बुधवार, 24 अगस्त 2022

खगोलीय पिण्डों (Celestial object) और पातों / नोड्स (Nodes) की स्थिति/ पोजीशन (Position) बतलाने की विधियाँ।


आज का विज्ञान उस स्थिर केन्द्र की खोज नहीं कर पाया अन्ततः सभी निहारिकाएँ  और समस्त ब्रह्माण्ड भी जिसका परिभ्रमण कर रहे हैं। जिसको वेदों में हिरण्यगर्भ कहा है।
लेकिन दो गतिशील पिण्डों में आधार पिण्ड को स्थिर मानकर उसपर आधारित गतिशील पिण्ड की दिशा, दूरी और उँचाई मापन किया जाता है। एस्ट्रोनॉमी में भी यही होता है।
चाहे 
१ सायन पद्यति में विषुवत में वसन्त सम्पात से पूर्व की ओर ग्रह के साथ बनने वाला कोण का माप तथा विषुववृत से उत्तर दक्षिण कोण की गणना अर्थात शर की गणना हो  या 
२ निरयन पद्यति में  चित्रा तारे को भचक्र में क्रान्तिवृत का मध्य स्थान मान कर चित्रा से १८०° पर ०००° मान कर उससे पूर्व में ग्रह के साथ बनने वाले कोण का माप हो तथा क्रान्तिवृत से उत्तर दक्षिण परम क्रान्ति तक बनने वाले कोण अर्थात क्रान्ति की गणना हो, या 
३ नाक्षत्रीय पद्यति में 
३(क) भचक्र को स्थिर मानकर  वैदिक सत्ताइस या अट्ठाइस नक्षत्रों में ग्रह की स्थिति दर्शाना हो या 
३ (ख)आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की अठासी तारा मण्डल (constellation) में किसी ग्रह की स्थिति दर्शाना हो या
३ (ग) वराहमिहिर के तेरह अरों में ग्रह की स्थिति दर्शाना हो या 
३ (घ) आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की तेरह साइन (Sign) में किसी ग्रह की स्थिति दर्शाना हो। या
४ एक पिण्ड से दुसरे पिण्ड की दिशा, दूरी और उँचाई का मापन हो।
सभी विधियों की अलग-अलग विशेषता है, अलग-अलग  आवश्यकता है, अलग-अलग उपयोगिता है,अलग-अलग लाभ हैं। इसी कारण सभी विधियों का अस्तित्व है।
आचार्य वराहमिहिर नें भचक्र में १३ आर्याओं की  बात बहुत पहले बतलाई थी। जिसे बीसवीं सदी में जाकर एस्ट्रोनॉमर्स ने स्वीकारा।
ऐसे ही क्रान्तिवृत में भचक्र और भचक्र मे सत्ताइस और अट्ठाइस नक्षत्रों में विभाजन सर्वप्रथम भारत में ही हुआ जो आजतक प्रचलित है।
यूरोपीयों नें अठासी तारा मण्डल (Constilation) को बहुत बाद में अपनाया। पहले वे बारह राशियों (Sign) को ही जानते थे।

विषुवांश अर्थात सायन भोगांश कभी भी राशि अंश में नही दर्शाये जाते हैं। बल्कि ३६०° तक केवल अंश, कला, विकलादि में ही दर्शाये जाते हैं।
 (ऐसे ही शर और क्रान्ति भी केवल अंशादि में ही दर्शाते हैं।)
द्वादश राशि,अंश,कला, विकला में दर्शाना निरयन पद्यति की देन है। क्योंकि द्वादश राशियाँ, और तेरह आर्याएँ, (Sign) स्थिर भचक्र में ही होती है। एस्ट्रोनॉमर्स एक दूसरे को प्रायः किसी भी नये पिण्ड दिखने की सुचना इन्हीं तेरह Sign और अठासी तारा मणू (Constilation) में जानकारी का आदान-प्रदान करते हैं, फिर विषुवांश/ भोगांश, शर और क्रान्ति के अंशादि बतलाते हैं। अर्थात नाक्षत्रीय पद्यति और सायन गणना दोनों का प्रयोग करते हैं।
चित्रा तारे को क्रान्तिवृत/ भचक्र के मध्य में / १८०° पर मानकर राशि अंशादि में दर्शाने वाली निरयन गणना केवल भारत में ही प्रचलित है।
निरयन गणना का लाभ यह है कि, इसमें ताराओं (Star's) के निरयन अंशादि हजारों, लाखों वर्षों तक लगभग अपरिवर्तित रहते हैं।

*खगोलीय पिण्डों (Celestial object) और पातों / नोड्स (Nodes) की स्थिति/ पोजीशन (Position) बतलाने की तीन विधियाँ है -* 
 *१ सायन/ ट्रॉपिकल पोजीशन (Tropical Position)* 
*२ नाक्षत्रीय/ साइडरियल पोजीशन  (Sidereal position)* और 
*३ उन्नतांश और दिगंश/ एल्टिट्युड अजिमुथ (Altitude azimuth) पद्यति।* 

 *उक्त तीनों ही गणना दृक सिद्ध , वेधसिद्ध  और शुद्ध वैज्ञानिक गणना होती है।* 
आधुनिक वैज्ञानिक शोधों से इसमें न्युटन तक, न्यूटन से आइंस्टाइन तक, आंइस्टाइन के बाद लेकिन युनिवर्सल थ्योरी डेवलप होनें तक। विभाजित किया जा सकता है। लेकिन अति विस्तार भय से अभी नही जोड़ा जा रहा है।
(१) *सायन गणना* -- इसमें पिण्डों को पूर्ण गोलाकार मानकर *पिण्डों के केन्द्र से केन्द्र तक की दूरी को लम्बन माना जाता है। सायन गणना विषुववृत / सेलेस्टियल सर्कल/सेलेस्टियल इक्वेटर  (Celestial cercle/ Celestial Equator) और क्रान्तिवृत/ ईक्लिप्टिक  (Ecliptic cercle) दोनों में दर्शाई जा सकती है।*
 *पाश्चात्य खगोल वैज्ञानिकों को और वैदिक ऋषियों को विषुव वृत्त में सायन ग्रह स्थिति अधिक मान्य है।* आधुनिक वैज्ञानिक पिण्डों के केन्द्र से केन्द्र की दूरी द्वारा और सतह से सतह की दूरी द्वारा दोनों विधियों का उपयोग करते हैं। वे  *विषुवांश (राइट एसेंशन Right Ascension) और उत्तर या दक्षिण शर  (लेटिट्युड Latitude) में दर्शाते हैं। जो विषुव वृत्त से ही होगी। विशुवांश (Right Ascension) (वसन्त विषुव से गुजरे जितना समय हुआ) जो खगोलीय देशान्तर  ( लांगिट्युड Longitude) तुल्य होता है। वसन्त विषुव/ वर्नल इक्विनॉक्स (Vernal equinox) से अंशात्मक दूरी अर्थात  सायनांश / ट्रॉपिकल लाङ्गिट्युड (Tropical longitude) में भी दर्शाई जाती है।*
 *वैदिक काल में  सायन गणना में ही अंशात्मक गणना होती थी नाक्षत्रीय गणना अंशात्मक नही होती थी। आर्यभट भी विषुववृत में सायनांश और क्रान्ति दर्शानें के पक्ष में थे।* 
क्रान्तिवृत विषुववृत को दो स्थानों पर काटता जिसे सम्पात कहते हैं। उत्तरी सम्पात को वसन्त सम्पात / वर्नल इक्विनॉक्स (Vernal equinox) कहते हैं। दक्षिण सम्पात को शरद सम्पात (Autumnal equinox) कहते हैं। ये दोनों सम्पात एक दुसरे से १८०° पर स्थित होते हैं।
सायन गणना वसन्त सम्पात को आरम्भ बिन्दु मानकर ही की जाती है। यह बिन्दु वामावर्त हो लगभग ५०.३ प्रति वर्ष चलनशील है। 
१ (क)  *यूरोपीय विषुव वृत्त में ही ग्रहों का परिभ्रमण मानते हैं। जबकि भारतीय नक्षत्र पट्टी/ भचक्र में या क्रान्तिवृत में ग्रहों का परिभ्रमण मानते हैं।भारतीयों में पिण्डों के केन्द्र से केन्द्र तक दूरी को ही लम्बन  मान्य है।  इसलिए भारतीय इसे भोगांश / ट्रॉपिकल लांगिट्युड (Tropical Longitude) और शर / लेटिट्युड (Latitude) से देखते हैं। लेकिन यह असुविधाजनक है।* 
(२) *नाक्षत्रीय पद्यति -दूसरी पद्यति है। इसमें भी पिण्डों को पूर्ण गोलाकार माना जाता है। इसकी गणना केवल भचक्र (नक्षत्र पट्टी) में ही होती है। इसलिए इसमें क्रान्तिवृत ही मुख्य है। क्रान्तिवृत में दोनों परमक्रान्ति के के आसपास लगभग नौ -नौ अंश चौड़ी पट्टी को ही भचक्र या नक्षत्र पट्टी  कहते हैं। इस भचक्र को अंग्रेजी में फ़िक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) कहते हैं। नाक्षत्रीय गणना इसी भचक्र/ नाक्षत्रीय पट्टी/ फ़िक्स्ड झाडिएक (Fixed zodiac) में चित्रा तारे को १८०° पर मानकर चित्रा तारे से १८०° को आरम्भ बिन्दु (शुन्य अंश) मानकर गणना करते हैं।* 
 *वैदिक नक्षत्र - वैदिक काल में असमान भोग वाले २८ नक्षत्र माने जाते थे। कुछ निश्चित निर्धारित तारों से निर्मित आकृति विशेष को नक्षत्र कहते थे। जैसे हस्त नक्षत्र की आकृति चार तारों से बना चौकोर है। तो मृगशीर्ष नक्षत्र में मात्र तीन तारे एक पंक्ति में हैं। जबकि चित्रा नक्षत्र में मात्र एक ही तारा है, और शतभिषा नक्षत्र में सौ तारे माने गये थे जबकि वर्तमान में शतभिषा नक्षत्र में लगभग ८८ तारे हैं। यूरोपीय खगोलविदों ने भचक्र को  ऐसे ही निश्चित आक्रतियों वाले लगभग ८८ नक्षत्र में और तेरह राशियों में विभाजित माना हैं।* 
 *इन्हीं तारा समुह में सूर्य, चन्द्रमा या ग्रह होनें पर कहा जाता था कि, ग्रह उस अमूक नक्षत्र या अमुक राशि में भ्रमण कर रहा है।*
चूंकि, चित्रा तारे से १८०° पर कोई तारा वर्तमान में भी नही है और पूर्व काल में भी बहुत सीमित समय तक रेवती योग तारा चित्रा तारे से १८०° पर रहा था अतः वेध लेनें में समस्या आती है। *पूर्वकाल में नाक्षत्रीय पद्यति में गणना अंशों में नही होती थी इसलिए कोई विशेष समस्या नही थी। अंशात्मक गणना सायन गणना में ही होती थी।* लेकिन *वर्तमान में निरयन गणना पद्यति में चित्रा तारे से १८०° को ०००° मान कर अंशात्मक गणना होती है।* 
 *चूंकि इराक के बेबीलोनिया में भी भचक्र या फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) में ही राशियों के चित्र तैयार किए गए थे। उसी   आधार का विकसित रूप वर्तमान वैज्ञानिक/ यूरोपीय खगोलीय मानचित्र है। जिसमें असमान भोग वाली ८८ नक्षत्र और तेरह राशियाँ है। वैध लेते समय आज भी किसी पिण्ड की स्थिति इसी भचक्र या फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) में ही बतलाई जाती है। इसके साथ ०००° से ३६०° विषुवांश में सायन स्थिति बतलाई जाती है और साथ हई क्षैतिजिक स्थिति उन्नतांश और  दिगंश / एल्टिट्युड & अजीमुथ (altitude azimuth) पद्यति में भी बतलाई जाती है। इससे वक्ता और श्रोता दोनों को सबकुछ एकदम स्पष्ट/क्रिस्टल क्यियर (Crystal clear) समझ आ जाता है।* 

(३) तीसरी पद्धति उन्नतांश और  दिगंश / एल्टिट्युड & अजीमुथ (altitude azimuth) पद्यति हैं। यह नेवीगेशन की पद्यति है।इसमें गणना हेतु क्षितिज रेखा ली जाती है। इसमें गणना में  उन्नतांश/ ऊचाई और दूरी  बतलाई जाती है।दूरी को किलोमीटर में या प्रकाशवर्ष में भी बतलाई जा सकती है। और दिगंश दो पिण्डों की दिशा अंशात्मक दूरी भी दर्शाई जाती है। 
दृष्यात्मक गणना जैसे दृष्य सूर्योदयास्त, दृष्य चन्द्रोदयास्त, ग्रहों का उदय/ अस्त ( Combustion la/ Heliacl Setting) दृष्य गहण मौक्ष, लोप दर्शन (Occultation), वक्री मार्गी (Retrogression) , परमोच्च/ परमनीच Apogee/ Perigee/Aphelion/Perihelion आदि की गणना के लिए यह पद्यति का उपयोगी  है।
 *(४) भू केन्द्रीय सूर्य स्पष्ट में चित्रा के योगतारा पर सूर्य होने के समय पर या सूर्य केन्द्रीय Heliocentric position में चित्रा नक्षत्र के तारे पर भूमि होनें के समय (अर्थात निरयन मेष संक्रान्ति के समय) सायन  सूर्य स्पष्ट  से और निरयन सूर्य मेष ००° के अन्तर को नोट कर स्पष्ट अयनांश ज्ञात किया जा सकता है। अथवा वसन्त सम्पात के समय भू केन्द्रीय निरयन ग्रहस्पष्ट में सूर्य का चित्रा नक्षत्र के योग तारा से १८०° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से अंशात्मक दूरी को नोट कर स्पष्ट अयनांश ज्ञात कर सकते हैं।* 
(५) भारत में नक्षत्रों की स्थिति सदैव से भचक्र (नक्षत्र मण्डल) /फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac)  में ही माना जाती है। और लगभग सभी विद्वानों नें क्रान्तिवृत के आसपास उत्तर दक्षिण में आठ-नौ अंश की पट्टी को फिक्स्ड झॉडिएक में ही नक्षत्र मण्डल / भचक्र माना है।
(६) नक्षत्र मण्डल/ भचक्र/ फिक्स्ड झॉडिएक  (Fixed zodiac) और नाक्षत्र वर्ष गणना आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में भी मान्य है। अन्तर इतना ही है कि, भारतियों के समान चित्रा तारे को भचक्र में १८०° पर मानकर उसके सम्मुख (१८०° पर) निरयन मेषादि बिन्दु को भचक्र का आरम्भ बिन्दु नही मानकर किसी भी स्थिर तारे से आरम्भ कर  उसी तारे पर भूमि, चन्द्रमा या ग्रह के परिभ्रमण पूर्ण करनें को नाक्षत्र गणना कहते हैं।
 सूर्य के केन्द्र से भूकेन्द्र चित्रा तारे के सम्मुख आने से आरम्भ कर पुनः चित्रा तारे के सम्मुख आने तक की अवधि लगभग ३६५.२५६३६३ दिन को नाक्षत्र वर्ष माना जाता है।
(७) Fixed zodiac पर नक्षत्र पट्टी में चित्रा नक्षत्र के तारा से आरम्भ होकर उसी तारे पर भूमि के सूर्यपरिभ्रमण या सापेक्ष में निरयन मेषादि बिन्दु से आरम्भ होकर पूनः निरयन मेषादि बिन्दु पर सूर्य के लौटने पर एक नाक्षत्र वर्ष या निरयन सौर वर्ष पूर्ण होता है।
(८) क्रान्तिवृत के इस वृत्त के बारहवें भाग ३०° में भूमि के सापेक्ष सूर्य के रहने की अवधि को एक नाक्षत्र मास कहते हैं। और ३६० वें भाग अर्थात ००१° पार करने की अवधि को एक नाक्षत्र दिन कहते हैं।
 *(९) क्रान्ति Declination  से पूर्ण असम्बद्ध होनें के कारण नाक्षत्र मास के आरम्भ बिन्दुओं पर सूर्य की स्थिति को संक्रान्ति कहना अनुचित है किन्तु सिद्धान्त ग्रन्थों में इसके लिए निरयन संक्रान्ति शब्द रूढ़ हो गया है। इसे बदलना होगा।* 
( *१०) एस्ट्रोनॉमिकल इफेमेरीज /Nautical almanac में दिये जाने वाले नक्षत्र योगताराओं के सायन भोगांश कुछ वर्षों में परिवर्तित होते रहते हैं । जबकि, इन्हीं नक्षत्र योगताराओं के निरयन राशिअंशादि हजारों वर्ष तक अपरिवर्तित है।* 
 *(११) नक्षत्र पट्टी Fixed zodiac पर ही नक्षत्रों की आकृति हजारों वर्षों तक यथावत रहती हैं। इस कारण हमारे कृषक भी चलते रास्ते आकाश में देखकर बतला देते हैं कि, सूर्य, चन्द्रमा किस नक्षत्र पर है या शुक्र और ब्रहस्पति और मंगल किस नक्षत्र में हैं। सूर्योदय पूर्व और सूर्यास्त पश्चात आकाश अवलोकन करने वाले सूर्य किस नक्षत्र में हैं बतला देते हैं, लेकिन सायन पोजीशन बतलाना सम्भव नही है।* 
 *(१२) इराक के बेबिलोनिया की राशियों की आकृति भी इस नक्षत्र पट्टी Fixed zodiac पर ही हजारों वर्षों से अपरिवर्तित है।*
*जबकि सन २८५ ईस्वी में जो मानचित्र सायन और निरयन मेष राशि का था; सन २४३३ ईस्वी में वही मानचित्र निरयन मेष राशि तथा सायन वृष राशि का हो जायेगा।* 
 *इसी कारण नक्षत्रों को नाक्षत्रीय गणना/ निरयन गणना पर आधारित ही मानना होगा।* 
(१३) वर्तमान में कुछ ज्योतिषी १३°२०' के एक समान निश्चित मान वाले न मानकर दो नक्षत्र योगताराओं के बीच के सन्धि स्थल से अगले दो  योग ताराओं के सन्धि स्थल तक नक्षत्रमान माना जाना उचित मानते हैं, जैसा कि, भारतीय जातक/ होरा शास्त्र में दो भावों की सन्धियों के बीच के अंशादि में भाव  माना जाता है।तो कुछ ज्योतिषी दो योग ताराओं के मध्य नक्षत्र मानने के पक्ष में हैं, जैसा भाव स्पष्ट से भाव स्पट के बीच भाव House मानने वाली यूरोपिय पद्यति के अनुसार नक्षत्र योग तारा को आरम्भ बिन्दु  माना जाता है। लेकिन यह पद्धति भारतीय नहीं है।
(१४) १८वर्ष ११ दिन में  ग्रहण  पुनरावर्तित होता है। और १८ वर्ष १८ दिन में ४१ सूर्यग्रहण और २९ चन्द्रग्रहण होते हैं।
भास्कराचार्य के अनुसार १९ वर्ष,१२२ वर्ष और १४१ वर्ष में अर्थात २८२ वर्ष में निरयन सौर वर्ष और निरयन सौर राशियों पर आधारित चान्द्र वर्ष / मार/ तिथियाँ यथावत पूनरावर्तित होते हैं।
(१५) अर्थात जैसे निरयन सौर संस्कृत चान्द्र पञ्चाङ्ग में तिथि, करण, नक्षत्र, निरयन सूर्य के अंशादि और विष्कुम्भादि योगों की आवृत्ति लगभग २८२ वर्षों में होती है ऐसे ही सायन सौर संस्कृत चान्द्र पञ्चाङ्ग में भी लगभग २८२ वर्षों में ही आवृत्ति हो सकती है। क्योंकि, २८२ वर्षों में अयनांश केवल ४° ही पीछे जायेगा। अर्थात सायन सौर वर्षारम्भ (वसन्तसम्पात) और निरयन सौर वर्षारम्भ (निरयन मेष संक्रान्ति) में केवल ४ दिन का अन्तर आयेगा।
 *(१६) लो. मा. बाळगङ्गाधर तिळेक हो, व्यंकटेश बापूजी केतकर हो, या शंकर बालकृष्ण दीक्षित हो, दीनानाथ शास्त्री चुलैट हो या श्री निलेश ओक हों सब ने स्वीकारा है।कि,* 
 *(१७)मधु माधवादि सायन सौर मास हैं और चैत्रादि मास निरयन सौर संस्कृत चान्द्र मास है।* 
 *(१८) संवत्सरारम्भ सदैव वसन्त सम्पात से होता रहा है। अर्थात संवत्सर सायन सौर वर्ष मान्य है। जिसमें दो अयन औ़र छः ऋतुएँ होती है।* 
 *(१९) संवत्सर का प्रथम मास सदैव चैत्र ही नही रहा। बल्कि सदैव बदलता रहा है।* 
 *(२०) संवत्सरारम्भ का प्रथम मास सदैव परिवर्तन होता रहा इसलिए ऋतु आधारित व्रत, पर्व और उत्सव के मास तिथि बदलती रही है। जैसा कि, श्री निलेश ओक ने संवत्सर आरम्भ दिन (गुड़ी पड़वा) को ब्रह्मोत्सव और इन्द्रध्वजारोहण के सम्बन्ध में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि, भारत में उक्त पर्व वसन्त सम्पात से जुड़े रहे इसलिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मध्वज/ इन्द्रध्वज लगाया जाता है लेकिन नेपाल में इन्द्रध्वजारोहण रामायण काल से आजतक आश्विन मास में ही होता आया है। उनने मास परिवर्तन नही कर मास को महत्व दिया।* 
 *वैदिक साहित्य में वैशाख मास (अक्षय तृतिया), माघ मास (लगधाचार्य का वेदाङ्ग ज्योतिष), और कभी मार्गशीर्ष मास/ अग्रहायण (श्रीमद्भगवद्गीता), कभी कार्तिक मास (गुजरात), कभी आश्विन मास (नवरात्र) से संवत्सर आरम्भ बतलाया जाता है।* 
*२१ चूँकि, नाक्षत्रीय पद्यति सायन पद्यति से भिन्न है अतः पूर्णिमा को चन्द्रमा का नक्षत्रों से युति या योग के आधार पर रखे चान्द्र मासों के नाम भी नाक्षत्रीय पद्यति/ निरयन पद्यति के लिए ही मान्य हैं। अतः इसे निरयन सौर संस्कृत मास ही मानना उचित है। जैसा कि, परम्परा से भी यही प्रचलित है वही उचित भी है।*
 *(२२) तदनुसार ही चैत्रादि मासों को निरयन संक्रान्तियों पर आधारित ही मानकर सायन संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्रवर्ष का आरम्भ मास बदलते हुए पीछे की ओर चलना पड़ेगा। जैसा कि वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है।* 
 *वस्तुतः सन २४३३ ईस्वी में सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से होगा। इसे चैत्र मास कहना अपरम्परागत और अनुचित होगा। लेकिन ऋतुबद्ध मास में ही व्रत, पर्व उत्सव मनानें के लिए सायन संक्रान्ति से शोधित मास को ही मान्यता दी जाना आवश्यक है। जैसे इस वर्ष शके १९४४ (२०२२ ईस्वी) में अधिकांश व्रत पर्व उत्सव एक माह पहले वाले मास में मनाया जाना उचित है। *
*२३ जिस प्रकार नाक्षत्रीय मास / तथाकथित निरयन संक्रान्तियों से चैत्र वैशाख आदि मासों की परम्परा रही है। वैसे ही सायन संक्रान्तियों पर आधारित (सायन सौर संस्कारित) चान्द्र मासों का नामकरण संख्यात्मक पद्यति प्रथम/ द्वितीय आदि रखना उचित होगा। ताकि, दोनों नामों के एकसाथ उल्लेख और सायन निरयन दोनों मास एकसाथ बतलानें पर ऋतु और आकाश में सूर्य चन्द्रमा की स्थिति एकदम स्पष्ट हो जाए।*

सोमवार, 22 अगस्त 2022

गोबर गणेश पूजन।

*गोबर गणेश पूजन।* 

*किसी भी देवता की धातु, रत्न, पत्थर, लकड़ी की मुर्ति का ही वर्णन पढ़ा है, गोबर का नही।
शायद ही किसी आम्नाय के किसी आगम लेखक नें गोबर से मुर्ति रचना की कल्पना की हो।
गणेश पूजन की परम्परा तो यह है कि, दाहिने हाथ के अंगूठे बराबर का मिट्टी के डली में ही गणपति की भावना कर स्थापना पूजन और विसर्जन किया जाता है।*

लेकिन दिवाली के दुसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा में गोबर के गोवर्धन पर्वत बना कर उसमें श्रीकृष्ण भाव से  पूजन होता है। 
कर्मकाण्ड हेमाद्रि प्रयोग में तो पूरे शरीर पर पञ्चगव्यलेप कर के स्नान करना और पञ्चगव्य पान करना (पीना) होता है।
अर्थात परम्परागत रूप से गोबर पूजा में स्वीकार्य है। और गोबर से बनी प्रतिमा की पूजा भी होती रही है।

राष्ट्रीय कामधेनु आयोग नें तो विगत कुछ वर्ष पहले यह पहल आरम्भ की। तो लोगों नें विचार आरम्भ किया। तब भी किसी शास्त्री/ आचार्य/ सन्त/ महन्त ने आपत्ति नहीं उठाई।
*तार्किक दृष्टि से मल अन्ततः मल ही होता है। बेयर ग्रील भी संकट काल में ही हाथी के मल से पानी निकाल कर पीते है। अनावश्यक नही।*
गोबर गणेश मुहावरे से प्रभावित महेश्वर के किसी  व्यक्ति नें गोबर गणेश निर्माण कर  गोबर गणेश मन्दिर बना दिया और गोबर गणेशों ने गोबर गणेश की पूजा आरम्भ कर दी।
श्री अजय सिंह चौहान द्वारा लिखित अद्भुत है 500 साल पुरानी गोबर गणेश की यह प्रतिमा लेख और एक अन्य लेख से ज्ञात हुआ कि,
मध्य प्रदेश के नीमाड़ क्षेत्र में नर्मदा नदी के किनारे बसे *महेश्वर* नामक प्राचीन कस्बे *के महावीर मार्ग पर आने वाले भक्तों को गोबर गणेश का दक्षिण मुखी मंदिर का आकार हैरान कर देता है। एक तरफ मंदिर का बाहरी आकार किसी मस्जिद के गुंबद की तरह है तो वहीं मंदिर के अंदर की बनावट लक्ष्मी यंत्र की तरह लगती है। 
बताया जाता है कि औरंगजेब के शासन काल में इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रयास किया गया था, जिसके कारण मंदिर के गुंबद का आकार मस्जिद जैसा है।
दक्षिणमुखी मंदिर इस में विराजमान भगवान का नाम गोबर गणेश बुद्धूपन से संबंधित हिन्दी के एक बहुत ही प्रचलित मुहावरे की ओर संकेत करता है। 
महेश्वर नगर वासियों के अनुसार इस गोबर गणेश मन्दिर की स्थापना गुप्त काल में हो चुकी थी, इसी कारण यह मंदिर एक ऐतिहासिक महत्व का मंदिर है और क्रुर मुगल शासक औरंगजेब ने इस मंदिर के महत्व को देखते हुए इस क्षेत्र के अन्य मंदिरों की तरह ही गोबर गणेश के इस मंदिर को भी तूड़वाकर उस पर एक मस्जिद बनवाने का प्रयास किया था, जिसके कारण मंदिर के गुंबद का आकार आज भी मंदिर की तरह न होकर मस्जिद जैसा ही है, जबकि मंदिर के अंदर की बनावट लक्ष्मी यंत्र की तरह लगती है। लेकिन बाद में स्थानीय लोगों और अन्य श्रद्धालुओं ने यहां पुनः मूर्ति की स्थापना करके, इसमें पूजा-पाठ प्रारंभ कर दिया और इस मंदिर के महत्व को कायम रखा।*
आमतौर पर हर पूजा-पाठ में हम गोबर के गणपति बनाकर उनकी पूजा अर्चना करते हैं। क्योंकि मिट्टी और गोबर की मूर्ति में पंचतत्वों का वास माना जाता है और खासकर गोबर में तो मां लक्ष्मी साक्षात वास करती हैं। इसलिए ‘लक्ष्मी तथा ऐश्वर्य’  प्राप्ती हेतु इसकी पूजा की जाती है।
पण्डितों का कहना है कि,भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को पूजन के लिए हमारे पूर्वज गोबर या मिट्टी से ही गणपति की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते थे और आज भी यहां यह प्रथा प्रचलित है। इसी प्रकार गोबर एवं मिट्टी से बनी भगवान गणेश की प्रतिमाओं को ही पूजन में ग्रहण करते हैं।
*गोबर और मिट्टी से बनी गणेश जी की इस मूर्ति को बनाने में 70 से 75 फीसदी गोबर और 20 से 25 फीसदी मिट्टी और अन्य दूसरी सामग्री का प्रयोग किया गया है।*
गोबर गणेश की इस प्रतिमा की स्थापना कब और किसके द्वारा की गई थी इसके विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है।लेकिन 
*पुरातत्व विद स्व.श्री विष्णुदत्त श्रीधर वाकणकर ने जब इस मूर्ति का निरीक्षण किया था तो उन्होंने पाया कि 10 फुट ऊंची यह मूर्ति लगभग 500 वर्षों से भी ज्यादा पुरानी है। जबकि कुछ लोग इसे करीब 900 वर्ष पुरानी प्रतिमा भी मानते हैं।
गणेश जी की प्रतिमा के हाथ में भी लड्डू हैं, रिद्धि-सिद्धि भी इनके साथ विराजित हैं और मूषक भी इनके चरणों में बैठे हुए है। कमल के फूल पर स्थापित गजानन की ये प्रतिमा* श्रृंगार होने के बाद ओर भी मनमोहक लगने लगती है।
गोबर गणेश मंदिर में आने वाले भक्तों की मान्यता है कि यहां दर्शन करने से भक्तों को भगवान गणेश के साथ मां लक्ष्मी का भी आशीर्वाद मिलता है। 
मान्यता है कि यहां जो भी भक्त अपनी मनोकामना लेकर आता है वह उल्टा स्वास्तिक बनाकर लगाता है और जब उनकी मनोकामना पूरी हो जाती है तो स्वास्तिक को सीधा कर देते हैं। गौरतलब है कि अधिकतर गणेश मंदिर में उल्टा स्वस्तिक बनाने का विधान है। माना जाता है कि ऐसा करने से मनोकामना पूर्ण हो जाती है।
*इस मंदिर की प्राचीनता व प्रसिद्धि के चलते मध्य प्रदेश सरकार द्वारा मंदिर को धार्मिक स्थलों में शामिल किया गया है। मंदिर की देखरेख ‘श्री गोबर गणेश मंदिर जिर्णोद्धार समिति’ करती है।*

शनिवार, 20 अगस्त 2022

स्मार्त मत और भागवत धर्म (वैष्णव सम्प्रदाय)

बड़े से बड़े महापुरुषों को भी अपने आसन (पद) की मर्यादा पालन करना पड़ती है।
मैरे एक गुरु नागा साधु थे। जबतक वे नीचे बैठते तबतक कहते भगवान विष्णु तो परमेश्वर हैं, सब देवों के भी पूजनीय है। श्रीमद्भगवद्गीता का कम से कम एक अध्याय रोज पढ़ना ही चाहिए। भैरव तो काशी के कोतवाल हैं।
लेकिन जैसे ही उनके आसन पर चढ़ कर बैठे, कि, पहला वाक्य बोलते, बैटा भेरू सबसे मोटा। (भैरव ही प्रधान देवता हैं।) 
ऐसे ही आत्मज्ञान सम्पन्न रामसुखदास जी महाराज की भी मर्यादा है‌।
जिस पन्थ में दीक्षित हैं, उसकी बात कहना उनकी मर्यादा है‌।


भागवत धर्म का उल्लेख महाभारत के पहले कहीं नही मिलता। तो महाभारत के पहले तो प्रत्येक विष्णु भक्त वैष्णव स्मार्त ही था। स्मृतियों की रचना के पहले तो हर व्यक्ति श्रोत्रिय अर्थात वैदिक ही था।
जब हर व्यक्ति श्रोत्रिय था तब सम्पूर्ण विश्व ही वैदिक था। असुर भी वेदपाठी ही थे। सम्पूर्ण विश्व में एक संस्कृति थी।
श्रुतियों का अवलम्बन छोड़ जब स्मृति पर अवलम्बित हुए तै केवल जम्बूद्वीप ही श्रोत्रिय , पञ्चमहायज्ञ सेवी रह गया। शेष विश्व में अपने अपने पन्थ स्थापित हो गए। बहुत सी स़स्कृतियाँ हो गई। 
जब विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का प्रभाव जम्बूद्वीप पर भी पड़ा तो अफ्रीका का शैव मत नें इराक मे अपना गढ़ बना लिया। ययाति (इब्राहिम) नें शिवाई धर्म चलाया जो ईरान में मीढ संस्कृति कहलाई। भगवान शंकर मीढीश कहलाये,   (एशिया से लगे युनानी क्षेत्र) क्रीट  में शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा द्वारा स्थापित शाक्त पन्थ का गड़ तिब्बत बन गया। मिश्र का सौर पन्थ का गढ़ ईरान (मग संस्कृति) बन गई । मध्य दक्षिण अमेरिकी गाणपत्य सम्प्रदाय मध्य यूरोप होते हुए दक्षिण भारत में जम गया।
ऐसे अनेक सम्प्रदाय बनने के साथ ईराक के असुर पूजक ज़रथ्रुष्ट नें ईरान में पारसी मत स्थापित किया। उसी समय वेदव्यास जी द्वारा नेमिशारण्य में धर्म सभाएँ आयोजित कर भारत में सभी सम्प्रदायों की मर्यादा नियत कर दी। और स्वयम् नें जय संहिता (महाभारत का मूल स्वरूप) की रचना कर भागवत धर्म की स्थापना की।
 तभी से महाभारत युद्ध उपरान्त भारत क्रमशः कमजोर होता गया। वैदिक ब्राह्म धर्म से ब्राह्मण ग्रन्थों का ब्राह्म धर्म बनने तक तो ठीक था। स्मार्त सनातन धर्म बना वहाँ तक भी चल गया। 
लेकिन बाद में बहुत से मत, पन्थ सम्प्रदाय बनते गये। जिन्हें एकीकृत कर भग्वत्पाद आदि शंकराचार्य जी ने पञ्चदेवोपासना पद्यति तैयार कर और दशनामी संन्यासियों को संगठित कर नागा साधुओं की सेना तैयार कर, अवैदिक मत, पन्थों का खण्डन कर मठ मन्दिर परम्परा स्थापित कर दी। फिर भी वैष्णव, सौर, शैव,शाक्त और गाणपत्यों में भी फिर से अनेक सम्प्रदाय बन गये। पाँचों प्रधान सम्प्रदाय भी परस्पर भिड़ने लगे। तो 
भक्ति काल में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस रच कर पुनः विद्वेश मिटाया।तभी भारत में मुस्लिमों के पैर जम चुके थे। उनने भारतियों को हिन्दू नाम से सम्बोधित करना आरम्भ किया। और अंग्रेज़ो नें तो हमारे धर्म का नाम ही हिन्दू धर्म करके भारत से धर्म ही विलुप्त कर दिया।
अब तिर्थ, श्राद्ध, लंघन रूपी वरत, उपवास, मन्दिर, मूर्ति पूजा, स्तोत्र पाठ, रामचरितमानस पाठ, दुर्गा सप्तशती पाठ, कुछेक स्तोत्र पाठ, तन्त्र, टोटके, तान्त्रिक षडकर्म ही कर्मकाण्ड कहलानें लगे । कथावाचक सन्त कहलानें लगे।  बिना यम नियम के पालन करे आसन, प्राणायाम और बिना प्रत्याहार और बिना धारणा के सीधे ध्यानाभ्यास, तन्त्र का हठयोग के षड कर्म अभ्यास, कुण्डली जागरण  बस यह अध्यात्म कहलाने लगा है।
नित्य, पञ्च महायज्ञ, पञ्चाग्निसेवन, वेदाध्ययन, गुरुकुल, स्वधर्म पालन रूप तप सब भूला दिये गये। यही हिन्दू धर्म अर्थात दास्य धर्म है। जैसा स्वामी (यूरोपीय जाति) चाहती है वैसे ही रहना ही तो दास (हिन्दू) का धर्म है।

बुधवार, 17 अगस्त 2022

व्रत, पर्व, उत्सवों की तिथियों का निर्धारण कैसे होता है।

*व्रत, पर्व, उत्सवों की तिथियों का निर्धारण कैसे होता है।* 

सुचना - यह आलेख समझने में कठिनाई आ सकती है। नीचे दिए गए सुझावों को वैदिक विद्वान धर्मशास्त्री आसानी से समझ सकेंगे।
पौराणिक विरोध करेंगे। वैदिक लेकिन पौराणिक सन्दर्भों और सूर्य सिद्धान्त आदि सिद्धान्त ग्रन्थों के आधार पर सायन मकर संक्रान्ति से उत्तरायण आरम्भ मानने वाले, और सायन मीन संक्रान्ति से वसन्त ऋतु और मधुमास आरम्भ मानने वाले भी विरोध करेंगे।

आकाश में विषुव व्रत को भूमि का परिभ्रमण मार्ग क्रान्तिवृत दो स्थानों पर काटता है।  जिसे सम्पात कहते हैं। उत्तरी सम्पात वसन्त ऋतु में पड़ता है अतः वसन्त सम्पात कहलाता है। और दक्षिण सम्पात शरद ऋतु में पड़ता है इसलिए उसे शरद सम्पात कहते हैं। सायन गणना में वसन्त सम्पात को आरम्भ बिन्दु मानकर उससे पूर्व में विशुवांशो और भोगांश की गणना करते हैं।
जबकि नक्षत्रीय गणना में क्रान्तिवृत के उत्तर दक्षिण दोनों ओर लगभग नौ नौ अंशो की सीमा मानकर भचक्र माना जाता है। प्लुटो को छोड़ कर सभी ग्रहों का परिभ्रमण मार्ग इसी पट्टी में ही पड़ता है। स्थिर तारों की इस पट्टी को भचक्र/ नक्षत्र पट्टी या फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) कहते हैं।
इस भचक्र/ नक्षत्र पट्टी या फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) में स्थिर और द्युतिमान तारों से कुछ आकृतियों की कल्पना की गई । उन आकृतियों को नक्षत्र कहते हैं। वैदिक काल में २८ नक्षत्र मानें गए थे। लेकिन परवर्ती काल में अभिजित नक्षत्र नक्षत्र पट्टी की सीमा से बाहर हो जाने के कारण वर्तमान में सत्ताईस नक्षत्र ही माने जाते हैं। इराक के बेबिलोनिया में बारह राशियों की आकृति की कल्पना की गई। अतः वे बारह राशियाँ मानते थे। आधुनिक वैज्ञानिक तेरह साइन और ८८ तारामण्डलों की कल्पना को मान्यता देते हैं। लेकिन इन तारा मण्डलों की उत्तर-दक्षिण में कोई सीमा नहीं है। ऐसे ही सर्पधारी नामक नई राशि भी नक्षत्र पट्टी की सीमा से बाहर है।
नक्षत्र का मतलब ही जो क्षत न हो खिसके नही स्थिर स्थित हो। इस परिभाषा के अनुसार ही तारों को नक्षत्र कहा जाता है लेकिन रूढ़ अर्थ मे वे आकृतियाँ जो अति प्राचीन काल से एक समान बनी हुई है वे नक्षत्र कहलाती हैं। मृगशीर्ष में तीन तारे एक पंक्ति में हैं तो, हस्त नक्षत्र में चार तारे एक चतुष्कोण बनाते हैं तो, कृतिका में छः तारों का समुह है। शतभिषा में सौ तारों का समुह माना जाता था। वर्तमान में शतभिषा में ८८ तारे दिखाई देते हैं। जबकि चित्रा में एक ही तारा है। रेवती का योगतारा झीटापिशियम तारा लगभग चार अंश आगे बढ़ गया/ खिसक चुका है। इसकारण चित्रा से १८०° पर कोई तारा नही है। 
वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में चित्रा तारे को भचक्र के मध्य में अर्थात १८०° पर माना गया है। किन्तु चित्रा से १८०° पर कोई तारा नही होनें के कारण नक्षत्रीय गणना में आरम्भ बिन्दु पर कोई तारा नही है। किन्तु चूँकि, वैदिक काल में नक्षत्रीय गणना में सूर्य- चन्द्रमा, और ग्रहों द्वारा नक्षत्रों की इन विशिष्ट आकृतियों के भेदन करने या निकट से गुजरनें पर कहा जाता था कि, अमुक ग्रह अमुक नक्षत्र में है। और उससे १८०° के नक्षत्र को देख रहा है। जब तक अंशात्मक / दिगंश में गणना नही होती थी इसलिए कोई समस्या नही थी। लेकिन वर्तमान में निरयन गणना नाम से नक्षत्रीय गणना में भी चित्रा तारे से १८०° पर स्थित काल्पनिक बिन्दु को आरम्भ बिन्दु/ निरयन मेषादि बिन्दु मानकर अंशात्मक गणना की जाती है। इसके लिए तीस तीस अंशों की निश्चि  भोगांश वाली बारह राशियाँ इराक के बेबीलोनिया वाली बारह राशियों के समान मान ली गई। और इन राशियों के आरम्भ बिन्दु पर सूर्य होनें (या सूर्य केन्द्रीय गणना में जिस राशि के आरम्भ बिन्दु से १८०° पर भूमि आ जाती है) उसे संक्रान्ति कहते हैं। जबकि इस गणना उत्तर दक्षिण परम क्रान्ति का कोई सम्बन्ध नही होनें से संक्रान्ति शब्द सिद्ध ही नही होता। संक्रान्ति शब्द केवल सायन संक्रान्तियों के लिए ही उचित और सही है। लेकिन संक्रमण के अर्थ में इसे संक्रान्ति कहा जाता है।
सायन गणना भी वसन्त सम्पात अर्थात पात से आरम्भ होती है। उसमें तारों की कोई भूमिका ही नही है।
सायन गणना मूल रूप में विषुव वृत में विषुवांश की गणना करता है साथ ही उत्तर दक्षिण क्रान्ति भी दर्शाई जाती है। लेकिन यह कोई बाध्यता नहीं है। भारतीय क्रान्तिवृत में भी सायन गणना मान्य करते हैं और साथ में आकाशीय अक्षांश अर्थात शर भी दर्शाते हें। लेकिन निरयन गणना नक्षत्र पट्टी आधारित होने के कारण निरयन गणना में क्रान्तिवृत में ही राशि अंशात्मक गणना दर्शाते हैं और शर दर्शाने के अलावा क्रान्ति भी दर्शाते हैं।

ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद, कृष्ण यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद संहिताओं, में उल्लेख के अनुसार संवत्सर आरम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ वसन्तोत्सव और मधुमास आरम्भ  का पर्वोत्सव विषुव दिवस सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) का दिन सबसे मुख्य पर्व उत्सव होता था।
सावन वर्ष ३६० दिन का समाप्त होने के बाद संवत्सर में  गणना किये बगैर पाँच दिन सामुहिक यज्ञ, और उत्सव होता था। 
इसके अलावा दक्षिण तोयन, दक्षिण परम क्रान्ति, सायन कर्क संक्रान्ति (२२ जून), शारदीय विषुव दिवस, शरद ऋतु आरम्भ/ शरदोत्सव , सायन तुला संक्रान्ति (२३ सितम्बर), उत्तर तोयन उत्तर परम क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति (२२ दिसम्बर) ही मुख्य पर्वोत्सव थे। 
इनके अलावा ऋतु आरम्भ के पर्व भी सौर संक्रान्तियों पर आधारित थे। / 
मास संक्रान्ति पर भी स्नान दान और पर्वोत्सव मनाते थे।

 *मास संक्रान्ति (सायन संक्रान्ति) दिवस* 

१ *मधुमास २१ मार्च। वसन्त ऋतु। उत्तरायण। वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक और पौराणिक वसन्त ऋतु मधुमास २१ मार्च। वसन्त ऋतु। उत्तरायण।* 

२ *माधव मास २१ अप्रेल।वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक  वसन्त ऋतु, पौराणिक ग्रीष्म ऋतु, माधव मास २१ अप्रेल।* 

३ *शुक्रमास २२ मई। ग्रीष्म ऋतु। वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक  और पौराणिक ग्रीष्म ऋतु,  शुक्रमास २२ मई। ग्रीष्म ऋतु।* 

४ *शचि मास २२ जून। दक्षिण तोयन। वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक ग्रीष्म ऋतु, पौराणिक वर्षा ऋतु,  शचि मास २२ जून। दक्षिण तोयन।* 

५ *नभस मास २३ जुलाई। वर्षा ऋतु। वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक और पौराणिक वर्षा ऋतु ,नभस मास २३ जुलाई। वर्षा ऋतु।* 

६ *नभस्य मास २३ अगस्त।वैदिक उत्तरायण (पौराणिक उत्तर गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक वर्षा और पौराणिक शरद ऋतु, नभस्य मास २३ अगस्त।* 

७ *ईष मास २३ सितम्बर।शरद ऋतु। दक्षिणायन। वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक और पौराणिक शरद ऋतु, ईष मास २३ सितम्बर।शरद ऋतु। दक्षिणायन।* 

८ *ऊर्ज मास २३ अक्टूबर।वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक  शरद ऋतु, पौराणिक हेमन्त ऋतु, ऊर्ज मास २३ अक्टूबर।*

९ *सहस मास २२ नवम्बर। हेमन्त ऋतु।वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक उत्तर तोयन (पौराणिक दक्षिणायन), वैदिक   और पौराणिक हेमन्त ऋतु, सहस मास २२ नवम्बर।*

१० *सहस्य मास २२ दिसम्बर। उत्तर तोयन।हेमन्त ऋतु। वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक हेमन्त ऋतु, पौराणिक शिशिर ऋतु, सहस्य मास २२ दिसम्बर। उत्तर तोयन।* 

११ *तपस मास २० जनवरी। शिशिर ऋतु। वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक और पौराणिक शिशिर ऋतु, तपस मास २० जनवरी। शिशिर ऋतु।* 

१२ *तपस्य मास १९ फरवरी।वैदिक दक्षिणायन (पौराणिक दक्षिण गोल), वैदिक दक्षिण तोयन (पौराणिक उत्तरायण), वैदिक शिशिर और पौराणिक वसन्त ऋतु,तपस्य मास १९ फरवरी।* 

जब नाक्षत्रीय पद्यति पर आधारित निरयन संक्रान्तियों और निरयन संक्रान्तियों पर आधारित चैत्र, वैशाख आदि मास बने तो भी संवत्सरारम्भ की तिथि वसन्त विषुव अर्थात मधुमासारम्भ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) की ही मुख्यता रही। 
जिस निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चैत्र- वैशाखादि चान्द्र मास में वसन्त विषुव अर्थात मधुमासारम्भ सायन मेष संक्रान्ति (२१ मार्च) पड़ता है वही प्रथम मास माना जाता है। इस कारण मधु मास सायन मीन के सूर्य में १९ फरवरी से २० मार्च तक माना जाने लगा।  जबकि होना यह चाहिए था कि, मधुमास मे सायन मेष के सूर्य में (२१ मार्च से २० अप्रेल के बीच) जो निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चैत्र- वैशाखादि चान्द्र मास पड़े उसे ही प्रथम मास माना जाना चाहिए था।  
वैदिक काल में अमावस्या, पूर्णिमा, अष्टका- एकाष्टका और नक्षत्रों के व्रत, पर्व, उत्सवों की तिथियों का निर्धारण कैसे होता था।
संहिताओं और (आरण्यकों उपनिषदों सहित) ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार कुछ अमावस्याओं को व्रत और दीपोत्सव और  पूर्णिमाओं को व्रत और रात्रि जागरण उत्सव मानते थे। अष्टका एकाष्टका ( शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी) के व्रत पर्व भी प्रचलित थे।
श्रोतसुत्रों और विशेषकर ग्रह्य सुत्रों में व्रत, पर्व उत्सवों का विस्तार से वर्णन, विवरण और विधि- निषेध बतलाये गये हैं।
कुछ पर्व सायन सौर (मधु- माधव आदि) मासों में नक्षत्र विशेष के दिन पर्व आरम्भ हुए।
तिथियों का उत्पत्ति इसी से हुई थी ‌।
आजकल सम्प्रदायों और पन्थो के आगम ग्रन्थ़ और विशेष आम्नाय के अनुसार ही व्रत, पर्व और उत्सव की तिथियाँ निर्धारित होती है
इसका विवरण आगे दिया है।

 *पञ्चाङ्ग कौनसी सही है।* 

पञ्चाङ्ग एस्ट्रोनॉमी का विषय है।   सम्बन्धित देश के मानक समय में परिवर्तन हेतु समयान्तर जोड़/ घटा कर एक ही पूरे विश्व में एक समान उपयोगी हो सकती है। 

भारत की राष्ट्रीय इफेमेरीज, कोलकाता और जीवाजी वैधशाला उज्जैन से प्रकाशित पञ्चाङ्ग तथा श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम सायन मत की पञ्चाङ्ग हैं इसमें *धर्म कर्म हेत उपयोगी मोहन कृति वैदिक पत्रकम पञ्चाङ्ग  अधिक उपयोगी है।*  
अंग्रेजी पञ्चाङ्गो में निरयन पद्यति में लाहिरी की इण्डियन इफेमेरीज, भारत शासन द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग, केतकी सिद्धान्त पर आधारित पञ्चाङ्ग और मिश्रा की इण्डियन इफेमेरीज के अलावा आजकल केतकी सिद्धान्त पर आधारित पञ्चाङ्ग प्रकाशित हो रहे हैं वे ही निरयन मतावलंबियों के लिए की  ही सही पञ्चाङ्ग हैं। 

पूर्वकाल में व्रतों, पर्वों और उत्सवों का विकास और निर्धारण कैसे हुआ? 

 *वैदिक काल से पुष्यमित्र शुङ्ग  के काल तक।* 

वैदिक काल में तो वसन्त विषुव से संवत्सर आरम्भ होकर सायन संक्रान्ति वाले मधु, माधव मास, अयन और तोयन चलते थे। उत्तरायण/ दक्षिणायन दिवस, उत्तर तोयन/ दक्षिण तोयन दिवस या वर्तमान नामकरण के अनुसार उत्तर गोल, दक्षिणायन, दक्षिण गोल और उत्तरायण के आरम्भ दिवस, जैसे वर्तमान में संवत्सरारम्भ (वैशाखी / विशु, मेषादि,गुड़ी पड़वा, युगादि)मनाते हैं, निरयन मकर संक्रान्ति आदि मनाते हैं। ऋतु आरम्भ दिवस जैसे वर्तमान में वसन्त पञ्चमी, शरद पूर्णिमा मनाते हैं। मास संक्रान्ति वर्तमान में निरयन संक्रान्ति पर स्नान दान आदि करते हैं। इनके अतिरिक्त अर्ध चन्द्र दिवस अष्टका/ एकाष्टका, पूर्णिमा पुनः अर्ध चन्द्र दिवस अष्टका/ एकाष्टका,और अमावस्या पर कुछ व्रत पर्व उत्सव होते थे। जैसे वर्तमान में हरियाली अमावस्या (दिवासा), श्रावणी (रक्षाबंधन), जन्माष्टमी, शरदपूर्णिमा, दिवाली, नव धान्येष्टि अन्नकूट, होली, नव सस्येष्टि होला - उम्बी सेकना, नारियल का होम करना आदि होता है। इनके अलावा मधु माधव मासों में चन्द्रमा किसी विशेष नक्षत्र के साथ होनें के आधार पर कुछ महत्वपूर्ण दिन अर्थात पर्व निर्धारित होते थे। जैसे वर्तमान में कुछ लोग निरयन सिंह के सूर्य और रोहिणी नक्षत्र में चन्द्रमा के दिन श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं। नवरात्र में भी मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ और श्रवण नक्षत्र में सरस्वती का आव्हान, पूजन, बलिदान और विसर्जन करते हैं। इन्हीं का विकसित विकल्प तिथियाँ है।
इन सबका वर्णन ग्रह्यसुत्रों में देखा जा सकता है।

 *पुष्यमित्र शुङ्ग , उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य, गुप्त वंशी चन्द्रगुप्त द्वितीय, धार के राजा भोज और विजय नगर साम्राज्य के समय में हुए बड़े बड़े आचार्यों और पण्डितों जिनमें वराहमिहिर, हेमाद्रिपंत, सायणाचार्य, माध्वाचार्य, बोपदेव और उनके अनुयाई कमलाकर भट्ट आदि नें  सबकुछ बदल दिया है।*
 *सायन संक्रान्ति का स्थान निरयन संक्रान्तियों ने ले लिया।  नक्षत्रों के स्थान पर तिथियाँ स्थापित हो गई।* 

पुष्यमित्र शुङ्ग के बाद से विक्रमादित्य तक कई स्मतियों की में संशोधन हुए। इसके बाद
विक्रमादित्य से गुप्त वंशी चन्द्रगुप्त द्वितीय तक अधिकांश वर्तमान प्रचलित पुराणों की रचना हुई।
गुप्त वंशी चन्द्रगुप्त द्वितीय से धार के राजा भोज तक भागवत पुराण, भविष्य पुराण, गरुड़ पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि रचे गए।
विजय नगर साम्राज्य से ब्रिटिश काल तक अधिकांश निबन्ध ग्रन्थ लिखे गये।

 *धर्मशास्त्र के अनुसार व्रत, पर्व उत्सव निर्धारित होते हैं।*
*जो सनातन धर्म के लिए प्रायः निर्णय सिन्धु ग्रन्थ और उसकी मेड इजी (कुंजी) धर्म सिन्धु सर्वमान्य हैं।* 
विजयनगरम साम्राज्य में मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रहस्पति स्मृति, पाराशर स्मृति, भविष्य पुराण, गरुड़ पुराण, स्कन्द पुराण, अग्नि पुराण आदि सभी पुराणों के मत एकत्रित कर निबन्ध ग्रन्थ लिखे गये। जिसमें स्मृति रत्नाकर, हेमाद्रिपन्त रचित चतुर्वर्ग चिन्तामणी , सायणाचार्य के भाई  माध्वाचार्य रचित कालमाधव ग्रन्थ मुख्य है।

 *निर्णय सिन्धु में पूर्व प्रचलित गोड़मत, मैथिल मत और दाक्षिणात्य मत के निबन्ध ग्रन्थो का अध्ययन कर रुद्रयामल, शाबर तन्त्र आदि का खण्डन कर  कमलाकर भट्ट ने सम्पूर्ण भारत में लगभग सर्वमान्य निबन्ध ग्रन्थ निर्णय सिन्धु की रचना की। निर्णय सिन्धु के निर्णयों के आधार पर काशीनाथ नें धर्मसिंधु ग्रन्थ रचा,ये ग्रन्थ अधिकांश भारत में ही सर्वाधिक स्वीकार्य हैं।* 

फिर भी गोड़मत मानने वाले , राजस्थान, और उत्तरप्रदेश, बिहार, और बङ्गाल- उड़िसा पूर्व भारत में कुछ मामलों में ये ग्रन्थ स्वीकार नही किए जाते। ऐसे ही  कुछ दाक्षिणात्य मतावलम्बी आचार्य भी इसे पूर्णतः स्वीकार नहीं करते। मैथिली मतावलंबियों के भी अपनी नीजी परम्परा प्रचलित है।
जैसे ---  गोड़मत में वटसावित्री अमावस्या तो निर्णय सिन्धु में वट सावित्री पूर्णिमा।
नाग पञ्चमी -- गोड़ मत में अमान्त आषाढ़ पूर्णिमान्त श्रावण कृष्ण पञमी को और निर्णय सिन्धु में श्रावण शुक्ल पञ्चमी को मनाते हैं।

इसके अलावा वैष्णवों के निम्बार्क सम्प्रदाय, भास्कराचार्य का सम्प्रदाय, रामानुजन सम्प्रदाय इसमें भी स्वामीनारायण सम्प्रदाय, रामानन्द सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदाय (पुष्टि मत), श्रीकृष्ण चेतन्य महाप्रभु का गोड़िय सम्प्रदाय,  (इसमें भी इस्कान), मध्व सम्प्रदाय आदि वैष्णव सम्प्रदाय, सौर सम्प्रदाय, शैव सम्प्रदाय, पाशुपत सम्प्रदाय,  शाक्त सम्प्रदाय में तो बहुत से पन्थ हैं।  नाथ सम्प्रदाय,सतनामी सम्प्रदाय,लिङ्गायत सम्प्रदाय, उदासीन सम्प्रदाय, दशनामी सम्प्रदाय, कबीर पन्थी, नानक पन्थी, निरंकारी पन्थ, राधास्वामी सम्प्रदाय, खालसा पन्थ सबकी अपनी अपनी अलग-अलग परम्पराएँ हैं। उनके निर्णय उनके मत/ पन्थ/ सम्प्रदाय/ आम्नाय  और आगम ग्रन्थों / शास्त्रों के आधार पर ही होता है। सब एक दूसरे से अलग अपना मत ही सही मानते हैं।
इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, और ग्रह्यसुत्रों तथा स्मृतियों तक नियम रहा कि, 
१  व्रत, पर्व, उत्सव उस दिन मनाया जाए जिस दिन सम्बन्धित व्रत, पर्व उत्सव के मुख्य पर्व काल के समय सम्बन्धित तिथि रहे। और
२ व्रत समाप्ति के बाद (व्रत के दुसरे दिन) अगली तिथि में ही पारण करनें (भोजन करनें) पर ही व्रत पूर्ण माना जाता है।
अतः स्मार्त जन अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद अष्टमी को उस दिन जन्माष्टमी मनाते हैं
१  जिस दिन मध्यरात्रि के समय अष्टमी तिथि हो।
२ यदि महानिशिथ काल (मध्यरात्रि से २४ मिनट पहले से मध्यरात्रि के २४ मिनट बाद तक) अष्टमी दो दिन हो तो नवमी युक्त अष्टमी उदीयात् अष्टमी तिथि में व्रत कर दुसरे दिन में नन्दोत्सव कर पारण करते हैं।
या 
३ दोनो दिन महानिशिथ काल में अष्टमी तिथि न हो तो नवमी युक्त अष्टमी उदीयात् अष्टमी तिथि में व्रत कर दुसरे दिन नवमी में नन्दोत्सव कर पारण करते हैं।
जबकि, निम्बार्क सम्प्रदाय, और रामानुजन सम्प्रदाय के लिए अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद अष्टमी के साथ सूर्योदय के समय रोहिणी नक्षत्र में चन्द्रमा होना आवश्यक है।
वल्लभ सम्प्रदाय के लिए भी सूर्योदय के समय अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद अष्टमी होनें का ही महत्व है।
स्मार्त जन एकादशी के दुसरे दिन द्वादशी तिथि में ही पारण करना (भोजन करना) आवश्यक मानते हैं। उनके लिए सूर्योदय के समय एकादशी तिथि होना आवश्यक नही है।
जबकि,

१ दशमी तिथि सूर्योदय से ५६ घटि (२२ घण्टे २४ मिनट) तक या ५६ घटि के बाद तक रहकर उसके बाद एकादशी लगे तो पौराणिक वैष्णव द्वादशी तिथि में एकादशी नामक व्रत करते हैं। 

२ दशमी तिथि सूर्योदय से ५५ घटि (२२ घण्टे) तक या ५५ घटि के बाद तक रहकर उसके बाद एकादशी लगे तो रामानुजन सम्प्रदाय और वल्लभ सम्प्रदाय, और मध्व सम्प्रदाय वाले द्वादशी तिथि में एकादशी नामक व्रत करते हैं। 

३ दशमी तिथि मध्यरात्रि तक या मध्यरात्रि के बाद तक रहकर उसके बाद एकादशी लगे तो निम्बार्क सम्प्रदाय वाले द्वादशी तिथि में एकादशी नामक व्रत करते हैं। 

इस कारण प्रति वर्ष सभी व्रत, पर्व उत्सव दो- दो या तीन अलग अलग दिन मनाए जाते हैं।
इससे सनातन वैदिक धर्म बदनाम होता है।
अन्य मतावलंबियों के व्रत पर्व उत्सव उनके शास्त्रों में दिये गये निर्देशों से निर्धारित होते हैं।
यहुदियों और ईसाइयों के व्रत पर्व उत्सव यहुदी केलेण्डर के आधार पर बाईबल पुराना नियम  में उल्लेखित ऐतिहासिक घटनाओं कई तिथियों कै मनाते हैं। और नया नियम के अनुसार यीशु से सम्बन्धित व्रत उत्सव ईसाई मनाते है़।
इस्लामिक व्रत उत्सव इस्लामी चान्द्र केलेण्डर से कुरान और हदीसों में उल्लेखित ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों के आधार पर मनाते हैं।

सनातन धर्म के व्रत पर्व उत्सव पूरे भारत में एक साथ मनानें के लिए निम्नलिखितानुसार परिवर्तन हो सकता है।⤵️

वैदिक काल में तिथियाँ ही प्रचलित नही थी।
वेदों में पूर्णिमा अमावस्या, अर्ध चन्द्र दिवस के लिए अष्टका एकाष्टका नाम मिलते हैं। लेकिन  सूर्य चन्द्रमा में १२° अन्तर वाली तिथियों से इनका कोई सम्बन्ध नही है।
ऐसा कोई प्रमाण नही है कि, सूर्य और चन्द्रमा में ३५४° से ०६° तक के अन्तर को अमावस्या कहते थे, या वर्तमान प्रचलित ३४८° से ३६०° अन्तर को अमावस्या कहते थे या ००° से १२° अन्तर को अमावस्या कहते थे।
तदनुसार तो सूर्य और चन्द्रमा में ३५४° से ०६° तक के अन्तर को अमावस्या ही अधिक उचित लगता है। सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर १७४° से १८६° तक होनें कै पूर्णिमा ओर ८४° से ९६° तक अष्टमी और २६४° से २७६° तक तेवीसवीं   तिथि (कृष्णाष्टमी) मानी जाना उचित होगा। शेष कोई तिथि नहीं हो।
त्रिकोण दर्शक ११४° से १२६° तक एकादशी, २३४° से २४६° तक एक्कीसवीं तिथि (कृष्ण पक्ष की षष्टी तिथि) भी रखी जा सकती है। जो कृष्णपक्ष की एकादशी (३००° से ३१२° तक) या २९४° से ३०६°तक की तुलना में अधिक सार्थक कोण है।
जब तिथि ही नही थी तो करण का कोई अर्थ ही नही।
नक्षत्र ---
असमान भोग वाले और एक विशेष आकृति वाले क्षेत्र को नक्षत्र कहते थे। नक्षत्रों की सीमा निर्धारक आरम्भ बिन्दु और अन्तिम बिन्दु पर निर्धारित तारे रहते हैं। इसलिए भचक्र में इन वास्तविक नक्षत्र (आकृतियों) के नाक्षत्रीय (निरयन) भोगांश अलग अलग हैं। 
 नक्षत्रों में योग तारा का विशेष महत्व है।योगतारा से ग्रहों की युति वाली स्थिति का विशेष महत्व होता हैं। 
समान भोग वाले नक्षत्रों की तो कल्पना भी नहीं थी।
१३° २०' के समान भोग वाले नक्षत्र और सूर्य चन्द्र के एक समान (१२° के) अन्तर की तिथि की अवधारणा के आधार पर सूर्य और चन्द्रमा के भोगांशो के योग का सत्ताइसवाँ भाग वाले योग की अवधारणा तीनों ही निराधार  है।
इसमें सूर्य और चन्द्रमा के सायन भोगांशों के योग १८०° व्यतिपात और योग ३६०° (०००°) को वैधृतिपात योग (दोनों पात) ही उपयोगी है।
तदनुसार चन्द्र कलाओं के आधार पर बाद में तिथियों की अवधारणा बाद बनी होगी।
फिर करण और योग की अवधारणा आई । वार तो बेबीलोनिया और मिश्र की नकल मात्र है। शायद इसमें भारतीय अकल लगाई गई होती तो दशाह प्रचलित होता। यदि सप्ताह भी मानते और ग्रहों से जोड़ना होता तो १ सोम (चन्द्र), २ बुध, ३ शुक्र, ४ भूमि (या रवि), ५भौम (मंगल), ६ ब्रहस्पति (गुरु), ७ शनि का क्रम होता। 
वेदों में दशाह, सप्ताह, वासर आदि शब्द अवश्य आये हैं, लेकिन मिश्र या बेबीलोनिया वाले वारों से इनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। 
वासर और वार दोनों ही सूर्योदय से बदलते हैं और एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक रहते हैं।
रात बारह बजे Day & Date (डे और डेट) बदलते हैं, वार नहीं।

विद्वान इस सुझाव पर भी ध्यान दें।

खगोल, गणित/ एस्ट्रोनॉमी (Astronomy) के ऐसे जानकार जो १ संस्कृत व्याकरण और निरुक्त - निघण्टू और वेदज्ञ, श्रोत सुत्रों, ग्रह्यसुत्रों और धर्मसुत्रों और मीमांसा के भी जानकार हों, २ जो खगोल, गणित/ एस्ट्रोनॉमी (Astronomy) में प्रवीण हो। ३ वेदज्ञ, श्रोत सुत्रों, ग्रह्यसुत्रों और धर्मसुत्रों और मीमांसा के भी जानकार हों ऐसे लोगों की समिति बनाई जाए।
जिसमें इन सुझावों पर विचार हो।

१ नक्षत्रीय गणना में मुख्यता नक्षत्रों में सूर्य चन्द्रमा और ग्रहचार का विचार मुख्यता हो।
२ निरयन सासारम्भ को संक्रान्ति न कहते हुए नवीन नामकरण किया जाए।
३ सायन सौर संक्रान्तियों से सम्बद्ध चान्द्र मासों के नवीन नामकरण किया जावे। जिसे संख्यात्मक नाम या ऋग्वेदोक्त पवित्रादि २६ पक्षों के नामों के आधार पर नामकरण किया जाए। क्योंकि, सायन गणना में नक्षत्रों की कोई भूमिका नहीं होती।
४ सप्ताह के स्थान पर दशाह लागु किया जाए जिसमें क्रमशः
१ रविवासर  २ सोमवासर  
३ बुधवासर  ४ शुक्र वासर  
५ भूमि वासर ६ भौमवासर (मंगलवासर)
७ गुरु ब्रहस्पतिवासर  ८ शनिवासर
९ अरुणवासर १० वरुणवासर 
नाम रखे जा सकते हैं। पहले दो नाम सूर्य चन्द्र के नाम पर शेष आठ नाम ग्रहों के कक्षा क्रमानुसार रखे गए हैं।
कल्प संवत को नाक्षत्रीय सौर वर्ष मानकर अहर्गण गणना करने पर निरयन मेष मासारम्भ (निरयन मेष संक्रान्ति) दिनांक १४ अप्रैल १९९९ रविवार के दिन दशाह का प्रथम दिन रविवासर आता है।

५ उचित यही होगा कि, केवल अयन, तोयन,ऋतुएं और क्रान्ति - शर के उल्लेख स्पष्ट हैं, अतः संक्रान्ति (सायन संक्रान्ति) को ही मान्यता देना, और दो संक्रान्तियों के बीच सावन दिवस/ दिनांक, गते या गतांश/ वर्तमान अंश की अवधारणा स्वीकारी जाना उचित होगा। 
६सूर्य का माह और चन्द्रमा का नक्षत्र ( या नक्षत्र के योग तारा) के साथ चन्द्रमा होनें के आधार पर पर्व व्रतोत्स्व आदि का वर्णन भी मिलता है। जो दक्षिण भारत और नवरात्र प्रकरण में बङ्गाल क्षेत्र में आजतक प्रचलित है। यही प्रभाव श्रीकृष्ण जन्माष्टमी में भी दिखलाई देता है।

सुचना --- वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय वाले आदरणीय बापूदेव शास्त्री (नृसिंह), आदरणीय शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी, आदरणीय व्यंकटेश बापूजी केतकर द्वारा आरम्भ किया गया यह सुधार कार्यक्रम जिस दिन धर्मशास्त्री गण समझ लेंगे। उसदिन बहुत बड़ी धार्मिक क्रान्ति हो जायेगी।   
जैसे महर्षि औषस्तिपाद नें यज्ञ में आव्हान किये गये देवताओं और यज्ञ की क्रियाओं को जाने - समझे बिना यज्ञ करनें वाले होता, अर्ध्वयु, उद्गोता आदि ऋत्विजों को चुनौती देकर समर्पण करवाया था वैसे ही आज की तिथियों में  व्रत, पर्व और उत्सव मनाने की चर्चा करनें वालों को हर समझदार व्यक्ति चुनोती देकर समर्पण करवा देगा।
जैसे महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के समय कर्मकाण्ड और सामाजिक क्रान्ति हुई तथा उन्ही के शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द जी के समय असाधारण सामाजिक क्रान्ति हुई थी। वैसी ही क्रान्ति व्रत, पर्व, उत्सवों के सम्बन्ध में भी हो जायेगी। कौनसा व्रत, पर्व, उत्सव, कब और क्यों मनाते हैं यह निर्भ्रान्त समझ हर व्यक्ति को हो जायेगी ‌।

अतः अब व्रत पर्व और उत्सवों के दिन कैसे निर्धारित किये जाएँ? इसके लिए नीचे दिए गए सुझावों को वैदिक विद्वान धर्मशास्त्री आसानी से समझ सकेंगे।

 *अतः तिथियों का चक्कर छोड़ सायन सौर मास  और संक्रान्ति गते के अनुसार सभी व्रत, पर्व और उत्सव निर्धारित किये जाना उचित होगा। इसके लिए अधिकांश व्रत, पर्व उत्सवों को तो चैत्र को मधुमास, सायन मेष का सूर्य मानकर तिथी के वास्तविक अंक अर्थात कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को १६ द्वितीया को १७ मानकर अमावस्या को ३० मानकर उन्हीं अंको के संक्रान्ति गते, या गतांश मानकर व्रत, पर्व और उत्सव निर्धारित कर लिये जाएँ।

*जैसे जन्माष्टमी के लिए वर्षा ऋतु में सायन सिंह संक्रान्ति से सायन कन्या संक्रान्ति के बीच सूर्य चन्द्रमा में अन्तर २६४° से २७८° हो उस दिन जन्माष्टमी मनाई जाती है ऐसा मानकर नभस मास २३° या सायन सिंह राशि के वर्तमान अंश २३° या सायन सिंह गते २३ की मध्य रात्रि में श्रीकृष्ण जन्म मनाया जाए। ताकि, यह पर्व, उत्सव सदैव वर्षा ऋतु में ही आयेगा।

इसके अलावा 

*शरद पूर्णिमा के लिए शरद ऋतु में सप्तम- ईष मास के बीच सायन तुला से वृश्चिक संक्रान्तियों के बीच   सूर्य चन्द्रमा के बीच १७४° से १८६° अन्तर, पूर्णिमा के दिन को  निर्धारित किया जाए।* 
और 
*दीपोत्सव के लिए शरद ऋतु में अष्टम- ऊर्ज मास में सायन वृश्चिक से धनु संक्रान्तियों के बीच सूर्य चन्द्रमा के बीच ३५४° से ०६° अन्तर अमावस्या का दिन निर्धारित किया जाए। ताकि दिपोत्सव शरद ऋतु में रात्रि के अन्धकार में मनाया जा सके।* 

*जिसदिन मृगशीर्ष तारामण्डल (Orionis)(नाक्षत्रीय/ निरयन मिथुन ००° से ०१°) या व्याघ तारा (Sirius canis majoris) नाक्षत्रीय/ निरयन मिथुन २०° तारा पर भूमि हो। अर्थात सूर्य नाक्षत्रीय/ निरयन धनु ००° से ०१° के बीच हो या सूर्य नाक्षत्रीय/ निरयन धनु २०° पर होकर  व्याघ या मृगशीर्ष तारामण्डल पूर्ण रात्रि दृष्यमान हो उसदिन महाशिवरात्रि मानी जाए।*

सुचना --- 

स्थिर तो कोई भी पिण्ड नहीं है। कुछ की कोणीय गति अधिक है,  कुछ की कम है।
यह उनकी अपनी निहारिका में  स्थिति, हमारी निहारिका और फिर हमारे सूर्य से कोणीय स्थिति के आधार पर उनकी गति निर्भर होती है।
मघा और चित्रा बहुत कम खिसकते हैं। अभिजित तो बहुत अधिक खिसक गया। परिणाम स्वरूप उसे नक्षत्रों में से ही हटा दिया गया। और अट्ठारह के स्थान पर सत्ताइस नक्षत्र ही रह गये।

शनिवार, 13 अगस्त 2022

विष विज्ञानी भगवान शंकर।

वैदिक काल में वसन्त ऋतु में पूर्णिमा के दुसरे दिन और शरद ऋतु में अमावस्या के दुसरे दिन होनें वाले इष्टि (यज्ञों) में फसलों और उपज का आवण्टन होता था जिसे यज्ञभाग आवण्टन कहते थे।  जो आज भी होली पर होला - उम्बी सेकनें और नारियल की आहुति देने तथा दीपावली के दीपकों में ज्वार, गन्ना और साल (धान) की धानी के हवन के रूप में प्रचलित है। 
लगभग इसी समय खलिहानों से पूरोहितों (पण्डितों/ परसाइयों) तथा नाई, कुम्भकार, ढोली, दरजी आदि सेवा क्षेत्र के शुद्रों और धोबी, बलाई (चोकिदार) तथा चरवाहों को फसल का  भाग देनें की ग्रामों में प्रथा है।
प्रजापति ने रुद्रों को यज्ञभाग निषिद्ध किया था।

ऋग्वेद के अनुसार जब शंकर जी भारत में आये तब वे पशुओं के कुशल चरवाहे के रूप में रहे। पशु चिकित्सा में विशेषज्ञ थे। इसलिए उन्हें पशुपति का पदभार सोपा गया। इसी चिकित्सा प्रयोग में वे विभिन्न औषधियों पर प्रयोग करते रहते थे। शंकर जी बहुत बड़े विष विज्ञानी थे। वे नन्दीगणों और व्रातगणों के नायक बनें  इसी कारण वे बहुत से विषों का प्रयोग स्वयम् पर और उनके अपने साथी व्रातगणों पर करते थे। बाद में प्रमथ गणों नें भी उन्हें अपना नायक चूना। इसलिए वे गणाधिपति कहलाये।  ईरान की मीढ संस्कृति नें भी उनके गुणों को पहचान कर उन्हें पूज्य घोषित किया।
उनकी हीमेन पर्सनेलिटी, नङ्ग-धड़ङ्ग घूमनें और दृविड़ क्षेत्र के ऋषियों की पत्नियों के उनके प्रति आकर्षित होनें के कारण वैदिक ऋषिगण उनके विरोधी थे। लेकिन दधीचि,अत्रि,  आदि कुछ ऋषि और भरत मुनि उनके भक्त हो गये थे।

गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ ज्वर उत्पत्ति अध्याय २८३ पृष्ठ ५१६० और संक्षिप्त महाभारत द्वितीय खण्ड में पृष्ठ १२८० में उल्लेखित दक्ष यज्ञ विध्वन्स के वर्णन के अनुसार देवताओं और ऋषियों के समुह एक ही और जाते हुए देख कर पार्वती जी के पुछनें पर शंकरजी ने पार्वती जी को बतलाया कि, आपके पिता श्री दक्ष द्वितीय (हरिद्वार के निकट) कनखल में  यज्ञ कर रहे हैं, उसमें सम्मिलित होनें देवगण और ऋषिगण जा रहे हैं। तब पार्वती जी द्वारा उन्हें न बुलाए जाने पर आपत्ति उठानें पर यज्ञ में उन्हें न बुलानें का कारण शंकर जी नें ही पार्वती जी को बतलया कि, सृष्टि आरम्भ में प्रजाओं को रचकर ब्रह्मा जी नें नियम बनाया था कि, रुद्र को यज्ञ भाग नही मिलेगा। अतः दक्ष प्रजापति (द्वितीय) ने मुझे नही बुलाया इसमें उनका किञ्चित भी दोष नही है।
लेकिन पार्वती जी रुष्ट होकर विरोध प्रकट करनें जानें लगी तो शंकरजी भी साथ में गये। पार्वती को तुष्ट करनें के लिए शंकरजी नें वीरभद्र और भद्रकाली को सैना सहित आव्हान किया और उन्हें दक्षयज्ञ विध्वन्स का आदेश दिया। यह उत्पात देख और दधीचि आदि कुछ ऋषियों द्वारा रुद्र के समर्थन में आनें पर ब्रह्मा जी द्वारा रुद्र को भी यज्ञभाग देनें का नियम घोषित करनें के बाद में सन्तुष्ट हो शंकर पार्वती सहर्ष  कैलाश पर वापस लौट आये।
न कहीँ सती के आत्मदाह का वर्णन है न सती के शव के इक्कावन टुकड़े करनें का वर्णन है। न सती का पुनर्जन्म होकर हिमाचल -मैना पुत्री पार्वती के रूप में जन्मने का। बल्कि सती और पार्वती एक ही के दो नाम बतलाये हैं।
तब से शंकरजी की पूजा होनें लगी।
वे विष विज्ञानी होनें के नाते विषैले जीव जन्तु पालते थे,उनसे डसवाकर चिकित्सा कर ठीक होनें का प्रयोग करते, इसलिए थोड़ा थोड़ा विष लेते रहते थे। ताकि, विषाक्तता का अचानक दुष्प्रभाव न हो। यही उनके गांजा - भांग , धतुरा सेवन का रहस्य है। आज के विष विज्ञानी भी ऐसे प्रयोग करते हैं। कुछ स्वयम् पर भी करते हैं कुछ केवल वालेण्टियरों पर ही करते हैं।
उनकी नकल में भक्तों द्वारा भांग - गांजा प्रयोग मुर्खतापूर्ण कृत्य है।

सोमवार, 8 अगस्त 2022

अयनांश की परिभाषा

अयनांश परिभाषा* ---
*चित्रा तारे से १८०° स्थित स्थिर भचक्र के कल्पित आरम्भ बिन्दु से चलायमान वसन्त सम्पात की अंशात्मक दूरी अयनांश कहलाता है।*

भूमि के केन्द्र से आकाश में मध्य रेखीय अक्षांश परिकल्पित किया गया उसे विषुववृत कहते हैं।
और भूमि के सूर्य परिभ्रमण मार्ग या भूमि की कक्षा को क्रान्तिवृत  कहते हैं।
सभी ग्रहों का परिभ्रमण मार्ग अर्थात ग्रह की कक्षा विषुववृत और क्रान्तिवृत्त का ही अनुसरण करतीं हैं।
जब भी कोई एक वृत्त दुसरे वृत्त को काटता है तो जिन दो बिन्दुओं पर काट (क्रास) बनता है उसे पात कहते हैं। 
क्रान्तिवृत विषुववृत्त को दो बिन्दुओं पर परम क्रान्ति कोण अर्थात २३°२६'१२.८३" का कोण बनाते हुए काटता है। इन बिन्दुओं को सम्पात कहते हैं। उत्तर सम्पात को वसन्त सम्पात और दक्षिण सम्पात को शरद सम्पात कहते हैं। क्योंकि,  ऋतुओं का कारण ये सम्पात ही है।
(भूमि से सूर्य की उत्तर मा दक्षिण की और कोणीय स्थिति को क्रान्ति कहते हैं। इसी क्रान्ति शब्द से संक्रान्ति शब्द बना है।)

आकाश में ताराओं के समुह द्वारा निर्मित विशिष्ट आकृति के आधार पर भारत में नक्षत्रों के नामकरण हुए हैं। क्योकि, तारे  दीर्घ काल तक प्रायः एक ही स्थान पर दिखते हैं। इस कारण कुछ तारों का समुह मिलकर एक विशेष आकृति बन जाती है जिसे नक्षत्र कहते हैं। इनमें जिस तारे की द्यूति अधिक दिखती है उसे योगतारा कहते हैं। बेबिलोनिया में इसी आधार पर द्वादश राशियों का नामकरण हूआ। 
नक्षत्र मण्डल भूमि ( भूमि के सापेक्ष में सूर्य) की परमक्रान्ति से प्रायः आठ-नौ अंश उत्तर और दक्षिण में ही सभी ग्रहों की परम क्रान्ति होती है। अतः विषुव वृत्त और क्रान्तिवृत के आसपास की यह पट्टी नक्षत्र मण्डल या भृचक्र  कहलाता है।  अंग्रेजी में इसे फिक्स्ड झाडिएक कहते हैं। क्यों कि, इसकी आकृतियाँ लम्बे समय तक प्रायः अपरिवर्तित रहती है।
भूकेन्द्रीय गणना में सूर्य चन्द्रमा और ग्रहों  के ३६०° सायन विशुवांश की गणना विषुव वृत्त में करते हैं। और नाक्षत्रीय गणना में भचक्र में भचक्र में नक्षत्रों की गणना या क्रान्तिवृत में निरयन  अंशादि की गणना की जाती है।
भचक में चित्रा तारे को विषुव वृत्त के मध्य अर्थात १८०° पर स्थित मानकर चित्रा के तारे से १८०° पर भचक्र का आरम्भ बिन्दु मान लिया गया है। क्योंकि 
 वर्तमान में इस स्थान/ बिन्दु पर कोई तारा नही है।  इस बिन्दु को नाक्षत्रिय गणना में १३°२०' के निश्चित भोगमान वाले काल्पनिक सत्ताईस नक्षत्रों में  अश्विनी नक्षत्र का आरम्भ बिन्दु मानते हैं।
 और ३०° के निश्चित भोगमान वाली बारह राशियों में निरयन मेष राशि का आरम्भ बिन्दु मानते हैं।
वसन्त सम्पात लगभग २५७८० वर्ष में अपना परिभ्रमण चक्र पूर्ण करता है अतः विषुववृत में   लगभग ५०.३" प्रतिवर्ष की वाम गति से पश्चिम की ओर खिसकता रहता है। 
निरयन मेषादि बिन्दु और वसन्त सम्पात की दूरी अयनांश कहलाता है।
 *तदनुसार अयनांश परिभाषा* ---
*चित्रा तारे से १८०° स्थित स्थिर भचक्र के कल्पित आरम्भ बिन्दु से चलायमान वसन्त सम्पात की अंशात्मक दूरी अयनांश कहलाता है।*