अविरत हरिस्मरण और निरन्तर अहर्निश जगतसेवा सबसे बड़ी पुजा है।
अनन्याश्चिन्तयन्तो माम् ये जनाः पर्युपासते ।
तेषाम् नित्याभियुक्तानाम् योगक्षेम वहाम्यहम् ।। श्रीमद्भगवद्गीता अ. 09/ श्लोक 22।
अनन्याः , चिन्तयनतः, माम् , ये, जनाः, पर्युपासते।
तेषाम् नित्याभियुक्तानाम् , योगक्षेमम् , वहामि,अहम् ।।
अनन्य भावसे जो भक्तजन मुझ परमात्मा को (ॐ कार स्वरुप जान कर निरन्तर स्मरण रखते हुए) मुझ (विष्णु परमेश्वर) की आराधना, उपासना करते हैं, मुझमें (सदेव मेरा स्मरण रखते हुवे ॐ विष्णु परमेश्वर का ही चिन्तन करने वाले ) नित्य युक्त भक्त के योगक्षेम मैं स्वयम् वहन करता हूँ। ऐसे भक्त की प्रत्यैक आवश्यक्ताओं की पुर्ति मैं स्वयम् करता हूँ, और जो पहले से उपलब्ध है उसका संरक्षण / सुरक्षा भी मैं स्वयम् ही करता हूँ। किसी अन्य देवता आदि के भरोसे उसे न छोड़ते हुए मैं स्वयम् योग क्षेम वहन करता हूँ। ऐसे भक्तों को मालूम हो कि, यदि उनकी किसी आवश्यकता की पुर्ति करने कोई वाहक आया है मतलब वह ॐ कार स्वरुप साक्षात विष्णु परमेश्वर ही सेवा कर रहे हैं। और किसी प्रकार भी जो सबकुछ सुरक्षित है वे सब भी स्वयम ॐ कार स्वरुप साक्षात विष्णु परमेश्वर ही सुरक्षा कर रहे हैं इसलिए सुरक्षित है। इसमें किसी ओर का योगदान केवल आभास मात्र है, सत्य नही। किन्तु हमें उस आभास के प्रति प्रत्यक्ष कृतज्ञता व्यक्त तो करना ही है किन्तु उन्हे ॐ कार स्वरुप साक्षात विष्णु परमेश्वर ही मानना है।
फिर अपनी, अपने परिवार- कुल- कुटुम्ब की ओर से निश्चिन्त होने के कारण हमें अपना सारा जीवन लोकसेवा में ही व्यतीत करना है। भोग में नही जन सेवा में जीवन व्यतीत हो।
बस यही धर्म है। यही कर्त्तव्य है, यही कार्य्य कर्म है।
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