिने और संक्रान्ति गते या गतांश ही प्रचलित है।


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