सोमवार, 30 मई 2022

भारत पर विदेशी आक्रमणों का इतिहास और भारतियों का आक्रमणकारियों को सहयोग का इतिहास

भारत पर विदेशी आक्रमणों का इतिहास और भारतियों का आक्रमणकारियों को सहयोग का इतिहास
भारत पर अधिकांश आक्रमण तुर्किस्तान के तुर्क लोगों ने ही किया। चाहे वे सीधे तुर्किस्तान से आए हों या पहले अफगानिस्तान में बस कर फिर भारत आये हों या तेमुरलङ्ग पहले उज़्बेकिस्तान में बसा फिर भारत आया। 
शक, कुशाण, हूण,  मुहम्मद गजनवी, मुहम्मद घोरी, जलालुद्दीन खिलजी, गयासुद्दीन तुगलक हो, या सैय्यद खिज्रखाँ हो,या तेमुरलङ्ग हो, या अफगानिस्तान का बहलोल लोधी हो या अफगानिस्तान से आया बाबर हो सभी मूलतः तुर्किस्तान के तुर्क ही थे।
केवल, हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, बाली,और ज़रथ्रुष्ट, मुहम्मद बिन कासिम, अफगानिस्तान पर आक्रमण करने वाला याकुब एलस ईराक के थे। चङ्गेज खाँ मङ्गोलिया का था और युरोपीय जातियाँ तुर्क नही थी। 
इसी प्रकार दक्षिण भारत के बहमनी वंश और निजाम तथा टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में अभी स्पष्ट जानकारी प्राप्त नही हुई है।
इसी कारण हमारे भक्तिकाल के कबीर दास जी, नानक देव जी, रामानन्दाचार्य जी, सूरदास जी, तुलसीदास जी सबने इस्लामी आक्रान्ताओ को तुर्क ही कहा है।

भारत और वैदिक धर्म के पतन का इतिहास कश्यप ऋषि द्वारा महर्षि कश्यप सागर तट पर तपस्या के दौरान मेसोपोटामिया क्षेत्र में विभिन्न जातियों को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के साथ ही आरम्भ हुआ।
जाने के पहले आदित्यों को  तिब्बत से कश्मीर तक का भाग सोप गये थे। यहीँ से विवाद आरम्भ हुआ। सर्वप्रथम कद्रु और विनिता के विवाद में परास्त गरुड़ और अरुण ने आदित्यों की शरण ली। फिर शेषनाग ने। पिछे पिछे वासुकी ने आकर कश्मीर में अधिकार कर लिया। फिर वैवस्वत वंशी सूर्य वंशियों को मनुर्भरतों ने अयोध्या में बहाया। तो चन्द्र वंशियों ने दिवोदास पर आक्रमण कर दिया। यह युद्ध शतवर्षीय युद्ध कहलाता है।

इस बीच हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के आतंकी हमले हुए। और फिर बली ने भारत पर आक्रमण कर केरल में प्रभुत्व स्थापित किया।

माली-सुमाली  ने रावण के माध्यम से लक्ष्यद्वीप, सिंहल द्वीप मालदीव, तथा महाराष्ट्र और नर्मदा के दक्षिण तट तक प्रभाव स्थापित कर लिया।

बली का केरल पर शासन--- बलि को वामन द्वारा भारत से निष्कासित कर बोलिविया भेजने पर बलि अपनी सेना सहित सिन्ध, बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, होते हुए लेबनान पहूँचा। लेबनान में फोनिशिया बसा कर लेबनान से दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के बोलिविया में बसा। इस बीच उसके कुछ सैनिक तुर्किस्तान में ही बस गये। इनलोगों ने आदित्यों को तिब्बत में खदेड़ दिया। और तुर्किस्तान पर अधिकार कर लिया। ये ही लोग वर्तमान में उइगर मुसलमान कहलाते हैं।
बाद में इन्हीं के वंशज शक, हूण, मंगोल, और मुस्लिमों के रूप में अफगानिस्तान होते हुए भारत पर बारम्बार आक्रमण करते रहे।

अफ्रीका के माली-सुमाली का लक्ष्यद्वीप पर (कुबेर की लङ्का पर रावण के साथ आक्रमण)। लगभग ८,६६,१०० ई,पू.।

ईराक का ईरान पर ज़रथ्रुष्ट द्वारा बौद्धिक हमला। ३२०० ई.पू.। कुछ लोग ३५०० ई.पू. लिखते हैं। लेकिन पारसी ग्रन्थों (शायद गाथा) में उल्लेख है कि, कृष्ण द्वेपायन व्यास जी भारत से ईरान गये थे। वहां ज़रथ्रुष्ट से वेदव्यास जी की चर्चा/ वार्ता हुई थी। और वेदव्यास जी भगवान श्रीकृष्ण एक साथ थे। श्रीकृष्ण के गोलोक गमन से कलियुग आरम्भ माना जाता है। कलियुग ३१०० ई.पू. में आरम्भ हुआ। अतः वेदव्यास जी को अधिकतम ३२००ई.पू. माना जा सकता ।
ईरान पर ईराक की असूर संस्कृति का प्रभाव---  आज से लगभग ५२०० वर्ष पहले में ईराक के अश्शुर प्रान्त की ओर से आये असूर भक्त ज़रथ्रुष्ट ने मग संस्कृति समाप्त कर मीढ संस्कृति को साथ लेकर पारसी धर्म चलाया। मगो ने भारत में शरण लेकर सौर सम्प्रदाय चलाया। जिनमें कुछ कश्मीर, रास्थान गुजरात, महाराष्ट्र और उड़ीसा में बसे।

यमन के कालयमन का मथुरा पर *असफल आक्रमण* ।३२०० ई.पू.
फिर कन्स के सहयोग से कालयमन का हस्तक्षेप भारत में हुआ जिसे श्री कृष्ण ने कूटनीतिक तरीके से समाप्त किया।

ईरानी पारसी कुरूष (सायरस) का आक्रमण ---   ५५० ई.पू. में ईरान के पारसी सम्राट सायरस (कुरूष) ने भारत पर आक्रमण कर विदेशी आक्रमणकारियों का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

युनानी अलेक्ज़ेंडर (सिकन्दर) का आक्रमण -- इसके बाद अगला आक्रमण ३२६ ई.पू. में सिकन्दर (अलेक्ज़ेंडर) ने किया। उसने ईरान, अफगानिस्तान, बलुचिस्तान, सिन्ध और पञ्जाब तक आक्रमण किया।
उसी के प्रतिनिधि/ राज्यपाल डेमिट्रियस ने ई.पू. १८३ में पञ्जाब पर आक्रमण कर विजित किया साकल को राजधानी बनाया। युक्रेटीदस ने तक्षशिला को राजधानी बनाया।
मिनेण्डर ने डेमिट्रियस के सहयोग से वृहद्रथ को हराकर सिन्धु नदी पार तक कब्जा कर लिया।बाद में बौद्ध दिक्षा लेकर मिलिन्द नाम धारण किया। उसने अपनी सीमा स्वात घाटी से मथुरा तक विस्तार कर ली।

शक आक्रमण - अधिकांश इतिहासकार शक, कुषाण , युइशि और हूण सभी को वर्तमान चीन के तुर्किस्तान में तकला-मकान मरुभूमि, झींगझियांग प्रान्त के निवासी मानते हैं। जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं। तदनुसार -
शक  वर्तमान चीन के पूर्वी तुर्किस्तान के झींगझियांग प्रान्त के निवासी थे जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं।
शको ने बैक्टीया से होते हुए ईरानी साम्राज्य पार्थिया के मिथिदातस से से हार कर हुए अफगानिस्तान में प्रवेश किया और विजित किया । उनका काल १२३ ई.पू. से २०० ईस्वी तक माना गया है। 
भारत में युनानी साम्राज्य के कमजोर प्रान्तो पर शकों ने आक्रमण कर जीता। सिन्धु नदी के तट पर मीन नगर को राजधानी बनाया। 
जैन जनश्रुति के अनुसार सोनखच्छ के पास गन्धर्व नगरी के राजा गन्धर्वसेन थे जिनके पुत्र भृतहरि और विक्रमादित्य थे।  गन्धर्वसेन वैष्णव थे। इस कारण उज्जैन निवासी जैनाचार्य कालक ने काबुल अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर शकराज को गन्धर्वसेन पर आक्रमण करने हेतु  प्रेरित और आमन्त्रित किया। उनने शिकार पर वन में गये गन्धर्वसेन को अकेले पाकर गन्धर्वसेन की नृशन्स  हत्या कर दी। लेकिन विक्रमादित्य नें शकों को परास्त कर वापस खदेड़ दिया।
बाद में पुनः शकों ने गान्धार से आकर पहले सिन्ध विजय किया फिर सौराष्ट्र विजय कर फिर मथुरा विजय की। फिर शक राज चष्टान ने अवन्तिका पर आक्रमण कर विजय किया।  शकों ने  महाराष्ट्र के बहुत बड़े भूभाग को सातवाहनों से जीता। उस समय तमिलनाड़ू मे पाण्ड्य शासक थे।
चष्टान ने अपने अभिलेख मे शक संवत का उल्लेख किया है। सम्भवतः ७८ ईस्वी में चष्टान ने ही भारत में शकाब्द / शक संवत चलाया होगा।
 उज्जैन का प्रमुख क्षत्रप रुद्रदामा १३० ईसवी से १५० ईस्वी तक था। तदनुसार मालवा में शक शासन १३० ईस्वी से ३८८ ईस्वी तक रहा।  गुप्त वंशीय चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने शकों पुनः हराया। 

कुषाण आक्रमण - (६० ईस्वी से २४० ईस्वी) -अधिकांश इतिहासकार शक, कुषाण , युइशि और हूण सभी को वर्तमान चीन के तुर्किस्तान में तकला-मकान मरुभूमि, झींगझियांग प्रान्त के निवासी मानते हैं। जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं।
 भारतीय इतिहासकार कुष्माण्डा जाति के मानते हैं। कुषाण भी चीन के पूर्वी तुर्किस्तान के झींगझियांग प्रान्त के ही निवासी थे जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं। कुसान इनका आदि पुरुष था जिनके नाम पर ये कुषाण कहलाये।
कुषाण भी शकों के ही पद चिन्हों पर चल कर बैक्टीया से होते हुए ईरानी साम्राज्य पार्थिया होते  हुए अफगानिस्तान में प्रवेश किया कन्धार और काबुल को जीतकर और काबुल को राजधानी बनाया ।
कुजल कडफाइसिस ने ईरानी पारसी पल्लहवों को हराकर भारत के उत्तर उत्तर पश्चिमी सीमा पर कब्जा किया। बाद में पश्चिमी पञ्जाब तक सीमा विस्तार कर लिया। कुजल के पुत्र विम तक्षम ने शुङ्ग वंशियों राजा को हराकर मथुरा तक विस्तार कर लिया। कनिष्क (१२७ ईस्वी से १४० ईस्वी तक) ने काबुल, पेशावर और मथुरा को क्षत्रप क्षेत्र घोषित किया। इसका शासन कश्मीर, पूर्व में सारनाथ (वाराणसी) तक था। कनिष्क की मृत्यु  १५१ ईस्वी में हुई।
कुषाण वंश में कुजल, विम कडफाइसिस, कनिष्क प्रथम, वशिष्क , कनिष्क तृतीय, वासुदेव कुषाण द्वितीय प्रमुख राजा हुए।

हूण आक्रमण - हूण भी उत्तरी चीन के चीन के पूर्वी तुर्किस्तान के तकला-मकान मरुभूमि, झींगझियांग प्रान्त (जहाँ वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं) की उत्तरी सीमा से लगे मंगोलिया से आये थे।   
फारस के बादशाह बहराम गोर ने सन् ४२५ ई॰ में हूणों को पूर्ण रूप से परास्त करके वंक्षु नद के उस पार भगा दिया। 
बहराम गोर के पौत्र फीरोज के समय में हूणों का प्रभाव फारस में बढ़ा। वे धीरे-धीरे फारसी सभ्यता ग्रहण कर चुके थे और अपने नाम आदि फारसी ढंग के रखने लगे थे। फीरोज को हरानेवाले हूण बादशाह का नाम खुशनेवाज था।
हूणों के राजा तोरणमल ने गांधार (अफगानिस्तान) भारतवर्ष मे सीमान्त प्रदेश कपिश (पेशावर - पाकिस्तान)  पर अधिकार किया, फिर उज्जैन (मालवा मध्यदेश) की ओर चढ़ाई पर चढ़ाई करने लगे। 
गुप्त सम्राट कुमारगुप्त इन्हीं चढ़ाइयों में मारे गये। इन चढ़ाइयों से तत्कालीन गुप्त साम्राज्य निर्बल पड़ने लगा। कुमारगुप्त के पुत्र महाराज स्कंदगुप्त बड़ी योग्यता और वीरता से जीवन भर हूणों से लड़ते रहे। फिर भी सन् ४५७ ई॰ तक मगध पर स्कंदगुप्त का अधिकार रहा। 
सन् ४६५ के उपरान्त तोरणमल के नेतृत्व में हुण प्रबल पड़ने लगे और अन्त में स्कंदगुप्त हूणों के साथ युद्ध करने में मारे गए । 
सन् ४९९ ई॰ में हूणों के प्रतापी राजा तुरमान शाह (संस्कृत : तोरमाण) ने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर पूर्ण अधिकार कर लिया। इस प्रकार गांधार, काश्मीर, पंजाब, राजपूताना, मालवा और काठियावाड़ उसके शासन में आए। 
तुरमान शाह या तोरमाण का पुत्र मिहिरगुल (संस्कृत : मिहिरकुल) बड़ा ही अत्याचारी और निर्दय हुआ। पहले वह बौद्ध था, पर पीछे कट्टर शैव हुआ। 

यशोवर्धन 
गुप्तवंशीय नरसिंहगुप्त और मालव के राजा यशोधर्मन् और बालादित्य नें ५२८ ईस्वी में मिहिरकुल  को परास्त कर दिया।  उसने सन् ५३२ ई॰ मे गहरी हार खाई और अपना इधर का सारा राज्य छोड़कर वह काश्मीर भाग गया। इस प्रकार भारत से हूणों के शासन का अन्त हुआ। लेकिन वे भारतियों में ही घुल मिल गए और यहीँ के होकर रह गये।
कुछ इतिहासकार हूणो को बंजारों के पूर्वज  मानते हैं।
हूणों में ये ही दो सम्राट् उल्लेख योग्य हुए।  हूण लोग कुछ और प्राचीन जातियों के समान धीरे-धीरे भारतीय सभ्यता में मिल गए ।
यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों का नेता अट्टिला (Attila) था। 
भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों को श्वेत हूण तथा यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों को अश्वेत हूण कहा गया। 
भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों के नेता क्रमशः तोरमाण व मिहिरकुल थे।
हूणों ने मथुरा प्रान्त में वैष्णव, बौद्ध और जैन मन्दिरों/ स्तुपों को लूटा एवम् भयंकर तोड़फोड़ की। बाद में ये शैव होगये। और भारतीय होकर ही रह गये।
 भारत में हूणों के मुख्य राजा मिहिरकुल और तोरणमल दो ही  राजा थे। 

इस्लामी आक्रमण - 
अरब - इराकी मुस्लिम आक्रमण - 
मोह मद पेगम्बर की गजवा ए हिन्द की अवधारणा को साकार करने के लिए  ६३८ से ७११ के बीच ७४ वर्षों में ९ खलिफाओं के आदेश पर १५ बार सिन्ध पर आक्रमण किये गये
अन्त में ईराक के शासक अल हज्जाम के भतिजे और दामाद मूहमद बीन कासिम ने खलिफा के आदेश पर पहले बलुचिस्तान विजय कर  ७११-७१२ ईस्वी मे सिन्ध के ब्राह्मण राजा दाहिरसेन पर आक्रमण किया। दाहिरसेन की नृशन्सता पूर्वक हत्या कर उसकी पुत्रियों की बन्दी बना कर खलिफा को भेंट कर दिया। फिर पञ्जाब और मुल्तान विजय किया।
७१४ईस्वी में इराक के शासक हज्जात की मृत्यु हो गई और ७१५ ईस्वी में खलिफा की भी मृत्यु हो गई। इस कारण मुहमद बिन कासिम को वापस इराक बुला लिया गया। बिन कासिम के लौटते ही भारतीय राजाओं ने अधिकांश क्षेत्रों में वापस अधिकार कर लिया। किन्तु खलिफा के प्रतिनिधि जुनैद ने सिन्ध पर अधिकार जमाए रखा। उसने कई बार आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण किया। लेकिन  नागभट्ट प्रथम,पुलकेशी प्रथम और चालुक्य शासक यशोवर्मन ने इसे वापस लौटने को विवश कर दिया।
इतनें आक्रमण झेलने के बावजूद भी ईस्वी की सातवीं शताब्दी में ईरान, अफगानिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के कुछ भागों में ईरानी पारसियों का शासन था और शेष भाग में भारतीय सनातन वैदिक राजा शासन करते थे। सनातन वैदिक धर्मी शासक को अफगानिस्तान में काबुलशाह, महाराज धर्मपति कहा जाता था यहाँ का राजधर्म वैदिक सनातन धर्म और बौद्ध धर्म था। सनातन वैदिक धर्मी राजाओं में प्रमुख कल्लार, सामन्तदेव, भीम,अष्टपाल, जयपाल, आनन्दपाल, त्रिलोचनपाल और भीम पाल उल्लेखनीय है।
८७० ईस्वी में अरब सेनापति याकुब एलेस ने अफगानिस्तान को विजय कर अत्यधिक मारकाट और बलात्कार कर अफगानिस्तान में धर्मपरिवर्तन कराकर सनातन धर्मियों और बौद्धों को मुस्लिम बनाना आरम्भ किया। अन्त में १०१९ में महमूद गजनी नें त्रिलोचन पाल को हराकर कपिशा को छोड़ शेष अफगानिस्तान का इस्लामीकरण कर दिया। १८५९ में स्वतन्त्र देश कपिशा को काबुल के शासक ने विजय कर वहाँ के सनातन वैदिक धर्मियों को मारकाट बलात्कार कर जबरन मुस्लमान बनाया। १८८५- ८६ के बाद ही युरोपीयन लोगों के संज्ञान में यह क्षेत्र आया तब १८९६ में अफगानिस्तान के शासक अब्दिर रहमान खान ने इस क्षेत्र का नाम नूरिस्तान कर दिया।

इन काबुलशाही राजाओं ने लगभग 350 साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिन्धु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया, लेकिन 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किए और 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद यहां के हिन्दू और बौद्धों का जबरन धर्मांतरण अभियान शुरू ‍हुआ। 

1019 में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटी खा गया। काफिरिस्तान (नुरीस्तान) को छोड़कर सारे अफगानी लोग मुसलमान बन गए।
 
714 ईस्वी में हज्जाज की और 715 ई. में मुस्लिम खलीफा की मृत्यु के उपरांत मुहम्मद बिन कासिम को वापस बुला लिया गया। कासिम के जाने के बाद बहुत से क्षेत्रों पर फिर से भारतीय राजाओं ने अपना अधिकार जमा लिया, परंतु सिन्ध के राज्यपाल जुनैद ने सिन्ध और आसपास के क्षेत्रों में इस्लामिक शासन को जमाए रखा। 
जुनैद ने कई बार भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण किए लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। नागभट्ट प्रथम, पुलकेशी प्रथम एवं यशोवर्मन (चालुक्य) ने इसे वापस खदेड़ दिया।

तुर्क आक्रमण --
मुहमद गजनवी (977 से) --

अरबों के बाद तुर्कों ने भारत पर आक्रमण किया। अलप्तगीन नामक एक तुर्क सरदार ने गजनी में तुर्क साम्राज्य की स्थापना की। 977 ई. में अलप्तगीन के दामाद सुबुक्तगीन ने गजनी पर शासन किया। सुबुक्तगीन ने मरने से पहले कई लड़ाइयां लड़ते हुए अपने राज्य की सीमाएं अफगानिस्तान, खुरासान, बल्ख एवं पश्चिमोत्तर भारत तक फैला ली थीं। सुबुक्तगीन की मुत्यु के बाद उसका पुत्र महमूद गजनवी गजनी की गद्दी पर बैठा। महमूद गजनवी ने बगदाद के खलीफा के आदेशानुसार भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण करना शुरू किए।
 इस्लाम के विस्तार और धन, सोना तथा स्त्री प्राप्ति के उद्देश्य से उसने भारत पर 1001 से 1026 ई. के बीच 17 बार आक्रमण किए। 
गजनवी के आक्रमण के समय भारत में अन्य हिस्सों पर राजपूत राजाओं का शासन था। 
10वीं शताब्दी ई. के अंत तक भारत अपने पश्‍चिमोत्तर क्षेत्र जाबुलिस्तान तथा अफगानिस्तान खो चुका था। 999 ई. में जब महमूद गजनवी सिंहासन पर बैठा, तो उसने प्रत्येक वर्ष भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण करने की प्रतिज्ञा की।
 
महमूद गजनवी के आक्रमण के समय पंजाब एवं काबुल में हिन्दूशाही वंश का शासन था। कश्मीर की शासिका रानी दिद्दा थीं। दिद्दा की मुत्यु के बाद संग्रामराज गद्दी पर बैठा। 
सिन्ध पर पहले से ही अरबों का राज था। मुल्तान पर शिया मुसलमानों का राज था। 
कन्नौज में प्रतिहार, बंगाल में पाल वंश, दिल्ली में तोमर राजपूतों, मालवा में परमार वंश, गुजरात में चालुक्य वंश, बुंदेलखंड में चंदेल वंश, दक्षिण में चोल वंश का शासन था।
 
 महमूद गजनवी के 17 आक्रमण --
 दूसरे आक्रमण में महमूद ने जयपाल को हराया। जयपाल के पौत्र सुखपाल ने इस्लाम कबूल कर लिया। 4थे आक्रमण में भटिंडा के शासक आनंदपाल को पराजित किया। 5वें आक्रमण में पंजाब फतह और फिर पंजाब में सुखपाल को नियु‍क्त किया, तब उसे (सुखपाल को) नौशाशाह कहा जाने लगा। 6ठे और 7वें आक्रमण में नगरकोट और अलवर राज्य के नारायणपुर पर विजय प्राप्त की। आनंदपाल को हराया, जो वहां से भाग गया। 
 
आनंदपाल ने नंदशाह को अपनी नई राजधानी बनाया तो वहां पर भी गजनवी ने आक्रमण किया। 10वां आक्रमण नंदशाह पर था। उस वक्त वहां का राजा त्रिलोचन पाल था। त्रिलोचनपाल ने वहां से भागकर कश्मीर में शरण ली। नंदशाह पर तुर्कों ने खूब लूटपाट ही नहीं की बल्कि यहां की महिलाओं का हरण भी किया। महमूद ने 11वां आक्रमण कश्मीर पर किया, जहां का राजा भीमपाल और त्रिलोचन पाल था। 
 
इसके बाद महमूद ने कन्नौज पर आक्रमण किया। उसने बुलंदशहर के शासक हरदत्त को पराजित किया। अपने 13वें अभियान में गजनवी ने बुंदेलखंड, किरात तथा लोहकोट आदि को जीत लिया। 14वां आक्रमण ग्वालियर तथा कालिंजर पर किया। अपने 15वें आक्रमण में उसने लोदोर्ग (जैसलमेर), चिकलोदर (गुजरात) तथा अन्हिलवाड़ (गुजरात) पर आक्रमण कर वहां खूब लूटपाट की।
 
महमूद गजनवी ने अपना 16वां आक्रमण (1025 ई.) सोमनाथ पर किया। उसने वहां के प्रसिद्ध मंदिरों को तोड़ा और वहां अपार धन प्राप्त किया। इस मंदिर को लूटते समय महमूद ने लगभग 50,000 ब्राह्मणों एवं हिन्दुओं का कत्ल कर दिया। 
17वां आक्रमण उसने सिन्ध और मुल्तान के तटवर्ती क्षेत्रों के जाटों के पर किया। इसमें जाट पराजित हुए।

तुर्क आक्रमण -- 
मोहम्मद गोरी--
मोहम्मद बिन कासिम के बाद महमूद गजनवी और उसके बाद मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण कर अंधाधुंध कत्लेआम और लूटपाट मचाई। इसका पूरा नाम शिहाबुद्दीन उर्फ मुईजुद्दीन मुहम्मद गौरी था। भारत में तुर्क साम्राज्य की स्थापना करने का श्रेय मुहम्मद गौरी को ही जाता है। 
गौरी गजनी और हेरात के मध्य स्थित छोटे से पहाड़ी प्रदेश गोर का शासक था। मुहम्मद गौरी ने भी भारत पर कई आक्रमण किए।
 
उसने पहला आक्रमण 1175 ईस्वी में मुल्तान पर किया, दूसरा आक्रमण 1178 ईस्वी में गुजरात पर किया। इसके बाद 1179-86 ईस्वी के बीच उसने पंजाब पर फतह हासिल की। इसके बाद उसने 1179 ईस्वी में पेशावर तथा 1185 ईस्वी में स्यालकोट अपने कब्जे में ले लिया। 1191 ईस्वी में उसका युद्ध पृथ्वीराज चौहान से हुआ। इस युद्ध में मुहम्मद गौरी को बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इस युद्ध में गौरी को बंधक बना लिया गया, लेकिन पृथ्वीराज चौहान ने उसे छोड़ दिया। इसे तराईन का प्रथम युद्ध कहा जाता था। 
इसके बाद मुहम्मद गौरी ने अधिक ताकत के साथ पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण कर दिया। तराईन का यह द्वितीय युद्ध 1192 ईस्वी में हुआ था। अबकी बार इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान हार गए और उनको बंधक बना कर अफगानिस्तान ले गया, जहाँ उनकी हत्या कर दी गई।
 
पृथ्वीराज चौहान के बाद मुहम्मद गौरी ने राजपूत नरेश जयचंद्र के राज्य पर 1194 में आक्रमण कर दिया। इसे चन्दावर का युद्ध कहा जाता है जिसमें जयचंद्र को बंधक बनाकर उनकी हत्या कर दी गई। 
जयचंद्र को पराजित करने के बाद मुहम्मद गौरी खुद के द्वारा फतह किए गए राज्यों की जिम्मेदारी को उसने अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप दी और वह खुद गजनी चला गया।

 गुलाम वंश (1206-1290)  --
1206 से 1290 ई. के मध्य 'दिल्ली सल्तनत' पर जिन तुर्क शासकों द्वारा शासन किया गया उन्हें गुलाम वंश का शासक कहा जाता है। 
गुलाम वंश का प्रथम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक था। उसने 1194 ई. में अजमेर को जीतकर यहां पर स्थित जैन मंदिर एवं संस्कृत विश्वविद्यालय को नष्ट कर उनके मलबे पर क्रमशः ‘कुव्वल-उल-इस्लाम’ एवं ‘ढाई दिन का झोपड़ा’ का निर्माण करवाया। इसके अलावा उसने दिल्ली स्थित ध्रुव स्तंभ के आसपास को नक्षत्रालयों को तोड़कर बीच के स्तंभ को 'कुतुबमीनार' नाम दिया।
 
ऐबक ने 1202-03 ई. में बुन्देलखंड के मजबूत कालिंजर किले को जीता। 1197 से 1205 ईस्वी के मध्य ऐबक ने बंगाल एवं बिहार पर आक्रमण कर उदंडपुर, बिहार, विक्रमशिला एवं नालंदा विश्वविद्यालय पर अधिकार कर लिया।
 
 कुतुबुद्दीन ऐबक के बाद क्रमश: ये शासक हुए--
आरामशाह, इल्तुतमिश, रुकुनुद्दीन फिरोजशाह, रजिया सुल्तान, मुइजुद्दीन बहरामशाह, अलाउद्दीन मसूद, नसीरुद्दीन महमूद। 
इसके बाद अन्य कई शासकों के बाद उल्लेखनीय रूप से गयासुद्दीन बलबन (1250-1290) दिल्ली का सुल्तान बना।
गुलाम राजवंश ने लगभग 84 वर्षों तक शासन किया। दिल्ली पर यह प्रथम मुस्लिम शासक था। इस वंश का संपूर्ण भारत नहीं, सिर्फ उत्तर भारत पर ही शासन था।

 मंगोल आक्रमण - 
चङ्गेज खाँ का आक्रमण - चंगेज़ खान का जन्म 1162 के आसपास आधुनिक मंगोलिया के उत्तरी भाग में ओनोन नदी के निकट हुआ था। 1227 में उसका निधन हो गया।
चङ्गेज खाँ जन्म से चंगेज़ ख़ान तेन्ग्री धर्म के भक्त था।
अफगानिस्तान में बौद्ध हो गया था।
पूर्वोत्तर एशिया के कई घुमंतू जनजातियों को एकजुट करके सत्ता में आया।
चीन उस समय तीन भागों में विभक्त था - उत्तर पश्चिमी प्रांत में तिब्बती मूल के सी-लिया लोग, जरचेन लोगों का चीन राजवंश जो उस समय आधुनिक बीजिंग के उत्तर वाले क्षेत्र में शासन कर रहे थे तथा शुंग राजवंश जिसके अंतर्गत दक्षिणी चीन आता था। 1209 में सी लिया लोग परास्त कर दिए गए।
चंगेज खान ने गजनी और पेशावर पर अधिकार कर लिया तथा ख्वारिज्म वंश के शासक अलाउद्दीन मुहम्मद को कैस्पियन सागर की ओर खदेड़ दिया जहाँ 1220 में अलाउद्दीन मुहम्मद की  मृत्यु हो गई। अलाउद्दीन मुहम्मद का उत्तराधिकारी जलालुद्दीन मंगवर्नी हुआ जो मंगोलों के आक्रमण से भयभीत होकर गजनी चला गया। चंगेज़ खान ने उसका पीछा किया और सिन्धु नदी के तट पर उसको हरा दिया। जलालुद्दीन सिंधु नदी को पार कर भारत आ गया जहाँ उसने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश से सहायता की फरियाद रखी। लेकिन इल्तुतमिश ने शक्तिशाली चंगेज़ ख़ान के भय से उसको सहयता देने से इंकार कर दिया।
चंगेज खान ने अपना अभियान चलाकर ईरान, गजनी सहित पश्‍चिम भारत के काबुल, कंधार, पेशावर सहित कश्मीर पर भी अधिकार कर लिया था। इस समय चंगेज खान ने सिन्धु नदी को पार कर उत्तरी भारत और असम के रास्ते मंगोलिया वापस लौटने की सोची लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाया। इस तरह उत्तर भारत एक संभावित लूटपाट और वीभत्स उत्पात से बच गया।
इस समय चेगेज खान ने सिंधु नदी को पार कर उत्तरी भारत और असम के रास्ते मंगोलिया वापस लौटने की सोची। पर असह्य गर्मी, प्राकृतिक आवास की कठिनाईयों तथा उसके शमन निमितज्ञों द्वारा मिले अशुभ संकेतों के कारण वो जलालुद्दीन मंगवर्नी के विरुद्ध एक सैनिक टुकड़ी छोड़ कर वापस आ गया। इस तरह भारत में उसके न आने से तत्काल भारत एक संभावित लूटपाट और वीभत्स उत्पात से बच गया।
चंगेज खान की मृत्यु से पहले, उसने ओगदेई खान को अपना उत्तराधिकारी बनाया और अपने बेटों और पोते के बीच अपने साम्राज्य को खानतों में बांट दिया। 1227 में उसका निधन हो गया।

 खिलजी आक्रमण-- (1290-1320 ई.) 
 गुलाम वंश के बाद दिल्ली पर खिलजी वंश के शासन की शुरुआत हुई। इस वंश या शासन की शुरुआत जलालुद्दीन खिलजी ने की थी। खिलजी कबीला मूलत: तुर्किस्तान से आकर अफगानिस्तान में बसा था। 
 
जलालुद्दीन खिलजी प्रारंभ में गुलाम वंश की सेना का एक सैनिक था। गुलाम वंश के अंतिम कमजोर बादशाह कैकुबाद के पतन के बाद एक गुट के सहयोग से यह गद्दी पर बैठा। 
 
जलालुद्दीन के भतीजे जूना खां ने दक्कन के राज्य पर चढ़ाई करके एलिचपुर और उसके खजाने को लूट लिया और फिर 1296 में वापस लौटकर उसने अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर दी और स्वयं सुल्तान बन बैठा। 
जूना खां ने 'अलाउद्दीन खिलजी' की उपाधि धारण कर 20 वर्ष तक शासन किया। 

इस शासन के दौरान उसने आए दिन होने वाले मंगोल (मुगल) आक्रमणों का मुंहतोड़ जवाब दिया। 
इसी 20 वर्ष के शासन में उसने रणथम्भौर, चित्तौड़ और मांडू के‍ किलों पर कब्जा कर लिया था और देवगिरि के समृद्ध हिन्दू राज्यों को तहस-नहस कर अपने राज्य में मिला लिया था।
 
जलालुद्दीन खिलजी के बाद दिल्ली पर इन्होंने क्रमश: शासन किया- अलाउद्दीन खिलजी, शिहाबुद्दीन उमर खिलजी और कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी। इसके अलावा मालवा के खिलजी वंश का द्वितीय सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी भी खिलजी वंश का था जिसने मरने के पहले ही अपने पुत्र को गद्दी पर बैठा दिया था। 
 
अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने 1308 ईस्वी में दक्षिण भारत पर आक्रमण कर होयसल वंश को उखाड़ मदुरै पर अधिकार कर लिया। 
3 वर्ष बाद मलिक काफूर दिल्ली लौटा तो उसके बाद अपार लूट का माल था। 1316 ई. के आरंभ में सुल्तान की मृत्यु हो गई। अंतिम खिलजी शासक कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी की उसके प्रधानमंत्री खुसरो खां ने 1320 ईस्वी में हत्या कर दी। 

बाद में तुगलक वंश के प्रथम शासक गयासुद्दीन तुगलक ने खुसरो खां से गद्दी छीन ली। 
 
 तुगलक आक्रमण --  
खिलजी वंश के बाद दिल्ली सल्तनत तुगलक वंश के अधीन आ गई। गयासुद्दीन तुगलक 'गाजी' सुल्तान बनने से पहले कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी के शासनकाल में उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत का शक्तिशाली गवर्नर नियुक्त हुआ था। उसे 'गाजी' की उपाधि मिली थी। गाजी की उपाधि उसे ही मिलती है, जो काफिरों का वध करने वाला होता है। 
खिलजी की तरह तुगलक वंश के शासकों ने भी गुलाम, दिल्ली सहित उत्तर और मध्यभारत के कुछ क्षेत्रों पर राज्य किया जिसमें क्रमश: गयासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद बिन तुगलक, फिरोजशाह तुगलक, नसरत शाह तुगलक और महमूद तुगलक आदि ने दिल्ली पर शासन किया। यद्यपि तुगलक 1412 तक शासन करता रहा तथापि 1399 में तैमूरलंग द्वारा दिल्ली पर आक्रमण के साथ ही तुगलक साम्राज्य का अंत माना जाना चाहिए। 
 
इस वंश का आरंभ तुगलक वंश के अंतिम शासक महमूद तुगलक की मृत्यु के पश्चात खिज्र खां से 1414 ई. में हुआ। इस वंश के प्रमुख शासक थे- सैयद वंश (1414-1451 ईस्वी) : खिज्र खां, मुबारक शाह, मुहम्मद शाह और अलाउद्दीन आलम शाह। अंतिम सुल्तान ने 1451 ई. में बहलोल लोदी को सिंहासन समर्पित कर दिया।

तैमूरलंग का आक्रमण-- 
तैमूरलंग, मूूूू (लोहा,लंगड़ा) जिसे 'तैमूर', 'तिमूर' या 'तीमूर' भी कहते हैं, (8 अप्रैल 1336 – 18 फरवरी 1405) चौदहवी शताब्दी का एक शासक था जिसने तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी।
वह बरलस तुर्क खानदान में पैदा हुआ था।उनके पूर्वजो ने इस्लाम कबूल कर लिया था। अत: तैमूर भी इस्लाम का कट्टर अनुयायी हुआ।
उज़्बेकिस्तान में तैमूर को आधिकारिक तौर पर एक राष्ट्रीय नायक के रूप में मान्यता प्राप्त है। ताशकंद में उनका स्मारक अब उस स्थान पर है जहां कार्ल मार्क्स की मूर्ति कभी खड़ी थी।
सन्‌ 1369 में समरकंद (उज़्बेकिस्तान) के मंगोल शासक के मर जाने पर उन्होंने समरकंद की गद्दी पर कब्जा कर लिया।
1380 और 1387 के बीच उन्होंने खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान और कुर्दीस्तान आदि पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन किया। 1393 में उसने बगदाद को लेकर मेसोपोटामिया पर अधिपत्य स्थापित किया।
 इन विजयों से उत्साहित होकर अब उसनें भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया। जबकि अमीर और सरदार प्रारंभ में भारत जैसे दूरस्थ देश पर आक्रमण के लिये तैयार नहीं थे, लेकिन जब उसनें इस्लाम धर्म के प्रचार के हेतु भारत में प्रचलित मूर्तिपूजा का विध्वंस करना अपना पवित्र ध्येय घोषित किया, तो उसके बाद अमीर और सरदार भारत पर आक्रमण के लिये राजी हो गए।
उस समय दिल्ली की तुगलक सल्तनत फिरोजशाह के निर्बल उत्तराधिकारियों के कारण शोचनीय अवस्था में थी। भारत की इस राजनीतिक दुर्बलता ने तैमूर को भारत पर आक्रमण करने का स्वयं सुअवसर प्रदान दिया।

1398 के प्रारंभ में तैमूर ने पहले अपने एक पोते पीर मोहम्मद को भारत पर आक्रमण के लिये रवाना किया। उसने मुल्तान पर घेरा डाला और छ: महीने बाद उसपर अधिकार कर लिया।
अप्रैल 1398 में तैमूर स्वयं एक भारी सेना लेकर समरकंद से भारत के लिये रवाना हुआ और सितंबर में उन्होंने सिंधु, झेलम तथा रावी को पार किया। 13 अक्टूबर को वह मुल्तान से 70 मील उत्तर-पूरब में स्थित तुलंबा नगर पहुँचे। उसनें इस नगर को लूटा और वहाँ के बहुत से निवासियों को कत्ल किया तथा बहुतों को गुलाम बनाया। फिर मुल्तान और भटनैर पर कब्जा किया। भटनैर से वह आगे बढ़ा और मार्ग के अनेक स्थानों को जीतते और निवासियों को कत्ल तथा कैद करते हुए दिसंबर के प्रथम सप्ताह के अंत में दिल्ली के निकट पहुँच गया। यहाँ पर उसनें एक लाख हिंदू कैदियों को कत्ल करवाया।
पानीपत के पास निर्बल तुगलक सुल्तान महमूद ने 17 दिसम्बर को 40,000 पैदल 10,000 अश्वारोही और 120 हाथियों की एक विशाल सेना लेकर तैमूर का मुकाबला किया लेकिन बुरी तरह पराजित हुआ। भयभीत होकर तुगलक सुल्तान महमूद गुजरात की तरफ चला गया और उसका वजीर मल्लू इकबाल भागकर बारन में जा छिपा।
दूसरे दिन तैमूर ने दिल्ली नगर में प्रवेश किया। पाँच दिनों तक सारा शहर बुरी तरह से लूटा-खसोटा गया और उसके अभागे निवासियों की नृशंस हत्या की या बंदी बनाया गया। पीढ़ियों से संचित दिल्ली की दौलत तैमूर लूटकर समरकंद ले गया। अनेक बंदी बनाई गई औरतों और शिल्पियों को भी तैमूर अपने साथ ले गया। 
तैमूर भारत से जिन कारीगरों को अपने साथ ले गया उनसे समरकंद में अनेक इमारतें बनवाईं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध  'बीबी ख़ानिम की मस्जिद' / जामा मस्जिद है।
समरक़न्द उज़बेकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा नगर ७१९ मीटर की ऊँचाई पर ज़रफ़शान नदी की उपजाऊ घाटी में स्थित है।यह तुर्की-मंगोल बादशाह तैमूर द्वारा स्थापित तैमूरी साम्राज्य की राजधानी रहा।
भारत के इतिहास में भी इस नगर का महत्व है क्योंकि बाबर इसी स्थान के शासक बनने की चेष्टा करता रहा था। बाद में जब वह विफल हो गया तो भागकर काबुल आया था जिसके बाद वो दिल्ली पर कब्ज़ा करने में कामयाब हो गया था।
समरकंद  शहर के बीच रिगिस्तान नामक एक चौराहा है,जिसे'समरकन्द - संस्कृति का चौराहा' भी कहते हैं। जहाँ पर विभिन्न रंगों के पत्थरों से निर्मित कलात्मक इमारतें विद्यमान हैं।२००१ में यूनेस्को ने इस २७५० साल पुरान शहर को विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल किया। शहर की चारदीवारी के बाहर तैमूर के प्राचीन महल हैं।'बीबी ख़ानिम की मस्जिद' इस शहर की सबसे प्रसिद्ध इमारत है। 

ईसापूर्व ३२९ में सिकंदर ने इस नगर का विनाश किया था। १२२१ ई. में इस नगर की रक्षा के लिए १,१०,००० आदमियों ने चंगेज़ ख़ान का मुक़ाबला किया। १३६९ ई. में तैमूर ने इसे अपना निवासस्थान बनाया। १८वीं शताब्दी के प्रारंभ में यह चीन का भाग रहा। फिर बुख़ारा के अमीर के अंतर्गत रहा और अंत में सन्‌ १८६८ ई. में रूसी साम्राज्य का भाग बन गया।
 
 लोदी आक्रमण--  (1451 से 1426 ईस्वी) 
 कई अफगान सरदारों ने पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थीइन सरदारों में सबसे महत्वपूर्ण बहलोल लोदी था। दिल्ली के शासक पहले तुर्क थे, लेकिन लोदी शासक अफगान थे। बहलोल लोदी के बाद सिकंदर शाह लोदी और इब्राहीम लोदी ने दिल्ली पर शासन किया। इब्राहीम लोदी 1526 ई. में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर के हाथों मारा गया और उसी के साथ ही लोदी वंश भी समाप्त हो गया। 
 मुगल आक्रमण-- अफगान आक्रमण (1525-1556) -
चंगेज खां के बाद तैमूरलंग शासक बनना चाहता था। वह चंगेज का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। चंगेज खां तो चीन के पास मंगोलिया देश का था। चंगेज खां एक बहुत ही वीर और साहसी मंघोल सरदार था। यह मंघोल ही मंगोल और फिर मुगल हो गया। सन् 1211 और 1236 ई. के बीच भारत की सरहद पर मंगोलों ने कई आक्रमण किए। इन आक्रमणों का नेतृत्व चंगेज खां कर रहा था। मंगोलों के इन आक्रमणों से पहले गुलाम वंश, फिर खिलजी और बाद में तुगलक और लोदी वंश के राजा बचते रहे। चंगेज 100-150 वर्षों के बाद तैमूरलंग ने पंजाब तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। तैमूर 1369 ई. में समरकंद का शासक बना। तैमूर भारत में मार-काट और बरबादी लेकर आया। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। तैमूर मंगोलों की फौज लेकर आया तो उसका कोई कड़ा मुक़ाबला नहीं हुआ। दिल्ली में वह 15 दिन रहा और हिन्दू और मुसलमान दोनों ही कत्ल किए गए। बाद में कश्मीर को लूटता हुआ वह वापस समरकंद लौट गया।
 
1494 में ट्रांस-आक्सीयाना की एक छोटी-सी रियासत फरगना का बाबर उत्तराधिकारी बना। उजबेक खतरे से बेखबर होकर तैमूर राजकुमार आपस में लड़ रहे थे। बाबर ने भी अपने चाचा से समरकंद छीनना चाहा। उसने दो बार उस शहर को फतह किया, लेकिन दोनों ही बार उसे जल्दी ही छोड़ना पड़ा। दूसरी बार उजबेक शासक शैबानी खान को समरकंद से बाबर को खदेड़ने के लिए आमंत्रित किया गया था। उसने बाबर को हराकर समरकंद पर अपना झंडा फहरा दिया। बाबर को एक बार फिर काबुल लौटना पड़ा। इन घटनाओं के कारण ही अंततः बाबर ने भारत की ओर रुख किया। 
 
1526 ई. में पानीपत के प्रथम युद्ध में दिल्ली सल्तनत के अंतिम वंश (लोदी वंश) के सुल्तान इब्राहीम लोदी की पराजय के साथ ही भारत में मुगल वंश की स्थापना हो गई। इस वंश का संस्थापक बाबर था जिसका पूरा नाम जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर था। इतिहासकार मानते हैं कि बाबर अपने पिता की ओर से तैमूर का 5वां एवं माता की ओर से चंगेज खां (मंगोल नेता) का 14वां वंशज था। वह खुद को मंगोल ही मानता था, जबकि उसका परिवार तुर्की जाति के 'चगताई वंश' के अंतर्गत आता थापंजाब पर कब्जा करने के बाद बाबर ने दिल्ली पर हमला कर दिया।
 
बाबर ने कई लड़ाइयां लड़ीं। उसने घूम-घूमकर उत्तर भारत के मंदिरों को तोड़ा और उनको लूटा। उसने ही अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई थी। बाबर केवल 4 वर्ष तक भारत पर राज्य कर सका। उसके बाद उसका बेटा नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूं दिल्ली के तख्त पर बैठा। हुमायूं के बाद जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर, अकबर के बाद नूरुद्दीन सलीम जहांगीर, जहांगीर के बाद शाहबउद्दीन मुहम्मद शाहजहां, शाहजहां के बाद मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब, औरंगजेब के बाद बहादुर शाह प्रथम, बहादुर शाह प्रथम के बाद अंतिम मुगल बहादुर शाह जफर दिल्ली का सुल्तान बना।
 
इसके अलावा दक्षिण में बहमनी वंश (347-1538) और निजामशाही वंश (1490-1636) प्रमुख रहे, जो दक्षिण के हिन्दू साम्राज्य विजयनगरम साम्राज्य से लड़ते रहते थे।

 यूरोपीय और ब्रिटिश इस्ट इण्डिया कंपनी का राज --
17वीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंबई (मुंबई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर कब्जा कर लिया। 
उधर फ्रांसीसियों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर कब्जा कर लिया। अंग्रेज जब भारत पर कब्जा करने में लगे थे तब भारत में मराठों, राजपूतों, सिखों और कई छोटे-मोटे साम्राज्य के साथ ही कमजोर मुगल शासक बहादुर शाह जफर का दिल्ली पर शासन था तो हैदराबाद में निजामशाही वंश का शासन था। 
अंग्रेजों को सबसे कड़ा मुकाबला मराठों, सिखों और राजपूतों से करना पड़ा। 
मैसूर के साथ 4 लड़ाइयां, मराठों के साथ 3, बर्मा (म्यांमार) तथा सिखों के साथ 2-2 लड़ाइयां तथा सिन्ध के अमीरों, गोरखों तथा अफगानिस्तान के साथ 1-1 लड़ाई छेड़ी गई। 
इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कंपनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली। इस तरह भारतीय राजाओं की आपसी फूट का फायदा उठाते हुए धीरे-धीरे कंपनी ने संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। 
 
 कंपनी के शासनकाल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक 22 गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। 
 
 *ब्रिटिश राज :* 
1857 के विद्रोह के बाद कंपनी के हाथ से भारत का शासन बिटिश राज के अंतर्गत आ गया। 1857 से लेकर 1947 तक ब्रिटेन का राज रहा। 
 1947 में अंग्रेजों ने शेष भारत का धर्म के आधार पर विभाजन कर दिया।

विशेष सुचना ---


इस आलेख के के सम्बन्ध में मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि,  मैं कोई इतिहास विशेषज्ञ हूँ। इतिहासकार होने की तो कल्पना भी नही करता। यह आलेख विकिपीडिया और वेबदुनिया  तथा समय समय पर विद्वानों के प्रकाशित आलेखों से प्राप्त सुचनाओं और जानकारियों के आधार पर सम्पादन मात्र है।
इतना अवश्य की अपने सिमित ज्ञान से परिचित होनें के कारण अपने मन से कुछ भी नही जोड़ा घटाया। जैसा मिला यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इस आलेख की प्रेरणा मिली (१)सोशल मीडिया पर वायरल एक सन्देश से जिसमें बतलाया गया कि, 
सिंगापुर वासी भारतियों से इसलिए घ्रणा करते हैं कि, हममें से कुछ लोग अपने देश, धर्म संस्कृति के शत्रुओं के विरुद्ध खड़े होनें के स्थान पर धन और सत्ता के लोभ मे या विद्वेष  से वशीभूत  होकर अपने देश धर्म और संस्कृति से गद्दारी करके शत्रुओं की सहायता की, उन्हे गुप्त जानकारियाँ दी, कमजोरियाँ बतलाई, उन्हें आक्रमण हेतु उकसाया, आमन्त्रित किया और लड़ाई में शत्रुओं के सैनिक बन कर लड़े।
(२) हमारे सोशल मीडिया के लेखक सदा विदेशी आक्रमणकारियों और विशेषकर मुस्लिम आक्रांताओं को मुगल लिखते हैं। क्वोरा एप पर और फेसबुक पर भी कई बार स्पष्ट करने पर भी यह गलती बारम्बार दूहराई जाती है।
(३) साथ ही समय समय पर राजनीतिक विद्वेष वश हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेताओं और क्रान्तिकारियों पर आक्षेप, आरोप प्रत्यारोप लगते रहे। भारत विभाजन के लिए एक दूसरे को दोषी करार दिया जाता है।
इन सब से विचलित हो मेने भारत पर आक्रमणकारियों का इतिहास टटोला। तब इच्छा हुई कि इस जानकारी को एकत्रित कर सार्वजनिक किया जाये। ताकि, किसी को बहुत अधिक परिश्रम न करना पड़े।




सोमवार, 16 मई 2022

श्री बुद्धावतार, गोतम बुद्ध और सिद्धार्थ ।

क्या श्री बुद्ध अवतार और गोतम बुद्ध, और सिद्धार्थ बुद्ध तीनों एक ही है या भिन्न- भिन्न?

सनातन धर्म में प्रत्येक चार लाख बत्तीस हजार वर्ष की अवधि में दशावतारों में से एक अवतार होने की अवधारणा है। 
तदनुसार कृतयुग (सतयुग) की कालावधि चार कलियुग के बराबर १७,२८,००० वर्ष होती है अतः सतयुग में चार अवतार १ मत्स्य २ कुर्म (कश्यप),३ वराह और ४ नृसिंह हुए।
त्रेतायुग की कालावधि तीन कलियुग के बराबर १२,९६,००० वर्ष होती है। अतः त्रेतायुग में तीन अवतार १ श्री वामन अवतार (विष्णु आदित्य) २ श्री परशुराम जी और ३ श्रीरामचन्द्र जी हुए।
द्वापर की कालावधि दो कलियुग तुल्य अर्थात ८,६४,००० वर्ष है। अतः द्वापरयुग में दो अवतार द्वापरयुग में दो अवतार १ श्री बलराम  और २ श्रीकृष्ण हुए। श्री कृष्ण तो निर्विवाद है, लेकिन द्वापरयुग के दुसरे अवतार बलराम हैं या बुद्ध इसमें मतभेद है।  नियमानुसार मुख्य अवतार अन्त में होता है अतः श्रीकृष्ण बाद में होना चाहिए उनके पहले बलराम अवतार होना तार्किक है। 
लेकिन कुछ लोग भागवत पुराण में उल्लेख के अनुसार और संकल्प बोले जानेवाले (श्री बोद्धावतारे) तथा पञ्चाङ्गो में लिखे जानेंवाले चौवीस अवतारों में से इक्कीसवें और दशावतारों में नौवे अवतार श्री बुद्ध नामक को मानते हैं। उनका मत है कि, बिहार में गया के निकट कीटक नामक स्थान पर आश्विन शुक्ल दशमी (विजयादशमी/ दशहरे) (मतान्तर से पौष शुक्ल सप्तमी) के दिन पिता अजिन (या मतान्तर से हेमसदन) के घर माता अञ्जना के गर्भ से भगवान श्री बुद्ध का अवतार हुआ ऐसा मानते हैं।
श्रीललित विस्तार ग्रंथ के 21 वें अध्याय के 178 पृष्ठ पर बताया गया है कि संयोगवश गौतम बुद्ध जी ने उसी स्थान पर तपस्या की जिस स्थान पर भगवान बुद्ध ने तपस्या  की थी। इसी कारण लोगों ने दोनों को एक ही मान लिया।
बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति। - भागवतपुराण
कलियुग की कालावधि ४,३२,००० वर्ष है। कलियुग में दशावतारों में से केवल एक अवतार कल्कि अवतार ही होता है। जो कलियुग समाप्ति के ८२१ वर्ष पहले सम्भल ग्राम में विष्णुयश शर्मा नामक ब्राह्मण के घर होगा। कल्कि की माता का नाम सुमति होगा।
कुछ लोग श्रीमद्भागवत पुराण में उल्लेख बतलाकर बिहार और नेपाल की सीमा पर लुम्बिनी नामक स्थाध पर ईसापूर्व 563 में राजा शुद्धोदन की पत्नी मायादेवी के गर्भ से जन्में सिद्धार्थ गोतम बुद्ध को विष्णुअवतार मानते हैं। 
किन्तु यह सही नही लगता क्योंकि,
(1) तथागत बुद्ध का वर्णन रामायण अयोध्या काण्ड/सर्ग 108 एवम् 109 में है। सर्ग 109 के 34 वें श्लोक में श्रीराम ने जाबालि को बुद्ध के मत को माननें वालों से वार्तालाप करना तक निषिद्घ और उन्हें चोर के समान दण्ड का पात्र  बतलाया है। मतलब बुद्ध और उनके मतावलम्बी श्रीरामचन्द्रजी के पूर्व में भी थे। स्पष्टतः यह वर्णन श्रमण सम्प्रदाय का है जो वर्तमान में 1 नागा, 2 शैव, 3 शाक्त, 4 गाणपत्य, ५ नाथ, 6 जैन और 7 बौद्ध  सम्प्रदाय के रूप में पाया जाता है। 
(२) सिद्धार्थ के जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि, यह बालक चक्रवर्ती राजा होगा या बुद्ध होगा। 
मतलब उनके जन्म के पहले कोई बुद्ध हो चुके थे। सिद्धार्थ या गोतम बुद्ध उन प्राचीन श्रीबुद्ध अवतार के अनुयाई रहे होंगे। अर्थात यह कहा जा सकता है कि, नारायण अवतार श्रीबुद्ध के पन्थ पर ही जैन तीर्थंकर और अन्य बुद्ध तथा सिद्धार्थ गोतम बुद्ध भी चले थे। 
जबकि भविषपुराण में तथागत गोतम बुद्ध को राक्षस कहागया है।और कल्कि पुराण में तो कहा गया है कि, सिद्धार्थ गोतम बुद्ध स्वयम् और उनकी माता मायादेवी और पिता शुद्दोधन पुनः उत्पन्न होकर अपने अनुयायी बौद्धों फट को साथ लेकर कल्कि अवतार से युद्ध करनें और श्री कल्कि से परास्त होनें का वर्णन है।
अतः सिद्धार्थ विष्णु अवतार तो कदापि नही माने जा सकते।
हरिवंश पुराण 01/41, विष्णु पुराण 3/18, पद्म पुराण3-252 एवम् गरुड़ पुराण उ/15/26 में मायामोह और नग्न नाम से श्रमण और जैन सम्प्रदाय का वर्णन है। 
श्रीबुद्ध, सिद्धार्थ - गोतम बुद्ध में तुलना ---
(१) तथाकथित नारायण अवतार श्री बुद्ध का जन्म 3225 ई.पू. से पहले से लेकर  3100 ई.पू. के बीच पहले यानी आज से लगभग 5121 वर्ष पूर्व से लेकर 5246 वर्ष पूर्व का द्वापर युग में हुआ ऐसा कहा जाता है । 
जबकि सिद्धार्थ गोतम बुद्ध का जन्म 623 ई.पू.का अर्थात कलियुग संवत 3723 में यानि आज से लगभग 2644 वर्ष पहले का होनें के कारण उन्हें नारायण अवतार बुद्ध नही कहा जा सकता है। 
(२) साथ ही तथाकथित नारायण अवतार श्री बुद्ध और सिद्धार्थ गोतम बुद्ध दोनों के माता-पिता, जन्म स्थान और जन्म तिथि बिल्कुल ही भिन्न-भिन्न (अलग-अलग) है।
(३) बोद्ध परम्परा के अनुसार सिद्धार्थ के जन्म के समय ही ज्योतिषियों नें यह भविष्यवाणी की थी कि, यह बालक या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा या बुद्ध होगा। मतलब सिद्धार्थ के जन्म के पहले कोई बुद्ध हो चुके थे जिनके नाम पर सिद्धार्थ को गोतम बुद्ध कहा गया। 
(४) बोद्ध मानते हैं कि सिद्धार्थ के जन्म के पहले कई लोग सम्बोधि प्राप्त कर बुद्ध हो चुके थे। मतलब बोद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध शब्द का अर्थ सम्बोधि प्राप्त व्यक्ति होता है जो कोई भी हो सकता है। 
५कुछ लोग सिद्धार्थ बुद्ध और गोतम के शिष्य गोतम बुद्ध को भी अलग-अलग मानते हैं।
जबकि सनातन धर्म के नारायण अवतार बुद्ध को सम्बोधि प्राप्त नही करना पड़ती है। नारायण अवतार बुद्ध अन्य अवतारों की भाँति जन्मजात आत्मज्ञ होते हैं। गलती से भी कोई गलती नही करते। केवल लोक कल्याणार्थ लीलाएँ रचते हैं।
(६) कुछ लोगों का तो आरोप है कि, पुराणों और अन्य हिन्दू ग्रंथों में वामपंथियों और अन्य सेक्युलर विद्वानों द्वारा भारी मात्रा में मिलावट कर दी गयी है और युवा वर्ग उसे ही सच मानने लगे हैं। अन्यथा सनातन धर्म और बौद्ध दोनों में से कोई भी सिद्धार्थ गोतम बुद्ध को नारायण अवतार नही मानता। 
जो लोग बुध (ग्रह) और बुद्ध में अन्तर नही जानते वे गोतम बुद्ध तो क्या स्वयम् को भी नारायण अवतार कह दें तो क्या कर सकते हैं। भारत में और सनातन धर्मियों में शास्त्र अध्येता बचे ही कितने हैं?
भगवान श्रीबुद्ध की गणना दशावतारों में न करना तो पूर्ण उचित ही है लेकिन चौवीस अवतारों में भी की जाए अथवा नही इसमें भी मतभेद है क्योंकि, 
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
वचन भी श्रीबुद्ध के चरित्र में नही था। अतः दशावतार और चौबीस अवतारों में भी श्रीबुद्ध के स्थान पर श्री बलराम जी को ही अवतार मानना उचित है।
निष्कर्ष यह कि, बुद्ध तो कई हुए लेकिन किसी बुद्ध को अवतार घोषित करने का षड़यन्त्र बोद्ध से सनातन धर्म में आये किसी पूर्व बोद्ध आचार्य की श्रद्धा का प्रतिफल और सनातन धर्म के साथ धोखा है। 

गुरुवार, 12 मई 2022

भारत में आतंक के भय से आतंकी या उसके इष्ट की पूजा और घरेलू शत्रु / भेदिये।

महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक  दक्षयज्ञ का भङ्ग और उनके क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति तथा उसके विविध रूप के अन्तर्गत अध्याय २८४  में उल्लेखित तथ्य के अनुसार सर्वप्रथम उचित - अनुचित और सत्य की जानकारी होते हुए भी पत्नी (पार्वती) के द्वारा उत्तेजित करने पर रुद्र शंकर जी ने दक्षयज्ञ विध्वन्स कर दादागिरी/ गुण्डागिरी और आतंक स्थापित कर रुद्र के लिए यज्ञभाग प्राप्त कर पत्नी को प्रसन्न किया।
उसके बाद रुद्र पूजा, विघ्नेश्वर विनायक की पूजा बल्कि प्रथम निमन्त्रण/ प्रथम पूजा, ज्वर के भय से शीतला पूजन, और निषिद्ध बासी भोजन करना सब अपना लिया।

फिर जैनों और बौद्धों के आतंक काल में सिद्धार्थ गोतम बुद्ध भी विष्णु अवतार हो गये। महावीर भी रुद्रावतार होगये। रावण जैनों के अगले तिर्थंकर होंगे इसलिए सनातन वैदिकों के लिए भी रावण विद्वान और ज्ञानी महा तपस्वी और भक्त कहलाने लगे।  कार्तवीर्यार्जुन सहस्त्रार्जून - भगवान सहस्त्रार्जून कहलाने लगे।

मुस्लिम आतंक ने अल्लाह को ईश्वर और ईसाई अंग्रेजों के आतंक के कारण (यहोवा तो कोई जानता नही इसलिए) यीशु ही गॉड कहलाने लगे।

अफ्रीका के माली सुमाली और पेरू आदि लेकिन अमरीकी देश और पेरु एवम् मेक्सिको के मयासुर को कुबेर के विरुद्ध लड़ने के लिए रावण ने आमन्त्रित किया।
यमन (अरब) से कालयमन को श्रीकृष्ण से लड़ने के लिए जरासन्ध ने आमन्त्रित किया।
विक्रमादित्य के पिता गन्धर्वसेन से लड़ने हेतु उज्जैन से काबुल तक पैदल यात्रा कर जैनाचार्य महेसरा सूरी/ कालकाचार्य ने काबुल (अफगानिस्तान) से शकराज को आमन्त्रित किया। शकराज ने शिकार पर गये गन्धर्वसेन को अकेला पा कर अत्यन्त क्रूरता पूर्वक मारा। (क्या यह हिन्सा नही थी?)
चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़ेभाई रामगुप्त के विरुद्ध शकराज को रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी का हरण करनें के लिए आक्रमण की सलाह देकर रामगुप्त की कमजोर कड़ियां बतला कर राम गुप्त को परास्त करवने और ध्रुव स्वामिनी का अपहरण करने जैसे नृशंस कृत्य बौद्ध भिक्षुओं/ बौद्धाचार्यों ने इसलिए किया क्योंकि चीनी बौद्ध थे और रामगुप्त आदि गुप्त वंशी राजा वैष्णव थे।
मोहम्मद बीन कासीम को सिन्ध विजय के गुप्त रहस्य बतलानें वाले बौद्ध भिक्षु और मोहम्मद घोरी (ग़ौरी) को भारत पर आक्रमण का निमन्त्रण देनें चित्तोड़ की रानी पद्मिनी के सौन्दर्य का बखान कर उसे प्राप्त करने हेतु चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करने की सलाह देनें वाले भी सूफियों के अनुयाई राजपूत ही थे।
गुरुनानक देव जी के सुपुत्र चन्द्रदेव के अनुयाई उदासीन अखाड़े के साधुओं, निरंकारियों, आदि पर अकालियों को प्राधान्य प्राप्त करने के लिए अकालियों द्वारा अंग्रेजों को सहयोग देकर हरिमंदिर साहब पर एकाधिकार जमाने वाले अकाली। उक्त  सब भारतीय ही थे।
भारत में यदि राष्ट्रीयता होती तो देश विदेशियों का गुलाम नही होता।
विदेशी आक्रमणकारी यहीं के भाड़े के सैनिक भरती कर लेते थे। जो भारतीय राजाओं के सैनिकों से लड़ते थे। लूटपाट करने थे। ऐसे भारतीय भी हुए हैं।
ईसाइयों के लिए भारतीयता से अधिक अहम ईसाईयत होती है। तो मुस्लिमों के लिए विश्व का हर मुसलमान उनका भाई है।  जब भी टर्की, अरब पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि किसी मुस्लिम राष्ट्र से यदि भारतीय हितों से टकराव हो तो अधिकांश भारतीय मुस्लिम भारतीय हितों के विरुद्ध मुस्लिम राष्ट्र के पक्ष में खड़े रहते हैं। कश्मीर की राजनीति में मेहबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला के बयानों में तो स्पष्ट ही देखा जा सकता है।
आज भी कुछ राजनीतिक जन तक भारत के विरुद्ध चीन और पाकिस्तान की पैरवी करते पाये जाते हैं।
भारत के वाम पन्थियों पर आरोप लगते हैं कि, वे भारत चीन आक्रमण के समय चीन के पक्ष में पैरवी करते थे।और आज भी भारतीय हितों के विरुद्ध चीन का पक्ष लेते हैं।
कांग्रेसी नेताओं पर आरोप है कि वे चीन और पाकिस्तान के शासनाध्यक्षों से मोदी जी के विरुद्ध सहयोग मांगते हैं।
दासत्व इतना कूट कूट कर भरा है कि, भाजपा नेता तक सार्वजनिक मञ्च पर बोलते थे कि, कांग्रेस के राज से तो अंग्रेजी राज अच्छा था। इतनी महंगाई नही थी। नारी रात में भी सुरक्षित घूमती थी। मतलब उनके अनुसार अंग्रेजों ने भारत में सुराज स्थापित किया था। जिसे भारतियों (कांग्रेसियों) ने समाप्त कर दिया।
हम भारतियों की स्थिति यह है कि, 
भारतीय विधि -विधान और नियमों की धड़ल्ले से अवहेलना करके, टेक्स चोरी, बिजली चोरी करके, अतिक्रमण करके, रिश्वत ले देकर, दहेज ले देकर, अतिथि नियन्त्रण कानून तोड़कर अपराध बोध अनुभव करने के स्थान पर हुए डींग हाँकते हुए अपनी बड़ी महत्ता सिद्ध करते हैं। और फिर बोलेंगे सौ में से निन्यानवे बेईमान फिर भी मेरा देश महान।
किसको दोष दें? किस किस को दोष दें?
भारतियों में ही राष्ट्रीयता है ही नही।

बुधवार, 11 मई 2022

भारतीय श्रुति परम्परा और अरबी/ इब्राहिमी किताबी परम्परा में बहुत अन्तर है।

हमारी श्रुत परम्परा की अवधारणा इब्राहिमी यहोवा द्वारा कानून व्यवस्था की किताब देने और मोह मद को जिब्राईल फ़रिश्ते के माध्यम से क़ुरान की चौपाइयां सिखानें की अवधारणा से बहुत अन्तर है।

१ वेद श्रुत परम्परा से हमें प्राप्त हुए। यह सत्य है लेकिन इसका प्रारूप/ स्वरूप ऐसा है ---

परमात्मा के ॐ संकल्प का ही विस्तार वेद वचन/ ऋचाएँ है।
इनका विस्तार क्रमशः इस प्रकार होकर मानवों तक पहूँचा।
इसके भी दो प्रारूप हैं।
१ परमात्मा से ब्रह्म तक केवल एक ही वेद यजुर्वेद ही था ।

 शतपथ ब्राह्मण का मन्त्र कुछ ऐसा है --- 
अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते,वायोर्यजुर्वेदः ; सूर्यात्सामवेदः।

अर्थ --- ब्रह्म से अग्नि को ऋग्वेद संहिता का बोध हुआ, वायु को यजुर्वेद संहिता का बोध हुआ, सूर्य (आदित्य) को सामवेद संहिता का बोध हुआ तथा अङ्गिरा को अथर्ववेद संहिता का बोध हुआ।
 अङ्गिरा के पुत्र/ शिश्य  अथर्वा आङ्गिरस से अपनें शिष्यों को अथर्ववेद का ज्ञान मिला।

 ब्रह्म से चार देवत ऋषियों को वेदिक संहिताओं का बोध हुआ।
यह बात मनुस्मृति में भी कही है। 
मन्त्र है- अग्निर्वायुरविस्तु त्य ब्रह्म सनातन। दुहोय यज्ञसिध्यर्थमृगयजुः सामलक्षणम्। 
महाभारत और पुराणों के अनुसार वेद व्यास जी ने भी इसी परिपाटी को आगे बढ़ाकर --- वेदव्यास जी ने पिप्पलाद या पैल को ऋग्वेद संहिता पढ़ाई/ सिखाई, 
वेदव्यास जी ने याज्ञवल्क्य को यजुर्वेद संहिता सिखाई/ पढ़ाई,  (याज्ञवल्क्य ने वैशम्पायनजी को कृष्ण यजुर्वेद/ तैत्तिरीय संहिता पढ़ाई/ सिखाया), 
वेदव्यास जी ने  जैमिनी को सामवेद संहिता पढ़ाई/ सिखाई, और
वेदव्यास जी नें ही सुमन्त को अथर्ववेद संहिता पढ़ाई/  सिखाई।
उनने अन्य ऋषियों को यह ज्ञान प्रदान किया। जो अष्टपाठ विधि से यथावत सुरक्षित रहा।
ऋषियों ने ब्राह्मण ग्रन्थ रचे।

२ दूसरी परम्परा कहती है,
परमात्मा का ॐ संकल्प का ही विस्तार वेद है। 
परब्रह्म (विष्णु) से ब्रह्म (सवितृ) को 
ब्रह्म (सवितृ) अपरब्रह्म (नारायण) को
अपरब्रह्म (नारायण) से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को,
 हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से प्रजापति ब्रह्मा को और 
प्रजापति ब्रह्मा से देव, असुर, मानव, दानव सबको यथा जिज्ञासा वेद (ज्ञान) प्रदान किए।

जैसे याज्ञवल्क्य जी ने तप द्वारा इन्द्र से भी अतिरिक्त वेद ज्ञान प्राप्त किया। 
इब्राहिमी परम्परा ---
जबकि आदम, से न्युहु तक तो स्वयम  सभी आस्थावान यहोवा भक्तों को तो यहोवा स्वयम् ही को गाइड करता रहा। 
यहोवा स्वयम् ने इब्राहिम को (तनख) विधि - विधान (कानून) पढ़ाये, मूसा को तो एक शिला लेख भी दिया था। मूसा, दाउद को कानून और व्यवस्था की किताब दी।
और यीशु के अनुयाई मानते हैं कि, यीशु तो यहोवा के इकलौते पुत्र थे अतः सीधे ही शिक्षित प्रशिक्षित हो कर ही आये थे। जबकि, भारतीय मानते हैं कि, वे बारह वर्ष तक किसी बौद्ध के अनुयाई रहे और बादमें उसके साथ  भारत आकर शिक्षा ग्रहण कर तीस वर्षायु में वापस इज्राइल गये। फिर तैंतीस वर्षायु में क्रुस से उतारे जाने पर वापस भारत आगये थे।
उधर सीरिया, ग्रीसऔर रोमनों ने अपनी-अपनी परम्परानुसार ईसाईयत गढ़ी।

मोह मद को सीरियाई ईसाई पादरी द्वारा जिब्राईल फ़रिश्ते के रूप में आकर बतलाया जाता था कि, अल्लाह जिब्राईल के माध्यम से मोह मद को कुरान की चौपाइयाँ भेज रहा है / जिब्राईल के रूप में उसी सीरियाई पादरी को मोह मद को कुरान की आयतें रटाई गई/   सिखानी भी पड़ी।

मोह मद के अनुयाई मोह मदन कहते हैं कि, अल्लाह ने जिब्राईल फ़रिश्ते के माध्यम से क़ुरान की आयतें भेजी।

अब बतलाईये कहाँ और क्या साम्य है?

शुक्रवार, 6 मई 2022

मिथ्या शब्द का अर्थ।


शंकराचार्य जी ने निरालम्बोपनिषद का एक वचन उधृत किया। ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या। 
मिथ्या को असत समझ कर वैष्णवाचार्यों के अनुयायियों और तान्त्रिकों को शंकराचार्य जी का खण्डन करने का एक हथियार मिल गया। वे कहने लगे प्रत्यक्ष जगत असत कैसे हो सकता है?  अतः जगत मिथ्या नही सत है। सदा से है अनादि है।
(सुचना-- अनादि है तो अनश्वर भी होगा ही।)
वास्तव मे  मिथ्या शब्द का अर्थ सत असत अनिर्वचनीय होता है; न कि, असत। कैसे?
आइये इसे स्वप्न के माध्यम से समझते हैं। क्योंकि स्वप्न का अनुभव सबको है। हिप्नोटिज्म (सम्मोहन) से भी ऐसे ही समझा जा सकता है लेकिन उसका अनुभव सबको नही होता है, अतः वह उदाहरण नही दिया गया।
मिथ्या का अर्थ क्या है? मिथ्या का अर्थ स्वप्न के उदाहरण से ---
(सुचना -- यहाँ स्वप्न दृष्टा का काल्पनिक नाम शिशिर है।)
बचपन का कोई स्वप्न याद करो जिसमें आप किसी क्रीड़ा में विजित हो रहे थे और आप को जगा दिया गया हो और आपने कहा, मम्मी बहुत मज़ा आ रहा था, मेनें ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया, मजा आ गया।

या स्वप्न में आप के पीछे कुत्ते, गाय/ साण्ड, या बाघ/ सिंह अथवा कोई शत्रु लगा हो और आप भाग रहे हैं और भागते भागते पेर जवाब दे रहे हों, हाँपनें लगे हो और आपको उठा देने पर भी आप उस भय से उबर नही हो पा रहे हों। थकान महसूस कर रहे हों।

कोई दुःखद दृष्य देखा हो, और आप विलाप कर रहे हों और उठाने के बाद भी बहुत देर सिसकियां लेते रहे हों।

 इन सभी सपनों में 
पहला (शिशिर) बिस्तर पर लेटा है। जिसे सब जानते हैं। यह मूलतः तटस्थ और निरपेक्ष ही रहते हुए भी अनुमन्ता, भर्ता, दृष्टा (केमरापर्सन) कर्ता (एक्टर/ एक्ट्रेस) और भोक्ता (सुख: दुःख अनुभव करनें वाला) इसी को माना जाता हैं।
दुसरा अदृष्य (शिशिर) जिसे हर प्रकार का सुख-दुख, दर्द-वेदना, चिन्ता-फिक्र, अपना पराया, मैं तु, यह सबका अनुभव हो रहा है।
यह दुसरा (शिशिर) जो भावनाओं को अनुभव कर रहा था, सुखी-दुःखी हो रहा था और जगा देनें के बाद भी उससे उबर नही पा रहा था।
वह भी इन सभी क्रियाओं/ प्रतिक्रियाओ, कार्यों - परिणामों, कर्मों - कर्म फलों में हर दृष्य में साथ रहते हुए ही पूर्ण अदृष्य रहता हैं। पूर्ण जागृति के पहले तन्द्रावस्था मे ही ध्यान दो या जागनें के तत्काल बाद बहुत ध्यान दो तो ही तभी समझ आयेगा। जागने के साथ ही यह शरीर से तादात्म्य स्थापित कर लेता है।
तिसरा (शिशिर) स्वप्न दृष्टा (केमरामैन)  जिसे कर्ता (एक्टर) की पीठ भी दिखती है, यदि एक्टर की आँख में कोई कचरा चला गया तो स्वप्न दृष्टा (केमरामैन) को स्वप्न में कर्ता के रूप में दिखनें वाला (एक्टर) की आँख तक दिखती है। यह तिसरा स्वप्न देखने वाला दृष्टा (केमरापर्सन) और अनुमन्ता (डायरेक्टर) भी है। जिसे स्वप्नावस्था में भी कभी कभार अनुभव किया जा सकता है।

चौथा शिशिर स्वप्न में कर्ता (एक्टर/ एक्ट्रेस) दोड़ भाग कर रहा है, संघर्ष कर रहा है, मोज-मजे कर रहा है, प्रमुदित दिख रहा था। इसे चोंट भी लग सकती, घायल हो सकता है, परेशान दिख सकता है। है, यह सबकुछ करता है/ यह कर्ता (एक्टर) है। इसे सबने देखा है। सब जानते हैं।

(पहला लेटा हुआ शिशिर और तीसरा स्वप्न में कर्ता-भोक्ता शिशिर ये दो तो स्पष्ट हैं जिन्हे सभी जानते हैं। लेकिन अनुमन्ता, भर्ता भोक्ता की स्मृति बहुत कम ही रहती है। लेकिन दृष्टा (केमरापर्सन) को थोड़े से प्रयत्न से ध्यान दिया जा सकता है।)

दुसरे वाला शिशिर  जो भावनाओं का अनुभव (इमोशन्स फिल) कर रहा था, सुखी-दुःखी हो रहा था और जगा देनें के बाद भी उससे उबर नही पा रहा था; उस अनुभव कर्ता दुसरे वाले शिशिर के लिए क्या वह कर्ता (चौथा वाला एक्टर) कभी सही में था? क्या उसका वास्तविक अस्तित्व था? सत था? यदि उसका वास्तविक अस्तित्व होता तो उसके अवशेष खोजे जा सकते। तो जिसे वास्तविक शिशिर नें स्वप्नावस्था मे प्रत्यक्ष देखा, अनुभव किया, भोगा गया था; क्या वह वास्तव में था ही नही? असत था? यह कैसे कहा जा सकता है। स्वप्नकाल मे स्वप्न देश (स्थान) में हो रही घटनाओं में उस देश काल के लिए तो वह पात्र पूर्ण सत्य था। तो अब कहां गया उसका कोई अस्तित्व दिखता क्यों नही जबकि उसके प्रभाव (मोद/ मुदित होना, भय, थकान,) सभी मौजूद हैं बस वही नही है। न उसके संगी साथी हैं न वह स्थान है, न परिस्थितियां है। 
(डिस्कवरी वाले पुछेंगे वो कौन था? वह कहाँ था? वह किनके साथ था? कहां गये वो लोग? वो कहां से आये थे? क्या वो फिर आयेंगे? तो क्या जवाब दोगे?😃)
कहना होगा कि, वह सत असत अनिर्वचनीय है। वह माया है। जैसे ऐन्द्रजालिक (जादूगर) इन्द्रजाल (जादू नामक कला) के माध्यम से जो वास्तव में है ही नही वह सब दिखला देता है। लेकिन वास्तव में वे होते नही यह सब जानते हैं। वैसे ही स्वप्न का दृष्टा (एक्टर) ,उसके साथी, उसका संसार सब मिथ्या ही थे। पर उन्हे हम सबने अनुभव किया है। देखा है। तो इस आधार पर उसे सत्य तो नही कहा जा सकता ।

बस यही *सत असत अनिर्वचनीयत्व के लिए ही अद्वैत वेदान्त दर्शन में एक शब्द है मिथ्या* । 

अब सृष्टि को भी उक्त स्वप्न के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।
 
(परमात्मा के शेष तीन चौथाई भाग के लिए तो पुरुष सुक्त और नासदीय सुक्त भी मौन ही है। लेकिन इन सब को समझनें में  शुक्ल यजुर्वेद अध्याय ३१ (पुरुष सुक्त, उत्तर नारायण सुक्त) एवम, ३२ (सर्वमेध सुक्त) एवम् ४० (ईशावास्योपनिषद), ऋग्वेद के अस्य वामीय सुक्त और नासदीय सुक्त, हिरण्यगर्भ सुक्त पढ़ना - समझना आवश्यक है।)

पुरुष सुक्त के अनुसार परमात्मा के एक चौथाई अंश में विश्वात्मा (ॐ संकल्प) प्रकट हुआ। इसी  ॐ संकल्प से प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) प्रकट हुए। उक्त  संकल्प से व्युत्पन्न यह कल्प परब्रह्म (विष्णु) के लिए तो मनोराज्यम् मात्र है। जबकि, हमारे  के लिए यह पूर्ण सत्य है। जैसे स्वप्न के दृष्टा (एक्टर) के लिए वह स्वप्न सत्य ही था ऐसा ही अज्ञानावस्था में तो हमारे लिए भी यत्किञ्च जगत सत्य ही है।।   
शुद्ध अन्तःकरण वाले भक्त जिन्हें अभी ऋत का ज्ञान नहीं हुआ है इस कारण अभी भी वे जीवन मुक्त अवस्था में नही है, उनके लिए यह सत असत अनिर्वचनीय है अर्थात मिथ्या ही है। क्योंकि अनुभव तो उन्हें भी हो रहा है। अतः वे भी इन्कार तो नही कर सकते पर मन में सब जानते समझते भी हैं कि, जैसा वास्तविक सत्य परमात्मा है वैसा यह वास्तविक सत्य यह जगत नही है। 
और आत्मज्ञ के लिए तो यह न कभी सत्य था, न है। उनके लिए तो केवल आत्मतत्व परमात्मा ही सत्य है, सबकुछ है।

विश्व / सृष्टि के सन्दर्भ में --

१  प्रज्ञात्मा परब्रह्म (परम पुरुष विष्णु शेष शय्या पर लेटे हुए) इस सृष्टि की कल्पना करते हैं।  इसलिए इसे कल्प कहा जाता है। प्रज्ञात्मा परब्रह्म (परम पुरुष विष्णु) के लिए वह मनोराज्यम् (दिवास्वप्न) मात्र था। 
(शायद इसीलिए भगवान प्रज्ञात्मा परब्रह्म विष्णु की बहुत सी प्रतिमाएँ और चित्रों में उन्हें लेटा हुआ बतलाया जाता है।)
(प्रज्ञात्मा (परब्रह्म) की तुलना स्वप्न के उदाहरण में  बिस्तर पर लेटे व्यक्ति से कीजिए।)

२ यह प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) पेण्डुलम की भाँति कभी प्रज्ञात्म भाव की ओर झुक कर ज्ञानवान के सदृष्य सोच विचार और आचार व्यवहार वाला हो जाता है तो कभी जीवात्म भाव की ओर मुड़कर मोहित चित्त हो जाता है और संसार में रम जाता है।
सुख - दुख अनुभवकर्ता; प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म का विवेक जागृत होने पर वह प्रज्ञात्मा परब्रह्म में ही लय होते हुए प्रत्यक्ष सक्रिय रहता है। उसके लिए चौथा तत्व (एक्टर) भूतात्मा (हिरण्यगर्भ) और वह कल्प या (स्वप्न संसार) गायब हो जाता है।  प्रत्यगात्मा का विवेक जागृत होते ही ( पूर्ण जागृति) पर कल्प/ स्वप्न रूपी पूर्व अनुभव का कोई महत्व नही रहता। लेकिन अन्यों के लिए यह परिवर्तनशील जगत बना रहता है।
( श्रीमद्भगवद्गीता का वचन ध्यान दें -- उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता -भोक्ता, महेश्वर। यह कर्ता नही भर्ता है। देखता है, करने देता है। पर स्वयम् तटस्थ है। पर अनुभव करता है तभी तो सहचारी हो पाता है। )
(स्वप्न के उदाहरण के दुसरा  जो सुख - दुख अनुभव कर्ता था; जिसे जगाने पर वह लेटे हुए व्यक्ति में ही सक्रीय हो कर प्रत्यक्ष हो गया। उसके लिए चौथा दृष्टा व्यक्ति (एक्टर) और वह स्वप्न संसार गायब हो गया। (पर जगत यथावत रहता है।) वह कर्ता- भोक्ता (सुख-दुःख अनुभव कर्ता) की तुलना प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म से कीजिए।)

३  (जीव भाव में ही सब भोग हैं, जन्म - मृत्यु है।) लेकिन यह जीवभाव केवल भावात्मक अस्तित्व रखता है।  यदि विवेक जागृत हो जाए तो  प्रत्यगात्मा ब्रह्म का स्थाई झुकाव प्रज्ञात्मा परब्रह्म की ओर हो जाता है तब इसके लिए जीवात्मा भाव का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यही निर्वाण है। अब यह जान जाता है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुण ही गुणों में व्यवहृत हो रहे हैं गुणों के गुणो में इस व्यवहार होने को ही सृष्टि की क्रियाएँ कहा जा रहा है, माना जा रहा है। वास्तव में तो न इनका कोई कर्ता है न भोक्ता है। क्योंकि, इसका किसी प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) पर कोई वास्तविक प्रभाव नही पड़ता है अतः कोई भोक्ता भी नही है।
जैसे बिम्ब या दर्पण में से किसी भी एक को हटा दो तो प्रतिबन्ध का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। वैसे ही यदि केमरामैन हट जाये तो आभासी दृष्य (स्वप्न) का अस्तित्व ही नही रहता। 
मतलब जिसे हम अनुभव करने के कारण सत्य मान बैठे थे वास्तव में तो वह था ही नही। अर्थात स्वप्न और प्रतिबिम्ब जो अनुभव हो रहे थे वस्तुतः वे मिथ्या थे।
(स्वप्न के उदाहरण में जीवात्मा अपर ब्रह्म से स्पप्न के केमरामेन  से तुलना कीजिए।)
और 
४  (ऋग्वेद का वचन ध्यान दें -- त्वष्टा ने बढ़ाई की भाँति ब्रह्माण्ड को घड़ा /(रचना की)।)
भुतात्मा (हिरण्यगर्भ) निर्धारित आयु वाला प्रथम तत्व है। इनकी आयु दो परार्ध है। अर्थात जबतक इनकी रचना है तभी तक  इनका भी अस्तित्व है ।
प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) का जीवात्म भाव समाप्त होते ही उसके लिए भूतात्म भाव भी स्वतः लय हो जाता है।
ये इंजिनियर है। जिस प्रकार मकान, पुल, सड़क बना कर इंजीनियर गायब हो जाता है। लोग इसके गुण-दोषों की समीक्षा करते रहते हैं पर यह सुनने के लिए मौजूद नही रहता। 
भूतात्मा जड़ है इसलिए भोग रत रहते समय भी मुदित नही होता। बल्कि प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ही मोद का भोक्ता होता है। चोटिल होने पर इसे चोंट कष्ट और दुःख  प्रत्यगात्मा को होता। 
(स्वप्न के उदाहरण में भुतात्मा  (हिरण्यगर्भ) की तुलना स्वप्न के दृष्टा (एक्टर) से कीजिए जो दोड़ -भाग कर रहा था और स्वप्न समाप्त होते ही गायब हो गया था । 
 
सुचना -- 
0  विश्वात्मा को ही ॐ संकल्प कहते हैं।
१ प्रज्ञात्मा (परम पुरुष या दिव्य पुरुष या अक्षर पुरुष - परा प्रकृति ) परब्रह्म (विष्णु - माया)) कहते हैं ।
२ प्रत्यगात्मा (पुरुष- प्रकृति)/ ब्रह्म (सवित्र -सावित्री) कहते हैं।
३ जीवात्मा(अपर पुरुष - त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति या जीव- आयु ) अपर ब्रह्म (नारायण - श्री लक्ष्मी) कहते हैं। 
४ भुतात्मा - प्राण - धारयित्व/ धृति / चेतना - संज्ञा (चेतन्यता), हिरण्यगर्भ (त्वष्टा - रचना) कहते हैं।

(फल श्रुति  -- इस प्रकार जानने समझने से संसार के प्रति आसक्ति (लगाव) हटाने में सहायक होगा। इसका लाभ यह होगा कि, निषिद्ध कर्मों के प्रति स्वाभाविक उपरामता आकर अनासक्त भाव से / निर्लिप्त भाव से निष्ठा पूर्वक कर्तव्य कर्मों का निर्वहन हो सकेगा।)

गुरुवार, 5 मई 2022

विभिन्न वेदान्त दर्शन,मत सम्प्रदाय क्यों

विभिन्न मत - सम्प्रदायों की आवश्यकता और प्रासङ्गिकता को सिद्ध करने के लिए यों कहा जा सकता है कि,
निम्बार्काचार्य (स्वाभाविक भेदाभेद)(ईसापूर्व ३०९६ ई.पू. वैदुर्यपत्तनम/ मुंगीपैठन -ओरङ्गाबाद महाराष्ट्र )
निम्बार्काचार्य जी के वैदिक संहिताओं, उपनिषदों  के आधार पर प्रस्तुत स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन के द्वैधिभाव से असन्तुष्ट जनों के लिए और बौद्धों और जैनों द्वारा भटकाये गये वैदिक लोगों को वेद विरोधी भटकाव से रोक कर वापस वैदिक मत में लाने के लिए शंकराचार्य जी ने वैदिक संहिताओं, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, और बादरायण कृत शारिरिक सुत्र और विष्णु पुराणादि स्मृतियों के आधार पर अद्वैत वेदान्त दर्शन प्रस्तुत कर लोगों को  बचाया।
शंकराचार्य (अद्वैत) (कलियुग संवत २६३१ अर्थात ईसापूर्व ५०७ ई. पू. कालड़ी केरल से कलियुग संवत २६६३ अर्थात ४७५ ई.पू. केदारनाथ उत्तराखण्ड)।

वसुगुप्त (८६०ई. से ९२५ई.) का शिवसुत्रोक्त त्रिक दर्शन ।
इससे अप्रसन्न तान्त्रिकों नें सांख्य दर्शन की तत्व मीमांसा और शुन्यवाद एवम विज्ञान वाद मिला कर अद्वैत वेदान्त का भ्रमोत्पादक त्रिक दर्शन सतहत्तर श्लोकी शिव सुत्र रचकर वसुगुप्त ने दिया (८६०ई. से ९२५ई.) । जिससे वैदिक देवता शिव के नाम के कारण आस्तिक जन भी सन्तुष्ट रहें।
अभिनव गुप्त (९५० ईस्वी कश्मीर से १०१६ ईस्वी तक मंगम कश्मीर ) ने विभिन्न आगम सिद्धान्तों और पद्धतियों में सर्वश्रेष्ठ रूप में मान्य अनुत्तरषडर्धक्रम (त्रिक) परम्परा में पद्धति और प्रक्रिया का ग्रन्थ तन्त्रालोक रचा।

रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैत) १०१७ श्रीपेरंबदूर से ११३७ श्रीरङ्गम
इस प्रयास को देखकर दृविड़ आलवार सन्त यामुनाचार्य ने ब्राह्मण रामानुजाचार्य को प्रस्तुत किया जिननें कृष्ण यजुर्वेद, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, और बादरायण कृत शारिरिक सुत्र और विष्णु पुराण को आधार बनाकर कर वैष्णव भक्ति प्रधान तथा सरल विशिष्टाद्वैत दर्शन प्रस्तुत किया।
मध्वाचार्य (द्वैत)(१२३८ पाजक (उडुपी) से १३१७ उडुपी कर्नाटक)
उक्त अति शास्त्रिय मत समझ न पानें वाले आस्तिक वैष्णव भक्त जनों को सन्तुष्ट रखनें के लिए मध्वाचार्य जी ने भक्ति प्रधान द्वैतवाद प्रस्तुत किया।
रामानन्दाचार्य (भक्ति आन्दोलन) (१४०० प्रयागराज से १४७६ वाराणसी)
रामानुज सम्प्रदाय के अनुयाई रामानन्दाचार्य नें  निर्गुण ब्रह्म मत प्रचारक कबीरदास जी उनके शिश्य/ अनुयाई नानक देव,सगुण मतावलम्बी और विभिन्न जातियों में उत्पन्न सन्त रविदास आदि अनेक सन्तों और वैष्णव भक्तों की श्रंखला खड़ी करदी।
वल्लभाचार्य (शुद्धाद्वैत) (१४७९ चम्पारण रायपुर से १५३१ वाराणसी)
लेकिन कुछ तान्त्रिक प्रवृत्ति के वैष्णव लोगों को त्रिक दर्शन पसन्द आनें लगा तो वल्लभाचार्य जी नें त्रिक दर्शन का वैष्णव स्वरूप शुद्धाद्वेत दर्शन प्रस्तुत कर दिया।  
श्री कृष्ण चेतन्य महाप्रभु (अचिन्त्य भेदाभेद)(१४८६ नवद्वीप से १५३४ जगन्नाथ पुरी)
उसी समय बङ्गाल में श्रीकृष्ण चेतन्य महाप्रभु ने भजनानन्दियों के लिए न्याय दर्शन के आधार पर अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन प्रस्तुत किया।
तो इन सबके बाद सबसे सफल 
इस प्रकार वेदिक धर्म रक्षार्थ सभी नें अपने स्तर पर प्रयत्न किया

सभी आस्तिक दर्शनों का आधार वेद ही होनें से पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्गयोग, और भक्ति भाव में सभी समान रूप से आस्थावान हैं यह कोई साम्य नही हुआ। क्योंकि मतभेद तत्व मीमांसा या ज्ञान मीमांसा में ही है। नीति दर्शन और उपासना पद्यति अविवादित विषय है।



ृलंर भी जन







सोमवार, 2 मई 2022

सावन वर्ष और सायन सौर वर्ष का संयोजन।

*1 संवत्सर,2 परिवत्सर, 3 इदावत्सर, 4 अनुवत्सर और 5 इद्वत्सर नामक सावन वर्षों के युगों का 3840 (तीन हजार आठ सौ चालिस) वर्षीय महायुग।* 

1 संवत्सर - बारह मास / तीनसौ साठ दिन का प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ ।  फिर षष्ट, सप्तम,अष्टम और नवम वर्ष । वर्ष 360 दिन का वर्ष। सामान्य संवत्सर।

2 परिवत्सर - अधिवर्ष / लीप ईयर। वर्षान्त में एक अधिक मास जोड़कर तेरह मास का तीनसौ नब्भे दिन का वर्ष। फिर ऐसे ही दशम वर्ष, पन्द्रहवाँ वर्ष, बीसवाँ, पच्चीसवाँ, तीसवाँ और (3835 वाँ वर्ष छोड़कर ) पैंतीसवाँ वर्ष 390 दिन का वर्ष।
परिवत्सर के अन्त में सायन सौर वर्ष और सावन वर्ष का लगभग मैल हो जाता है।

3 इदावत्सर - द्वादश मास का  तीनसौ साठ दिन का वर्ष। लेकिन  केवल चालिसवाँ, अस्सीवाँ, एकसौ बीसवाँ .......अर्थात (3840 वाँ वर्ष छोड़ कर)  प्रत्येक चालिसवाँ वर्ष । जिसे अधिवर्ष/ लीप इयर होना था लेकिन अपवाद स्वरूप अधिवर्ष/ लीप इयर नही  होता।
इदावत्सर के अन्त में सायन सौर वर्ष और सावन वर्ष का लगभग-लगभग मैल हो जाता है।

4 अनुवत्सर - बारह मास का तीनसौ साठ दिन का वर्ष ।लेकिन केवल प्रत्यैक 3835 वाँ वर्ष ही। 
जिसे अधिवर्ष/ लीप इयर होना था लेकिन अपवाद स्वरूप अधिवर्ष/ लीप इयर नही  होता।
अनुवत्सर के अन्त में सायन सौर वर्ष और सावन वर्ष का पूर्णमैल हो जाता है।

5 इद्वत्सर - बारह मास का तीनसौ साठ दिन का वर्ष ।लेकिन केवल प्रत्यैक 3840 वाँ वर्ष ही। 
जिसे अधिवर्ष/ लीप इयर होना था लेकिन अपवाद स्वरूप अधिवर्ष/ लीप इयर नही  होता।
इस इदवत्सर के अन्त में सायन सौर वर्ष और सावन वर्ष का पूर्णतः मैल हो जाता है।