वैदिक संहिताओं में निर्दिष्ट वर्णाश्रम धर्मानुसार पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्ग योग, तप, व्रत और बुद्धियोग का परिपालन कर बिना शासन के भी समाज व्यवस्था जब सुचारू अनुशासित रूप से चलती थी उसे ऐतिहासिक ग्रन्थो में शुद्ध वैदिक युग कहते हैं। पुराणों में इसे सतयुग कहा है।
ब्राह्मण ग्रन्थों के रचयिता ऋषियों के निर्देश पर राजन्य और आचार्य वर्ग जब बड़े बड़े नैमित्तिक यज्ञों में प्रवृत्त हो नई नई खोजबीन करने लगे उस काल को उत्तर वैदिक युग कहते हैं। पुराणों में इसे त्रेता युग कहा है।
उत्तर वैदिक युग के अन्त में सूत्र ग्रन्थों की रचना और सूत्र ग्रन्थों के आधार पर दैनिक क्रियाओं, और बड़े-बड़े यज्ञयाग होने लगे, संस्कारों की संख्या बढ़ने लगी षड दर्शन की रचना भी इसी समय होनें से शास्त्रार्थ होने लगे तब उत्तर वैदिक काल कहा जाता है। पुराणों में इसे द्वापर युग कहा जाता है।
ऐतिहासिक ग्रन्थो में इन तीनों कालों को वैदिक काल ही कहा है। वैदिक काल में आर्यावर्त का विस्तार ब्रह्मावर्त की सीमा पामीर के पठार, तिब्बत, तुर्की तथा ईरान से विंध्याचल तक तक था।
इसके बाद स्मृतियों को राजाओ और राज्यों का संविधान मानकर शासनकाल स्मार्त काल कहलाता है।
रामायण - महाभारत की अवधि महाकाव्य काल कहा जाता है। महाकाव्य काल और पौराणिक काल में जब भारतीय जनसंख्या दक्षिण भारत और सिंहल द्वीप (श्रीलंका) तक बढ़ गई।
पुष्यमित्र शुंग और विक्रमादित्य के बाद का काल पौराणिक युग कहलाता है।
वैदिक वसन्त आदि ऋतुएँ तथा वैदिक मधु माधव आदि मास की व्यवस्था तिब्बत, ईरान, तुर्की तथा उत्तरी भारत के क्षेत्र को ध्यान में रख कर की गई थी। इसलिए वैदिक ग्रंथों में संवत्सर, उत्तरायण/ उत्तरगोल, वसन्त ऋतु और मधुमास का प्रारम्भ वसन्त सम्पात दिवस से होता था।
वसन्त सम्पात दिवस से शुन्यक्रान्ति से प्रारम्भ होकर उत्तर गोल में सूर्य वाला काल वैदिक उत्तरायण / उत्तर गोल कहलाता था तथा शरद सम्पात दिवस से शुन्यक्रान्ति से प्रारम्भ होकर दक्षिण गोल में सूर्य वाला काल वैदिक दक्षिणायन/ दक्षिण गोल कहलाता है।
उत्तर परमक्रान्ति से प्रारम्भ होने वाला वैदिक काल उत्तर तोयन (पौराणिक उत्तरायण) कहलाता है तथा दक्षिण परमक्रान्ति से प्रारम्भ होने वाला काल वैदिक दक्षिणायन/ दक्षिणगोल कहलाता है।
जब विन्द्याचल से दक्षिण भारत में जनसंख्या बढ़ी तब वैदिक उत्तरायण में वैदिक वर्षा ऋतु पढ़ने के कारण वैदिक उत्तरायण में विवाह, उपनयन, मुण्डन आदि संस्कारों के उत्सव मनाया जाना कठिन लगने लगा तो पौराणिकों नें और ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थकारों और संहिता ज्योतिष के विद्वानों और धर्मशास्त्रियों नें मिलकर मध्य भारत के उज्जैन को केन्द्र मानकर अयन, तोयन, ऋतुओं और मासों का प्रारम्भ दिन पुनर्निर्धारित किया गया। जिसका वर्णन आगे किय गया है।
ऋतुएँ सूर्य की क्रान्ति और भूमि के अक्षांशों पर निर्भर करती है। केवल सूर्य की क्रान्ति और सायन सौर मासों के आधार पर भूमि के अक्षांशों को छोड़कर ऋतुओं को नही जाना जा सकता। प्रकृति में भी टेसु के फूल (पलाश के पूष्प/ किंशुक कुसुम) तथा आमृ बोर (आम के फूल) दक्षिण भारत में जनवरी में ही आजाते हैं। तथा कर्नाटक का बादाम आम सबसे पहले बाजार में आ जाता है; जबकि, उत्तर प्रदेश के वाराणसी का लंगड़ा और लखनऊ का दशहरी आम की फसल सबसे बाद में जून जूलाई तक आती है। दक्षिण गोलार्ध में ऋतु चक्र उत्तरी गोलार्ध के ठीक विपरीत होता है। यह भूमि के अक्षांशों का महत्व प्रमाणित करता है।
सर्वश्री बालगंगाधर तिलक, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, व्यंकटेश बापूजी केतकर, दीनानाथ शास्त्री चुलेट, नीलेश ओक आदि महाराष्ट्र प्रान्त के कई विद्वान तेत्तरीय संहिता, तेत्तरीय ब्राह्मण और अथर्ववेद के आधार पर यह सिद्ध कर चुके हैं कि,
१ वैदिक काल में वसन्त सम्पात (अर्थात सायन मेष संक्रान्ति २०/२१ मार्च) से ही संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास प्रारम्भ होता था।
संवत्सर का मान ३६५.२४२१९ दिन के लगभग ही था।
२ वैदिक काल में शरद सम्पात (अर्थात सायन तुला संक्रान्ति २३ सितम्बर) से दक्षिणायन, शरद ऋतु और ईष मास प्रारम्भ होता था।
३ उत्तर परमक्रान्ति (सायन कर्क संक्रान्ति २२/२३ जून) से दक्षिण तोयन तथा शचि मास प्रारम्भ होता था।
४ दक्षिण परमक्रान्ति (सायन मकर संक्रान्ति २२/२३ दिसम्बर) से उत्तर तोयन तथा सहस्य मास प्रारम्भ होता था।
५ क्रान्ति आधारित संक्रान्ति अर्थात सायन संक्रान्ति प्रचलित थी। सायन मधु- माधवादि मास ३०° के होते थे। लेकिन सावन मास ३० दिन के होते थे।
६ सायन राशियाँ/ मास की गणना विषुव वृत्त में की जाती थी।
७ विषुववृत्त का प्रारम्भ बिन्दु वसन्त सम्पात माना था।
८ नक्षत्रों की गणना/ निरयन गणना क्रान्तिवृत में की जाती थी।
९ चित्रा नक्षत्र के योग तारा को आकाश या क्रान्तिवृत का मध्य बिन्दु अर्थात १८०° माना जाता था। तदनुसार चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु नक्षत्र पट्टी का प्रारम्भ बिन्दु अर्थात अश्विनी नक्षत्र का आदि बिन्दु माना जाता था। अश्विनी आदि नक्षत्रों की गणना चित्रा तारे के १८०° से ही प्रारम्भ होती थी।
१० ताराओं से निर्मित आकृति विशेष को नक्षत्र कहते थे।असमान भोगमान वाले सत्ताइस नक्षत्र और अट्ठाइस नक्षत्र दोनों प्रचलित थे। सब नक्षत्रों के भोगमान प्रथक-प्रथक थे। १३°२०' के नक्षत्र प्रचलित नही थे।
११ क्रान्तिवृत की नक्षत्र पट्टी से दूर हो जाने के कारण बाद में अभिजित नक्षत्र को छोड़ दिया गया और केवल २७ नक्षत्रों को मान्यता मिली।
१२ नाक्षत्रीय गणना अर्थात निरयन गणना में राशियों के नाम मेष- वृषभादि प्रचलित नही थे, किन्तु ३६०° का नाक्षत्रीय वर्ष जिसका मान ३६५.२५६३६३ दिन के लगभग ही था। और ३०° के निरयन मास थे।
१४ निरयन मास पर आधारित चैत्र - वैशाख आदि अमान्त चान्द्रमास प्रचलन में आने लगे थे।
१५ भारत में दस दिन का दशाह प्रचलित था। सम्भवतः श्रमिकों का पारिश्रमिक वितरण दशाह के अन्तिम दिन होता था। लेकिन दशाह के वासरों के नाम ग्रहो आदि के नाम से प्रचलित नही थे। वेदों में सप्ताह शब्द भी आया है, लेकिन सप्ताह का व्यावहारिक पक्ष ज्ञात नही है। सप्ताह के वासरों के नाम भी ग्रहो आदि के नाम से प्रचलित नही थे।
१६ मेष - वृषभादि राशियाँ तथा १३°२०' के एक समान भोगमान वाले नक्षत्र प्रचलित नही थे। मेष - वृषभादि राशियाँ, होरा और सप्ताह के वारों के ग्रहों से सम्बेबन्धित नाम बीलोनिया (इराक), मिश्र और यूनान से वराहमिहिर के समय भारत में आये। १३°२०' के निश्चित भोगमान वाले नक्षत्र भी सम्भवतः वराहमिहिर के समय ही प्रचलन में आये।
१७ निरयन मासाधारित चैत्रादि जिस मास में वसन्त सम्पात पड़ता था उसी माह को प्रथम मास माना जाता था।
इस कारण कहीँ माघ, कहीँ मार्गशीर्ष, कहीँ कार्तिक, कहीँ वैशाख तो कहीँ चैत्र को प्रथम मास कहा गया। यह प्रमाणित करता है कि, वैदिकों को अयन चलन और अयनांश का ज्ञान था।
रामायण काल में संवत्सर के प्रथम दिन अर्थात वसन्त सम्पात के दिन अर्थात सायन मेष संक्रान्ति को होने वाला इन्द्र ध्वजारोहण समारोह निरयन सौर मासाधारित आश्विन मास में होता था इस कारण नेपाल में आज तक निरयन सौर मासाधारित आश्विन मास में इन्द्र ध्वजारोहण होता है। जबकि भारत में निरयन सौर मासाधारित चैत्र मास में शुक्ल प्रतिपदा को इन्द्र ध्वजारोहण होता है। इसे ब्रह्मध्वज भी कहते हैं। महाराष्ट्र में गुड़ी कहते हैं।
१८ ऐसे ही जिस नक्षत्र में वसन्त सम्पात पड़ता था उसे प्रथम नक्षत्र माना जाता था।
इस कारण प्राचीन शास्त्रों में कहीँ - कहीँ धनिष्ठा को, कहीँ चित्रा को, कहीँ मघा को, तो तेत्तरीय संहिता और अथर्ववेद में कृतिका को और वर्तमान में अश्विनी को प्रथम नक्षत्र कहा जाकर नक्षत्र गणना की जाती है। यह भी प्रमाणित करता है कि, वैदिकों को अयन चलन और अयनांश का ज्ञान था।
१९ व्यापार व्यवहार में ३६० दिन का सावन वर्ष और ३० दिन के सावन मास प्रचलित थे।
ऋतु आधारित सायन सौर वर्ष से मिलान हेतु पाँच प्रकार से वर्षान्त में अधिक मास करके दोनों गणना में समरूपता लाई जाती थी।
संक्रान्ति अर्थात जिसका सम्बन्ध क्रान्ति से हो वही संक्रान्ति कहलाती है। जो क्रान्ति सम्बद्ध नही वह संक्रान्ति भी नही कहला सकती है।
संक्रान्ति के बिना वैदिक सौर मास नहीं होता।
जब क्रान्ति साम्य वाली संक्रान्ति अर्थात सायन संक्रान्ति के बिना मास सिद्धि ही नही होती तो, वैदिक अधिक मास कहाँ से सिद्ध होगा। उल्लेखनीय है कि, वेदों में अधिक मास की ऋतु का उल्लेख भी आया है। इससे सिद्ध होता है कि, उस समय व्यापार व्यवहार में प्रचलित सावन मास में ही अधिक मास होता था।
क्रान्ति सम्बद्ध वैदिक सौर मास आधारित चान्द्र मास और निरयन सौर मास आधारित चान्द्रमास में ही अधिक मास और क्षय मास बाद में प्रचलित होना सिद्ध होता हैं।
समय समय पर परम क्रान्ति में परिवर्तन होता रहा है। उल्कापात, ज्वालामुखी फटने, भूकम्प आने, सुनामी आने, ज्वारभाटा और परमाणु विस्फोट आदि अलग - अलग कारणो से परम क्रान्ति में परिवर्तन होता रहा है। वैज्ञानिकों ने भी समय समय पर भूमि की कर्करेखा और मकर रेखा का स्थान परिवर्तन माना है।
पौराणिकों नें मार्कण्डेय पुराण में इसे महिषासुर के द्वारा भूमि का घुर्णन अत्यन्त तेज करने जैसे वर्णन के रूप में तथा वराह अवतार द्वारा भूमि को पुनः अपनी कक्षा में स्थापित करने का वर्णन किया है।
संवत्सर,अयन, तोयन, ऋतु और मास सूर्य से सम्बन्धित गणना है। नक्षत्र चन्द्रमा से सम्बन्धित गणना है। लेकिन तिथि, करण और योग सूर्य और चन्द्रमा दोनों की संयुक्त गणना से सम्बन्धित है।
यदि सूर्य के केन्द्र से भूमि के केन्द्र की अधिकतम और न्यूनतम दूरी, भूमि के केन्द्र से चन्द्रमा के केन्द्र की अधिकतम और न्यूनतम दूरी (लम्बन), आवर्तकाल, दीर्घवृत्ताकार कक्षा आदि में परिवर्तन कर के किसी भी सुत्र से गणना करो तो उत्तर गलत ही आयेगा।
ऐसे ही यदि सुत्र गलत ले लिया जाए तो भी गणना गलत ही होगी।
प्राचीन सिद्धान्तकारों में वराह मिहिर कृत पञ्च सिद्धान्तिक में उल्लेखित सूर्यसिद्धान्त तथा नवीन सूर्य सिद्धान्त और भास्कराचार्य कृत सिद्धान्त शिरोमणि के सुत्र अधिक समीचीन हैं। तो आधुनिक सिद्धान्तकारों में व्यंकटेश बापूजी केतकर के ग्रहगणितम और वैजयंती के सुत्र अधिक समीचीन है।
वैदिक, स्मार्त पौराणिक धर्म-कर्म में दृकतुल्य तिथि ही लेना चाहिए इस सम्बन्ध में स्व. श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट द्वारा इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन समिति की रिपोर्ट (पृष्ठ ७३ से ९५ तक) में तथा १९५५ ई. की केलेण्डर रिफार्म कमेटी की रिपोर्ट में अनेक प्रमाण और विस्तृत लेख उपलब्ध हैं।
व्यंकटेश बापूजी केतकर के ग्रहगणितम और वैजयंती नामक ग्रन्थों के आधार पर तिथि साधन करने पर निरयन मास, निरयन मास आधारित चान्द्रमास, अधिक मास क्षय मास भी सही आते हैं तथा तिथि, करण, नक्षत्र और योग की गणना सही होती है।
ग्रह लाघव और मकरन्द करण ग्रन्थ से तिथि साधन करने पर बाण वृद्धि रस क्षय वाला गलत तिथिमान और नक्षत्र मान आता है। नक्षत्र भी गलत ही आते हैं। करण और योग भी गलत ही आते हैं। इन पञ्चाङ्गों के अधिक मास क्षय मास भी कई बार गलत सिद्ध हो चुके हैं।
उज्जैन की महाकाल पञ्चाङ्ग और जबलपुर के लाला रामस्वरूप जी.डी. एण्ड सन्स तथा लाला रामस्वरूप रामनारायण केलेण्डर पञ्चाङ्ग ग्रह लाघव और मकरन्द करण ग्रन्थों के आधार पर बनते हैं। इसलिए ये धर्मशास्त्रोक धर्म कर्म में उपयोगी नही है।
वैदिक उत्तरायण / उत्तरगोल- दक्षिणायन / दक्षिणगोल तथा वैदिक उत्तर तोयन - दक्षिण तोयन (अर्थात पौराणिक उत्तरायण - दक्षिणायन), वैदिक वसन्त आदि ऋतुएँ, (पौराणिक ऋतुएँ), वैदिक मधु- माधव आदि मास (पौराणिक मधु-माधव मास) आदि क्रान्ति साम्य युक्त सायन सौर संक्रान्तियों से ही सिद्ध होते हैं।
नाक्षत्रीय गणना या निरयन सौर गणना तथा सायन सौर संक्रान्ति तुल्य चान्द्रमासों या निरयन सौर मासानुसार चान्द्रमासों या शुद्ध चान्द्र मासों से अयन, तोयन, ऋतुएँ और मधु - माधव आदि वैदिक मास सिद्ध नही होते।
सायन राशियों, सायन नक्षत्रों और सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मासों के नवीन नामकरण करना आवश्यक है। साथ ही कुछ निरयन राशियों के नाम बदल कर भारतीय परिप्रेक्ष्य में नवीन नामकरण करना आवश्यक है।
भारतीय सत्ताइस - अट्ठाइस नक्षत्र, आधुनिक एस्ट्रोनॉमी के अठासी या नवासी नक्षत्र, बेबीलोन (इराक), मिश्र और युनान की संस्कृति के बारह निरयन राशियों या आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की तेरह राशियों के नाम क्रान्तिवृत के उत्तर और दक्षिण में आसपास आठ/ नौ अंश की पट्टी में अर्थात भचक्र ( Fixed zodiac) में ताराओं के समुह से बनी आकृतियों के सादृश्य आकृति वाली वस्तुओं या जीवों के नामों के आधार पर रखे गए हैं। परवर्ती काल में अभिजित नक्षत्र क्रान्तिवृत से दूर हो जाने के कारण भारत में भी केवल सत्ताइस नक्षत्र ही प्रचलन में रहे।
आकृति आधारित उक्त नाक्षत्रीय पद्यति पर आधारित नामकरण विषुववृत्त में गणना किये जाने वाले विषुवांशों वाली सायन पद्यति में लागू नहीं होती। क्योंकि सायन पद्यति की राशि किसी स्थिर नक्षत्र मण्डल में ही नही रह पाती, ५०.३ विकला प्रति वर्ष की पूर्व से पश्चिम की ओर वार्षिक वाम गति से सतत परिवर्तनशील है।
सायन पद्यति में वसन्त सम्पात से गणना करने के कारण कोई स्थाई तारा समुह को एक राशि या नक्षत्र नही कहा जाता है। इसलिए इनके नाम करण भी आकृति आधारित नही हो सकते। इसलिए सायन राशियों और नक्षत्रों के नाम करण संख्यात्मक या किसी अन्य आधार पर करना आवश्यक है।
वस्तुतः नाक्षत्रीय पद्धति में निरयन राशियों के उक्त प्रचलित नाम बेबीलोन (इराक), मिश्र और युनानी सभ्यता की दैन है। वराहमिहिर आदि नें युनानी और अरबी भाषा के राशि नामों का संस्कृत में अनुवाद कर निरयन राशियों के संस्कृत में नाम रख दिए थे।
वस्तुतः नाक्षत्रीय प्रणाली में भी भारतीय दृष्टि से इन राशियों के नाम सही नही लगते हैं।
मध्य एशियाई और युनानी दृष्टिकोण से आकृतियों को भारतीय जन मानस नही समझ पाते हैं। क्योंकि हमारे दिमाग में नक्षत्रों की आकृतियाँ छाई रहती है। अतः निरयन राशियों की आकृतियों के भी नामकरण भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखना उचित होगा।
पहले भी कहा जा चुका है कि, वैदिक काल में आर्यावर्त और ब्रह्मावर्त का विस्तार पामीर के पठार, ईरान और तुर्किस्तान से विंध्याचल तक था। अधिकांश वैदिक जन इसी क्षेत्र में निवास करते थे। विंध्याचल और नर्मदा पार कर महर्षि अगस्त्य, उनके शिष्य गण, महर्षि अत्रि और उनके अनुयाई और महर्षि दधीचि जैसे कुछेक ऋषि ही दक्षिण भारत में रहते थे। इसलिए वैदिक ग्रंथों में वैदिक उत्तरायण - दक्षिणायन, वैदिक उत्तर तोयन, वैदिक वसन्त आदि ऋतुएँ तथा वैदिक मधु माधव आदि मास की व्यवस्था उत्तरी भारत, ईरान, तुर्की तथा तिब्बत के क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष, संक्रान्ति २०/२१ मार्च से वैदिक उत्तरायण, वैदिक वसन्त ऋतु, वैदिक मधु मास प्रारम्भ होते थे।
लेकिन महाकाव्य काल और पौराणिक काल में जब भारतीय जनसंख्या दक्षिण भारत और सिंहल द्वीप (श्रीलंका) तक बढ़ गई तब वैदिक वर्षा ऋतु उत्तरायण में पढ़ने के कारण उत्तरायण में विवाह, उपनयन, मुण्डन आदि संस्कारों के उत्सव मनाया जाना कठिन लगने लगा तो मध्य भारत के उज्जैन को केन्द्र मानकर अयन, तोयन, ऋतुओं और मासों का प्रारम्भ दिन पुनर्निर्धारित किया गया। इस काल में संहिता ज्योतिष का जन्म हुआ जिसका ज्योतिषिय आधार नक्षत्रों में ग्रहों का भ्रमण रहा। अत निरयन ग्रह गणित का आविष्कार किया गया।
पौराणिक काल में काल गणना परिवर्तन कर वसन्त सम्पात सायन मेष संक्रान्ति २०/२१ मार्च से शरद सम्पात सायन तुला संक्रान्ति २२ सितम्बर तक चलने वाले वैदिक उत्तरायण को पौराणिक उत्तर गोल नामकरण किया गया।
शरद सम्पात सायन तुला संक्रान्ति २३ सितम्बर से वसन्त सम्पात सायन मेष संक्रान्ति २० मार्च तक चलने वाले वैदिक दक्षिणायन को पौराणिक दक्षिण गोल नामकरण किया गया।
दक्षिण परम क्रान्ति दिवस सायन मकर संक्रान्ति २२/२३ दिसम्बर से उत्तर परम क्रान्ति दिवस, सायन कर्क संक्रान्ति २२/२३ जून तक चलने वाले वैदिक उत्तर तोयन को पौराणिक उत्तरायण नाम दिया गया। और पौराणिक वर्षा ऋतु प्रारम्भ माना गया। एवम्
उत्तर परमक्रान्ति दिवस सायन कर्क संक्रान्ति (२२ जून) से दक्षिण परमक्रान्ति दिवस सायन मकर संक्रान्ति (२२ दिसम्बर) तक वैदिक दक्षिण तोयन को पौराणिक दक्षिणायन किया गया और पौराणिक शिशिर ऋतु का प्रारम्भ किया जाने लगा।
वसन्त सम्पात से प्रारम्भ होने वाला वैदिक वसन्त ऋतु और वैदिक मधुमास सायन मेष संक्रान्ति (२०/२१ मार्च) के स्थान पर सायन मीन संक्रान्ति (१८ फरवरी) से प्रारम्भ किया जाने लगा। और
वैदिक शरद ऋतु और ईषमास सायन तुला संक्रान्ति (२३ सितम्बर) के स्थान पर सायन कन्या संक्रान्ति (२२/२३ अगस्त) से प्रारम्भ किया जाने लगा।
परिणाम स्वरूप उत्तरायण का उत्तरार्ध और वसन्त ऋतु का उत्तरार्ध तथा माधवमास संवत्सर के प्रारम्भ में पड़ने लगा तथा उत्तरायण का पूर्वार्ध और वसन्त ऋतु का पूर्वार्ध तथा मधुमास संवत्सर के अन्त में पड़ने लगा। या प्रकारान्तर से,
आधा उत्तरायण और आधी वसन्त ऋतु गत वर्ष में और आधा उत्तरायण और आधी वसन्त ऋतु में वर्तमान संवत्सर में आने लगी।
संवत्सर का प्रारम्भ माधव मास से होने लगा और मधुमास संवत्सर के अन्त में आने लगा। मधु-माधव मास की जोड़ी टूट गई।
इस विचित्र अव्यवस्था से भी सन्तोष नही हुआ तो वैदिक मास बन्द कर पहले तो विक्रम संवत के साथ निरयन सौर मास प्रचलित किये जो आज तक पञ्जाब हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, उड़िसा, बङ्गाल, तमिलनाडु और केरल में प्रचलित हैं। दक्षिण भारत में मेष- वृष मास कहलाते हैं जबकि उत्तर भारत में वैशाख, ज्येष्ठ आदि नाम से प्रचलित है।
फिर १३५ वर्ष पश्चात शकाब्द के साथ निरयन मासों पर आधारित चैत्र - वैशाख आदि अमान्त चान्द्रमासों को लागू किया गया। जो अभी भी कर्नाटक, तेलङ्गाना, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में प्रचलित है। ये चान्द्रमास ऋतुओं से पूर्णतः असम्बद्ध है। और उसके बाद तो हद ही होगई कि, अमान्त चान्द्रमासों के स्थान पर पूर्णिमान्त चान्द्रमास लागू किए गए। जो आज भी मध्यप्रदेश , राजस्थान , उत्तर प्रदेश तथा बिहार में प्रचलित है।
पूर्णिमान्त चान्द्रमास में आधा चैत्र मास अर्थात चैत्र शुक्ल पक्ष संवत्सर के प्रारम्भ में पड़ने लगा और आधा चैत्र अर्थात चैत्र कृष्ण पक्ष संवत्सर के अन्त में पड़ने लगा।
*वस्तुतः प्राचीन चैत्र मास निरयन मेष मास में ही पड़ता था, जिसे वराहमिहिर के काल में फाल्गुन मास नाम दिया गया था। और निरयन मीन मास में चैत्र मास का प्रारम्भ करने लगे।
वर्तमान में निरयन मीन मासारम्भ १४ मार्च से निरयन मेष मासारम्भ १४ अप्रेल के बीच निरयन मीन राशि का सूर्य पड़ता है। इसलिए निरयन सौर संस्कृत अमान्त चैत्र मास १४ मार्च से १३ अप्रेल के बीच ही प्रारम्भ होता है। और अमान्त वैशाख मास १४ अप्रेल से १४ मई के बीच निरयन मेष मास में प्रारम्भ होता है।
लेकिन, लगभग ४१० वर्ष बाद निरयन मेष मास में २०/२१ मार्च से प्रारम्भ होने लगेगा। तब परम्परागत निरयन मेष मास आधारित वैशाख मास भी २०/२१ मार्च से १९ अप्रेल के बीच प्रारम्भ होने लगेगा।*
चूंकि, वसन्त सम्पात/ सायन मेष संक्रान्ति २० / २१ मार्च को पड़ती है, तब निरयन सौर मेष मास और निरयन मेष मास आधारित चान्द्रमास वैशाख मास रहेगा। इस प्रकार वास्तविक चैत्र मास वैदिक मधुमास (२०/२१ मार्च से १९/२० अप्रेल तक) से सम्बद्ध हो पायेगा।*
तब
*कुछ पौराणिक धर्मशास्त्री ज्योतिषियों के अनुसार ४१० वर्ष बाद परम्परागत वैशाख को प्रथम मास घोषित करना चाहेंगे। क्योंकि निरयन मेष मास को वैशाख मास कहा जाता है।*
*तो कुछ पौराणिक सायन मतावलम्बी धर्मशास्त्री ज्योतिषियों के अनुसार ४१० वर्ष बाद फाल्गुन मास को प्रथम मास घोषित करना चाहेंगे। क्योंकि वसन्त सम्पात तब निरयन मासाधारित फाल्गुन मास में वसन्त सम्पात पड़ेगा।*
ऐसे ही
सन १३१७५ ईस्वी में चित्रा तारे का सायन भोगांश १८०° होगा।
तब
जिस समय सूर्य चित्रा नक्षत्र पर होगा उस समय क्या उस सायन तुला राशि में कहीं भी तुला की आकृति दिखाई देगी?
कदापि नहीं।
उस समय भचक्र (Fixed zodiac) में सायन तुला राशि के तारा समुह भी तुला कहलाने योग्य नही होंगे।
उस समय सायन तुला राशि में ताराओं से बनने वाली आकृति निरयन मेष राशि के तारा मण्डल वाली ही रहेगी।
अतः सायन राशियों के नाम अन्य किसी आधार पर ही रखना होगा।
सन १३१७५ ईस्वी में सायन कन्या संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति के बीच सायन कन्या राशि के सूर्य में पड़ने वाली अमावस्या से (औसत पन्द्रह दिन) बाद की पूर्णिमा को आश्विन पूर्णिमा के स्थान पर चैत्र पूर्णिमा नही कहा जा सकता। क्योंकि उस समय सूर्य चित्रा नक्षत्र के योग तारे पर होगा और चन्द्रमा चित्रा तारे से १८०° पर होगा।
*निरयन सौर मासाधारित चान्द्र महीनों के नाम पूर्णिमा के दिन नक्षत्र योग तारा युति के आधार पर नाक्षत्रीय/ निरयन गणना के आधार पर ही किये गये हैं।*
*जब अयन बिन्दु चित्रा नक्षत्र पर होगा तब, जिस पूर्णिमा को चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर होगा तब भी वह चैत्र पूर्णिमा ही कहलायेगी लेकिन, उस समय सूर्य सायन तुला राशि पर होनें से उसे वैदिक मधु मास या पौराणिक माधव मास की पूर्णिमा नही कह सकते।
अस्तु सायन सौर संक्रान्ति आधारित महीनों के नवीन नाम करण करना अत्यावश्यक है।
*चैत्र पूर्णिमा को जब चन्द्रमा चित्रा तारे पर होता है, तब सूर्य निरयन मेषादि बिन्दु पर (रेवती योगतारा के निकट) होगा। यह आवश्यक है। लेकिन तब सदा ही मधुमास हो यह सम्भव नही है।*
लगभग यही बात *फाल्गुने/फल्गुनीपूर्णमासे दीक्षेरन्, चित्रापूर्णमासे दीक्षेरन् (कृष्णयजुर्वेदीयतैत्तिरीयसंहितायाम् ७/४/८, सामवेदीये ताण्ड्यब्राह्मणे ५/९)* में भी दर्शित है।
मैरे मतानुसार ---
क-
१ सायन राशियों के नाम आकृति आधारित नही हो सकते अतः सायन राशियों के नाम संख्यात्मक - प्रथम द्वितीय आदि या किसी अन्य आधार पर रखे जाने चाहिए।
२ सायन नक्षत्रों के नाम भी आकृति आधारित न होकर किसी अन्य आधार पर रखे जाने चाहिए। ताकि संहिता ज्योतिष में नक्षत्रों पर आधारित मानसून / मौसम को समझा जा सके।
३ कुछ निरयन राशियों के नाम परिवर्तन भी भारतीय दृष्टिकोण से किये जाना उचित होगा।
४ सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मासों के नवीन नामकरण करना आवश्यक है। संख्यात्मक नामकरण किया जा सकता है। यथा प्रथम मास, द्वितीय मास आदि।
ख -
व्रत पर्व उत्सवों और त्योहार कब मनाएँ जाएँ ? अर्थात
सूर्य की किस स्थिति मे व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाये जाएँ? या
सूर्य और चन्द्रमा की किस स्थिति मे व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाये जाएँ?
इसके लिए सुझाव निम्नानुसार है।⤵️
१ *संवत्सर प्रारम्भ, अयन प्रारम्भ, ऋतु प्रारम्भ, मधु - माधवादि मासारम्भ/ संक्रान्ति पर्व, और जिनकी गणना वेधशाला में वैध लेकर सिद्ध की जा सके ऐसे कुछ तिथि, व्रत, उत्सव, त्योहार शुद्ध सायन सौर गणना के आधार पर मनाये जाएँ।*
२ कुछ तिथि, व्रत, उत्सव, त्योहार नाक्षत्रीय सौर मेष- वृषभादि मास के गतांश या वर्तमानांश या गते के आधार पर मनाये जाएँ।*
३ *रामनवमी , जन्माष्टमी, दसरा दीपावली जैसे ऋतु आधारित कुछ तिथि, व्रत, उत्सव, त्योहार सायन सौर मधु- माधवादि मास आधारित चान्द्रमासों की तिथियों के आधार पर मनाने चाहिए।*
४ *दक्षिण भारत में सिंह राशि के सूर्य में श्रवण नक्षत्र के चन्द्रमा के दिन ओणम मनाया जाता है ऐसे कुछ व्रत पर्व उत्सव और त्योहार सायन सौर मास या निरयन सौर मास में चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर मनाए जाएँ।
५ *पौराणिक कथा के अनुसार शिवरात्रि पर्व की पूरी रात्रि में बहेलिया द्वारा मृगशीर्ष नक्षत्र और व्याघ के तारे को देखने का वर्णन के आधार पर यह घटना निरयन निरयन धनु के २०° पर या इसके आसपास सूर्य होनें पर ही सम्भव है। अर्थात ऐसे कुछ व्रत, पर्व, उत्सव, त्योहार नाक्षत्रीय गणना के आधार पर ही सिद्ध होंगे, उन्हें भी मान्यता देनी होगी।
अतः*
*महाशिवरात्रि जैसे कुछ तिथि, व्रत, उत्सव, त्योहार नाक्षत्रीय गणना आधारित मेष - वृषभ आदि मासों पर आधारित चैत्र वैशाखादि मासों की तिथियों के आधार पर मनाये जाएँ।*
६ बङ्गाल में नवरात्र में सरस्वती आव्हान, पूजन, विसर्जन आदि कुछ तिथि, व्रत, पर्व और उत्सव, त्योहार निरयन मेष वृषभादि सौर मासाधारित चान्द्र मासों में चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर मनाए जाते हैं। अतः ऐसे व्रत, पर्व और उत्सव, त्योहार निरयन मेष वृषभादि सौर मासाधारित चान्द्र मासों में चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर मनाए जाना चाहिए।*
७ अथवा सर्वश्रेष्ठ होगा यदि सभी व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहारों को सायन सौर वैदिक मधु-माधव आदि मासों के दिनांक से निर्धारित कर दिया जाए।
पुनश्च
सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मासों के नवीन नामकरण करना इसलिए आवश्यक है; क्योंकि, परम्परागत पञ्चाङ्ग का निरयन मीन मास आधारित चान्द्रमास चैत्र मास कहा जाता है।
वैदिक तपस्य मास या पौराणिक मधुमास १८ फरवरी से २१ मार्च तक को राष्ट्रीय केलेण्डर का चैत्र कहा जाता है।और
मोहन कृति आर्ष पत्रकम् में सायन मीन राशि के सूर्य वैदिक तपस्य मास या पौराणिक मधुमास १८ फरवरी से २० मार्च के बीच प्रारम्भ होने वाले चान्द्रमास को चैत्र कहा जाता है। ऐसे तीन चैत्र मास से जन सामान्य का भ्रमित होना स्वाभाविक है।
अतः सायन सौर संक्रान्तियों और सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्रमासों नवीन नामकरण आवश्यक है।
विशेष --
पूर्व दिशा में उदयीमान अंशादि को लग्न कहते हैं। लग्न को केन्द्र में रखकर द्वादश कोणों में सूर्य, चन्द्रमा और ग्रह तथा पात दर्शा कर एक प्रकार भचक्र का मानचित्र (नक्षा) दर्शाने का सबसे सरल और सहज उपाय है।
यह तथ्य शुल्बसुत्रों के जानकार ही समझते हैं। होरा शास्त्री अर्थात तथाकथित जातक फलित विद्या विद देवज्ञ जन नही जानते। इसलिए विवाह टीप बनाकर देनें वाले भी यह नहीं जानते कि, हम यह टाईम कैप्सूल तैयार कर रहे हैं।
हमारे पञ्चाङ्गकार जब उक्त तथ्यों पर एकमत होंगें तभी जाकर दिगंश (Azimuth) और ऊँचाई (Altitude) गणना तथा विशुवांश/ दायाँ आरोहण (Right Ascension) की सही सही गणना समझ और कर पाएंगे और ग्रहण की गणना में भी आत्मनिर्भर हो पाएंगे।
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