गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

कुछ महत्वपूर्ण एस्ट्रोनॉमिकल सुचनाएँ

(१) Fixed zodiac पर नक्षत्र पट्टी में चित्रा नक्षत्र के तारा से आरम्भ होकर उसी तारे पर भूमि के सूर्यपरिभ्रमण या सापेक्ष में निरयन मेषादि बिन्दु से आरम्भ होकर पूनः निरयन मेषादि बिन्दु पर सूर्य के लौटने पर एक नाक्षत्र वर्ष या निरयन सौर वर्ष पूर्ण होता है।
(२) क्रान्तिवृत के इस वृत्त के बारहवें भाग ३०° में भूमि के सापेक्ष सूर्य के रहने की अवधि को एक नाक्षत्र मास कहते हैं। और ३६० वें भाग अर्थात ००१° पार करने की अवधि को एक नाक्षत्र दिन कहते हैं।
(३) क्रान्ति Declination  से पूर्ण असम्बद्ध होनें के कारण नाक्षत्र मास के आरम्भ बिन्दुओं पर सूर्य की स्थिति को संक्रान्ति कहना अनुचित है किन्तु सिद्धान्त ग्रन्थों में इसके लिए निरयन संक्रान्ति शब्द रूढ़ हो गया है। 
(४) एस्ट्रोनॉमिकल इफेमेरीज /Nautical almanac में दिये जाने वाले नक्षत्र योगताराओं के सायन भोगांश कुछ वर्षों में परिवर्तित होते रहते हैं । जबकि, इन्हीं नक्षत्र योगताराओं के निरयन राशिअंशादि हजारों वर्ष तक अपरिवर्तित है।
(५) नक्षत्र पट्टी Fixed zodiac पर ही नक्षत्रों की आकृति हजारों वर्षों तक यथावत रहती हैं। इस कारण हमारे कृषक भी चलते रास्ते आकाश में देखकर बतला देते हैं कि, सूर्य, चन्द्रमा किस नक्षत्र पर है या शुक्र और ब्रहस्पति और मंगल किस नक्षत्र में हैं। सूर्योदय पूर्व और सूर्यास्त पश्चात आकाश अवलोकन करने वाले सूर्य किस नक्षत्र में हैं बतला देते हैं।
(६) इसी प्रकार मेसोपोटामिया की राशियों की आकृति भी इस नक्षत्र पट्टी Fixed zodiac पर ही हजारों वर्षों से अपरिवर्तित है।
जबकि सन २८५ ईस्वी में जो चित्र सायन और निरयन मेष राशि का था चित्र था सन २४३३ ईस्वी में वही चित्र निरयन मेष राशि तथा सायन वृष राशि का हो जायेगा।
इसी कारण नक्षत्रों को नाक्षत्रीय गणना/ निरयन गणना पर आधारित ही मानना होगा।
(७) लेकिन १३°२०' के एक समान निश्चित मान वाले न मानकर दो नक्षत्र योगताराओं के बीच के सन्धि स्थल से अगले दो  योग ताराओं के सन्धि स्थल तक नक्षत्रमान माना जाना उचित होगा।जैसा कि, जातक/ होरा शास्त्र में दो भावों की सन्धियों के बीच के अंशादि में भाव  माना जाता है।
जबकि, भाव स्पष्ट से भाव स्पट के बीच भाव House मानने वाली यूरोपिय पद्यति के अनुसार नक्षत्र योग तारा को आरम्भ बिन्दु  मानना भी अनुचित ही है।
(८) तदनुसार ही चैत्रादि मासों को निरयन संक्रान्तियों पर आधारित ही मानकर सायन संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्रवर्ष का आरम्भ मास बदलते हुए पीछे की ओर चलना पड़ेगा। जैसा कि वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है। 
सन २४३३ ईस्वी में सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से होगा।
(९) जैसा कि, वैदिक साहित्य में वैशाख मास (अक्षय तृतिया), माघ मास (लगधाचार्य का वेदाङ्ग ज्योतिष), और कभी मार्गशीर्ष मास/ अग्रहायण (श्रीमद्भगवद्गीता), कभी कार्तिक मास (गुजरात), कभी आश्विन मास (नवरात्र) से संवत्सर आरम्भ बतलाया जाता है।
(१०) भू केन्द्रीय सूर्य स्पष्ट में चित्रा के योगतारा पर सूर्य होने के समय पर या सूर्य केन्द्रीय Heliocentric position में चित्रा नक्षत्र के योग तारा तारे पर भूमि होनें के समय (अर्थात निरयन मेष संक्रान्ति के समय) सायन  सूर्य स्पष्ट  से और निरयन सूर्य मेष ००° के अन्तर को नोट कर स्पष्ट अयनांश ज्ञात किया जा सकता है। अथवा वसन्त सम्पात के समय भू केन्द्रीय निरयन ग्रहस्पष्ट में सूर्य का चित्रा नक्षत्र के योग तारा से १८०° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से अंशात्मक दूरी को नोट कर स्पष्ट अयनांश ज्ञात कर सकते हैं।
(११) १८वर्ष ११ दिन में  ग्रहण  पुनरावर्तित होता है। और १८ वर्ष १८ दिन में ४१ सूर्यग्रहण और २९ चन्द्रग्रहण होते हैं।
भास्कराचार्य के अनुसार १९,१२२ और १४१ वर्ष में अर्थात २८२ वर्ष में निरयन सौर वर्ष और निरयन सौर राशियों पर आधारित चान्द्र वर्ष यथावत पूनरावर्तित होते हैं।
(१२) अर्थात जैसे निरयन सौर संस्कृत चान्द्र पञ्चाङ्ग में तिथि, करण, नक्षत्र, निरयन सूर्य के अंशादि और विष्कुम्भादि योगों की आवृत्ति लगभग २८२ वर्षों में होती है ऐसे ही सायन सौर संस्कृत चान्द्र पञ्चाङ्ग में भी लगभग २८२ वर्षों में ही आवृत्ति हो सकती है। क्योंकि, २८२ वर्षों में अयनांश केवल ४° ही पीछे जायेगा। अर्थात सायन सौर वर्षारम्भ (वसन्तसम्पात) और निरयन सौर वर्षारम्भ (निरयन मेष संक्रान्ति) में केवल ४ दिन का अन्तर आयेगा।

बुधवार, 13 अप्रैल 2022

भगवान श्री रामचन्द्र जी की जन्म तिथि की गणना आज तक अपूर्ण ही है।

आजकल वाल्मीकि रामायण में उल्लेख के अनुसार भगवान श्री रामचन्द्र जी के जन्म समय की गणना करने का प्रयत्न किया जा रहा है। यह प्रयास उत्तम और प्रशंसनीय है।
वस्तुतः प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेखित कुछ ऐसे तथ्य इनके रचना काल या ग्रन्थ में वर्णित घटना की कालावधि जानने में सहायक होते हैं यथा---
(१) १२,८९० वर्ष का पात चक्र - सत्ताइस योगों में वसन्त सम्पात का भ्रमण। व्यतिपात और वैधृति पात जिस क्रम से बतलाये गये हैं और वास्तव में जब व्यतिपात और वैधृति पात होते हैं इसमें अन्तर करने से पता चलता है कि, इन योगों में वर्तमान में सत्रहवें स्थान पर व्यतिपात बतलाया है। जिस समय इन योगों का चलन हुआ जब वसन्त सम्पात वास्तव में व्यतिपात पर था। तदनुसार यह समय आजके लगभग २३,००० वर्ष पूर्व बैठता है।
(२) २५,७८० वर्ष का अयन चक्र। ऋतुओं के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका इसी अयन चक्र और भूमि के अक्षांशों की संयुक्त रूप से है। इससे लगभग सभी विद्वान परीचित हैं।
(३) १,०९,७१६ वर्ष का उपभू/अपभू (मन्दोच्च) चक्र - Perigee/Apogee भी चलनशील है। यह सूर्य से भूमि की अधिकतम और न्यूनतम दूरी दर्शक चक्र है इसका भी आंशिक प्रभाव जलवायु पर पड़ता है। तत्कालीन जलवायु के वर्णन में भी इसका प्रभाव दिखता है।
ऐसे आधारों का संयुक्तिकरण कर ठीक-ठीक समय के पर्याप्त निकट पहूँच सकते हैं।
ऐसे ही आधारों पर डॉ॰ वर्तक ने
अपने सुविख्यात ग्रंथ 'वास्तव रामायण' में  मुख्यतः ग्रह गतियों के आधार पर गणित करके वाल्मीकीय रामायण में उल्लिखित ग्रहस्थिति के अनुसार राम की वास्तविक जन्म-तिथि ०४ दिसंबर ७३२३  ईसापूर्व को सुनिश्चित किया है। उनके अनुसार इसी तिथि को दिन में ०१:३० बजे से ०३:०० बजे के बीच श्री राम का जन्म हुआ होगा।
डॉ॰ पी॰ वी॰ वर्तक के शोध के अनेक वर्षों के बाद १९९४ ईस्वी से 'आई-सर्व' के एक शोध दल ने
महर्षि वाल्मीकि ने बाल काण्ड के सर्ग १८ के श्लोक ८ से १०  में वर्णित भगवान श्रीरामचन्द्र जी के जन्म के समय की ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों की स्थितियों के आधार पर भगवान श्रीरामचन्द्र जी की जन्मतिथि निश्चित करने का प्रयत्न किया। -
वाल्मीकि ने बाल काण्ड के सर्ग १८ के श्लोक ८ से १०  में वर्णित भगवान श्रीरामचन्द्र जी के जन्म समय का निम्नांकित वर्णन है---

ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः ।
ततश्च द्वद्शे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ । ८ ।
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु ।
ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह । ९ ।
प्रोद्दमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतं ।
कौसल्याजनयद् रामं दिव्यलक्षणसंयुतम् । १० ।
अर्थ – यज्ञ समाप्ति के पश्चात जब छः ऋतुएं बीत गईं, तब बारहवें मासमें चैत्र के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्वलोकवन्दित श्रीराम को जन्म दिया । उस समय पांच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा कर्क लग्न में चंद्रमा के साथ वृहस्पति विराजमान थे । लेकिन उस समय कौनसे ग्रह उच्च के थे और उस समय उक्त ग्रहों का उच्चांश क्या था यह नही लिखा है। जैसा कि मैंनें पहले बतलाया है कि, १,०९,७१६ वर्ष का उपभू/अपभू (मन्दोच्च) चक्र - Perigee/Apogee भी चलनशील है। ऐसे ही सभी ग्रहों के मन्दोच्च, शिघ्रोच्च का चक्र है। तदनुसार ग्रहों के उच्चांश, नीचांश परिवर्तनशील है। जबतक यह गणना नही होजाती कि, श्रीराम के जन्म समय ग्रहों के उच्चांश - नीचांश कितने राशि अंशादि पर थे, इस वर्णन के आधार पर कुछ भी सोचना व्यर्थ और निरर्थक है।
परम्परागत रुप से वर्तमान में सूर्य और ग्रहों उच्चांश को आधार मानकर  सूर्य का उच्च स्थान मेष १०° तक माना। अतः बुध अपने उच्च स्थान अर्थात् कन्या में नहीं हो सकता । इसलिए वाल्मीकि जी द्वारा वर्णित पांच ग्रहों में बुध नहीं है । ऐसा मानकर लोगों ने मान लिया कि, अन्य ग्रहों नक्षत्रों की स्थितियों इस प्रकार थी :-
चैत्र माह, शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि, पुनर्वसु नक्षत्र,  कर्क लग्न,  सूर्य मेष में, चन्द्रमा  कर्क राशि/ पुनर्वसु नक्षत्र में, मंगल मकर में, बृहस्पति कर्क में, शुक्र मीन में, शनि तुला में रहे होंगे ऐसा  मानकर 'आई-सर्व' के शोध दल ने 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके पता लगाया कि, 
अयोध्या अर्थात उत्तर अक्षांश २६°४८' तथा पूर्व देशांतर ८२°१२'  पर  ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों की आकाशीय स्थिति श्री रामचन्द्र जी की कुण्डली से जिस दिन मैल खाते हैं। वह दिन १० जनवरी ५११४ ईसापूर्व में दोपहर के समय भगवान श्री रामचन्द्र जी का जन्म हुआ था। लेकिन यह गलत आधार पर निकला गलत निष्कर्ष है।
आई-सर्व' के शोध दल का मानना था कि इस तिथि को ग्रहों की वही स्थिति थी जिसका वर्णन वाल्मीकीय रामायण में है। परंतु यह समय काफी संदेहास्पद हो गया है। क्योंकि---
(१) 'आई-सर्व' के शोध दल ने जिस 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया वह वास्तव में ईसा पूर्व ३००० वर्ष से पहले का सही ग्रह-गणित करने में सक्षम नहीं है।
(२) वस्तुतः २०१३ ईस्वी से पहले इतने पहले का ग्रह-गणित करने हेतु सक्षम सॉफ्टवेयर उपलब्ध ही नहीं था। 
(३) इस गणना द्वारा प्राप्त ग्रह-स्थिति में शनि वृश्चिक में था अर्थात उच्च (तुला) में नहीं था। चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में न होकर पुष्य के द्वितीय चरण में ही था तथा तिथि भी अष्टमी ही थी।
(४) बाद में अन्य विशेषज्ञ द्वारा "ejplde431" सॉफ्टवेयर द्वारा की गयी। तब सही गणना करने पर नवमी तिथि आई। परन्तु शनि वृश्चिक में ही आता है तथा चन्द्रमा पुष्य के चतुर्थ चरण में आता है।
इसके अलावा भी निम्नांकित आपत्तियों का उत्तर नही दिया जा सका ---
(५) अधिकांश विद्वानों नें श्रीराम के जन्मकालिक ग्रह वर्णन महर्षि वाल्मीकि की रचना नही माना। क्योंकि, महर्षि वाल्मीकि यदि बतलाते तो ग्रहों की स्थिति नक्षत्रों में बतलाते। पाँच ग्रह उच्च के नही बतलाते
(६) प्रायः सभी विद्वानों की मान्यता है कि, होरा शास्त्र में प्रचलित उच्च के ग्रहों का तात्पर्य मन्दोच्च और शिघ्रोच्च से है जो गतिशील है। स्थिर नही।
अतः यह नही कहा जा सकता कि, श्री राम के जन्म समय में भी सूर्य-चन्द्र और ग्रहोंके उच्चांश वही होंगे जो वर्तमान में जातक/ होरा शास्त्र में प्रचलित हैं।
(७) Apogee भूमि से सबसे दूर सूर्य या चन्द्रमा होने पर सूर्य और चन्द्रमा उच्चांश का होता है।
Perigee भूमि से सबसे निकट सूर्य या चन्द्रमा होने पर सूर्य और चन्द्रमा नीचांश का होता है।
Aphelion  सूर्य से ग्रह की अधिकतम दूरी मतलब उच्चांश का ग्रह।
Periphelion ग्रह का सूर्य के  निकटतम होना नीचांश पर ग्रह।
 उस समय के Apogee और Aphelion की गणना किये बिना उस समय सूर्य- चन्द्रमा तथा ग्रह उच्च के थे या नही ऐसा नही कहा जा सकता।
(८)  ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर वर्ष से सम्बद्ध है। अतः अयोध्या में वसन्त ऋतु २०/२१ मार्च के आसपास ही रहेगी चाहे पचास हजार वर्ष ईसा पूर्व हो या पचास हजार ईस्वी हो।
(९) वाल्मीकि रामायण में भगवान श्री रामचन्द्र जी के जन्म के समय के विवरण के अनुसार उस समय अयोध्या में वसन्त ऋतु थी।
(१०) वसन्त ऋतु में २२ मार्च २८५ ईस्वी को निरयन मेष संक्रान्ति हुई थी। इसके पहले २१ मार्च २५४९५ को निरयन मेष संक्रान्ति हुई थी। और आगे वसन्त ऋतु में २१ मार्च २६०६५ ईस्वी को निरयन मेष संक्रान्ति होगी। 
(सुचना - वास्तव में संक्रान्ति शब्द सायन गणना में ही उचित है। नाक्षत्रीय गणना में नक्षत्र होते हैं , और निरयन गणना राशियाँ होती है, लेकिन सौर क्रान्ति (Declination) के बिना संक्रान्ति कैसे होगी? लेकिन यह विषयानन्तर है। अतः रोकता हूँ।)
(११) अयोध्या में दिसम्बर - जनवरी में वसन्त ऋतु होना सम्भव ही नही है।
वर्तमान में निरयन मकर संक्रान्ति में १४ जनवरी को होती है। इसके पहले वसन्त ऋतु में २१ मार्च १९०५० ई.पु. मे  निरयन मकर संक्रान्ति होती थी।  और 
ई.पू.५११४ के आसपास की अवधि में। वसन्त ऋतु में वसन्त सम्पात  के दिन २१ मार्च ४०१२ ई.पू. को निरयन मिथुन संक्रान्ति होती थी।तथा
२१ मार्च ६१६० ई.पू.वसन्त ऋतु में वसन्त सम्पात  के दिन को निरयन कर्क संक्रान्ति हुई थी।
उक्त सभी वर्षों में २१ मार्च को वसन्त ऋतु  ही रहेगी। 
अर्थात यह सिद्ध है कि, १० जनवरी ५११४ में अयोध्या में वसन्त ऋत नही थी।
अर्थात उक्त विधि से भी श्री रामचन्द्र जी की तिथि वस्तुतः राम की जन्म-तिथि सिद्ध नहीं हो पाती है। 
इसलिए मुझे इन गणनाओं में केवल मेण्टल जिम्नास्टिक से अधिक कुछ नहीं लगता है।
ऐसी स्थिति में या तो सॉफ्टवेयर द्वारा  डॉ० पी० वी० वर्तक द्वारा पहले ही परिशोधित तिथि प्रमाणित नही होने तक तो नवीन तिथि के शोध का रास्ता खुला रहेगा। अथवा उचित तो यही होगा कि, सनातन धर्म के ग्रंथों या शास्त्रों में वर्णित तिथि ही सर्वमान्य प्रमाण माना जाये।

हिन्दू शब्द का सही अर्थ

सिन्धु शब्द के स का उच्चारण ह होनें का सिद्धान्त सरासर मिथ्या है। क्योंकि, भारत में सिकन्दर के आक्रमण के पहले से ईरान में प्रचलित हिन्दू शब्द प्राचीन ईरानी साहित्य में प्रचलित था।

एक लेख में उल्लेख है कि, जरथुस्त्र रचित- उनके धर्म गृन्थ की आयत 163 वें में लिखा है –

” अकनु विर हमने व्यास नाम अज हिन्द आमद दाना कि अकल चुनानेस्त वृं व्यास हिन्दी वलख आमद ,गस्ताशप जरतस्त रख ,ख्वानंद मन मरदे अम हिन्दी निजात व हिन्दुवा जगस्त”

मतलब ईरान में हिन्दू शब्द जरथुस्त्र के समय से प्रचलित है।

फारसी के प्राचीन शब्दकोशों के अनुसार हिन्दूशब्द का अर्थ काला, कलूटा,दास दस्यु ,चोर, डाकू, लुटेरा, सेंधमार , लूच्चा, लफङ्गा, बदमाश, मिथ्या भाषी (झूठा), आदि अर्थों में प्रयुक्त होता था।

अतः सिन्धु शब्द का फारसी उच्चारण हिन्दू कदापि सत्य नही हो सकता।

किन्तु सिकन्दर के आक्रमण के समय तो ठीक शकों और हूणों के आक्रमण तक भी किसी भारतीय नें अथवा भारतीय ग्रन्थ में हिन्दू जाति, हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, या हिन्दूदेश हिन्दूस्थान या हिन्दूस्तान शब्द के प्रयोग भारतीय या संस्कृत ग्रन्थ और भारतीय इतिहास में नही पाया जाता है।

हिन्दू-कुश को संस्कृत साहित्य और इतिहास में पारियात्र पर्वत कहा जाता था और बाद में यह हिन्दू-कुश के नाम से प्रसिद्ध हो गया | फारसी भाषा में कुश शब्द का अर्थ होता है क़त्ल करना | जिस स्थान पर हिन्दुओं का कत्लेआम हुआ हो वह स्थान हिन्दू-कुश कहलाता है, – जैसे खुद-कुशी |

भविष्य पुराण में हिन्दूस्थान शब्द आया है।किन्तु उसमें तो राजाभोज का इतिहास तो है ही पृथ्वीराज चौहान, जयचन्द , अकबर और विक्टोरिया तक का इतिहास भविष्यकालिन रूप में नही बल्कि भूतकालिक रूप में दिया है।

बृहस्पति आगम -- आचार्य बृहस्पतिजी ने विशालाक्ष शिव द्वारा रचित राजनीति शास्त्र के ग्रन्थ का सार संक्षेप बार्हस्पत्य शास्त्र नामक ग्रन्थ में किया। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता की रचना की। बृहत्संहिता की रचनाके बाद लगभग 300 ई. में बृहस्पति-आगम की रचना हुई। अतः ब्रहस्पति आगम में हिन्दू शब्द या भारत को हिन्दस्थान कहना कोई आश्चर्यजनक नही है। क्योंकि, उस समय पारसी आक्रमणकारियों ने यही शब्द प्रचलित कर दिया था।

शैव तन्त्र के मेरुतंत्र नामक ग्रन्थ को बने हुए 300-400 वर्ष ही हुए हैं । अतः इसमें आये हिन्दू शब्द और उसका अर्थ देना कोई महत्व नही है।

पारिजात हरण नाटक लगभग 1325 ई. के आसपास अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन मिथिलानिवासी उमापति उपाध्याय ने पारिजात हरण नाटक की रचना की थी। अतः इसमें आये हिन्दू शब्द और उसका अर्थ देना कोई महत्व नही है।

सम्राट विक्रमादित्य के समय 58 ई.पू. से 34 ई. के बीच रचित अमरकोश उपलब्ध कोषों में सबसे प्राचीन कोश है जिसमें हिन्दू शब्द नही है। शेष सभी कोश राजा भोज के समय 1000ई के बाद के हैं। उनमें से एक कल्पद्रुम नामक शब्दकोश भी परवर्ती ही है।कल्पद्रुम लक्ष्मीधर रचित है ।लक्ष्मीधर गडहवाल वंशी कन्नोजके राजपूत राजा गोपीचंद का मन्त्री था। जयचन्द गोपीचन्द का ही वंशज था जो ईसा की तेरहवीं सदी का है। अतः इसमें आये हिन्दू शब्द और उसका अर्थ देना कोई महत्व नही है।

माधव या माधव विद्यारण्य का समय 1296 -1386 का है वे विजयनगर साम्राज्य हरिहर राय और बुक्काराय के गुरु, संरक्षक,दार्शनिक सन्त थे। अतः माधवविजय भी ईसा की चौदहवीं सदी का ग्रन्थ है।

कालिका पुराण दसवी शताब्दी का ग्रन्थ है। और शारंगधर पद्धति रचना 1363 ई. मे हुई |

अर्थात उक्त समस्त ग्रन्थ भारत में इस्लामिक शासन स्थापित होजाने के पश्चातवर्ती हैं। अतः मुस्लिमों द्वारा भारतियों के प्रति कहेजानेवाले अपमानजनक शब्द हिन्दू को संस्कृत शब्द घोषित करना उनलोगों रचनाकारों द्वारा शर्म छुपाने का प्रयास मात्र था।

कुछ आलेखों में कहा गया कि ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में द्वितीय सुक्त के 41 वें मन्त्र में विवहिन्दू नामक किसी दानी राजा का वर्णन है। किन्तु श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी का ऋग्वेद सुबोध भाष्य में 08/02/41 में विवहिन्दु नही मिला। विभिन्दो या विऽभिन्दो शब्द को भ्रमवश विवहिन्दू समझने की भूल हुई होगी।

मूल मन्त्र प्रस्तुत है---

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:41 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:6 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:41

देवता: विभिन्दोर्दानस्तुतिः ऋषि: मेधातिथिः छन्द: पादनिचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

शिक्षा॑ विभिन्दो अस्मै च॒त्वार्य॒युता॒ दद॑त् । अ॒ष्टा प॒रः स॒हस्रा॑ ॥

पद पाठ

शिक्ष॑ । वि॒भि॒न्दो॒ इति॑ विऽभिन्दो । अ॒स्मै॒ । च॒त्वारि॑ । अ॒युता॑ । दद॑त् । अ॒ष्ट । प॒रः । स॒हस्रा॑ ॥ ८.२.४१

पदार्थान्वयभाषाः -(विभिन्दो) हे शत्रुकुल के भेदन करनेवाले (ददत्) दाता ! आप (अस्मै) मेरे लिये (अष्टा, सहस्रा, परः) आठ सहस्र अधिक (चत्वारि, अयुता) चार अयुत (शिक्षा) देते हैं ॥४१॥

भावार्थभाषाः -सूक्त में क्षात्रधर्म का प्रकरण होने से इस मन्त्र में ४८००० अड़तालीस हज़ार योद्धाओं का वर्णन है अर्थात् कर्मयोगी के प्रति जिज्ञासुजनों की यह प्रार्थना है कि आप शत्रुओं के दमनार्थ हमको उक्त योद्धा प्रदान करें, जिससे शान्तिमय जीवन व्यतीत हो ॥४१॥

अन्य प्रकार से अर्थ ऐसा हो सकता है।

पदार्थान्वयभाषाः -(विभिन्दो) हे पुरन्दर=दुष्ट जनों का विशेषरूप से विनाश करनेवाले और शिष्टों के रक्षक ईश ! (ददत्) यद्यपि तू आवश्यकता के अनुसार सबको यथायोग्य दे ही रहा है। तथापि (अस्मै) इस मुझ उपासक को (चत्वारि) चा२र (अयुता) अयुत १०००× दश सहस्र=१००००×४=४०००० अर्थात् चालीस सहस्र धन (शि३क्ष) दे तथा (परः) इससे भी अधिक (अष्ट+सहस्रा) आठ सहस्र धन दे ॥४१॥

भावार्थभाषाः -यद्यपि परमात्मा प्रतिक्षण दान दे रहा है, तथापि पुनः-पुनः उसके समीप पहुँच कर अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्त्यर्थ निवेदन करें और जो नयनादि दान दिए हुए हैं, उनसे काम लेवें ॥४१॥

टिप्पणी:१−विभिन्दु−भिदिर् विदारणे। पुरन्दर और विभिन्दु दोनों एकार्थक हैं। जो दुष्टों के नगरों को छिन्न-भिन्न करके नष्ट कर देता है, वह विभिन्दु।

सम्भवतः वि॒भि॒न्दो॒ या विऽभिन्दो शब्द से यह भ्रम हुआ है।

अब उचित समय है इस शब्द को त्याग कर वेदिकालीन शब्द ब्राह्म धर्म (अर्थात वेदिक धर्म) या परम्परागत सनातन धर्म ही अपनाना ही उचित होगा।

उल्लेखनीय है कि, वेदमन्त्रों को ब्रह्म कहते हैं अतः वेद आधारित धर्म ब्राह्म धर्म और दृढ़तापूर्वक ब्राह्म धर्मांचरणरत व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता था। ब्राह्मण जाति नही थी। श्रोत्रिय, वेदिक और ब्राह्मण समानार्थी शब्द थे।

रविवार, 10 अप्रैल 2022

शक हूण और कुषाण चीनी तुर्किस्तान (उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त) के मूल निवासी थे। जहा वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं।

शक हूण और कुषाण तिब्बत में तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में (उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त) शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान)    के मूल निवासी थे। जहा वर्तमान में उइगर मुसलमान रहते हैं। 
शक लोग ताजिकिस्तान (कम्बोज) होते हुए तुर्कमेनिस्तान और मुख्य रूप से कजाकिस्तान में बस गये। शक और हूण दोनों जातियों का मूल स्थान भूलें ही उइगुर प्रान्त है लेकिन इनका मुख्य वास स्थान कज़ाख़िस्तान ही रहा।

हूण एशिया की एक जाति थी जिसने ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में सारे संसार में अपना प्रताप फैलाया था। यूरोप का प्रसिद्ध इतिहास लेखक गिबन इन हूणों के विषय में लिखता है:-

“सारे यूरोप में गाथ और वेंडल नामक असभ्यों ने उपद्रव मचा रखा था। पर वे भी हूणों के सामने भागे। हूणों का जैसा प्रताप और वैभव था वैसा अधिकार वे जमा न सके। उनके विजयी दल वोल्गा नदी से लेकर डैन्यूब नदी के किनारे तक फैले थे।  अटिला के राजत्वकाल में उन्होंने फिर संसार को हिला डाला। उनके आक्रमणों से एशिया और यूरोप दोनों महाद्वीपों में हलचल मच गई और रोमन साम्राज्य का पतन हुआ।”

“इन हूणों का प्रवाह चीन की सीमा से चलकर जर्मनी तक पहुँचा था। इनके जो सबसे प्रबल दल थे वे रोमन साम्राज्य की सीमाओं पर जम गए थे। कुछ दिनों तक रोमन सम्राट दान नीति का अवलम्बन करके अपने प्रदेशों की रक्षा करते रहे। पर हूण लोग जितना ही पाते गए उतना ही तंग करते गए।”

“मुंजुक का पुत्र अटिला अपने को उन प्राचीन हूणों के राजकुल का बताता था जिन्होंने कई बार चीन के बादशाहों के साथ युद्ध किया था। उसकी आकृति भी उसकी जाति के अनुरूप ही थी बड़ा सिर, गेहुँआ रंग, छोटी-छोटी धसीं हुई ऑंखें, चिपटी नाक, दाढ़ी के स्थान पर ठुठ्डी पर थोड़े बाल, चौड़े कंधे, दृढ़ और गठीला शरीर। हूणों के राजा के चेहरे से यह भाव टपकता था कि वह अपने को संसार के सारे मनुष्यों से बढ़कर समझता है। जब वह कहीं निकलता था तब क्रूरता से साथ घूरता चलता था जिसमें उसे देखते ही भय का संचार हो।”

पूर्वीय देशों में हूण
“ईसा से 163 वर्ष पूर्व यूचियों ने शक लोगों को टारिम के कछार से निकाल दिया। 120 ईसवीं पूर्व यूची लोगों ने शकों को वाधीक देश (चीनी तुर्किस्तान/ उत्तर कुरु) से भी हटाकर वहाँ अपना अधिकार जमाया और बहुत दिनों तक वहीं उनकी राजधानी रही। ईसा से तीस वर्ष पहले यूचियों की एक शाखा क्वेंशंग (कुषाण) ने और शाखाओं को दबाकर अपना एकाधिपत्य स्थापित किया। यही क्वेंशंग वंश रोमन इतिहास में कुशन वंश के नाम से प्रसिद्ध है। रोमन सम्राट अंटनी ने कुशन राजसभा में भी अपने दूत भेजे थे। सम्राट ऑगस्टस के समय में कुशन राजा रोम नगर में भी पहुँचे थे। क्रमश: कुशनों का प्रताप भी घट चला और एक दूसरी शाखा ने आकर उनके स्थान पर अपना अधिकार जमाया। इस शाखा को रोमन लोग 'श्वेत हूण' चीनी लोग 'येथा' और फारस वाले 'हयताल' कहते थे। यद्यपि यूची और हयताल एक ही जाति के थे पर हयताल यूचियों से कई बातों में भिन्न थे। 
सन् 425 ईसवीं में हयतालों ने वंक्षुनद (ऑक्सस या आमूदरिया) पार किया जिसका समाचार पहुँचते ही चारों ओर घबराहट फैल गई।”

ये हूण सबसे पहले सन् 350 ईसवीं के लगभग बादशाह शापूर के समय में फारस की पूर्वी सीमा पर पहुँचे थे। फारसी इतिहासकारों ने लिखा है कि, “शापूर ने उन्हें हराकर अपने अनुकूल संधिपत्र लिखने पर बाध्य किया”। यहाँ तक कि जब शापूर ने रोमन लोगों पर चढ़ाई की थी तब उसकी सेना में हूण लोग भी थे। सन् 425 ईसवीं के पीछे हूणों ने जब फिर वंक्षुनद पार किया तब बहराम गोर ने उन्हें हराकर फिर वंक्षुनद के पार भगा दिया। इस प्रकार थोड़े दिनों के लिए तो वे हटा दिए गए पर पारसी सीमा पर वे घनघोर घटा के समान छाए रहे और पारसी बादशाहों को बराबर तंग करते रहे। यहाँ तक कि सन् 483 ईसवीं में फारस के बादशाह फीरोज़ ने हूणों के बादशाह खुशनेवाज़ के हाथ से गहरी हार खाई और उसी लड़ाई में वह मारा भी गया। हूण्राज ने फीरोज़ के उत्तराधिकारी कुबाद से दो वर्ष तक कर वसूल किया। कुबाद और हूणों से दस वर्ष तक लड़ाई होती रही। अंत में सन् 513 में कुबाद ने उनका पूर्ण रूप से दमन किया और ईरान हूणों की बाधा से मुक्त हो गया।

भारत के इतिहास से जिन हूणों का संबंध है वे ये ही श्वेत हूण हैं। जहाँ तक पता चला है भारतवर्ष में हूण लोग पहले गुप्त सम्राट कुमारगुप्त के समय में दिखाई पड़े। कुमारगुप्त को इन हूणों के हाथ से हार खानी पड़ी जिससे गुप्त साम्राज्य की नींव ढीली पड़ गई। सन् 455 ई. में कुमारगुप्त की मृत्यु हुई और उसका पुत्र स्कन्द गुप्त सिंहासन पर बैठा। स्कन्दीगुप्त ने बर्बरों को पराजित करके अपने पराक्रम से कुछ दिनों के लिए हूण बाधा दूर कर दी। दस वर्ष पीछे अर्थात् सन् 465 ई. में हूणों ने गांधार देश (रावलपिंडी से लेकर काबुल के पास तक का प्रदेश) पर अधिकार किया। वहाँ जमकर पाँच वर्ष बाद वे फिर बढ़ने लगे और बराबर बढ़ते ही गए, क्योंकि स्ककन्द गुप्त के पीछे गुप्त राजाओं की शक्ति उतनी न रह गई थी। बहुत चेष्टा करने पर भी उनका बढ़ना वे न रोक सके। अंत में सन् 533 ई. के लगभग गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य और मालवराज यशोर्बमन ने या तो मिलकर या अलग-अलग हूणों को हराया। यही हूणों की बड़ी भारी पराजय हुई। इसके पीछे फिर वे न सँभल सके। भारतीय इतिहास में दो हूण राजाओं के नाम आते हैं तोरमाण और उसका पुत्र मिहिरगुल (अथवा संस्कृत लेखकों के अनुसार मिहिरकुल) इसी मिहिरगुल का नाम एक रोमन लेखक ने गोलस लिखा है। चीनी यात्री हुएन्सांग ने मिहिरगुल को एक वीर, निर्भीक और योग्य पुरुष लिखा है जिसके अधीन आसपास के राज्य थे। वह बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहता था इससे बौद्धो ने उसके यहाँ एक बकवादी आदमी लगा दिया जो उससे बुद्ध की शिक्षाओं पर वादविवाद करने लगा। इस धृष्टता पर वह इतना बिगड़ा कि उसने अपने राज्य से बौद्धो को उच्छीन्न करने की आज्ञा दी। जब वह बालादित्य के हाथ से हार खाकर अपने राज्य में लौटा तब उसने देखा कि उसका भाई उसके राजसिंहासन पर बैठ गया है। यह अवस्था देख वह काश्मीर की ओर भागा। वहाँ के राजा ने उसे शरण दी जिसका बदला उसने उलटा दिया। काश्मीर के राजा को मारकर वह कृतघ्न आप काश्मीर का राजा बन बैठा। वहाँ बौद्ध मत के विनाश का कार्य उसने फिर हाथ में लिया। उसने 1600 स्तूपों और मठों का ध्वंस किया और नौ कोटि बौद्धो का संहार। पर वह बहुत दिनों तक राज नहीं करने पाया था। थोड़े ही दिनों में अकस्मात् उसकी मृत्यु हो गई। हूएन-सांग कहता है, “जिस समय वह नरक में गया थोड़ी देर के लिए आकाश में अंधकार सा छा गया, धरती काँप उठी और गहरा अंधड़ चला” (हूएन-सांग)। हिन्दू और जैन ग्रंथो में भी मिहिरगुल ऐसा ही क्रूर और अत्याचारी कहा गया है। 1

भारतीय साहित्य में हूण





1. यह जान लेना आवश्यक है कि मिहिरकुल शैव सम्प्रदाय का अनुयायी था। उसकी क्रूरता की कई कथाएँ प्रसिद्ध हैं। राजतरंगिणी में लिखा है कि एक बार उसने एक हाथी को एक ऊँचे पहाड़ पर से केवल उसका चिल्लाना और छटपटाना देखने के लिए गिरवाया था। ऐसे अत्याचारी की मृत्यु से देशभर में आनंद छा गया।

1. वंक्षुयह वंक्षु नद अफगानिस्थान के उत्तर बदशाँ प्रदेश में है और उन पाँच नदियों (पंजाब) में है जिनसे मिलकर ऑक्सस या आमू दरिया बना है जो तुर्किस्तान की ओर जाता है। पामीर और बदखशाँ में जो अक्सु नाम की धारा है वही ऋग्वेद का प्राचीन वंक्षु है जिसका अपभ्रंश यूनानियों ने ऑक्सस किया ।

 वंक्षु को यूनानियों ने ऑक्सस लिखा है और आजकल आमू दरिया कहते हैं। ऑक्सस या आमू दरिया पाँच नदियों के मेल से बना है जिनमें अक्साब और बक्शाब मुख्य है। इनके बीच के प्रदेश को अरबवाले खत्ताल और फारसवाले हयताल कहते हैं। इसी हयताल शब्द के अनुसार रोमन लोग हूणों को इफथलाइट कहते थे क्योंकि जैसा पहले कहा जा चुका है हूण लोग पहले ऑक्सस या वंक्षु नद के किनारे ही आकर जमे थे।

इसी प्रदेश से लगा हुआ पूरब की ओर बदखशाँ है जिसे ऑक्सस या वंक्षु नद घेरे हुए है। फारसी किताबों में इस प्रदेश की बड़ी महिमा लिखी है। यहाँ का लाल प्रसिद्ध था और कहते थे कि यहाँ की नदियाँ सोने की रेत बिछाती हैं। बदखशाँ और पूरब जाने पर हम वंक्षु नद के उद्गमों तक पहुँचते हैं जहाँ वक्शांब प्रदेश है जो काश्मीर की सीमा पर पड़ता है। पामीर के नीचे वंक्षु और यारखंड नदी के उद्गमों तथा काश्मीर के उत्तर गई हुई सिन्धु नदी की धारा के बीच बहुत संकीर्ण प्रदेश पड़ता है जिससे होकर पुराने समय में लोग तिब्बत और तुर्किस्तान की ओर जाते थे। वंक्षु या वक्शाब के उद्गमों तक जाने के लिए बलख होता हुआ रास्ता गया है। उस समय कोई सड़क रही होगी तो यही बलख वाली जिससे होकर सिकंदर भी बलख में पहुँचा था। 

 काश्मीर के पूर्व लद्दाख होते हुए तिब्बत जाने का पुराना मार्ग है। पर उक्त प्रदेश में उस समय दरद नामक म्लेच्छ बसते थे 

 हूण लोगवंक्षु या ऑक्सस नदी के उत्तरी तट पर बसे थे जो ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में (जबकि एशिया और यूरोप में उनका अधिकार खूब फैला था) उनका प्रधान स्थान रहा। उस प्रदेश में हूण कब आए इस प्रश्न के साथ यह भी संशय हो सकता है कि संभव है हूणों के वहाँ बसने के पूर्व जो जाति वहाँ रहती हो उसे भारतवासी हूण कहते रहे हों। पर इसका कोई प्रमाण या आधार नहीं मिलता।

चीन के इतिहास में हूण

हूणों का नाम चीन के इतिहास के आरंभ से ही मिलने लगता है। यह जाति खास चीन के उत्तर पश्चिम कोने पर बसती थी। चीनियों में इस जाति के नाम कई रूपों में लिखे मिलते हैं पर सबका उच्चारण प्राय: एक ही सा है। हूणों का सबसे पुराना नाम ह्यून-यू मिलता है। पीछे वे ही ह्यान-युन और फिर हयंग-नू कहलाने लगे। इन सब नामों में सामान्य ध्वनि 'हुन' है जिसे लेकर फारसी वालों ने हुनू और संस्कृत वालों ने हूण किया। 
ये हयंग-नु तुरुष्क, मंगोल और हुनू लोगों के अगुआ थे जिन्होंने ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में सारे यूरोप और एशिया में हलचल मचा दी थी। ये *अपने को 'हया' वंश का बतलाते थे जिसकी प्रतिष्ठा ईसा से 2205 वर्ष पूर्व कुन नामक मंत्री के पुत्र 'यू' ने की थी।*
 इस वंश का सत्रह्वाँ राजा ईसा से 1766 वर्ष पूर्व अपने अत्याचारों के कारण निकाल दिया गया। उसका बेटा शुं-वेई 500 हयावंशियों के साथ चीन के उत्तरी प्रान्त में जाकर बस गया। चीनी कथाओं के अनुसार उसी शुं-वेई और उसके साथियों के वंशज हयंग-नु थे। 
चीन का इतिहास लिखते हुए डॉक्टर हार्थ लिखते हैं”ह्नांग-टी के समय में पहले पहल हुन-यू जाति का नाम मिलता है जो उसके राज्य के उत्तर बसती थी और जिससे उसे कई बार लड़ना पड़ा था। चीनियों के अनुसार ये हुन-यू वे ही थे जो पीछे से हयंग-नु कहलाए और चीन के बादशाओं से बराबर लड़ते आए। बात कहाँ तक ठीक है नहीं कहा जा सकता पर इतना तो अवश्य है कि चीनियों में यह जनश्रुति परंपरा से चली आती थी कि, प्राचीन काल में चीन की उत्तरी सीमा पर हुन-यू नाम की एक जाति बसती थी जिसके वंश्धर हयंग-नु या हूण थे जिनका इतिहास में इतना नाम है। इसी हयंग-नु वंश के खाँ (सरदार) ईसा से लगभग 100 वर्ष पूर्व सुग्धा राज्य (समरकंद के आसपास का प्रदेश) में बसे और आसपास की जातियों से कर वसूल करने लगे। यहीं से तातारों का पश्चिम की ओर फैलना आरंभ हुआ। और वे धीरे-धीरे यूरोप के पूर्वी भागों तक फैले।”

ईसा से छह सौ वर्ष पहले चीन साम्राज्य के सात खण्ड हो गए- शू, चाओ, वेइ, हन, यन-चाओ, त्सी, और त्सीन। इनमें से उत्तरी राज्य यन-चाओ और त्सीन (शीन या चीन) हयंग-नु के पड़ोसी थे। ईसवीं सन् से 321 वर्ष पूर्व शेष छह राज्यों ने मिलकर त्सीन राज्य पर चढ़ाई की, पर त्सीन राज्य ने उन सबको परास्त किया और त्सीन राजवंश का शी-ह्नांग -टी ही सारे चीन का एकछत्र राजा हुआ (ईसा से 246 वर्ष पूर्व)। यह बड़ा प्रतापी राजा हुआ। इसने सामन्त राज्यों की व्यवस्था तोड़ दी और भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी ओर से शासक नियुक्त करके भेजे। राज्य भर में इसने बहुत सी नहरें और सड़कें बनवाईं तथा प्रजा की सुविधा के लिए और भी बड़े-बड़े काम किए। अपने राज्य में सब प्रकार से शांति स्थापित करके शी-ह्नांग-टी ने चीन के पुराने शत्रु हयंग-नु तातारों पर चढ़ाई की जिनके आक्रमणों से चीन के लोग तंग थे। उसने चीन के बिलकुल पास बसने वाले हयंग-नु लोगों का ध्वंस किया और जो बचे उन सबको भगाकर मंगोलिया प्रदेश में कर दिया। इस प्रकार शत्रुओं का दमन करके उसने चीन साम्राज्य की सीमा बहुत बढ़ाई। सबसे भारी काम तो उसने यह किया कि हयंग-नु तातारियों की रोक के लिए कहकहा दीवार पूरी कराई जो संसार के अद्भुत पदार्थों में है। इस दीवार का बनना ईसा से 214 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था। पुरानी चाल के पंडित लोग सामन्त व्यवस्था के पक्ष में बहुत कुछ कहा करते थे और प्रमाण में प्राचीन इतिहासों के दृष्टान्त दिया करते थे। इस पर शी-ह्नांग-टी इतना बिगड़ा कि उसने अपने राज्य का सारा पुराना इतिहास नष्ट करा दिया। उसकी इस बर्बरता का बहुत कुछ प्रायश्चित उसके पुत्र ह्नेंग-टी (194-179 ईसा से पूर्व) ने किया जो भारतीय सम्राट् पुष्यमित्र और खारवेल तथा वाधीक देश (बलख) के यवन राजा मिनांडर (बौद्धो के मिलिंद) का समकालीन था।

हूण और यू-ची

शी-ह्नांग-टी के राजत्वकाल के पिछले दिनों में हयंग-नु तातारों का राजा अपने पुत्र माओं-तुन द्वारा मार डाला गया। माओं-तुन बड़ा प्रतापी हुआ। उसने अपना राज्य जापान समुद्र से लेकर यूरोप में वोल्गा नदी के किनारे तक बढ़ाया। यहीं तक नहीं, उसके पिता के समय में उत्तर चीन का जितना भाग चीनियों ने निकाल लिया था उसने 300000 सेना लेकर उस पर फिर अपना अधिकार जमा लिया। पहले कहा जा चुका है कि शी-ह्नांग-टी के पीछे उसका पुत्र ह्नेंग-टी गद्दी पर बैठा जिसने विद्या और साहित्य की बहुत उन्नति की, बहुत से पुस्तकालय खोले और अपने पिता द्वारा पहुँची हुई हानि की बहुत कुछ पूर्ति की। उसके राज्य में चारों ओर सुख शांति थी। पर हयंग-नु लोगों के आक्रमण बन्द नहीं हुए थे इससे चीन सम्राट ने उनका उच्छेद अत्यन्त आवश्यक समझा। हयंग-नु लोगों के जब चीन पर सब आक्रमण व्यर्थ हुए और वे हर बार हटा दिए गए तब उन्होंने अपना क्रोध यू-ची लोगों पर निकाला जो कं-सू राज्य के पश्चिम में पड़ते थे। यू-ची लोग अपने स्थान से एकबारगी थियान-ज्ञन पर्वत के पार तुर्किस्तान और कैस्पियन सागर के बीच के प्रदेशों में भाग दिए गए। चीनी सम्राट ने अच्छा अवसर देख यूचियों से संधि का प्रस्ताव किया जिसमें बड़ी सफलता हुई। संधि का प्रस्ताव लेकर चंग-किन नामक जो राजदूत पश्चिम गया था उसे बलख (वाधीक) तक जाना पड़ा था क्योंकि यूचियों का अधिकार उस समय बलख तक हो गया था। बलख तक पहुँचने पर उस चीनी राजदूत का ध्यान भारतवर्ष की ओर गया और बहुत से पेड़-पौधो और जन्तु तथा सभ्यता के बहुत से आचार व्यव्हार पश्चिम से चीन में गए। बू-टी (140-86 ईसा पूर्व) के समय में हयंग-नु लोगों का बल टूट गया और पूर्वी तुर्किस्तान चीन साम्राज्य के अंतर्गत हुआ। फिर तो फारस और रोम तक से चीन का व्यापार स्थापित हो गया और व्यापारी बेधड़क एक देश से दूसरे देश में जाने लगे। ईसवीं सन् के आरंभ में चीन में हान वंश (जिसमें ह्नेटी और बू-टी आदि थे) के हाथ से राज्य निकल गया। सन् 58 ई. के लगभग उसी वंश के राजा ने फिर शांति स्थापित की। उसी के पुत्र मिंग-टी के समय में अर्थात् सन् 65 ईसवीं में बौद्ध धर्म भारत से चीन पहुँचा। इसी समय के लगभग प्रसिद्ध सेनापति पन्-चाओ तुर्किस्तान में शन्शन् के राजा के पास चीन का राजदूत होकर गया जिसके प्रभाव से शन्शन्, खुतन और काशगर के राज्य चीन साम्राज्य के आज्ञानुवर्ती हुए। इसी समय से समझना चाहिए कि हयंग-नु जाति चीन के उत्तर से सब दिन के लिए भगा दी गई। अपने स्थान से हटने पर हयंग-नु लोगों से सुग्धा देश (समरकन्द के आसपास का प्रदेश) पर अधिकार किया और अलान (जो पूर्वकाल में यन-शाई कहलाते थे) लोगों को परास्त करके उनके राजा को मार डाला। यहीं से उनके दल यूरोप और एशिया के कई भागों में बढ़ते गए और हूण के नाम से प्रसिद्ध हुए। यह तो हुई चीन के उत्तर में बसने वाले हयंग-नु की बात। जो हयंग-नु दक्षिण में बसे थे वे सब सन् 215 ईसवीं में चीन सम्राट के अधीन हो गए। आगे चलकर थोड़े ही दिनों में जब परस्पर विरोध के कारण चीन की शक्ति उतनी न रही तब चौथी शताब्दी में हयंग-नु लोगों ने चीन पर फिर आक्रमण किया। इस बार वे हूण के नाम से जगत्प्रसिद्ध हो गए थे, भारत की सीमा से लेकर रोमन साम्राज्य की सीमा तक वे फैले थे।

क्या हयंग-नु और हूण एक ही थे

हूणों के संबंध में तीन प्रकार के मत अब तक प्रचलित थे। कुछ लोग हयंग-नु और हूणों को एक बताते थे, कुछ लोग हूणों को तुरुष्क कहते थे और कुछ लोग मंगोल। पर अब अनेक प्रमाणों द्वारा हयंग-नु लोगों का हूण होना सिद्ध हो गया है। रोम के संत हिरनिमस का बनाया हुआ एक नक्शा लन्दन के अजायबघर में रखा है जिसमें चीन साम्राज्य की सीमा पर 'हुनिस्काइड' (हूण-शक) नाम मिलता है। यह नक्शा ईसवीं सन् 376 और 420 के बीच का बना हुआ है जबकि हूण लोग यूरोप में पहुँच चुके थे। हिरनिमस के शिष्य ओरोसियस ने एक भूगोल लिखा था जिसका अंग्रेजी में अनुवाद इंगलैंड के पुराने बादशाह आलफ्रेड ने किया था। इस भूगोल में हुनि-स्किद (हूणा-शक) नाम मिलता है। सबसे अधिक ध्यान देने की बात तो यह है कि यह नाम ओत्तारकोरा (उत्तरकुरु) के पास ही रखा गया है। ऊपर जिस नक्शे का उल्लेख हुआ है वह एक पुराने नक्शे के आधार पर बना था जिसे रोमन सम्राट ऑगस्टस ने ईसा से सात वर्ष पूर्व बनवाया था। इससे सिद्ध है कि हयंग-नु काल के रोमन लेखकों ने चीन के दीवार के पास बसने वाले हूणों का नाम सुना था, यद्यपि वे उनका इतिहास नहीं जानते थे। स्ट्रेबो ने भारतवर्ष का उल्लेख करते हुए लिखा है, “यवन (यूनानी) लोगों ने वाधीक देश (बलख) में विद्रोह मचवाया और इतने प्रबल हो गए कि हिन्दुस्तान और ईरान के बहुत से भागों के स्वामी हो गए। उनके राजा मिनांडर (मिलिंद) ने सिकंदर से भी अधिक जातियों को जीता। मिनांडर और डिमेट्रियस दोनों ने बहुत से देश विजय किए। उन्होंने पाटलीन (पाटल) को ही नहीं लिया बल्कि सराओस्टल (सौराष्ट्र) और सिगार्टिस पर भी अधिकार जमाया जो समुद्र तट के देश हैं। अयोलोडोरस कहता है कि बलख सारे ईरान का शिरोमणि है। उन्होंने अपना राज्य सिरीज और फ्रिनी के देशों तक बढ़ाया।”

हूण-अरण्यवासी और राक्षस

ऊपर के उद्धरण में फ्रिनी शब्द भ्रम से फानी के स्थान पर लिखा गया है, जिसका अर्थ अरण्यवासी होता है। हूणों के अरण्यवासी होने की बात गाथिक लोगों में भी प्रसिद्ध थी। गाथिक इतिहासकार कसिओडोरस के ये वाक्य और ग्रंथो में उध्दृत मिलते हैं।

“उन दिनों में हूण लोग जो पहले बहुत दिनों तक दुर्गम पर्वतों के बीच रहे, गाथ लोगों पर एकाएक टूट पड़े, और उन्हें तंग करते-करते देश से बाहर निकाल दिया और देश को अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रचंड लड़ाकू जाति की उत्पत्ति पुरानी कथाओं में इस प्रकार मिलती है।”

“गाथों के राजा फिलिमर को, जो स्कैंजा द्वीप से आकर बसे हुए जेटे लोगों पर राज करता था, जब वह स्वजातियों के दल के साथ शक देश में पहुँचा तब मालूम हुआ कि उसके दल में कुछ 'मग स्त्रियाँ' हैं। उन स्त्रियों पर अनेक प्रकार के संदेह करके उसने उन्हें अपने दल में से निकाल दिया और वे बहुत दिनों तक इधर-उधर फिरती रहीं।”

इस उदाहरण से पता चलता है कि गाथ लोग अरण्यवासी हूणों को हूण पिता और मग माता से उत्पन्न मानते थे।

मिनांडर और हूण

हयंग-नु लोगों को उस समय साधारण लोग वन-दैत्य कहते थे। पारसी लोग भी उन्हें देव ही समझते थे। प्राचीन यूनान और रोमन लोगों ने जिन्हें फानी (अरण्यवासी) लिखा है, वे ये हयंग-नु ही थे, इसका प्रमाण स्ट्रेबो के लेख से मिलता है। स्ट्रेबो के भूगोल के अनुसार मिनांडर ने ईसा से 600 वर्ष पूर्व अपना राज्य चीन की सीमा और फानी लोगों के देश तक बढ़ाया। यह पहले ही लिखा जा चुका है कि मिनांडर के समय में चीन का बादशाह ह्ने-टी था। अस्तु, आयोलोडोरस नामक वाधीकवासी यवन (यूनानी) ने अपनी पार्थिका (पारद देश के वृत्तांत) में जिस फानी राज्य का उल्लेख किया है वह हयंग-नु राज्य ही था, जिसका शासक उस समय परम प्रचंड माओन्तुन था। चीनियों के लेखों से तो इस बात का पूरा निश्चय हो जाता है। चीनी हयंग-नु लोगों को क्वै-फांग भी कहते थे। 'क्वै' शब्द का अर्थ है दैत्य या दानव। एक चीनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि 'यिन' वंश के लोग उन्हीं को क्वै फांग कहते थे जिन्हें पहले 'हान' वंश (जिसमें शी-ह्नां टी और ह्नेटी थे) के लोग हयंग-नु कहते थे। प्राचीन चीनी इतिहासकार सी-म-चंग ने भी ऐसा ही लिखा है सी-म-चंग के अनुसार यव-शोन के समय में शोन-बे कहलाते थे। 'इन' वंश के समय में उनके देश को क्वै-फांट कहते थे। 'चाओ' के समय में वे हून-यून और 'हान' वंश के समय में हयंग-नु कहलाते थे।

ऊपर के विवरणों से स्पष्ट है कि हयंग-नु लोगों को किसी समय चीनी लोग भी दैत्य दानव कहते थे और यह बात जनसाधारण के बीच फैलते-फैलते रोमन लोगों तक पहुँची। अस्तु, इसमें अब कोई संदेह नहीं रहा कि हयंग-नु और हूण को उनके पड़ोसी चीनी एक ही समझते थे।

हूणों का मातृकुल-मसाजेटे

हूणों के मातृकुल पर विचार करने से यही प्रतीत होता है कि मग स्त्रियाँ जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है जेटे जाति की थीं जो चीन के किनारे बसती थीं। यूनानी (यवन) और रोमन लेखक हूणों को मसाजेटे जाति से निकले हुए मानते थे। अमिएनस मार्सेलिनस ने तो स्पष्ट लिखा है कि हूण लोग आलन लोगों से मिलते जुलते थे जो यूरोप के डोन नदी से लेकर सिन्धु नदी तक फैले थे और पहले मसाजेटे कहलाते थे। हयंग-नु लोगों द्वारा उनके पराजित होने के पहले चीनी उन्हें अनसाई या यनसाई कहते थे। मग स्त्रियों से जो हूणों की उत्पत्ति मानी जाती थी वह इस कारण कि मग स्त्रियाँ जादू-टोना करने में प्रसिद्ध थीं। ऐसी मायाविनी स्त्रियों से हूण जैसे दैत्यों को उत्पन्न मानना स्वाभाविक ही था।

भारतीय ग्रंथो में पता

यह पहले ही कहा जा चुका है कि ओरोसियस के भूगोल में हूण-शक उत्तरकुरु के पास रहते थे। संस्कृत ग्रंथो में उत्तरकुरु जाति हिमालय के उस पार कही गई है। पुराणों में तो उत्तरकुरु विलक्षण रंगरूप के और अत्यंत दीर्घजीवी लिखे गए हैं। प्राचीन यूनानियों ने भी उनका ऐसा ही पौराणिक वर्णन किया है। पर महाभारत में उनका मनुष्य ही के रूप में वर्णन हुआ है और लिखा है कि पांडु के समय में उनके यहाँ एक स्त्री कई पति करती थी। और अधिक प्राचीन ग्रंथो की ओर जाते हैं तो उनमें उनका सीधा-सादा उल्लेख मिलता है। *ऐतरेय ब्राह्मण ने लिखा है कि वे हिमालय के उस पार बसते थे। उत्तरकुरु यद्यपि देवभूमि कहा गया है पर यह भी लिखा गया है कि वशिष्ठ सत्यहव्य का शिष्य ज्ञानन्तपि अत्याराति उसे जीतना चाहता था। इसे हम किस्सा कहानी नहीं मान सकते। उत्तरकुरु के साथ ही हमें उत्तरमद्रों का उल्लेख मिलता है जिनका बहुत कुछ संबंध काम्बोजों से था। काम्बोज औपमन्यव मद्रगार का शिष्य कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में एक आख्यान है कि कुरुपांचाल ब्राह्मणों और उत्तरीय ब्राह्मणों के बीच झगड़ा हुआ जिसमें उत्तरी ब्राह्मणों की विजय हुई। आख्यान में यह भी है कि उत्तरी ब्राह्मणों की भाषा कुरुपांचालों की भाषा से मिलती जुलती थी। उनकी भाषा बहुत विशुद्ध मानी जाती थी। और बहुत से ब्राह्मण अध्ययन के लिए उत्तराखंड में जाते थे।* 
बौद्ध कथाओं से भी यह जाना जाता है कि गांधार बहुत दिनों तक प्रधन विद्यापीठ रहा जहाँ बड़े-बड़े राजकुमार राजनीति आदि की शिक्षा के लिए जाते थे। बुद्ध के समय में कोशल के राजा प्रसेन्जित शिक्षा के लिए तक्षशिला गए थे। सिंहलद्वीप के इतिहास ग्रंथ महावंश में लिखा है कि जिस समय महास्तूप बन रहा था उस समय कुछ श्रमण एक विशेष प्रकार का पत्थर लाने के लिए उत्तरकुरु भेजे गए थे। अस्तु यदि हम उत्तरकुरु टारिम के कछार के उस स्थान को मानें जो अब चीनी तुर्किस्तान कहलाता है तो असंगत न होगा। उत्तरकुरु को चीन और भारत सीमा पर तथा हयंग-नु के पास होना चाहिए।

हुएन्सांग के वर्णन में खुतन के पश्चिम 'चूहों' का उल्लेख

हयंग-नु लोगों का स्थान यही था इसका प्रमाण हुएनसांग के वर्णन में मिलता है। लिखता है, “पुराने समय में हयंग-नु का एक सेनापति लाखों का दल लेकर इस प्रदेश (खुतन) को लूटने आया था। पर बड़े भीमकाय चूहों ने जो खुतन से कुछ दूर पर रहते थे आकर हयंग-नु के दल का बात ही बात में ध्वंस किया।”

हयंग-नु के हूण प्रदेश में पहुँचने के लिए सिता नदी पार करना पड़ता है। इसी को पुराणों में सीता लिखा है जो मेरु से निकली हुई सात पवित्र नदियों में से है। महाभारत में इसी का नाम शैलोदम लिखा है जो यूनानी और रोमन लोगों के बीच 'सिलास' के नाम से प्रसिद्ध थी। 
 *अब यह स्पष्ट हो गया कि उत्तरकुरु प्रदेश टारिम के कछार में था और जिसे आजकल तकला-मकान का रेगिस्तान कहते हैं, उसके उत्तर पश्चिम किनारे पर थियानशन पर्वत के पूर्वी ढाल की ओर पड़ता था* ।

शनिवार, 9 अप्रैल 2022

विक्रमादित्य कौन थे तथा विक्रम संवत और शकाब्द।

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निकट सोनकच्छ जिला मुख्यालय है। सोनकच्छ के निकट गन्धर्वपुरी नामक कस्बा / ग्राम है। यहाँ एक शिवमंदिर है। कहा जाता है कि रात्रि में कुछ नाग शिवलिङ्ग की प्रदक्षिणा करते हैं। प्रातःकाल मन्दिर खोलने पर शिवलिङ्ग के आसपास वृत्ताकार परिपथ में सर्पों की विष्ठा पाई जाती है।

महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब के मालव प्रान्त से आकर उक्त गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।

गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु और शिव के भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा गन्धर्वसेन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप महाराज गंधर्वसेन की जंगल में ही मृत्यु हो गई। ईसापूर्व ५० में प्राकृत भाषा में रचित जैन कल्प सूत्र में कालकाचार्य कथा में इसका उल्लेख है।इसमें गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।

गन्धर्वसेन के दो पुत्र भृतहरि और विक्रमसेन (विक्रमादित्य) और पुत्री मैनावती थी। मैनावती के पुत्र गोपीचन्द थे। भृतहरि की पत्नी पिङ्गला से अलाका, शंख नामक दो पुत्र हुए।

गन्धर्वसेन के बड़े पुत्र भृतहरि ने उज्जैन को राजधानी बनाया। भृतहरि ने अपने अनुज विक्रमसेन को सेनापति बनाया। लेकिन भृतहरि की प्रिय पत्नी महारानी पिङ्गला ने महाराज भृतहरि को विक्रम के विरुद्ध भड़का कर विक्रमसेन को देश निकाला दिलवा दिया। सुदृढ़ सेनापति के अभाव में उज्जैन पर शकों के आक्रमण बढ़ने लगे। भृतहरि और विक्रम की बहन मैनावती के पुत्र गोपीचन्द पहले ही नाथ सम्प्रदाय के सम्पर्क में आकर नाथयोगी हो गये। योगी गोरखनाथ भृतहरि को अपना शिष्य बनाना चाहते थे। इसलिए गोरखनाथ जी ने भृतहरि को रानी पिङ्गला की आसक्ति से मुक्त कर भृतहरि को धारा नगरी में नाथ पन्थ में दीक्षित किया।

नाथ पन्थ में दीक्षित होकर वैरागी होने के कारण राजा भृतहरि ने अपने अनुज विक्रम सेन को खोज कर राज्यभार विक्रम सेन को सोंप दिया। विक्रम सेन ने सैन्य सङ्गठन मजबूत कर शकों को देश से निकाल कर अपनी राज्य सीमा अरब तक पहूँचा दी। इस उपलक्ष्य में विक्रम सेन सम्राट विक्रमादित्य कहलाये। और उननें विक्रम संवत प्रवर्तन किया। जो वर्तमान में भी पञ्जाब हरियाणा में प्रचलित नाक्षत्रीय निरयन सौर विक्रम संवत के मूल स्वरूप में प्रचलित है ।

भविष्य पुराण के अनुसार विक्रमादित्य का जन्म कलियुग के तीन हजार वर्ष व्यतीत होनें पर अर्थात 101 ईसापूर्व हुआ था। और उनने शतवर्ष राज्य किया।

गन्धर्वसेन की मृत्यु पश्चात शकों के भारत पर आक्रमण के होंसले बुलन्द होगये। महाराज भृतहरि के समय भी अनेकबार शक आक्रमण हुए जिनका सामना उनके छोटेभाई विक्रमसेन (विक्रमादित्य) नें किया।

कलियुग संवत 3068 अर्थात34 ईस्वी में रचित ज्योतिर्विदाभरण ग्रन्थ के अनुसार करुर नामक स्थान पर शकों को परास्त कर शक विजय कर विक्रमसेन ने उज्जैन का राज्य सम्भाला। और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। विक्रमादित्य के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में कलियुग संवत 3044 आरम्भ दिन निरयन मेष संक्रान्ति को अर्थात 57 ईसापूर्व में विक्रमादित्य नें विक्रम संवत चलाया।

कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर के युधिष्ठिर के वंशज राजा हिरण्य की मृत्यु निस्सन्तान रहते होजानें के कारण अवन्ति नरेश विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य सोपा था। नेपाल के राजवंशावली के अनुसार - नेपाल के राजा अंशुवर्धन के समय विक्रमादित्य नेपाल भी गये थे।

विक्रमादित्य ने अलग अलग देश और संस्कृति की पाँच पत्नियाँ थी मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल, और चिल्लमहादेवी। जिनसे पुत्र विक्रम चरित और विनयपाल तथा विद्योत्तमा प्रियमञ्जरी और वसुन्धरा हुई।

विक्रमादित्य के राजपुरोहित त्रिविक्रम एवम् वसुमित्र थे। विक्रमादित्य के सेनापति विक्रमशक्ति एवम् चन्द्र बतलायें गये हैं। भट्टमात्र जो नौरत्नों में से एक वेतालभट्ट भी कहलाते हैं वे विक्रमादित्य के मित्र थे।

1आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि, 2 ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर, 3 महाकवि कालीदास, 4 व्याकरणाचार्य वररुचि, 5 तन्त्राचार्य वेतालभट्ट, 6 अमरकोश अर्थात संस्कृत शब्दकोश रचियता अमरसिंह, 7 शंकु  8 जैन आचार्य क्षपणक और 9 घटखर्पर विक्रमादित्य के शासन के नौरत्न थे।

भविष्य पुराण और स्कन्दपुराण के उल्लेख  अनुसार तथा तुर्की के शहर इस्ताम्बुल के पुस्तकालय मकतब - ए - सुल्तानिया में रखी अरब के अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में उल्लेख के अनुसार ईरान,अरब, ईराक, सीरिया, टर्की, मिश्र देशों पर विक्रमादित्य की विजय का उल्लेख है और अरबी कवि जरहाम किनतोई की पुस्तक सायर उल - ओकुल पुस्तक में विक्रमादित्य से सम्बन्धित शिलालेख का उल्लेख है; जिसमे विक्रमादित्य को उदार, दयालु, कर्तव्यनिष्ठ, प्रत्यैक व्यक्ति का हितचिन्तक और हितकारी कहकर विक्रमादित्य के शासन काल में जन्में और जीवन व्यतीत करने वाले लोगों को सौभाग्यशाली कहा है। साथ ही कहा है विक्रमादित्य नें मिश्र, टर्की, सीरिया, ईराक, सऊदी अरब, यमन और ईरान में वेदिकधर्म के प्रकाण्ड पण्डित विद्वानों को भेजकर ज्ञानप्रकाश फैलाया। ऐसा उल्लेख भी पाया गया है कि, विक्रमादित्य ने रोम के शासक को बन्दी बनाकर उज्जैन में घुमाया था। तथा विक्रमादित्य का शासन युनान (ग्रीस) में भी था।

विक्रमादित्य ने जो विक्रम संवत प्रवर्तन किया था वही वर्तमान में भी पञ्जाब हरियाणा में नाक्षत्रीय निरयन सौर विक्रम संवत के मूल स्वरूप में प्रचलित है ।

विक्रम संवत का आरम्भ निरयन मेष संक्रान्ति/ वैशाखी (वर्तमान में १४/१५ अप्रेल) से होता है। इस संवत में ३६५.२५६३६३ दिन होते हैं।

विक्रम संवत लागू होनें के १३५ वर्ष बाद विक्रम संवत १३६ में आन्ध्र प्रदेश के सातवाहन वंशीय गोतमीपुत्र सातकर्णी नें अपने राज्यारोहण या मतान्तर से नासिक क्षेत्र महाराष्ट्र के पेठण विजय के अवसर पर अपने राज्य क्षेत्र महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तेलङ्गाना, और मध्य भारत में निरयन सौर संक्रान्तियों से सम्बद्ध चान्द्र संवत शालिवाहन शकाब्द आरम्भ किया और पैशावर (पञ्जाब— पाकिस्तान) के कुशाण वंशीय क्षत्रप कनिष्क नें मथुरा विजय के पलक्ष्य में मथुरा और उत्तर भारत में निरयन सौर संक्रान्तियों से सम्बद्ध चान्द्र संवत शकाब्द लागू किया।

शक और कुषाण तिब्बत में तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में (उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त) शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान) के मूल निवासी थे।

शकाब्द पञ्चाङ्ग में १९, १२२ और १४१ वर्षिय चक्र पूर्ण कर पुनः पुनः निरयन सौर/ नाक्षत्रीय विक्रम संवत के साथ हो जाता है। अर्थात उन्नीस-उन्नीस वर्षों में विक्रम संवत की मेष वृष आदि मास के गतांश या वैशाख ज्येष्ठ आदि सौर मास के संक्रान्ति गत दिवस/ गते एक साथ हो जाते है। इसके लिए अट्ठाइस से अड़तीस माह के बीच जिस चान्द्रमास में अर्थात जिन दो अमावस्याओं के बीच निरयन संक्रान्ति न पड़े उसे अधिक मास और जिस निरयन सौर मास में अर्थात जिन दो निरयन संक्रान्तियों के बीच अमावस्या न पड़े उसे क्षय मास माना जाता है।  क्रम से पहले उन्नीस वर्ष में, फिर एक सौ बाइस वर्ष में फिर एक सौ इकतालिस वर्ष में क्षय मास पड़ता है। जिस वर्ष क्षय मास पड़ता है उस क्षय मास के पहले एवम् बादमें एक-एक अधिक मास पड़ता हैं। इस प्रकार अधिक मास वाला वर्ष हो या क्षय मास वाला वर्ष हो दोनों शकाब्द में अमावस्या से अमावस्या तक वाले तेरह अमान्त चान्द्रमास होते हैं। यह १९, १२२, १४१ वर्षीय चक्र मूलतः उन्नीस वर्षीय चक्र ही है। 

वर्तमान में यह भ्रम प्रचलित है कि, विक्रम संवत भी शुद्ध निरयन सौर वर्ष न होकर आरम्भ से निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष ही था। 

यदि ऐसा होता तो केवल १३५ वर्ष बाद ही शक संवत में निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मास वाली यह नवीन प्रणाली लागू करने के लिए शक संवत आरम्भ करने की क्या आवश्यकता थी?

विक्रमादित्य के पूर्वजों के क्षेत्र पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश में आज तक विक्रम संवत निरयन सौर संक्रान्तियों वाले महिने और संक्रान्ति गते क्यों प्रचलित रहता?

कुछ लोग गुजरात के कार्तिकादि संवत को विक्रम संवत मानते हैं। यह भी उचित नहीं है। क्योंकि यह केवल गुजरात में ही सीमित है। 

जबकि, सातवाहन और कुशाणों के राज्यक्षेत्र में ही निरयन सौर संस्कृत शक पञ्चाङ्ग प्रचलित है। शेष भारत में अर्थात पञ्चाङ्ग, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, बङ्गाल,उड़िसा, असम आदि सेवन सिस्टर्स प्रदेश, तमिलनाडु, केरल आदि प्रदेशों में निरयन सौर संक्रान्तियों  वाले महिने और संक्रान्ति गते या गतांश ही प्रचलित है।


मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

भूत-प्रेत नही गन्धर्व, यक्ष, राक्षस या पिशाच योनि।

आधुनिक भाषा में भूत प्रेत को योनि नही माना जाता। मरा हुआ व्यक्ति ही देहरहित कभी कभी दिखता है ऐसा मानते हैं।
आधुनिक भाषा में भूत प्रेत को योनि नही माना जाता। मरा हुआ व्यक्ति ही देहरहित कभी कभी दिखता है ऐसा मानते हैं।
प्रचीन भारत में ऐसी कोई अवधारणा नही थी।
पहले भूत यानि हुआ, हो चुका, जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि नामक पञ्च महाभूत जो क्रमशः शब्द (आकाश), स्पर्ष (वायु), रूप (अग्नि), रस (जल), गन्ध (भूमि) तन्मात्राओं से हुए / अवधि शब्द भये। ( भये प्रकट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी।)
और प्रेत मतलब शव होता था। मृत शरीर को प्रेत कहते थे। न कि, क्रियाशील निर्जीव व्यक्ति या सदा नशे में रहने वाले जाम्बी।
इस्लामिक काल के बाद  यदि किसी भारतीय को कोई देवता भी दिखता होगा तो वह व्यक्ति भूत समझ कर भाग जाता होगा। गुलामी की जड़ें बहुत गहरी है। महाभारत काल में इन्हे देव योनियाँ कहा जात था।
जोरस्टर के पहले ईरानी अथर्वेद और अवेस्ता को मानने वाले  इन्द्रावरुण के लिये होम करनें वाले  वर्णाश्रम धर्मी मग और श्रमण संस्कृति के शैव मीढ होते थे।
इराकी अश्शुर संस्कृति के वाहक इस्लाम में भी देव मतलब भयानक और अश्शुर (असूर) विरोधी माना जाता है। इराक की अश्शुर संस्कृति  से प्रभावित से जरथ्रुस्त (जोरस्टर) के अनुयाई बनने के बाद ईरान में जोरस्ट्रियन पारसी लोग असुर को पुज्य और देवी- देवताओं को भयंकर माननें लगे।
उनके देखादेखी भारतियों नें भी भूत की अवधारणा अपना ली और उनहें भी मानवेत्तर आसूरी योनियों को भी देवी-देवता बोलनें लगे। किन्तु ये कथित देवी-देवता श्रद्धेय, शरणाङ्गत वत्सल और भय निवारक न होकर भयकारी मानें जाते हैं। इनसे बचनें के लिये  गायत्रीमन्त्र और हनुमान चालीसा पढ़कर वास्तविक देवी देवताओं की शरण ली जाती है।
एक ही शब्द देव के दो भावों में अलग अलग और विपरीत अर्थ होगये।
मूलतः जिन्हें भूत-प्रेत, जिन्न-जिन्नात बोला जाता है वे गन्धर्व, यक्ष, रक्षोहा (राक्षस), यातुधान या पिशाच आदि कोई योनि के जीव होते हैं। न कि, मरा हुआ व्यक्ति।
मरने के बाद वह व्यक्ति इनमें से गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, या पिशाच आदि किसी योनि में आ गया हो यह सम्भव है।
इसलिए मूलतः जिन्हें हम भूत-प्रेत समझते हैं वे गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, या पिशाच योनि के जीव हो सकते हैं।
यदि ये जीव हैं योनियाँ है, तो इनमें जैविक लक्षण श्वसन, ग्रहण, उत्सर्जन, प्रजनन, प्रचलन रोग और चिकित्सा आदि गुण होना आवश्यक है।  इस सम्बन्ध में कई घटनाएँ पढ़ने सुनने में आती है।  कुछ प्रसिद्ध घटनाएँ ये हैं - 
१ कुछ प्रकरण ऐसे बतलाये जाते हैं जिसमें कोई मानवीय चिकित्सक को किसी प्रसुता की प्रसूति करवाने के लिए कोई वृद्ध बग्घी लेकर आते हैं और चिकित्सक को साथ में ही ले जाते हैं।  दुसरी बार जब चिकित्सक वहाँ जाते हैं तो उस पुराने खण्डहर में सर्वत्र मकड़ी के जाले आदि पाते हैं। जहाँ वर्षों से कोई नही आया। लेकिन वहाँ उनके द्वारा प्रयोग किये गये इंजेक्शन एम्पूल, और गोली दवाइयों की स्ट्रिप्स पड़ी हुई मिलती है।
मतलब प्रजनन होता है।
२ चिकित्सा करवाने के लिए चिकित्सक को ले जाने के प्रकरण भी प्रचलित हैं।
२ कुछ प्रचलित प्रकरणों में तथाकथित भूत-प्रेत हाँपते हुए भी वर्णित हैं। अर्थात श्वसन करते हैं।
४ भूत-प्रेतों के मिठाई खरीदने, बीड़ी-सिगरेट मांगने जैसे किस्से तो इतने आम हैं कि, बहुत से लोग इससे परिचित होंगे। 
अर्थात ग्रहण करते हैं। जब ग्रहण करते हैं तो उत्सर्जन करते होंगे यह तर्क लगाया जा सकता है।
५ चलते-फिरते हैं यह तो सर्वमान्य है। अर्थात प्रचलन भी होता है।
६ तथाकथित भूत-प्रेतों में परस्पर विवाह, भूत का मानवी स्त्री से विवाह और भूतनी/ चुड़ेल का मानव नर से विवाह होना तथा यौन सम्बन्ध होना भी बहुत प्रचलित है।
७ तथाकथित भूत प्रेतों में बच्चों का लालन-पालन कर उन्हें बड़ा करने के प्रकरण भी सुनने पढ़ने में आते हैं।
ये सभी प्रकरण नेट पर और भूत-प्रेत साहित्य में सहज उपलब्ध है।
कुल मिलाकर उक्त घटनाओं के आधार पर यह सिद्ध है कि, जीव विज्ञान में जीवित प्राणी के जितने लक्षण बतलाए हैं वे सब लक्षण तथाकथित भूत प्रेत में जीव के समस्त लक्षण पाये जाते हैं। 
 अतः यह सिद्ध होगया कि, ये जीव हैं। सनातन वैदिक धर्म दर्शन के अनुसार कोई व्यक्ति मरने के बारह दिन के अन्दर किसी न किसी योनि में प्रवेश कर ही लेता है। वह चाहे जड़ पाषाणादि योनि हो या विषाणु/ वायरस हो, एक कोशिय प्रोटोजोवा हो, बहुकोशिकीय स्थाणु पोरीफेरा हो,  वृक्षगुल्म लता आदि स्थाणु हो, या  सरल अकशेरुकी जन्तु हो या कशेरूकी जन्तु हो, कपि हो, वानर हो, पिशाच हो, राक्षस हो, दानव हो, दैत्य हो, यक्ष हो, मानव हो, किन्नर हो, गन्धर्व हों या कर्म देव हो, अग्नि, वायु आकाश आदि प्राकृतिक देवता अर्थात वैराज देव  हो, रुद्र हो, वसु, आदित्य,, इन्द्र आदि आजानज देव (जन्मजात देवता) हो, प्रजापति, हिरण्यगर्भ, आदि ईश्वर श्रेणी के देवता अजयन्त देव हो
अन्ततः सब जन्मने मरने वाले हैं अर्थात योनियाँ ही है।
अतः हम मानवेत्तर सभी योनियों को कोई एक संज्ञा देना सम्भव नही है।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

गणपति प्रथम वन्दना

वैदिक काल में योग्यता के आधार पर प्रमुख या राजा का निर्वाचन होता था। वाल्मीकि रामायण में  श्रीराम का युवराज पद पर चयन सम्बन्धी उल्लेख भी इसी का प्रमाण है।
राज्य के राजा, प्रान्त प्रमुख (क्षत्रप), नगर प्रमुख आदि को प्रथम नियन्त्रण और प्रथम वन्दना तब से आजतक प्रोटोकॉल में प्रचलित है।
गणराज्य के अध्यक्ष (राजा) को गणपति कहा जाता था और अनेक छोटे-बड़े गणराज्यों का महा गणाधिपति होता था। यह तथ्य सर्वविदित है। इसमें कुछ भी नया नही है।
लेकिन गणपति को प्रथम निमन्त्रण, गणपति की प्रथम वन्दना का दूसरा सामाजिक, राजनीति पहलू पर किसी ने ध्यान नही दिया।
गणराज्य के अध्यक्ष (राजा) को गणपति कहा जाता है। जिससे वाराणसी और लखनऊ से प्रकाशित दैनिक आज ने राष्ट्रपति शब्द गढ़ा और प्रचलित करवा दिया।
शंकर जी को महागणाधिपति का पद मिलने पर प्रमथ गणों के अध्यक्ष / गणपति पद प्राप्ति के लिए  कार्तिकेय के साथ विनायक के कुछ विवादों के निपटारे पश्चात शंकर जी ने विनायक को उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया।
स्वाभाविक है, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ ज्वर उत्पत्ति अध्याय २८३ पृष्ठ ५१६० और संक्षिप्त महाभारत द्वितीय खण्ड में पृष्ठ १२८०  में उल्लेखित दक्ष यज्ञ विध्वन्स जैसी घटना के कर्ता-धर्ता शंकरजी के उत्तराधिकारी भी उनके समान अपने समुदाय प्रमथ गणों में दमखम वाला ही हुआ।
पाण्डुरङ्ग वामन काणे रचित धर्मशास्त्र का इतिहास प्रथम भाग, द्वितीय खण्ड, संस्कार प्रकरण पृष्ठ १८६ में मानव गृह्यसुत्र २/४ में उल्लेखित चार विनायकों शालकटंकट, कुष्मांड राजपुत्र,उस्मित एवम् देवयजन अष्ट विनायक को पिशाच सिद्ध किया है। साथ ही  तथा भाग २ पृष्ठ ११३० में विनायकों को विघ्नकर्ता ही कहा है।
यहीं से भय की भक्ति स्वरूप सर्वप्रथम उक्त रुद्र गणों (उग्र लोगों) को प्रथम निमन्त्रण और प्रथम वन्दना की परम्परा प्रचलित हुई। जो आज भी गली- मोहल्ले के सामाजिक कार्यक्रमों से लेकर बड़े राजनीतिक कार्यक्रमों तक प्रचलित है।
ब्राह्मी लिपि के ॐ या वैदिक ॐ से गजानन का स्वरूप बना कर कई चित्रकार यह प्रमाणित कर चुके हैं कि, विनायक का गजानन स्वरूप ॐ से परिकल्पित है।