रविवार, 14 अप्रैल 2019

प्रत्यैक वृत,पर्व, उत्सव के दिन में मतभेद क्यों रहता है।

प्रत्यैक वृत,पर्व, उत्सव के दिन में मतभेद क्यों रहता है।सभी लोग एक ही दिन क्यों नही मनाते हैं?

भारत में धर्मशास्त्र की आँख  सिद्धान्त ज्योतिष (एस्ट्रोनॉमी) है। धर्म ज्योतिष की आँखों से देखता है।धर्म निर्णय में काल निर्धारण हेतु शुद्ध गणना वाली दृग् तुल्य  पञ्चाङ्ग अनिवार्य है। सन 1956 से भारत शासन स्वयम् सनातन धर्मियों के लिये पञ्चाङ्ग प्रकाशित करता है।
इसके अतिरिक्त लाहिरी की इण्डियन इफेमेरिज भी सर्वश्रेष्ठ पञ्चाङ्ग है। इसके बाद व्यंकटेश बापुजी केतकर के सिद्धान्त ज्योतिष के ज्योतिर्गणितम् ,ग्रह गणितम्, वैजयन्ती ग्रन्थों पर आधारित बहुत सी वैध तुल्य  शुद्धसिद्ध केतकी पञ्चाङ्ग काशी / वाराणसी, उज्जैन और महाराष्ट्र के शहरों के अक्षांश देशान्तर के लिये प्रति वर्ष प्रकाशित होती है। जिसमें तिथ्यादि समाप्ति काल, सुर्य चन्द्रादि के राशिनक्षत्र प्रवेशकाल, विभिन्न नगरों में सुर्यचन्द्र ग्रहण,बुध शुक्रादि का पारगमन, युति- प्रतियोगादि दृष्टियोग बनने के समय , विभिन्न नगरों के लग्नारम्भ समय आदि सभी जानकारियाँ भारतीय मानक समय/ स्टेण्डर्ड टाइम में दी जाती है अतः पुरे भारत में समान उपयोगी होती हैं।
ऐसे ही कलेण्डर पञ्चाङ्ग भी उपलब्ध है।
बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से सुर्यसिद्धान्त की गणनाओं में बीज संस्कार देकर बनाई गई पञ्चाङ्ग भी लगभग ठीक है।
पर लोग केवल विज्ञापन देख सुन कर या परम्परगत रुप से देखी सुनी स्थुल गणित वाली ग्रहलाघवी, मकरन्द आदि ग्रन्थों के आधार पर तैयार होने वाली गलत पञ्चाङ्ग ले आते हैं।उसके पञ्चाङ्गकार कितने ही बड़े धर्मशास्त्री हो पर गलत डाटा/ गलत गणना के आधार पर लिये गये निर्णय  अपने आप गलत हो जाते हैं।

सिद्धान्त ज्योतिष ( एस्ट्रोनॉमी)  से गणना कर --

सायन सौर गणना से --
उत्तरायण- दक्षिणयन, उत्तरतोयन - दक्षिण तोयन, ऋतु,सायन सौर संक्रान्ति,सायन सौर मास , व्यतिपात, वैधृतिपात योग, ग्रहों के उदयास्त, उच्च, नीच, ग्रहण, लोप, दर्शन,धुमकेतु दर्शन, सुर्योदयास्त, चन्द्रोदयास्त, वासर आदि ज्ञात करते हैं। और
नाक्षत्रीय गणनाओं से --
निरयन सौर संक्रान्ति , नाक्षत्रीय सौर मास, सौर संस्कृत चान्द्रमास ,पक्ष, और तिथियाँ, नक्षत्र,करण आदि की गणना की जाती है।
उक्त पञ्चाङ्गीय जानकारी/ डाटा सिद्धान्त ज्योतिष (एस्ट्रोनॉमी) ही प्रदान करता है। इसलिए वैध लेने में समर्थ सिद्धान्त  ज्योतिषी और धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञान रखने वाले विद्वान ही  अच्छे धर्मशास्त्री माने जाते थे।
मयासुर ने सुर्य सिद्धान्त में और भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि में निरन्तर वेध लेते रहकर शोधन, संशोधन करते रहने के स्पष्ट निर्देश दिये है।  तदापि  भास्कराचार्य से गणेश देवज्ञ के बीच आकाशीय अन्वेषणकर  वेध लेना लगभग बन्द सा हो गया। इस कारण सिद्धान्त ज्योतिष ग्रन्थ बनना भी बन्द होगये और सारणियाँ तथा करणग्रन्थ ही बनने लगे।
गणेश देवज्ञ का ग्रहलाघव, करण कौतूहल भी करण ग्रन्थ ही माना जाता है।
ग्रह गणना में अत्यध्कि त्रुटियाँ आगई। जिसे बीज संस्कार देकर कामचलाऊ सुधार किया जाने लगा। आधुनिक वेध के आधार पर व्यंकटेश बापु जी केतकर रचित ग्रहगणितम्, वैजयन्ती ज्योतिष आदि बहुत से सिद्धान्त गणित ग्रन्थों ने बहुत काल पश्चात इस कमी को पुरा किया।
एस्ट्रोनॉमर्स की कमी के चलते ज्योतिष जैसे वैज्ञानिक विषय में भी बाबा वाक्यम् परम प्रमाणम् की परिपाटी चल निकली।
वैदिक काल में
भूमि के उत्तरीगोलार्ध में सुर्य की स्थिति को उत्तरायण कहते थे और दक्षिण गोलार्ध मे रहने को दक्षिणायन कहते थे। सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति तक उत्तरायण और सायन मेष संक्रान्ति तक दक्षिणायन।
तथा भूमि की मकर रेखा से कर्क रेखा की ओर अर्थात सुर्य की उत्तर की ओर  गति को उत्तर तोयन तथा कर्क रेखा से मकर रेखा तक की ओर सुर्य की दक्षिण की ओर गति को दक्षिण तोयन कहते थे।
सायन मकर संक्रान्ति से सायन कर्क संक्रान्ति तक उत्तर तोयन तथा सायन कर्क संक्रान्ति से सायन मकर संक्रान्ति तक दक्षिण तोयन होता था।

सायन मेष संक्रान्ति (वसन्त विषुव) से संवत्सरारम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ, मधुमासारम्भ होता था।

सायन मेष और सायन वृष के सुर्य में वसन्त ऋतु रहती थी।आज भी कश्मीर, तिब्बत पामिर और इनके पश्चिम में कश्चप सागर तक का भूभाग जो पहले भारतीय भूभाग थे में इसी समय वसन्त ऋतु होती है।
सायन मेष और सायन वृष के सुर्य में वसन्त ऋतु  ,सायन मिथुन- कर्क में ग्रीष्म ऋतु, सायन सिंह- कन्या में वर्षा ऋतु,सायन तुला वृश्चिक में शरद ऋतु, सायन धनु मकर में हेमन्त ऋतु एवम् सायन कुम्भ- मीन में शिशिर ऋतु होती थी।
नाक्षत्रीय गणनानुसार --
चित्रा तारे को आकाश का मध्य बिन्दु मान कर चित्रा तारे से 180° पर तत्कालीन आकाश में रेवती योगतारा को आकाश का आरम्भ बिन्दु मानकर  से नाक्षत्रीय भ्रचक्र में नक्षत्रीय पट्टी में ग्रहों का भ्रमण  की नाक्षत्रीय गणना यानि निरयन गणना कहते हैं।
नाक्षत्रीय गणनाओं का मिलान  भी वेध लेकर किया जाता था। जिससे डबल क्रास चेकिंग होकर गणना पुर्ण शुद्ध रहती थी।

ऐतिहासिक घटनाओं की मिति/ Date  बतलाने के उद्देश्य से नाक्षत्रीय ग्रह स्थिति और सायन गणना के पात, ग्रहण, लोप आदि की स्थिति का वर्णन कर उसके माध्यम से सटीक काल दर्शाया जाता था।जो कालीदास तक प्रचलित रहा।

वैदिक काल में आर्यावर्त की सीमाएँ पामिर, तिब्बत, तुर्किस्तान से विन्द्याचल तक थी किन्तु दक्षिण भारत में जनसंख्या बहुत कम थी जबसे भारत की सीमा से पामिर तिब्बत हटने लगा और सीमाएँ दक्षिण की ओर बढ़ने लगी तथा दक्षिण में राज्यों मे जनसंख्या घनत्व वृद्धि  और सांस्कृतिक मिलाप  बढ़ने के कारण एवम्  ईरान अफगानिस्तान की ओर से सीमाएँ सिमटते हुए पुर्व में खिसकने लगी तब दक्षिणी भारत में   उत्तरायण में वर्षाऋतु पड़ने से शुभकार्यों संस्कारों के लिये समय कम पड़ने लगा।
अस्तु  सायन मकर संक्रान्ति से सायन कर्क संक्रान्ति तक वैदिक उत्तर तोयन को उत्तरायण नाम कर दिया गया। और वैदिक उत्तरायण को उत्तर गोल नाम दे दिया गया। और वसन्त ऋतु और मधुमासारम्भ सायन सौर मीन संक्रान्ति से माना जाने लगा।
अर्थात उत्तरायण तीन माह आगे होगया।और वसन्तादि ऋतुएँ एक माह आगे बढ़ गई। मधु- माधवादि मासों की सायन सौर राशि बदलगई।

तैत्तरीय संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण और अथर्ववेद में स्पष्ट वर्णित व्यवस्था को बदलने के लिये ऋग्वेद का उपवेद लगध का वेदाङ्ग ज्योतिष ग्रन्थ  को आधार माना गया। यह घटना महाभारत काल से पुष्यमित्र शुङ्ग के काल के बीच हुई होगी। इसी कारण पुराणों में इसी आधार पर उत्तर तोयन की अवधि को उत्तरायण लिखा  मिलता हैं।

ऐसे ही पुर्व काल में चान्द्र मासों को निरयन सौर मास से संस्कार कर चान्द्र वर्ष को सौर वर्ष के अनुरुप करने से पुर्णिमा  के दिन   जिस नक्षत्र में चन्द्रमा भ्रमण करता था उसी नक्षत्र के नाम पर  चान्द्र मास के नामकरण किये गये। मा मतलब चन्द्रमा।अतः पुर्णिमा मतलब पुर्ण चन्द्र।
निरयन सौर मास से संस्कार कर चान्द्र वर्ष को सौर वर्ष के अनुरुप करने के समय  पुर्णिमा और पुर्णमास शब्द साम्य के कारण पुर्णिमान्त मास प्रचलित होगये।
चुँकि उत्तर वैदिक काल तक भी  सायन सौर मेष संक्रान्ति से संवत्सरारम्भ होता था अतः कोई समस्या नही पड़ी।
वैदिक काल में सायन मेष संक्रान्ति से आरम्भ होने वाली वर्ष गणना को उत्तर वैदिक काल के अन्त में आकाश में नक्षत्रों मे सुर्य चन्द्रमा और ग्रहों को  रास्ते में चलते चलते भी देख कर मास, दिन, नक्षत्र देख- समझ सकने की विशेषता वाली नाक्षत्रीय / निरयन पञ्चाङ्ग पद्यति अपना ली गई। जो शक आक्रमण तक अविरत चली और आज भी पञ्जाब, हरियाणा, उड़िसा, बङ्गाल, मणिपुर,तमिलनाड़ु,केरल आदि में प्रचलित है।
किन्तु उत्तर में पेशावर के कुषाण वंशी राजाओं ने मथुरा से और दक्षिण में पैठण के सातवाहन शंशी राजाओं ने अपने अपने राज्य क्षेत्र में चीन की उन्नीस वर्षीय चक्र वाली पद्यति में क्षयमास की पद्यति और जोड़कर तैयार की गई निरयन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर पर आधारित शक संवत   आरम्भ करते समय  अमान्त मास के आधार पर  संवत्सर आरम्भ करने, अधिक मास -  क्षय मास की गणना करने हेतु अमान्त मास ग्राह्य किये गये।
तब पुर्णिमान्त मास मानने वालों को एक नई समस्या आगयी  कि, पञ्चाङ्ग में संवत्स आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होने के कारण चैत्र शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिन संवत के आरम्भ में।और चैत्र कृषण पक्ष के पन्द्रह दिन  वर्ष के अन्त  में आते है।
है ना विचित्र किन्तु सत्य!
आगे चलने की आदत हमारे चरित्र में ही है।इसी का परिणाम शीतला अष्टमी के पर्व को शील सप्तमी के दिन शीतला सप्तमी के रुप में मनाना आरम्भ हो गया।, शिवरात्रि की रात्रि की चार प्रहर की पुजा के बजाय शिवरात्रि के पहली वाली रात्रि में मध्य रात्रि या ब्रह्म मुहुर्त में मन्दिर जाकर शिव पुजा कर आना ; और शिवरात्रि की रात्रि में जागरण उपास करने के बजाय मध्यरात्रि में भोजन कर आराम से सोजाना।इन तथ्यों में यह प्रवृत्ति झलकती है।
धर्म शास्त्र का अध्ययन न करने के कारण भी ऐसी विसंगतियाँ उत्पन्न हुई है।
ध्यान रहे  वार प्रवृत्ति सुर्योदय से सुर्योदय तक होती है।अर्थात वार सुर्योदय से सुर्योदय तक चलता है और सुर्योदय से ही वार बदलता है। जबकि मध्य रात्री 00:00 बजे Day & Date  बदलते हैं।मध्यरात्रि से वार नही बदलता।

और रात्रि भोजन निषिद्ध होने से मध्य रात्रि उपरान्त भोजन करना कराना दोनों ही गलत है।
यही स्थिति एकादशी वृत , उत्सवों के दिन निर्धारण में स्मार्त मत से भिन्न परम्पराओं के निर्वहन के कारण प्रत्यैक वृत, प्रत्यैक उत्सव दो- तीन दिन के अन्तर से मनाये जाने लगे।
शास्त्रज्ञों द्वारा दिये गये शास्त्रीय निर्णयों में मतैक्य रहता है।

पञ्चदेवोपासक स्मार्त जन तो पर्वकाल व्यापी तिथि में व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाते हैं। दो दिन पर्वकाल व्यापी तिथि हो या दोनों दिन पर्वकाल व्यापी तिथि न हो तभी शाकल्य तिथि अर्थात उदिया तिथि जो सूर्योदय पश्चात  दिनमान का दसवाँ भाग तक अर्थात तीन मुहुर्त अर्थात ( लगभग २ घण्टे २४ मिनट) तक हो। या ऐसे ही सूर्यास्त/ मध्याह्न या मध्य रात्रि तक हो ऐसी तिथि मे व्रत करते हैं। इसमें भी दुसरे दिन पारण पर भी ध्यान दिया जाता है।


स्मार्त एकादशी --   एकादशी तिथी में वृत कर द्वादशी में पारण किया जाता है।इसी कारण एकादशी वृत रखने वाले समझदार जन प्रदोष वृत नही रखते। इसमें कोई विवाद नही होता।
किन्तु पौराणिक भागवतो में 56 घटिका वेध  (उत्तर रात्री 04बजकर24 मिनट) , और रामानुजाचार्य एवं स्वामीनारायण सम्प्रदाय,निम्बार्काचार्य एवम् श्रीकृष्ण चेतन्य महाप्रभु (वर्तमान इस्कॉन), मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य और रामानन्दाचार्य, रामस्नेही सम्प्रदाय आदि में कोई 55 घटिका वेघ (उत्तर रात्री 04:00 बजे ), कोई 54 घटिका वेध (उत्तर रात्री 03:36 बजे ) , तो कोई 45घटिका वेध (उत्तर रात्री 00:00 बजे ) मानते है।इसमें अनुयायियों के साथ बड़ी असहज स्थिति बनती है।
माना कि किसी समय सोमवार को उत्तर रात्री में दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी तिथि आरम्भ होने/ लगने और   मंगलवार को उदिया एकादशी होकर उत्तर रात्रि में द्वादशी तिथि आरम्भ होने से बुधवार को उदिया तिथि द्वादशी ह माना  कि, सुर्योदय का समय प्रातः 06 बजे मान रहे हैं और सुर्यास्त शाम 18: 00 बजे अर्थात शाम 06:00 बजे। 12 घण्टे का दिन -12 घण्टे की रात्री मानेंगें।
इस उदाहरण से समझते हैं। --

56 घटिका वैध -   सोमवार को उत्तररात्रि 04:24 बजे या उसके बाद दशमी तिथी समाप्त होकर एकादशी तिथि लगे और बुधवार  को उदिया तिथि द्वादशी है तो भी पौराणिक भागवत सम्प्रदाय वाले बुधवार को द्वादशी तिथि में एकादशी का वृत करेंगे!
इसे कहते हैं विचित्र किन्त सत्य। है ना आश्चर्यजनक!

ऐसे ही  जन्माष्टमी और रामनवमी प्रकरण में देखते हैं
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी --
अमान्त श्रावण कृष्णाष्टमी / पुर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं।  स्मार्त जन  पर्वकाल अर्थात मध्य रात्रि में अष्टमी को महत्व देते हैं। जिस दिन मध्यरात्रि में अष्टमी तिथि हो उसी दिन  जन्माष्टमी का वृत एवम् उत्सव  मनाते हैं।
यदि मध्य रात्रि में दो दिन अष्टमी हो या दोनो दिन नही हो तो उदिया तिथि में वृत और उत्सव करते हैं।

यह तो सामान्य है।समझ में आता है।

दुसरा मत  पौराणिक भागवतों का है। वे उदिया अष्टमी  तिथि में ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वृत उपवास करते हैं। चाहे मध्यरात्रि में नवमी तिथि हो।
कुछ लोगों का तर्क है कि,शाक्त सम्प्रदाय में नवरात्रि प्रकरण में सप्तमी युक्त अष्टमी में पुजन निषिद्ध है अतः नवमी युक्त अष्टमी में (उदिया अष्टमी तिथि में) जन्माष्टमी मनाना ही उचित है।

रामानुज पन्थी निरयन सिंह राशि के सुर्य में जिस दिन  सुर्योदय के समय चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में हो उस दिन जन्माष्टमी वृत और उत्सव मनाते हैं।
है ना विचित्र किन्तु सत्य।

श्रीरामनवमी --

चैत्र शुक्ल नवमी  तिथि में श्रीराम नवमी पर्वोत्सव  मनाने में स्मार्त जन  पर्वकाल मध्यान्ह काल में नवमी तिथि को महत्व देते हैं। जिस दिन मध्याह्न में नवमी तिथि हो उसी दिन  श्रीराम नवमी का पर्व एवम् उत्सव  मनाते हैं।
यदि  मध्याह्न में नवमी दो दिन हो या दोनो ही दिन नही हो तो उदिया तिथि में वृत और उत्सव करते हैं। यह तो सामान्य है।समझ में आता है।

पर पौराणिक भागवत उदिया नवमी  तिथि में  ही  वृत उत्सव करते हैं। चाहे मध्यान्ह में दशमी तिथि हो। यहाँ वे दशमी युक्त नवमी निषेधाज्ञा का नवरात्रि वाला तर्क त्याग देते हैं।
कुछ लोगों का तर्क है कि,शाक्त सम्प्रदाय में नवरात्रि प्रकरण में  दशमी युक्त नवमी में पुजन निषिद्ध है अतः अष्टमी युक्त नवमी  में (पहली अष्टमी तिथि में) राम नवमी मनाना उचित है। यहाँ उदिया तिथि का आग्रह त्याग दिया।

रामानुज पन्थी निरयन मेष राशि के सुर्य में जिस दिन  सुर्योदय के समय चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र में हो उस दिन राम नवमी पर्व और उत्सव मनाते हैं।
है ना विचित्र किन्तु सत्य।

यजुर्वेद पर रावण कृत भाष्य को मुल यजुर्वेद संहिता में गड्डमड्ड करदिये गये  कृष्णयजुर्वेद को दृविड़ वेद के नाम से आदर पुर्वक मान्यता देने वाले दक्षिण भारतीय रामानुजाचार्य की दक्षिण भारतीय परम्परा में  जहाँ  नाक्षत्रीय /  निरयन गणनानुसार सुर्य की राशि और चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर  पर्वोत्सव के दिन निर्धारित किये जाते है।तिथियों के आधार पर दिन निर्धारित नही करते हैं।
इसी परम्परा को श्री कृष्ण चैतन्य (वर्तमान इस्कॉन) सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय, कुछ अंशों में वल्लभ सम्प्रदाय वाले भी मानते हैं।
उनके उत्तरभारतीय अनुयायी जो शक संवत के निरयन सौर संस्कृत  चान्द्र मास की तिथियों से वृतोत्सव मनाते हैं । उनने  उदिया तिथी से वृतोत्सव निर्णय की नई खोज करली।वे अलग ही चलते हैं।
पता नही वे लोग श्राद्ध कर्म में मध्यान्ह व्यापी तिथि के स्थान पर उदिया तिथि में करते हों।
विशेषता यह है कि, महाशिवरात्रि पर्व में शिवरात्रि अर्थात चतुर्दशी के  दिन का महत्व नही होकर केवल चतुर्दशी की  रात्रि का ही महत्व है। शिवरात्रि को रात्रि में प्रत्यैक प्रहर में शिव अभिषेक और पुजन होना चाहिए। किन्तु अधिकांश मन्दिर ही मध्यरात्रि में बन्द हो जाते हैं और लोग पारण/ भोजन कर सो जाते हैं।
लोग  शिवरात्रि  के पहले वाली रात्रि में ही शिव पुजन कर आते हैं यहाँ तक कि, उज्जैन का नागचन्द्रेश्वर मन्दिर भी शिवरात्रि के पहले वाली रात्रि में 00:00मध्य रात्रि में खुल जाता है और शिवरात्रि को मध्यरात्रि 00:00 बजे बन्द हो जाता है।

मुहुर्त शास्त्र में भी घाल मेल कर दिया है --
चतुर्थी, अष्टमी,नवमी, और चतुर्दशी, अमावस्या  निषिद्ध / अशुभ तिथियाँ मानी गई है। आश्विन नवरात्रि की भी शुभता नही मानी गयी है। इन तिथियों में शुभ कार्य, संस्कार आदि नही होते।
चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी रिक्ता तिथियाँ है।अष्टमी और अमावस्या भी अशुभ मानी गई है।कही कहीँ द्वादशी तिथि भी त्याज्य है।
पर आजकल भाद्रपद मास में गणेश चतुर्थी, नवरात्रि में अष्टमी और नवमी तथा महाशिवरात्रि में चतुर्दशी तिथि पर कई शुभकार्यों के मुहूर्त बतलाये जा रहे हैं।
कुछ तो गुरुपुष्यामृत योग में विवाह  का मुहूर्त बतलाते हैं जबकि, गुरुपुष्य के दिन विवाह पुर्ण निषिद्ध है।
जब हमें ऐसे उदाहरण बतलाये जाते हैं तो  मौन धारण करना पड़ता है। अब क्या कहें।निन्दा करने और जो व्यक्ति श्रद्धा पुर्वक उक्त गलत मुहूर्त मे कार्य कर चुका उसके मन में शंका उत्पन्नकर उसे भयभीत करने  से मौन ही भला।
निष्कर्ष यह है कि,
1- गलत पञ्चाङ्ग, भारत शासन को तत्काल प्रभाव से इन गलत पञ्चाङ्ग प्रकाशन बन्द कर देना चाहिए।
2 -   और ज्योतिष का ज्ञान रहित पण्डित (गलत या अज्ञानी धर्मशास्त्री और ज्योतिषी),(ऐसे पण्डितों ने स्वविवेक से स्वयम् को समेट लेना चाहिए।फिर अध्यन कर भलैंही वापस कार्यारम्भ करले।)
और3 -  धर्मशास्त्र की तुलना में  साम्प्रदायिक परम्पराओं को वरीयता देना ।

(नोट -- सम्प्रदायों को अपनी गलतियाँ शोधन कर धर्मशास्त्रानुसार सुधार करना ही चाहिए।)
इन तीन कारणों से कोई भी त्यौहार सर्व सम्मति से एक ही दिन नही मन पाते।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें