शनिवार, 16 अगस्त 2025

श्री कृष्ण चरित्र और भगवान शंकर जी का चरित्र विकृत कर प्रस्तुत करना दोषपूर्ण कृत्य है।

श्री कृष्ण ग्यारह वर्ष बावन दिन की अवस्था में ब्रज छोड़कर मथुरा चले गए थे और फिर कभी वास नहीं लौटे।
कत्थक में श्रीकृष्ण ग्यारह वर्ष से अधिक अवस्था के लग रहे हैं।
योगेश्वर चक्रधर नारायणी सेना के संस्थापक श्रीकृष्ण को केवल माखन चोर, गोपियों के वस्त्र हरण करने वाले और रास रचैया बतलाने वाले जयदेव रचित गीत गोविन्द और ब्रह्म वैवर्त पुराण ने सनातन वैदिक धर्मियों का बहुत चारित्रिक पतन किया।
कत्थक की तुलना में भरत नाट्यम में ये दोष नहीं पाये जाते हैं
यही स्थिति शिव पुराण आदि ग्रन्थों ने विष विज्ञानी, अस्त्र-शस्त्रों के निर्माता, व्याकरण, नाट्यशास्त्र आदि विषयों के मर्मज्ञ महायोगी भगवान शंकर जी को भी गंजेड़ी, भंगेड़ी, धतुरा आदि सेवन कर नशे में धूत होकर पार्वती को नग्न कर नचवाने वाला सिद्ध कर दिया और युवाओं का चरित्र भ्रष्ट कर दिया।
महाभारत में जहाँ दक्ष यज्ञ में भगवान शंकर जी को यज्ञ भाग दिलवा कर पार्वती जी और भगवान शंकर दोनों प्रसन्नता पूर्वक कैलाश लौट जाते हैं, वहीं शिव पुराण में दक्ष पुत्री सती को यज्ञ में ही आत्मदाह कर भस्म हो जाना, सती के भस्मीभूत शव को कन्धे पर टांग कर शंकर जी का विक्षिप्त की भाँति भ्रमण करना, भगवान विष्णु द्वारा चक्र से सती के शव के इक्यावन टुकड़े करने से जहाँ-जहाँ जो टुकड़ा गिरा वहाँ-वहाँ शक्ति पीठ स्थापित होना, हिमाचल और मेना की सन्तान पार्वती के रूप में सती का पुनर्जन्म होना, फिर कठोर तपस्या खर शंकर जी से विवाह करना आदि असत्य घटनाएँ जोड़ कर उमा पार्वती को मरण धर्मा मानवी सिद्ध कर दिया। जबकि केन उपनिषद में हेमावती उमा को ब्रह्मज्ञानी देवी बतलाया है।
ऐसे ही वाल्मीकि रामायण में किष्किन्धाकाण्ड और युद्ध काण्ड में रावण की लङ्का गुजरात के भरूच से दक्षिण में सौ योजन अर्थात 1287 किलोमीटर और केरल के कोझीकोड से पश्चिम में 23 योजन अर्थात 296 किलोमीटर लक्ष्यद्वीप में बतलाई है और विश्वकर्मा पूत्र नल जैसे विश्वकर्म प्रवीण इंजिनियर ने कोझीकोड से किल्तान द्वीप तक 296 किलोमीटर का सेतु बनाया था।
जबकि, कवि कम्बन ने शायद रावण को तमिल सिद्ध करने के चक्कर में सिंहल द्वीप, श्रीलङ्का/ सिलोन को रावण की लंका बतला दिया।रावण का अत्यधिक महिमा मण्डन भी कर दिया।
 और रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना भगवान श्री रामचन्द्र द्वारा होना बतला दिया। जिसे तुलसीदास जी ने खूब प्रचारित कर दिया।

दूध, दही, छाछ-मक्खन, और घी के उदाहरण से शुद्र वर्ण से द्विज फिर विप्र और अन्त में ब्राह्मण बनने की सिद्धि।

जन्मना उक्त सभी दूग्ध उत्पादन है।
संस्कार से दहीं बनते हैं। केवल रङ्ग रोगन करना वाह्य संस्कार है जबकि मूल स्वरूप में ही परिवर्तन ही आन्तरिक और वास्तविक संस्कार है।  दूध में रासायनिक परिवर्तन होकर दही बनता है अब उसे वापस दूध नहीं बना सकते वैसे ही एक जन्म में संस्कारित होने पर दुबारा शुद्र नहीं बनता। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कर्मयोगी का पतन नहीं होता आगे ही बढ़ता है।
(विचार) मन्थन (स्वाध्याय) से मक्खन (विवेक) और छाँछ (बुद्धि) अलग-अलग होकर (विप्र) बने, तप कर घी (ब्राह्मण) बने।

जन्मना जायते शूद्र:संस्कारात् भवेत् द्विज:। वेद पाठात् भवेत् विप्र: ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मण:।। 
(स्कन्द पुराण:नागर खण्ड:18.6)
 वेदाध्ययन करके द्विज से विप्र (विद्वान) तो हो जाता है, बुद्धि द्वारा विश्लेषण कर विवेक से निष्कर्ष निकालना भी सीख लेता है, लेकिन मनेन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं होने से न चाहकर भी अधर्म में प्रवृत्त होनें से बच नहीं पाता।
इसलिए 
सर्वधर्म पालन में कष्ट सहन कर तितिक्षा के माध्यम से सोते- जागते, हँसते-रोते, ग्रहण-उत्सर्जन करते भी समाधि में लीन रहते हुए तप करके आत्मज्ञानी ब्राह्मण होता है।

तीस अंश भोगांश वाली सायन राशियों को प्रधय कहा जाना उचित होगा। क्रान्तिवृत के उत्तर-दक्षिण आठ या नौं अंश की नक्षत्र पट्टी में असमान भोग वाले तेरह तारामण्डल को अरे कहा जाना उचित होगा। तीस अंश की बारह निरयन राशियों को राशि ही कहा जाना उचित होगा।

तीस अंश भोगांश वाली सायन राशियों को प्रधय कहा जाना उचित होगा। क्रान्तिवृत के उत्तर-दक्षिण आठ या नौं अंश की नक्षत्र पट्टी में असमान भोग वाले तेरह तारामण्डल को अरे कहा जाना उचित होगा। तीस अंश की बारह निरयन राशियों को राशि ही कहा जाना उचित होगा।
आचार्य दार्शनेय लोकेश जी के अनुसार 
 *"वेद में 'राशि' शब्द नहीं किन्तु 'प्रधयः' शब्द राशियों के अर्थ में (अथर्ववेद १०/८/४) ही आया है। 'प्रधि' शब्द क्रान्तिवृत्त के १२ भागों के अर्थ में आया है।"* 

अर्थात सायन राशियों के लिए प्रधय शब्द और तारामण्डल के आधार पर तेरह राशियों को आचार्य वराहमिहिर के अनुसार अरे लिखा जाना उचित होगा।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

वैदिक सनातन धर्मियों को इनसे दूर ही रहना चाहिए।

सनातन वैदिक धर्मियों को वेद विरोधी, तामसिक तप करने वाले तान्त्रिकों (जैन), सन्देह वादी (बौद्धों), अश्लील मुद्राएँ बनाने वाले, मदिरा पीकर, मत्स्य और मान्स खाकर, मैथुन कर तान्त्रिक पूजा और होम-हवन करने वाले, चमत्कार दिखा कर आकर्षित करने वाले, सन्देहवाद और सेकुलरिज्म का झूठा पाठ पढ़ाकर अब्राहमिक मत को पोषित करने वाले कोरे तार्किकों और अब्राहमिक बाबाओं से दूर रहना चाहिए।
जो लोग इस श्रेणी में आते हैं उनकी जानकारी दी है।
बाहुबली, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पारसनाथ, वर्धमान महावीर जैसे वेद विरोधी, अनीश्वरवादी, सिद्धार्थ बुद्ध जैसे माध्यमिक, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि वर्णाश्रम व्यवस्था के विरोधी नाथों , महावतार बाबा, श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय उनके तीन प्रमुख शिष्य युक्तेश्वर गिरि, केशवानन्द और प्रणवानन्द तथा युक्तेश्वर गिरि के शिष्य परमहंस योगानन्द; इसी सम्प्रदाय के हेड़ाखान बाबा, रामकृष्ण जैसे मांसाहारी तान्त्रिक और चमत्कारी उनके मान्साहारी, व्यसनी शिष्य विवेकानन्द जैसे सेकुलर, नीम करोली बाबा, अक्कलकोट के स्वामी समर्थ,और उनके शिष्य बालप्पा महाराज, चोलप्पा महाराज, अलंदी के नृसिंह सरस्वती महाराज, वेङ्गुरला के आनन्दनाथ महाराज, मुंबई के स्वामीसुत महाराज, पुणे के शंकर महाराज, पुणे के रामानन्द बीडकर महाराज और उनके अनुयायी गजानन महाराज, खण्डवा के अवधूत बड़े दादा महाराज जी और छोटे दादा महाराज जैसे चमत्कारी सिद्धों और नाथों।
अरविन्द, बौद्ध विचारक जिद्दु कृष्णमूर्ति और जैन विचारक रजनीश जैसे कोरे तार्किक। 
इस्कॉन के प्रभुपाद, कृपालु महाराज, रामपाल, गुरुमित राम रहीम, आशाराम, 

और कसाई बाबा जैसे मुस्लिम फकीरों से दूर रहने में ही भलाई है।

जैन-बौद्ध और नाथ और शैवों, शाक्तों के सम्प्रदाय में वर्णाश्रम का नहीं सीधे संन्यास का महत्व है।

शंकर जी के गण

शंकर जी के गणों में
नन्दी वृषभ (जाति समझ नहीं आई)
श्रङ्गी (जाति पता नही।)
भृङ्गी (जाति पता नही।)
वासुकी नाग, 
पुष्पदन्त गन्धर्व,
मणिभद्र यक्ष,
रावण राक्षस,
विनायक पिशाच 
छत्तीस यक्षिणियाँ।
चौंसठ योगिनियाँ।

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

गुरु और उपनयन

पिता ही सर्वप्रथम उपनयन कर मन्त्र दीक्षा देते हैं।
जो सिद्धान्ततः उचित भी है। प्रथम यज्ञोपवीत के समय उपनीत करने का अधिकार केवल पिता को ही होता है।
पिता के अभाव में माता , वो भी न हो तो बड़ा भाई ऐसा क्रम है।
ब्रह्मचर्य आश्रम में भी जब कर्मकाण्ड की क्रियाएँ की जाती है तब दो जनेऊ धारण की जाती है। इसलिए प्रथम बार दो जनेऊ ही पहनाई जाती है।
लेकिन जब बाद में कोई गुरुकुल में विद्याअध्ययन करने जाता है, तब गुरुकुल का कुलपति आचार्य पुनः उपनयन करवाता है।
उसके बाद और किसी बड़े गुरुकुल में शिक्षा-दीक्षा लेनी हो तो वह गुरु पुनः उपनयन कराता है।
अन्त में जब उपनिषद श्रवण, मनन, निदिध्यासन करवा कर तत्वमस्यादि बोध करवाने वाले सतगुरु से ब्रह्मदीक्षा लेना हो तो वे भी दीक्षा देने के लिए उपनीत करते हैं।
इसलिए एक व्यक्ति के कई गुरु हो सकते हैं।
ऐसे व्यक्ति में साम्प्रदायिक आग्रह नहीं रहता है।
जो योग्य (आत्मज्ञ) गुरु से उपनिषद श्रवण कर निदिध्यासन कर श्रीगुरू मुख से तत्वमस्यादि महावाक्यों का श्रवण कर आत्म ज्ञान प्राप्त करता है वह सहज स्वाभाविक हो जाता है। उसका किसी से भी लगाव नहीं किसी से भी विरोध नहीं होता।
केवल जिज्ञासुओं के प्रति ही शास्त्रोक्त मत प्रकट करते हैं।
जो व्यक्ति उक्त परम्परा का उल्लघङ्घन कर अतिक्रमण कर किसी को भी सतगुरु मान लेता है वही व्यक्ति नैयायिकों की भाँति साम्प्रदायिक वितण्डावाद का आश्रय लेकर सर्वत्र ज्ञान बचारता रहता है।
जो व्यक्ति अन्तिम सतगुरु तक नहीं पहूँच पाता वह पूर्व मीमांसकों (वर्तमान में वरिष्ठ आर्यसमाजियों) की भाँति शास्त्रार्थ करते हुए अपने अहंकार को ही दृढ़ करते फिरते हैं।
लेकिन आत्मज्ञानी गुरु का आश्रय ग्रहण कर समाधान होने के कारण समाधिस्थ रहता है।
उसे जगत प्रभावित ही नहीं करता। उसके लिए तो गुण ही गुणों में व्यवहार रत है। इसलिए वह कोई भी पक्ष-विपक्ष देखता ही नहीं है। और सवस्थ रहता है।

तन्त्र उत्पत्ति और विकास

तन्त्र उत्पत्ति और विकास 

तन्त्र का मतलब वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था से हटकर मनमानी निरंकुश व्यवस्था।

मेने पहले भी लिखा है कि, हिरण्यगर्भ को हम त्वष्टा और उनकी रचना के रूप में जानते हैं। त्वष्टा ने ब्रह्माण्ड के गोलों को सुतार की भांति गड़ा (घड़ा)।
इन त्वष्टा की रचना ब्रह्माण्ड है। इसलिए वैदिक वाङ्मय में त्वष्टा के पुत्र त्रिमुख विश्वरूप बतलाया गया। जिन्हें देवताओं (आदित्यों) ने अपना पुरोहित नियुक्त किया। वे एक मुख से सोमरस पान करते थे और देवताओं के लिए आहुति देते थे। दुसरे मुख से मदिरापान करते थे और असुरों को आहुति देते थे।
इन विश्वरूप की हत्या इन्द्र ने कर दी। इससे रुष्ट होकर त्वष्टा ने वत्रासुर को जन्म दिया। वत्रासुर ने जलों को रोक लिया था और भूमि डुबने लगी थी। और गोएँ चुरा ली थी। तब देवताओं ने परम शैव दधीचि से अस्थियाँ लेकर वज्र बनाकर इन्द्र ने वत्रासुर को मारकर गौओं और जलों को मुक्त किया।
पुराणोल्लेखित हिरण्याक्ष द्वारा भूमि खो रसातल में ले जाना और वराह अवतार द्वारा भूमि को पुनः अपनी कक्षा में स्थापित कर देना।(जो लगभग असम्भव है।), महर्षि कश्यप द्वारा समुद्र पी जाना, भगवान शंकर की जटा में गङ्गा समाना, फिर जह्नु ऋषि के कमण्डलु में गङ्गा समाना, वामन द्वारा तीन पग में त्रिलोकी माप लेना (इसका सत्यापन करने वाला भी त्रिविक्रम विष्णु तुल्य ही होना आवश्यक है।) सब रूपकात्मक वर्णन है। जो उक्त वेद मन्त्रों में उल्लेखित बातों के आधार पर गड़ ली गई।

पुराणों के अनुसार 
बाद में देवताओं ने शुक्राचार्य को भी पुरोहित नियुक्त किया। फिर उनका असुर प्रेम देखकर ब्रहस्पति को पुरोहित बनाया। ब्रहस्पति के नाराज होकर जाने पर पुनः शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया। फिर शुक्राचार्य को हटाकर ब्रहस्पति को पुरोहित बनाया।

शुक्राचार्य जी परम शैव थे। अरब प्रायद्वीप और लगे हुए पूर्वी अफ्रीका में उन्होंने ही शैव पन्थ की स्थापना की थी, जो वेदों को अन्तिम सत्य नहीं मानता था और वेदों की मनमानी व्याख्या करता था। तथा वेद मन्त्रों को उल्टा पढ़कर या भिन्न-भिन्न प्रकार के उच्चारण कर तान्त्रिक प्रयोग करने लगे थे।
शैव मत ईरान में भी मीड सम्प्रदाय के रूप में पनपा और शंकर जी को मीढीश कहा जाने लगा।
अब्राहम का अब्राह्म मत शिवाई कहलाता है जिसे अरबी में सबाइन और साबई मत कहते हैं।
इसी सबाइन मत से दाउदी, सुलेमानी, यहुदी, ईसाई, इस्लाम और वहाबी पन्थ बने।

शुक्राचार्य के पुत्र भी त्वष्टा ने टर्की और युनान के निकट क्रीट द्वीप पर शाक्त पन्थ की नीव रखी। यह शुद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय बना।

भारत भी इससे अछूता नहीं रह पाया। सिन्धु नदी के आसपास मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में तान्त्रिक पद्धति की मूर्तियाँ और प्रतिमाएँ इन्ही शिष्णेदेवाः तान्त्रिकों के प्रमाण है, जिन्हें वेदों में घोर निन्दनीय और बहिष्कृत मत कहा गया है।
इस तन्त्र मत के लोग वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं मानते हैं। बचपन से ग्रहत्याग कर प्रथक संघ बनाकर घोर तामसिक तप करते हैं।
कालान्तर में यह श्रमण मत कहलाया जिसके दो रूप आस्तिक (वेदों को अंशतः मानने वाले) और नास्तिक (वेदों को न मानने वाले)
 नास्तिक मत वालों के भी दो रूप वर्तमान में भी पाये जाते हैं। इसमें  नाथ ईश्वरवादी हैं। तथा जैन अनीश्वरवादी हैं। श्रमण सम्प्रदाय के प्रमुख शंकर जी हुए। ईश्वर वादी शंकर जी को अपना इष्ट देवता मानते हैं और जैनों के आदर्श हैं।

इस प्रकार श्रमण सम्प्रदाय में तीन प्रमुख मत हुए ।
1 सिद्ध (नागा) सम्प्रदाय ईश्वर वादी और वेदों के प्रति आस्तिक हो गये। सिद्ध सम्प्रदाय के नागाओं को आद्य शंकराचार्य जी ने अपनी सेना के सैनिक बनाया।
 
2 नाथ सम्प्रदाय जो अ वैदिक ही रहे। लेकिन ईश्वर वादी हुए और भगवान शंकर को अपना इष्ट बनाया।
तथा 
3 जैन सम्प्रदाय जो शुद्ध नास्तिक (वेदों को न मानने वाले) और अनिश्वर वादी होते हैं।
जैन सम्प्रदाय से ही बौद्ध मत निकला। लेकिन कुछ लोग बौद्ध परम्परा को सन्देह वादी स्वतन्त्र मत मानते हैं 
भारत से बाहर ईरान का मीढ सम्प्रदाय लगभग नाथ सम्प्रदाय का ही रूप था। अफगानिस्तान के पिशाच और तुर्किस्तान में भी नाथ ही थे।
तिब्बत में नागाओं का गढ़ हुआ करता था। ये ही बाद में बौद्ध हो गये। सिद्धार्थ गोतम बुद्ध जो जन्मतः श्रमण सम्प्रदाय के प्रति आस्थावान थे। लेकिन उन्हें श्री आलार कलाम ने हठयोग और सांख्य दर्शन में दीक्षित कर दिया। बाद में श्री रुद्रक रामपुत्र से भी शिक्षा ली थी। लेकिन जन्मगत आस्था को भी वे छोड़ नहीं पाये। कुछ समय जैन आचार्यों की सङ्गति में रहकर कठोर तामसिक तप भी किया। और गणधर बुद्ध कहलाये। लेकिन सन्तुष्ट नहीं हो पाये। इसलिए अपना सन्देहवादी माध्यमिक दर्शन के साथ प्रथक मत स्थापित किया।
तान्त्रिक परम्परा के अनुयाई होने के कारण बौद्धों की एक शाखा वज्रयान सम्प्रदाय शुद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय हो गया। तिब्बत के नागालोग वज्रयान सम्प्रदाय के अनुयाई हो गये।
इस बौद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय में यमराज को इष्ट मानने वाला और मृत्यु को ही अन्तिम सत्य मानने वाला सम्प्रदाय भी था। जो उछल-उछल कर साधना करता था।
प्राचीन काल में वैदिक मत में सबसे अन्त में पराकाष्ठा पर पहूँचे ऋषि सप्त ऋषि बन गये।
उनके बाद भगवान श्रीकृष्ण, वेदव्यास जी आदि हुए।
वर्तमान युग में भगवान आद्य शंकराचार्य, सुरेश्वराचार्य आदि हुए। सबसे अन्त में दयानन्द सरस्वती हुए। 
तन्त्र मत में आदिकाल में त्वष्टा पुत्र विश्वरूप पराकाष्ठा पर पहूँचे। जिनका वध इन्द्र को करना पड़ा।
फिर कार्तवीर्य सहस्रार्जुन हुआ, जिसका वध भगवान परशुराम जी को करना पड़ा।
हठयोग में पराकाष्ठा पर रावण पहूँचा जिसका वध भगवान श्री रामचन्द्र जी को करना पड़ा ।
फिर कन्स, शिशुपाल और कालनेमी और जरासंध हुए। कन्स और शिशुपाल वध भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयम् किया और कालनेमी और जरासंध का वध नीतिकौशल से भगवान श्रीकृष्ण ने करवाया। 
तान्त्रिक क्रकच द्वारा भगवान आद्य शंकराचार्य जी की बलि चढ़ाने की कपट योजना का अन्त  उनके शिष्य पद्मपादाचार्य ने नृसिंह आवेश आह्वान कर क्रकच का वध कर किया और कापालिक उग्र भैरव का वध स्वयम भैरव ने कर दिया; भैरव स्वयम् प्रकट होकर कापालिक उग्र भैरव को खा गए।
ऐसी ही एक अन्य कथा के अनुसार अभिचार मन्त्र प्रयोग कर भगवान आद्य शंकराचार्य जी की शिष्य परम्परा के कोई शंकराचार्य जी को भगन्दर रोग पैदा कर मारने के इच्छुक कामरूप असम के तान्त्रिक अभिनव गुप्त का वध भगवान (आद्य शंकराचार्य जी की शिष्य परम्परा में हुए किसी) शंकराचार्य जी के शिष्य पद्मपादाचार्य जी को भगवान नृसिंह का आह्वान कर करवाना पड़ा।
ऐसे ही 
वर्तमान में लाहिड़ी महाशय आदि नाथ लोग हुए। एवम् तिब्बत में स्थित तथाकथित ज्ञानगञ्ज में बैठे कुछ सिद्ध गण हैं, जिनका मत हैकि, सृष्टि सञ्चालन में उनका हस्तक्षेप है।
वर्तमान में श्री भगवतानन्द गुरु के पिता श्री भी यम राज के निग्रह मत के अनुयाई हैं। जिन्होंने श्री भगवतानन्द गुरु को निग्रहाचार्य बनाया।