पहले संक्षिप्त इतिहास की झलकियाँ देखिये। यह इतिहास सनातन धर्मियों द्वारा अपना मूल वैदिकधर्म त्यागनें के तत्काल बाद का है।⤵️
हम सनातनियों ने स्वयम् अपना धर्म, कर्म, नित्य- नैमित्तिक क्रियाएँ/ कर्मकाण्ड,संस्कृति, भाषा, भुषा सब त्याग दिया है।और स्वयम् को हिन्दू मानने लगे है।
हिन्दू का पारसी भाषा में अर्थ काला- कलुटा, दास, दस्यु, लुटेरा,चोर, सेंधमार,और बलात्कारी के अर्थ में दी जाने वाली गाली है।और हम सचमुच ही उत्तरोत्तर उसी अर्थ में हिन्दू बनने लगे। बल्कि कह सकते है बन ही गये।
आज प्रायः धर्मोपदेशक तो बचे ही नही।बस कथावाचक ही सन्त और आचार्य कहाने लगे हैं। कोई भी धर्मोपदेशक या कथावाचक अपने वाचिक और आचरण से समाज को नित्य प्रातः - संध्या; पञ्च महायज्ञ करना, अष्टाङ्ग योगाभ्यास करना, माता-पिता, बुजुर्गो, अतिथियों को प्रणाम करना, सत्य भाषण, सदाचरण, अविरत ॐ का मांसिक जप पुर्वक हरिस्मरण और निरन्तर जगत सेवा करना नही सिखाता।
अष्टाङ्ग योग साधना, नित्य सुबह शाम सन्ध्योपासना,गायत्रीमंत्र जप, ॐ का ध्यान पुर्वक जप कर ॐकार उपासना,वेदाध्ययन, पञ्चमहायज्ञ , बलिवैश्वदेव कर्म तो वे स्वयम ही नही करते तो सिखाये कैसे! नगर / ग्राम, मोहल्ला, कालोनी के स्तर पर ही सामुहिक रुप से सभी उत्सव (त्यौहार) मनाने और वर्णाश्रम धर्म पालन का उपदेश नही देते है।
बल्कि, वे अपने सम्प्रदाय का परम्पराएँ निर्वहन की ,नित्य प्रातः सायंकाल मन्दिर जाने का, रामचरितमानस पाठ का, भागवत पुराण कथा श्रवण का या शिव पुराण या दुर्गा सप्तशती पाठ का उपदेश देते हैं।तथा राम राम या जय सीताराम और राधे राधे या राधेकृष्ण, या जय शिव शम्भो या जय माताजी या जय गजानन बोल कर अभिवादन करना सिखाते हैं। उनकी दृष्टि से यही धर्म है।
मतलब उनकी दृष्टि से वैदिक ऋषि और उनका ज्ञानोपदेश अप्रासंगिक है या अप्रासंगिक हो गया है।
वे अपने सम्प्रदाय/ मठ/पन्थ के मन्दिरों में और मठाधीशों/ महन्तों को दान देना, और सम्प्रदाय/ पन्थ के पन्थियों में ही आपसी एकता का उपदेश देते है।उनका समुदाय बस उनका पन्थ है; सनातनधर्म नही।
यही कार्य वे सोशल मिडिया के माध्यम से करने लगे हैं। और अब तो किसी राजनीतिक दल का या नेता का प्रचार करना ही उनका अपना कर्त्तत्व मानने लगे हैं।
यही हाल परिवारों के मुखियाओं का भी है।वे परिवार में बच्चों को नित्य प्रातः - संध्या; माता-पिता, बुजुर्गो, अतिथियों को प्रणाम करनानही सिखाते।
सत्य भाषण, सदाचरण, अविरत ॐ का मांसिक जप पुर्वक हरिस्मरण और निरन्तर जगत सेवा, अष्टाङ्ग योग साधना, नित्य सुबह शाम सन्ध्योपासना, गायत्रीमंत्र जप, ॐ का ध्यान पुर्वक जप कर ॐकार उपासना,वेदाध्ययन, पञ्चमहायज्ञ , बलिवैश्वदेव कर्म स्वयम् नही करते तो सिखाने का सोच ही नही सकते।
नगर / ग्राम, मोहल्ला, कालोनी के स्तर पर ही सामुहिक रुप से सभी उत्सव (त्यौहार) मनाने और वर्णाश्रम धर्म पालन का संस्कार स्वयम् भूल चुके हैं तो बच्चों को कहाँ से सिखाये?
वे पारिवार में एकता की ही सीख भी नही दे सकते। क्यों कि, वे स्वयम् कभी भाई बहनों में एकता नही रख पाये, एकल परिवार बना कर ही रहे। माता- पिता के आज्ञाकारी रहना,उनकी सेवा सुश्रुषा करना उनने सीखा ही नही तो शिक्षा कैसे दें? और शिक्षा दें भी तो उसका असर कैसे हो?
आजकल लोग जाति प्रथा वाली जाति कै अपना समाज कहते हैं। उस स्वजाति में बल्कि उपजाति में ही एकता अवश्य चाहते हैं पर अपनी शर्तों पर।
विवाह में, सुरज पुजा, जन्मदिन में और मृत्युभोज में जातिगत परम्परा निर्वहन करना,जाति/ समाजवालों को आमन्त्रित करना, दिखावे में अपव्यय करने में शान समझते है।
मन्दिर जाने,मान- मन्नत लेकर सकामोपासना करना,और मान पुरी नही करने पर देवता रुष्ठ होजायेंगे ऐसा सावधान करते हैं क्योंकि, उनके मतानुसार कर्मफल सिद्धान्त औचित्य हीन होगया है। वे मठाधीशों/ महन्तों को ही दान देने का संस्कार देते हैं।
अब तो ज्यादातर परिवार इंग्लिश बोलना, इंग्लिश कल्चर, केरियर ओरिएंटेड डिग्री लेकर व्हाइट कॉलर , रुतबे वाला, आराम वाला जॉब करने तथा खुब धनार्जन कर ऐशपुर्वक जीवन - यापन करना ही सिखाने लगे हैं। परिवार ही मिथ्याभाषण, रिश्वतखोरी , ओछापन, चापलूसी के संस्कार भी देने लगे हैं।
राजनैतिक नेताओं और राजनीतिक दलों से तो धर्माचरण की आशा ही नही की जा सकती। वे देश- धर्म के प्रति अपना कोई कर्त्तव्य नही मानते।
नेता लोग सत्ता प्राप्ति के लिये और सम्प्रदायों/ पन्थों , जाति/समाजों से समर्थन प्राप्त करने के लिये राजनेता भण्डारे करवाने, मन्दिर बनवाने जैसे हथकण्डों को वे धार्मिकता कहते हैं।
सनातन धर्म और राष्ट्रधर्म का तो कोई नाम लेवा ही नही बचा। धर्म तो आचरण से पुष्ट होता है। धर्यम को खतरा तब होता है जब हम धर्माचरण त्याग अधर्म को धर्म का चोला ओढ़ाकर स्वयम् को धार्मिक बतलाने लगते हैं।
आज धर्म वास्तव में खतरे में है।और हल हमारे ही आचरण सुधार में है।
वेदों की ओर चलने में है। इसे वेदों की ओर लोटना नही वेद की ओर चलना ही कहेंगे। वेद मन्त्रों को ब्रह्म कहते हैं, ब्रह्म की ओर चलने को ब्रह्मश्चर्य कहते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें