सनातन धर्म के व्रतपर्वोत्सव में निर्धारित पुजा समय और मुहुर्त ।
सनातन धर्म की पुजाओं के समय निर्धारित हैं।
सर्वप्रथम यह स्मरण कराना चाहूँगा कि, आपके मुख्य धर्मशास्त्र ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद संहिता है। हमारे आत्मज्ञानी ब्रह्मज्ञ ऋषियों ने उक्त वेदिक संहिताओं की जो व्याख्या की उसे ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं। उन्ही ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम अध्याय में वानप्रस्थ आश्रम के लिए चिन्तन मनन हुआ उसे आरण्यक कहते हैं। और इन आरण्यकों के भी अन्त में जो आत्मतत्व चिन्तन ब्रह्मवाद पर चर्चा हुई उसे उपनिषद कहते हैं।
ईशावास्योपनिषद शुक्लयजुर्वेद संहिता का अन्तिम अध्याय है अर्थात चालीसवाँ अध्याय है।
कृष्ण यजुर्वेद में संहिता भाग के साथ ब्राह्मण भाग मिश्रित है। इसलिए इसे काला/ कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं।श्वेताश्वेतरोपनिषद कृष्णयजुर्वेद संहिता का भाग है।
ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड सम्बन्धित भागों को क्रियाओं के समय याद रखने के सुत्र बड़े यज्ञों के लिए श्रोतसुत्रों, संस्कार, व्रतपर्वोत्सवों के लिए ग्रह्यसुत्र, आचरण के लिए धर्मसुत्र और यज्ञ वैदी /बेदी और मण्डप आदि रचनार्थ शुल्बसूत्र ऋषियों ने रचे।और हम उन्ही ग्रह्य सुत्रों के अनुसार अपने व्रत, पर्व और उत्सव मनाते हैं।
ब्राह्मणारण्यकोपनिषदों में मतान्तर नही है अपितु एकवाक्यता है यह सिद्ध करनें के लिए आचार्य जेमिनी ने पूर्वमीमांसा दर्शन और आचार्य बादरायण ने उत्तरमीमांसा दर्शन रचा। उत्तर मीमांसा दर्शन को ब्रह्मसूत्र और शारीरक सुत्र भी कहते हैं।
धर्मसुत्रों को सरलता से समझाने हेतु स्मृतियाँ बनी, श्रोतसुत्रत्रों और गृह्य सुत्रों को सरलता से समझाने के लिए कर्मकाण्ड भास्कर, कर्मकाण्ड प्रदीप जैसे निबन्ध ग्रन्थ बने। इनको भी और सरल करने के लिए ब्रह्म नित्य कर्म समुच्चय ग्रन्थ बना। अब तो गीता प्रेस गोरखपुर ने भी नित्यकर्म पूजा प्रकाश ग्रन्थ प्रकाशित कर दिया है।
इनके संयुक्तिकरण और पूराणों की उक्तियों का समायोजन कर हेमाद्रि, कालमाधव आदि निबन्ध ग्रन्थ बनाकर और सरलीकरण किया गया।
निर्णयसिन्धुकार कमलाकर भट्ट ने निबन्धग्रन्थों और पौराणिक मतों की मीमांसा कर निर्णयसिन्धु ग्रन्थ में निर्णायक मत प्रस्तुत किये। जिसे भारतीय न्यायपालिका भी मान देती है।
निर्णय सिन्धु के केवल निर्णयों को एक स्थान पर संग्रहित कर धर्मसिन्धु की रचना की गई। इसे भी माननीय न्यायालय में मान्यता प्राप्त है।
हम उन ब्राह्मण ग्रन्थों और सुत्र ग्रन्थों के अनुयायी हैं यह दर्शानें के लिए प्रतिदिन कर्मकाण्ड की क्रियाओं के संकल्प के समय अपना गोत्र और प्रवर उच्चारण करते हैं।
किन्तु दासत्व की शताब्दियों में हमपर शक, हूण, खस,ठस, बर्बरों और इब्राहिमियों ने नानाविध अत्यधिक अत्याचार किये कि, हमारे पूर्वजों को बाध्य होकर एकान्त में छुपकर इन व्रतों,पर्वों और उत्सवों का अनुष्ठान करनें बाध्य होना पड़ा। वही परम्परा हम आज भी अपने अपने घरों में घर के अन्दर बन्द होकर संयुक्त परिवार सहित या अबतो केवल एकल परिवार के साथ व्रतों,पर्वों और उत्सवों का अनुष्ठान करते हैं।
इस कारण आचार्यों के बिना की जाने वाली आराधना,उपासनाओं की विधियों में भेद पड़ गया। जिसे हम लज्जास्पद माननें के स्थान पर सगर्व कुल रीति कहते हैं। मूल रीति तो उन गोत्र ऋषि द्वारा स्थापित रीति है जो उननें शास्त्रों में लिखी है। देखादेखी में कुछ त्रुटियाँ कुछ जुड़ती गई, कुछ नवीन परम्पराएँ जुड़ती गई और कूलरीति बनती गई।
हमारी मूल रीति तो, ब्राह्मणारण्यकोपनिषद, और सुत्र ग्रन्थों मे ही उल्लेखित है और वही मान्य है। उतना नही तो निबन्ध ग्रन्थों को तो स्वीकारनें को हम बाध्य हैं। तभी हम सनातन धर्मी कहलानें की पात्रता रखते हैं। और तभी हमें संकल्प में गोत्रोच्चार की पात्रता होगी।
अब मूल बात पर आते हैं।
*व्रतपर्वोत्सव में निर्धारित पुजा समय और मुहुर्त ।*
व्रत का नियम है कि, जिसदिन/ जिस तिथि में/ जिन तिथियों में व्रत करो उसके दुसरे दिन/ उस तिथि की/ उन तिथियों की अगली तिथि में पारण अवश्य करो।अन्यथा व्रत भङ्ग हो जायेगा।
जैसे एकादशी का पारण द्वादशी तिथि में होना आवश्यक है। अन्यथा एकादशी व्रत भङ्ग होजायेगा। अतः एकादशी व्रत करनें वाला द्वादशी का उपास/ उपवास व्रत नही कर सकता।
द्वादशी तिथि का एक चौथाई भाग हरिवासर पूर्ण होने के बाद द्वादशी तिथि में उसे पारण (अन्न ग्रहण) करना ही होता है।
नवरात्र का व्रत करने वाले को दशमी में पारण करना आवश्यक है अन्यथा नौ तिथियों में किया गया व्रत भङ्ग हो जायेगा। अतः वह दशमी तिथि को उपास/ उपवास का व्रत नही कर सकता।
इसी कारण वैदिक परम्परा में या तो पूर्ण उपास/ उपवास होता है या एक भक्त व्रत होता हे। (सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच एक ही बार भोजन करने को एकभक्त कहते हैं।) चूँकि, रात्रि भोजन निषेध है इसकारण केवल तन्त्र में प्रदोषव्रत आदि नक्त व्रत की व्यवस्था है वैदिक धर्म में नक्त व्रत की मान्यता नही है। एकादशी व्रत करने वालों को प्रदोषव्रत न करनें की सलाह इसी कारण दी जाती है। ताकि, द्वादशी में एकादशी का पारण हो सके। ऐसे ही जन्माष्टमी का पारण नवमी तिथि में होना ही चाहिए। जो लोग श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाकर उत्तर रात्रि में पारण कर लेते हैं वे व्रत भङ्ग कर लेते हैं। क्योंकि व्रती को रात्रि भोजन ही नही करना चाहिए तो व्रती के लिए उत्तर रात्रि में भोजन करना तो सर्वथा अनुचित होगा।
अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की मध्याह्न व्यापी चतुर्थी में गणपति पुजन में मध्याह्न में पार्थिव गणेश स्थापित कर गणपति उत्सव पूजन करें । और दुसरे दिन प्रातः पार्थिव गणेश विसर्जन करें।
जिन पण्डितों को उक्त शास्त्रों का ज्ञान नही होता वे नवरात्र में दुर्गा पूजा के लिए उल्लेखित विधि निषेध सप्तमी भेद युक्त अष्टमी में दुर्गा पूजा नही करनें की दुहाई देकर श्रीकृष्ण जन्माष्टमी में सप्तमी भेद युक्त अष्टमी में जन्माष्टमी नही मनाना कहते हैं। किन्तु वे ही पण्डित जन दशमी युक्त नवमी में दुर्गा पूजा नही करनें का विधान नही बतलाते। और धड़ल्ले से दशमी विद्धा नवमी में नवरात्र में महानवमी बतलाते हैं। रामनवमी के समय भी उन्हे उक्त नियम याद नही आता। तब भी उदिता/ उदिया तिथि में रामनवमी बतलाते हैं।
जबकि शास्त्रोक्त नियम पर्वकाल व्यापि तिथि में ही पर्वोत्सव मनाने का विधान है।
अतः मध्याह्न व्यापी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी में श्री गणेश स्थापना करना चाहिए।
श्रीकृष्ण जन्म का पर्वकाल मध्यरात्रि है अतः मध्यरात्रि व्यापी अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाना चाहिए। और
मध्याह्न व्यापी चैत्र शुक्ल नवमी में राम नवमी मनाना चाहिए।
श्राद्ध नित्यकर्म है। ब्रह्म यज्ञ, देवयज्ञ के पश्चात पितृयज्ञ के अन्तर्गत श्राद्धकर्म में मध्यान्ह पश्चात अपराह्न काल में श्राद्ध करना।
पञ्चबलि निकालना भूतयज्ञ का अङ्ग है। उसी में से नृबलि के अन्तर्गत निकाला गया भोजन अतिथि को परोस कर अतिथि यज्ञ होता है।
नवरात्रि में द्वितीय युक्त प्रतिपदा में सुर्योदय से दस घटि यानि चार घण्टे के अन्दर ही घटस्थापना करना। इसके बाद घटस्थापना नही होना चाहिए। जयति (जँवारे बोना) भी इसी का अङ्ग है।
प्रतिमा स्थापना का कोई कर्तव्य नही है। प्रतिमा स्थापना घटस्थापना के साथ ही उसी का अङ्ग है।इसकी कोई अलग व्यवस्था नही है। अतः प्रतिमा स्थापना भी सूर्योदय से चार घण्टों में ही होता है।
आश्विन पूर्णिमा परा अर्थात उदिया/ उदिता तिथि में ही होती है। उसमें भी चन्द्रोदय व्यापी पूर्णिमा का महत्व अधिक है।
किन्तु शरद पूर्णिमा का रास महोत्सव मध्यरात्रि का है। मतलब शरद पूर्णिमा महोत्सव मध्यरात्रि व्यापि आश्विन पूर्णिमा में मनाया जाना चाहिए। न कि, चन्द्रोदय व्यापि आश्विन पूर्णिमा में।
को जागरी अर्थात (लक्ष्मी कहती है;) कौन जागता है (मैं उसे धन दूँगी।) सूर्यास्त के समय तो यह प्रश्न उत्पन्न ही नही होता। स्पष्ट है कोजागर का मुख्यकाल महानिशा (मध्यरात्रि) ही है। और इस तिथि में प्रदोष काल में कलश स्थापित कर लक्ष्मी पूजा का विधान है। अतः प्रदोषकाल और मध्यरात्रि व्यापि आश्विन पूर्णिमा में कोजागरी पूर्णिमा पूजन होना चाहिए। न कि, चन्द्रोदय व्यापि आश्विन पूर्णिमा में।
धन्वन्तरि त्रयोदशी में अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण पक्ष में प्रदोषकाल व्यापी त्रयोदशी में धनतेरस मनाते हैं। धनतेरस मूलतः धन्वन्तरि जयन्ती है।
धनतेरस में प्रदोषकाल में यम और पितरों के निमित्त दीपदान करें। इसमें धन्वन्तरि पूजन होता है न कि, धन की पूजा।
नर्क चतुर्दशी / रूप चौदस में चतुर्दशी तिथि में चन्द्रोदय के पूर्व अभ्यङ्ग स्नान कर उदयीमान चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है। इससे रूप सँवरता है। यम दण्ड से बचाव होता है। रूप चौदस पर चाँन्दी या रुपयों की पूजा करनें का कोई विधान नही है।
दिवाली अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण पक्ष में प्रदोषकाल व्यापी और मध्यरात्रि व्यापी अमावस्या में दीवाली होती है। दीपावली पुजन मे यज्ञवेदी में नवीन समिधा डालकर अग्न्याधान करें।
प्रदोषकाल यानि सुर्यास्त पश्चात छः घटि यानि लगभग 2 घण्टे 24 मिनट के अन्दर ही दीप पूजन कर यमराज के और पितरों के निमित्त दीपदान किया जावे। इससे पितरों को अपनें लोक लौटनें का मार्ग प्रशस्थ होता है। दीपदान के बाद स्थिर लग्न/ वृष लग्न में नारायण सहित श्री लक्ष्मी , इन्द्र और कुबेर की पूजन करें। धन, सम्पदा, स्वर्ण, मुद्रा आदि की पूजन का कोई विधान नही है।
दीवाली को मध्यरात्रि के एक घटि पहले से मध्यरात्रि से एक घटि बाद तक की महानिशा में काली पूजन होता है। दवात में काली स्याही कै रूप में काली पूजन का विधान है।
उपपत्ति ----
प्रदोषकाल समाप्ति समय = [सुर्यास्त समय + (अगला सुर्योदय -सुर्योदय)÷ 5]
या
प्रदोषकाल समाप्ति समय = सुर्यास्त समय + (रात्रिमान÷5) ।
दीवाली के दुसरे दिन हवन कर नवीन धान्य अर्थात ज्वार (ग्वार) धान (चाँवल), गन्ना आदि की आहुति देकर नवधान्येष्टि करें।
तुलसी विवाह कब करें प्रथक ब्लॉग में वर्णन है।
शिवरात्रि में अमान्त माघ पुर्णिमान्त फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की मध्यरात्रि व्यापी चतुर्दशी तिथि में महाशिवरात्रि पर्व मनाते है। शिवरात्रि को रात्रि में चारों प्रहर में अलग अलग चार बार जलाभिषेक कर बिल्वपत्र अर्पित कर पुजन करना ।
सूर्यास्त / प्रदोषव्यापिनी फाल्गुनी पूर्णिमा में यज्ञ कुण्ड में नवीन समिधा अर्पित कर अग्न्याधान कर होलिका दहन कर दुसरे दिन प्रतिपदा में सामुहिक / सामुदायिक रूप से नवस्य, यव (जों), हवन में गेहूँ आदि नवान्न की आहुति देकर इष्टि कर्म करें।
इनमें न कोई लग्न का उल्लेख है न चौघड़िया का।
इनके लिए मुहुर्त देखने की परम्परा बहुत बाद की है।
मुहुर्त शास्त्र से पूजाओं को जोड़ने के लिये मुहुर्त का सबसे महत्वपूर्ण तत्व लग्न को ग्रहण किया गया।
वैदिक काल में सायन सौर संक्रान्तियों से मासारम्भ होता था अतः दो सायन संक्रान्तियों के बीच पड़ने वाली अमावस्या के दुसरे दिन प्रतिपदा से चान्द्रमास आरम्भ होता था। विष्णु पुराण तक में यही उल्लेख है। किन्तु वराह मिहिर के समय निरयन सौर वर्ष से संस्कारित / संस्कृत चान्द्रमासों की परिपाटी चली।
वर्तमान में प्रचलित चैत्र वैशाख आदि माह वाली शकाब्ध पञ्चाङ्ग नाक्षत्रिय सौर वर्ष यानि निरयन सौर वर्ष से संस्कारित / संस्कृत चान्द्रमास दिये जाते हैं। अभी तक सायन सौर संक्रान्तियों और निरयन सौर संक्रान्तियों में चौविस दिनों का अन्तर होने के कारण किसी भी व्रत,पर्वोत्सव के निरयन सौर दिनांक में एक माह से अधिक अन्तर नही आता। इस कारण व्रत,पर्वोत्सवके दिन पर्वकाल / पुजा की निर्धारित अवधि में निश्चित लग्न मिल जाता है।
जैसे चैत्र में घटस्थापना के समय स्थिर लग्न वृष, आश्विन नवरात्रि मे घटस्थापना के समय स्थिर लग्न वृश्चिक, गणेश चतुर्थी में स्थिर लग्न सिंह , और दिवाली में प्रदोषकाल में वृष लग्न और महानिशीथ काल में स्थिर लग्न सिंह मिल जाता है।
किन्तु जिन्हे लग्न साधन की गणना नही आती थी और जो ज्योतिषियों को दक्षिणा देना भी नही चाहते थे ऐसे नाथ आदि तान्त्रिकों ने यात्रा में अनुकूल वार / वासर नही होने पर उस वार के प्रहर में यात्रा करने का वैकल्पिक साधन चौघड़िया और होरा का उपयोग शुरू किया। किसी व्रत पर्वोत्सवों में व्रत पर्वोत्सव के निर्धारण समय में कोई निश्चित चौघड़िया मिलना निश्चित नही है। क्यों कि चौघड़िया वार/ वासर आधारित सांख्यिकी गणना / अंकविद्या है।
आप यह निश्चित नही कर सकते कि, दिवाली को प्रदोषकाल में मंगलवार और शनिवार को छोड़कर अन्य वार में लाभ के चौघड़िया में ही पुजन कर सकें।
वर्तमान में अधिकांश पुरोहित / पण्डित भी लग्न साधन और न यह तथ्य जानते हैं कि होरा के समान ही चौघड़िया भी (चार घड़ि = 96 मिनट) भी वारों के स्वामी ग्रहों का ही प्रतीकही हैं।
सुर्य - उद्वेग।
चन्द्रमा -अमृत।
मंगल- रोग।
बुध - लाभ।
गुरु - शुभ।
शुक्र - चर।
शनि - काल।
दिन के चौघड़िया का प्रथम चौघड़िया वार स्वामी ग्रह का ही होता है। जैसे होरा में होता है। बादमें वही होरा वाला क्रम में अर्थात वार से छटा फिर उससे छटा फिर उससे छटा ।
जबकि रात्रि में वार से पाँचवाँ फिर उससे पाँचवाँ फिर उससे पाँचवाँ ।
कुल मिलाकर यह अति साधारण सांख्यिकी या अंक विद्या मात्र है ज्योतिष नही है। जबकि लग्न साधन ज्योतिष है। मिलना निश्चित नही है। क्यों कि चौघड़िया वार/ वासर आधारित सांख्यिकी गणना / अंकविद्या है।
आप यह निश्चित नही कर सकते कि, दिवाली को प्रदोषकाल में मंगलवार और शनिवार को छोड़कर अन्य वार में लाभ के चौघड़िया में ही पुजन कर सकें।
अधिकांश पुरोहित / पण्डित भी नही जानते कि होरा के समान ही चौघड़िया (चार घड़ि = 96 मिनट) भी वारों के स्वामी ग्रहों का ही प्रतीक हैं।
सुर्य - उद्वेग।
चन्द्रमा -अमृत।
मंगल- रोग।
बुध - लाभ।
गुरु - शुभ।
शुक्र - चर।
शनि - काल।
दिन के चौघड़िया का प्रथम चौघड़िया वार स्वामी ग्रह का ही होता है। जैसे होरा में होता है। बादमें वही होरा वाला क्रम में अर्थात वार से छटा फिर उससे छटा फिर उससे छटा ।
जबकि रात्रि में वार से पाँचवाँ फिर उससे पाँचवाँ फिर उससे पाँचवाँ ।
कुल मिलाकर यह अति साधारण सांख्यिकी या अंक विद्या मात्र है ज्योतिष नही है। जबकि लग्न साधन ज्योतिष है।
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