शनिवार, 26 अक्टूबर 2019

सनातन धर्म के व्रतपर्वोत्सव में निर्धारित पुजा समय और मुहुर्त ।

सनातन धर्म के व्रतपर्वोत्सव में निर्धारित पुजा समय और मुहुर्त ।

सनातन धर्म की पुजाओं के समय निर्धारित हैं।

सर्वप्रथम यह स्मरण कराना चाहूँगा कि, आपके मुख्य धर्मशास्त्र ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद संहिता है। हमारे आत्मज्ञानी ब्रह्मज्ञ ऋषियों ने उक्त वेदिक संहिताओं की जो व्याख्या की उसे ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं। उन्ही ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम अध्याय में वानप्रस्थ आश्रम के लिए चिन्तन मनन हुआ उसे आरण्यक कहते हैं। और इन आरण्यकों के भी अन्त में जो आत्मतत्व चिन्तन ब्रह्मवाद पर चर्चा हुई उसे उपनिषद कहते हैं।

ईशावास्योपनिषद शुक्लयजुर्वेद संहिता का अन्तिम अध्याय है अर्थात चालीसवाँ अध्याय है।

कृष्ण यजुर्वेद में संहिता भाग के साथ ब्राह्मण भाग मिश्रित है। इसलिए इसे काला/  कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं।श्वेताश्वेतरोपनिषद कृष्णयजुर्वेद संहिता का भाग है।

ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड सम्बन्धित भागों को क्रियाओं के समय याद रखने के सुत्र बड़े यज्ञों के लिए श्रोतसुत्रों, संस्कार, व्रतपर्वोत्सवों के लिए ग्रह्यसुत्र, आचरण के लिए धर्मसुत्र और यज्ञ वैदी /बेदी और मण्डप आदि रचनार्थ शुल्बसूत्र ऋषियों ने रचे।और हम उन्ही ग्रह्य सुत्रों के अनुसार अपने व्रत, पर्व और उत्सव मनाते हैं। 

ब्राह्मणारण्यकोपनिषदों में मतान्तर नही है अपितु एकवाक्यता है यह सिद्ध करनें के लिए आचार्य जेमिनी ने पूर्वमीमांसा दर्शन और आचार्य बादरायण ने उत्तरमीमांसा दर्शन रचा। उत्तर मीमांसा दर्शन को ब्रह्मसूत्र और शारीरक सुत्र भी कहते हैं।

धर्मसुत्रों को सरलता से समझाने हेतु स्मृतियाँ बनी, श्रोतसुत्रत्रों और गृह्य सुत्रों को सरलता से समझाने के लिए कर्मकाण्ड भास्कर, कर्मकाण्ड प्रदीप जैसे निबन्ध ग्रन्थ बने। इनको भी और सरल करने के लिए ब्रह्म नित्य कर्म समुच्चय ग्रन्थ बना। अब तो गीता प्रेस गोरखपुर ने भी नित्यकर्म पूजा प्रकाश ग्रन्थ प्रकाशित कर दिया है।

इनके संयुक्तिकरण और पूराणों की उक्तियों का समायोजन कर  हेमाद्रि, कालमाधव आदि निबन्ध ग्रन्थ बनाकर और सरलीकरण किया गया।

निर्णयसिन्धुकार कमलाकर भट्ट ने निबन्धग्रन्थों और पौराणिक मतों की मीमांसा कर निर्णयसिन्धु ग्रन्थ में निर्णायक मत प्रस्तुत किये। जिसे भारतीय न्यायपालिका भी मान देती है।

निर्णय सिन्धु के केवल निर्णयों को एक स्थान पर संग्रहित कर धर्मसिन्धु की रचना की गई। इसे भी माननीय न्यायालय में मान्यता प्राप्त है।

हम उन ब्राह्मण ग्रन्थों और सुत्र ग्रन्थों के अनुयायी हैं यह दर्शानें के लिए प्रतिदिन कर्मकाण्ड की क्रियाओं के संकल्प के समय अपना गोत्र और प्रवर उच्चारण करते हैं।

किन्तु दासत्व की शताब्दियों में हमपर शक, हूण, खस,ठस, बर्बरों और इब्राहिमियों ने नानाविध अत्यधिक अत्याचार किये कि, हमारे पूर्वजों को बाध्य होकर एकान्त में छुपकर इन व्रतों,पर्वों और उत्सवों का अनुष्ठान करनें बाध्य होना पड़ा। वही परम्परा हम आज भी अपने अपने घरों में घर के अन्दर बन्द होकर संयुक्त परिवार सहित या अबतो केवल  एकल परिवार के साथ व्रतों,पर्वों और उत्सवों का अनुष्ठान करते हैं।

इस कारण आचार्यों के बिना की जाने वाली आराधना,उपासनाओं की विधियों में भेद पड़ गया। जिसे हम लज्जास्पद माननें के स्थान पर सगर्व कुल रीति कहते हैं। मूल रीति तो उन गोत्र ऋषि द्वारा स्थापित रीति है जो उननें शास्त्रों में लिखी है।  देखादेखी में कुछ त्रुटियाँ कुछ जुड़ती गई, कुछ नवीन परम्पराएँ जुड़ती गई और कूलरीति बनती गई।

हमारी मूल रीति तो, ब्राह्मणारण्यकोपनिषद, और सुत्र ग्रन्थों मे ही उल्लेखित है और वही मान्य है। उतना नही तो निबन्ध ग्रन्थों को तो स्वीकारनें को हम बाध्य हैं। तभी हम सनातन धर्मी कहलानें की पात्रता रखते हैं। और तभी हमें संकल्प में गोत्रोच्चार की पात्रता होगी।


अब मूल बात पर आते हैं।

 *व्रतपर्वोत्सव में निर्धारित पुजा समय और मुहुर्त ।* 

व्रत का नियम है कि, जिसदिन/ जिस तिथि में/ जिन तिथियों में व्रत करो उसके दुसरे दिन/ उस तिथि की/ उन तिथियों की अगली तिथि में पारण अवश्य करो।अन्यथा व्रत भङ्ग हो जायेगा।

जैसे एकादशी का पारण द्वादशी तिथि में होना आवश्यक है। अन्यथा एकादशी व्रत भङ्ग होजायेगा। अतः एकादशी व्रत करनें वाला द्वादशी का उपास/ उपवास व्रत नही कर सकता।

द्वादशी तिथि का एक चौथाई भाग हरिवासर पूर्ण होने के बाद द्वादशी तिथि में उसे पारण (अन्न ग्रहण) करना ही होता है।

नवरात्र का व्रत करने वाले को दशमी में पारण करना आवश्यक है अन्यथा नौ तिथियों में किया गया व्रत भङ्ग हो जायेगा। अतः वह दशमी तिथि को उपास/ उपवास का व्रत नही कर सकता।

इसी कारण वैदिक परम्परा में या तो पूर्ण उपास/ उपवास होता है या एक भक्त व्रत होता हे। (सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच एक ही बार भोजन करने को एकभक्त कहते हैं।) चूँकि, रात्रि भोजन निषेध है इसकारण केवल तन्त्र में प्रदोषव्रत आदि नक्त व्रत की व्यवस्था है वैदिक धर्म में नक्त व्रत की मान्यता नही है। एकादशी व्रत करने वालों को प्रदोषव्रत न करनें की सलाह इसी कारण दी जाती है। ताकि, द्वादशी में एकादशी का पारण हो सके। ऐसे ही जन्माष्टमी का पारण नवमी तिथि में होना ही चाहिए। जो लोग श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाकर उत्तर रात्रि में पारण कर लेते हैं वे व्रत भङ्ग कर लेते हैं। क्योंकि व्रती को रात्रि भोजन ही नही करना चाहिए तो व्रती के लिए उत्तर रात्रि में भोजन करना तो सर्वथा अनुचित होगा।

अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की मध्याह्न व्यापी चतुर्थी में गणपति पुजन में मध्याह्न में पार्थिव गणेश स्थापित कर गणपति उत्सव पूजन करें । और दुसरे दिन प्रातः पार्थिव गणेश विसर्जन करें।

जिन पण्डितों को उक्त शास्त्रों का ज्ञान नही होता वे नवरात्र में दुर्गा पूजा के लिए उल्लेखित विधि निषेध सप्तमी भेद युक्त अष्टमी में दुर्गा पूजा नही करनें की दुहाई देकर श्रीकृष्ण जन्माष्टमी में सप्तमी भेद युक्त अष्टमी में जन्माष्टमी नही मनाना कहते हैं। किन्तु वे ही पण्डित जन दशमी युक्त नवमी में दुर्गा पूजा नही करनें का विधान नही बतलाते।  और धड़ल्ले से दशमी विद्धा नवमी में नवरात्र में महानवमी बतलाते हैं।  रामनवमी के समय भी उन्हे उक्त नियम याद नही आता। तब भी उदिता/ उदिया तिथि में रामनवमी बतलाते हैं।

जबकि शास्त्रोक्त नियम पर्वकाल व्यापि तिथि में ही पर्वोत्सव मनाने का विधान है। 

अतः मध्याह्न व्यापी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी में श्री गणेश स्थापना करना चाहिए। 

श्रीकृष्ण जन्म का पर्वकाल मध्यरात्रि है अतः मध्यरात्रि व्यापी अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाना चाहिए। और 

मध्याह्न व्यापी चैत्र शुक्ल नवमी में राम नवमी मनाना चाहिए।

श्राद्ध नित्यकर्म है। ब्रह्म यज्ञ, देवयज्ञ के पश्चात पितृयज्ञ के अन्तर्गत श्राद्धकर्म में  मध्यान्ह पश्चात अपराह्न काल में श्राद्ध करना।

पञ्चबलि निकालना भूतयज्ञ का अङ्ग है। उसी में से नृबलि के अन्तर्गत निकाला गया भोजन अतिथि को परोस कर अतिथि यज्ञ होता है।


 नवरात्रि में  द्वितीय युक्त प्रतिपदा में सुर्योदय से दस घटि यानि चार घण्टे के अन्दर ही घटस्थापना करना। इसके बाद घटस्थापना नही होना चाहिए। जयति (जँवारे बोना) भी इसी का अङ्ग है।

प्रतिमा स्थापना का कोई कर्तव्य नही है। प्रतिमा स्थापना घटस्थापना के साथ ही उसी का अङ्ग है।इसकी कोई अलग व्यवस्था नही है। अतः प्रतिमा स्थापना भी सूर्योदय से चार घण्टों में ही होता है।

आश्विन पूर्णिमा परा अर्थात उदिया/ उदिता तिथि में ही होती है। उसमें भी चन्द्रोदय व्यापी पूर्णिमा का महत्व अधिक है।

 किन्तु शरद पूर्णिमा का रास महोत्सव मध्यरात्रि का है। मतलब शरद पूर्णिमा महोत्सव मध्यरात्रि व्यापि आश्विन पूर्णिमा में मनाया जाना चाहिए। न कि, चन्द्रोदय व्यापि आश्विन पूर्णिमा में।

 को जागरी अर्थात (लक्ष्मी कहती है;) कौन जागता है (मैं उसे धन दूँगी।) सूर्यास्त के समय तो यह प्रश्न उत्पन्न ही नही होता। स्पष्ट है कोजागर का मुख्यकाल महानिशा (मध्यरात्रि) ही है। और इस तिथि में प्रदोष काल में कलश स्थापित कर लक्ष्मी पूजा का विधान है। अतः प्रदोषकाल और मध्यरात्रि व्यापि आश्विन पूर्णिमा में कोजागरी पूर्णिमा पूजन होना चाहिए। न कि, चन्द्रोदय व्यापि आश्विन पूर्णिमा में।


धन्वन्तरि त्रयोदशी में अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण पक्ष में प्रदोषकाल व्यापी त्रयोदशी में धनतेरस मनाते हैं। धनतेरस मूलतः धन्वन्तरि जयन्ती है।

धनतेरस में प्रदोषकाल में यम और पितरों के निमित्त दीपदान करें। इसमें धन्वन्तरि पूजन होता है न कि, धन की पूजा।

नर्क चतुर्दशी / रूप चौदस में चतुर्दशी तिथि में चन्द्रोदय के पूर्व अभ्यङ्ग स्नान कर उदयीमान चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है। इससे रूप सँवरता है। यम दण्ड से बचाव होता है। रूप चौदस पर चाँन्दी या रुपयों की पूजा करनें का कोई विधान नही है।


दिवाली अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण पक्ष में  प्रदोषकाल व्यापी और मध्यरात्रि व्यापी अमावस्या में दीवाली होती है।  दीपावली पुजन मे यज्ञवेदी में नवीन समिधा डालकर अग्न्याधान करें।

प्रदोषकाल यानि सुर्यास्त पश्चात छः घटि यानि लगभग 2 घण्टे 24 मिनट के अन्दर ही दीप पूजन कर यमराज के और पितरों के निमित्त दीपदान किया जावे।  इससे पितरों को अपनें लोक लौटनें का मार्ग प्रशस्थ होता है। दीपदान के बाद स्थिर लग्न/ वृष लग्न में नारायण सहित श्री लक्ष्मी , इन्द्र और कुबेर की पूजन करें। धन, सम्पदा, स्वर्ण, मुद्रा आदि की पूजन का कोई विधान नही है।

दीवाली को मध्यरात्रि के एक घटि पहले से मध्यरात्रि से एक घटि बाद तक की महानिशा में काली पूजन होता है। दवात में काली स्याही कै रूप में काली पूजन का विधान है।


उपपत्ति ----

प्रदोषकाल समाप्ति समय  = [सुर्यास्त समय + (अगला सुर्योदय -सुर्योदय)÷ 5]

या

प्रदोषकाल समाप्ति समय  = सुर्यास्त समय + (रात्रिमान÷5) ।


दीवाली के दुसरे दिन हवन कर नवीन धान्य अर्थात ज्वार (ग्वार) धान (चाँवल), गन्ना आदि की आहुति देकर नवधान्येष्टि करें।

तुलसी विवाह कब करें प्रथक ब्लॉग में वर्णन है।


शिवरात्रि में अमान्त माघ पुर्णिमान्त फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की मध्यरात्रि व्यापी चतुर्दशी तिथि में महाशिवरात्रि पर्व मनाते है। शिवरात्रि को रात्रि में चारों प्रहर में अलग अलग चार बार जलाभिषेक कर  बिल्वपत्र अर्पित कर पुजन करना ।

सूर्यास्त / प्रदोषव्यापिनी फाल्गुनी पूर्णिमा में यज्ञ कुण्ड में नवीन समिधा अर्पित कर अग्न्याधान कर होलिका दहन कर दुसरे दिन प्रतिपदा में सामुहिक / सामुदायिक रूप से नवस्य, यव (जों), हवन  में गेहूँ आदि नवान्न की आहुति देकर  इष्टि कर्म करें।


इनमें न कोई लग्न का उल्लेख है न चौघड़िया का।

इनके लिए मुहुर्त देखने की परम्परा बहुत बाद की है।

मुहुर्त शास्त्र से पूजाओं को जोड़ने के लिये मुहुर्त का सबसे महत्वपूर्ण तत्व लग्न को ग्रहण किया गया।

वैदिक काल में सायन सौर संक्रान्तियों से मासारम्भ होता था अतः दो सायन संक्रान्तियों के बीच पड़ने वाली अमावस्या के दुसरे दिन प्रतिपदा से चान्द्रमास आरम्भ होता था। विष्णु पुराण तक में यही उल्लेख है। किन्तु वराह मिहिर के समय निरयन सौर वर्ष से संस्कारित / संस्कृत  चान्द्रमासों की परिपाटी चली।


वर्तमान में प्रचलित चैत्र वैशाख आदि माह वाली शकाब्ध पञ्चाङ्ग नाक्षत्रिय सौर वर्ष यानि निरयन सौर वर्ष से संस्कारित / संस्कृत चान्द्रमास दिये जाते हैं। अभी तक सायन सौर संक्रान्तियों और निरयन सौर संक्रान्तियों में चौविस दिनों का अन्तर होने के कारण किसी भी व्रत,पर्वोत्सव के निरयन सौर दिनांक में एक माह से अधिक अन्तर नही आता। इस कारण व्रत,पर्वोत्सवके दिन पर्वकाल / पुजा की निर्धारित अवधि में निश्चित लग्न मिल जाता है।

जैसे चैत्र में घटस्थापना के समय स्थिर लग्न वृष, आश्विन नवरात्रि मे घटस्थापना के समय स्थिर लग्न वृश्चिक, गणेश चतुर्थी में  स्थिर लग्न सिंह , और दिवाली में प्रदोषकाल में वृष लग्न और महानिशीथ काल में स्थिर लग्न सिंह मिल जाता है।

किन्तु जिन्हे लग्न साधन की गणना नही आती थी और जो ज्योतिषियों को दक्षिणा देना भी नही चाहते थे ऐसे नाथ आदि तान्त्रिकों ने यात्रा में अनुकूल वार / वासर नही होने पर उस वार के प्रहर में यात्रा करने का वैकल्पिक साधन चौघड़िया और होरा का उपयोग शुरू किया। किसी व्रत पर्वोत्सवों में  व्रत पर्वोत्सव के निर्धारण समय में कोई निश्चित चौघड़िया मिलना निश्चित नही है। क्यों कि चौघड़िया वार/ वासर आधारित सांख्यिकी गणना / अंकविद्या है।

आप यह निश्चित नही कर सकते कि, दिवाली को प्रदोषकाल में मंगलवार और शनिवार को छोड़कर अन्य वार में लाभ के चौघड़िया में ही पुजन कर सकें।

वर्तमान में अधिकांश पुरोहित / पण्डित भी लग्न साधन और न यह तथ्य जानते हैं कि होरा के समान ही चौघड़िया भी (चार घड़ि = 96 मिनट) भी वारों के स्वामी ग्रहों का ही प्रतीकही  हैं।

सुर्य - उद्वेग।

चन्द्रमा -अमृत।

मंगल- रोग।

बुध - लाभ।

गुरु - शुभ।

शुक्र - चर।

शनि - काल।

दिन के चौघड़िया का प्रथम चौघड़िया वार स्वामी ग्रह का ही होता है। जैसे होरा में होता है। बादमें वही होरा वाला क्रम में अर्थात वार से छटा फिर उससे छटा फिर उससे छटा ।

जबकि रात्रि में वार से पाँचवाँ फिर उससे पाँचवाँ फिर उससे पाँचवाँ ।

कुल मिलाकर यह अति साधारण सांख्यिकी या अंक विद्या मात्र है ज्योतिष नही है। जबकि लग्न साधन ज्योतिष है। मिलना निश्चित नही है। क्यों कि चौघड़िया वार/ वासर आधारित सांख्यिकी गणना / अंकविद्या है।

आप यह निश्चित नही कर सकते कि, दिवाली को प्रदोषकाल में मंगलवार और शनिवार को छोड़कर अन्य वार में लाभ के चौघड़िया में ही पुजन कर सकें।
अधिकांश पुरोहित / पण्डित भी नही जानते कि होरा के समान ही चौघड़िया (चार घड़ि = 96 मिनट) भी वारों के स्वामी ग्रहों का ही प्रतीक हैं।
सुर्य - उद्वेग।
चन्द्रमा -अमृत।
मंगल- रोग।
बुध - लाभ।
गुरु - शुभ।
शुक्र - चर।
शनि - काल।
दिन के चौघड़िया का प्रथम चौघड़िया वार स्वामी ग्रह का ही होता है। जैसे होरा में होता है। बादमें वही होरा वाला क्रम में अर्थात वार से छटा फिर उससे छटा फिर उससे छटा ।
जबकि रात्रि में वार से पाँचवाँ फिर उससे पाँचवाँ फिर उससे पाँचवाँ ।
कुल मिलाकर यह अति साधारण सांख्यिकी या अंक विद्या मात्र है ज्योतिष नही है। जबकि लग्न साधन ज्योतिष है।

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019

पुत्र धर्म और माता-पिता के कर्मों का सन्तान पर प्रभाव नही।

नारायणी धर्म ( भगवान नारायण ब्रह्मा द्वारा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को उपदिष्ट  वेदिक धर्म/ श्रोतीय धर्म,ब्राह्मण धर्म/ ब्राह्मधर्म । आदि प्रजापति  द्वारा दक्ष प्रजापति आदि ऋषियों और देवताओं, स्वायम्भुव मनु को उपदिष्ट प्रजापत्य धर्म, मनुस्मृति पर आधारित  मानवधर्म  के अध्ययन से प्राप्त मेरी शास्त्रीय जानकरियों के अनुसार  दैत्य हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद जी परम विष्णुभक्त हुए। प्रहलाद जीकी भक्ति के प्रताप से पिता द्वारा दियेगये कष्टों से भी कोई प्रभाव नही पड़ा।
मतलब पिता के कर्म नही अपने कर्म ही काम आते हैं।
न्याय से चुके उत्तानपाद के पुत्र भक्त ध्रुव अपनी साधना, आराधना के बल पर ध्रुव / अचल पद और बाद में परमपद पा गये।
माता जबाला कई लोगों की सेवा में रही, इस कारण पुत्र को पिता का नाम और गौत्र नही बतला पाई। उन माता के पुत्र अपनी सत्यनिष्ठा के बल पर महर्षि सत्यकाम जबाल हुए।
याज्ञवल्क्य द्वारा विवाह कर सन्तानोत्पत्ति न करने के कारण  श्राद्ध - तर्पण न करने, पिता का ऋण न चुकाने, पिता के अधुरे कार्य पुर्ण न करने के कारण उनके पितर कष्ट झेल रहे थे।नर्क में गिरने वाले हैं यह बतलाकर पुत्र को विवाह कर सन्तानोत्पत्ति का कर्तव्य बोध कराया।
महर्षि कपिल के शाप की अग्नि में जल रहे सगर के एक हजार पुत्रों को उनके वंशजों ने तप कर सुर सरिता गङ्गा को कपिल आश्रम लेजाकर सद्गति करवाई।
माता-पिता के कर्मों का फल सन्तान को भोगना पड़े ऐसा उल्टा ज्ञान मेने नही पढ़ा सुना।
यहाँ तक कि, जैन, बौद्ध ,खालसा भी उक्त मत वाले ही हैं इससे विपरीत नही मानते हैं।

हाँ आदम के वंशजों का पन्थ आदमी पन्थ  के  इब्राहीमी, साबई, दाउदी, सुलेमानी,यहुदी, ईसाई और इस्लाम सम्प्रदाय अवश्य यह मानते हैं कि, यहोवा (पिता) के आदेश के विरुद्ध बुद्धिवृक्ष का फल खाने के पाप स्वरुप मैथुन में प्रवृत्त होने का पाप सभी आदमी (आदम के वंशज) भोग रहे हैं।उस पाप से मुक्ति दिलाने का कार्य मसिहा करेगा।ईसाई यीशू को मसीह मानते हैं।यहुदी नही मानते। किसी मसीह की प्रतिक्षारत हैं।मुस्लिम भी  ईसा मसीह को पुनः भेजे जाने और मेंहदी नामक नबी की प्रतिक्षा में हैं। अतः उनके मत में भी किसी मसीहा का इन्तजार ही है।कोई हल नही है।
उक्त आदमी पन्थ में मुझे किञ्चित मात्र भी श्रद्धा नही है। अतः मैं किसी मसीहा की प्रतिक्षा न स्वयम् करता हूँ, न इसका उपदेश देसकता हूँ।
मेरी मान्यता तो यही है कि, पुर्व जन्मों के सञ्चित कर्मों में से इस जन्म में भोगे जा सकने वाले कर्मों का समुह यानि प्रारब्ध भोगने के लिये श्री राम, श्री कृष्ण, गोतमबुद्ध, शङ्कराचार्य, रामकृष्ण परम हन्स, रमण महर्षि, और विवेकानन्द जैसी हस्तियाँ भी बाध्य थी तो हमें तो भोगना ही है।
हाँ, वर्तमान शुभकर्मों से उनका प्रभाव कम किया जा सकता है। और अशुभ कर्मों से बढ़ाया जा सकता है।
ऋत का ज्ञान होने से केवल आत्मज्ञ / ब्रह्मज्ञानी ही प्रारब्ध भोगते हुए भी श्रीकृष्ण की तरह अप्रभावित रह सकता है।
इति शुभम्।

गुरुवार, 29 अगस्त 2019

अशुद्ध पञ्चाङ्गो और दक्षिण भारतीय आचार्यों के अनुयायी परम भागवतों के विभिन्न मत/ सम्प्रदायों के कारण वृत पर्वोत्सवों में मत भिन्नता से विकृत स्थितियाँ निर्मित। कुछ विचित्र किन्तु सही उदाहरण सहित।

विचित्र किन्तु सत्य

नोट --
सनातन धर्म में वार एवम् दिन परिवर्तन सुर्योदय से होता है। वार एवम दिन सुर्योदय से सुर्योदय तक रहते हैं

न कि, मध्यरात्रि से। रात्रि 12:00 बजे से केवल अंग्रेजी तारीख  Date  एवम् Day   ही बदलते है।वार एवम दिन नही बदलते।

वार एवम दिन सुर्योदय से सुर्योदय तक चलते हैं।
मेकाले शिक्षा से उत्पन्न मान्सिकता ने भारतीयों में भी रात्रि 12:00 बजे बाद दिन बदल गया इसलिए उपास छोड़ दो/ उपवास तोड़ लो वाक्य सुनने में आते हैं।जो धर्मशास्त्र के विपरीत है।
यह विचित्र किन्तु सत्य है , कि, आम भारतीय की मानसिकता अधर्मी हो गयी।

हमारे देश में सनातन धर्म में पञ्चदेवोपासना तो समझ में आती है किन्तु इन देवों के उपासकों के भी विभिन्न पन्थ - सम्प्रदायों (Schools) की प्रथक-प्रथक वृत पर्वोत्सव विधियों के कारण धार्मिक कार्यों में अनेक मतभेद होगये।
दक्षिण भारत में  सुर्य की निरयन राशि और चन्द्रमा के नक्षत्र से निर्णय होता है, तिथियाँ नही चलती है।
दक्षिण भारतीय आचार्यों के अनुयायियों ने दक्षिण भारतीय सुर्य की निरयन राशि और चन्द्रमा के नक्षत्र को तिथियों में बदलने के चक्कर में बहुत गड़बड़ करदी।

और शेष भास्कराचार्य के बाद मुगलकाल में  हुवे गणेश देवज्ञ ने आंशिक रुप से वैध लिये। और बाद में वेध लेने की परम्परा का ही लोप होगया। परिणामस्वरूप वेधसिद्ध शुद्ध पञ्चाङाग बनना बन्द होगई।और किसी ने आकाश में स्थित ग्रह नक्षत्रों से मैल नही रखने वाली  गलत पञ्चाङ्गो को सही सिद्ध करने के लिये बाण वृद्धि रसक्षय का सुत्र रच  लिया जिसका मतलब होता है कोई भी तिथि पाँच घटि यानि दो घण्टे से अधिक वृद्धि नही होती और छः घटि यानि दो घण्टे चौविस मिनट से कम नही होती।
अर्थात तिथिमान  21 घण्टे 36 मिनट से कम नही होता और 26 घण्टे से अधिक बड़ी नही होती।
बाबा ने इसे धर्मशास्त्रीय सिद्धान्त कहकर लोगों कै दिग्भ्रमित किया।और पढ़ने लिखने से परहेज करने वाले आलसी लोगों के द्वारा बाबा वाक्यम् प्रमाणम् मानने से नयी परम्परा आरम्भ हो गयी।
स्व.श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट की अध्यक्षता में शुद्ध पंचांग प्रवर्तक कमेटी इन्दौर में होल्कर शासन ने बिठाई जिसकी रिपोर्ट 06 अप्रेल 1931 ई. को प्रकाशित की गयी।उक्तरिपोर्ट के प्रष्ठ 49 पर निर्णय दिया गया है कि, धर्मशास्त्र कहलाने वाले वेदों, - उपवेदों, वेदाङ्गो, सुत्रों / कल्प सुत्रों, स्मृतियों और षडदर्शनों में बाणवृद्धि रसक्षय का सिद्धान्त कहीँ उल्लेखित नही है। इस दावे को गलत पाया।
इसी रिपोर्ट में दृग्तुल्य पञ्चाङ्ग (जैसा आकाश में दिखे वही पञ्चाङ्गो में अंकित हो ।) और चित्रापक्षीय अयनांश को ही स्वीकार्य की गयी। (चित्रा तारे से 180° पर निरयन मेषादि बिन्दु और अश्विनी नक्षत्रारम्भ बिन्दु को स्वीकारा गया। )
श्री निर्मलचन्द्र लाहिरी की अध्यक्षता में भारत शासन द्वारा नियुक्त केलेण्डर रिफार्म कमेटी ने भी उक्त प्रश्न पर विचार किया किन्तु कोई धर्मशास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नही हुआ न कोई दावा प्रस्तुत कर पाया।मार्च 1956 में प्रकाशित रिपोर्ट में दृग्तुल्य पञ्चाङ्ग (जैसा आकाश में दिखे वही पञ्चाङ्गो में अंकित हो ।)
और चित्रापक्षीय अयनांश (चित्रा तारे से 180° पर निरयन मेषादि बिन्दु और अश्विनी नक्षत्रारम्भ बिन्दु को स्वीकारा गया।) को ही स्वीकार्य की गयी।
फिरभी हटी लोभियों ने गलत पञ्चाङ्गो के पक्ष में कुछ महामण्डलेश्वरों से मान्यता लिखवाकर अशुद्ध/ गलत पञ्चाङ्ग प्रकाशन जारी रखा।
जिनका  डॉटा ही गलत होता है तो पञ्चाङ्ग तो गलत होगी ही क्योंकि, भास्कराचार्य के सुत्र होँ चाहे न्युटन के, परिणाम तो गलत आयेगा ही।

अतः सहुलियत के लिये गणेश देवज्ञ के  ग्रहलाघव करणग्रन्थ और बाद में बने मकरन्द नामक करणग्रन्थ की सारणियाँ ही पञ्चाङ्ग बनाने के साधन हो गये।
साधारण गणित जानने वाला भी इनके आधार पर जोड़ बाकी गुणाभाग करके पञ्चाङ्ग बनाने लगा। और विभिन्न स्थुल पञ्चाङ्ग प्रकाशित होने लगे।
न वेध लिया न गणित सही तो पञ्चाङ्गो का बण्टाढार कर दिया।

स्थिति यह होगयी कि, 24 अगस्त 2019 शनिवार कोसुबह गोगा नवमी मनी और रात में दक्षिण भारतीय आचार्यों के अनुयायी महाभागवतों ने जन्माष्टमी मनाई। जबकि पर्व कालीन  मध्यरात्रि में अष्टमी शुक्रवार 23 अगस्त 2019 को थी शनिवार 24 अगस्त 2019 को अष्टमी तिथि प्रातः 08:32 बजे ही समाप्त हो गयी थी। अतः जन्माष्टमी 23 अगस्त 2019 शुक्रवार को थी। पर दक्षिण भारतीय आचार्यों के अनुयायी महाभागवतों ने दुसरे दिन शनिवार 24 अगस्त 2019 को  जन्माष्टमी  मनाई।
मतलब पहले नवमी  (09)  फिर अष्टमी (08)। है ना विचित्र।
ऐसाही दिनांक 26 अगस्त 2019 सोमवार को एकादशी वृत था। एकादशी तिथि क्षय थी । दिनांक 26 अगस्त 2019 सोमवार  प्रातः 07:03 बजे लगी और दिनांक 26 /27 अगस्त 2019 सोमवार (Tuesday) को हीउत्तर रात्रि 05:10 बजे समाप्त होगयी।  एकादशी मंगलवार के सुर्योदय समय के लगभग एक घण्टा पहले ही समाप्त होगयी।किन्तु दक्षिण भारतीय आचार्यों के अनुयायी महाभागवतों ने दुसरे दिन  मंगलवार 27 अगस्त 2019 को  द्वादशी तिथि में एकादशी वृत किया । है ना विचित्र।
गलत पञ्चाङ्गो के कारण 02 सितम्बर 2019 सोमवार को सुबह चतुर्थी में  गणेश स्थापना होगी और रात में हरतालिका तृतीया  का पुजन जागरण होगा। जबकि हरतालिका तृतिया रविवार 01 सितम्बर 2019 को है तृतीया तिथि क्षय है, 01/02 सितम्बर 2019 रविवार ( Monday) को रात्रि 04:58 बजे ही समाप्त हो जायेगी।
मतलब पहले चतुर्थी (04) फिर तृतीया (03)
है ना विचित्र किन्तु सत्य।

रविवार, 19 मई 2019

*तुलसी विवाह कब करें*

नवमी तिथि अधिक होने कार्तिक शुक्ल नवमी सोमवार Tuesday दिनांक 04/05 नवम्बर 2019 को उत्तर रात्रि 04:57 पूर्वाह्न से लगेगी और बुधवार 06 नवम्बर 2019 को प्रातः 07:22 पूर्वाह्न तक रहेगी।
अतः *आँवला नवमी मंगलवार दिनांक 05 नवम्बर 2019 को मनेगी।*

कार्तिक शुक्ल एकादशी  गुरुवार 07 नवम्बर 2019 को प्रभात काल 09:55 पूर्वाह्न से शुक्रवार 08 नवम्बर 2019 को 12:25  दोपहर तक है।

अतः *वेदिक स्मार्त , वैष्णव, भागवत सभी मतावलम्बी. देव प्रबोधनी एकादशी 08 नवम्बर 2019 शुक्रवार को मनायेंगें।*

*श्रोत्रिय (वेदिक) और स्मार्त जन शुक्रवार 08 नवम्बर 2019 को एकादशी वृत तथा तुलसी विवाह करेंगे।*
जबकि *भागवत जन एकादशी वृत तो शुक्रवार 08 नवम्बर 2019 को ही करेंगे किन्तु तुलसीविवाह पारण दिवस शनिवार 09 नवम्बर 2019 को को रात्रि प्रथम प्रहर में करेगें।*

द्वादशी तिथि शुक्रवार 08 नवम्बर 2019 को 12:25 बजे से शनिवार 09 नवम्बर 2019 को  14:40 बजे अर्थात दोपहर 02:40 बजे अपराह्न तक है।

अतः *वेदिक श्रोत्रिय स्मार्त जन तथा वैष्णव/ भागवत सभी एकादशी वृत पारण शनिवार 09 नवम्बर 2019 को करेंगे।*

शनिवार 09 नवम्बर 2019 को   विवाह नक्षत्र उत्तराभाद्रपद नक्षत्र 14:56 अर्थात दोपहर 02:56 तक रहेगा तदुपरान्त विवाह नक्षत्र रेवती लगेगा जो रविवार 10 नवम्बर 2019 को 17:18 बजे तक अर्थात सायं 05:18 बजे तक रहेगा।
अतः *तन्त्र मतावलम्बी रेवती नक्षत्र योग में  शनिवार 09 नवम्बर 2019 को रात्रि प्रथम प्रहर में तुलसीविवाह करेंगे।*

भागवत तन्त्र मतानुसार देव प्रबोधन पारण दिवस की रात्रि के प्रथम प्रहर मे को करना चाहिए।
साथ ही पारण दिवस की रात्रि के प्रथम प्रहर मे ही तुलसी विवाह भी करना चाहिए।

अतः *भागवत तन्त्रमतानुसार तुलसीविवाह शनिवार 09 नवम्बर 2019 रेवती नक्षत्र में रात्रि प्रथम प्रहर में करेंगे।*

श्रोत्रिय स्मार्त वैष्णव जन आँवला नवमी से द्वादशी पर्यन्त भगवान श्री विष्णु को तुलसीदल अर्पित करते हैं। और कार्तिक शुक्ल एकादशी तिथि में तुलसीविवाह करते है।

कार्तिक शुक्ल पुर्णिमा सोमवार  11  नवम्बर 2019  को 18:02 अर्थात सायं 06:02 बजे अपराह्न  से मंगलवार 12 नवम्बर 2019 को 19:04 अर्थात सायं 07:04
बजे अपराह्न तक रहेगी। अतः
*कार्तिक पुर्णिमा मंगलवार 12 नवम्बर 2019 को मनेगी।*

एक परम्परानुसार यह भी है कि आँवला नवमी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक या कार्तिक शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल पुर्णिमा के बीच जिस दिन (या रात्रि प्रथम प्रहर में) विवाह नक्षत्र (उत्तराषाढ़ा), उत्तराभाद्रपद, रेवती, (या रोहिणी) नक्षत्र हो उस दिन (या रात्रि प्रथम प्रहर) में तुलसी विवाह करें।
*तदनुसार शनिवार 09 नवम्बर 2019 को दिन में या रात्रि प्रथम प्रहर में या रविवार 10 नवम्बर 2019 को 17:18 बजे के पुर्व अर्थात सायं 05:18 के पहले तुलसीविवाह करें।*

निष्कर्ष - *तुलसी विवाह-  सर्व प्रचलित परम्परा से शुक्रवार 08 नवम्बर 2019 को तुलसी विवाह होगा।*
किन्तु *भागवतचार्यों से दिक्षित शंख चक्राङ्कित भागवत जन शनिवार 09 नवम्बर 2019 को तुलसीविवाह करेंगे।*

शनिवार, 27 अप्रैल 2019

सनातन धर्मियों की दुर्दशा का मूल कारण सनातन धर्मियों द्वारा वैदिक सनातन धर्म का त्याग है।

पहले संक्षिप्त इतिहास की झलकियाँ देखिये। यह इतिहास सनातन धर्मियों द्वारा अपना मूल वैदिकधर्म त्यागनें के तत्काल बाद का है।⤵️

महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब- हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों वें चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार वास्तविक विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय में अन्तर स्पष्ट करनें के बाद मूल विषय पर आते हैं।

हम सनातनियों ने स्वयम् अपना धर्म, कर्म, नित्य- नैमित्तिक क्रियाएँ/ कर्मकाण्ड,संस्कृति,  भाषा, भुषा  सब त्याग दिया है।और स्वयम् को हिन्दू मानने लगे है।
हिन्दू का पारसी भाषा में अर्थ  काला- कलुटा, दास, दस्यु, लुटेरा,चोर, सेंधमार,और बलात्कारी के अर्थ में दी जाने वाली गाली है।और हम सचमुच ही उत्तरोत्तर उसी अर्थ में हिन्दू बनने लगे। बल्कि कह सकते है बन ही गये।

आज प्रायः धर्मोपदेशक तो बचे ही नही।बस कथावाचक ही सन्त और आचार्य कहाने लगे हैं। कोई भी धर्मोपदेशक या कथावाचक अपने वाचिक और आचरण से समाज को नित्य प्रातः - संध्या;  पञ्च महायज्ञ करना, अष्टाङ्ग योगाभ्यास करना, माता-पिता, बुजुर्गो, अतिथियों को प्रणाम करना, सत्य भाषण, सदाचरण, अविरत ॐ का मांसिक जप पुर्वक हरिस्मरण और निरन्तर जगत सेवा करना नही सिखाता।
अष्टाङ्ग योग साधना, नित्य सुबह शाम सन्ध्योपासना,गायत्रीमंत्र जप, ॐ का ध्यान पुर्वक जप कर ॐकार उपासना,वेदाध्ययन, पञ्चमहायज्ञ , बलिवैश्वदेव कर्म तो वे स्वयम ही नही करते तो सिखाये कैसे! नगर / ग्राम, मोहल्ला, कालोनी के स्तर पर ही सामुहिक रुप से सभी उत्सव (त्यौहार) मनाने और वर्णाश्रम धर्म पालन का उपदेश नही देते है। 

बल्कि, वे  अपने सम्प्रदाय का परम्पराएँ निर्वहन की ,नित्य प्रातः सायंकाल मन्दिर जाने का, रामचरितमानस पाठ का, भागवत पुराण कथा श्रवण का या शिव पुराण या दुर्गा सप्तशती पाठ  का उपदेश देते हैं।तथा राम  राम या जय सीताराम और राधे राधे या राधेकृष्ण, या जय शिव शम्भो  या जय माताजी या जय गजानन बोल कर अभिवादन करना सिखाते हैं। उनकी दृष्टि से यही धर्म है।
मतलब उनकी दृष्टि से वैदिक ऋषि और उनका ज्ञानोपदेश अप्रासंगिक है या अप्रासंगिक हो गया है।

वे अपने सम्प्रदाय/ मठ/पन्थ के मन्दिरों में और मठाधीशों/  महन्तों को दान देना, और सम्प्रदाय/ पन्थ के पन्थियों में ही आपसी एकता का  उपदेश देते है।उनका समुदाय बस उनका पन्थ है; सनातनधर्म नही।
यही कार्य वे सोशल मिडिया के माध्यम से करने लगे हैं। और अब तो किसी राजनीतिक दल का या नेता का प्रचार करना ही उनका अपना कर्त्तत्व मानने लगे हैं।
यही हाल परिवारों के मुखियाओं का भी  है।वे परिवार में  बच्चों को नित्य प्रातः - संध्या; माता-पिता, बुजुर्गो, अतिथियों को प्रणाम करनानही सिखाते।
सत्य भाषण, सदाचरण, अविरत ॐ का मांसिक जप पुर्वक हरिस्मरण और निरन्तर जगत सेवा, अष्टाङ्ग योग साधना, नित्य सुबह शाम सन्ध्योपासना, गायत्रीमंत्र जप, ॐ का ध्यान पुर्वक जप कर ॐकार उपासना,वेदाध्ययन, पञ्चमहायज्ञ , बलिवैश्वदेव कर्म स्वयम् नही करते तो सिखाने का सोच ही नही सकते।
नगर / ग्राम, मोहल्ला, कालोनी के स्तर पर ही सामुहिक रुप से सभी उत्सव (त्यौहार) मनाने और वर्णाश्रम धर्म पालन का संस्कार स्वयम् भूल चुके हैं तो बच्चों को कहाँ से सिखाये?

वे पारिवार में एकता की ही सीख भी नही दे सकते। क्यों कि, वे स्वयम् कभी भाई बहनों में एकता नही रख पाये, एकल परिवार बना कर ही रहे। माता- पिता के आज्ञाकारी रहना,उनकी सेवा सुश्रुषा करना उनने सीखा ही नही तो शिक्षा कैसे दें? और शिक्षा दें भी तो उसका असर कैसे हो?

आजकल लोग जाति प्रथा वाली जाति कै अपना समाज कहते हैं। उस स्वजाति में बल्कि उपजाति में ही एकता अवश्य चाहते हैं पर अपनी शर्तों पर।
विवाह में, सुरज पुजा, जन्मदिन में और मृत्युभोज  में जातिगत परम्परा निर्वहन करना,जाति/ समाजवालों को आमन्त्रित करना, दिखावे में अपव्यय करने में शान समझते है।
मन्दिर जाने,मान- मन्नत लेकर सकामोपासना करना,और मान पुरी नही करने पर देवता रुष्ठ होजायेंगे ऐसा सावधान करते हैं क्योंकि, उनके मतानुसार कर्मफल सिद्धान्त औचित्य हीन होगया है। वे मठाधीशों/  महन्तों को ही दान देने का संस्कार देते हैं।
अब तो ज्यादातर परिवार इंग्लिश बोलना, इंग्लिश कल्चर, केरियर ओरिएंटेड डिग्री लेकर व्हाइट कॉलर , रुतबे वाला, आराम वाला जॉब करने तथा खुब धनार्जन कर ऐशपुर्वक जीवन - यापन करना ही सिखाने लगे हैं। परिवार ही  मिथ्याभाषण, रिश्वतखोरी , ओछापन, चापलूसी के संस्कार भी देने लगे हैं।

राजनैतिक नेताओं और राजनीतिक दलों से तो धर्माचरण की आशा ही नही की जा सकती। वे  देश- धर्म के प्रति अपना  कोई कर्त्तव्य नही मानते।
नेता लोग सत्ता प्राप्ति के लिये और सम्प्रदायों/ पन्थों , जाति/समाजों से समर्थन प्राप्त करने के लिये राजनेता भण्डारे करवाने, मन्दिर बनवाने जैसे हथकण्डों को वे धार्मिकता कहते हैं।
सनातन धर्म और राष्ट्रधर्म का तो कोई नाम लेवा ही नही बचा। धर्म तो आचरण से पुष्ट होता है। धर्यम को खतरा तब होता है जब हम धर्माचरण त्याग अधर्म को धर्म का चोला ओढ़ाकर स्वयम् को धार्मिक बतलाने लगते हैं।
आज धर्म वास्तव में खतरे में है।और हल हमारे ही आचरण सुधार में है।
वेदों की ओर चलने में है। इसे वेदों की ओर लोटना नही वेद की ओर चलना ही कहेंगे। वेद मन्त्रों को ब्रह्म कहते हैं, ब्रह्म की ओर चलने को  ब्रह्मश्चर्य कहते हैं।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

सायन सौर राशिनक्षत्रों के नवीन नामकरण होना चाहिए।वृतोत्सव को सायन सौर गणना से जोड़ना आवश्यक है।

भूमि जिस पथ पर सुर्य की परीक्रमा करती है उसे क्रान्तिवृत्त कहते हैं।सुर्य को केन्द्र मानकर भूमध्य रेखा के समान आकाश मध्यरेखा कल्पित की गई है।सुर्य के आसपास इस रेखा से बननेवाले वृत्त को विषुव वृत्त  कहते है। विषुव वृत्त को क्रान्ति वृत्त दो स्थानों पर 23°26'07"79"' का कोण बनाते हुए काटता है।
किन्तु भूमि की परिक्रमा विषुव वृत्त के ठीक उसी बिन्दु पर समाप्त नही होती जहाँ से आरम्भ हुई थी बल्कि उस बिन्दु से 00°50'12' से 00°50'18" पहले अर्थात पश्चिम में या  पीछे जाकर पुर्ण करती है। 00°50'12' से 00°50'18" के बीच की औसत गति अयनांश गति कहलाती है।इस गति से पिछड़ते हुए 22 मार्च 285 से  1734 वर्ष बाद  20/21 मार्च 2019 को 24°07'16" खिसक चुका है।यही अयनांश कहलाता है। 2435 ई. में पुरा 30° यानी एक राशि के बराबर खिसक जायेगा।अर्थात अयनांश 30° हो जायेगा।
क्रान्तिवृत्त के इन दोनो क्रास बिन्दुओं के लगभग नौ- नौ अंश (09° - 09°) उत्तर दक्षिण  में नक्षत्र पट्टिका का विस्तार है। इसी नक्षत्र पट्टिका में उत्तर दक्षिण क्रान्ति करते हुए चन्द्रमा, भूमि और ग्रह सुर्य की परिक्रमा करते हैं।सुर्यकेन्द्रिय स्पष्ट ग्रह साधन से किसी विशेष समय पर ग्रहों की स्थिति/ पोजीशन ज्ञात की जा सकती है।और इसे सापैक्ष में भूमि से देखने पर भूमि की परिक्रमा करते हुए आभास होता है। जिसकी गणना भूकेन्द्रीय स्पष्ट ग्रह साधन कहलाता है।
जब गणना इस नक्षत्र पट्टिका के सापैक्ष में की जाती है तब नाक्षत्रीय पद्यति या निरयन पद्यति से गणना या सेडरल सिस्टम से गणना करना कहते हैं।
जब विषुव वृत्त के सापैक्ष में गणना की जाती है तब इसे सायन पद्यति से गणना या ट्रॉपिकल सिस्टम से गणना कहते हैं।
तैत्तरीय संहिता के अनुसार श्रष्टि के आरम्भ में चित्रा तारा आकाश के मध्य में था। अतः तत्कालीन समय में चित्रा तारे से 180 ° पर स्थिति रेवती नक्षत्र का योग तारे को नाक्षत्रीय पद्यति का आरम्भ बिन्दु माना गया। इसे निरयन मेषादि बिन्दु कहते हैं किन्तु वर्तमान में वहाँ कोई तारा स्थित नही है। यहीँ से प्रथम नक्षत्र अश्विनी नक्षत्र और प्रथम राशि  निरयन मेष राशि का आरम्भ होता है। नक्षत्र पट्टिका वृत्त में 13°20' के 27 नक्षत्रों की आकृतियाँ कल्पित की गयी है।और 30°-30° की बारह राशियों की आकृतियाँ कल्पित की गयी है। इन्हे ही नक्षत्र और राशियाँ कहते हैं।
ताराओं की गति अति मन्द होती है।  22 मार्च 285 ई. से 20 /21 मार्च 2019 तक 1734 वर्ष में चित्रा तारा 00°01'01" खिसका है।मघा तारा की गति भी मन्द है किन्तु रेवती तारा समुह के तारों की गति तुलनात्मक काफी तेज है।झीटा पिशियम तारा 04° से भी अधिक खिसक चुका है।
भारतशासन केनेश्नल अल्मनाक युनिट जिसे आजकल पोजिश्नल एस्ट्रोनॉमी सेण्टर कहते हैं इस संस्थान के संस्थापक ऑफिसर इन चार्ज और भारत शासन की पञ्चाङ्ग रिफार्म कमेटी के संस्थापक सचिव और अन्तराष्ट्रीय एस्ट्रोनॉमीकल युनिट पेरिस के भू.पु. सदस्य और प.बंगाल शासन के स्टेट अल्मनाक कमिटी के संस्थापक सदस्य स्व. निर्मलचन्द्र लाहिरी ने चित्रा के इस क्षरण ( खिसकने/ गति) की गणना कर इस आधार पर लाहिरी अयनांश बनाया।तदनुसार 22मार्च 285 ई. को चित्रा तारा का निरयन भोग 180°00'03" था।
किन्तु  1956 ई. से भारत शासन द्वारा पञ्चाङ्ग रिफार्म कमिटी के निर्णयानुसार 21 मार्च 1956 ई. को   चित्रापक्षीय अयनांश 23°15'00" मानकर प्रकाशित राष्ट्रीय अल्मनाक और पञ्चाङ्ग रिफार्म कमिटी की पारित रिपोर्ट के आधार पर प्रकाशित पञ्चाङ्ग का अयनांश  भी  लाहिरी अयनांश से 5.8" यानि 05"48"' कम है। हालाँकि1985 ई. में भारत शासन ने भी इण्डियन एस्ट्रोनॉमीकल इफेमेरिज में 0.658" का सुधार किया है।
फिर भी कहा जा सकता है कि सबसे शुद्ध पञ्चाङ्ग लाहिरी की इण्डियन इफेमेरिज ही है। दुसरे नम्बर पर चित्रापक्षिय केतकी पञ्चाङ्ग यथा उज्जैन के अक्षांश देशान्तर पर तैयार सिद्धविजय पञ्चाङ्ग, काशी के अक्षांश देशान्तर पर आधारित वाराणसी से प्रकाशित चिन्ताहरण पञ्चाङ्ग और चिन्तामणि पञ्चाङ्ग और महाराष्ट्र का कालनिर्णय पञ्चाङ्ग केलेण्डर आदि  और  भारतीय राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग शुद्ध है। तीसरे नम्बर पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रकाशित सुर्यसिद्धान्त आधारित विश्वविजय पञ्चाङ्ग है।
नाक्षत्रीय पद्यति में ग्रहचार चुँकि फिक्स झाडिक / नक्षत्र पट्टिका में होता है और नक्षत्र पट्टिका में ताराओं के समुह से निर्मित रेखिक आकृतियाँ कल्पित कर उनका नामकरण नक्षत्रों और राशियों के रुप में कर लिया गया है। ताराओं की अत्यल्प गति के कारण लाखों करोड़ो वर्षों में इन कल्पित आकृतियों में बहुत फेर बदल नही हुआ और नही होगा अतः नक्षत्रीय/ निरयन राशि नक्षत्रों के नाम सार्थक हैं।
किन्तु सायन पद्यति में सायन मेषादि बिन्दु प्रति वर्ष लगभग 50°12' से 50°18' की विलोम गति से विषुववृत्त में पीछे खिसकता रहता है अस्तु सायन गणना का आरम्भ आकाश के किसी निश्चित तारा समुह से  नही होता।और 22 मार्च 285 ई.के राशियों के तारा समुह और उनसे बनी आकृतियों की तुलना में  वर्तमान  के  राशियों के तारा समुह और उनसे बनी आकृतियों में बहुत अन्तर हो गया है।क्योंकि, सायन मेषादि बिन्दु 24° 07'16" पीछे पश्चिम में खिसक चुका है। अब स्थिति यह है कि, सायन में  जिसे मेष राशि कहते हैं उसमें तारा सममुह की आकृती मीन राशि की है।सायन सिंह की आकृति कर्क के समान होगयी है।और 2435 ई. में पुरा 30° यानी एक राशि के बराबर खिसक जायेगा। तब सायन मेष राशि और निरयन वृष राशि के तारा समुह में होगी। तब सायन राशि के नाम पुर्णतः  बेमतलब हो जायेंगे।
अतः सायन राशियों के नामों को  निरयन राशियों के ही नाम रख लेने का निर्णय गलत था।
वह केवल  22 मार्च 285 ई. को ही सही था जिस दिन सायन निरयन सौर मेष संक्रान्ति साथ साथ हुई थी। उस समय अयनांश शुन्य था।
अतः सायन राशियों के नामकरण नये सिरे से करना आवश्यक है।
संस्कृत हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगला, तमिल , मलयालम जैसी भारतीय भाषाओं में चाहे तो यजुर्वेदीय मासों के नाम पर मेष का मधु, वृष का माधव आदि नामकरण कर सकते हैं या ऋग्वैदिक मास नाम पवित्र आदि से नामकरण कर सकते हैं।सभी भाषाओं में आज भी राशियों के नाम अलग अलग ही है अतः युनिवर्सल का चक्कर छोड़ कर  भारतीय भाषाओं में तो उक्त नाम कर ही सकते हैं।
साथ ही सायन नक्षत्रों के भी नामकरण करना चाहिए। ताकि संहिता ज्योतिष में उल्लेखित मोसम विज्ञान का सायन पद्यति के नक्षत्रों सें सम्बन्ध जोड़कर सही भविष्य कथन हो सके।
उल्लेखनीय है कि ,  अयन,तोयन, ऋतु / मोसम, दिनमान/ दिन छोटे- बड़े होना, सुर्योदयास्त आदि सायन पद्यति से ही चलती है।जबकि चलते चलते भी रात्रि में चन्द्रमा या किसी भी ग्रह को किसी तारासमुह / नक्षत्र / राशि में देखकर बतला सकते हैं कि, चन्द्रमा या अमुक ग्रह किस निरयन राशि नक्षत्र में चल रहा है।दोनो पद्यतियों का अलग-अलग उपयोग और महत्व है।
सायन नक्षत्रों में सुर्य की स्थिति की ये अवधि या दिनांक  लाखों करोड़ों वर्ष पहले से यथावत रहते हुए आगे भी लाखों करोड़ों वर्ष तक यथावत जारी रहेगी। जबकी नाक्षत्रीय पद्यति के राशि नक्षत्रों में सुर्य का भ्रमण में लगभग हर 71 वर्ष में एक दिन / तारीख पीछे होती जायेगी। जैसे विवेकानन्द जी के जन्म समय निरयन मकर संक्रान्ति 12 जनवरी को पड़ती थी जो आजकल 14/15 जनवरी को आती है।जलियांवाला बाग हत्याकांड  के समय वैशाखी 13 अप्रेल को पड़ती थी जबकि अब 14 अप्रेल को आती है।
तदनुसार निरयन सौर संस्कृत शक संवत के चैत्र वैशाखादि मास और उनपर आधारित वृतोत्सव भी मोसम से असम्बद्ध हो जायेंगे।  22 मार्च  285 ई. से 20/21 मार्च 2019 तक लगभग 1734 वर्षों में अभी तो 24 दिन का अन्तर पड़ा है। लगभग तेरह हजार वर्षों में छः माह का अन्तर हो जायेगा। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वसन्तारम्भ में और गुड़ी पँड़वा और रामनवमी वर्षान्त में आने लगेगी। आषाढ़ में पड़ने वाला कोकिला वृत ठण्ड में आयेगा। होली बरसात में जलाना पड़ेगी।
अन्ततः वेदों की ओर लोटना ही पड़ेगा। और सायन सौर संवत और मधु- माधव  मास को फिरसे अपनाना पड़ेगा। तब सातवाहनों और कुषाणों द्वारा चीन के
उन्नीस वर्षिय चक्र वाले  निरयन  सौर  संस्कृत केलेण्डर पर आधारित  शक  संवत वाले केलेण्डर पर गर्व करने वालों की स्थिति क्या होगी  विचार करें।
यदि राशियों के समान  नक्षत्रों के नाक्षत्रीय नाम ही सायन पद्यति में अपना कर सायन नक्षत्रों का वर्षा से सम्बन्ध का उदाहरण प्रस्तुत है।

21 मार्च से 03 अप्रेल तक सायन अश्विनी।
03 अप्रेल से 16 अप्रेल तक सायन भरणी
17 अप्रेल से 30 अप्रेल तक सायन कृतिका
01 मई से 14 मई तक सायन रोहिणी
15 मई से 28 मई तक सायन मृगशिर्ष
28 मई से 11 जून तक सायन आर्द्रा
12 जून से 25 जून तक सायन पुनर्वसु
26 जून से 09 जुलाई तक सायन पुष्य
09 जुलाई से 23 जुलाई तक सायन आश्लेषा
23 जुलाई से 05 अगस्त तक सायन मघा
06 अगस्त से 19 अगस्त तक सायन पुर्वा फाल्गुनी
20 अगस्त से 02 सितम्बर तक सायन उत्तराफाल्गुनी
02 सितम्बर से16 सितम्बर तक सायन हस्त
16 सितम्बर से 30 सितम्बर तक सायन चित्रा
01 अक्टोबर से 13 अक्टोबर तक सायन स्वाती।
कृपया मिलान करें और देखें सायन नक्षत्रों की अवधि में मोसम कितना सटीक बैठता है।
01 मई से 14 मई के बीच रोहिणी की गर्मी भी सही बैठती है।     
मालवा में लगभग 06 जून से 15 अक्टोबर तक वर्षा होती है।  28 मई से 12 जूनके बीच आर्द्रा में प्रि मानसुन वर्षारम्भ।  13 से 15 जून के बीच सायन आर्द्रा और पुनर्वसु संधि में मानसून आगमन ।
01 अक्टोबर से 13 अक्टोबर तक मोतियों की वर्षा वाला स्वाती की   नक्षत्र भी सटीक बैठता है।

उत्सवों में भी देखें -
26 जून से 09 जुलाई पुष्य नक्षत्र जिसका स्वामी देवगुरु बृहस्पति है उसमें गुरु पुजा होना कितना सटीक है।
09 जुलाई से 23 जुलाई तक आश्लेषा जिसका स्वामी सर्प है में नाग पुजा कितना सही बैठ रहा है।

शक संवत के चैत्र वैशाखादि माहों की तिथियों में अवधि नही बतलाई जा सकती। क्यों कि सौर गणना और चान्द्र गणना का तालमेल 19 वर्षों में जाकर बैठता है।निरयन राशि/नक्षत्रों के दिनांक भी लगभग 71 वर्षों में एक दिन बाद आरम्भ होंगे।अतः दिनांक भी पुर्ण रुपेण निश्चित नही कहे जा सकते किन्तु लगभग एक शताब्दी तक तो काम आ ही जायेंगे।
पुनः तुलना करें -
निरयन/ नाक्षत्रीय पद्यति से नक्षत्रों की अवधि-
नक्षत्र का नाम दिनांक से दिनांक तक

अश्विनी 14 अप्रेल से 28 अप्रेल तक।
भरणी 28 अप्रेल से 11 मई तक।
कृतिका 12 मई से 25 मई तक।
रोहिणी 25 मई से 08 जून तक।
मृगशिर्ष 08 जून से 22 जून तक।
आर्द्रा 22 जून से 06 जुलाई तक।
पुनर्वसु 06 जुलाई से 20 जुलाई तक।
पुष्य 20 जुलाई से 03 अगस्त तक।
आश्लेषा 03 अगस्त से17 अगस्त तक।
मघा 17 अगस्त से 31अगस्त तक।
पुर्वाफाल्गुनि 31अगस्त से 13 सितम्बर तक।
उत्तराफाल्गुनि  14  सितम्बर से 27 सितम्बर तक।
हस्त  27 सितम्बर से 11 अक्टोबर तक।
चित्रा 11 अक्टोबर से 24  अक्टोबर तक।
स्वाती 24  अक्टोबर से 06 नवम्बर तक।
निरयन नक्षत्रों से ऋतुओं/ मोसम को सम्बद्ध नही किया जा सकता।और वृतोत्सव सभी ऋतुओं /मोसम से जुड़े हुए हैं।यथा बरसात में न होली मना सकते हैं न दीवाली के दिये लगा सकते है।
सावन के झुले ग्रीष्म ऋतु में आनन्द नही देंगे न शिशिर ऋतु/ ठण्ड में।
अतः सायन सौर गणना से वृतोत्सव जोड़ना ही होंगे।
पहले कुछ वर्षों तक वाराणसी के बापुशास्त्री सायन सौर संस्कृत चान्द्र पञ्चाङ्ग का प्रकाशन करते थे। पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टका एकाष्टका (साढ़े सप्तमी) वाले वृतोत्सव को ऋतुओं/ मोसम से जोड़ने का वह प्रयोग भी अच्छा था।पर प्रचार के अभाव में और शास्त्रज्ञान के अभाव में रुड़ियों में जकड़ी जनता को समझना भी बहुत कठिन है। अस्तु असफल हो गये।
समय बलवान है।जब समय आयेगा तो जनता को भी समझना ही पड़ेगा।
शेष हरिइच्छा।

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

वैदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त की अगली कड़ी विष्णु पुराण से प्रजापति की सन्तान प्रजापतियों, अग्नि, पितर,रुद्र एवम् स्वायम्भुव मनु का मानव वंश वर्णन

विष्णु पुराण ही क्यों?

क्यों कि, वेदिक प्रवृत्ति मार्गी वैष्णव जन इसे वेदव्यास जी के पिता महर्षि पाराशर की रचना मानते हुए प्रथम पुराण मानते हैं।

वेदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त से आगे का वर्णन वेदव्यास जी के पिता महर्षि पाराशर की रचना और प्रथम पुराण विष्णु पुराण से मानव सृष्टि/ मानव वंश का वर्णन --
( प्रजापति ब्रह्माजी की मानस सन्तान ) स्वायम्भुव मनु को उनकी पत्नी ( प्रजापति ब्रह्माजी की मानस सन्तान )शतरुपा से उत्तानपाद और प्रियव्रत दो पुत्र और प्रसूति और आकूति नामक दो कन्याएँ उत्पन्न हुई ।
उत्तानपाद की पत्नी सुनीति से ध्रुव, और सुरुचि से उत्तम का जन्म हुआ।
ध्रुव के दो पुत्र शिष्टि और भव्य हुए।
भव्य से   शम्भु हुए ।
शिष्टि की पत्नी सुच्छाया से रिपु, रिपुञ्जय,विप्र, वृकल और वृकतेजा हुए।
रिपु की पत्नी वृहती से चाक्षुष हुए।
वरुण कुल में वीरण प्रजापति की पुत्री पुष्करणी से चाक्षुष के घर छटे मन्वन्तर के मनु चाक्षुष मनु का जन्म हुआ।
चाक्षुष मनु को वैराज प्रजापति की पुत्री नड़वला से कुरु, पुरु, शतधुम्न, तपस्वी,सत्यवान, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र, सुधुम्न, और अभिमन्यु नामक पुत्र हुए।
कुरु की पत्नी आग्नैयी से अङ्ग, सुमना, ख्याति, अङ्गिरा, और शिबि नामक पुत्र हुए।
अङ्ग की पत्नी (मृत्यु की प्रथम पुत्री )सुनीथा से वैन का जन्म हुआ।
वेन की  उरु (यानि जांघ) के मन्थन से ( विन्ध्याचल के आदिवासी) निषाद राज जन्मे । और वैन की दाहिनी भुजा के मन्थन से वैन्य पृथु उत्पन्न हुए।
पृथु से अन्तर्धान और वादी जन्मे। अन्तर्धान की पत्नी शिखण्डनी से हविर्धान का जन्म हुआ।
हविर्धान की पत्नी (अग्नि कुल की ) घीषणी से प्राचीनबर्हि, शुक्र,गय,कृष्ण, बृज और अजिन नामक पुत्र जन्मे।
प्रजापति प्राचीनबर्हि की पत्नी (समुद्र पुत्री) सुवर्णा से दस प्रचेताओं का जन्म हुआ ।
प्रचेता गण के यहाँ (गोमती तट वासी कण्डु ऋषि और प्रम्लोचा अप्सरा की सन्तान वृक्षों द्वारा पालित पुत्री) मारिषा  से दक्ष द्वितीय  का जन्म हुआ।
( वरुण वंशजा,चाक्षुष मनु के श्वसुर वीरण प्रजापति की पुत्री ) असिन्की से दक्ष (द्वितीय) प्रजापति के घर साठ कन्याएँ जन्मी जिनमे  सती (शंकर जी पहली पत्नी ) हुई
उल्लेखनीय है कि,  ब्रह्मा जी के मानस पुत्र दक्ष प्रथम की पत्नी प्रसुति ( जो स्वायम्भुव मनु की पुत्री थी उस प्रसूति )  से  चौवीस कन्याएँ जन्मी थी।
इस प्रकार दोनो दक्ष में पिढियों का अन्तर है।
स्वायम्भुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत की पत्नी ( जो कर्दम पुत्री थी ) उससे सम्राट और कुक्षि (दो) पुत्रियाँ और (दस पुत्र) आग्नीध्र, अग्निबाहु, वपुष्मान, द्युतिमान, मेघा, मेघातिथि,भव्य,सवन,पुत्र , ज्योतिष्मान।मेघा, अग्निबाहु और पुत्र निवृत्तिपरायण हो गये।
आग्नीन्ध्र को जम्मुद्वीप, मेघातिथि को प्लक्षद्वीप, वपुष्मान को शाल्मलद्वीप, ज्योतिष्मान को कुशद्वीप, भव्य को शाकद्वीप, सवन को पुष्करद्वीप,।
आग्नीन्ध्र ने नाभि ( जिन्हे अजनाभ भी कहते है उन नाभि को कोहिमवर्ष या  (अजनाभ वर्ष )  यानि भारतवर्ष का राज्य दिया।
किम्पुरुष को हेमकुटवर्ष।
हरिवर्ष को नैषधवर्ष ।
इलावृत को लावृतवर्ष दिया (जिसके मध्य मे मेरुपर्वत है।)
रम्य को नीलाचल से लगाहुआ वर्ष।
हिरण्यवान को श्वेतवर्ष (रम्य के देश से उत्तर में)।
कुरु को श्रृंगवान पर्वत के उत्तर का देश ।
भद्राश्व को मेरु के पुर्व का देश।
केतुमाल को गन्धमादन पर्वत का देश का राज्य दिया।
सप्त द्वीपों का बटवारा सात पुत्रों में कर आग्नीन्ध्र शालग्राम में तप करने गये।उनके पुत्र नाभि हिमवर्ष (भारतवर्ष) के राजा हुए।

नाभि की पत्नी मेरुदेवी से ऋषभदेव का जन्म हुआ।ये वेदिक ऋषि भी हैं। (ऋग्वेद में) इनका सुक्त भी है जो अहिंसा सुक्त कहलाता है।
त्रषभदेव से भरत हुए  जोभरत/चक्रवर्ती सम्राट कहलाये और बाद में  जड़भरत के नाम से भी प्रसिद्ध हुए। हिम वर्ष का नाम भारतवर्ष इनके नाम पर ही पड़ा।

भरत को उत्तराधिकार सोप ऋषभदेव पुलहाश्रम में वानप्रस्थ तप करने चले गये।जहाँ सन्यास लेकर दिगम्बर ( निर्वस्त्र/ पुर्ण नग्न हो कर घुमने लगे।
इस कारण कालान्तर में जैन सम्प्रदाय ने ऋषभदेव को अपना आद्य तिर्थंकर घोषित कर दिया।

उत्तानपाद शाखा वाले वेदिक संहिताओं और  ईशावास्योपनिषद पर आधारित ब्राह्मण धर्म , यज्ञ, पञ्चमहायज्ञादि  , बुद्धियोग ( निष्काम कर्मयोग) और अष्टांग योग ,और ऋते ज्ञानान मुक्ति और सर्व खल्विदं ब्रह्म और  पर आधारित ब्राह्मण धर्म पालन करते धे।
ये तीन आश्रम ब्रह्मश्चर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ के सफलतापूर्वक निर्वहन के पश्चात संन्यस्थ जीवन जीते थे। पर यज्ञ और वस्त्र  का त्याग नही करते थे।
श्रोत्रिय धर्म पालक ब्रह्मर्षि कालान्तर में ये प्रवृत्ति मार्ग कहलाया और ये वैष्णव कहलाये।

जबकि प्रियव्रत शाखा ब्राह्मण ग्रन्थों  पर आधारित राजधर्म / क्षात्र धर्म ,अष्टांग योग, हटयोग, उग्र तप, और ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम अध्याय आरण्यकों और  उपनिषदों पर आधारित ज्ञान मिमान्सा पर आधारित धर्म आचरण कर आयु के अन्तिम पड़ाव पर सन्यास ग्रहण कर नगर के बाहर उन्मुक्त विचरण करते थे।कालान्तर में ये राजर्षी गण निवृत्ति मार्ग , योगी,यति, तपस्वी,सन्यासी और कहलाये और शैव कहलाये।

प्रजापति ब्रह्मा जी की मानस सन्तान
1 दक्ष ( प्रथम)  और उनकी पत्नी प्रसुति ।( जो स्वायम्भुव मनु की पुत्री भी कही गई है)
2 रुचि प्रजापति और उनकी पत्नी आकूति। ( जो स्वायम्भुव मनु की पुत्री भी कही गई है)
3 स्वायम्भुव मनु । और उनकी पत्नी
4 शतरुपा।

दक्ष प्रजापति ( प्रथम) की पत्नी (स्वायंभुव मनु की पुत्री) प्रसूति से चौवीस कन्याएँ हुई।
1 श्रद्धा 2 चला/चंचला (लक्ष्मी) 3धृति 4तुष्टि 5 मेधा 6 पुष्टि 7 क्रिया 8 बुद्धि 9 लज्जा 10 वपु 11 शान्ति 12 सिद्धि 13 कीर्ति इन तेरहों दक्ष कन्याओं का विवाह ब्रह्माजी के मानस पुत्र धर्म से हुआ।
धर्म की पत्नियों (दक्ष पुत्रियों) की सन्तान-
1 श्रद्धा से काम।काम की पत्नी   रति से हर्ष हुआ ।
2 चला ( लक्ष्मी) से दर्प।
3 धृति से नियम।
4 तुष्टि से सन्तोष।
5 पुष्टि से लोभ।
6 मेधा से श्रुत।
7 क्रिया से दण्ड, नय और विनय।
8 बुद्धि से बोध।
9 लज्जा से विनय।
10 वपु से व्यवसाय।
11 शान्ति से क्षेम।
12 सिद्धि से सुख।
13 कीर्ति से यश हुआ।

[ नोट- प्रसंगवश अधर्म कज वंश का वर्णन -
अधर्म की पत्नी हिन्सा है।
अधर्म - हिन्सा से -अनृत (मिथ्या/ झूठ) नामक पुत्र और निकृति नामक पुत्री हुई।
अनृत की जुड़वाँ सन्तान - भय और उसकी पत्नी माया हुए मामा की सन्तान मृत्यु नामक पुत्र हुआ।
मृत्यु पत्नी व्याधि, जरा,शोक, तृष्णा। सभी का न विवाह हुआ न सन्तान हुई।
  अधर्म - हिन्सा से दुसरी ( युग्म/जुड़वाँ) सन्तान नरक और उसकी पत्नी वेदना हुए। रोरव नरक की पत्नी  वेदना की सन्तान दुख हुआ।]

14 ख्याति  (का विवाह भ्रगु से हुआ जो प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान थे)।
भ्रगु -ख्याति से लक्ष्मी जन्मी जिनका विवाह विष्णुजी से हुआ। भ्रगु -ख्याति से  दो पुत्र भी हुए धाता (धातृ) और विधाता।

धाता का विवाह  (मेरु की पुत्री) आयति  से हुआ।
विधाता का विवाह (मेरु की ही दुसरी पुत्री) नियति से  हुआ।

धाता-आयति से प्राण उत्पन्न हुए।
प्राण से द्युतिमान हुए।द्युतिमान से राजवान हुए।

विधाता- नियति से मृकण्डु हुए।मृकण्डु से मार्कण्डेय।मार्कण्डेय से वेदशिरा हुए।

15 सती  का विवाह रुद्र से हुआ जो प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान थे।
रुद्र जन्मते ही  रोने लगे और इधर उधर दोड़ने लगे।ब्रह्माजी ने उनके रोने का कारण पुछा तो रुद्र ने कहा मेरा नाम रख दो ।रोने के कारण ब्रह्माजी ने उनका नाम रुद्र रखा।
रुद्र बाद में फिरसे सात बार और रोये तो हर बार रोने पर ब्रह्माजी ने उनके सात नाम और रखे।  1 रुद्र के अलावा 2 भव  3 शर्व 4 ईशान ,5 पशुपति, 6 भीम, 7 उग्र और 8 महादेव नाम से पुकारा।और उनके स्थान नियत किये जो रुद्र की अष्टमूर्ति  कहलाई ।

1रुद्र का स्थान / मुर्ति सुर्य और उनकी पत्नी सुवर्चला उषा ।जिनके पुत्र शनि हुए।

2 भव का स्थान / मुर्ति  जल और उनकी पत्नी विकेशी ।और उनके पुत्र शुक्र हुए।

3 शर्व का स्थान / मुर्ति पृथिवी और उनकी पत्नी अपरा ।और उनके पुत्र लोहिताङ्ग (मंगल) हुए।

4 ईशान    का स्थान / मुर्ति वायु और उनकी पत्नी शिवा ।और उनके पुत्र मनोजव ( सम्भवतया हनुमानजी) हुए।

5 पशुपति  का स्थान / मुर्ति  अग्नि और उनकी पत्नी स्वाहा। और उनके पुत्र स्कन्द ( कार्तिकेय) हुए।

6 भीम  का स्थान / मुर्ति आकाश और उनकी पत्नी दिशा। और उनके पुत्र सर्ग (स्रष्टि ) हुए।

7 उग्र  का स्थान / मुर्ति  यज्ञ में दीक्षित ब्राह्मण और उनकी पत्नी दीक्षा ।और उनके पुत्र सन्तान  हुए।

8 महादेव  का स्थान / मुर्ति  चन्द्रमा और उनकी पत्नी रोहिणी और उनके पुत्र बुध  हुए। 

ये रुद्र सर्ग कहलाता है।

16 सम्भूति  का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  मरीचि से हुआ ।
मरीचि- सम्भूति से पुर्णमास नामक पुत्र हुए।पुर्णमास से विरजा और पर्वत दो पुत्र हुए।

17 स्मृति का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  अंगिरा से हुआ ।
अंगिरा-स्मृति से सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति नामक पुत्रियाँ  हुई, जो अमावस्या के चार प्रकार हैं।

18 प्रीति का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  पुलस्य से हुआ ।
पुलस्य- प्रीति से दत्तोलि हुए जो पुर्व जन्म में ( स्वायम्भुव मन्वन्तर में) अगस्त्य कहे जाते थे।

19 क्षमा का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  पुलह से हुआ ।
पुलह- क्षमा से कर्दम, उर्वरीयान् और सहिष्णु नामक तीन पुत्र हुए।

20  सन्तति का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  कृतु से हुआ ।
कृतु - सन्तति से  बालखिल्यादि साठ हजार  ऊर्ध्वरेता मुनि हुए जो अङ्गुष्ठ प्रमाण वाले (अंगुठे के पोरुओं के समान शरीर वाले) थे।

21 अनसूया का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान अत्रि से हुआ ।
अत्रि - अनसूया से सोम (चन्द्रमा), दुर्वासा और योगी  दत्तात्रेय हुए।

22 उर्ज्जा  का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  वशिष्ठ से हुआ ।

वशिष्ठ - उर्जा से रज, गौत्र, उर्ध्वबाहु, सवन, अनध,  सुतपा और शुक्र नामक सात पुत्र हुए। ये तीसरे मन्वन्तर में सप्तर्षि हुए।

23  स्वाहा  का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान अग्नि से हुआ ।

अग्नि - स्वाहा से पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए।
इन तीनो के पन्द्रह-पन्द्रह पुत्र हुए।
अग्नि + तीन पुत्र + पैतालीस पौत्र सब मिलकर उनचास अग्नि कहलाते हैं

24 स्वधा का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान अनग्निक, अग्निष्वात्ता, साग्निक और बर्हिषद नामक पितरों से हुआ ।
अनग्निक, अग्निष्वात्ता, साग्निक और बर्हिषद नामक पितरो की पत्नी स्वधा से मेना और धारणी दो कन्याएँ हुई। दोनो योगिनी और ब्रह्मवादिनी हुई।

(हिमाचल से मेना की पुत्री पार्वती हुई।)

रुचि प्रजापति और आकूति से  यज्ञ नामक पुत्र और दक्षिणा नामक पुत्री ये दो युगल ( जुड़वाँ) सन्तान हुई।
यज्ञ और दक्षिणा पति -पत्नी हो गये।
यज्ञ की पत्नी दक्षिणा से बारह पुत्र हुए। जो स्वायंभुव मन्वन्तर में याम नामक देवता कहलाये।

नोट -महावीर स्वामी ने सनातन वैदिक परम्परा के ऋषि और जीवन के अन्तिम चरण सन्यास आश्रम में मुनी हुए ऋषभदेव जी को प्रथम तीर्थंकर घोषित कर महावीर स्वामी को चौवीसवाँ  तिर्थंकर घोषित कर इस महायुग की तिर्थङ्कर परम्परा समाप्त घोषित कर यह घोषित कर दिया कि,अगले महायुग में रावण अगला तीर्थंकर  होगा और तिर्थङ्कर परम्परा पुनः आरम्भ होगी।
यह लगभग वैसा ही है जैसे ही दशम गुरु गोविन्द राय जी तक सनातन धर्म भी अपने ही सन्त और गुरु  मानता रहा।
किन्तु गुरु गोविन्द राय ने गुरु गोविन्द सिंह जी कहला कर खालसा पन्थ की स्थापना करने पर उनने गुरु नानकदेव जी को प्रथम गुरु और स्वयम् को अन्तिम गुरु और उनके बाद गुरु ग्रन्थ साहब को आगे सदा के लिये गुरु पद घोषित कर दिया। और खालसा पन्थ स्थापित किया।
इब्राहीमी सम्प्रदाय में भी यहुदियों ने मुसा को ईसाइयों ने ईसा को और इस्लाम ने मोहमद साहब को अन्तिम नबी घोषित कर सिलसिला ए नबुव्वत खत्म होने की घोषणा के साथ ही कयामत के समय कोई मसीहा उतरेगा।जो यहुदियों के अनुसार अभीतक नही हुआ है।ईसाइयों के अनुसार इसा मसीह पुनः.उतरेंगे।
इस्लाम के अनुसार भी ईसा फिरसे उतरेंगे।और मेंहदीआलेसलाम कयामत के समय अन्तिम नबी होंगें।