मंगलवार, 30 मार्च 2021

सनातन धर्म में सृष्टि का कालक्रम, चतुर्युग, मन्वन्तर, कल्प, और प्रलय तथा ब्रह्मा की आयु और दशावतार।

कलियुग की कालावधि चार लाख बत्तीस हजार वर्ष होती है। कलियुग में एकमात्र कल्कि अवतार होते हैं।
कुछ लोग श्रीमद्भागवत पुराण में उल्लेख बतलाकर बिहार और नेपाल की सीमा पर लुम्बिनी नामक स्थाध पर ईसापूर्व 563 में राजा शुद्धोदन की पत्नी मायादेवी के गर्भ से जन्में सिद्धार्थ गोतम बुद्ध को विष्णुअवतार मानते हैं। किन्तु यह सही नही लगता क्योंकि,
1तथागत बुद्ध का वर्णन रामायण अयोध्या काण्ड/सर्ग 108 एवम् 109 में है। सर्ग 109 के 34 वें श्लोक में श्रीराम ने जाबालि को बुद्ध के मत को माननें वालों से वार्तालाप करना तक निषिद्घ और उन्हें चोर के समान दण्ड का पात्र  बतलाया है। मतलब बुद्ध और उनके मतावलम्बी श्रीरामचन्द्रजी के पूर्व में भी थे। स्पष्टतः यह वर्णन श्रमण सम्प्रदाय का है जो वर्तमान में 1नागा,2 शैव, 3 शाक्त, 4 गाणपत्य, 4 नाथ,6 जैन और 7बौद्ध  सम्प्रदाय के रूप में पाया जाता है।

 श्रीबुद्ध नामक बुद्धावतार द्वापर युग में श्रीकृष्ण के बाद कीटक नामक स्थान पर आश्विन शुक्ल दशमी (विजयादशमी/ दशहरे) के दिन अजिन के घर हुआ।

हरिवंश पुराण 01/41, विष्णु पुराण 3/18, पद्म पुराण3-252 एवम् गरुड़ पुराण उ/15/26 में मायामोह और नग्न नाम से श्रमण और जैन सम्प्रदाय का वर्णन है।

सिद्धार्थ गौतम बुद्ध जिनका जन्म  बिहार नेपाल सीमा वर्ती लुम्बिनी नामक स्थान पर 563 ई.पू. हुआ। उनके पिता राजा शुद्धोधन तथा माता का नाम माया देवी था।  सिद्धार्थ के जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि, यह बालक चक्रवर्ती राजा होगा या बुद्ध होगा। 
मतलब उनके जन्म के पहले कोई बुद्ध हो चुके थे। उन श्रीबुद्धावतार के अनुयायी और उनके पन्थ   पर  जैन तिर्थंकर और अन्य बुद्ध तथा सिद्धार्थ गोतम बुद्ध भी चले थे। 
जबकि भविषपुराण में तथागत गोतम बुद्ध को राक्षस कहागया है। और कल्कि पुराण में तो सिद्धार्थ गोतम बुद्ध और उनके माता मायादेवी और पिता शुद्दोधन पुनः उत्पन्न होकर अपने अनुयायी बौद्धों को साथ लेकर कल्कि अवतार से युद्ध करनें और परास्त होनें का वर्णन है।
अतः सिद्धार्थ विष्णु अवतार तो कदापि नही माने जा सकते।

(कलियुग की अवधि 4,32,000 वर्ष युग की इकाई है।)
द्वापर की कालावधि कलियुग से दुगनी आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष होती है। द्वापर में श्रीकृष्ण और बलराम अथवा मतान्तर से श्रीकृष्ण और श्रीबुद्ध दो अवतार होते हैं।

पुराणों में उल्लेख और संकल्प बोले जानेवाले तथा पञ्चाङ्गो में लिखे जानेंवाले चौवीस अवतारों में से इक्कीसवें और दशावतारों में नौवे अवतार श्री बुद्धावतार द्वापर युग में श्रीकृष्ण जन्म के बाद आश्विन शुक्ल दशमी (विजयादशमी/ दशहरे) के दिन कीटक नामक स्थान पर अजिन के घर हुआ बतलाया जाता है। किन्तु कोई विशेष प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध नही है।

( 4,32,000 वर्ष × 2 = 8,64,000 वर्ष। है ना द्वापर।)

त्रेता की कालावधि कलियुग से तिगुनी बारह लाख छियानवे हजार वर्ष होती है। त्रेता में वामन, परशुराम और श्रीराम ये तीन अवतार होते हैं।

(4,32,000 वर्ष × 3 = 12,96,000 वर्ष। है ना त्रेता।)

कृतयुग (सतयुग) की कालावधि कलियुग से चौगुनी सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष होती है। सतयुग में मत्स्यावतार (मधुकैटभ का वध कर ब्रह्मा जी को वेद / ज्ञान लोटानें वाले।।), कश्यप (समुद्रमंथन), वराह (हिरण्याक्ष वध कर भूमि सागर में लुप्त भूमि का उद्धार करनें वाले।) तथा नृसिंह (हिरण्यकशिपु का वध कर प्रहलाद के उद्धारक।) ये चार अवतार होते हैं।

4,32,000 वर्ष × 4 = 17,28,000 वर्ष। है ना कृतयुग।)

प्रत्येक महायुग उक्त चारों युगों की कालावधि का योग है। अर्थात 43,20,000 वर्ष में ये चारों युग एक एक बार आते हैं। अतः हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के एक दिन अर्थात 4,32,00,00,000 वर्ष में यानी एक कल्प में एक हजार बार आते हैं। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के प्रत्यैक दिवस के बाद इतनी ही अवधि की रात्रि या नैमित्तिक प्रलय रहता है जिसमें पूरी सृष्टि बीज रूप में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के चित्त में रहती है और कल्पारम्भ में पुनः प्रकट होती है।

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन अर्थात एक कल्प (4,32,00,00,000 वर्ष) प्रजापति ब्रह्मा की आयु होती है। 30,67,20,000 वर्ष का मन्वन्तर होता है। प्रत्यैक कल्प में पहले और 17,28,000 वर्ष यानी कृतयुग तुल्य सन्धि फिर मन्वन्तर, फिर सन्धि फिर मन्वन्तर ऐसे क्रम में चौदह मन्वन्तर और पन्द्रह सन्धि होती है। सं्धि की अवधि में जैविक प्रलय रहता है। केवल मन्वन्तर काल में ही जैविक सृष्टि रहती है। अर्थात एक कल्प में 4,29,40,80,000 वर्ष ही जैविक सृष्ट रहती है और 2,59,20,000 वर्ष जैविक प्रलय रहता है।

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की आयु स्वयम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के सौ वर्ष के बराबर है अर्थात मानवीय वर्ष में ब्रह्मा की आयु इकतीस नील, दस खरब, चालिस अरब वर्ष है। (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष है) इसमें 360×100 दिन होंगे।अर्थात 36,000 दिन। (ब्रह्मा की आयु में 36,000 कल्प होते हैं।)

अतः हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की पूरी आयु में 4,29,40,80,000 × 36000 = 15,45,86,88,00,00,000 वर्ष जैविक सृष्टि रहती है। और 15,64,53,12,00,00,000 वर्ष निर्जीव अवस्था ही रहती है।

36,000 × 1000 =3,60,00,000 महायुग होते हैं।

अर्थात ब्रह्मा की आयु में तीन करोड़, साठ लाख बार कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग की आवृत्ति होती है।

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

ग्रहण काल में जन्में या कुण्डली में षडबल में सूर्य कमजोर हो और सूर्य की महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर्दशा, सुक्ष्मदशा और प्राण दशा में यदि गोचर में सूर्य का प्रतिकूल भ्रमण में शुभकार्यार्थ सूर्य की दान सामग्री दान विधि।

*सूर्य की दान सामग्री एवम् दान विधि*  ----

*नोट -- पहले ये दो मन्त्र अच्छी तरह याद करलें।* --

उच्चारण की सुविधा हेतु अन्वय सहित सावित्री / गायत्री मन्त्र -- 

ओ३म्   भूः भूवः स्वः ।
तत् सवितुः वरेण्यम्  ।
भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

सावित्री / गायत्री मन्त्र

*ओ३म्   भूर्भूवः स्वः।*
*तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।*

उच्चारण की सुविधा हेतु अन्वय सहित सूर्य का पौराणिक मन्त्र --

जपा कुसुम संकाशम्  काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।
तमोअ्रिम्  सर्व पापघ्नम्  प्रणतो अ्स्मि दिवाकरम् ।।

सूर्य का पौराणिक मन्त्र -- 

*जपाकुसुमसंकाशम् काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।तमोsरिम्  सर्वपापघ्नम्  प्रणतोsस्मि दिवाकरम् ।।*

फिर निम्नांकित सामग्रियाँ शनिवार तक एकत्र कर अपने घर के देवस्थान या भण्डारगृह या  रसोईघर में सुरक्षित रख लें।
घर में ही पौधे में लगा हो या सम्भव हो तो रक्त पुष्प रविवार को सुबह भी ले सकते हैं।

 रविवार को सूर्योदय के पहले ही स्नान कर निम्नांकित समस्त दान सामग्री लेकर निकटतम किसी भी देवस्थान पर पहूँच जायें।

 रविवार को सूर्योदय होते ही तत्काल बाद में किन्तु बीस मिनट के अन्दर ही निकटतम किसी भी देवस्थान में ये दान सामग्रियाँ ईश्वरार्पण कर प्रार्थना करें कि है प्रभु ( गोत्र सहित अपना नाम  लेकर) मैं सूर्य को बल प्रदान करने के निमित्त सूर्य की अनुकूलता प्राप्तर्थ्य दान कर रहा हूँ।
दान सामग्री कृपया योग्य पात्र तक पहूँचाने की कृपा करें। क्योंकि योग्य पात्र खोजना मेरे सामर्थ्य में नही है। यह निवेदन कर दान सामग्री ईश्वरार्पण करने के पहले। गायत्री मन्त्र --

ओ३म्   भूर्भूवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यम् ।
भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

का एक बार जप कर फिर ; सूर्य के पौराणिक मन्त्र --

जपाकुसुमसंकाशम् काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।
तमोsरिम्  सर्वपापघ्नम्  प्रणतोsस्मि दिवाकरम् ।।

का एक बार जप कर 
दान सामग्री ईश्वर को समर्पित करदें।

आपको ईश्वर को समर्पित करना है अतः मन्दिर बन्द हो तो द्वार पर रखदें। मन्दिर खुला हो किन्तु पुजारी हो या न हो केवल मन्दिर में दान रखने की जगह रखदें।किसी से कोई बात नही करना है।

सूर्य की दान सामग्रियाँ निम्नलिखित हैं--

1-- स्वर्ण का आभुषण।

(सामर्थ्य अनुसार सोने का काँटा से हार तक कुछ भी चलेगा ले लें।)
 
2 -- माणिक Rubey 3 रत्ती।

(अथवा कंटकिज मणी Spinel स्पाइनल या तामड़ा Garnet .
या सामर्थ्य न हो तो इमिटेशन ही ले लें।)

3 -- लाल वृषभ। (लाल रङ्ग का साण्ड या बेल।) 

यदि सामर्थ्य न हो तो --
ताम्बे की शीट पर उकेरी हुई  वृषभ प्रतिमा ले लें।
 या चान्दी के पत्रे फर उकेरी सुर्य की मुर्ति जो वास्तु पुजा में लगती है वह ले लें।

4 -- ताम्र  ताम्बे का बर्तन।

सामर्थ्य अनुसार आचमनी से लेकर घड़े तक कुछ भी लेलें ।

5 -- शुद्ध रेशम का या शुद्ध काटन का चटकीला लाल  कपड़ा।

( सुती या शुद्ध रेशम का ही हो। चटक लाल रंग का शर्ट पीस या ब्लाउज पीस या रुमाल यथा सामर्थ्य  लेलें ।)

6 -- गेहूँ (सवाया लें।)

(सवा क्विण्टल या सवाधड़ी या सवा किलोग्राम या सवा सौ ग्राम या  सवापाव चन्दोसी से लेकर लोकवन तक कोई सा भी गेहूँ ले लें।)

7 -- गन्ने से बना मालवी गुड़।(सवाया लें।) 

(सवा धड़ी या सवा किलोग्राम या सवा सौ ग्राम या सवापाव मालवी गुड़ ही लें।)

8 -- लाल पुष्प।

लाल गुलाब, लाल कनेर, या गुडहल का फुल लेलें।

और सम्भव हो तो ये तीन वस्तुएँ भी ले सकते हैं।

9 --गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित वैदिक सूक्त संग्रह पुस्तक या यथा सामर्थ्य चारों वेद, ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद, श्रोतसुत्र, ग्रह्य सुत्र, शुल्बसुत्र,धर्मसुत्र, पुर्वमिमांसा, उत्तरमीमांसा दर्शन, सांख्य कारिका और सांख्य दर्शन और योग दर्शन, न्याय और वैशेषिक दर्शन, मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति, वाल्मीकि रामायण- महाभारत,सुर्यसुक्त, उषःसुक्त, चाक्षुषोपनिषद, सन्ध्योपासना विधि, सावित्री जप/ गायत्री जप विधि, आदित्यहृदय स्तोत्र आदि यथा सामर्थ्य कुछ भी लेलें।

10 -- बैंत की जड़ या बैल मूल। ( बि्ल्वपत्र की जड़ आपके दाहिने हाथ की कनिष्ठा उँगली के बराबर ही लें।)

11 -- गमले में अर्क/ आँक /आँकड़े का पौधा लेलें।

उक्त दान सामग्री ईश्वरार्पण करने के तत्काल पश्चात सुर्य के पौराणिक मन्त्र -- 
जपाकुसुमसंकाशम् काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।
तमोsरिम्  सर्वपापघ्नम्  प्रणतोsस्मि दिवाकरम् ।।

का जप करें। फिर गायत्री मन्त्र --

ओ३म्   भूर्भूवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यम् ।
भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

का जप एक बार पुनः जप कर घर आ जायें।

उक्त समस्त क्रियाओं के क्रियान्वयन  सूर्योदय के पश्चात सूर्योदय से बीस मिनट के अन्दर ही करना है। अतः चाहें तो एक दिन पहले रिहल्सल करलें।

इसके बाद उगते सूर्य को अर्ध्य देते हुएँ नित्य  केवल गायत्री मंत्र

ओ३म्   भूर्भूवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यम् ।
भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

का ही जप यथाशक्ति करना चाहिए।

कुण्डली में सूर्य निर्बल हो या सूर्य ग्रहण काल में जन्म हुआ हो तो सूर्य को बलवान बनाने के लिए सूर्य के पौराणिक मन्त्र जप की विधि।

*सूर्य की दान सामग्री एवम् जप विधि*  ----

*नोट -- पहले ये दो मन्त्र अच्छी तरह याद करलें।* --

उच्चारण की सुविधा हेतु अन्वय सहित सावित्री / गायत्री मन्त्र -- 

ओ३म्   भूः भूवः स्वः ।
तत् सवितुः वरेण्यम्  ।
भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

सावित्री / गायत्री मन्त्र

*ओ३म्   भूर्भूवः स्वः।*
*तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।*

उच्चारण की सुविधा हेतु अन्वय सहित सूर्य का पौराणिक मन्त्र --

जपा कुसुम संकाशम्  काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।
तमोअ्रिम्  सर्व पापघ्नम्  प्रणतो अ्स्मि दिवाकरम् ।।

सूर्य का पौराणिक मन्त्र -- 

*जपाकुसुमसंकाशम् काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।तमोsरिम्  सर्वपापघ्नम्  प्रणतोsस्मि दिवाकरम् ।।*

फिर निम्नांकित सामग्रियाँ शनिवार तक एकत्र कर अपने घर के देवस्थान या भण्डारगृह या  रसोईघर में सुरक्षित रख लें।
घर में ही पौधे में लगा हो या सम्भव हो तो रक्त पुष्प रविवार को सुबह भी ले सकते हैं।

 रविवार को सूर्योदय के पहले ही स्नान कर निम्नांकित समस्त दान सामग्री लेकर निकटतम किसी भी देवस्थान पर पहूँच जायें।

 रविवार को सूर्योदय होते ही तत्काल बाद में किन्तु बीस मिनट के अन्दर ही निकटतम किसी भी देवस्थान में जाकर दान सामग्री ईश्वरार्पण करने के पहले।

गायत्री मन्त्र --

ओ३म्   भूर्भूवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यम् ।
भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

का एक बार जप कर फिर ; सुर्य के पौराणिक मन्त्र --

जपाकुसुमसंकाशम् काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।
तमोsरिम्  सर्वपापघ्नम्  प्रणतोsस्मि दिवाकरम् ।।

का एक बार जप कर प्रार्थना करें कि है प्रभु ( गोत्र सहित अपना नाम  लेकर) मैं सूर्य को बल प्रदान करने के निमित्त सूर्य की अनुकूलता प्राप्तर्थ्य दान कर रहा हूँ।
योग्य पात्र खोजना मेरे सामर्थ्य में नही है अतः कृपया आप ये  दान सामग्री योग्य पात्र तक पहूँचाने और सूर्य के पौराणिक मन्त्र के दस हजार जप (सौ माला जप) सफलतापूर्वक पूर्ण करवाने की कृपा करें। यह प्रार्थना कर ये दान सामग्रियाँ ईश्वरार्पण कर 
पुनः गायत्री मन्त्र ---

ओ३म्   भूर्भूवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यम् ।
भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

का एक बार जप कर फिर ; सूर्य के पौराणिक मन्त्र --

जपाकुसुमसंकाशम् काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।
तमोsरिम्  सर्वपापघ्नम्  प्रणतोsस्मि दिवाकरम् ।।

का एक बार जप कर 
दान सामग्री ईश्वर को समर्पित करदें।

आपको ईश्वर को समर्पित करना है अतः मन्दिर बन्द हो तो द्वार पर रखदें। मन्दिर खुला हो किन्तु पुजारी हो या न हो केवल मन्दिर में दान रखने की जगह रखदें।किसी से कोई बात नही करना है।

सूर्य की दान सामग्रियाँ निम्नलिखित हैं--

1-- स्वर्ण का आभुषण।

(सामर्थ्य अनुसार सोने का काँटा से हार तक कुछ भी चलेगा ले लें।)
 
2 -- माणिक Rubey 3 रत्ती।

(अथवा कंटकिज मणी Spinel स्पाइनल या तामड़ा Garnet .
या सामर्थ्य न हो तो इमिटेशन ही ले लें।)

3 -- लाल वृषभ। (लाल रङ्ग का साण्ड या बेल।) 

यदि सामर्थ्य न हो तो --
ताम्बे की शीट पर उकेरी हुई  वृषभ प्रतिमा ले लें।
 या चान्दी के पत्रे फर उकेरी सूर्य की मुर्ति जो वास्तु पुजा में लगती है वह ले लें।

4 -- ताम्र  ताम्बे का बर्तन।

सामर्थ्य अनुसार आचमनी से लेकर घड़े तक कुछ भी लेलें ।

5 -- शुद्ध रेशम का या शुद्ध काटन का चटकीला लाल  कपड़ा।

( सुती या शुद्ध रेशम का ही हो। चटक लाल रंग का शर्ट पीस या ब्लाउज पीस या रुमाल यथा सामर्थ्य  लेलें ।)

6 -- गेहूँ (सवाया लें।)

(सवा क्विण्टल या सवाधड़ी या सवा किलोग्राम या सवा सौ ग्राम या  सवापाव चन्दोसी से लेकर लोकवन तक कोई सा भी गेहूँ ले लें।)

7 -- गन्ने से बना मालवी गुड़।(सवाया लें।) 

(सवा धड़ी या सवा किलोग्राम या सवा सौ ग्राम या सवापाव मालवी गुड़ ही लें।)

8 -- लाल पुष्प।

लाल गुलाब, लाल कनेर, या गुडहल का फुल लेलें।

और सम्भव हो तो ये तीन वस्तुएँ भी ले सकते हैं।

9 --  गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित वैदिक सूक्त संग्रह पुस्तक या यथा सामर्थ्य चारों वेद, ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद, श्रोतसुत्र, ग्रह्य सुत्र, शुल्बसुत्र,धर्मसुत्र, पुर्वमिमांसा, उत्तरमीमांसा दर्शन, सांख्य कारिका और सांख्य दर्शन और योग दर्शन, न्याय और वैशेषिक दर्शन, मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति, वाल्मीकि रामायण- महाभारत,सुर्यसुक्त, उषःसुक्त, चाक्षुषोपनिषद, सन्ध्योपासना विधि, सावित्री जप/ गायत्री जप विधि, आदित्यहृदय स्तोत्र आदि यथा सामर्थ्य कुछ भी लेलें।

10 -- बैंत की जड़ या बैल मूल। ( बि्ल्वपत्र की जड़ आपके दाहिने हाथ की कनिष्ठा उँगली के बराबर ही लें।)

11 -- गमले में अर्क/ आँक /आँकड़े का पौधा लेलें।

उक्त दान सामग्री ईश्वरार्पण करने के तत्काल पश्चात सूर्य के पौराणिक मन्त्र -- 
जपाकुसुमसंकाशम् काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।
तमोsरिम्  सर्वपापघ्नम्  प्रणतोsस्मि दिवाकरम् ।।

का जप करें। फिर गायत्री मन्त्र --

ओ३म्   भूर्भूवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यम् ।
भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

का जप एक बार पुनः जप कर घर आ जायें।

उक्त समस्त क्रियाओं के क्रियान्वयन  सूर्योदय के पश्चात सूर्योदय से बीस मिनट के अन्दर ही करना है। अतः चाहें तो एक दिन पहले रिहल्सल करलें।

*घर पर जप करने हेतु--*

घर आने के बाद जब भी समय मिले दिन में, रात में, देवस्थान/ देवघर में या सोफे पर जहाँ कर सकें शान्ति से बैठकर सूर्य का पौराणिक मन्त्र --

जपाकुसुमसंकाशम् काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।
तमोsरिम्  सर्वपापघ्नम्  प्रणतोsस्मि दिवाकरम् ।।

का जप करें।

नोट --

इस बीच हर दिन कम से कम एक। बार 108  बार या अति विकट स्थिति में कम से कम ग्यारह बार पौराणिक मन्त्र का मान्सिक जप अवश्य करें। अपरिहार्य परिस्थितियों में भी कम से कम एकबार तो जप करें ही।
चाहे घर में या स्वयम् को जनन अशोच  (बिरदी), मरण अशोच (सुतक) हो, स्त्रियों का मासिक धर्म अवधि हो, घरमें कोई बिमार हो और उसकी सेवा में व्यस्त हों स्वयम् बिमार हो,या यात्रा में हो या कही कर्त्तव्य पर तैनात हों,वैवाहिक आदि किसी कार्यक्रम मे व्यस्त हों,किसी कारण स्नान न कर पाये हों कैसी भी परिस्थिति हो 108 बार या 11 बार या एक बार तो मान्सिक जप कर ही लें।

एक बार में कम से कम 108 मनकों की एक माला जप पुर्ण होने पर एक लिख लें।
यथा सम्भव एक माला अवश्य जपें।

एक माला जपने पर 100 ( एक सौ) मन्त्र ही गिनती में माने।
दो माला पर दो सौ मन्त्र माने।
माला तुलसी की हो। 108 मनकों की ही लें।
फुल / सुमेरु पर्वत आने पर माला पलट दें क्योंकि सुमेरु का उल्लङ्घन नही करना है।
आसन पर बैठें तो आसन छोड़ने के पहलें आसन थोड़ उँचा कर भूमि पर जल छिड़क कर भूमि का जल नैत्रों पर या भृकुटि मध्य लगाकर ही आसान से उठें।

*निर्धारित जप संख्या 10,000 (दस हजार)यानि 100 माला पुर्ण होने के बाद अगले रविवार तक मन्त्र सूर्य मन्त्र जप चालू रखें चाहे रोज एक माला ही ही करें या ग्यारह मन्त्र हो ही जप करें किन्त  बन्द न करें।अगले रविवार को सूर्योदय से बीस मिनट के अन्दर के कार्य कर्म --*

10,000 (दस हजार ) मन्त्र जप यानि 108 मनकों की 100 माला जप पुर्ण होंने के बाद जो भी रविवार आये उस दिन पुनः सूर्योदय के तत्काल पश्चात किन्तु सूर्योदय के बीस मिनट के अन्दर 

सूर्य की निम्नलिखित दान सामग्रियाँ  --

1-- स्वर्ण का आभुषण।

(सामर्थ्य अनुसार सोने का काँटा से हार तक कुछ भी चलेगा।)
 
2 -- माणिक Rubey 3 रत्ती।

(अथवा कंटकिज मणी Spinel स्पाइनल या तामड़ा Garnet .
या सामर्थ्य न हो तो इमिटेशन ही ले लें।)

3 -- लाल वृषभ। (लाल रङ्ग का साण्ड या बेल।) 

यदि सामर्थ्य न हो तो --
ताम्बे की शीट पर उकेरा वृषभ।
 या चान्दी के पत्रे उकेरी सुर्य की मुर्ति जो वास्तु पुजा में लगती है।

4 -- ताम्र  ताम्बे का बर्तन।

सामर्थ्य अनुसार आचमनी से लेकर घड़े तक कुछ भी चलेगा।

5 -- चटकीला लाल या गुलाबी शुद्ध रेशम का या शुद्ध काटन का कपड़ा।

( सुती या शुद्ध रेशम का ही हो। ब्लाउज पीस या शर्ट पीस रुमाल यथा सामर्थ्य जो ले सकें।)

6 -- गेहूँ (सवाया लें।)

(सवा क्विण्टल या सवाधड़ी या सवा किलोग्राम या सवा सौ ग्राम या  सवापाव चन्दोसी से लेकर लोकवन तक कोई सा भी गेहूँ।)

7 -- गन्ने से बना मालवी गुड़।(सवाया लें।) 

(सवा धड़ी या सवा किलोग्राम या सवा सौ ग्राम या सवापाव मालवी गुड़ ही लें।)

8 -- लाल पुष्प।

लाल गुलाब, लाल कनेर, या गुडहल का फुल।

और सम्भव हो तो ये तीन वस्तुएँ भी ले सकते हैं।

9 --गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित वैदिक सूक्त संग्रह पुस्तक या यथा सामर्थ्य चारों वेद, ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद, श्रोतसुत्र, ग्रह्य सुत्र, शुल्बसुत्र,धर्मसुत्र, पुर्वमिमांसा, उत्तरमीमांसा दर्शन, सांख्य कारिका और सांख्य दर्शन और योग दर्शन, न्याय और वैशेषिक दर्शन, मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति, वाल्मीकि रामायण- महाभारत,सुर्यसुक्त, उषःसुक्त, चाक्षुषोपनिषद, सन्ध्योपासना विधि, सावित्री जप/ गायत्री जप विधि, आदित्यहृदय स्तोत्र आदि यथा सामर्थ्य कुछ भी ।

10 -- बैंत की जड़ या बैल मूल। ( बि्ल्वपत्र की जड़ आपके दाहिने हाथ की कनिष्ठा उँगली के बराबर ही लें।)

11 -- गमले में अर्क/ आँक /आँकड़े का पौधा।

उक्त दान सामग्री ईश्वरार्पण करने के तत्काल पश्चात सुर्य के पौराणिक मन्त्र -- 

जपाकुसुमसंकाशम् काश्यपेयम्  महाद्युतिम्।
तमोsरिम्  सर्वपापघ्नम्  प्रणतोsस्मि दिवाकरम् ।।
का जप करें।

फिर गायत्री मन्त्र --

ओ३म्   भूर्भूवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यम् ।
भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

एक बार पुनः जप कर घर आ जायें।

इसके बाद उगते सुर्य को अर्ध्य देते हुएँ नित्य  केवल गायत्री मंत्र

ओ३म्   भूर्भूवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यम् ।
भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

का ही जप यथाशक्ति करना चाहिए।
 सुर्य का पौराणिक मन्त्र जाप बन्द करदें अब नही करना है।


वेदों में सूर्य को विष्णु स्वरूप माना है।सूर्य जनक, प्रेरक और रक्षक है अर्थात सूर्य को ही सवितृ कहा गया है।सूर्य का प्रकाश सावित्री है। सूर्य को सूर्यनारायण कहते हैं। सूर्य की परिक्रमा करने वाली भूदेवी है। सूर्य को प्रजापति भी कहा है और देवता, मानव असुर सब प्रजा है।तथा सूर्य को  प्राण कहा गया है। सूर्य सौरमण्डल का केन्द्र (नाभि) है।  अर्थात सामान्य अर्थ में सूर्य सौर मण्डल का नियन्ता होनें से शासक या ईश्वर माना गया है। अतः सूर्य का अधिदेवता ईश्वर यानी सवितृदेव है। (न कि, ईशान या शंकर।)
सूर्य का प्रत्यधिदेवता अग्नि है।क्योंकि, अग्नि परमात्मा का मुख है। और सूर्य भी अग्नि स्वरूप है। रूप तन्मात्रा अग्नि की है। रूप दर्शन के लिए प्रकाश चाहिए जो सूर्य से मिलता है। स्वरूप दर्शन हैतु ज्ञान चाहिए। सूर्य को गुरुओं का गुरु कहा है।
सन्यासी, ब्राह्मण तुलसीदास जी के गुरु हनुमान और हनुमान के गुरु सूर्य।
देवगुरु ब्रहस्पति से भी वरिष्ठ प्रजापति सूर्य को ही माना है। 

सूर्य स्वयम् सवितृदेव,साक्षात धर्मस्वरूप सूर्य की सन्तान  धर्मराज यम,यमुना, दण्डाधिकारी शनि, मान्दी, तथा आयुर्वेद के जनक अश्विनी कुमार नासत्य और दस्र हैं।

 ईष्टि (अग्निहोत्र) और अष्टाङ्गयोग साधना तथा वेदशास्त्र स्वाध्याय, धर्मपालन, और सदाचारी जीवन, आयुर्वेद के नियमों का पालन करना ही सूर्य को बलवान बनानें का उपाय है।

अतः सूर्य को बल देनें के लिए सन्ध्योपासना , गायत्री जप करके सूर्य को नमस्कार कर और सूर्य को अर्घ्य देना, अष्टाङ्गयोग  साधन, वेदिक स्वाध्याय करना  पञ्चमहायज्ञ सेवन ,प्रातः सन्ध्या में सूर्योदय पश्चात और सायम् सन्ध्या मे सूर्यास्त के पूर्व दैनिक अग्निहोत्र करना।

सायन संक्रान्तियों और निरयन संक्रान्तियों तथा पूर्णिमा, अमावस्या के अन्त में मासिक अग्निहोत्र करना।

प्रत्यैक दो सायन संक्रान्तियों पर ऋतुओं के आरम्भ में ऋतु यज्ञ अग्निहोत्र करना।
प्रत्यैक तीन सायन संक्रान्तियों पर अयन तोयन आरम्भ पर अयन का अग्निहोत्र या योयन का अग्निहोत्र करना। अर्थात 

सायन मेष संक्रान्ति 21 मार्च को संवत्सरारम्भ, वेदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल) आरम्भ ,  वेदिक वसन्त ऋतु आरम्भ तथा वेदिक मधुमासारम्भ का संयुक्त अग्निहोत्र करें।

सायन कर्क  संक्रान्ति 22 जून को   वेदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वेदिक शचिमासारम्भ का अग्निहोत्र करें।

सायन तुला संक्रान्ति 23 सितम्बर को वेदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल गोल) आरम्भ ,  वेदिक शरद ऋतु आरम्भ तथा वेदिक ईष मासारम्भ का संयुक्त अग्निहोत्र करें।

सायन मकर  संक्रान्ति 22 दिसम्बर को   वेदिक उत्तर तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वेदिक  सहस्य मासारम्भ का अग्निहोत्र करें।
सूर्यग्रहण की अवधि में ग्रहण आरम्भ के पूर्व स्नान कर शरीर गीला रहते ही नदि सङ्गम / तिर्थ में या घरपर ही स्वच्छ, पवित्र और शुद्ध रहकर गायत्री मन्त्र जप आरम्भ करना। और ग्रहण समाप्ति पर पुनः स्नान कर जप पूर्ण कर दान करना। और अग्निहोत्र कर शुद्धि करना।
(सुचना -- इन यज्ञों में सभी मुख्य पर्वोत्सव आजाते हैं। इसमें स्वतः सूर्य आराधना होजाती है।)

अस्त, वक्री, और अत्यन्त क्षीण, निर्बल ग्रहों को बलवान बनाने के लिए ग्रहों के पौराणिक मन्त्र की जप विधि ।

*ग्रहों के पौराणिक मन्त्र जप करनें में सहायक विधि निषेध।* 

1 *यह प्रायश्चित्त और शान्तिकर्म है। अतः स्वयम् को ही करना होगा।* 
आपके  माता - पिता, भाई-बहन, पति या पत्नी अथवा सन्तान आपके लिए जप नही कर सकती। वे यदि करेंगे तो वह उनकी कुण्डली के ग्रहों को ही बल पहूँचायेगा। आपकी कुण्डली के ग्रह अप्रभावित रहेंगे। ऐसे ही कोई आचार्य, पुरोहित या पण्डित भी आपसे संकल्प करवा कर सुपारी लेकर जप करनें को कहे तो वह भी कोई लाभकारी नही होसकता। 
जैसे यज्ञ में, पूजा पाठ में आचार्य केवल निर्देशक और सहयोगी की भूमिका में रहकर यज्ञ या पूजा करवाते हैं; उनकी उतनी ही भूमिका हो सकती है।
 यज्ञ में आहूति  आपको ही डालना पड़ती है। पूजन आपको ही करना होती है, वैसे ही जप भी आपको ही करना है।
दुसरे के खाने से आपका पेट नही भर सकता और दुसरा दवाई खा ले या ऑपरेशन करवाले तो आप स्वस्थ्य नही हो सकते।
 ऐसे ही प्रायश्चित्त स्वरूप जप आपको ही करना है। दुसरा कोई नही कर सकता।
जब शिक्षा मण्डल, विश्वविद्यालय और परिक्षा मण्डल आपके स्थान पर दुसरे को परीक्षा देना स्वीकार नही करता तो देवता क्यों अनुमति देंगे?
निस्सन्देह यह कोई आराधना उपासना या साधना नही है किन्तु यह कोई सकाम उपासना या टोटकेबाजी भी नही है। 
बल्कि छुटे हुए कर्तव्यकर्म की क्षतिपूर्ति है। जिसे करना अनिवार्य है। 
जैसे कोई विद्यार्थी पूर्व कक्षा में  एक या दो विषय की परीक्षा उत्तीर्ण न कर पाता है तो विश्वविद्यालय अगली कक्षा में प्रवेश लेकर आगामी परीक्षा के साथ उन बचे हुए अनुत्तीर्ण विषयों की परीक्षा देकर उत्तीर्ण करनें का अवसर देता है। वैसे ही ईश्वर नें इस जन्म में गत जन्म के बचे हुए कर्तव्य कर्म पूर्ण करनें और त्रुटियों को सुधारने का अवसर देते हैं। वही प्रायश्चित कर्म कहलाते हैं।

2 ग्रहों के पौराणिक मन्त्र के जप की विधि बहुत विस्तार से समझा कर लिखी गई है।अतः यह केवल पढ़ने में बहुत बड़े। पर करने में में बहुत आसान है। करना शुरू करो तो हो जाते मैं। जब लाभ मिलता है तो स्वतः श्रद्धा बड़ती है।

3 मूलतः हमारा कर्तव्य है कि, जब भी कोई ग्रह अस्त हो या वक्री हो या नीचस्थ, शत्रुराशि/ नक्षत्र/ नवांशादि में हो। या कालबल या दृग्बल में क्षीण चल रहा हो तब उस ग्रह को बल देनें के लिए ईश्वर आराधना वैसे ही करना चाहिए जैसे अधिक मास क्षय मास में करते हैं। किन्तु कोई नही करता।

4  इसी का फल इस जन्म के समय कुछ ग्रह अस्त या वक्री या बलहीन होते हैं । अतः इस जन्म में उनको अस्त, वक्री या निर्बल ग्रहों को बल देनें के लिए उन अस्त , वक्री या निर्बल ग्रहों के पौराणिक मन्त्र जप निर्धारित विधि से करना पड़ता हैं।

5 वस्तुतः चलित चक्र में ग्रह जिस भाव  में स्थित हो उस भाव के फलों को सूचित करता है तथा भावस्पष्ट के अनुसार वह ग्रह जिस भाव का स्वामी हो उन भावों के फलों को भी सूचित करता है। 
इसके अलावा वह ग्रह जिस किसी ग्रह से अंशात्मक युति बनाता है या अंशात्मक पूर्ण दृष्ट हो उस ग्रह से सम्बद्ध भावों के फल भी सूचित करता है। 

6 कृष्णमूर्ति पद्यति के अनुसार केवल विंशोत्तरी महादशा पद्यति ही मान्य है। तथा
 विंशोत्तरी दशापद्यति के अनुसार नक्षत्रों के स्वामी सबसे महत्पूर्ण माने जाते हैं। 
तदनुसार  जिस नक्षत्र में वह ग्रह स्थित होता है उस नक्षत्र का स्वामी जिस भाव में स्थित हो और जिन जिन भावों का स्वामी हो उन भावों का फल विशेष रूप से सूचित करता है। 

 7  ग्रह जिस राशि नक्षत्र में ग्रह स्थित होता हैं उन राशि नक्षत्रों के स्वभावानुसार तथा  स्वयम् अपनी प्रकृति के अनुकूल उस भाव का फल फल सूचित करते हैं जिस भाव में वह ग्रह चलित चक्र में स्थित हो, या भावस्पष्ट के अनुसार जिन भावों का स्वामी हो। तथा कृष्णमूर्ति पद्यति के अनुसार जिन भावों का सूचक (Significator) हो।
 
8 किन्तु अस्त ग्रह, वक्री ग्रह और केशवी जातक ग्रन्थ में बतलाये गये तथा वृहत्पाराशर होराशास्त्र में भी उल्लेखित  षड्बलों  में अत्यन्त निर्बल ग्रह जिन शुभफलों को सुचित करते हैं उन फलों का मिलने का मात्र आभास होता है, पर मिलते नही हैं। जबकि जिन अशुभ फलों को सूचित करते हैं वे अशुभ फल अत्यधिक तीव्रता से और भरपूर मात्रा में मिलते हैं। 

9 किसी भी अस्त वक्री या बलहीन ग्रह को सबल बनानें के लिए उस ग्रह के पौराणिक मन्त्र का जप करने से उस ग्रह द्वारा सूचित शुभ फल पूर्ण रूप से घटित होने लगते हैं। जबकि उस ग्रह द्वारा सूचित अशुभ फल केवल आभास देकर ही पूर्ण हो जाते हैं।

10  ग्रहों के पौराणिक मन्त्रों की जप विधि का आधार ठीक वही है जो सूर्य  ग्रहण के समय सूर्य को बल देनें के लिए और चन्द्रग्रहण के समय चन्द्रमा को बल देनें के लिए धर्मशास्त्रों में उल्लेखित है।

11 ग्रहण काल में सूर्य या चन्द्रमा को बल देने के लिए पहले दान धर्म कर ग्रहण आरम्भ के तत्काल पूर्व स्नान कर सूर्य ग्रह ग्रहण अवधि में वेद मन्त्र का जप एवम् चन्द्र ग्रहण अवधि में पौराणिक मन्त्र का जप कर ग्रहण समाप्ति पर स्नान कर सूर्यग्रहण में सूर्य को या चन्द्र ग्रहण में चन्द्रमा को अर्घ्य देकर फिर दान धर्म किया जाता है। 

12  अस्त वक्री या अत्यन्त क्षीण ग्रह को बल प्रदान करनें हेतु उस अस्त वक्री या अत्यन्त क्षीण ग्रह के पौराणिक मन्त्र के जप करनें की विधि भी ठीक यही  है।

13  कागज पर मन्त्र लिख कर रख ले। याद रहे ना रहे। समय पर भूल सकते हैं। अतः प्रिण्ट निकाललें।

14   तुलसी की 108 मनकों की जप करनें की माला गौवर्धन नाथ मन्दिर या मारोठ्या इन्दौर में शंकर सुगन्धि के यहाँ मिल सकती है।

15 -गुगल पर सुर्योदय समय देख लें।
जैसे 21 मार्च को सुर्योदय समय 06:35  है। 

16 - परिवार जनों को पहले से समझादें ताकि जाते आते समय वे पूछताछ / टोका - टोकी ना करें।
घर से बिना बोले निकलें। निकटतम मन्दिर में 06:35 के पहलें नही पहूँचे और 06:55  के बाद रुके नही। इसी बीच में ही दान सामग्री अर्पण,प्रार्थना और जप करना है।  

17  सम्बन्धित  ग्रह के वार में प्रथम घटि उसी ग्रह की होती है। अतः सूर्योदय पूर्व स्नान कर अस्त, वक्री या अत्यन्त क्षीण/ निर्बल  ग्रह की दान सामग्रियाँ और  मन्त्र लिखा कागज लेकर घर से निकटतम मन्दिर के लिए निकलें।

18  अस्त,वक्री और अत्यन्त क्षीण/ निर्बल ग्रह के वार का सूर्योदय होते ही किसी भी निकटतम देवालय में पहूँच जायें। अर्थात ठीक सूर्योदय के समय मन्दिर की सीड़ियो, या द्वार पर पहूच जायें। 

19  सूर्योदय से बीस मिनट के अन्दर ही ईश्वर को सम्मुख अनुभव कर ईश्वर से प्रार्थना करें कि, कलिकाल के कारण मैं योग्यपात्र को खोज कर दान करनें में  असमर्थ हूँ अतः कृपया  (सम्बन्धि ग्रह का नाम लेकर कहें कि, अमुक) ग्रह की दान सामग्रियाँ योग्यपात्र तक पहूँचानें की कृपा कर (सम्बन्धित ग्रह का नाम लेकर कहें कि, अमुक) ग्रह के पौराणिक मन्त्र जप का अनुष्ठान सफलता पूर्वक पूर्ण करवाने की कृपा करें। यह प्रार्धना करते हुए उस अस्त/ वक्री या अत्यन्त क्षीण निर्बल ग्रह की दानसामग्रियाँ  ईश्वर को समर्पित कर दें ।

20  फिर कागज पर लिखे मन्त्र को पढ़कर वहीं से सम्बन्धित ग्रह के पौराणिक मन्त्र का जप आरम्भ कर दें।
 कम से कम एक बार या (सूर्योदय के बाद के) बीस मिनट पूर्ण होने तक जितनी बार  मन्त्र जप हो सके करें। 
फिर बिना कुछ बोले ही सीधे घर आजायें।

21 घर आनें के बाद फिर आवश्यक कर्तव्य कर्म पूर्ण कर सकते हैं। किन्तु प्रयत्न पूर्वक उसी दिन कमसे कम उस ग्रह के पौराणिक मन्त्र की एक माला जप अवश्य करलें।
तथा फिर नित्य कमसे कम एक माला जप अवश्य ही करें।

22 अपरिहार्य परिस्थिति में जप हो पाये ना हो पाये अतः सुर्योदय पश्चात या देरी से उठें तो सुबह जागते ही/ बिस्तर छोड़नें से पहले और नहाते समय तथा सामान्य पूजा करते समय बिना माला के  एक बार मन्त्र जप अवश्य करें। ता कि लांघा ना हो।

23 जनन अशोच (बिरदी) में, मरणाशोच (सूतक) में, ग्रहण, बिमारी में, यात्रा में, स्नान न हो पाये तो भी मन ही मन जप अवश्य करें किन्तु गीनें नही। गणना में न लें।

24 माला दाहिने हाथ (सीधे हाथ) की बड़ी उँगली मध्यमा पर रखकर अंगूठे की सहायता से अपनी ओर घुमाएँ।
 माला में एक फुन्दा/ फूल होता है उसे सुमेरु कहते हैं। सुमेरू आते ही सुमेरु को दोनों भौंहों (भृकुटी) के बीच आज्ञाचक्र से स्पर्ष करा कर नमन करे और फिर बड़ी उँगली मध्यमा और अंगुठा मिलाकर माला अंगूठे पर लेकर बड़ी उँगली मध्यमा में माला लेकर माला को उलट लें/ पलटी मारदें। क्योंकि, सुमेरु का उल्लंघन नही होता है।

25 यदि आसन पर बैठकर जप करें तो आसन का कोणा उठाकर उस जगह भूमि पर जल छिड़क कर दाहिने हाथ की बीच की दो उँगलियों (मध्यमा और अनामिका) सें उस गीली भूमि का स्पर्ष कर के वह जल भृकुटी मध्य और नैत्र त्रय पर लगायें। फिर उठें।

26 -- एक माला से कम हो तो ना गिनती में ना लें यानी नोट ना करें।
प्रयत्न पूर्वक एक बैठक में कमसे कम एक माला अवश्य पूर्ण करलें। 
जितनी माला पूर्ण होती जाये लिखते जायें। माना कि, पहले दिन पाँच माला हुई तो छोटी डायरी में 05 लिख कर माला के साथ ही रखदें। दुसरे दिन सात हुई तो दिनांक डालकर (पिछली पाँच और आज की सात मिलाकर) 12 लिखलें। तिसरे दिन दस माला की तो (पिछली बारह और आज की दस मिलाकर) 22 लिखलें।  माला संख्या पूर्ण होजायेगी तो स्वतः पता चल जायेगा।

 27  जब किसी को दो या दो से अधिक ग्रहों के मन्त्र जप करना हो तब ज्योतिषी  घातक फल रोकनें के लिए या वाञ्छित शुभ फल की तत्कालीन आवश्यकतानुसार  दशा और गोचर देखकर बतलायेंगे कि, पहले कौन से ग्रह के मन्त्र का जप करना है और कौनसा बाद में। 
यदि ऐसा नही बतलाए या किसी एक दो ग्रहों के लिए ही निर्देश देकर शेष ग्रहों के जप का वरीयता क्रम न बतलाये तो जिसकी जप संख्या (माला की संख्या) सबसे कम हो वह पहले करें ताकि, एक कार्य पूर्ण हो जाये। 
फिर बचे ग्रहों में से सबसे कम जप संख्या वाले दुसरे  ग्रह का जप करें। 
ऐसे क्रम से सबसे अन्त में अधिकतम माला (जप संख्या) वाले ग्रह का मन्त्र जप करें। 
 एस साथ करनें में कोई भी पूरा नही होगा।

28  चाहे तो दस या पाँच माला रोज करके एक सप्ताह में  दो सप्ताह में बुध मन्त्र जप  पूरा हो ही जायेगा।
दस माला करनें में डेड़ / दो घण्टा लगेंगे। पाँच माला भी की तो एक घण्टे से कम समय लगेगा। और जप धीरे धीरे पूरे होजायेंगे।

29 सभी देवता विष्णु को भोग लगा भोजन / नैवेद्य ही ग्रहण करते हैं।
अग्नि परमात्मा का मुख है अतः पहले  छोटी सी टिकड़ी जैसी रोटी बनाकर उसमें घीँ लगाकर थोड़ा सा गुड़ और तुलसी दल रखकर भगवान विष्णु को नैवेद्य अर्पण कर 
मन्त्र बोलकर ⤵️
 ॐ अग्नये स्वाहा स्वाहाः।इदम् अग्नये न मम्। बोलकर अग्नि में डालें अर्थात अग्नि को भोग लगायें। किन्तु तुलसीदल अग्नि में न डालें। 
फिर पहली रोटी बनें वह गौमाता को दीजाती है उसमें यह तुलसी दल (गायकी रोटी में) रखलें।

30 रोज पहली रोटी में सम्बन्धित ग्रह का की खाद्यवस्तु और अनाज रखकर देशी गाय को खिलाना चाहिए। और अन्तिम रोटी कुत्ते को खिलाना चाहिए। यह कर्म भी सपोर्टिंग सिस्टम का कार्य करेगा।

31 सुबह का भोजन बनाकर किसी को भी भोजन परोसनें के पहले भोजन बनाकर सर्वप्रथम तुलसी दल रखकर भगवान विष्णु को भोजन का नैवैद्य लगायें। तदुपरान्त ही पहले अतिथि को भोजन करायें, फिर घर के बुजुर्ग वृद्ध - वृद्धाओं को, प्रसुताओं को, बालक/ बालिकाओं को, और  घर में यदि कोई रोगी या अशक्त हो तो उन रोगियों को पहले भोजन करवायें। या उनके लिए पहले निकालें।  बादमें स्वयम् ग्रहण करें।
 
32 *नवग्रह स्तोत्र* 

सभी ग्रहों के मन्त्र और उनके हिन्दी अर्थ।
जिस मन्त्र का जप करना हो उसका अर्थ अच्छी तरह समझलें।

जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिं।
तमोरिसर्व पापघ्नं प्रणतोस्मि दिवाकरं ।। (रवि)
जो जपा पुष्प के समान अरुणिमा वाले महान तेज से संपन्न अंधकार के विनाशक सभी पापों को दूर करने वाले तथा महर्षि कश्यप के पुत्र हैं उन सूर्य को मैं प्रणाम करता हूं 
दधिशंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवं।
नमामि शशिनं सोंमं शंभोर्मुकुट भूषणं ।। (चंद्र)
जो दधि, शंख तथा हिम के समान आभा वाले छीर समुद्र से प्रादुर्भूत भगवान शंकर के सिरो भूषण तथा अमृत स्वरूप है उन चंद्रमा को मैं नमस्कार करता हूं।


धरणीगर्भ संभूतं विद्युत्कांतीं समप्रभं।
कुमारं शक्तिहस्तंच मंगलं प्रणमाम्यहं ।। (मंगळ)
जो पृथ्वी देवी से उद्भूत विद्युत की कांति के समान प्रभाव आ दें कुमारावस्था वाले तथा हाथ में  शक्ति लिए हुए हैं उन मंगल को मैं प्रमाण प्रणाम करता हूं।


प्रियंगुकलिका शामं रूपेणा प्रतिमं बुधं।
सौम्यं सौम्य गुणपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहं ।। (बुध)
जो प्रियंगु लता की कली के समान गहरे हरित वर्ण वाले अतुलनीय सौंदर्य वाले तथा सौम्य गुण से संपन्न है उन चंद्रमा के पुत्र बुद्ध को मैं प्रणाम करता हूं।


देवानांच ऋषिणांच गुरुंकांचन सन्निभं
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिं (गुरु)
जो देवताओं और ऋषियों के गुरु हैं स्वर्णिम आभा वाले हैं ज्ञान से संपन्न है तथा तीनों लोकों के स्वामी हैं उन बृहस्पति को मैं नमस्कार करता हूं।

हिमकुंद मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरूं।
सर्वशास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहं।। (शुक्र) 
जो हिमकुंद पुष्प तथा कमलनाल के तंतु के समान श्वेत आभा वाले, दैत्यों के परम गुरु, सभी शास्त्रों के उपदेष्टा तथा महर्षि ध्रुव के पुत्र हैं, उन शुक्र को मैं प्रणाम करता हूं। 

नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजं।
छायामार्तंड संभूतं तं नमामि शनैश्वरं।। (शनि)
जो नीले कज्जल के समान आभा वाले, सूर्य के पुत्र यम के जेष्ठ भ्राता तथा सूर्य पत्नी छाया तथा मार्तंड से उत्पन्न है उन शनिश्चर को मैं नमस्कार करता हूं।
अर्धकायं महावीर्यं चंद्रादित्य विमर्दनं।
सिंहिका गर्भसंभूतं तं राहूं प्रणमाम्यहं।। (राहू)
जो आधे शरीर वाले हैं महान पराक्रम से संपन्न है, सूर्य तथा चंद्रमा को ग्रसने वाले हैं तथा सिंह ही का के गर्भ से उत्पन्न उन राहों को मैं प्रणाम करता हूं।

पलाशपुष्प संकाशं तारका ग्रह मस्तकं।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहं।। (केतु)
पलाश पुष्प के समान जिनकी आभा है जो रुद्र शोभा वाले और रुद्र के पुत्र हैं भयंकर हैं तारक आधी ग्रहों में प्रधान है उनके तो को मैं प्रणाम करता हूं।

फलश्रुति :
इति व्यासमुखोदगीतं य पठेत सुसमाहितं दिवा वा यदि वा रात्रौ।
विघ्नशांतिर्भविष्यति नर, नारी, नृपाणांच भवेत् दु:स्वप्न नाशनं
ऐश्वर्यंमतुलं तेषां आरोग्यं पुष्टिवर्धनं।।
भगवान वेद व्यास जी के मुख से प्रकट इस स्तुति को जो दिन में अथवा रात में एकाग्रचित होकर पाठ करता है उसके समस्त दिल शांत हो जाते हैं स्त्री पुरुष और राजाओं के दुख में दुख सपनों का नाश हो जाता है पाठ करने वाले को अतुलनीय ऐश्वर्या और आरोग्य प्राप्त होता है तथा उसके पुष्टि की वृद्धि होती है

इति श्री व्यासविरचित आदित्यादि नवग्रह स्तोत्रं संपूर्णं

इसमें सभी ग्रहों की दान सामग्रियों का चार्ट बना दिया है। इसका एक बार सुबह एक बार शाम को करना चाहिए।

31 प्रत्यैक ग्रह की ग्यारह प्रकार की दान सामग्री दान करना होती है। ग्रहों ये दान सामग्रियाँ क्या है और कहाँ मिलेगी यह भी यह भी बतलाया है।⤵️

मंगलवार, 16 मार्च 2021

क्या यज्ञ,योग, जप, तप और ज्ञान से आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान हो सकता है ? क्या उक्त साधनों से ईश्वर को जाना जा सकता है और ब्रह्म प्राप्ति सम्भव है?

यज्ञ का तात्पर्य परमार्थ कर्म है।  सर्वभूतहितेरता व्यक्ति द्वारा किये जानें वाले ऐसे कर्म जिससे सर्वहित हो वे यज्ञ कहलाते हैं।  पञ्च महायज्ञों में से एक ब्रह्मयज्ञ का ही एक भाग वेदाध्ययन या स्वाध्याय ,जप तथा अष्टाङ्ग योग है। देव यज्ञ में प्रकृति से प्राप्त सुख सुविधाओं, उपहारों के लिए देवताओं के रूप में परमात्मा का आरधन है। भूत यज्ञ में सर्वभूतों की यथायोग्य सेवा है। पर्यावरण रक्षण है। नृ यज्ञ में मानवसेवा है। तो पितृयज्ञ में असहायों ,बेसहाराओं, रोगी, अशक्तों वृद्धों की सेवा तथा समस्त पूर्वजों के प्रति श्रद्धावन्त हो कूप, तड़ाग, धर्मशाला, सदावृत, विद्यालय, चिकित्सालय आदि बनवाने में सहयोग कर उनकी अतृप्त इच्छा पूर्ति करना और श्राद्ध तर्पण करना निहित है। अतः
पञ्चमहायज्ञ किसी भी व्यक्ति विशेष का हित साधन नही अपितु सर्वजन हिताय कर्म है। पञ्च महायज्ञ कर्तव्य है।करणीय कर्म या श्रीमद्भगवद्गीतोक्त कार्य कर्म है।अतः पञ्च महायज्ञ धर्म ही है। और धर्म पालन में आई बाधाओं का समाधान  निश्चयात्मिका बुद्धि से धैर्यपूर्वक करनें के दौरान तितिक्षा यानी बिना परेशानी महसूस किये, प्रसन्नता पूर्वक कष्ट सहन करना ही तप है। 
 
 देह - इन्द्रियाँ (बहिर्करण), मन, अहंकार, बुद्धि और चित्त रूपी अन्तःकरण चतुष्टय तथा तेज - ओज रूपी अधिकरण, तथा प्राण (देही) - जीव (अपर पुरुष) रूपी अभिकरण के माध्यम से प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) द्वारा किये जानेवाले कर्म केवल उक्त करणों की निर्मलता और शुद्धि में सहायक है। इन करणों की क्षमता वर्धन में सहयोगी है। ये प्रत्यगात्मा को प्रज्ञात्मा (परब्रह्म / विष्णु) से स्वयम् की अभिन्नता जाननें में प्रत्यक्ष सहायक नही है। क्योंकि- कर्म  उपाद्य,विकार्य, संस्कार्य, और आप्य ये चार प्रकार के ही होते हैं। कर्म से ज्ञान नही हो सकता।
कर्म के परिणाम भी चार प्रकार के ही होते हैं उत्पाद्य कर्म से आकृति देना, विकार्य कर्म से विकृति देना या विकार उत्पन्न करना, संस्कार्य कर्म से संस्कृति देना यानि संस्कारित कर उपयोगी या सुन्दर बनाना और आप्य कर्म से प्रकृति देना या स्थानान्तरण कर एक स्थान से दुसरे स्थान पर लाना लेजाना ही हो सकता है।
1  तकनीकी द्वारा उत्पाद करना या आकृति देना जैसे - उपादान कारण मिट्टी आदि से कोई वस्तु निर्माण करना उत्पाद्य कर्म है।
2  रासायनिक क्रिया द्वारा विकृति लाना या विकार उत्पन्न करना जैसे दूध का दहीँ बनाना, आटे से रोटी और चाँवल से भात बनाना जिसे पुनः मूलरूप में नही लाया जा सकता। या निर्मित सुन्दर वस्तु को तोड़़फोड़ देना विकार्य कर्म है।
 3   अग्नि में तपाकर अशुद्ध स्वर्ण से शुद्ध स्वर्ण में परिवर्तन करना, धोकर ,पौंछ कर, रङ्गरोगन कर सुन्दर बनाना संस्कार्य कर्म है।  और 
4   स्थानांतरण करना या एक स्थान से दुसरे स्थान पर लाना लेजाना आप्य कर्म है।

जन सामान्य सुचनाओं के संग्रह को स्मृति में बिठालेनें को ज्ञान समझते हैं। यह समझने वालों की गलती है। शास्त्रों में सुचनाओं के भण्डार या जानकरियों को कभी भी कहीं भी ज्ञान नही कहा।

अतः कर्म से ज्ञान होना सम्भव नही है। जबकि ब्रह्मसूत्र / वेदान्त दर्शन में उल्लेख है कि, ऋतेज्ञानान्मुक्ति। अर्थात मुक्ति का प्रथम चरण ऋत का ज्ञान है। सृष्टि चक्र को जाने समझे बिना बिना मुक्ति सम्भव नही है। मतलब मौक्ष का कारण ज्ञान है न कि, कर्म।
प्रज्ञानम् ब्रह्म भी उपनिषद वाक्य है। उपनिषद ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम भाग आरण्यक के भी अन्तिम अध्याय होनें के कारण ही वेदान्त अर्थात अन्तिम ज्ञान कहलाते हैं।
स्पष्ट है कि,विवेक से उपजे और आचरण में उतरे वास्तविक ज्ञान प्राप्त जिज्ञासु और मुमुक्षु को गुरु मुख से सर्वखल्विदम् ब्रह्म, ईशावास्यम् इदम् सर्वम, प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म और  तत्वमसि महावाक्य श्रवण करते ही अहम् ब्रह्मास्मि का बोध होजाता है।
शुक्ल यजुर्वेद 32/1 से 32/12 तक यही बात कही है।
 तब उस  सर्वमेधयाजी को तत्काल अनुभव होता है कि, ब्रह्म ही अग्नि है, और अग्नि ब्रह्म ही है। सूर्य ब्रह्म है, और ब्रह्म ही सूर्य है। वही वायु है, वही चन्द्रमा है, और वायु -चन्द्रमा भी ब्रह्म ही है। वही लोक प्रसिद्ध शुद्ध वेद है और शुद्ध वेद ही वह (ब्रह्म) है। ये जल और.वह प्रजापति ब्रह्म ही है और ब्रह्म ही जल और प्रजापति है। शुक्ल यजुर्वेद 32/1 

तब  सर्वमेधयाजी को तत्काल अनुभव हुआ कि,
आकाश और पृथ्वी ब्रह्म है, लोक ब्रह्म है, दिशाएँ ब्रह्म है और आदित्य भी ब्रह्म है। 
उसने ब्रह्म को जाना और वह तत्काल  आत्म को अर्थात अपनें आप को ब्रह्म अनुभव करने लगा; क्योंकि, वह पहले से ब्रह्म ही था। शुक्ल यजुर्वेद 32/12

बुधवार, 10 मार्च 2021

सनातन वेदिक धर्म के धार्मिक क्रियाओं और कर्मकाण्डों के लिए उज्जैन का सूर्योदय और सूर्यास्त समय पाँच पाँच मिनट के अन्तर से।

*उज्जैन में गणितागत अर्धबिम्ब सूर्योदय 05 -05 मिनट के अन्तर से।

मार्च 20 सूर्योदय 06:35 
मार्च  25 सूर्योदय 06:30
मार्च 30 सूर्योदय 06:25
अप्रेल 04 सूर्योदय 06:20
अप्रेल 09 & 10  सूर्योदय 6:15 
अप्रेल 15 सूर्योदय 6:10 
अप्रेल 21 सूर्योदय 6:05 
अप्रेल  27 & 28  सूर्योदय 6:00
मई  08   सूर्योदय 05:55
मई  14 &15   सूर्योदय  05:50
मई  29  से जून 20  तक सूर्योदय 05:45
जुलाई 03 से 05 तक सूर्योदय 05:50
जुलाई  16 & 17   सूर्योदय 05:55
जुलाई  28 & 29   सूर्योदय  06:00
( यों कहसकते हैं कि 09 अगस्त से 10 अगस्त तक सूर्योदय 06:05 बजे के आसपास ही होता है।)
अगस्त 09 & 10  सूर्योदय 06:05
अगस्त 22 से 24 तक  सूर्योदय 06:10  
सितम्बर  07 से 10  सूर्योदय 06:15
सितम्बर  24 से 26  सूर्योदय 06:20
अक्टूबर 08 से 10 तक सूर्योदय  06:25
अक्टूबर 20 से 22 तक  सूर्योदय  6:30
अक्टूबर 30 से 31 तक  सूर्योदय  6:35
नवम्बर  08 & 09  सूर्योदय 06:40
नवम्बर  16  सूर्योदय 06:45
नवम्बर  24  सूर्योदय 06:50
दिसम्बर 01  सूर्योदय 06:55
दिसम्बर 08 & 9  सूर्योदय 07:00
दिसम्बर 16 & 17  सूर्योदय 07:05
दिसम्बर 26 & 27  सूर्योदय 07:10
(यों कह सकते हैं कि, 26 दिसम्बर से 04 फरवरी तक सूर्योदय 07:10 बजे के आसपास ही होता है।)
फरवरी  03 & 04  सूर्योदय 07:10  (पुनः)
फरवरी  12 & 13  सूर्योदय 07:05
फरवरी  20  सूर्योदय 07:00
फरवरी  26 & 27  सूर्योदय 06:55  
मार्च 04  सूर्योदय 06:50
मार्च 09  सूर्योदय 06:45  
मार्च  14  सूर्योदय  06:40
मार्च  10 से 20 तक  सूर्योदय  06:35  

*उज्जैन में गणितागत अर्धबिम्ब सूर्यास्त 05 -05 मिनट के अन्तर से।

मार्च  20 से 23 तक   सूर्यास्त 18:35
अप्रेल  04  सूर्यास्त 18:40
अप्रेल 17  सूर्यास्त 18:45
अप्रेल  29 & 30 सूर्यास्त 18:50
मई  08   सूर्योदय 05:55
मई  10 से 12   सूर्यास्त  18:55
मई  22   सूर्यास्त  19:00
मई 31 से जून  03  तक सूर्यास्त 19:05
जून 15 से 18  तक सूर्यास्त 19:10
(यों कह सकते हैं कि, 15 जून से 21 जुलाई तक सूर्यास्त 19:10 बजे के आसपास ही होता है।)
जुलाई 18 से 21  तक सूर्यास्त  19:10 (पुनः)
जुलाई 31 से  अगस्त 01 तक  सूर्यास्त  19:05
अगस्त 09    सूर्यास्त  19:00
अगस्त 15  & 16  सूर्यास्त  18:55
अगस्त 21  सूर्यास्त  18:50
अगस्त 22   सूर्यास्त  18:50
अगस्त 27    सूर्यास्त  18:45
सितम्बर  02 सूर्यास्त 18:40
सितम्बर  07  सूर्यास्त 18:35
सितम्बर  12 सूर्यास्त 18:30
सितम्बर  18  सूर्यास्त 18:25
सितम्बर  22 सूर्यास्त 18:20
सितम्बर  27 सूर्यास्त 18:15
अक्टूबर 02 सूर्यास्त18:10
अक्टूबर 07 सूर्यास्त18:05
अक्टूबर 12 सूर्यास्त18:00
अक्टूबर 18  सूर्यास्त17:55
अक्टूबर 24 से 25 तक  सूर्यास्त17:50
नवम्बर  01  सूर्यास्त 17:45
नवम्बर  10 से  12 तक  सूर्यास्त 17:40
(यों कह सकते हैं कि, 10 नवम्बर से 15  दिसम्बर तक सूर्यास्त 17:40 बजे के आसपास ही होता है।)
दिसम्बर 12 से 15 तक  सूर्यास्त 17:40  (पुनः)
दिसम्बर 24 & 25  सूर्यास्त 17:45
जनवरी 03  सूर्यास्त 17:50
जनवरी 10 & 11  सूर्यास्त 17:55
जनवरी 17 & 18  सूर्यास्त 18:00
जनवरी 24 & 25  सूर्यास्त 18:05
फरवरी  01  सूर्यास्त  18:10
फरवरी  08 & 09  सूर्यास्त  18:15
फरवरी  17  सूर्यास्त  18:20
फरवरी  26 & 27 सूर्यास्त  18:25
मार्च 08  & 09  सूर्यास्त  18:30
मार्च 09   सूर्यास्त  18:30
मार्च  10 से 23 तक  सूर्यास्त  18:35

उज्जैन में पाँच-पाँच मिनट के अन्तर से सूर्योदय- सूर्यास्त ।

सनातन धर्म के कर्मकाण्ड के लिए प्राचीन भारतीय उदय रेखा पर पाँच पाँच मिनट के अन्तर से सूर्योदयास्त समय  --

आधुनिक विश्व मध्यरेखा से पूर्व देशान्तर 75:46 को अर्थात उज्जैन से गुजरने वाली मध्य रेखा को प्राचीन काल में विश्व उदय रेखा मानते थे। क्योंकि, सृष्टिआरम्भ के समय उज्जैन में सूर्योदय हो रहा था। अतः उज्जैन का स्थानीय समय ही पूरे भारत का मानक समय होता था।  तथा उज्जैन के मध्यम सूर्योदय समय को विश्व समय 00:00 माते थे। वर्तमान में ग्रीनविच रेखा पर मध्यम मध्यरात्रि समय को विश्व का  00:00 बजे समय मानते हैं। जो उज्जैन के माध्यम सूर्योदय समय से मात्र 00घण्टा 56 मिनट 56 सेकण्ड पहले होता है। अतः कह सकते हैं आज भी उज्जैन के सूर्योदय से मात्र लगभग 57 मिनट ( एक घण्टे से भी कम समय) पहले ही विश्व का मध्यम सूर्योदय मानते है।
युरोपियों ने विश्व मानचित्र के मध्य से गुजरनेवाली ग्रीनविच रेखा को पूरे विश्व की मध्य रेखा घोषित की। और लन्दन के पास से गुजरनें वाली इस मध्य रेखा का नाम ग्रीनविच रेखा रखकर इस मध्य रेखा के स्थानीय  मध्यम मध्यरात्रि समय को विश्व का मध्यम  समय 00:00 घोषित किया। इस मध्य रेखा ग्रीनविच रेखा पर  होनें वाली मध्यरात्रि से विश्व का दिनांक  (Day & Date) परिवर्तन करना आरम्भ किया। इसी रेखा के (लगभग) 180° को अन्तराष्ट्रीय दिनांक रेख मानते हैं। जिसके पश्चिम में खड़े जहाज में यदि 31 दिसम्बर हो रहा है तो इस रेखा के पर्व में   खड़े जहाज पर 01 जनवरी होजायेगी।
तदनुसार भारत के नक्षे के मध्य से गुजरनेंवाली पूर्व देशान्तर रेखा 82:30 के स्थानीय समय को पूरे भारत का मानक समय घोषित कर दिया। जो ग्रीनविच रेखा के समय से 05 घण्टे 30 मिनट आगे है। अर्थात जब ग्रीनविच रेखा पर मध्यरात्रि 00:00 बजते हैं तब भारतीय मध्य रेखा पर पूर्वाह्न 05:30 बजते हैं। इसे ही पूरे भारत में भारतीय मानक समय कहते हैं। और उसी समय उज्जैन में स्थानीय समय पूर्वाह्न 05बजकर 03 मिनट 04 सेकण्ड होते है।  उज्जैन के मध्यम सूर्योदय समय  पूर्वाह्न 06:00 बजे से 56 मिनट 56 सेकण्ड पहले। 
 अर्थात  *आज भी उज्जैन के सूर्योदय से लगभग 57 मिनट पहले ही विश्व में  मध्यम सूर्योदय समय मानते है। और दिनांक  (Date & Day) परिवर्तन होता है। 

उज्जैन और मालवा निमाड़ क्षेत्र में मात्र कुछ मिनट का अन्तर है। अतः  उज्जैन का सूर्योदय समय के अनुसार मालवा- निमाड़ में धार्मिक कार्य किये जा सकते हैं।
सूर्योदय के एक घटि (24 मिनट) पूर्व अरुणोदय काल (Dawn) आरम्भ होता है तथा सूर्यास्त के एक घटि (24 मिनट) बाद तक सायंकाल (Dusk) होता है। जिस अवधि में आकाश में लालिमा छाई रहती है।
सूर्योदय के एक घण्टा बारह मिनट पहले उषाकाल आरम्भ होता है जिसमें वेदिक कर्मकाण्ड किये जाते हैं और सूर्यास्त के एक घण्टा बारह मिनट तक सन्ध्या काल होता है जिसमें स्मार्त/ पौराणिक कर्मकाण्ड किये जाते हैं।  तथा सूर्यास्त के 2घण्टे 24 मिनट तक प्रदोषकाल रहता है।
स्पष्ट मध्याह्न के एक घटि (24 मिनट) पहले और एक घटि (24 मिनट) बाद तक अभिजीत मूहूर्त होता है।एवम् मध्यरात्रि के एक घटि (24 मिनट) पहले एवम्  एक घटि (24 मिनट) पश्चात तक महानिशा या महानिशीथ काल होता है।
इसलिए वर्तमान में  सूर्योदय के सवा घण्टे पहले मंगला आरती होती है और सूर्यास्त के सवाघण्टा के अन्दर शयनारती की जाती है।
खालसा पन्थ में गुरुद्वारों में पाठ,किर्तन, अरदास का समय सूर्योदय से सवा घण्टे पहले आरम्भ होता है। और शयन सूर्यास्त के सवाघण्टे बाद कराते हैं।
 चर्च में ईसाईयों की प्रार्थना का समय भी सूर्योदय से सवा घण्टे पहले आरम्भ होता है। और नित्य प्रार्थना का समय सूर्यास्त के सवाघण्टे बाद तक ही रखते हैं।
मुस्लिमों में फजर की अजान और नवाज सूर्योदय के एक घण्टा पहले होती है।
 मगरीब की अजान सूर्यास्त  से लेकर सूर्यास्त के दस मिनट में होतीं है। 
ईशा की अजान भी सूर्यास्त के सवाघण्टे बाद ही होती है।

अतः उज्जैन के अर्धबिम्बोदयास्त / गणितागत सूर्योदयास्त का 05 - 05 मिनट के अन्तर के दिनांक दिये जा रहे हैं।⤵️
*उज्जैन में गणितागत अर्धबिम्ब सूर्योदयास्त 05 -05 मिनट के अन्तर से।* 
मार्च 20 सूर्योदय 06:35  सूर्यास्त 18:35

मार्च 21 से 23 सूर्यास्त  18:35
मार्च  25 सूर्योदय 06:30
मार्च 30 सूर्योदय 06:25
अप्रेल 04 सूर्योदय 6:20 सूर्यास्त 18:40
अप्रेल 09 & 10  सूर्योदय 6:15 
अप्रेल 15 सूर्योदय 6:10 
अप्रेल 17  सूर्यास्त 18:45
अप्रेल 21 सूर्योदय 6:05 
अप्रेल  27 & 28  सूर्योदय 6:00
अप्रेल  29 & 30 सूर्यास्त 18:50
मई  08   सूर्योदय 05:55
मई  10 से 12   सूर्यास्त  18:55
मई  14 &15   सूर्योदय  05:50
मई  22   सूर्यास्त  19:00
मई  29  से जून 20  तक सूर्योदय 05:45
मई 31 से जून  03  तक सूर्यास्त 19:05
जून 15 से 18  तक सूर्यास्त 19:10
(यों कह सकते हैं कि, 15 जून से 21 जुलाई तक सूर्यास्त 19:10 बजे के आसपास ही होता है।)
जुलाई 03 से 05 तक सूर्योदय 05:50
जुलाई  16 & 17   सूर्योदय 05:55
जुलाई 18 से 21  तक सूर्यास्त  19:10 (पुनः)
जुलाई  28 & 29   सूर्योदय  06:00
जुलाई 31 से  अगस्त 01 तक  सूर्यास्त  19:05
( यों कहसकते हैं कि 09 अगस्त से 22 अगस्त तक सूर्योदय 06:05 बजे के आसपास ही होता है।)
अगस्त 09 & 10  सूर्योदय 06:05
अगस्त 09  सूर्योदय 06:05  सूर्यास्त  19:00
अगस्त  10  सूर्योदय 06:05
अगस्त 15  & 16  सूर्यास्त  18:55
अगस्त 21  सूर्यास्त  18:50
अगस्त 22  सूर्योदय 06:10  सूर्यास्त  18:50
अगस्त 23 &24  सूर्योदय 06:10
अगस्त 27    सूर्यास्त  18:45
सितम्बर  02 सूर्यास्त 18:40
सितम्बर  07 से 10  सूर्योदय 06:15
सितम्बर  07 सूर्योदय 06:15 सूर्यास्त 18:35
सितम्बर  12 सूर्यास्त 18:30
सितम्बर  18  सूर्यास्त 18:25
सितम्बर  22 सूर्यास्त 18:20
सितम्बर  24 से 26  सूर्योदय 06:20
सितम्बर  27 सूर्यास्त 18:15
अक्टूबर 02 सूर्यास्त18:10
अक्टूबर 07 सूर्यास्त18:05
अक्टूबर 08 से 10 तक सूर्योदय  06:25
अक्टूबर 12 सूर्यास्त18:00
अक्टूबर 18  सूर्यास्त17:55
अक्टूबर 20 से 22 तक  सूर्योदय  6:30
अक्टूबर 24 से 25 तक  सूर्यास्त17:50
अक्टूबर 30 से 31 तक  सूर्योदय  6:35
नवम्बर  01  सूर्यास्त 17:45
नवम्बर  08 & 09  सूर्योदय 06:40
नवम्बर  10 से  12 तक  सूर्यास्त 17:40
(यों कह सकते हैं कि, 10 नवम्बर से से 15  दिसम्बर तक सूर्यास्त 17:40 बजे के आसपास ही होता है।)
नवम्बर  16  सूर्योदय 06:45
नवम्बर  24  सूर्योदय 06:50
दिसम्बर 01  सूर्योदय 06:55
दिसम्बर 08 & 9  सूर्योदय 07:00
दिसम्बर 12 से 15 तक  सूर्यास्त 17:40  (पुनः)
दिसम्बर 16 & 17  सूर्योदय 07:05
दिसम्बर 24 & 25  सूर्यास्त 17:45
दिसम्बर 26 & 27  सूर्योदय 07:10
(यों कह सकते हैं कि, 26 दिसम्बर से 04 फरवरी तक सूर्योदय 07:10 बजे के आसपास ही होता है।)
जनवरी 03  सूर्यास्त 17:50
जनवरी 10 & 11  सूर्यास्त 17:55
जनवरी 17 & 18  सूर्यास्त 18:00
जनवरी 24 & 25  सूर्यास्त 18:05
फरवरी  01  सूर्यास्त  18:10
फरवरी  03 & 04  सूर्योदय 07:10  (पुनः)
फरवरी  08 & 09  सूर्यास्त  18:15
फरवरी  12 & 13  सूर्योदय 07:05
फरवरी  17  सूर्यास्त  18:20
फरवरी  20  सूर्योदय 07:00
फरवरी  26 & 27  सूर्योदय 06:55  सूर्यास्त  18:25
मार्च 04  सूर्योदय 06:50
मार्च 08  & 09  सूर्यास्त  18:30
मार्च 09  सूर्योदय 06:45  & सूर्यास्त  18:30
मार्च  14  सूर्योदय  06:40
मार्च  10 से 20 तक सूर्योदय  06:35  सूर्यास्त  18:35

शनिवार, 6 मार्च 2021

ज्ञान वहीं जो आचरण में झलके। ज्ञानी वहीं जिसका ज्ञान वाणी या लेखनी में ही नहीं आचरण में भी झलके।

ज्ञान वहीं जो आचरण में  झलकता है। ज्ञानी वहीं जिसका ज्ञान आचरण में भी झलके।

शास्त्री और ज्ञानी में आकाश पाताल का अन्तर है। विद्वान शास्त्री नोकरी करते हैं जबकि शस्त्रधारी वीर योद्धा और धनवान शासन करते हैं। जैसे अमेरिका का प्रभुत्व पूरे विश्व में है और भारतीय प्रतिभावान वहाँ नोकरी करते हैं।
सभी भौतिक विज्ञान, गणित, ब्रह्माण्ड विज्ञान, मनोविज्ञान, सामाजिक विज्ञान, समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र,भाषाशास्त्र,  वाणिज्य का कितना ही बड़ा निष्णान्त विद्वान हो जो ललित कलाओं में पारङ्गत हो, सभी प्रकार के खेलों में प्रवीण हो धनवान हो, दानी हो, बड़े बड़े यज्ञ सत्र आयोजित करता हो, घोर तपस्वी हो  किन्तु मिथ्या भाषी हो, कामी, क्रोधी, लोभी हो, दुसरों का -धन सम्पत्ति दुसरों के कृतित्व अपनें नाम करलेता हो क्या कोई उसे ज्ञानी, महात्मा कहेगा? 
रावण और दुर्योधन,  इसी श्रेणी के लोग थे। श्रीराम और श्रीकृष्ण  को लोग सश्रद्धा स्मरण करते हैं। श्रीराम और श्रीकृष्ण को पूजते हैं।  कारण उनका ज्ञान उनके आचरण में झलकता था।

सबको अपने समान प्रेम करो।
सदा सद्भावना रखो, सद्विचार ही करो, सत्य वचन ही बोलो, प्रिय और मधुर भाषण करो, सत्कर्म ही करो, सदाचारी बनो  
किसी के धन का लोभ मत करो। सब वस्तुएँ परमात्मा की है, सब पर सबका समान अधिकार है,
पर नारी के प्रति मातृवत भाव रखें
 न अनावश्यक भोग करें, न अनावश्यक भोग सामग्री  संग्रहित करें। वस्तुएँ सिमित है सबके उपयोग में आनेदें।
तन, मन और धन को सदा स्वच्छ, शुद्ध और पवित्र रखें।
ईश्वर के दिये और अपनै प्रति दुसरों के उपकारों और सेवाओं से सदा सन्तुष्ट रहैं।  स्वयम् के द्वारा की गई सेवाओं, अध्ययन, ईश्वरोपासन, सदाचरण को कभी पर्याप्त न मानें इनमें उत्तरोत्तर सुधार करते रहें और वृद्धि करते रहें।
स्वधर्म पालन हेतु कष्ट सहिष्णु बनें, शितोष्ण, सुख-दुख सहन कर धृतिवान बने, धैर्य धारण करें। अपनें सही और उचित निर्णय पर दृढ़ रहें। सदैव सीखने को तत्पर रहें। स्वाध्याय रत रहें। ईश्वरोपासन  में लगे रहें। स्वयम् को  ईश्वरार्पण करदें।
नित्य अष्टाङ्गयोगाभ्यास करें, नित्य पञ्च महायज्ञ करें।
 उक्त कथन उक्त वचन, उक्त जानकारियाँ हम सब प्रवचन में  बाल्यावस्था से सुनते आये हैं, समाचार पत्रों में, कोर्स बुक्स में, धार्मिक पुस्तकों में पढ़ते आते, प्रवचनों में, रेडियो और ऑडियो में सुनते आते हैं, विडियो में देखते सुनते आते हैं।
ऐसे कितने लोग हैं जिन्हें ये जानकारी नहीं है? जानते सब हैं पर मानते नहीं। अतः इन सब जानकारियाँ होनें  के कारण कोई ज्ञानी नही कहलाता। ज्ञानी वहीं कहलाता है जो इन जानकारियों को मानले। इन्हें आचरण में उतारले वहीं ज्ञानी है। उसे ही सभी ज्ञानी महात्मा कहते हैं।

मंगलवार, 2 मार्च 2021

सनातन धर्म के व्रतोपवास एवम् पर्वोत्सव का आधार बादमें प्रचलित होनें वाले निरयन सौर संस्कृत मासो में वसन्त सम्पात पड़ना है।

सनातन धर्म में प्रचलित व्रतोपवास एवम् पर्वोत्सव का इतिहास।

 वेद मन्त्रों को ब्रह्म कहते हैं। ,वेदों पर आधारित होनें के कारण हमारा सनातन वेदिक धर्म ब्राह्म धर्म है। 
 *वेदों से लेकर पुराणों तक संवत्सर आरम्भ वसन्त विषुव दिवस अर्थात वसन्त सम्पात दिवस से होता है।वेदिककाल में वसन्त विषुव से उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमासारम्भ होता था।
जिसदिन भूकेन्द्रीय ग्रह गणनानुसार सूर्य वसन्त सम्पात यानी सायन मेषादि बिन्दु पर होता है। इसदिन सूर्य ठीक भूमध्य रेखा पर होकर उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है, दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है। तथा दिनरात बराबर होते हैं। वह दिन वसन्त महाविषुव दिवस कहलाता है। वेदों में इस दिन से संवत्सरारम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ, और मधुमास आरम्भ दिवस कहा गया है। क्योंकि, उसी अवधि में आर्यावर्त और ब्रह्मावर्त में वसन्त ऋतु आरम्भ होती है।
अर्थात वसन्त विषुव दिवस से ही पञ्जाब,हरियाणा, सिन्ध, कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तजाकिस्तान, पकजाकिस्तान, उजाबेगिस्तान, पामीर तथा ईरान,अफगानिस्तान,में वसन्त ऋतु आरम्भ होती है।
वेदों में वसन्त विषुव से उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ, और मधुमास आरम्भ कहा गया है।तथा मुख्यरूप से 1 मधु, 2 माधव, 3 शुक्र, 4 शचि, 5 नभः, 6 नभस, 7 ईष, 8 ऊर्ज, 9 सहस, 10 सहस्य,11 तपस और 12 तपस्य नामक (सायन) सौर  मास प्रचलित थे। 
उत्तरायण मधु मास आरम्भ से नभस मासान्त तथा ईश मासारम्भ तक रहता था।  उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म और वर्षाऋतु आती थी। दक्षिणायन  ईष मासारम्भ से तपस्य मासान्त तक अर्थात मधुमासारम्भ तक होती थी। दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती थी।
उत्तरायण और ग्रीष्म ऋतु के मध्य में उत्तर तोयन और दक्षिणायन और हेमन्त ऋतु के मध्य में दक्षिण तोयन होता था। ऋग्वेद में इन्हे निरयन दिवस (अयन रहित दिन) कहा है।
इसके अतिरिक्त ऋग्वेदोक्त पवित्र आदि मास भी इसी प्रकार प्रचलित रहे।
उत्तर वेदिक काल में तैत्तरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण के अनुसार चित्रा तारे को नक्षत्र मण्डल का मध्य स्थान मानकर चित्रा तारे  से 180° पर नक्षत्र मण्डल का आरम्भ बिन्दू माना गया।इसे निरयन मेषादि बिन्दु कहाजाता है।
वर्तमान में 23 सितम्बर को पड़नें वाले शरद विषुव जिसदिन भूकेन्द्रीय ग्रह गणना से  सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर भूमध्य रेखा से दक्षिण (दक्षिण गोलार्ध) में प्रवेश करता है उस समय से दक्षिणायन, शरद ऋतु, और ईष मास का आरम्भ होता था।
इसी प्रकार वर्तमान में 22/23 दिसम्बर को पड़ने वाली सूर्य की उत्तर परमक्रान्ति दिवस (सायन) कर्क संक्रान्ति जिसदिन सूर्य कर्क रेखा पर होता है उस समय वेदिककाल में उत्तर तोयन तथा शचि मास आरम्भ होता था। इसी प्रकार वर्तमान में 22/ 23 दिसम्बर को पड़नें वाली  दक्षिण परमक्रान्ति दिवसको  (सायन) मकर संक्रान्ति को जब सूर्य मकर रेखा पर होता है उस समय वेदिककाल में दक्षिण तोयन और सहस्य मास आरम्भ होता था।

 किन्तु वेदिक काल में  न तो 1 मेष, 2 वृष, 3 मिथुन, 4 कर्क,5 सिंह, 6 कन्या,7  तुला, 8 वृश्चिक, 9 धनु, 10 मकर,11 कुम्भ और 12 मीन (निरयन) राशियाँ प्रचलित थी। और 1 चैत्र, 2 वैशाख, 3 ज्यैष्ठ, 4 आषाढ़, 5 श्रावण, 6 भाद्रपद, 7 आश्विन, 8  कार्तिक, 9 मार्गशीर्ष, 10 पौष, 11 माघ, और 12 फाल्गुन मास भी अप्रचलित थे। 

जब निरयन मेषादि मास और निरयन सौर संस्कृत चैत्रादि मास प्रचलित हुए तब भी जो मास वसन्त सम्पात / वसन्त विषुव दिवस के आसपास आरम्भ होता उसी मास को प्रथम मास माना जाता था। 
ऋग्वेद  में तो निरयन शब्द सायन कर्कसंक्रान्ति और सायन मकर संक्रान्ति दिवस के लिए हुआ है। 
संवत्सरारम्भ सदैव सायन मेष संक्रान्ति से ही होता था। निरयन संक्रान्तियों में वसन्त सम्पात आने के कारण उन निरयन संक्रान्तियों को और उन निरयन संक्रान्तियों से सम्बद्ध चैत्रादि मासान्त अमावस्या या मासारम्भ तिथियों में पर्वोत्सव या पुर्णिमा में  मनाये जाते थे जिनकी परम्परा आज भी प्रचलन में है।
इसके उदाहरण नीचे है।⤵️
सन 25515 ई.पू. तथा सन 285 ईस्वी में वसन्त सम्पात (निरयन) मेष 00° पर था अर्थात (निरयन) मेष संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ फाल्गुन अमावस्यान्त / चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ीपड़वा) से होता था। चैत्री नवरात्रि ईसी कारण मनाते हैं।

24440 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मीन 15° पर था। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को नवसस्येष्टि पर्व एवम् होलीका उत्स्व इसी कारण मनाते हैं।

सन 23365 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मीन 00° पर था अर्थात (निरयन) मीन संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ माघी अमावस्यान्त /  फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था।  महा शिवरात्रि पर्व एवम् मौनी अमावस्या व्रत इसी उपलक्ष्य में मनाया जाता है। यही स्थिति 2435 ईस्वी में होगी।

22290 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कुम्भ 15° पर था। माघी पूर्णिमा। विश्वकर्मा जयन्ती एवम् दाण्डा रोपिणी पूर्णिमा इसी उपलक्ष्य में मनाते हैं ।

सन 21215  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कुम्भ 00° पर था अर्थात (निरयन) कुम्भ संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ पौषी अमावस्यान्त /  माघ शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। 
गुप्त नवरात्रि आरम्भ एवम् वसन्त पञ्चमी इसी उपलक्ष्य में मनाते हैं।

20140  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मकर 15° पर था। पौष शुक्ल पूर्णिमा शाकम्भरी जयन्ती पर्व।

सन 19065  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मकर 00° पर था अर्थात (निरयन) मकर संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ मार्गशीर्ष अमावस्यान्त (पित्र) अमावस्यान्त/  पौष  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। 

17990 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) धनु 15° पर था। मार्गशीर्ष पूर्णिमा दत्त जयन्ती पर्व।

सन 16915  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) धनु 00° पर था अर्थात (निरयन) धनु संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ कार्तिक अमावस्यान्त /  मार्गशीर्ष  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। 

15840 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) वृश्चिक15° पर था। कार्तिक पूर्णिमा / काशी में देवदिवाली/ छोटी दिवाली पर्व।

सन 14765  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) वृश्चिक 00° पर था अर्थात (निरयन) वृश्चिक संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ आश्विन अमावस्यान्त दिवाली/  कार्तिक  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। पञ्चदिवसीय  दिवाली पर्वोत्सव धन्वन्तरि जयन्ती, नर्क चतुर्दशी, दिवाली, बलिप्रतिपदा, अन्नकूट एवम् / यम द्वितीय इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 13690 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) तुला 15° पर था। आश्विन पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा उत्सव, कोजागरी पूर्णिमा व्रत पर्व।

सन 12615  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) तुला 00° पर था अर्थात (निरयन) तुला संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ भाद्रपद अमावस्यान्त /  आश्विन  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। सर्वपितृ अमावस्या और शारदीय नवरात्रि इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 11540 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कन्या 15° पर था। भाद्रपद पूर्णिमा, प्रोष्टपदी पूर्णिमा व्रत । महालय आरम्भ।

सन 10465  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कन्या 00° पर था अर्थात (निरयन) कन्या संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ  श्रावण अमावस्यान्त /  भाद्रपद  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। पितृ अमावस्या, कुशग्रहणी अमावस्या, हरियाली अमावस्या, पिठोरा अमावस्या, हरतालिका तृतीया, नाग पञ्चमी और  इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 9390 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  सिंह 15° पर था। श्रावण पूर्णिमा, यजुर्वेदी उपाकर्म, राखी ।

सन 8315  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) सिंह  00° पर था अर्थात (निरयन) सिंह संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ  आषाढ़ अमावस्यान्त /  श्रावण  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। पितृ अमावस्या, कुशग्रहणी अमावस्या, हरियाली अमावस्या, पिठोरा अमावस्या, हरतालिका तृतीया, नाग पञ्चमी और  इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 7240 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  कर्क 15° पर था। आषाढ़ी पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा/ गुरु पूर्णिमा ।

सन 6165  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कर्क  00° पर था अर्थात (निरयन) कर्क संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ  ज्यैष्ठ अमावस्यान्त /  आषाढ़  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। गुप्त नवरात्रि  इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 5090 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  मिथुन 15° पर था। ज्यैष्ठ पूर्णिमा,वट सावित्री पूर्णिमा ।

सन 4015  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मिथुन  00° पर था अर्थात (निरयन) कर्क संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ वैशाख  अमावस्यान्त /  ज्यैष्ठ  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। वट सावित्री अमावस्या  इसी उपलक्ष्य में मनती है। 

 2940 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  वृष 15° पर था। वैशाख पूर्णिमा,कुर्म जयन्ती, नृसिह जयन्ती।(सिद्धार्थ गोतम बुद्ध पूर्णिमा।)

सन 1865  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) वृष  00° पर था अर्थात (निरयन) वृषभ संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ चैत्र  अमावस्यान्त /  वैशाख  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। अक्षय तृतीया  इसी उपलक्ष्य में मनती है। 

790  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  मेष 15° पर था। चैत्र पूर्णिमा, हनुमान जयन्ती।

सन 285  ईस्वी में वसन्त सम्पात (निरयन) मेष  00° पर था अर्थात (निरयन) मेष संक्रान्ति को  हुआ था। 

तब संवत्सरारम्भ फाल्गुनी  अमावस्यान्त /  चैत्र  शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी)  से आरम्भ होना आरम्भ हुआ था। गुड़ीपड़वाँ चैत्री और नवरात्रि  इसी उपलक्ष्य में मनती है। 

1360  ईस्वी में वसन्त सम्पात (निरयन)  मीन 15° पर था। फाल्गुनी पूर्णिमा, होली।
2435 ईस्वी में वसन्त सम्पात निरयन मीन 00° पर होगा। तब संवत्सरारम्भ माघी अमावस्यान्त /  फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था।  महा शिवरात्रि पर्व एवम् मौनी अमावस्या व्रत इसी समय में मनाया जायेगा। तब शिवरात्रि में पूरे एक माह का अन्तर होगा। 

यही स्थिति 22 मार्च 285 ईस्वी के आसपास का इतिहास देखिये।⤵️

जैसे ईस्वी सन 285 के 22 मार्च को जब  वसन्त सम्पात चित्रा नक्षत्र से 180° पर अर्थात निरयन मेषादि बिन्दु पर आया तो उस कालावधि से चैत्र मास प्रथम मास कहलाता है। 
इस समय को इतिहासकारों की दृष्टि से देखें तो निम्नानुसार स्थिति बनती है।⤵️
1 अयनांश 355° से 05° तक।
 सन 75ई.पू. से 645 ई. तक। 
शुंगवंश और *कण्व वंश* से  हर्षवर्धन, व्हेनसांग के यात्रा काल और दक्षिण में चालुक्य वंश के आरम्भ  का समय तक वसन्त सम्पात निरयन मेषादि बिन्दु अर्थात चित्रा तारे से 180° पर रहा। 
2 अयनांश 350° से 10° तक ।
सन 430ई.पू. से 1000ई. तक।
बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु  और उज्जैन में शिशुनाग के शासन से राजा भोज के शासन , मोहमद गजनी के आक्रमण  और दक्षिण में चालुक्य वंश के अन्त और चोल वंश के उदय तक।
3  अयनांश 345° से 15° तक।
सन 790 ई.पू. से 1369 ई. तक।
ईतिहासकारों की दृष्टि से महाभारत रचनाकाल या महाकाव्य काल से  मोहम्मद तुगलक तक। इब्नबतूता के यात्राकाल तक।

मतलब ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में वेदिक परम्पराओं का टूटना आरम्भ होकर पौराणिक स्थापनाएँ जमनें लगी थी।


मतलब  चैत्रादि मास अत्याधुनिक हैं।
वेदिक काल में (सायन) सौर गणनानुसार ही संवत्सर , अयन, तोयन, ऋतुएँ और मास और गतांश तथा संक्रान्ति गते के रूप में दिनांक प्रचलित रहे।
तत्पश्चात महाभारत के बाद चित्रा नक्षत्र से 180° पर सूर्य होनें के दिन/ समय से नाक्षत्र वर्ष , मास , और गतांश और गते प्रचलित हुए। जो पञ्जाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, बङ्गाल, उड़िसा, तमिलनाड़ु, केरल में आजतक प्रचलित है। 

पौराणिक काल में संवत्सर , अयन, तोयन, ऋतुएँ तो (सायन) सौर गणनानुसार ही रहे पर चैत्रादि चान्द्रमास और तिथियाँ प्रचलित हो गये। जिन्हें (निरयन) संक्रान्तियों से अधिक मास क्षय मास कर नाक्षत्रीय वर्ष के बराबर कर उत्तर भारत में कुषाण वंशिय कनिष्क नें शकाब्द नाम से कश्मीर, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार में प्रचलित किया और दक्षिण भारत में सातवाहन वंश ने और विशेषकर गोतमीपुत्र सातकर्णी नें शालिवाहन शकाब्द नाम से  आन्ध्रप्रदेश,तेलङ्गाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, गुजरात प्रचलित किया। 
किन्तु यह (निरयन) सौर संस्कृत शकाब्द और इसके चान्द्रमासों का सम्बन्ध परम्परागत (सायन) सौर संवत्सर और ऋतुचक्र से संयुक्त रखनें का प्रयास जारी रहता है। किन्तु यह जुगाड़ बहुत लम्बे समय सम्भव नही होगा।
अतः उचित होगा कि,
1 वेदिक परम्परानुसार ही संवत्सर, अयन, तोयन, ऋतु, मधु माधवादि मास, संक्रान्ति गतांश, और संक्रान्ति गते तथा दशाह के वासर पुनः प्रचलित किये जायें।
यथा सम्भव मुख्य मुख्य व्रतोत्सव भी उक्त गतांश अनुसार ही निर्धारित किये जायें।
किन्तु  अमावस्या, पूर्णिमा या अर्धचन्द्र से सम्बन्धित व्रतोत्सव को तिथियों से मनाते हैं। 
2  सौर संक्रान्तियों और नक्षत्रों पर आधारित व्रतोत्सव को नक्षत्र योगतारा को केन्द्र में रखकर आसपास के तारासमुह को मही नक्षत्र मानकर असमान भोगांश वाले नक्षत्रों पर चन्द्रमा और सूर्य और बृहस्पति आदि ग्रहों की स्थिति अनुसार भी मनाये जासकते हैं। किन्तु इसमें वर्तमान प्रचलित 30° की (निरयन) राशि और 13°20"' के काल्पनिक नक्षत्रों को कोई महत्व नही दिया जावे। नक्षत्र भोग फिर से निर्धारित किये जाये।
3  इस विषय में आचार्य दार्शनेय लोकेश नें मोहन कृति आर्ष पत्रक में (सायन) सौर संक्रान्तियों पर आधारित (सायन) सौर संस्कृत चान्द्रमास और नक्षत्र योगतारा को आरम्भ बिन्दु मानकर असमान भोग वाले अट्ठाइस नक्षत्रों को भी मान्यता दी जा सकती है। 
4   चित्रा नक्षत्र से 180° से आरम्भ  फिक्स झोडिएक में  नक्षत्र योगतारा को केन्द्र में रखकर आसपास के तारासमुह को मही नक्षत्र मानकर असमान भोगांश वाले 88 आधुनिक नक्षत्रों और  28 वेदिक नक्षत्रों पर सौर मण्डल के चलित पिण्डों /सूर्य, चन्द्र और ग्रहों की पोजीशन (स्थिति) भी दर्शाई जाये। यह संहिता ज्योतिष में अति महत्वपूर्ण होंगे।
5  चित्रा तारे से 180° पर स्थित (निरयन) मेषादि बिन्दु से भी अंशात्मक स्थिति दर्शाई जाये। यह इतिहास निर्धारण में भविष्य में उपयोगी होगा।

आदर्श ज्योतिषपत्रक/ पञ्चाङ्ग कैसी हो?

आदर्श पञ्चाङ्ग/ ज्योतिषपत्रक कैसा हो?
पञ्चाङ्गो में और व्रतोपवास, पर्वोत्सव निर्धारण में मतान्तर के कारण और निवारण ।

भारत में सिद्धान्त ज्योतिषीगण कई वर्गों में बँटे हैं इसकारण पञ्चाङ्गों में एकरूपता नही आ पाई।

1 *पञ्चाङ्गकारों का प्रथम पक्ष वेदिक सुपर्ण चिति पञ्चाङ्ग का है।* 

वेदिककालीन धार्मिक कर्मकाण्ड, व्रतोपवास, पर्वोत्सवों का काल निर्धारण कर पर्वोत्सव का दिन और समय निश्चित करनें के लिए वसन्त सम्पात पर सूर्य होनें का समय अर्थात वसन्त विषुव दिवस सबसे मुख्य आधार था। जिसे वर्तमान   में 20/21 मार्च को पड़ने वाली सायन मेष संक्रान्ति  कहते हैं। 

उत्तर भारतीय परम्परानुसार जिन दो सुर्योदय के बीच  वसन्त सम्पात (उत्तरायण) या शरद सम्पात (दक्षिणायन) या उत्तर परम क्रान्ति (उत्तर तोयन) या दक्षिण परम क्रान्ति (दक्षिण तोयन) बिन्दु पर सूर्य होता था उस दिन उसी समय जो वासर हो उसी में पर्व मनाया जाता था। अर्थात जिस वासर में इन बिन्दु पर जब सूर्य आता था उसी वासर को पर्व मनाया जाता था। और जिन दो सूर्यास्त के बीच वसन्त सम्पात (उत्तरायण) या शरद सम्पात (दक्षिणायन) या उत्तर परम क्रान्ति (उत्तर तोयन) या दक्षिण परम क्रान्ति (दक्षिण तोयन) बिन्दु पर सूर्य आता था उस दिन उत्सव मनाया जाता था।

 *वेदिककाल में मुख्य चार पर्वोत्सव थे।* 
 *१ वसन्त विषुव दिवस* -- जिस समय सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर उत्तर में प्रवेश करता है। दिन रात बराबर होते हैं। सूर्योदय  भूमि के ठीक पूर्व में और सूर्यास्त भूमि के ठीक पश्चिम में होता है। उत्तरीध्रुव पर सूर्योदय और दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है। आगामी छः मास तक सूर्य उत्तरी गोलार्ध में ही रहता हुआ चलता रहता है। अतः इसे उत्तरायण कहते थे।

इसी वसन्त विषुव के समय से संवत्सरारम्भ होता था। उत्तरायण आरम्भ होता था। वसन्त ऋतु आरम्भ होती थी। और मधु मासारम्भ होता था।
मान्यता थी कि, इसी समय देवताओं का सुर्योदय होकर दिनारम्भ होता है और असुरों का सूर्यास्त होकर  रात्रि आरम्भ  होती है। इसी कारण यह वसन्त विषुव दिवस सबसे प्रमुख पर्व और सबसेबड़ा उत्सव था।
 वर्तमान में इसे सायन मेष संक्रान्ति कहते हैं जो 20/21 मार्च को होती है।

*२ उत्तर परम क्रान्ति दिवस --*  जिस समय सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति होकर सूर्य कर्क रेखा पर होता है। सूर्य का दक्षिण से उत्तर की ओर की गमन पूर्ण होकर परम उत्तर क्रान्ति  पर पहूँच जाता है। इसके बाद सूर्य की गति (चाल) उत्तर से दक्षिण की ओर हो जाती है। इसलिए इसदिन को उत्तर तोयन कहते हैं।इस दिन सबसे बड़ा दिन होता है और  सबसे छोटी रात्रि होती है।
इस दिन स्पष्ट मध्याह्न के समय सूर्य अधिकतम उत्तर में दिखता है।इसी समय उत्तरीध्रुव पर मध्याह्न होता है और दक्षिण ध्रुव पर मध्यरात्रि होती है। आगामी छः मास तक सूर्य की गति उत्तर से दक्षिण की ओर  रहती है। अतः इसी समय से उत्तर तोयन आरम्भ होता था। और शचि मासारम्भ होता था।

मान्यता थी कि, इसी समय देवताओं का भी मध्याह्न होता है और असुरों की मध्यरात्रि  होती है। उत्तर भारत में यह दुसरा प्रमुख पर्व और उत्सव था। वर्तमान में इसे सायन कर्क संक्रान्ति कहते हैं जो 22/23 जून को होती है।

 *३ शरद विषुव दिवस --* जिस समय सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर दक्षिण में प्रवेश करता है। दिन रात बराबर होते हैं। सूर्योदय भूमि के ठीक पूर्व में और सूर्यास्त भूमि के ठीक पश्चिम में होता है। दक्षिण ध्रुव पर सूर्योदय और उत्तर ध्रुव पर सूर्यास्त होता है। आगामी छः मास तक सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में ही रहता हुआ गमनशील रहता है। अतः इसे दक्षिणायन कहते थे।

इसी समय से दक्षिणायन आरम्भ होता था। शरद ऋतु आरम्भ होती थी। और ईश मासारम्भ होता था।

मान्यता थी कि, इसी समय देवताओं का सूर्यास्त होकर रात्रि आरम्भ होती है और असुरों का सूर्योदय होकर  दिन आरम्भ  होता है। यह शारदीय विषुव दिवस तीसरा मुख्य पर्व और उत्सव था। 
वर्तमान में इसे सायन तुला संक्रान्ति कहते हैं जो 22/23 सितम्बर को होती है।

 *४ दक्षिण परम क्रान्ति दिवस दिवस --*  जिस समय सूर्य की दक्षिण परम क्रान्ति होकर सूर्य मकर रेखा पर होता है। सूर्य की उत्तर से दक्षिण की ओर की गमन पूर्ण होकर परम दक्षिण क्रान्ति  पर पहूँच जाता है। इसके बाद सूर्य की गति (चाल)  दक्षिण से उत्तर की ओर हो जाती है। इसलिए इसदिन को दक्षिण तोयन कहते थे।यह दिन सबसे छोटा होता है और रात सबसे बड़ी होती है।
इस दिन स्पष्ट मध्याह्न के समय सूर्य अधिकतम दक्षिण में दिखता है।इस समय  दक्षिणध्रुव पर मध्याह्न होता है और उत्तर ध्रुव पर मध्यरात्रि होती है। आगामी छः मास तक सूर्य की गति दक्षिण से उत्तर की ओर  रहती है। 
इसी समय से दक्षिण तोयन आरम्भ होता था। और सहस्य मासारम्भ होता था।

मान्यता थी कि, इसी समय देवताओं की भी मध्यरात्रि होती  है और असुरों का मध्याह्न होता है। यह दिन चौथा सबसे बड़ा वर्वोत्सव है।
 वर्तमान में इसे सायन मकर संक्रान्ति कहते हैं जो 22/23 दिसम्बर को होती है।

स्पष्ट है कि, वेदिक काल में मुख्यता सायन सौर वर्ष, मास दिवस की ही थी।

किन्तु रात्रिकालीन पर्वोत्सवों में  सायन सौर मासों में पड़ने वाली अमावस्या,  पूर्णिमा  और अर्धचन्द्र की रात्रि (अष्टमी) की चन्द्रकलाओं का भी महत्व था।
अतः  सायन सौर मासों की प्रधानता रखते हुए सायन सौर मधु - माधवादि  मास में पड़नें वाली उक्त अमावस्या, अष्टमी, पुर्णिमा, अष्टमी की चन्द्रकलाओं में भी व्रतपर्वोत्सव मनाये जाते थे।

इसकाल में भी सूर्य, चन्द्रमा और ब्रहस्पति, शुक्र, मंगल, शनि और बुध को नक्षत्रमण्डल में नक्षत्र के योगतारा से युति या प्रतियोग (180° पर होना) दर्शाया जाता था। मतलब नाक्षत्रीय गणना केवल आकाश का नक्षा दर्शानें की उपयोगी जानते थे। नक्षत्रों में ग्रहों की स्थिति, धूमकेतु दर्शन, ग्रहण,  तारा या ग्रह का लोप दर्शन आकाश और सूर्य, चन्द्र एवम् ग्रहों के बिम्बों के चमकीले पन (द्युति) और रंग आदि के आधार पर संहिता ज्योतिष के सिद्धान्तानुसार सुवर्षण / सूखा, आन्धी- तुफान, भूकम्प, ज्वालामुखी, सुनामी जैसी प्राकृतिक घटनाओं,   क्रानँति, विप्लव,युद्ध, विग्रह जैसी सामाजिक घटना दुर्घटनाओं का पूर्वानुमान भी लगाया जाता था। यात्राओं या बड़े यज्ञानुष्ठान,या उत्सव आरम्भ के पूर्व  उचित समय निर्धारण के पूर्व मोसम की अनुकूलता/ प्रतिकूलता विचार में ही इनका उपयोग होता था। कृषक, सेनानायक, समुद्री यात्रियों को इस ज्ञान में विशेषज्ञता होती थी। चूँकि वर्णाश्रम व्यवस्था में ब्राह्मण को शेष तीनों वर्णों से गुजर कर ही ब्राह्मणत्व प्राप्त होता था अतः राजर्षि और ब्रह्मर्षियों को संहिता और सिद्धान्त ज्योतिष का ज्ञान होना स्वाभाविक था। 

2 पञ्चाङ्गकारों का द्वितीय पक्ष पौराणिकों का है।

कलिकाल आरम्भ होने पर में ब्रह्मावर्त और उत्तरी आर्यावर्त में वेदिक धर्म कर्म लुप्त होनें लगे थे। मध्य भारत और उसमें भी मगध, का प्रभाव बड़ रहा था। 
वेदिक धर्म में भी वेदिककालीन  सहज सरल पञ्चमहायज्ञ के साथ  राजाओं, सामन्तों, राज्य अधिकारियों  (राजन्यवर्ग) और  समृद्ध वैष्यों (श्रेष्ठि वर्ग) में स्मार्त पूर्तकर्म और पुरोहितों  पर आश्रित क्लिष्ट कर्मकाण्ड बड़ने लगे थे। 
वर्णाश्रम व्यवस्था आधारित सामाजिक संरचना विकृत होकर जन्मगत जाति आधारित होनें लगी थी। सम्पन्नता का प्रदर्शन और भौतिकवादी सामाजिक प्रवृत्ति   का जोर बड़ रहा था। 
 
आर्यावर्त के दक्षिण भाग और दक्षिण भारत में  वेदिक उत्तरायण में वर्षा ऋतु पड़नें और अधिक वर्षा में विवाहोपनयनादि कार्यक्रमों में  भव्य समारोह का सम्पादन सम्भव नही हो पाता था।
 इस कारण पौराणिक काल के धर्माचार्यों नें सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ होने वाले वेदिक दक्षिण तोयन को उत्तरायण घोषित कर उत्तरायण को तीन माह पहले बतलानें लगे। 
दक्षिण तोयन को उत्तरायण बनाने के कारण उन्हें मधुमास का नाम बदलकर माधव मास  कर दिया। संवत्सर का प्रथम मास मधुमास के स्थान पर माधवमास होगया। संवत्सर के साथ ही आरम्भ होनें वाली वसन्त ऋतु का प्रथम मास संवत्सर के अन्त में कर दिया। संवत्सर आरम्भ में प्रथम मास वसन्त का और द्वितीय - तृतीय मास ग्रीष्म ऋतु का कर वसन्त ऋतु को संवत्सर के आदि और अन्त दो भागों में बाँट दिया। 
उल्लेखनीय है कि, वेदों से लेकर पुराणों तक म़ें यह उल्लेख नही पाया गया कि, संवत्सर के अन्त का मास मधुमास होता है। या संवत्सर के अन्त की ऋतु वसन्त ऋतु होती है या संवत्सर के अन्त का अयन उत्तरायण होता है। ऐसा उल्लेख या वर्णन कहीँ नहीँ पाया गया। 
उत्तरायण के प्रथम तीन मास संवत्सर के अन्त में हो गये और संवत्सर के आरम्भ में उत्तरायण के उत्तरार्ध के तीन मास ही रहे। यानी आधा उत्तरायण संवत्सर के आरम्भ में और आधा उत्तरायण संवत्सर के अन्त में आता है। आधी वसन्त ऋतु संवत्सर के आरम्भ में और आधी वसन्त ऋतु संवत्सर के अन्त में, माधव मास से सवंत्सर आरम्भ और मधुमास संवत्सर के अन्त में आने का  उल्लेख या वर्णन कहीँ नहीँ पाया गया।

किन्तु व्याकरण और काव्यशास्त्र में प्रवीण विद्वानों की इतनी साख बड़ गई की उनका कथन ब्रह्मवाक्य माना जानें लगा। चूँकि, राजन्य और सम्पन्न श्रेष्ठि वर्ग की समस्या का हल करनें हेतु यह विचित्र अटपटा व्यवस्था परिवर्तन उनके पुरोहितों नें ही किया था इसकारण स्वतन्त्र, सत्यनिष्ठ, सदाचारी, ज्ञानवान ब्राह्मणों की आवाज दब गई। जन साधारण तो राजाज्ञा और पुरोहितों के निर्देशों के प्रति अनुशासित होते हैं। अतः कोई घोर विरोध भी नही हो पाया।

सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ होनें वाले वेदिक दक्षिण तोयन को  पौराणिक उत्तरायण घोषित करनें के लिए बहुत से फैर बदल किये गये। वसन्त ऋतु  और मधु मासारम्भ को संवत्सरारम्भ से एक मास पहले  सायन मीन संक्रान्ति से बतलाना पड़ा। संवत्सर का प्रथम मास मधुमास को संवत्सर का अन्तिम मास घोषित करना पड़ा।और संवत्सर आरम्भ आधी वसन्त ऋतु बीतने पर माधवमास से आरम्भ बतलाना पड़ा। आधा उत्तरायण व्यतीत होनें के बाद शेष बचे आधे उत्तरायण से संवत्सरारम्भ बतलाना पड़ा।
 सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ होनें वाले वेदिक दक्षिण तोयन को  पौराणिक उत्तरायण घोषित किया।  शिशिर ऋतु एक मास पूर्व सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ होना बतलाया गया और तपस्य मास को तपः मास घोषित कर दिया।

उक्त असाधारण विचित्र परिवर्तन के माध्यम से मध्य भारत मे वसन्तारम्भ समय से मिलान (मैल)  हो गया । वर्षा ऋतु पौराणिक दक्षिणायन में आ गई। 
इस अनुचित परिवर्तन  में तत्कालीन सिद्धान्त ज्योतिषियों ने पूर्ण सहयोग देकर इस पाप और अपराध में सहभागीता की ।
सायन मतानुसार वसन्त विषुव से ही संवत्सरारम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ और मधुमासारम्भ एवम् तदनुसार  व्रतोपवास, पर्वोत्सव मनानें का स्पष्टता से उल्लेख करने का कर्तव्य पालन नही किया।  बल्कि वेदिक तोयन को लुप्त (गायब) कर वेदिक दक्षिण तोयन को (पौराणिक) उत्तरायण बतलाने लगे और वेदिक उत्तरायण को उत्तर गोल नामक नवीन नामकरण किया गया।
पौराणिकों नें पुराणों में और सिद्धान्त ज्योतिषियों नें  चान्द्र मासों को सायन सौर संवत्सर और ऋतुओं से सम्बद्ध बतलाया।
 
सिद्धान्तकारों नें निरयन सौर संस्कृत चान्द्रमासों की गणना पद्यति बनाई। परिणामस्वरूप  निरयन मीन राशि के सूर्य में आरम्भ होने वाले निरयन सौर संस्कृत चान्द्र मास चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से संवत आरम्भ करना आरम्भ किया।
परिणाम स्वरूप निरयन सौर संवत्सर और निरयन सौर पञ्चाङ्गो का प्रचलन हो गया। जो आजतक चल रहा है। 
प्रथम बार काशी के बापुदेव शास्त्री (नृसिंह) ने वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के सहयोग से सायन सौर संस्कृत चान्द्रमास आधारित पञ्चाङ्ग प्रकाशित करना आरम्भ की। इसे और आगे बड़ाया गुरुग्राम हरियाणा के  आचार्य दार्शनेय लोकेश ने राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग के चैत्र वैशाख के अनुरूप  सायन सौर माधव, शुक्र,शचि मास के साथ नक्षत्र योगतारा से आरम्भ असमान भोगांश वाले सायन गणना आधारित नक्षत्र  और सायन सौर संस्कृत चान्द्रमास आधारित पञ्चाङ्ग श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् प्रकाशन आरम्भ कर जारी रखा। उनका साहस प्रशन्सनीय है।

पञ्चाङ्गकारों का तृतीय वर्ग का कथन है कि, बाणवृद्धि रसक्षय।--धर्मशास्त्रानुसार तिथिवृद्धि  पाँच घटि से अधिक नही हो सकती और तिथिक्षय छः घटि से अधिक नही हो सकती। इस लिए वे ग्रहलाघव और मकरन्द करण ग्रन्थों पर आधारित पञ्चाङ्ग और केलेण्डर प्रकाशित कर रहे हैं।
जबकि,  पञ्चाङ्ग शोधन समितियों की  बैठकों में कभी कोई धर्माचार्य या ज्योतिषी धर्मशास्त्र के किसी भी ग्रन्थ में बाणवृद्धि रसक्षय वाक्य नही दिखा पाया।अतः सिद्ध है कि, यह वाक्य मन गड़न्त, पूर्ण अप्रमाणित और गलत है।
मूलतः किसी धर्मग्रंथ में ऐसा कोई बन्धनकारी निर्देश है ही नही। जबकि, सभी धर्मशास्त्रों नें दृग्गणितैक्य का ही निर्देश दिया है अर्थात जो आकाश में दिखे वही स्थिति (पोजीशन) पञ्चाङ्ग में दर्शाई जाये। यह दृग्गणितैक्यजम् वाक्य वे सूर्यसिद्धान्त या ग्रहलाघवी / मकरन्द आधारित पञ्चाङ्गकार स्वयम भी लिखते हैं। 
फिरभी ये लोग हट पूर्वक धड़ल्ले से गलत पञ्चाङ्ग और केलेण्डर प्रकाशित कर रहे है।
और बुजुर्गों के अन्धानुकरण को आदर्श मानने वाले तथा विज्ञापनों से प्रभावित होकर धर्मशास्त्राज्ञा से अनभिज्ञ जनता इन गलत पञ्चाङ्गों में गलत दिनों में बतलायें गये दिन में व्रतोपवास कर और पर्वोत्सव मनाकर धर्मभ्रष्ट हो रहे हैं। जिसके लिए धर्म नही जाननें वाली जनता स्वयम् भी उत्तरदायी हैं। इन गलत पञ्चाङ्गो का समर्थन करनें वाले पुरोहित और धर्माचार्य तथा ज्योतिषी भी इस पाप के भागी हैं। पञ्चाङ्गकार भी पाप कर धनार्जन कर रहे हैं। और किंकर्तव्यविमूढ़  शासन प्रशासन आँखें मून्दकर मौन है।

4 पञ्चाङ्गकारों का चतुर्थ वर्ग  दृगतुल्य ग्रहगणितम् वालों का है। 

चित्रापक्षीय सिद्धान्तकार  तैत्तरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण जैसे सशक्त प्रमाणों से यह बात सिद्ध कर चुके हैं कि, वेदिक ग्रन्थों में भी चित्रा तारे को नक्षत्रमण्डल का मध्य बिन्दु माना गया है। अतः चित्रातारे से 180° से नक्षत्रमण्डल का आरम्भ बिन्दु मानकर नाक्षत्रीय गणना की जाये।
श्री निर्मलचन्द्र लाहिरी जी ने यह प्रमाणित किया कि,सभी तारों के समान ही चित्रातारा स्वयम भी अत्यन्त मन्द गति से गतिशील है। तदनुसार गणना कर उननें चित्रापक्षीय अयनांश में आंशिक संशोधन किया जो भारत में लगभग सर्वमान्य होगया। 
और अब कई  पञ्चाङ्गकर्ताओं ने लाहिरी अयनांश या चित्रापक्षीय अयनांश के आधार पर नाक्षत्रीय गणनानुसार निरयन पञ्चाङ्ग प्रकाशित करना आरम्भ कर उचित कार्य किया है। इससे होराशास्त्रियों को लाभ मिला है। इसी कारण कुण्डली निर्माण के सॉफ्टवेयर में भी लाहिरी अयनांश चयन का विकल्प रहता है। 
किन्तु भारतशासन के राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग  के अनुसरण और परम्परा वादिता के कारण कई ज्योतिषी  तैतरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण आदि वेदिक प्रमाणों के आधार पर चित्रा तारे को नक्षत्रमण्डल का मध्य भाग यानी 180° मानकर चित्रा तारे से 180° पर नक्षत्र मण्डल का आरम्भ मानकर नाक्षत्रीय गणनाओं पर आधारित चित्रापक्षीय निरयन पञ्चाङ्ग बनाते हैं। 

 5 पञ्चाङ्गकारों का पञ्चम पक्ष झीटापिशियम को नक्षत्र मण्डल का आरम्भ बिन्दु माननें वालों का है। किन्तु अब वे  केवल महाराष्ट्र में इक्का दुक्का पञ्चाङ्गकार ही बचे हैं जो झीटापक्षीय अयनांश मानकर पञ्चाङ्ग बना रहे हैं। अतः इसपर विस्तार से चर्चा अनावश्यक है।

6 पञ्चाङ्गकारों का छटा पक्ष सायन वादियों का है।-- धार्मिक दृष्टि से यह पक्ष पूर्णतः उचित समाधान प्रदान करता है।
इनमें भी एक वर्ग नाक्षत्रीय निरयन गणना पद्यति को सिरे से नकारता है। यह अनुचित है क्योंकि,
वेदिक ग्रन्थों और रामायण, महाभारत जैसे इतिहास ग्रन्थों में भी चित्रातारे से 180° पर नाक्षत्रीय आरम्भबिन्दु से गणना कर सूर्य चन्द्रमा, बृहस्पति, शुक्र,मंगल,शनि, बुध आदि पाँच ग्रहों की नक्षत्रमण्डल में स्थिति (सेलेस्ट्रियल पोजीशन) दर्शाकर आकाश दर्शन का वर्णन है। जिससे उनका समय निर्धारण किया जाने में सहयोग मिलता है।

किन्तु  सूर्य, चन्द्रमा और ग्रहों की उक्त नाक्षत्रीय निरयन गणना के अनुसार व्रतोपवास पर्वोत्सव मनाना प्रचलन में नही था। नाक्षत्रीय गणना समर्थक निरयनवादियों को भी यह तथ्य निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है कि,वसन्त सम्पात को आरम्भ बिन्दु मानकर सायन गणना के आधार पर ही वेदिककाल में संवत्सरारम्भ, उत्तरायण - दक्षिणायन आरम्भ, उत्तर तोयन -दक्षिण तोयन आरम्भ, ऋतुओं और सायन सौर मधु माधवादि मासों का आरम्भ होता था। 
संवत्सरारम्भ, अयन, तोयन, ऋतु और मधु माधवादि मास  सायन गणना के बिना सम्भव ही नही है। 
इसी प्रकार सूर्य-चन्द्रमा और ग्रहों का उदय- अस्त, लोप- दर्शन, ग्रहण - मौक्ष, पात,  लग्न - दशमभाव या ख स्वस्तिक की गणना वसन्त सम्पात को आरम्भ बिन्दु मानकर सायन गणना के आधार पर ही हो सकती है।
 साम्पातिक समय, (मेरीडियन पासेस), विशुवांश, क्रान्ति, अक्ष आदि की गणना सायन मान ग्रहण किये बिना नही की जा सकती।

पूराने ज्योतिषियों को यह भ्रम था कि, सायन पद्यति विदेशी पद्यति है। किन्तु  ज्योतिर्गणित के विद्वानों और  पञ्चाङ्गकर्ताओं ने इस  भ्रम का निवारण शिघ्र ही कर दिया। आज विद्वानों द्वारा सगर्व सायन गणना पद्यति को भी निर्विवाद भारतीय मानलिया गया है।
जब संवत्सर अयन, तोयन, ऋतु और मघु, माधव, शुक्र शचि आदि यजुर्वेदीय मास और पवित्रादि ऋग्वेदीय मास सायन गणनानुसार ही होते थे तो व्रत, पर्वोत्सव का आधार भी सायन गणना ही हुई ना?
तब इन निरयन पञ्चाङ्गों की क्या आवश्यकता? 
इतिहास बतलानें या नाविकों को रास्ता चलते नक्षत्रों के योग ताराओं के साथ ग्रहों की स्थिति (पोजीशन) दर्शानें के लिये फिक्स झॉडिएक में ग्रहों को दर्शानें हेतु नाक्षत्रीय गणना/ निरयन पद्यति आसान, व्यावहारिक और कारगर है। किन्तु धर्मशास्त्रीय क्रियाओं, कर्मकाण्ड, व्रतोपवास, पर्वोत्सव के दिन और समय निर्धारण में इनका कोई महत्व नही है।

सायनवादि भी निर्विवाद मानते हैं कि,  जिस नक्षत्र में  पूर्णिमा को चन्द्रमा स्थित होता है उसी नक्षत्र के  नाम वाली पूर्णिमा के अनुसार चान्द्र मास कहलाता है। तदनुसार बने चैत्र- वैशाखादि चान्द्रमास का नाक्षत्रीय निरयन गणना से ही सिद्ध होता है। क्योंकि वसन्त सम्पात चलायमान/ गतिशील है। अतः सायन गणनानुसार नक्षत्रभोग बतलानें के चक्कर में नाटकिल अल्मनॉक के कई पृष्ठ भर जाते हैं और बड़ जाते हैं। जबकि निरयन गणना नाक्षत्रीय होनें के कारण वर्ष में एकबार ही नक्षत्र योगताराओं के निरयन भोग प्रकाशित करनें पर भी पुरे वर्ष भर आसानी से काम चल जाता है।

संवत्सर आरम्भ मधुमास से होता है उसे ही संवत्सर का पहला मास मानते हैं। अतः कोई भी निरयन सौर संस्कृत चान्द्र चैत्रादि मास प्रत्यैक संवत्सर में प्रथम मास न होकर बदलता रहता है। 
क्योंकि,  प्रत्यैक 2150 वर्ष के अन्तराल में वसन्त सम्पात 30° खिसक जाता है।इस कारण  निरयन सौर संस्कृत  चान्द्र मास का एक मास पहले संलत्सर आरम्भ होने लगता है।
अतः चन्द्रमास  से संवत्सरारम्भ नही होना  चाहिए। बल्कि सायन सौर (मधु, माधवादि) मासों को ही अपनाना पड़ेगा।
अतः सर्वश्रेष्ठ पद्यति यह होगी कि,

 *7 पञ्चाङ्गकारों का सप्तम पक्ष वेदिक पञ्चाङ्ग अपनाना।*

1 संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु, मधुमासारम्भ वसन्त विषुव से हो। अर्थात जिस समय वसन्त सम्पात पर सूर्य हो ठीक उसी समय सै संवत्सर आरम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ, मधुमासारम्भ हो। किन्तु यदि सूर्यास्त के बाद वसन्त विषुव / सायन मेष संक्रान्ति हो तो व्यवहार में और धर्मशास्त्रीय संकल्पादि प्रयोजन में अआने वाले / अगले दिन से संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु, मधुमासारम्भ होता है। 
शचि मास सायन कर्क संक्रान्ति  से उत्तर तोयन आरम्भ होता है।, ईष मास सायन तुला संक्रान्ति से दक्षिणायन आरम्भ होता है। तथा सहस मास सायन मकर संक्रान्ति से दक्षिण तोयन आरम्भ होता है।
मधु माधव मास सायन मेष और वृष के सूर्य मे वसन्त ऋतु, शुक्र शचि मास सायन मिथुन कर्क के सूर्य में ग्रीष्म ऋतु, नभः नभस्य मास सायन सिंह कन्या के सूर्य में वर्षा ऋतु, ईष उर्ज मास सायन तुला वृश्चिक के सूर्य में शरद ऋतु, सहस,सहस्य मास सायन धनु मकर  के सूर्य में हेमन्त ऋतु तथा तपस तपस्य मास सायन कुम्भ मीन के सूर्य में शिशिर ऋतु होती है।
मधु,माधव और शुक्र मास सायन मेष, वृष और मिथुन के सूर्य में *उत्तरायण* , दक्षिण तोयन।
शचि, नभस और नभस्य मास सायन कर्क, सिंह कन्या के सूर्य में उत्तरायण, *उत्तर तोयन।* 
ईष,उर्ज,सहस मास सायन तुला, वृश्चिक और धनु के सूर्य में *दक्षिणायन* , उत्तर तोयन,।
सहस्य, तपस, तपस्य मास सायन मकर, कुम्भ मीन के सूर्य में दक्षिणायन, *दक्षिण तोयन।* 

2 मुख्य व्रतोपवास एवम् पर्वोत्सव अयनारम्भ, तोयनारम्भ, ऋतु आरम्भ, मासारम्भ / सायन संक्रान्तियों को दिन में और, अमावस्या, शुक्लाष्टमी, पूर्णिमा, कृष्णाष्टमी  की रात्रि में मनाये जायें।
3  धार्मिक संकल्पादि प्रयोजन में  सायन सौर मास का वर्तमान अंश लिया जावे। जबकि व्यवहार में राष्ट्र की मध्याह्न रेखा पर औसत सूर्योदय समय (जैसे भारत में वर्तमान में पूर्वाह्न 06:00 बजे प्रातःकाल के) गतांश को पूरे दिन माना जाये। अथवा तदनुसार  मन्दोच्च के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर परिवर्तनीय  सायन सौर मासों की दिन संख्या निर्धारित कर सायन सौर संक्रान्तियों के गत दिवस यानी गते को दिनांक घोषित किया जावे। 
वर्तमान में मन्दोच्च सायन कर्क 13° 17' 23" या निरयन मिथुन 19°08'37" पर है। अर्थात मन्दोच्च ईष मास गतांश13° पर होने से 31.6 दिन का ईष मास सबसे बड़ा मास होता है।  और मन्दनीच सहस्य मास गतांश 13° पर होनें से  29 सावन दिन का सबसे छोटा मास सहस मास होता है।
निरयन गणना में निरयन मिथुन मास सबसे बड़ा मास और सबसे छोटा निरयन सौर धनुर्मास  होता है।
इस कारण मधु, माधव, शुक्र, शचि, नभः नभस्य मास 31 दिन के, ईश,उर्ज, सहस मास 30 दिन के, सहस्य मास 29 दिन का, तपः मास 30 दिन का तथा तपस्य मास तीन वर्षों तक 30 दिन का और चतुर्थ वर्ष यानी अधिवर्ष (लिप ईयर) में तपस्य मास 31 दिन का हो।
ईस्वी सन 1971 तक संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमासारम्भ 22 मार्च से होता था।
ईस्वी सन 1972 से संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमासारम्भ 21 मार्च से होता है।
4 कल्प संवत्सर, कलियुग संवत्सर, अयन आरम्भ या अन्त का समय, तोयन आरम्भ या अन्त का समय , ऋतु आरम्भ या अन्त का समय  , 
सायन मधु माधवादि मास का नाम , सायन संक्रान्ति का समय ,दिनांक, सायन संक्रान्ति गतांश और समाप्ति काल, सायन संक्रान्ति गते,दशाह का वासर,
युधिष्ठिर संवत्सर निरयन मेष वृषभादि मासनाम एवम् निरयन संक्रान्ति का समय, 
निरयन संक्रान्ति गतांश और समाप्ति काल, निरयन संक्रान्ति गते,दशाह का वासर,
विक्रम संवत सायन सौर संस्कृत अमान्त चान्द्र मास का  नाम, सप्ताह का वार, करण के समान तिथ्यार्ध समाप्ति काल, 
शकाब्द, निरयन  सौर संस्कृत अमान्त चान्द्र मास का नाम, सप्ताह का वार, करण के समान तिथ्यार्ध समाप्ति काल, 

5 चन्द्रमा, सूर्य एवम् सभी ग्रहों के अठासी नक्षत्र और अट्ठाइस नक्षत्रों का समाप्ति काल ----
 १ नक्षत्र योग तारा को केन्द्र मानकर असमान भोग वाले अट्ठाइस सायन नक्षत्र  समाप्ति काल,
२ नक्षत्र योग तारा को आरम्भ मानकर असमान भोग वाले अठासी सायन नक्षत्र  समाप्ति काल,
३ नक्षत्र योग तारा को केन्द्र मानकर असमान भोग वाले अट्ठाइस निरयन नक्षत्र  समाप्ति काल,
४ नक्षत्र योग तारा को आरम्भ मानकर असमान भोग वाले अठासी निरयन नक्षत्र  समाप्ति काल,

6  साम्पातिक समय तथा चन्द्रमा, बुध, शुक्र,सूर्य, मंगल, ब्रहस्पति, शनि, युरेनस ,नेपचून और राहु के भूकेन्द्रीय     ग्रहस्पष्ट - सायन और निरयन भोगांश,लाहिरी स्पष्ट अयनांश, शर, क्रान्ति,चन्द्रमा और ग्रहों का विशुवांश/ सूर्य का स्पष्ट मध्यान्ह समय, दूरी, पात, बिम्बमान, उदय - अस्त समय,
 चन्द्रमा, बुध और शुक्र के लिए  पूर्वाह्न 06 बजे,, मध्याह्न 12बजे, सायम्  18 बजे और मध्यरात्रि 00 बजे के लिए सायन और निरयन भोगांश,लाहिरी स्पष्ट अयनांश, शर, क्रान्ति, विशुवांश, दूरी, पात, बिम्बमान, उदय - अस्त समय दर्शाया जाये।
सूर्य और मंगल के लिए प्रतिदिन के प्रातः 06 बजे और सायम् काल 18 बजे के दो बार दिये जायें। सायन और निरयन भोगांश,लाहिरी स्पष्ट अयनांश, शर, क्रान्ति,  सूर्य का स्पष्ट मध्यान्ह समय एवम्  मंगल का विशुवांश, दूरी, पात, बिम्बमान, उदय - अस्त समयदर्शाया जाये।
ब्रहस्पति, शनि, युरेनस, नेपच्युन के प्रतिदिन प्रातः 06 बजे के लिए भोगांश, शर, क्रान्ति, विशुवांश,  दूरी, पात, बिम्बमान, उदय - अस्त समय दर्शाये जाये।
इसके अतिरिक्त आकाशगंगा,एवम्  चन्द्रमा, सूर्य, एवम् ग्रहों एवम् उनके उपग्रहों के विषय में मुख्य ज्योतिषीय (एस्ट्रोनॉमिकल) जानकारियाँ जैसे व्यास, परिधि, संहति (Mass),घनत्व, दूरी,  सूर्य / भूमि या ग्रह की परिक्रमा समय, मोसम सम्बन्धी जानकारी दी जाये।
7   चन्द्रमा, सूर्य  और ग्रहों के समान तीस अंशो वाली सायन राशि और समान 13°20' वाले सायन नक्षत्रों और 3°20' वाले सायन नक्षत्र चरणों में प्रवेश का दिनांक और समयदर्शाया जावे।

8    चन्द्रमा, सूर्य  और ग्रहों के समान तीस अंशो वाली नियरन राशि और समान 13°20' वाले निरयन नक्षत्रों और 3°20' वाले निरयन नक्षत्र चरणों में प्रवेश का दिनांक और समय दर्शाया जाये।

9  अलग अलग अक्षांशो पर स्थित नगरों/ कस्बों या ग्रामों में ग्रहों के पूर्व या पश्चिम दिशा में उदय - अस्त ,लोप - दर्शन, पारगमन आरम्भ - समाप्ति का दिनांक और समय और उस समय के सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये।

10 ग्रहों के वक्री मार्गी होनें का दिनांक और समय के सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये।

 11 अलग अलग अक्षांश देशान्तरों पर स्थित नगरों, कस्बों और ग्रामों में होनें वाले सूर्य ग्रहण का आरम्भ,मौक्ष और  पूर्ण / वलयाकार सूर्यग्रहण  या अधिकतम ग्रहण आरम्भ, और  समाप्ति का  समय और उस समय के सूर्य चन्द्रमा के सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये। 
 
 12 अलग अलग अक्षांश देशान्तरों पर स्थित नगरों, कस्बों और ग्रामों में होनें वाले  पूर्ण या आंशिक चन्द्रग्रहण का आरम्भ मौक्ष और अधिकतम या पूर्ण ग्रहण का आरम्भ, और अधिकतम ग्रहण या पूर्ण ग्रहण की समाप्ति का  समय और उस समय के सूर्य चन्द्रमा के सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये। 

13 अलग अलग अक्षांश देशान्तरों पर स्थित नगरों, कस्बों और ग्रामों में होनें वाले ग्रहों के लोप और दर्शन,/ उदय- अस्त और पारगमन का समय अलग अलग अक्षांशो पर स्थित नगरों/ कस्बों/ ग्रामें के अनुसार दर्शाया जाये और उनके सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति, विशुवांश आदि दर्शाया जाये।

14 अलग अलग अक्षांश देशान्तरों पर स्थित नगरों, कस्बों और ग्रामों में होनें वाले अगस्तादि ताराओं के उदय अस्त का समय और उस समय उनका सायन एवम् निरयन भोगांश, शर, क्रान्ति,विशुवांश आदि दर्शाया जाये।

15  सनातन वेदिक ब्राह्म धर्म के व्रतोपवास, पर्वोत्सव की सुचना मास के पृष्ठ पर दिनांक के सामने तो हो फिर भी प्रथक प्रथक मत, पन्थ, सम्प्रदायों के नियमानुसार व्रतोपवासों, पर्वोत्सवों की प्रथक सुची भी हो। जिसमें शुद्ध वेदिक और स्मार्त मतों के व्रतोपवासों पर्वोत्सवों और जयन्तियों के दिन और समय निर्धारण के नियम और सम्बन्धित मत, पन्थ सम्प्रदाय के नियम भी स्पष्ट कर दिये जायें। तथा मनाने की संक्षिप्त विधि भी दी जाये।
सनातन धर्म के, जैन, बौद्ध खालसा पन्थों/ सम्प्रदायों के, पारसी सम्प्रदाय के और इब्राहिमी सम्प्रदाय यहुदी, इसाई और मुस्लिमों के विभिन्न मत पन्थों के व्रतोपवास ,पर्वोत्सवों और जयन्तियों एवम् राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय आधुनिक पर्वोत्सवों और जयन्तियों की सुची में उनके नियम दर्शाते हुए कब करना चाहिए और उनके पन्थ के आचार्यों नें कब घोषित किये हैं दोनों उल्लेख किया जाये। ताकि, जन साधारण का भ्रम निवारण हो सके।

16 षोडष संस्कारों,शिशुओं महिलाओं, रोगियों, वृद्धों से सम्बन्धित कार्यों के, वास्तुसम्बन्धित ग्रहारम्भ, ग्रहप्रवेश,प्रतिमा स्थापना आदि, व्यवसाय सम्बन्धित दुकान, कारखाना, व्यवसाय आरम्भ, कृषि सम्बन्धी विभिन्न कार्यों हलना, बीजारोपण, फसल काटना, कुआ ट्युबवेल खोदना, तालाब निर्माण,पशुपालन सम्बन्धी कार्य, कृषिभूमि, आवासीय भूमि, व्यावसायिक भूमि क्रय विक्रय करना, उनपर वास्तु निर्माणारम्भ, द्वार,छत आदि कार्यों, वाहन क्रय विक्रय, करना, वाहन पर आरुढ़ होना,   ग्रहणादि ब्रहस्पति, शुक्रास्त बाल वृद्धत्व, देवशयन के विधि निषेध, कुम्भ आदि पर्वों के स्नान, शासकीय कार्यों, नोकरी या पदस्थापना या पदोन्नति या स्थानांतरित होकर नवीन स्थान/ पदस्थी पर कार्यग्रण करना या सेवानिवृत्त होना, स्थीपा देना, पद त्याग, वस्तुओं का संग्रह, अन्न भण्डारण ,ऋण लेना ऋण देना,न्यायालयीन वाद प्रतिवाद लगाने आदि के उचित समय, लकी टाईम और मुहूर्त के नियम सहित दिन और समय निर्धारण कर मुहुर्त की सुखी देना चाहिए।
 
17खगोल और धर्मशास्त्रीय नियमों सम्बन्धित आलेख प्रकाशित करना।

18   साठ घटि, साठ पल और साठ विपल वाली घड़ी बनाई जाये। उत्तर दिशा की दिवार पर टंगी घड़ी के डायल में पूर्व दिशा में 00/ 60 , उपर आकाश की ओर 15 , पश्चिम की ओर 30 तथा नीचे भूमि/ पाताल की ओर 45 अंकित हो।  ए.एम. पी.एम. का झंझट नही रखा जाये।
वर्तमान भारतीय मानक समय 06 बजे को 00 बजे।वर्तमान भारतीय मानक समय 12 बजे को 15 बजे। वर्तमान भारतीय मानक समय 18 बजे को 30 बजे। तथा वर्तमान भारतीय मानक समय 00 या 24 बजे को 45 बजे। दर्शाया जाये।
ताकि, घटि की सुई सूर्य की वर्तमान स्थिति सूचित करे।

19 उपयोग कर्ताओं की योग्यता और आवश्यकताओं के अनुरूप विज्ञान के विद्यार्थियों, प्रशासको, ग्रहस्थों , किसानों- व्यापारियों के लिए प्रथक प्रथक छोटे सिमित जानकारी वाले केलेण्डर पञ्चाङ्गो का प्रथक से प्रकाशन होना चाहिए।