श्रीमद्भगवद्गीता ३/४० में काम का वास स्थान इन्द्रियाँ, मन और बद्धि बतलाया है। अतः मन को वश में करनें से आरम्भ करते हैं क्योंकि, श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण नें कहा है।
श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 62*
62 -- *विषयों का ध्यान करनें वाले पुरुष को (उन) विषयों से सङ्ग (आसक्ति) उत्पन्न हो जाता है। विषयों के संङ्ग (लगाव) होने पर (उन विषयों की) कामना उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की कामना होने पर उन विषयों की प्राप्ति में विघ्न पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।*
अर्थात -- विषयों के चिन्तन, मनन करने, लगातार स्मरण रखनें वाले पुरुष को उन विषयों से लगाव हो जाता है। विषयों से लगाव होजाने पर उन विषयों को प्राप्त करनें की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की प्राप्ति में बाधा पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।
63 -- *क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है। सम्मोह से स्मृति विभ्रम हो जाता है स्मृतिविभ्रम से बुद्धिनाश हो जाता है। बुद्धिनाश से व्यक्तित्व का पतन होकर नष्ट हो जाता है।*
अर्थात -- क्रोध से *मूढ़भाव* होजाता है।सही को गलत समझने और गलत को सही समझने लगता है। सम्मोह / मूढ़ भाव याददाश्त में भ्रम पड़ जाता है। अतः निर्णायक क्षमता समाप्त हो जाती है।) स्मृति विभ्रम से कुछ भी समझ पड़ना बन्द हो जाता है। बुद्धिनाश से अपना व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है। गिर जाता है।
64 -- *परन्तु अपने अन्तःकरणों को स्वयम् के अधीन करने वाला विधेयात्मा रागद्वेष रहित होकर अपने वश में की हुई इन्द्रियों के विषयों में विचरता हुआ ईश्वरीय कृपा को प्राप्त होता है।*
अर्थात - जिसने पञ्च महा यज्ञ और अष्टाङ्ग योग के अभ्यास से अपने अन्तःकरण चतुष्टय (मन, अहंकार, बुद्धि और चित्त) को वश में कर लिया उसके लिए तो कर्म और भोग भी ईश्वरीय कृपा में सहायक ही होते हैं।
65 -- *प्रसाद (ईश्वर की कृपा से) से सब दुःखों समाप्त हो जाते हैं और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि भँलीभाँति स्थिर हो जाती है।*
*मन को वश में करनें का उपाय*
*भूमिका में स्थित प्रज्ञ लक्षण*
श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 54 से 59 तक।
54- प्रश्न --अर्जुन ने पूछा--
हे केशव स्थितप्रज्ञ की भाषा क्या होती है? स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? वह जगत में कैसा रहता है? कैसे व्यवहार करता है? स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं?
उत्तर -- भगवान बोले
55 - मनोगत सम्पूर्ण कामनाओं का त्यागी ,अपने आप में ही सन्तुष पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
56 - दुःखो से उद्विग्न नही होने वाला, सुखों में निस्पह अनुकूलता की इच्छा रहित और प्रतिकूलता से द्वेष रहित निर्भय, क्रोध रहित, मौन (शान्तचित्त) स्थिरबुद्धि कहलाता है।
57-- जो सर्वत्र स्नेह (लगाव) रहित, हुआ उन शुभाशुभ (फलों) को प्राप्त होकर न अभिनन्दन करता है न द्वेष करता है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।
अर्थात अनूकूल परिस्थिति आने पर अतिप्रसन्नता पूर्वक उछलता नही और प्रतिकूलता आने पर विशाद नही करता वह स्थितप्रज्ञ है ।
58 - जैसे कछुआ अपने सभीअंङ्गों को सब (ओर से) समेट लेता है वैसे ही जो समस्त इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों (शब्द, स्पर्ष, रूप, रस और गन्ध) का संहार कर देता है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।
59 -- इन्द्रियों के विषयों को इन्द्रयों से ग्रहण न करनें वाले निराहार देही (प्राणी) (हटयोगी) के भी केवल विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है पर इन्द्रियों से विषयों को हटालेने पर भी मन से रस लेना नही छूटता। आत्मसाक्षात्कार कर लेने पर ही (उस) परम दृष्टा पुरुष के विषयों के (प्रति लगाव और) रस से भी निवृत्ति होजाती है।
*अब आते हैं मूल विषय मन पर नियन्त्रण पर।*
*श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 60-61*
*60-- हे कुन्तीपुत्र!(अनेक प्रकार से) यथार्थ तत्व को अच्छी तरह जानने वाले विवेकी पुरुष (विपश्चितः) द्वारा अनेक यत्न करने पर भी प्रमथन स्वभाव वाली मथ देने वाली ये इन्द्रियाँ मन को बल पू्वक जबर्जस्ती (प्रसभम्) हर लेती है।*
61 -- जिसकी इन्द्रियाँ वश में है वही स्थितप्रज्ञ है। उन सभी इन्द्रियों को संयमित करके मेरे परायण होजा।
*(आगे विशेष निर्देश किया हे कि, --*
इन्द्रियाँ और मन वश में क्यों नही होती।
*केवल इन्द्रिय जय होना ही पर्याप्त नही है बल्कि ईश्वर प्रणिधान भी आवश्यक है। क्योकि, यदि ईश्वरार्पण नही हुआ तो --)*
*मूल प्रश्न भाग 1 इन्द्रियाँ और मन वश में क्यों नही होती का उत्तर तो मिल गया। अब*
*मूल प्रश्न भाग 2 इन्द्रियों और मन को वश में कैसे करें का उत्तर पहले बतलाया जा चुका है। अभ्यासार्थ पुनर्स्मरण कराया जा रहा है।--*
*श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 62*
62 -- *विषयों का ध्यान करनें वाले पुरुष को (उन) विषयों से सङ्ग (आसक्ति) उत्पन्न हो जाता है। विषयों के संङ्ग (लगाव) होने पर (उन विषयों की) कामना उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की कामना होने पर उन विषयों की प्राप्ति में विघ्न पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।*
अर्थात -- विषयों के चिन्तन, मनन करने, लगातार स्मरण रखनें वाले पुरुष को उन विषयों से लगाव हो जाता है। विषयों से लगाव होजाने पर उन विषयों को प्राप्त करनें की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की प्राप्ति में बाधा पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।
63 -- *क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है। सम्मोह से स्मृतिविभ्रम हो जाता है स्मृतिविभ्रम से बुद्धिनाश हो जाता है। बुद्धिनाश से नष्ट हो जाता है।*
अर्थात -- क्रोध से *मूढ़भाव* होजाता है।सही को गलत समझने और गलत को सही समझने लगता है। सम्मोह / मूढ़ भाव याददाश्त में भ्रम पड़ जाता है। अतः निर्णायक क्षमता समाप्त हो जाती है।) स्मृतिविभ्रम से कुछ भी समझ पड़ना बन्द हो जाता है। बुद्धिनाश से अपनी स्थिति से गिर जाता है, नष्ट हो जाता है।
64 -- *परन्तु अपने अन्तःकरणों को स्वयम् के अधीन करने वाला विधेयात्मा रागद्वेष रहित होकर अपने वश में की हुई इन्द्रियों के विषयों में विचरता हुआ ईश्वरीय कृपा को प्राप्त होता है।*
65 -- *प्रसाद (ईश्वर की कृपा से) से सब दुःखों समाप्त हो जाते हैं और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि भँलीभाँति स्थिर हो जाती है।*
66 -- *अयुक्त की (जो योगस्थ नही हुआ हो/ परमात्मा में तल्लीन न हो उसे) बुद्धि (प्रज्ञा) नही होती, अयुक्त में भावना भी नही होती; भावनहीन को शान्ति नही मिलती, अशान्त को सुख कहाँ (मिल सकता है)।*
67 -- *जैसे जल वायु नाव को हर लेती है।वैसे ही इन्द्रियों में विचरता हुआ मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, उस इन्द्रिय से युक्त मन वाले की प्रज्ञा (बुद्धि) को हर लेती है।*
68 -- *हे महाबाहो ! जिस पुरूष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषय से सब प्रकार निग्रह की हुई है उसी की प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर है।*
शेष 69 से 72 तक के श्लोकों में स्थितिप्रज्ञ की विशेषताओं का वर्णन है।
श्रीमद्भगवद्गीता 3/9 *यज्ञ के लिए कर्मों के अतिरिक्त कर्म ही बांधने वाले हैं।*
3/10 *प्रजापति का प्रजाओं को रचकर दिया यज्ञ का उपदेश ही निष्कामता का वास्तविक स्वरूप है।*
3/17 *इसके विरुद्ध आचरण ही पाप है।*
3/36 *अर्जुन का प्रश्न मन पाप में क्यों प्रेरित होता है।*
3/37 *रजोगुण से उत्पन्न काम ही क्रोध है। यही पाप में लगाता है। इसे ही वैरी जान।*
3/40 *इन्द्रियाँ, मन , बुद्धि इसके वास स्थान हैं।*
*मन को वश में करनें का उपाय* --
श्रीमद्भगवद्गीता 06/35
हे महाबाहो । *निस्सन्देह मन चञ्चल (और) कठिनाई से निग्रह होने वाला है (नियन्त्रण या वश में करनें में कठिन है।); परन्तु है कून्तिपुत्र (यह) अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। (अभ्यास और वैराग्य से हीकाबू मे या कब्जे में आता है)।* 06/35
【 *यहाँ अभ्यास से तात्पर्य भगवत्प्राप्ति के लिये भगवान के नाम और गुणों का भजन, कीर्तन,श्रवण,मनन, चिन्तन तथा श्वास के द्वारा जप (प्राणायाम पूर्वक जप), और भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का पठन - पाठन इत्यादिक चेष्ठाओं से है।* 】
श्रीमद्भगवद्गीता 12/09
हे अर्जुन! *यदि (तु) चित्त को समाधि में (चित्त को सम करनें मे) (चित्त को) मुझमे स्थिर समर्थ नही है, तो अभ्यास योग से मुझको प्राप्त करनें की इच्छा कर।* 12/09
(इस युद्धकाल में तु इतना भी कुछ करनें में भी असमर्थ हैं उनके लिए भी उपाय है।-- --
श्रीमद्भगवद्गीता 12/10 एवम् 11 में बतलाये हैं। वे उपाय अभ्यास काल में किये जाने योग्य है। यह उनका महत्व श्रीमद्भगवद्गीता 12/12 में बतलाया है। किन्तु भक्तिमार्गियों नें बस इसी को आधार बना लिया है। जबकि सदाचार का कोई विकल्प है ही नही।)
श्रीमद्भगवद्गीता 6/36
*जिसका मन वश में किया हुआ नही है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्राप्य है। और वश में किये हुए मन वाले प्रयत्न शील पुरूष द्वारा साधन से (उसका) प्राप्त होना सहज है - ऐसा मेरा मत है।* 6/36
श्रीमद्भगवद्गीता 12/08
*(निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा) मन को (दृढ़तापूर्वक) मुझमें ही स्थिर कर, बुद्धि को मुझमें ही लगा इसके उपरान्त (तु) मुझमें ही स्थित हो जायेगा अर्थात मुझमें ही तेरा वास होगा या तु मुझमें ही निवास करेगा।(इसमें कुछ भी) संशय नही है / सन्देह नही है।* 12/08
अतः इन्द्रियों को मन के वश में, मन को बुद्धि के वश में। बुद्धि को स्थिर रखते हुए निश्चयात्मिका बुद्धि से चित्त को सम कर (समाधि में) स्थित रहने से तेज और ओज वर्धन होगा। चित्त को तेज से अभिभूत कर ओज में स्थित करने से धृति वर्धन होगा। धृति वृद्धि से धीरबुद्धि होगा। इसके बाद ही यज्ञ में स्वाहा और समर्पण की सार्थकता होगी।
आशा है इतना पर्याप्त है। उत्तर तो इतना बड़ा हो सकता है कि, कई पुस्तकें तैयार होजाये। किन्तु समझदार को ईशारा काफी मानकर यहीँ विश्राम देता हूँ।
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