गुरुवार, 10 अगस्त 2023

वेदों के दृष्टा देवता ऋषि।

वेदों के दृष्टावेदों के दृष्टा देवता ऋषि कौन हैं? एवम वेदों में क्या बतलाया गया है?

शतपथ ब्राह्मण ११/५/२/३ में कहा गया है कि,

तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्ताग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेद:सूर्यात्सामवेद :।

मनुस्मृति के प्रथम अध्याय मन्त्र २३ में भी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के दृष्टा ऋषि अग्नि, वायु और सूर्य को बतलाया है। -

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थं ऋग्यजु: सामलक्षणम् ।मनुस्मृति (१/२३) 

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः सामलक्षणम्॥ 
का हिन्दी अर्थ है ।⤵️
उस (ब्रह्म)- परमात्मा ने, (यज्ञसिध्यर्थम्)- यज्ञ सिद्धि हेतु, (त्र्यं सनातनम्)- तीनो सनातन वेदों (ऋग्यजुःसाम्) ऋगवेद, यजुर्वेद और सामवेद का ज्ञान प्रकाश, (लक्षणम्)- समान गुण वाले, (अग्निवायुरविभ्यस्तु)- अग्नि, वायु और सूर्य को, (दुदोह) - दिया।
 भावार्थ- इसके पश्चात उस परमात्मा ने यज्ञों की सिद्ध हेतु तीनो सनातन वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का ज्ञान प्रकाश समान गुण वाले अग्नि वायु और सूर्य को दिया। 

मनुस्मृति में गुरुकुल में रह कर वेद शिक्षा ग्रहण करने की अवधि भी बतलाई है।

मनुस्मृति (३/१) में कहा है कि,
षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम् ।
तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥ मनुस्मृति (३/१) 

षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम् ।
तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥
का हिन्दी अनुवाद ⤵️
(गुरौ)- गुरूकुल में ब्रह्मचारी को ( षट्त्रिशदाब्दिकं)- छत्तीस वर्ष तक निवास करकें, (त्रैवैदिकं व्रतम्) - तीनों वेदों (ऋक्, यजुः और साम) का पूर्ण अध्ययन, (चर्य्यं)- करना चाहिए, छत्तीस वर्ष तक सम्भव न होने पर (तद् अधिकम्)- उसके आधे अर्थात अट्ठारह वर्ष तक, (वा) - या उतना भी सम्भव न होने पर, (पादिकं)- उसके आधे अर्थात नौ वर्ष तक, (वा) - या उतने काल तक जितने में, (ग्रहण अन्तिकम्) - वेदों में निपुणता प्राप्त हो सके रहना चाहिए। 

वेदत्रयी - ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद।

कहा जाता है कि, सृष्टि के आदि में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने प्रजापति ब्रह्मा को वेद ज्ञान प्रदान किया।

ऋग्वेद 
प्रजापति ने अग्नि को ऋग्वेद के मन्त्र कविता शैली के मन्त्र का ज्ञान दिया। 
ऋग्वेद में परमात्मा, विश्वात्मा ॐ, प्रज्ञात्मा (परम दिव्य अक्षर पुरुष- पराप्रकृति) परब्रह्म ( विष्णु -  माया), प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) (पुरुष  - प्रकृति) ब्रह्म (सवितृ/ हरि सावित्री कमला) , जीवात्मा (अपर पुरुष जीव- त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति आयु) अपर ब्रह्म (नारायण- श्री लक्ष्मी), भूतात्मा (प्राण/ देही - धारयित्व / अवस्था) हिरण्यगर्भ (त्वष्टा- रचना), सुत्रात्मा (ओज- आभा) प्रजापति (दक्ष-प्रसुति, रुचि - आकुति, कर्दम - देवहुति), अणुरात्मा (तेज- विद्युत) वाचस्पति (इन्द्र - शचि), विज्ञानात्मा (विज्ञान/ चित्त - विद्या/ वृत्ति) ब्रहस्पति (आदित्य और उनकी शक्ति) , ज्ञानात्मा (बुद्धि- मेधा / बोध) ब्रह्मणस्पति (वसु और उनकी शक्ति), लिङ्गात्मा (अहंकार - अस्मिता) पशुपति (रुद्र - रौद्री), मनसात्मा (मन - संकल्प एवम् विकल्प ) गणपति (स्वायम्भूव मनु - शतरूपा) ,स्व सदसस्पति -  (स्वभाव मही, स्वाहा भारती, वषट सरस्वती, स्वधा ईळा)  तथा सृष्टि उत्पत्ति और जगत व्यवस्था ऋत तथा ब्रह्माण्ड विज्ञान, खगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद का वर्णन है। 
ऋग्वेद में आयुर्वेद, अश्विनी कुमार और ऋभुगणों द्वारा चिकित्सा और शल्य चिकित्सा का विषद वर्णन होनें के कारण आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद मानते हैं।

यजुर्वेद 
प्रजापति नें वायु को यजुर्वेद गद्यात्मक शैली में कर्म प्रधान - व्यवहार प्रधान, धर्म व्यवस्था की संहिता का ज्ञान दिया। कर्मकाण्ड, अर्थशास्त्र, शासन व्यवस्था, समाज शास्त्र, सैन्य विज्ञान धनुर्वेद का वर्णन है। इसलिए धनुर्वेद को यजुर्वेद का उपवेद मानते हैं।
यजुर्वेद के दो भाग हैं। 
१ शुक्ल यजुर्वेद जिसका अन्तिम (चालीसवाँ) अध्याय ईशावास्योपनिषद है। शुक्ल यजुर्वेद के ऋषि याज्ञवल्क्य हैं।
२ कृष्ण यजुर्वेद के ऋषि वैशम्पायन हैं। लेकिन कृष्ण यजुर्वेद में अथर्ववेद से प्रभावित ब्राह्मण ग्रन्थ भी मिश्रित (गड्ड-मड्ड) कर दिया गया है। इसलिए कृष्ण यजुर्वेद को अशुद्ध और अप्रामाणिक मानते हैं। 
श्वेताश्वतरोपनिषद भी कृष्ण यजुर्वेद का ही उपनिषद है।

सामवेद 
प्रजापति नें सूर्य (रवि) को सामवेद गायन योग्य गीत, कला प्रधान संहिता का ज्ञान दिया। इसमें अधिकांश भाग ऋग्वेद से लिया है। सामवेद का उपवेद गन्धर्ववेद है। जिसमें सङ्गीत और नाट्यशास्त्र का वर्णन है।

वेद त्रयी की ज्ञान मीमांसा

वेद त्रयी की ज्ञान मीमांसा ईशावास्योपनिषद में व्यक्त की गई है। इसके अतिरिक्त पूरुष सूक्त, उत्तर नारायण सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, देवी सूक्त, अस्यवामिय सूक्त, नासदीय सूक्त और श्वेताश्वतरोपनिषद में स्पष्ट झलकती है।
ईशावास्योपनिषद की व्याख्या में ही ब्राह्मण आरण्यकों में उल्लेखित शेष बारह उपनिषद (१ श्वेताश्वतर, २ केन, ३ कठ, ४ एतरेय, ५  तेत्तरीय, ६ प्रश्न, ७ मण्डुक, ८ माण्डुक्य, ९ छान्दोग्य , १० वृहदारण्यक , ११ कोषितकी, १२ मैत्रायणी उपनिषद) रचे गए हैं।
इनके अनुसार ईशावास्यम् इदम् सर्वम्, यत्किञ्च जगत्याम् जगत‌, खल्विदम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, तत्त्  त्वम् असि, प्रज्ञानम् ब्रह्म।
अर्थात जो कुछ है वह सब परमात्मा ही है। परमात्मा के अलावा कुछ है ही नही।  जैविक प्रकृति (जीव) और जड़ जगत ( त्रिगुणात्मक प्रकृति) के रूप में परमात्मा स्वयम् ही प्रकट हो रहा है।
सृष्टि रचना हेतु परमात्मा नें संकल्प कर जगत सञ्चालन हेतु परब्रह्म स्वरूप में प्रकट हो विष्णु और विष्णु की माया के रूप में परमात्मा ही प्रकट हो रहा है। इसलिए विष्णु को परमपद और परमेश्वर कहा है।
ऋत के माध्यम से जगत सञ्चालन हेतु ब्रह्म  स्वरूप में प्रकट हो  सवितृ और सावित्री के रूप में प्रकट हुआ।
जगत के पालनार्थ अपर ब्रह्म  स्वरूप में प्रकट हो नारायण और श्री लक्ष्मी के रूप में प्रकट हुआ।

ब्रह्माण्ड की रचना के लिए हिरण्यगर्भ  स्वरूप में प्रकट हो त्वष्टा और उसकी शक्ति रचना के रूप में प्रकट होकर ब्रह्माण्ड के तारा मण्डल और ग्रहों को घड़ा। तथा प्रजापति के रूप में प्रकट होकर दक्ष - प्रसुति, रुचि - आकुति और कर्दम - देवहुति  रूप में जैविक जगत में मैथुनिक सृष्टि की। 
जगत की प्रशासनिक व्यवस्था हेतु वाचस्पति  स्वरूप में प्रकट हो देवराज इन्द्र और शचि के रूप में प्रकट हुआ। ऐसे ही ब्रहस्पति  स्वरूप में प्रकट हो द्वादश आदित्य, ब्रह्मणस्पति  स्वरूप में प्रकट हो अष्ट वसु और पशुपति  स्वरूप में प्रकट हो ग्यारह रुद्र के रूप में भी वही परमात्मा प्रकट हो रहा है। परमात्मा ने ही गणाध्यक्ष गणपति  स्वरूप में प्रकट हो स्वायम्भूव मनु और शतरूपा के रूप में मानवीय सृष्टि की। और  सदसस्पति और उसकी शक्ति सदसस्पति की शक्ति मही जिसके तीन स्वरूप भारती, सरस्वती और ईळा के रूप में प्रकट होकर जगत के सभी कार्यों का निर्वहन कर रहा है।

अथर्ववेद 
यहाँ तो ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद तीन वेदों के बारे में ही बतलाया गया है तो फिर; अथर्ववेद कहाँ से आया?
ऐसा माना जाता है कि, प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र महर्षि अथर्वा नें अथर्ववेद की रचना की एवम् महर्षि अङ्गिरा नें अथर्ववेद का संकलन - सम्पादन किया। इसलिए अथर्वेद की गणना वेद त्रयी में नही होती।
अथर्ववेद अकेला है, जिसमें चार या अधिक ऋत्विजों के स्थान पर चरक अकेला होम हवन करता है।
अथर्ववेद में प्रथम बार गन्धर्वों और यक्षों को आहूति देने की व्यवस्था की गई। 
कृष्ण यजुर्वेद पर अथर्ववेद का प्रभाव स्पष्ट दिखता है।
महर्षि अङ्गिरा के पुत्र दधीचि हुए जिनकी अस्थियों से इन्द्र का शस्त्र वज्र बना। दधीचि परम शैव थे। दधीचि के पुत्र पिप्पलाद हुए। पिप्पलाद ने पीपल वृक्ष की पूजा का प्रचार किया।
अथर्ववेद में विज्ञान और तकनीकी का वर्णन है। स्थापत्य वेद या शिल्प वेद अथर्ववेद का उपवेद है।

अथर्ववेद की ज्ञान मीमांसा

अथर्ववेद मौक्ष पुरुषार्थ का अधिकार तभी मानता है, जब आप शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ्य और सुव्यवस्थित जीवन जी सकें तथा जीवन में स्थायित्व हो।
इसके लिए अथर्ववेद ने तत्व मीमांसा के लिए सांख्यशास्त्र, चित्त वृत्ति निरोध के लिए अष्टाङ्गयोग और स्थापित जीवन के लिए बुद्धियोग (श्रीमद्भगवद्गीता) को भूमि प्रदान की। ध्यान रखें श्रीकृष्ण घोर आङ्गिरस के शिष्य थे। कुछ लोग महर्षि सान्दीपनी को ही घोर आङ्गिरस मानते हैं।
अस्वस्थ शरीर को स्वस्थ करने के लिए आयुर्वेद और अस्वस्थ चित्त को स्वस्थ करने के लिए मन्त्र शास्त्र दिया है।
अथर्ववेद का प्रतिनिधि सूक्त प्रिथ्विसुक्त को माना जाता है. 
अथर्ववेद में जीवन के सभी पक्षों – कृषि की उन्नति, गृह निर्माण, व्यापारिक मार्गों का गाहन [खोज], समन्वय, रोग निवारण, विवाह व प्रणय गीतों, राजभक्ति, राजा का चुनाव, बहुत सी ओषधियों व वनस्पतियों, शाप, वशीकरण, प्रायश्चित, मातृभूमि महातम्य, आदि का वर्णन किया गया है।
अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ गोपथ ब्राह्मण है। 
अथर्ववेद का कोई आरण्यक नही है। 
अथर्ववेद के उपनिषद १ प्रश्नोपनिषद २ मण्डुकोपनिषद और ३ माण्डुक्योपनिषद है।
अथर्ववेद का मुख्य उपवेद स्थापत्य वेद या शिल्पवेद है। लेकिन 
अथर्ववेद में आयुर्वेद पर पर्याप्त प्रकाश डालने के कारण कुछ लोग अथर्ववेद का उपवेद आयुर्वेद को मानते हैं; जो ऋग्वेद का उपवेद है।

अथर्ववेद के निम्नांकित उपवेद हैं ⤵️
"अथर्ववेद के पांच उपवेदों का 'गोपथ ब्राह्मण' में उल्लेख है। 
१ सर्पवेद- सर्पविष चिकित्सा,
२ पिशाचवेद- पिशाचों राक्षसों का वर्णन,
३ असुरवेद - अथर्ववेद में असुरों को यातुधान कहा गया है । इसमें 'यातु' (जादू-टोना) आदि का वर्णन है । ४ इतिहासवेद- प्राचीन आख्यान तथा राजवंशों का परिचय । 
५  पुराणवेद- इसमें रोग निवारण, कृत्या प्रयोग, अभिचार कर्म, सुख-शान्ति, शत्रुनाशक इत्यादि मंत्र है।"

श्रमण परम्परा, शैव और शाक्त पन्थ तथा तन्त्र  की उत्पत्ति अथर्ववेद से ही हुई है। 
प्राचीन ईरान का धर्मग्रन्थ अवेस्ता अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ था। मीड लोग अवेस्ता के अनुसार श्रमण परम्परा निर्वाह करते थे। शंकर जी को मीढीश कहते हैं। प्राचीन बौद्ध और जैन परम्परा भी अथर्ववेद से ही निकली है‌। अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता पर जरथुस्त्र ने जेन्द व्याख्या ईरानी भाषा में की। फिर मूल अवेस्ता में जेन्द व्याख्या (भाष्य) गड्ड-मड्ड (मिश्रित) कर दिया। पारसी अपना धर्मगन्थ इसी जेन्दावेस्ता को मानते हैं। लेकिन जेन्दावेस्ता में अङ्गिरा मेन्यू को शैतान बतलाया गया है। ऐसे ही परम शैव रावण को जैन सम्प्रदाय वाले अपना अगला तीर्थंकर मानते हैं। 

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