वैदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि चेतन से जड़ की ओर चेतना के पतन का परिणाम है। तदनुसार सनातनधर्मी मानते हैं कि, प्रजापति, दक्ष - प्रसुति, रुचि - आकुति, कर्दम- देवहुति और स्वायम्भूव मनु- शतरूपा आदि भू प्रजापतियों की सन्तान द्विपद (ब्राह्मण और क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र मानव) सुसंस्कृत और वैदिक वर्णाश्रम धर्म में दीक्षित ही जन्में थे। तब पञ्चम और म्लेच्छ वर्ण नहीं बनें थे।
जबकि,
आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार सृष्टि अचेतन से चेतना की ओर विकास माना जाता है। तदनुसार वनवासी आदिम जातियों में धर्म का विकास हुआ।
आदिम जातियों का सामाजिक अध्ययन नृतत्व शास्त्र/ मानव शास्त्र (एन्थ्रोपोलॉजि Anthropology) तथा सभ्य समाज का अध्ययन समाजशास्त्र में उल्लेखित सिद्धान्तों के आधार पर धर्म की उत्पत्ति प्राकृतिक घटनाओं - दुर्घटनाओं और मृत्यु के भय से माना जाता है।कारण पूर्वजों के गाँत्ये (प्रतीक) रखकर पूजने को मूर्तिपूजा का आधार बतलाया गया है।
भारत में सारस्वत सिन्धु सभ्यता में मिली पशुपति एवम् मातृका देवी की नग्न मूर्तियों के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं नें निष्कर्ष निकाला कि, उस समय वैदिक वर्णाश्रम धर्म के साथ श्रमण संस्कृति भी थी जो तान्त्रिक विधि के अनुयाई थे एवम् तान्त्रिक तरीके से मूर्तियों का पूजन आदि करते थे। वे लोग शवों को भूमि में गाड़ते थे। जबकि वैदिक जन अन्त्येष्टि में शव दाह करते थे।
वाल्मीकीय रामायण में बालकाण्ड में माता कोशल्या जी महल में ही एक स्थान विशेष पर विष्णु पूजा करतीं हैं, अयोध्या काण्ड में माता कोशल्या श्री राम को कहतीं हैं कि, तुम जिन स्थानों पर आराधना-उपासना करने जाते हों वहाँ हो आओ। महाभारत में भी भीष्म पर्व में श्रीकृष्ण कहते हैं कि, जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक पत्र- पुष्पादि मुझे अर्पित करता है, उसे में ग्रहण करता हूँ। इससे अनुमान लगाया जाता है कि तब ऐसे स्थानक थे जहाँ व्यक्ति आराधना-उपासना करता था। उक्त ग्रन्थों में इन प्रकरणों में कहीं भी मुर्ति या प्रतिमा का उल्लेख नहीं किया गया है। क्योंकि ये पूजा-आराधना- उपासना किसी देवालय में नहीं अपितु, स्थान विशेष में की जाती थी। ऐसे आराधना स्थल होते हैं, जहाँ व्यक्ति धारणा- ध्यान के माध्यम से अपने इष्ट देव के निकट होने की अनुभूति करता है। वह सगुणोपासक भी हो सकता है लेकिन सगुण होने और साकार होने में बहुत अन्तर होता है। और साकार रूप के ध्यान में और किसी प्रतीक में बहुत अन्तर होता है। इसी प्रकार प्रतीक और प्रतिमा में भी आकाश- पाताल का अन्तर होता है। अतः साकार मानना मूर्ति पूजा का कोई प्रमाण नहीं होता।
जबकि, उसी वाल्मीकि रामायण में युद्ध काण्ड में वर्णन है कि, रावण की लंका में रावण की कुल देवी निकुम्भला के अनेक देवालय थे, जिनकी मूर्तियाँ तोड़ी और देवालय हनुमानजी ने ध्वंस किये थे।
अर्थात वैदिकों के आश्रम और श्रमणों के मठ और अनार्यों, दास- दस्युओं द्वारा देवालय सब प्रथक-प्रथक उद्देश्य से बनाये जाते थे।
लेकिन फिर भी
भारत में मूर्ति पूजा विकास का परिणाम नहीं है।
भारत में सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात मूर्ति पूजा ईराक और यूनान से सीख कर सर्वप्रथम श्रमण जैनों नें फिर वज्रयान बौद्धों ने अपनाई। फिर महायान बौद्धों ने अपनाई ।
फिर सनातनधर्मी श्रमण शैवों और शाक्तों ने अपनाई। फिर सौर सम्प्रदाय नें मन्दिर बनवाने प्रारम्भ किया ।फिर गाणपत्यों नें अपनाई। और अन्त में वैष्णवों नें अपनाई।
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