रविवार, 30 जनवरी 2022

निम्बार्काचार्य का स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन भाग १

स्वाभाविक भेदाभेद
श्रीनिम्बार्काचार्य ने ब्रह्म ज्ञान का कारण एकमात्र​ शास्त्र को माना है। सम्पूर्ण धर्मों का मूल वेद है। वेद के विपरीत​ मत वाली स्मृतियाँ अमान्य हैं। जहाँ श्रुति में परस्पर द्वैध (भिऔन्न रूपत्व) भी​ आता हो वहाँ श्रुति रूप होने से दोनों ही वचन धर्म हैं। किसी एक वचन को​ उपादेय तथा अन्य वचन को हेय नहीं कहा जा सकता। तुल्य बल होने से​ सभी श्रुतियाँ प्रधान हैं। किसी के प्रधान व किसी के गौण भाव की​ कल्पना करना उचित नहीं है।
इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न​ रूप श्रुतियों का भी समन्वय करके निम्बार्क दर्शन ने परमात्मा, जीव और जगत के बीच स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध को स्वीकृत किया है। इसमें समन्वयात्मक दृष्टि होने से भिन्न रूप श्रुति का भी​ परस्पर कोई विरोध नहीं होता। अतएव निम्बार्क दर्शन को ‘अविरोध​ मत’ के नाम से भी अभिहित करते हैं।
कुछ श्रुति वाक्यों में भेद का बोध  होता हैं तो कुछ श्रुति वाक्य अभेद का​ निर्देश देते हैं। 
यथा- 
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा० ६/२/ १)
 आत्मा वा इदमेकमासीत्’  (तै०२/१) तत्त्वमसि’ (छा./१४/ ३) ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृ० २/५/१६) सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छा.३/१४/१) और  
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (गी, ७/७/) इत्यादि अभेद का बोध कराती हैं।
जबकि,
‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८) 
‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१) 
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ (तै० ३/१/१) । 
‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् (कठ० ५/१३)
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।’ (गीता १०/८) 
‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान
बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८)
‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१)
इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म,जीव और जगत के भेद का प्रतिपादन करती हैं।
 श्रुति​ स्मृतियों का निर्णय है कि,वेद सर्वांशतया प्रमाण है।। अतः तुल्य होने से भेद दर्शक वचन और अभेद दर्शक वचन दोनों को ही प्रधान​ मानना होगा। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं। भेद अभेद नहीं हो सकता और अभेद को भेद नहीं कह सकते। ऐसी स्थिति में कोई ऐसा मार्ग निकालना होगा कि दोनों में विरोध न हो तथा समन्वय हो​ जावे। यह समन्वय ही भेदाभेद दर्शन है।
‘ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उपादान अपने कार्य से​ अभिन्न होता है। स्वयं मिट्टी ही घड़ा जब बन जाती है।तब मिट्टीके बिना घडे​ की कोई सत्ता नहीं। कार्य अपने कारण में अति सूक्ष्म रूप में विद्यमान ररहता हैं। उस समय नाम रूप का विभाग न होने के कारण कार्य का पृथक्​ रूप से ग्रहण नहीं होता पर अपने कारण में उसकी सत्ता अवश्य​ रहती है। इस प्रकार कार्य व कारण की ऐक्यावस्था को ही अभेद कहते हैं।’
 ‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत् ०’ इत्यादि श्रुतियों का यह ही​ अभिप्राय है। इसी से सत् ख्याति की उपपत्ति होती है। सद्रूप होने​ से यह अभेद सवाभाविक है। दृश्यमान जगत् ब्रह्म का ही परिणाम है।
अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह​ ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है। यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः। स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०) ‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् (​तै. २/६) इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं। ब्रह्म ही प्राणियों को अपने-अपने किये कर्मों का फल​ भुगताता है।
अतः जगत् का निमित्त कारण होने से ब्रह्म और जगत्​ का भेद भी सिद्ध होता है, जो कि अभेद के समान स्वाभाविक ही​ है।
श्रुतियों में कुछ भेद का बोध कराती हैं तो कुछ अभेद का​ निर्देश देती हैं।
यथा-
ब्रह्म मकड़ी के जाले के​ समान अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह​ ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है।
यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः।
स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०)
‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् ।(​तै. २/६)
इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं।

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