*लंका की स्थिति*
*जानने का आधार केवल वाल्मीकीय रामायण ही क्यों*--
महर्षि वाल्मीकि जी का निवास अयोध्या के निकट ही होने और उन्हे बहुत काल तक सीता जी का सानिध्य प्राप्त हुआ इस कारण श्रीरामचन्द्र जी और सीतामाता का प्रमाणिक इतिहास हमे केवल वाल्मीकीय रामायण में ही मिल सकता है ।
श्री राम जी ने लोकोपवाद से बचाव हेतु गर्भवती सीताजी को लक्ष्मण जी के साथ भिजवा कर सीताजी को वाल्मीकि आश्रम में रखा था।जहाँ लव -कुश का बचपन बीता और लव-कुश का गुरुकुल भी था महर्षि वाल्मीकि का वह आश्रम ही बना जो श्रीराम के राज्यक्षेत्र में और अयोध्या के निकट ही था।
अतः श्रीराम -सीताजी के विषय में किसी एतिहासिक तथ्य की परीक्षा महर्षि वाल्मीकि प्रणीत श्री मद् वाल्मीकीय रामायण से ही प्रमाणित हो सकता है। योग वाशिष्ठ भी कुछ लोग श्रीराम कालीन रचना मानते हैं किन्तु अधिकांश विद्वान आदिशंकराचार्य के बाद की रचना मानते हैं। अतः अन्य कोई ग्रन्थ इतिहास की दृष्टि से प्रामाणिक नही हो सकता।
गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण से श्लोक संख्या अनुवाद --
अब हम वाल्मीकीय रामायण के आधार पर रावण की लंका कहाँ थी कौनसी थी इसकी की यथार्थ भौगोलिक स्थिति का परीक्षण करते हैं।
रावण द्वारा सीताजी के अपहरण पश्चात,श्री जटायु द्वारा श्रीराम को बतलाया कि, लंका का राजा राक्षस राज रावण सीताजी का जबरजस्ती अपहरण कर रावण उन्हे दक्षिण दिशा में लंका लंका ले गया है।
सुग्रीव जी की सहायता से सीताजी की खोज की गयी । बालीपुत्र अंगद के नेत्रत्व में जटायु के भाई सम्पाती जी के मार्गदर्शन से श्री हनुमानजी लंका में सीताजी से मिल कर आये और श्री राम को सीताजी की जानकारी दी।
तब श्रीराम जी ने नल - नील की सहायता से समुद्र पर सेतु बनाकर सीता जी को मुक्त कराया। इतनी जानकारी सबको पता है ।
पर किसी को सही जानकारी नही मालुम की रावण की लंका कहाँ थी/ कौनसी थी। राम सेतु कितना लम्बा था,और कितने समय में कैसे बना। इसी की जाँच हम वाल्मीकीय रामायण के अरण्य काण्ड, किश्किन्धा काण्ड और युद्ध काण्ड के आधार पर पता लगाने का प्रयत्न करते हैं। सुन्दर काण्ड के अलावा इन्ही तीन काण्डो में लंका की जानकारी दी है।और सेतु निर्माण का विवरण और वर्णन युद्ध काण्ड में है।
सामान्यतया सिंहल द्वीप अर्थात श्रीलंका को रावण की लंका माना जारहा है। जहाँ रावण ने सीताजी का अपहरण कर उन्हे अशोक वाटिका में अवरुद्ध कर रखा था।
श्रीलंका सरकार का पर्यटन विभाग इसका पुरा लाभ उठाता है।
इसी आधार पर तमिलनाड़ु में धनुष्कोटि, रामसेतु और रामेश्वरम आदि कल्पित किये गये।
जबकि सिंहल द्वीप का नाम श्रीलंका इसलिये पड़ा क्योंकि श्री पाद पर्वत / एडम माउण्टेन पर किन्ही श्रीमान पुरुष के लंक अर्थात पेर के पञ्जे के निशान है।
यहूदियों के अनुसार यहोवा की आज्ञा उल्लघन कर आदम द्वारा बुद्धि वृक्ष का फल खा लेने पर आज्ञा उलंलंघन के दण्ड स्वरुप आदम को अदन की वाटिका के पुर्वी द्वार से निकाल देने पर वे आदम शिखर पर सिंहल द्वीप पर गिरने सेआदम के पंजे के निशान बन गये ऐसा मानते हैं।
सनातन धर्मी उसे किसी श्रीमान पुरुष के लंक (पेर के पंजे के निशान मानते हैं।इस कारण सिंहल द्वीप को श्रीलंका कहते हैं।केवल लंका नही कहते हैं बल्कि श्रीलंका कहते हैं।
अब देखते हैं वाल्मीकीय रामायण में क्या लिखा है।
काण्ड/सर्ग/ श्लोक संख्या सहित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण के श्लोकों के अर्थ ही दिये जा रहे हैं।क्योंकि गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशन और उनके द्वारा प्रकाशित पौराणिक ग्रन्थों का अनुवाद भी सर्वाधिक प्रामाणिक मान्य है।
जो वाल्मीकीय रामायण स्वयम् पढ़कर विचार करेंगे उनका ज्ञान वर्धन और भ्रम निवारण अधिक होगा।किन्तु जो नही पढ़ पाये उनके लिये प्रस्तुत है।--
आप भी पढ़िये और विचार- मनन कर निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करें।
*पहले अरण्य काण्ड से*--
*वाल्मीकि रामायण /अरण्य काण्ड* / *एकोनसप्तितमः सर्ग* / श्लोक क्रमांक---
श्रीराम को जटायु जी प्राण त्याग के ठीक पहले बतलाते हैं कि यहाँ ( जनःस्थान ) से रावण सीता को साथ लिये यहाँ से दक्षिण दिशा की ओर गया। -10
वाल्मीकि रामायण /अरण्य काण्ड* / *अष्टषष्टितमः सर्ग*/
श्रीराम लक्ष्मण सीताजी को खोज करते हुए भी पश्चिम में गये। - 1
सीताजी को खोजने दक्षिण दिशा में गये। - 2
*वाल्मीकि रामायण /किष्किन्धा काण्ड/* *एकचत्वारिशः सर्ग*/
पाण्य वंशीय राजाओं के नगरद्वार पर लगे हुए सुवर्णमय कपाट दर्शन करोगे। जो मुक्तामणि यों से विभुषित एवं दिव्य है।
( नोट - यहाँ से पाण्य देश की सीमा आरम्भ होती थी न कि, तंजोर नगर की।किन्तु इस प्रवेश द्वार को लेण्डमार्क के रुप में देखने भर को ही कहा है।पाण्यदेश/ तमिलनाड़ु में प्रवेश करने का निर्देश नही किया है। अर्थात पुर्वी घाँट की ओर नही बल्कि पश्चम घाँट की ओर ही जाने का अप्रत्यक्ष निर्देश है। शायद राक्षसों का प्रभाव लक्षद्वीप से नाशिक तक पश्चिम में ही अधिक था।
कुछ लोग पाण्यदेश यानी तमिलनाड़ु देखकर ही उत्साहित होकर पुर्वीघाँट की ओर बढ़ने का अनुमान करते हैं। जबकि सुग्रीव ने देखते हुए आगे बढ़ने का निर्देश देते हैं प्रवेश का नही।)
तत्पश्चात समुद्र के तट पर जाकर उसे पार करने के सम्बन्ध में अपने कर्त्तव्य का भलीभाँति निश्चय करके उसका पालन करना।महर्षि अगस्त ने समुद्र के भीतर एक सुन्दर सुवर्णमय पर्वत को स्थापित किया, जो महेन्द्रगिरि के नाम से विख्यात है। उसके शिखर तथा वहाँ के वृक्ष विचित्र शोभा सम्पन्न है।वह शोभाशाली पर्वत श्रेष्ठ समुद्र के भीतर गहराई तक घुसा हुआ है।- 19 &20
( रावण की लंका का वर्णन) --
*उस समुद्र के उसपार एक द्वीप है, जिसका विस्तार सौ योजन है।वहाँ मनुष्यों की पहूँच नही है।*-23
(नोट -- सौ योजन विस्तार मतलब लगभग 100 वर्ग योजन अर्थात 1288 वर्गकि.मी. =36×36 वर्ग कि.मी. वर्ग किलोमीटर।*
जबकि श्रीलंका का क्षेत्रफल 65610 वर्ग कि.मी. है।अर्थात लक्षद्वीप ही सही बैठता है श्रीलंका / सिंहल द्वीप नही।)
उसशक्तिशाली द्वीप में चारोंओर पुरा यत्न करके सीता की विशेष खोज करना। - 24
वही देश दुरात्मा राक्षसराज रावण का निवासस्थान है।जो हमारा वध्य है। - 25
उस दक्षिण समुद्र के बीच में अङ्गारका नाम से प्रसिद्ध एक राक्षसी रहती है, जो छाया पकड़ कर ही प्राणियों को खीँच लेती है और उन्हे खा जाती है। - 26
(नोट - यहाँ अंगारका राक्षसी कहा है,नागमाता सुरसा का अन्य नाम अंगारका था।)
लंका को लाँघ कर आगे बड़ने पर सौ योजन विस्तृत समुद्र में एक पुष्पितक नामक पर्वत है। - 28
पुष्पितक के चौदह योजन आगे सुर्यवान पर्वत बतलाया है। - 31 & 32
सुर्यवान पर्वत के बाद वैद्युत पर्वत है। - 32
फिर कुञ्जर पर्वत है जिसपर अगस्त्य का सुन्दर भवन है। -34
कुञ्जर पर्वत पर भोगावती नगरी है। -36
भोगावती पुरी में सर्पराज वासुकि निवास करते हैं। - 38
आगे ऋषभ पर्वत पर चन्दन के पेड़ हैं।जिसका स्पर्ष खतरनाक है। 40 & 41
उसके आगे पित्र लोक है जहाँ जाने का निषेध किया है। - 44
( नोट रावण की लंका के आसपास इतने सारे द्वीप होना भी लक्षद्वीप को ही सुचित करता है।
सिंहल द्वीप श्रीलंका के आसपास इतने द्वीप नही है।
अब किश्किन्धा काण्ड से --
वाल्मीकि रामायण/किष्किन्धा काण्ड/पञ्चाशः सर्ग/
विन्द्याचल पर सीता जी की खोज करते करते अंगद, जाम्बवन्त जी और हनुमानजी सहित वानर विन्द्याचल के नैऋत्य कोण (दक्षिण पश्चिम) वाले शिखर पर जा पहूँचे।वहीँ रहते हुए उनका वह समय जो सुग्रीव ने निश्चित किया था, बीत गया।3
खोजते खोजते उन्हे वहाँ एक गुफा दिखाई दी, जिसका द्वार बन्द नही था। अर्थात खुला था।- 07
वह गुफा ऋक्षबिल नाम से विख्यात थी।एक दानव उसकी रक्षा में रहता था। वानर गण बहुत थक गये थे, पानी पीना चाहते थे। - 8
लता और वृक्षों से आच्छादित के भीतर से क्रोंच, हंस, सारस,तथा जल से भीगे हुए चक्रवाक पक्षी ( चकवे) , जिनके अङ्ग कमलों के पराग से रक्त वर्ण के हो रहे थे।, बाहर निकले।उस बिल (गुफा) में उन्हे जल होने का सन्देह हुआ। - 9 & 10
हनुमानजी ने कहा निश्चित ही इसमें पानी का कुआँ, या जलाशय होना चाहिये।तभी इस गुफा के द्वारवर्तीवृक्ष हरेभरे हैं। वानरों ने उस गुफा में प्रवेश किया। - 16 & 17
उस अन्धेरे बिल (गुफा ) से सिंह,मृग और पक्षी निकलते दिखे। - 18
नाना प्रकार के वृक्षों से भरी उस गुफा में वे एक योजन तट एक दुसरे को पकड़े हुए गये। - 21
*(एक योजन चलने पर) तब उन्हें वहाँ प्रकाश दिखाई दिया। और अन्धकार रहित वन देखा, वहाँ के सभी वृक्ष सुवर्णमयी थे।* - 24
*अर्थात गुफा आरपार खुला था।*
साल,ताल,तमाल,नागकेशर, अशोक,धव, चम्पा, नागवृक्ष और कनेर के वृक्ष फुलों से भरे थे। - 26
वानरों ने वहाँ इंट,पत्थर,लकड़ी आदि पार्थिव वस्तुओं से निर्मित और स्वर्ण तथा वैदूर्यमणि से अलङ्कृत भवन देखे। वृक्षों में फुल और फल लगे थे। - 30 , 31 & 32
मणि और सुवर्ण जटित पलंग, तथा आसन, और सोने,चाँदी, तथा कांसे के फुलपात्र , अगरु,चन्दन, फल, मूल आदि भोजन सामग्री, बहुमूल्य सवारियाँ, सरस मधु, मुल्यवान वस्त्र, कम्बल, कालीन,मृगचर्म और स्वर्ण के ढेर देखे। - 32 से 38
वानरों ने उस गुफा में थोड़ी दूरपर किसी स्त्री को.देखा।जो नियमित आहार करती तपस्या में सलग्न थी। हनुमानजी ने उससे उसका परिचय पुछा। - 39 से 41
*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/* *एकपञ्चाशः सर्ग/*
हनुमानजी ने उसे कहा
हम भूख-प्यास से व्यथित हैं।और जानना चाहते हैं कि,यहाँ यह सब वैभव कैसे है? - 02 से 09
तब उस बिल( गुफा) में स्थित उस मेरुसावर्णी की पुत्री स्वयम्प्रभा नामक उस तपस्वी स्त्री ने उत्तर दिया - मयासुर दानव पहले दानवों का विश्वकर्मा था। उसने तपस्या कर ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर शुक्राचार्य का सारा शिल्प - वैभव प्राप्त किया था।
मयासुर दानव ने यहाँ की सारी वस्तुओं का निर्माण करके कुछ काल तक यहाँ निवास किया था। कुछ काल बाद हेमा नामक अप्सरा से मयासुर दानव का सम्पर्क हो गया, यह जानकर जघानेश पुरन्दर (इन्द्र) ने मयासुर को मार भगाया। तत्पश्चात ब्रह्माजी ने यह गुफा और वैभव उस अप्सरा हेमा को सोप दिया।मेरी प्रियसखी हेमा अप्सरा द्वारा प्रदत्त इस भवन की रक्षा करती हूँ। तुमलोग पहले फल-मूल खाकर जलपान कर फिर अपना परिचय और आने का प्रयोजन बतलाना -11 & 19
*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/* *द्विपञ्चाशः सर्ग/*
भोजन जलपान उपरान्त विश्राम करलेने पर हनुमानजी ने अपने सहित सबका परिचय और राक्षस रावण और उसके द्वारा अपहृत सीताजी की खोज का वृतान्त कहकर आने का प्रयोजन बतलाया। - 01 से 08
हनुमानजी के निवेदन पर स्वयम्प्रभा ने बाहर निकलने हेतु नैत्र मुन्दने को कहा ।वानरों के द्वारा आँखे बन्दकर हाथों से ढँकते ही स्वयम्प्रभा ने उन वानरों को गुफा से बाहर पहूँचा दिया।(उस एक योजन लम्बी अर्थात लगभग 13 कि.मी लम्बी थी ।)
गुफा के बाहर पहूँचाकर उन्हे बतलाया कि, यह विन्द्यगिरि है, इधर यह प्रसवण गिरि है।सामने सागर लहरा रहा है। ऐसा बतलाकर स्वयम्प्रभा अपनी गुफा म़े लोट गई। - 23 से 32
*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/* *त्रिपञ्चाशः सर्ग/*
तदन्तर उन वानरों ने महासागर देखा । - 1
वानरों का वह एकमास बीत गया, जिसे राजा सुग्रीव ने लोटने का समय निश्चित किया था। - 2
विन्द्यगिरि के पार्श्ववर्ती पर्वत पर बैठकर वे सभी महात्मा वानर चिन्ता करने लगे। - 3
जो वसन्त ऋतु में फलते हैं उन आम आदि वृक्षों की डालियों को मञ्जरी एवम् फूलों के अधिक भार से झुकी हुई तथा सेकड़ों लता बेलों से व्याप्त देख वे सभी सुग्रीव के भय से थर्रा उठे। - 4
वे एक दुसरे को बताकर कि, अब वसन्त का समय आना चाहता है, राजा के आदेशानुसार एक माह के भीतर जो काम कर लेना चाहिए था , वह न कर सकने के या उसे नष्ट कर देने के कारण भय के मारे भूमि पर गिर पड़े।- 5
*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/* *चतुःपञ्चाशः सर्ग/*
हनुमानजी जानते थे कि, बालीपुत्र अंगद अष्टाङ्ग बुद्धि, चार प्रकार के बल और चौदह गुणों से सम्पन्न है ।- 2
अष्टांग बुद्धि - 1- सुनने की इच्छा रखना; 2 सुनना, 3 सुनकर ग्रहण करना, 4 ग्रहणकर धारण करना, 5उहापोह करना,6 अर्थ या तात्पर्य को समझना,7 तत्व ज्ञान सम्पन्न होना।
चार प्रकार के बल - 1 साम, 2 दण्ड, 3 भेद और चौथा दण्ड।
चौदह गुण -01 देशकाल ज्ञान,0 2 दृढ़ता,0 3 सब प्रकार के कष्टों को सहन करने की क्षमता,04 सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त करना,0 5 चातुर्य (चतुरता), 06 उत्साह या बल,07 मन्त्रणा को गुप्त रखना,0 8 परस्पर विरोधी बातें न करना,09 शूरता,10 अपनी और शत्रु की शक्ति का ज्ञान, 11 कृतज्ञता, 12 शरणाङगत वत्सलता, 13 अमर्षशीलता, और 14 अ चाञ्चल्य, ( स्थैर्य या गाम्भीर्य)।
वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/षट्पञ्चाशः सर्ग/
पर्वत के जिस स्थान पर वे सब वानर आमरण उपवास करने बैठे थे उस स्थान पर गृध्रराज सम्पाति आये। - 1 & 2
महागिरि विन्ध्य की कन्दरा से निकलकर सम्पाति ने जब वहाँ बैठे वानरों को देखा तब वे हर्षित होकर बोले - आज दीर्घकाल यह भोजन स्वतः मेरे लिये प्राप्त हो गया । वानरों में जो जो मरता जायेगा उसको में क्रमशः भक्षण करता जाऊँगा। - 3 से 5
यह सुन अङ्गद हनुमानजी से बोले । - 7
विदेह कुमारी सीताजी का प्रिय करने की इच्छा से गृध्रराज जटायु ने जो साहस पुर्ण कार्य किया था , यह सब आप लोगोंने सुना ही होगा। - 9
धर्मज्ञ जटायुने ही श्रीराम का प्रिय किया है। -12
गृध्रराज जटायु ही सुखी हैं जो युद्ध में रावण के हाथ मारे गये।-13
महाराज दशरथ की मृत्यु, जटायु का विनाश और विदेह कुमारी सीता का अपहरण - इन घटनाओं से इस समय वानरों का जीवन संशय में पड़ गया है । - 14
श्रीराम और लक्ष्मण को सीता के साथ वन में निवास करना पड़ा, राघव के बाण से बाली का वध हुआ और अब श्रीराम के कोप से समस्त राक्षसों का संहार होगा - ये कैकेयी को दिये वरदान से पैदा हुई है। 15 &16
अङ्गद के मुख से उस वचन को सुन सम्पाति ने उच्च स्वर में पुछा। - 18
यह कौन है जो जो मेरे प्राण प्रिय भाई जटायु के वध की बात कर रहा है। - 19
जनः स्थान में राक्षस का गृध्र के साथ किस प्रकार का युद्ध हुआ? अपने भाई का नाम कई दिनों के बाद सुनाई दिया । - 20
जटायु मुझसे छोटा गुणज्ञ, और पराक्रम के कारण प्रशंसनीय था। - 21
दीर्घकाल के पश्चात आज उसका नाम सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई।आपलोग मुझे नीचे उतार दें । - 22
मुझे मेरे भाई का विनाश का वृतान्त सुनने की इच्छा है।महाराज दशरथ मेरे भाई के मित्र कैसे हुए? - 23
मेरे पंख सुर्य की किरणों से जल गये हैं,इसलिये मैं उड़ नही सकता। किन्तु इस पर्वत से नीचे उतरना चाहता हूँ। -24
*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/* *अष्टपञ्चाशः सर्ग/*
सप्पाति जी ने कहा-
एक दिन मेने भी देखा,दुरात्मा रावण सब प्रकार के गहनों से सजी हुई एक रुपवती युवती को हरकर लिये जा रहा था। - 15
वह भामिनी 'हा राम ! हा राम! हा लक्ष्मण! की रट लगाती हुई अपने गहने फेंकती छटपटा रही थी। - 16
श्रीराम का नाम लेनेसे मैं समझता हूँ, वह सीता ही थी। अब मैं उस राक्षस का घर का पता बतलाता हूँ, सुनो। - 18
रावण नामक राक्षस महर्षि विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। वह "लंङ्का नामवाली नगरी में निवास करता है।" - 19
(ध्यान दें लंका को केवल नगरी कहा है। सिंहल द्वीप/ श्रीलंका जैसा बड़ा स्थान नही हो सकता।)
*यहाँ से शतयोजन (अर्थात लगभग 1287 कि.मी.) के अन्तर पर समुद्र में एक द्वीप है, वहाँ विश्वकर्मा ने अत्यन्त रमणीय लङ्कापुरी निर्माण किया है।' - 20
(नोट- शत योजन को अनुवादक ने चारसो कोस लिखा है अर्थात 1287 कि.मी.।)
उस नगरी की चहारदीवारी बहुत बड़ी है। उसी के भीतर पीले रंग की रेशमी साड़ी पहने सीता दीन भाव से निवास करती है। - 23
(नोट- श्रीलंका के आसपास चाहरदीवारी होना सम्भव नही है।)
बहुत सी राक्षसियों के पहरे में रावण के अन्तःपुर में अवरुद्घ है। - 23
लंका चारों ओर से समुद्र से सुरक्षित है।पुरे सौ योजन (1287 कि.मी.) समुद्र को पार कर उसके दक्षिण तट पर पहूँचने पर रावण को देख सकोगे। - 24 & 25
(नोट - अर्थात रावण की लंका नगरी खम्बात की खाड़ी के तट से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर लक्षद्वीप समुह के द्वीप पड़ते है। अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी। जिसकी राजधानी कवरत्ती है (या किल्तान द्वीप में हो सकती है। )
(नोट - उल्लेखनीय है कि, श्री लंका / सिंहल द्वीप जाने के लिये भारत की मुख्य भूमि से जाया जा सकता है।
समुद्र पार कर नही जाया जा सकता।समुद्री मार्ग से जाने पर भारत की मुख्य भूमि की परिक्रमा कर जाना होगा और बहुत अधिक दूरी हो जायेगी।)
*अब आगे का विवरण युद्ध काण्ड से* --
*वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/* *चतुर्थ सर्ग/*
रामचन्द्रजी ने सुग्रीव को कहा --
सुग्रीव ! तुम इसी मुहूर्त में प्रस्थान की तैयारी करो। सुर्यदेव दिन के मध्य भाग में पहूँचे हैं।इसलिये इस विजय नामक मुहूर्त में हमारी यात्रा उपयुक्त होगी।- 3
आज उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र है।कल चन्द्रमा का हस्त नक्षत्र से योग होगा। इसलिये सुग्रीव ! हमलोग आज ही सारी सेनाओं के साथ यात्रा करदें। चलते चलते उन्होनें पर्वत श्रेष्ठ सह्यगिरि को देखा। जिसके आसपास भी सेकड़ों पर्वत थे। - 37
उस समय वानरराज सुग्रीव और लक्ष्मण से सम्मानित हुए धर्मात्मा श्रीराम सेनासहित दक्षिण दिशा की ओर बड़े जा रहे थे। - 42
(आकाश साफ होने का वर्णन। - 46 से 49)
वानर सेना दिन- रात चलती रही। - 68
उन्होने रास्ते में कहीँ दो घड़ी भी विश्राम नही लिया। - 69
चलते चलते वे सह्य पर्वत पर पहूँच कर सब वानर सह्य पर्वत पर चड़ गये। - 70
श्रीरामचन्द्रजी सह्य और.मलय पर्वत के विचित्र काननों, नदियों, तथा झरनों की शोभा देखते हुए यात्रा कर रहेथे। - 71
श्री रामचंद्र जी महेन्द्र पर्वत (शायद कण्णूर का ईजीमाला पर्वत) के पास पहूँच कर उसके शिखर पर चढ़ गये। - 92
महेन्द्र पर्वत पर आरुढ़ हो श्री राम जी ने समुद्र को देखा। -93
इस प्रकार वे सह्य और मलय को लाँघखर महेन्द्र पर्वत के समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहूँचे। - 94
उस (महेन्द्र पर्वत) से उतरकर शीघ्र ही सागर तटवर्ती वन में जा पहूँचे।
रामचन्द्रजी की आज्ञा से सुग्रीव ने समुद्र तटीय वन में सेना को ठहरा दिया। पड़ाव डाला। - 103
(नोट - सुग्रीव बहुत अच्छे भुगोल वेत्ता थे।महेन्द्र नामक पर्वत बहुत दो से अधिक हैं यह सर्व स्वीकार्य है।सह्य और मलय दोनो पर्वत पश्चिमी घाँट पर है।अतः यह महेन्द्र गिरि निश्चित ही पश्चिमी घाँट पर होगा। कुछ लोग विद्वान परम्परा निर्वाह हेतु किश्किन्धा काण्ड / एकचत्वारिशः सर्ग/18 से 27 में सुग्रीव जी द्वारा दक्षिणापथ का मार्ग वर्णन करते समय पाण्यदेशान्तर्गत महेन्द्र पर्वत तंजौर अथवा थन्जोर के निकट बतला कर बंगाल की खाड़ी की ओर जाना बतलाते हैं; उनसे मेरा निवेदन है कि, क्या सुग्रीव जी इतने मुर्ख थे कि,पुर्वी घाँट पर उतरने के लिये सेना सहित पहले पश्चिमी पर पहूँच कर श्रम और समय दोनो नष्ट करते? वे पुर्वी घाँट पर वे सीधे ही जा सकते थे।)
दिन के अन्त और रात केआरम्भ में चन्द्रोदय होनेफर समुद्र में ज्वार आ गया। - 110& 111 अर्थात जिस दिन सागर तट पर पहूँचे उस दिन पुर्णिमा थी।
*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकोनविश सर्ग/*
समुद्र की शरण लेने की विभिषण की सलाह - 31
विभिषण की सलाह पर सर्व सम्मति - 40
श्रीराम समुद्र तट पर कुशा बिछाकर धरना देने बैठे। -41
*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकविंश सर्ग/*
इस प्रकार समुद्र तट पर तीन रात लेटे लेटे बीतने पर भी समुद्र देव प्रकट नही हुए ।- 11-12
श्रीराम समुद्र पर कुपित हो गये।- 13
श्रीराम ने अपने धनुष सेबड़े भयंकर बाण समुद्र पर छोड़े।- 27
समुद्र मेंहुई हलचल को देख-
लक्ष्मण ने श्री राम का धनुष पकड़ कर रोका ।- 33
वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/द्वाविंश सर्ग/
श्रीराम ने ब्रह्मास्त का संधान किया - 5
तब समुद्र के मध्य सागर सवयम् उत्थित हुआ। - 17
चमकीले सर्पों के साथ जाम्बनद नामक स्वर्णाभूषण युक्त वैदुर्य मणि के सदृष्य श्याम वर्णीय समुद्र प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ। - 18
समुद्र ने पार होने का उपाय बतलाने का आश्वासन दिया। - 29
श्री राम ने पुछा अमोघ ब्रह्मास्त्र किस स्थान पर छोड़ुँ? - 30
समुद्र ने कहा कि,मेरे उत्तर तट पर द्रुमकुल्य नामक स्थान है। 32
द्रमकुल्य स्थान में आभीर लोग रहते हैं।वे पापी दस्यु हैं।और मेरा ही पानी पीते हैं। - 33
उनके स्पर्ष से मुझे भी पाप लगता है। कृपया उस स्थान पर/ उन पर ब्रह्मास्त्र छोड़िये। - 34
तदनुसार श्री राम ने द्रमकुल्य देश पर ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। - 35
वह स्थान पर मरुस्थल बन गया। - 36
उस स्थान का नाम मरुकान्तार पड़ गया।
वह भूमि दुधारू पशुओं और विभिन्न औषधियों से सम्पन्न होगी यह वरदान दिया। - 43
समुद्र ने विश्वकर्मा पुत्र नल का परिचय दिया और बतलाया कि नल समस्त विश्वकर्म (इंजीनियरिंग) का ज्ञाता है। - 45
यह महोत्साही वानर पिता के समान योग्य है।मैं इसके कार्य को धारण करुँगा। - 46
तब नल ने उठकर श्रीराम से बोला - 48
मैं पिता के समान सामर्थ्य पुर्वक समुद्र पर सेतु निर्माण करुँगा। - 48
समुद्र ने मुझे स्मरण करवा दिया है।मै बिना पुछे अपने गुणों को नही बतला सकता था। अतः चुप था।- 52
मैं सागर पर सेतु निर्माण में सक्षम हूँ।अतः सभी वानर मिल कर सेतु निर्माण आज ही आरम्भ करदें। 53।वानर गण वन से बड़े बड़े वृक्ष और पर्वत शिखर / बड़े बड़े पत्थर/ चट्टानें ले आये।- 55
महाकाय महाबली वानर यन्त्रों ( मशीनों) की सहायता से बड़े बड़े पर्वत शिखर / शिलाओं को तोड़ कर/ उखाड़ कर समुद् तक परिवहन (ट्रांस्पोर्ट) कर लाये। -60
कुछ बड़े बड़े शिलाखण्डों से समुद्र पाटने लगे।कोई सुत पकड़े हुए था। - 61
कोई नापने के लिये दण्ड पकड़े था,कोई सामग्री जुटाते थे।वृक्षों से सेतु बाँधा जा रहा था। - 64 & 65
पहले दिन उन्होने चौदह योजन लंबा सेतु बाँधा। -69
(नोट - तट वर्ती क्षेत्र में केवल भराव करने से काम चल गया अतः 180 कि.मी. पुल बन गया। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी हो जायेगी।)
दुसरे दिन बीस का योजन सेतु तैयार हो गया - 69
(अर्थात दुसरे दिन (20- 14 = 6 योजन सेतु बना।छः योजन अर्थात 77 कि.मी. पुल बना कर सेतु की कुल लम्बाई बीस योजन अर्थात 257 कि.मी. होगई। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी होगई।दुसरे दिन गति लगभग आधी ही रह गई।)
तीसरे दिन कुल इक्कीस योजन का सेतु निर्माण कर लिया। - 70
(अर्थात तीसरे दिन एक योजन यानी 12.87 कि.मी. सेतु बन पाया और सेतु की कुल लम्बाई 21 योजन = 270 कि.मी. हो गई।
(नोट - गति कम पड़ना स्वाभाविक ही है।दुसरे दिन गति आधी रह गई और तीसरे दिन से तो एक एक योजन अर्थात प्रतिदिन 12.87 कि.मी. ही पुल बनेने लगा।)
चौथे दिन वानरों ने बाईस योजन तक का सेतु बनाया। - 71
(अर्थात एक योजन / 12.87 कि.मी.वृद्धि हुई और कुल22 योजन = 283 कि.मी. पुल बना।)
पाँचवें दिन वानरों ने कुल 23 योजन सेतु बना लिया। - 72
(अर्थात एक योजन वृद्धि कर सेतु की कुल लम्बाई 23 योजन = 296 कि.मी. होगई।)
इस प्रकार विश्वकर्मा पुत्र नल ने ( पाँच दिन में वानरों की सहायता से भारत की मुख्य भूमि से रावण की लंका तक 23 योजन = लगभग 300 कि.मी. का ) सेतु समुद्र में तैयार कर दिया।
नोट - इस प्रकार भारत की मुख्य भूमि पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कोजीकोड से किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. का सेतु / पुल तैयार कर लिया।)
सुचना - पुरातत्व विदों द्वारा केरल के कण्णूर से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप के बीच वास्तविक रामसेतु खोजा जाना चाहिए।
(सूचना - अर्थात रावण की लंका नगरी खम्बात की खाड़ी के तट जहाँ से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर लक्षद्वीप समुह के द्वीप पड़ते है। तथा पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर से किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है। अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी। जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में हो सकती है। कण्णूर और लक्ष्यद्वीप का घनिष्ठ राजनीतिक सम्बन्ध भी सदा से रहा है। कण्णूर से सोलोमन के मन्दिर के लिए लकड़ियाँ जहाज द्वारा गई थी। ईराक के उर से व्यापारिक सम्बन्ध भी थे।)
(नोट यह विशुद्ध विश्वकर्म / इंजीनियरिंग का कमाल था।न कि राम नाम लिखने से पत्थर तैराने का कोई चमत्कार। तैरते पिण्डों को बानध कर पुल बनाना भी इंजीनियरिंग ही है किन्तु यहाँ उस तकनीकी का प्रयोग नही हुआ।
किन्तु नाम लिखने से फत्थर नही तैरते बल्कि जैविकीय गतिविधियों से निर्मित कुछ पाषाण नुमा संरचना समुद्र में तैरती हुई कई स्थानों में पायी। जाती है।इसमें कोई चमत्कार नही है।पाषाण नुमा संरचनाएँ जो बीच में पोली / खाली होती है उनमें हवा हरी रह जाती है।ऐसे पत्थरों का घनत्व एक ग्राम प्रति घन सेण्टीमीटर से कम होने के कारण वे भी बर्फ के समान तैरते हैं। )
नोट --श्लोक 76 में सेतु की लम्बाई शत योजन और चौड़ाई दश योजन लिखा है। निश्चित ही यह श्लोक प्रक्षिप्त है क्यों कि, नई दिल्ली से आन्ध्रप्रदेश के चन्द्रपुर से आगे असिफाबाद तक की दुरी के बराबर सेतु की लम्बाई 1288 कि.मी. कोई मान भी लेतो 129 कि.मी. चौड़ा पुल तो मुर्खता सीमा के पार की सोच लगती है। दिल्ली से हस्तिनापुर की दुरी भी 110 कि.मी. है।उससे भी बीस कि.मी.अधिक चौड़ा पुल तो अकल्पनीय है।
अस्तु यह स्पष्ट है कि, दासता युग में सूफियों के इन्द्रजाल अर्थात वैज्ञानिक और कलात्मक जादुगरी से प्रभावित कुछ लोगों ने मिलकर पुराने ग्रन्थों में भी ऐसे चमत्कार बतलाने के उद्देश्य से ऐसे प्रक्षिप्त श्लोक डाल दिये। जो मूल रचना से कतई मैल नही खाते। ऐसे ही
श्लोक 78 में वानरों की संख्या सहत्र कोटि यानी एक अरब जनसंख्या बतलाई है।
भारत की जनसंख्या के बराबर एक अरब वा्नर श्रीलंका में भी नही समा पाते।
अस्तु शास्त्राध्ययन में स्वविवेक जागृत रखना होता है।
खम्बात की खाड़ी के तट कोरोमण्डल दहेज के लूवारा ग्राम के परशुराम मन्दिर से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर लक्षद्वीप समुह का किल्तान द्वीप पड़ता है। तथा केरल के पश्चिमी घाँट के नीलगिरी के कोजीकोड के रामनाट्टुकारा और पन्थीराम्कवु से से किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीन सौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है।अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी। जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में रावण की लंका हो सकती है।
पुरे प्रकरण को पढ़कर भारत का नक्षा एटलस लेकर जाँचे।
कि, भारत के पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर (केरल) से किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. है। और गुजरात के खम्बात की खाड़ी से दहेज नामक स्थान से किल्तान की दुरी भी लगभग 1290 कि.मी. है।
अस्तु लगभग किल्तान द्वीप के आसपास ही रावण की लंका रही होगी। लक्षद्वीप में किल्तान द्वीप राजधानी करवत्ती से उत्तर में है।
अध्ययन कर पता लगाया जा सकता है कि किल्तान या करवत्ती या कोई डुबा हुआ द्वीप में से रावण की लंका कौनसा द्वीप था।
यह कार्य पुरातत्व विभाग और पुरातत्व शास्त्रियों का कार्य है।
रामेश्वरम कहाँ है ---
परशुराम जी का मूल नाम राम है। परशु धारण करनें के कारण उनका नाम परशुराम पड़ गया। यह भी सम्भव है कि, अयोध्या नरेश श्री राम की ख्याति बड़नें के कारण विशिष्ठिकृत नाम के रूप में परशुराम नाम प्रचलित हुआ हो।
रामायण में श्रीराम द्वारा रामेश्वरम शिवलिङ्ग स्थापना का वर्णन नही है। किन्तु वाल्मीकि रामायण के बहुत बाद के ग्रन्थ कम्ब रामायण के आधार पर यह मान्य हुआ।
केरल में त्रिशुर भी गुरुवयूर से 38 कि.मी दूर त्रिशुर के शिवलिङ्ग की स्थापना परशुराम जी ने की थी।
अतः सम्भव है कि, कवि कम्बन ने त्रिशुर वाले रामेश्वरम ज्योतिर्लिङ्ग का वर्णन करनें में स्व स्थान तमिलनाड़ु में वर्णित कर दिया हो या बाद में किसी ने परिवर्तन किया हो। अतः त्रिशुर ही वास्तविक रामेश्वरम होना चाहिए।
VERY GOOD
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंधन्यवाद
हटाएंMe aapko esi esi bate our bta sakta hu jha tak science bhi nhi phuch saka hai our esi kitab hai jo puri satyug se kalyug k raksasho ki phchan karwati hai
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