निम्बार्क संप्रदाय के चिन्ह (शंख, चक्र व उर्ध्वपुंड निम्बार्क तिलक)
निम्बार्काचार्य, निम्बार्क सम्प्रदाय और स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन/स्वाभाविक द्वेताद्वेत दर्शन।
(स्रोत - विकिपीडिया)
निम्बार्काचार्य और निम्बार्क सम्प्रदाय
निम्बार्क सम्प्रदाय सनक सम्प्रदाय के नाम से भी विख्यात है। इस सम्प्रदाय का मानना है कि श्री निम्बार्काचार्य का प्रादुर्भाव द्वापर के अन्त में श्री कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ और परीक्षित के पुत्र जनमेजय के समय ३०९६ ईसापूर्व में कार्तिक पूर्णिमा को सायंकाल में महाराष्ट्र के औरंगाबाद के निकट मूंगीपैठनमें वैदुर्यपत्तन (दक्षिण काशी) के तैलंगदेशीय सुदर्शनाश्रम में भृगुवंशीय अरुण ऋषि की धर्मपत्नी श्रीजयन्तीदेवी जी के गर्भ से श्रीसुदर्शन चक्र के अवतार के रूप में हुआ।
जन्म के समय इनका नाम 'नियमानन्द' रखा गया और बाल्यकाल में ही ये ब्रज में आकर बस गए। मान्यतानुसार अपने गुरु नारद की आज्ञा से नियमानंद ने गोवर्धन की तलहटी को अपनी साधना-स्थली बनाया। श्रीनिम्बार्काचार्य ने स्वाभाविक द्वैताद्वैतवाद अर्थात स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन प्रतिपादित किया।
श्रीमद्भागवत में परीक्षित द्वारा भागवतकथा श्रवण के प्रसंग सहित अनेक स्थानों पर इनके पिता अरुण ऋषि की उपस्थिति को विशेष रूप से उल्लेख है।
एक बार गोवर्धन स्थित इनके आश्रम में केवल दिन में भोजन करने वाले दिवाभोजी यति सन्यासी आये। शास्त्र-चर्चा में काफी समय व्यतीत हो गया और सूर्यास्त हो गया। दिवाभोजी यति बिना भोजन किए जाने लगे। तब बालक नियमानन्द ने सुदर्शन चक्र को नीम के वृक्ष पर स्थापित कर नीम के वृक्ष की ओर संकेत करते हुए कहा कि अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है, आप भोजन कर लीजिए। यति जी भोजन करके उठे तो देखा कि रात्रि के दो पहर बीत चुके थे। यति के रूप में वास्तव में ब्रह्माजी थे। ब्रह्माजी ने कहा- आपने मुझे निम्ब पर अपना तेज दिखलाया अतः अब आप लोक और शास्त्र में निम्बार्क नाम से प्रख्यात होंगे।
हे चक्रराज सुदर्शन ! आपका अवतार जिस कार्य के लिए हुआ है अब आप वही कार्य कीजिये। थोड़े ही समय बाद यहाँ नारदजी भी पधारने वाले हैं। वे आपको सनकादिक से प्राप्त ज्ञान देंगे। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये।
अरुण ऋषि के सुपुत्र होने के कारण 'आरुणी', जयन्ती के लाल होने के कारण 'जायन्तेय' एवं वेदार्थ का विस्तार करने के कारण आप 'नियमानन्द' नाम से विख्यात हुए।
थोड़े ही समय के पश्चात् वहाँ वीणा बजाते हुए नारदजी पहुँचे। नियमानन्द (श्रीनिम्बार्काचार्य) ने उनकी पूजा की और सिंहासन पर विराजमान करके प्रार्थना की- जो तत्व आपको श्रीसनकादिकों ने बतलाया था उसका उपदेश कृपाकर मुझे कीजिये। तब नारदजी ने श्रीनिम्बार्काचार्य को विधिपूर्वक पञ्च संस्कार करके श्रीगोपाल अष्टादशाक्षर मन्त्रराज की दीक्षा दी। उसके पश्चात् श्रीनिम्बार्काचार्य ने नारदजी से और भी कई प्रश्न किये, देवर्षि ने उन सबका समाधान किया। इनका संकलन- 'श्रीनारद नियमानन्द गोष्ठी' के नाम से प्रख्यात हुआ।
एकादशी व्रत
निम्बार्क सम्प्रदाय के अनुसार यदि दशमी तिथि मध्य रात्रि (४५ घटि) तक रहने के उपरान्त एकादशी तिथि लगे तो एकादशी तिथि में व्रत न करते हुए द्वादशी तिथि में व्रत किया जाता है।
अरुण ऋषि ने स्वयम् के सुपुत्र श्रीनिम्बार्काचार्य के मुख से आध्यत्मिक ज्ञान प्राप्त करके सन्यास गृहण कर तीर्थाटान पर चले गए। श्रीनिम्बार्काचार्य ने माता जी को भी इसी प्रकार धर्मोपदेश किया ।
सम्प्रदाय का आचार्यपीठ श्रीनिम्बार्कतीर्थ,किशनगढ़, अजमेर,राजस्थान में स्थित है।
संक्षिप्त में स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन/
स्वाभाविक द्वेताद्वेत दर्शन।
श्रीनिम्बार्काचार्य ने ब्रह्म ज्ञान का कारण एकमात्र वेद शास्त्र को माना है। सम्पूर्ण धर्मों का मूल वेद है। वेद के विपरीत मत वाली स्मृतियाँ अमान्य हैं। जहाँ श्रुति में परस्पर द्वैध (भिन्न रूपत्व) भी आता हो वहाँ श्रुति रूप होने से दोनों ही वचन धर्म हैं। किसी एक वचन को उपादेय तथा अन्य वचन को हेय नहीं कहा जा सकता। तुल्य बल होने से सभी श्रुतियाँ प्रधान हैं। किसी के प्रधान व किसी के गौण भाव की कल्पना करना उचित नहीं है।
इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न रूप श्रुतियों का भी समन्वय करके निम्बार्क दर्शन ने परमात्मा, जीव और जगत के बीच स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध को स्वीकृत किया है। इसमें समन्वयात्मक दृष्टि होने से भिन्न रूप श्रुति का भी परस्पर कोई विरोध नहीं होता। अतएव निम्बार्क दर्शन को ‘अविरोध मत’ के नाम से भी अभिहित करते हैं।
कुछ श्रुति वाक्यों में भेद का बोध होता हैं तो कुछ श्रुति वाक्य अभेद का निर्देश देते हैं।
यथा-
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा० ६/२/ १)
आत्मा वा इदमेकमासीत्’ (तै०२/१)
तत्त्वमसि’ (छा./१४/ ३)
‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृ० २/५/१६)
सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छा.३/१४/१) और
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (गी, ७/७/) इत्यादि अभेद का बोध कराती हैं।
जबकि,
‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८)
‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१)
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ (तै० ३/१/१) ।
‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् (कठ० ५/१३)
‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान
बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८)
‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१)
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।’ (गीता १०/८)
इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म,जीव और जगत के भेद का प्रतिपादन करती हैं।
श्रुति स्मृतियों का निर्णय है कि,वेद सर्वांशतया प्रमाण है। अतः तुल्य होने से भेद दर्शक वचन और अभेद दर्शक वचन दोनों को ही प्रधान मानना होगा। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं। भेद अभेद नहीं हो सकता और अभेद को भेद नहीं कह सकते। ऐसी स्थिति में कोई ऐसा मार्ग निकालना होगा कि दोनों में विरोध न हो तथा समन्वय हो जावे। यह समन्वय ही भेदाभेद दर्शन है।
‘ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उपादान अपने कार्य से अभिन्न होता है। स्वयं मिट्टी ही जब घड़ा बन जाती है तब मिट्टीके बिना घडे़ की कोई सत्ता नहीं। कार्य अपने कारण में अति सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता हैं। उस समय नाम रूप का विभाग न होने के कारण कार्य का पृथक् रूप से ग्रहण नहीं होता पर अपने कारण में उसकी सत्ता अवश्य रहती है। इस प्रकार कार्य व कारण की ऐक्यावस्था को ही अभेद कहते हैं।’
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत् ०’ इत्यादि श्रुतियों का यह ही अभिप्राय है। इसी से सत् ख्याति की उपपत्ति होती है। सद्रूप होने से यह अभेद सवाभाविक है। दृश्यमान जगत् ब्रह्म का ही परिणाम है।
अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है। यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः। स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०) ‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् (तै. २/६) इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं कि, ब्रह्म ही प्राणियों को अपने-अपने किये कर्मों का फल भुगताता है।
अतः जगत् का निमित्त कारण होने से ब्रह्म और जगत् का भेद भी सिद्ध होता है, जो कि अभेद के समान स्वाभाविक ही है।
श्रुतियों में कुछ भेद का बोध कराती हैं तो कुछ अभेद का निर्देश देती हैं।
यथा-
ब्रह्म मकड़ी के जाले के समान अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है।
यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः।
स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०)
‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् ।(तै. २/६)
इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं।
विशेष -
एकादशी के सम्बन्ध में नारद पुराण में राजा रुक्माङ्गद की कथा ।
कृपया गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६१२ से ६३९ तक देखें।
नारद पुराण में एकादशी व्रत दृढ़तापूर्वक करने वाले राजा रुक्माङ्गद द्वारा ब्रह्मा की मानस पुत्री मोहिनी को कार्तिक मास की महिमा बतलाते हुए एकादशी को व्रत रखने के उल्लेख और अगले अध्याय में राजा रुक्क्माङ्गद की आज्ञा से रानी संध्यावली द्वारा कार्तिक मास में कृच्छ्व्रत आरम्भ करने और राजा रुकमाङ्गद एकादशी व्रत दृढ़तापूर्वक करने की घोषणा, उसके बाद मोहिनी द्वारा बुलवाये गये गोतम ब्राह्मणों द्वारा एकादशी व्रत अवैदिक बतलाने पर भी राजा रुक्माङ्गद का वैष्णवों के लिए एकादशी व्रत की अनिवार्यता बतलाने के प्रकरण से एकादशी तिथि को व्रत रखने की परम्परा का आरम्भ माना जाता है।
जिसमें एकादशी के पूर्वदिन सायंकालीन भोजन का त्याग, एकादशी के दिन प्रातः कालीन भोजन का त्याग और द्वादशी के दिन निराहार उपवास करना उल्लेखित है।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३७ से ६३८ तक में राजा रुक्माङ्गद की उक्त कथा में ब्राह्मणों के शाप से मोहिनी को किसी भी लोक में स्थान न पाने पर ब्रह्मा जी ने मोहिनी को दशमी तिथि अन्तिम भाग में स्थान देकर के तेरहवें मुहुर्त के पश्चात अरुणोदय से सूर्योदय तक व्रत में रहकर दशमी विद्धा एकादशी करने वाले ब्राह्मणों के एकादशी व्रत के पुण्य फल प्राप्त करने का अधिकार दिया। इसलिए एकादशी व्रत करने वाले दशमी विद्धा एकादशी में व्रत नहीं करते। किन्तु वैध कब से आरम्भ हो इसपर स्मार्त, पौराणिक और महाभागवतों में मतभेद हैं।
एकादशी में दशमी वैध --
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३७ से ६३८ तक में उल्लेख के अनुसार दशमी तिथि समाप्ति और एकादशी तिथि आरम्भ के समय के अनुसार तीन प्रकार के वैध बतलाते गये हैं।
१ गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३७ पर श्रोत्रिय/ वैदिकों और स्मार्तों अर्थात केवल वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, उपवेदों, वेदाङ्गो, षड्शास्त्रों (षड दर्शनों) और स्मृतियों को ही धर्मशास्त्र मानने वाले स्मार्तों के लिए सूर्योदय समय या सूर्योदय के बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ होने पर दूसरे दिन / परा अर्थात् उदिता एकादशी में व्रत करना।
२ गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३८ पर पौराणिक वैष्णवों के लिए अरुणोदय विद्धा एकादशी का त्याग कहा है। और रात्रि के अन्तिम दो मुहुर्त को अरुणोदय बतलाया है।
सामान्यतया पौराणिक वैष्णव छप्पन घटि का वैध मानते हैं। अर्थात सूर्योदय से २२ घण्टे २४ मिनट बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ हो तो पौराणिक वैष्णव दुसरे दिन उदिता एकादशी न हो तो द्वादशी तिथि में एकादशी का व्रत करते हैं।
रामानुजन सम्प्रदाय वाले अरुणोदय पचपन घटि पर मान कर पचपन घटि का वैध मानते हैं अर्थात सूर्योदय से २२ घण्टे बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ हो तो रामानुजन सम्प्रदाय वाले वैष्णव दुसरे दिन उदिता एकादशी न हो तो द्वादशी तिथि में में एकादशी का व्रत करते हैं।
३ गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३८ में उल्लेख निष्काम एवम् विरक्त वैष्णव जन अर्धरात्रि के समय भी दशमी विद्ध एकादशी को त्याग देते हैं वचन के अनुसार निम्बार्क सम्प्रदाय मध्यरात्रि या पैंतालीस घटि का वेद मानते हैं। तदनुसार मध्यरात्रि या सूर्योदय के अठारह घण्टे बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ हो तो निम्बार्क सम्प्रदाय वाले वैष्णव दुसरे दिन उदिता एकादशी न हो तो द्वादशी तिथि में में एकादशी का व्रत करते हैं।
वैध रहस्य तन्त्रोक्त मतानुसार --
परमादरणीय गुरुदेव श्री ब्रजेन्द्र शरण श्रीवास्तव महोदय के लेख के अनुसार श्री स्वामी विष्णु तीर्थ ने श्रीचक्र की व्याख्या में बतलाया है कि, तन्त्रशास्त्र के अनुसार पञ्चदशी के अक्षरों के सम्बन्ध प्रतिपदा से पूर्णिमा तक के पन्द्रह तिथियों से है।तथा षोडशी का सोलहवाँ अक्षर चितिरूपा अमावस्या है। तदनुसार मूलाधार से आज्ञा चक्र के उपर निरोधिका तक दशमी तिथि आती है। निरोधिका पर एकादशी आती है और नाद पर द्वादशी तिथि का स्थान है।
ऐसे ही तिथियों का सम्बन्ध पञ्च कर्मेंद्रियों, पञ्च ज्ञानेन्द्रियों, अन्तःकरण चतुष्ठय और अमावस्या का सम्बन्ध समाधि से है। विश्वैदेवाः की एकादशी तिथि मन से सम्बन्धित तथा विष्णु की तिथि द्वादशी को बुद्धि से सम्बन्धित मानते हैं। यदि एकादशी अर्थात मन इन्द्रियों यमराज की दशमी तिथि से सम्बद्ध हो तो मन/ एकादशी (अन्तर्मुखी) निराहार यानी उपोष्या (उपास रखा हुआ) नहीं मान सकते। जबकि द्वादशी यानी बुद्धि युक्त एकादशी अर्थात मन अन्तर्मुखी अर्थात उपोष्य (निराहार) रहता है।
उक्त आधार पर दशमी विद्धा एकादशी को व्रत न करने के निर्देश की सार्थकता सिद्ध करते हैं।
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