बुधवार, 22 सितंबर 2021

वैदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त के अन्तर्गत वंश वर्णन विष्णु पुराण के आधार पर।

विष्णु पुराण ही क्यों?
क्यों कि, वेदिक प्रवृत्ति मार्गी वैष्णव जन इसे वेदव्यास जी के पिता महर्षि पाराशर की रचना मानते हुए प्रथम पुराण मानते हैं।
क्वोरा एप के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध विद्वान लेखक श्री अरविन्द कुमार व्यास महोदय के द्वारा पुराणों के बारे में कुछ जानकारी सहित उनके कुछ विवादास्पद तथ्यों पर जानकारी प्रस्तुत है शीर्षक से लिख गए आलेख में उन्होंने विष्णु पुराण की प्राचीनता के सम्बन्ध में लिखा है कि,---
"विष्णु पुराण में ध्रुव तारे का विवरण उसके थुबन होने का परिचायक है; तथा इसके अनुसार यह लगभग चार हजार वर्ष से अधिक प्राचीन (2600–1900 ईसा पूर्व) खगोलीय परिस्थिति है; जोकि विशाखा नक्षत्र में शारदीय विशुव (2000–1500 ईसा पूर्व) तथा दक्षिण अयनान्त के श्रवण नक्षत्र में (लगभग 2000 ईसा पूर्व) से सुदृढ़ होता है।"
 अर्थात विष्णु पुराण कम-से-कम 2600ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व में रचा गया है।

वेदव्यास जी के पिता महर्षि पाराशर की रचना और प्रथम पुराण विष्णु पुराण से प्रजापतियों/ वेदिक ऋषियों,धर्म, स्वायम्भुव मनु, अग्नि, रुद्र और पितरों के वंश का वर्णन--
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा नें त्वष्टा के रूप में सृष्टि के गोलों को घड़ा किन्तु जैविक सृजन नही किया। कोई सुत्र नही मिलने पर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को रोष उत्पन्न हुआ। परिणाम स्वरूप नील लोहित वर्णीय अर्धनारीश्वर एकरुद्र उत्पन्न हुए। हिरण्यगर्भ ने एकरुद्र को सृजन का आदेश दिया किन्तु उनने ने सृजन में असमर्थता प्रकट की और हिरण्यगर्भ ब्रह्म के निर्देश पर तप में प्रवर्त हो गये।
तब 
धर्म भी प्रजा वृद्धि में सहयोगी नही हो पाये। चित्रगुप्त भी प्रजा उत्पादन नही कर पाये। यहाँतक कि काम और रति भी सृजन नही कर पाये।
तब नारायण की प्रेरणा से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा स्वयम् प्रजापति ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुए।हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने प्रजापति को प्रजा उत्पन्न करने का निर्देश दिया हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की आज्ञा से  प्रजापति ने जैविक सृष्टि आरम्भ की।
प्रजापति ने भूमि पर वर्तमान भारत के पञ्जाब हरियाणा क्षेत्र में निम्नलिखित जैविक युग्म (जोड़ो) के रूप में प्रकट हुए।
1 हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने स्वयम को त्वष्टा-रचना  प्रकट किया।
2 हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने  एकरुद्र को उत्पन्न किमा था। 
 हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने चार ऋषि- मुनियों को उत्फन्न किया जो बालब्रह्मचारी रहे।
सनक, 
4 सनन्दन, 
5 सनत्कुमार और 
6 सनातन 
7 हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने नारद को उत्पन्न किया वे भी बालब्रह्मचारी रहे।
8 हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने  काम और रति का युग्म (जोड़ा) उत्पन्न किया।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने  चित्रगुप्त-  को उत्पन्न किया।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सप्त पितरः को उत्पन्न किया।
किन्तु ये कोई भी सृष्टि सृजन कार्य को आगे नही बढ़ा पाये। तब
10 हिरण्यगर्भ ब्रह्मा स्वयम् को प्रजापति के रूप में प्रकट हुए।
प्रजापति ने सर्व प्रथम निम्नलिखित युग्म उत्पन्न किये।
(1)दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति।
(2) रुचि प्रजापति और आकुति।
(3) कर्दम प्रजापति और देवहूति।
(4) स्वायम्भुव मनु और शतरुपा।
(5) इन्द्र - शचि।
(6) अग्नि-स्वाहा।
एक रुद्र ने भी स्वयम् को 7 शंकर और उमा के रूप में विभाजित किया।
(सुचना ---प्रसुति और आकुति और देवहूति को स्वायम्भुव मनु की (मानस) पुत्री भी कहा गया है।)
इनके साथ ही प्रजापति ने निम्नलिखित आठ उप प्रजापतियों को उत्पन्न किया।
08 भ्रगु, 09 मरीचि, 10 अङ्गिरा, 11 पुलह, 12 पुलस्य, 13 क्रतु, 14 अत्रि, 15 वशिष्ट, 16 धर्म को उत्पन्न किया। प्रजापति ने उक्त सभी ऋषियों को को सृजन का पुनर्निर्देश पर इन सबने भी सृष्टि को आगे बढ़ाने में सहभागिता की।
1 दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति,
2 रुचि प्रजापति और आकुति,
3 कर्दम प्रजापति और देवहूति,
भ्रगु-ख्याति,  
5 मरीचि-सम्भुति, 
6 अङ्गिरा-स्मृति,  
7 पुलह-क्षमा, 
8 पुलस्य-प्रीति, 
9 क्रतु-सन्तति, 
10 अत्रि-अनसूया, 
11 वशिष्ठ-ऊर्जा।
दक्ष प्रजापति ( प्रथम) और उनके आठ भाई जो  दक्ष प्रजापति (प्रथम) की पुत्रियों के पति अर्थात दक्ष (प्रथम) के दामाद भी हैं ये नौ ऋषिगण मिलकर नौ ब्रह्मा कहलाते हैं।इनकी सन्तान ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण हुए।प्रजापति के ये नौ पुत्र भी नौ प्रजापति कहलाते है।
इन सबकी सन्तान भी ब्रह्मवादी ब्राह्मण हुए
स्वायम्भुव मनु की सन्तान मनुर्भरत क्षत्रिय हुए। फिर भी इनके कुल से कई ब्राह्मण बनें।
उक्त ऋषियोंं की सन्तानें ही पूरे विश्व में फैली। ये सब भारत के ही मूल निवासी है।
12 शंकर और उमा नें स्वयम् को एकादश रुद् और एकादश रौद्रियों के स्वरूप में प्रकट किया।

(1)प्रजापति के पुत्र दक्ष प्रजापति (प्रथम) तथा उनकी पत्नी प्रसुति की कन्याओं के पति  जो प्रजापति कहलाते हैं । उनके वंश का वर्णन --
1 भृगु  पत्नी ख्याति से धातृ  और विधाता तथा पुत्री  लक्ष्मी जन्मी जो नारायण को ब्याही गई।
धाता की पत्नी आयति (मेरु की पुत्री) से प्राण उत्पन्न हुवे। प्राण से द्युतिमान और द्युतिमान से राजवान हुवे।
विधाता की पत्नी नियति (मेरुपुत्री) से मृकण्डु हुवे। मृकण्डु पुत्र मार्कण्डेय हूवे।मार्कण्डेय से वेदशिरा हुवे।
2 मरीचि  की पत्नी सम्भुति से  पुर्णमास नामक पुत्र हुए। पुर्णमास के पुत्र  विरजा और पर्वत हुए।
3 -अङ्गिरा -- स्मृति से सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति नामक चार पुत्रियाँ हुई जो चारों प्रकार की अमावस्याओं की अधिदेवता हैं।
 4 पुलह - क्षमा से कर्दम ऋषि , उर्वरीयान् और सहिष्णु नामक तीन पुत्र हुए।
 5 पुलस्य - प्रीति से दत्तोलि हुए जो पुर्व कल्प के स्वायम्भूव मन्वन्तर में/ पुर्व जन्म में अगस्त्य कहलाते थे।
कृतु -  सन्तति  से अङ्गुठे के पोरुओं के बराबर शरीर वाले साठ हजार उर्ध्वरेता मुनि हुवे।
7 अत्रि - अनसुया से सोम (चन्द्रमा),अत्यन्त क्रोधी ऋषि दुर्वासा और तन्त्रयोगी दतात्रेय हुए। चन्द्रमा और ब्रहस्पति की पत्नी तारा के पुत्र बुध हुए।बुध की पत्नी ईला वैवस्वत मनु की पुत्री थी। बुध और ईला से एल पुरुरवा हुआ। एल पुरुरवा को उर्वशी अप्सरा से आयु हुवा। इस आयु से ही चन्द्र वंश चला।  पश्चिम एशियायी (विशेषकर इब्राहिम द्वारा चलाये धार्मिक पन्थ एल पुरुरवा को अपना ईश्वर मानते है।
8 वशिष्ठ- उर्ज्जा से रज,गौत्र,उर्ध्व्वबाहु, सवन, अनध,सुतपा,और.शुक्र नामक सात पुत्र हुए। ये तीसरे मन्वन्तर के सप्त ऋषि हुवे। 
ये नौ ब्रह्मा (ऋषियों ) के वंश है।
इनके अलावा प्रजापति से उत्पन्न धर्मअग्नि, एकरुद्र, पितरः भी दक्ष प्रथम के दामाद हैं।
12 - प्रजापति के पुत्र धर्म से दक्ष की तेरह पुत्रियों का विवाह हुआ --
1 श्रद्धा ,2  लक्ष्मी, 3  धृति, 4  तुष्टि,   5  मेधा ,  6  पुष्टि, 7  क्रिया, 8  बुद्धि, 9  लज्जा,  10  वपु,  11 शान्ति, 12 सिद्धि  13 कीर्ति।
1 श्रद्धा का पुत्र काम हुआ 
(काम की पत्नी रति से  हर्ष  हुआ। )
2  लक्ष्मी से दर्प हुआ।
3 धृति  से नियम ,
4 तुष्टि से सन्तोष,
5  मेधा से श्रुत, 
6  पुष्टि से लोभ,
7  क्रिया से दण्ड,नय तथा विनय तीन पुत्र हुए,
8  बुद्धि से बोध, 
9 लज्जा से भी विनय हुआ,
10  वपु से व्यवसाय,
11  शान्ति से क्षेम,
12  सिद्धि से सुख, 
13  कीर्ति से यश का जन्म हुआ।
सुचना :- रुचि प्रजापति एवम् स्वायम्भूव मनु के पुत्र उत्तानपाद और प्रियवृत के वंश वर्णन के बाद  पुनः  
दक्ष प्रजापति (प्रथम ) की पुत्रियों के वंश का वर्णन किया जायेगा। 
पहले रुचि प्रजापति के वंश का वर्णन किया जारहा है, ताकि प्रजापतियों का वंश वर्णन एकसाथ ही उपलब्ध हो सके।
2 - प्रजापति की सन्तान रुचि प्रजापति और आकुति  के वंश का वर्णन---
रुचि प्रजापति और आकुति से यज्ञ नामक पुत्र  और दक्षिणा नामक पुत्री जुड़वाँ सन्तान हुई। यज्ञ और दक्षिणा ने परस्पर विवाह कर पति-पत्नी हो गये। स्वायम्भूव मन्वन्तर में द्वादश याम नामक देवताओं के नाम से प्रसिद्ध  बारह पुत्र यज्ञ और दक्षिणा से उत्पन्न हुए।
सुचना - इस प्रकार प्रजापति का वंश वर्णन पुर्ण हुआ। अब क्षत्रियों की वंशपरम्परा अर्थात स्वायम्भूव मनु और उनकी पत्नी शतरुपा के वंश का वर्णन आरम्भ किया जाता है। इनकी सन्तानों ने राजन्य / क्षत्रीय कर्म अपनाया।इनमे बहुत से राजर्षि ,योगी तथा वेदविद ब्रह्मज्ञानी भी हुए।जिन्हे ब्राह्मण माना गया।
3 प्रजापति की सन्तान कर्दम प्रजापति और देवहुति का वंश---


(4) - प्रजापति की सन्तान  स्वायम्भुव मनु और शतरूपा का मानव वंश वर्णन
स्वायम्भूव मनु के प्रथम पुत्र  उत्तानपाद के वंश का वर्णन
( प्रजापति ब्रह्माजी की मानस सन्तान ) (1) स्वायम्भुव मनु को उनकी पत्नी ( प्रजापति ब्रह्माजी की मानस सन्तान )शतरुपा से उत्तानपाद और प्रियव्रत दो पुत्र और प्रसूति, आकूति और देवहूति नामक तीन कन्याएँ उत्पन्न हुई ।
 (2) उत्तानपाद की पत्नी सुनीति से ध्रुव, और सुरुचि से उत्तम का जन्म हुआ।
(3) ध्रुव के दो पुत्र शिष्टि और भव्य हुए।
(4) भव्य से   शम्भु हुए ।
(4) शिष्टि की पत्नी सुच्छाया से रिपु, रिपुञ्जय,विप्र, वृकल और वृकतेजा हुए।
(5) रिपु की पत्नी वृहती से चाक्षुष हुए।
वरुण कुल में वीरण प्रजापति की पुत्री पुष्करणी से  चाक्षुष के घर छटे मन्वन्तर के मनु चाक्षुष मनु का जन्म हुआ।
(6) चाक्षुष मनु को वैराज प्रजापति की पुत्री नड़वला से कुरु, पुरु, शतधुम्न, तपस्वी,सत्यवान, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र, सुधुम्न, और अभिमन्यु नामक पुत्र हुए।
(7) कुरु की पत्नी आग्नैयी से अङ्ग, सुमना, ख्याति, अङ्गिरा, और शिबि नामक पुत्र हुए।
(8) अङ्ग की पत्नी (मृत्यु की प्रथम पुत्री) सुनीथा से वैन का जन्म हुआ।
(9) वेन की  उरु (यानि जांघ) के मन्थन से ( विन्ध्याचल के आदिवासी) निषाद राज जन्मे । और वैन की दाहिनी भुजा के मन्थन से वैन्य पृथु उत्पन्न हुए।
(10) पृथु से अन्तर्धान और वादी जन्मे। 
(11) अन्तर्धान की पत्नी शिखण्डनी से हविर्धान का जन्म हुआ।
 (12) हविर्धान की पत्नी (अग्नि कुल की ) घीषणी से प्राचीनबर्हि, शुक्र, गय, कृष्ण, बृज और अजिन नामक पुत्र जन्मे।
(13) प्रजापति प्राचीनबर्हि की पत्नी (समुद्र पुत्री) सुवर्णा से दस प्रचेताओं का जन्म हुआ
(14) प्रचेता गण के यहाँ (गोमती तट वासी कण्डु ऋषि और प्रम्लोचा अप्सरा की सन्तान वृक्षों द्वारा पालित पुत्री) मारिषा  से दक्ष द्वितीय  का जन्म हुआ।
(15) दक्ष (द्वितीय) की पत्नी (वरुण वंशजा,चाक्षुष मनु के श्वसुर वीरण प्रजापति की पुत्री ) असिन्की से दक्ष (द्वितीय) प्रजापति के घर साठ कन्याएँ जन्मी जिनमे  सती (शंकर जी पहली पत्नी ) हुई।
सुचना ---  ब्रह्मा जी के मानस पुत्र दक्ष प्रथम की पत्नी प्रसुति ( जो स्वायम्भुव मनु की पुत्री थी उस प्रसूति) से चौवीस कन्याएँ जन्मी थी।
इस प्रकार दोनो दक्ष में पन्द्रह पिढियों का अन्तर है। दक्ष द्वितीय की वंश परम्परा का वर्णन आगे किया जायेगा।
(3) स्वायम्भुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत के वंश का वर्णन--- 
 (1) स्वायम्भुव मनु के दूसरे पुत्र (2) प्रियव्रत की पत्नी ( जो कर्दम - देवहूति की पुत्री थी ) (3) उससे सम्राट और कुक्षि (दो) पुत्रियाँ और (दस पुत्र) (3) १आग्नीध्र, २ अग्निबाहु, ३ वपुष्मान,  ४द्युतिमान, ५ मेघा, ६ मेघातिथि, ७भव्य,८ सवन,९ पुत्र , १०ज्योतिष्मान हुए।
इनमेसे तोन पुत्र , २अग्निबाहु ,५मेघा
और ९पुत्र निवृत्तिपरायण हो गये।
स्वायम्भूव मनूके द्वितीय पुत्र  प्रियवृत  ने अपने राज्य के सात भाग कर सप्त द्वीप उत्तराधिकार में  दिये --
(3)-  १आग्नीन्ध्र को जम्मुद्वीप,३वपुष्मान को शाल्मलद्वीप,४ द्युतिमान को क्रोञ्च  द्वीप,६मेघातिथि को प्लक्षद्वीप, ७भव्य को शाकद्वीप,८ सवन को पुष्करद्वीप,१० ज्योतिष्मान को कुशद्वीप  दिया।
(3) प्रियवृत के पुत्र आग्नीन्ध्र ने नाभि नाम से प्रसिद्ध अजनाभ  (नाभि) को को हिमवर्ष या  (अजनाभ वर्ष )  यानि भारतवर्ष का राज्य दिया।
किम्पुरुष को हेमकुटवर्ष।
हरिवर्ष को नैषधवर्ष ।
इलावृत को इलावृत वर्ष दिया (इलावृत वर्ष के मध्य मे मेरुपर्वत है।)
रम्य को नीलाचल से लगाहुआ वर्ष।
हिरण्यवान को श्वेतवर्ष दिया जो रम्य के देश से उत्तर में है।
कुरु को श्रृंगवान पर्वत के उत्तर का देश ।
भद्राश्व को मेरु के पुर्व का देश।
केतुमाल को गन्धमादन पर्वत का देश का राज्य दिया।
सप्त द्वीपों का बटवारा सात पुत्रों में कर आग्नीन्ध्र शालग्राम में तप करने गये।(3)आग्नीध्र के पुत्र (4)नाभि हिमवर्ष (भारतवर्ष) के राजा हुए।
(4)नाभि की पत्नी मेरुदेवी से (5)ऋषभदेव का जन्म हुआ।ये वेदिक ऋषि भी हैं। (ऋग्वेद में) इनका सुक्त भी है जो अहिंसा सुक्त कहलाता है।
(5) ऋषभदेव से (6)भरत हुए।  भरत; चक्रवर्ती सम्राट कहलाये और बाद में  जड़भरत के नाम से भी प्रसिद्ध हुए। हिम वर्ष का नाम भारतवर्ष इनके नाम पर ही पड़ा।
(6) भरत को उत्तराधिकार सोप ऋषभदेव पुलह आश्रम में वानप्रस्थ तप करने चले गये।जहाँ बाद में सन्यास लेकर दिगम्बर  निर्वस्त्र (पुर्ण नग्न) हो कर घुमने लगे।
इस कारण कालान्तर में जैन सम्प्रदाय ने ऋषभदेव को अपना आद्य तिर्थंकर घोषित कर दिया।
(1) प्रजापति के पुत्र और दक्ष प्रजापति (प्रथम) की पुत्रियों के वंश वर्णन पुनः आरमः किया जाता है
13 - अग्नि वंश का वर्णन---
प्रजापति के पुत्र अग्नि की पत्नी दक्ष (प्रथम) की पुत्री स्वाहा से पावक, पवमान, शुचि, नामक तीन पुत्र हुए। इन तीनो के पन्द्रह- पन्द्रह पुत्र हुए।अग्नि, तीन पुत्र और पैतालीस पौत्र मिलकर उन्चास अग्नि देवता कहलाते हैं।
14- एकरुद्र वंश का वर्णन---
प्रजापति के पुत्र एकरुद्र की पत्नी दक्ष (प्रथम) की पुत्री सती की कोई मानवीय सन्तान नही हुई। विचित्र पशु, पिशाच आदि इनकी सन्तान हुई।
(सुचना - अर्यमा और स्वधा की पुत्री मेना के पति हिमाचल की पार्वती सती का ही पुनर्जन्म माना गया है।पर महाभारत में इसका उल्लैख नही है।) 
रुद्र सर्ग---
( सुचना -- हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की चौदहवीं मानस सन्तान रुद्र है।)
14 --  सती  का विवाह रुद्र से हुआ जो प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान थे। 
रुद्र जन्मते ही  रोने लगे और इधर उधर दोड़ने लगे।ब्रह्माजी ने उनके रोने का कारण पुछा तो रुद्र ने कहा मेरा नाम रख दो ।रोने के कारण ब्रह्माजी ने उनका नाम रुद्र रखा।
रुद्र बाद में फिरसे सात बार और रोये तो हर बार रोने पर ब्रह्माजी ने उनके सात नाम और रखे।  1 रुद्र के अलावा 2 भव  3 शर्व 4 ईशान ,5 पशुपति,     6 भीम, 7 उग्र और 8 महादेव नाम से पुकारा।तथा  उनके नाम के अनुकूल स्थान नियत किये । ये रुद्र की अष्टमूर्ति  कहलाई । यानि इन्हे अष्टमुर्ति रुद्र कहा जाता है। इसीकारण पशुपतिनाथ की मुर्ति अष्टमुखी बनाई गयी
1रुद्र का स्थान / मुर्ति - सुर्य और उनकी पत्नी सुवर्चला उषा । जिनके पुत्र शनि हुए। 
 2 भव का स्थान / मुर्ति -  जल और उनकी पत्नी विकेशी ।और उनके पुत्र शुक्र हुए।
 3 शर्व का स्थान / मुर्ति - पृथिवी और उनकी पत्नी अपरा ।और उनके पुत्र लोहिताङ्ग (मंगल) हुए।
4 ईशान    का स्थान / मुर्ति - वायु और उनकी पत्नी शिवा ।और उनके पुत्र मनोजव ( सम्भवतया हनुमानजी) हुए।
5 पशुपति  का स्थान / मुर्ति -  अग्नि और उनकी पत्नी स्वाहा। और उनके पुत्र स्कन्द ( कार्तिकेय) हुए।
 6 भीम  का स्थान / मुर्ति - आकाश और उनकी पत्नी दिशा। और उनके पुत्र सर्ग (स्रष्टि ) हुए।
7 उग्र  का स्थान / मुर्ति -  यज्ञ में दीक्षित ब्राह्मण और उनकी पत्नी दीक्षा ।और उनके पुत्र सन्तान  हुए।
8 महादेव  का स्थान / मुर्ति -  चन्द्रमा और उनकी पत्नी रोहिणी और उनके पुत्र बुध  हुए।  
शंकर पार्वती से , (विघ्नेश्वर गजानन)  विनायक तथा (षड़ानन) कार्तिकेय दो पुत्र हुए यह सर्वमान्य है। और अशोक सुन्दरी नामक पुत्री भी हुई ऐसा वर्णन भी है।
ये रुद्र सर्ग कहलाता है।

15 पितर वंश का वर्णन---
प्रजापति के पुत्र पितरः   की पत्नी स्वधा है। (सप्त पितरः  में मुख्य अर्यमा की पत्नी भी स्वधा ही है।)
(सप्त पितरः- 1अर्यमा 2 यम  अनल (अग्नि), 4 सोम 5 अग्निष्वात्त, 6बहिर्षद, 7कव्यवाह, कहीँ कहीँ अनग्निक और साग्निक नाम आते हैं और अग्निष्वात्त को अग्निष्वात्ता भी कहा गया है।)
इनमें प्रथम चार निराकार और अन्तिम तीन साकार है।अर्यमा पितरों में प्रमुख हैं, पितरों की पत्नी स्वधा है।
15 - अर्यमा की पत्नी  स्वधा से मेना और धारणी नामक दो कन्या हुई। दोनो योगिनी और ब्रह्मवादिनी हुई। बादमे मेना का विवाह हिमाचल से हुआ और हिमाचल- मेना की सन्तान पार्वती कहलायी जो शंकरजी की पत्नी है। शंकर पार्वती से हस्तिमुख,लम्बोदर, विघ्नेश्वर विनायक तथा षड़ानन कार्तिकेय दो पुत्र हुए। (और   अशोक सुन्दरी नामक पुत्री भी हुई ऐसा वर्णन भी है।)
 दक्ष प्रथम की पुत्रियों के वंश का वर्णन पुर्ण हुआ।
वैवस्वत मन्वन्तर ---
दक्ष द्वितीय के वंश का वर्णन के अन्तर्गत स्वायम्भूव मनु के प्रथम पुत्र उत्तानपाद के वंश का  संक्षिप्त वर्णन।   
दक्ष द्वितीय की सन्तानों का वंश वर्णन---
दक्ष (द्वितीय) के समय से ही प्रजा का मैथुन द्वारा उत्पन्न होना आरम्भ हुआ है। विष्णु पुराण / प्रथम अंश/ पन्द्रहवाँ अध्याय/ श्लोक 79 तथा 89
दक्ष द्वितीय की पत्नी वरुण के वंशज वीरण प्रजापति की पुत्री असिक्नी से पाँच हजार हर्यश्वों पुत्रों एवं एक हजार शबलाश्वगण पुत्रों  तथा साठ कन्याओं का जन्म हुआ । पुत्रों को नारदजी ने उपदेश देकर  विरक्त कर दिया।और वे परिव्राजक होकर तप करने चले गये। 
दक्ष द्वितीय की साठ कन्याओं का वंश वर्णन---
दक्ष द्वितीय ने अपनी दस पुत्रियों का विवाह धर्म से। तेरह पुत्रियो का विवाह कश्यप ऋषि से। सत्ताईस पुत्रियों का विवाह सोम (चन्द्रमा) सेकिया।  चार पुत्रियों का विवाह अरिष्टनेमि से।तथा दोपुत्रियों का विवाह बहुपुत्र से और दो पुत्रियों का विवाह अंगिरा से एवम् दो पुत्रियों का विवाह कृषाष्व से किया।
उन्ही से देवता, दैत्य, दानव, नाग, गौ, पक्षी, गन्धर्व और अप्सराओं की उत्पत्ति हुई।
 दक्ष द्वितीय की दस पुत्रियों और धर्म की सन्तान --
1अरुनधती से समस्त पृथ्वी- विषयक प्राणी हुए।
2- वसु से वसुगण हुए।
3 यामीसे नागवीथी हुई।
4 - लम्बा से घोष हवे।
5 भानु से भानु हुए।
6 मरुद्वती से मरुत्वान हुए।
7 संकल्पा से सर्व संटल्प हुए।
8 मुहुर्ता से मुहुर्ता भिमानी देवगण हुए।
9साध्या से साध्यगण  हुए।
और 10 विश्वा  से विश्वेदेवा हुए।
11 वसु से तेज अथवा धन ही जिनका प्राण है।ऐसे आठ वसुगण हुए।
1आप से वैतण्ड, श्रम,शान्त,और ध्वनि  हुए।
2ध्रुव के पुत्र काल हुए
3 सोम वर्चा   
 4 धर्म की पत्नी मनोहरा से दृविण (ये दृविड़ जातियों के आदि पुरुष हैं।) ,हुत हव्यवह ,शिशिर ,प्राण तथा वरुण हुए। , 
5अनिल( वायु), 
6 अनल (अग्नि),
7 प्रत्युष और
8  प्रभास है।
वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में भी सुर्यवंशी स्वायम्भुव मनु की पन्द्रह पीड़ी में उत्पन्न दक्ष प्रथम की  पुत्रि अदिति और प्रजापति के पुत्र (दक्ष प्रथम के भाई और दामाद)  मरीचि के पुत्र  कश्यप ऋषि की  बारह सन्तान आदित्यों कहलाते है। 

सूर्यवंश वर्णन--- 
सातवे आदित्य विवस्वान हुए में  विवस्वान  के पुत्र वैवस्वत मनु हुए जो सप्तम मन्वन्तर वैवस्वत मन्वन्तर के मनु हुए। वैवस्वत मनु को श्राद्धदेव भी कहते हैं श्रद्धा इनकी पत्नी  है। वैवस्वत मनु और श्रद्धा से सुर्य वंश चला। इसके मुख्य पुरुष इक्ष्वाकु बहुत प्रसिद्ध हैं जिसके कारण इसे इक्ष्वाकु वंश भी कहते हैं। रघुकुल भी इसी इक्ष्वाकु वंश की शाखा थी। जिसमें श्रीराम हुए।


 चन्द्रवंश वर्णन --- 

वैवस्वत मनु की पुत्री ईला की सन्तान चन्द्र वंशी कहलाये।
प्रजापति के पुत्र अत्री ऋषि हुए।अत्री ऋषि के पुत्र चन्द्रमा हुए। चन्द्रमा के पुत्र बुध से वैवस्वत मनु की पुत्री ईला के साथ विवाह हुआ। ईला और बुध की सन्तान एल पुरुरवा हुआ।
एल पुरुरवा ने उर्वशी नामक अप्सरा से विवाह किया। उर्वशी अफगान मूल की होने से अप्सरा कहलाती थी तथा उर की निवासी होने से उर्वशी नाम हुआ।उर्वशी पामिर तिब्बत क्षेत्र में स्थित स्वर्ग में पुरन्दर इन्द्र की सभा की नर्तकी थी ।कुछ समय अवकाश पर एल पुरुरवा के साथ रही और गर्भवती होने पर एल पुरुरवा को छोड़ कर चली गयी । बादमें  एल पुरुरवा और उर्वषि अप्सरा के पुत्र आयु के जन्म के कुछ समय पश्चात उर्वशी ने पुत्र आयु  पुरुरवा को सोप कर इन्द्र सभा में कर्त्तव्य पर लोट गयी। 
एल पुरुरवा और उर्वशी की सन्तान आयु और आयु की सन्तान ही चन्द्रवंशी कहलाती है। 

कश्यप ऋषि और दक्ष (द्वितीय की पुत्री वसु की सन्तान अष्ट वसुओं में से धर्म नामक वसु की सन्तान द्रविड़ कहलायी। 
कश्यपप ऋषि की पत्नी दक्ष द्वितीय की पुत्री कद्रु की सन्तान नाग और वनिता की सन्तान गरुड़ भी कश्यप की ही सन्तान है।गर्डेशिया में गरुड़ बसे।

2 - तत्कालीन युरोप में कार्लमार्क्स ही प्रथम और एकमात्र व्यक्ति थे जिनने आर्यों के मध्य एशिया या युरोप के मुल निवासी होने और भारत पर आक्रमण करने की मेक्समूलर की थ्योरी का प्रामाणिक खण्डन किया था। 
भारत के वाममार्गी इसके विपरीत मत क्यों रखते हैं यह तो वे ही जाने। किन्तु  मार्क्सवादी इतिहासकार   श्री रामविलास  शर्मा  द्वारा रचित पश्चिम एशिया और ऋग्वेद (1994)  में भी यह तथ्य प्रमाणित होता है।
ऐसे ही भारत में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर भी मेक्समूलर के आर्य - द्रविड़  विदेशी आक्रमक सिद्धान्त के कट्टर विरोधी होकर आर्यों को शुद्ध भारतीय मानते थे।और अनुसूचित जातियों को भी आर्यवंशी ही मानते थे।
अम्बेडकरवादी अम्बेडकर के विरुद्ध जाकर आर्यों को विदेशी आक्रान्ता और स्वयम् को दृविड़ कहने लगे हैं।
3- भारतीय पौराणिक सन्दर्भ में देखें तो कश्यप ऋषि की तपस्थली कश्यप सागर (केस्पियन सागर) भी रही। केस्पियन सागर से लगे हुए भाग पुर्वी टर्की में राजा खत्तुनस की सभ्यता खत्ती सभ्यता जिसे बायबल में हित्ती कहा गया विकसित हुई।
बायबल के अनुसार  टर्की के तोरोत पर्वत के दक्षिणपुर्व में जहाँ दजला (टाइग्रिस)- फरात (युफ्रेटिस), हिद्दिकेत और (पीशोन या गीहोन) आदि चार नदियों का उद्गम है, अदन वाटिका वहीँ थी। अदन वाटिका से एल ( ईश्वर) यहोवा ने आदम को निकाला गया तो वह श्रीलंका के श्रीपाद पर्वत शिखर यानी एडम  शिखर पर पहूँचा। जहाँ किसी श्रीमान पुरुष के लंक यानी पंजे के चिन्ह / निशान बने हैं।
यह स्थान सनातध धर्मियों, और यहुदियों का तिर्थ है ज्ञात रहे ईसाई धर्म संस्थापक यीशु स्वयम् यहूदी थे और आजीवन स्वयम् को यहुदी ही मानते रहे। अतः इसाईयों का भी तिर्थ है।।इब्राहीम को पहला नबी/ पेगम्बर मानने के कारण यहुदियों का होने से मुस्लिमों का भी तिर्थ है।
कश्यप ऋषि कीपत्नी अदिति की बारह सन्तान आदित्य कहलाती है।उनमें से एक विवस्वान का पुत्र वैवस्वत मनु हुए। वेवस्वत मनु की सन्तान सुर्यवंशी क्षत्रिय कहलाते हैं । ये काले होते हैं।
वैवस्वत मनु की पुत्री ईला का विवाह बुध से हुआ। बुध अत्रि ऋषि के पौत्र और सोम / चन्द्रमा के पुत्र थे।
नोट -  नक्षत्र मण्डल में मृगशिर्ष नक्षत्र (ओरायन) सोम का स्थान है ।और मिश्र के पिरामिड भूमि पर उसकी प्रतिकृति है। इब्राहिम को प्रथम नबी मानने वाले धर्म  शेम की सन्तान सेमेटिक / सोमवंशी माने जाते हैं।
बुध से ईला के पुत्र पुरुरवा को एल कहते हैं। इस एल पुरुरवा की सन्तान चन्द्रवंशी कहलाती है। ये अत्यन्त गौर वर्णीय होते हैं। माता ईला की भाषा वेदिक संस्कृत और वेदिक देवता मित्रावरुण और अश्विनौ तथा मरुद्गणों में श्रद्धा होना स्वाभाविक था। वे ही संस्कार चन्द्रवंशियों में भी गये। बुध का राज्यक्षेत्र पश्चिम एशिया, और राजधानी पुर्वी टर्की में थी। जहाँ से  युफ्रेटिस, हिद्दिकेत आदि चार नदियाँ निकलती है। वहीँ अदन वाटिका थी।
एल पुरुरवा की अप्सरा पत्नी जो ईराक के ऊर नगर की थी। प्रथम सन्तान आयु  के जन्म के पश्चात आयु को एल पुरुरवा को सोप कर पामिय - तिब्बत- कश्मीर क्षेत्र स्थित स्वर्ग में लोट गयी। आयु का पालन पोषण अकेले एल पुरुरवा ने अदन वाटिका में रख कर किया। आयु मतलब जबतक देह में प्राण रहे,वह अवधि आयु कहलाती है। प्राण को दम भी कहते हैं। दम निकलना मतलब प्राण निकलना, दम लेना मतलब श्वाँस लेना। श्वाँस - प्रश्वाँस को प्राणन कहते हैं।इसी कारण आयु का नाम आदम हुआ।
वैवस्वत मनु द्वारा ईला को ईरान- इराक में प्रदत्त राज्य क्षेत्र ईलाका कहलाता है।  ईला से ही एल, ईलाही, शब्द बने हैं। अरबी शब्द अल्लाह और ईलाही हिब्रु शब्द एल का समानार्थी शब्द/  पर्यायवाची है। हिन्दी में  जिसका अर्थ ईश्वर होता है।
पुर्वी टर्की के राजा खत्तुनस का वंश खत्ती कहलाता है।जिसका समान उच्चारण वाला संस्कृत / हिन्दी शब्द खत्री और खाती है।जो चन्द्रवंशी क्षत्रिय लोगों की एक जाति है। भारत में खत्री और खाती मूलतः कश्मीर क्षेत्र में रहते थे।
वेदिक इतिहास के अनुसार पंजाब सिन्ध, राजस्थान गुजरात के सारस्वत क्षेत्र के निवासी स्वायम्भुव मनु की सन्तान मनुर्भरतो ने विवस्वान की सन्तान सुर्यवंशियों के साथ छुटपुट मतभेद हल कर सहज ही अपना लिया था और उन्हे अयोध्या में बसादिया था। क्यों कि सुर्यवंशी भी मनुर्भरतों की ही सन्तान परम्परा से थे।और दायद थे।
जबकि चन्द्रवंशियों के माता की भूमि भारत लोटने पर सरस्वती नदी के तटवर्ती क्षेत्र में निवास करने वाले स्वायम्भुव मनु की सन्तान मनुर्भरतों के साथ चन्द्रवंशियों का संघर्ष हुआ जिसमें विवस्वान की सन्तान  सुर्यवंशियों ने मनुर्भरतों का साथ दिया। ऋग्वेद का शतवर्षिय दशराज युद्ध यही संघर्ष था। 
अन्ततः  वैवस्वत मनु की पुत्री की सन्तान होने के नाते सुर्यवंशियों के  और मनुर्भरतों ने भानजा मानकर चन्द्र वंशियों को बसने की अनुमति प्रदान करदी और  समझोते के अनुसार चन्द्रवंंशियों को प्रयागराज क्षेत्र का राज्य प्रदान किया।
सिरीया से आये नागवंशियों के कश्मीर में बसने पर चन्द्र वंशियों ने नागवंशियों को  पुर्व में खदेड़ दिया। क्योंकि नागवंशियों और चन्द्रवंंशियों में पुरानी दुष्मनी थी। जिसका वर्णन नाग द्वारा आदम को भड़काने की कहानी में मिलता है।जिस कारण आदम को अदन की वाटिका छोड़नी पड़ी थी।
यहाँ सब स्पष्ट होगया कि, खत्ती साम्राज्य/ हित्तियों में मित्रावरुण की शफथ लेना , हित्ती भाषा में संस्कृत शब्दों की प्रचुरता पायी जाना स्वाभाविक है। इसी कारण भारत के चन्द्रवंशी खाती अत्यन्त गौर वर्णीय हैं। 
अर्थात मेक्समूलर चन्द्रवंशियों को आर्य समझा।जबकि आर्य नामक कोई जाती नही है। मनुर्भरत, सुर्यवंशी , चन्द्रवंशी , आग्नेय,द्रविड़,नाग जातियाँ है।
इनमें मनुर्भरत सरस्वती नदी तटवर्ती , सुर्यवंशी सरयुतट पर अयोध्यावासी, चन्द्रवंशी प्रयागराज गंगायमुना संगम पर और दृविड़ कृष्णा नदी तट पर बसे आग्नेय दक्षिण पुर्व भारत में बसे। नागों को पूर्वी भारत में बसाया गया

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