ब्राह्मण ग्रन्थों में पूर्वभाग में ---
१ ब्रह्मचर्य आश्रम और ग्रहस्थाश्रम सम्बन्धी नियम और कर्मकाण्ड विधि आदि का वर्णन है। शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त (शब्द व्युत्पत्ति, भाषाशास्त्र), व्याकरण और छन्द शास्त्र तथा गन्धर्ववेद (सङ्गीत, नाट्य) के विवरण और वर्णन है। फिर
२ धर्म अर्थात आचरण के नियमों और अर्थशास्त्र (राजनीति) का वर्णन है। फिर
३ आयुर्वेद,, शिल्पवेद और धनुर्वेद, शुल्बसुत्रों जैसे वैज्ञानिक विषयों के विवरण और वर्णन हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थों के उत्तर भाग में ---
४ आरण्यक भाग में वानप्रस्थ आश्रम के नियमों, विधि और कर्तव्यों का वर्णन है। और अन्त में
५ उपनिषद भाग में , कर्ममीमांसा (कर्मयोग शास्त्र - बिना फलेच्छा के कर्म करने में क्या भाव, क्या उद्देश्य, क्या लक्ष्य रखकर कैसे कर्म करें।), तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा (जीव का ब्रह्म और जगत से सम्बन्ध । जगत का ब्रह्म से सम्बन्धों का वर्णन, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय क्रम) आदि का वर्णन है।
इन्ही ब्राह्मण ग्रन्थों के आधार पर कर्मकाण्ड के सुत्र ग्रन्थ बने हैं जिनमें -
१ शुल्बसुत्रों में मण्डल (ब्रह्माण्डों के नक्षे) यज्ञबेदी (ब्रह्माण्डों के माडल), और मण्डप (ब्रह्माण्डों का समुच्चय या सृष्टि का माडल) आदि निर्माण विधि है। ज्योतिर्विज्ञान (एस्ट्रोनॉमी और एस्ट्रो फिजिक्स आदि), शिल्पवेद (आर्किटेक्चर) आदि इसी के भाग हैं।
२ ग्रह्यसुत्रों में व्रत, पर्व, उत्सव, तीज - त्योहार, जन्मदिन, मृत्यु तिथि, संस्कार विधि, पञ्चमहायज्ञ विधि आदि समस्त नित्य उपयोगी कर्मकाण्ड विधि वर्णित हैं। उस समय मूर्तिपूजा निषिद्ध कर्म माना जाता था इसलिए मुर्तिपूजा की विधि वर्णित नहीं है। मूर्तिपूजा के लिए बाद में मठाधीशों ने अपने-अपने सम्प्रदाय / आम्नाय के आगम ग्रन्थों की रचना की।
३ श्रोत सुत्रों में अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ जैसे यज्ञों की विधि विधानों का वर्णन है।
४ धर्मसुत्रों में आचरण नियमावली है क्योंकि धर्म का तात्पर्य आचरणीय कर्तव्य कर्मों को करनें और निषिद्ध कर्मों के प्रति उपरामता है। (मन में संकल्प ही नहीं आना है, विचार ही नही आना होता है।)
विधि - विधान (संविधान और कानून) धर्मसुत्रों से ही निकले हैं। अलग अलग राज्यों और राजाओं के लिए ऋषियों द्वारा निर्मित विधि - विधान (संविधान और कानून) ही स्मृतियाँ कहलाती है। स्वायम्भूव मनु और बाद में वैवस्वत मनु द्वारा निर्धारित विधि - विधान मनुस्मृति कहलाती है।
इन्ही श्रोत सुत्रों और गृह्य सुत्रों के आधार पर कर्मकाण्ड भास्कर, कर्मकाण्ड प्रदीप आदि ग्रन्थ बनें। लेकिन तत्कालीन प्रभाव के कारण इनमें कर्मकाण्ड की क्रियाओं में तन्त्र का समावेश हो गया। और यही प्रभाव आगे बनने वाले निबन्ध ग्रन्थों में और अधिक विस्तृत होता गया।
कर्मकाण्ड भास्कर जैसे ग्रन्थो के संक्षिप्त संस्करण -
ब्रह्मनित्यकर्म समुच्चय, संस्कार विधि, पञ्चमहायज्ञ विधि, संध्या विधि, अग्निहोत्र विधि आदि ग्रन्थ बने जिनमें तन्त्र भाग भी सम्मिलित किया गया । वर्तमान पुरोहित वर्ग इन्हीं संक्षिप्त ग्रन्थों के आधार पर कर्मकाण्ड सम्पन्न कराते है।
वैदिक कर्मकाण्ड में तन्त्र ग्रन्थों, आगमों, आम्नाय ग्रन्थों और उनकी पुष्टि हेतु रचित पुराणों का कोई महत्व नही था।
लेकिन बाद में बनें मठों के महन्तों द्वारा के विधि विधान के लिए रचित तन्त्र शास्त्र (आगम ग्रन्थों और आम्नाय) में मुर्तिपूजा और मठाम्नाय या आगम ग्रन्थों में ही वर्तमान प्रचलित कर्मकाण्ड विधियों का उल्लेख है। जिसमें मन्दिर निर्माण,मूर्ति पूजा आदि के वर्णन हैं। इनमें बहुत सा भाग वेद विरुद्ध भी है। और
उन तन्त्रों के अनुसार रचित पौराणिक साहित्य के आधार पर ही नित्यकर्म पूजा प्रकाश जैसे ग्रन्थ रचे गए जिसके आधार पर पूजा - पाठ होते हैं।
स्मृतियों और पुराणों के वचनों के आधार पर हेमाद्रिपन्त का चतुर्वर्ग चिन्तामणी; माध्वाचार्य का काल माधव, कमलाकर भट्ट का निर्णय सिन्धु आदि निबन्ध ग्रन्थ बने। निर्णय सिन्धु के निर्णयों के आधार पर काशीनाथ शास्त्री उपाध्याय नें धर्मसिंधु ग्रन्थ रचा।
इस प्रकार वैदिक कर्मकाण्ड में तन्त्रों के मिश्रण से नवीन कर्मकाण्ड विकसित हुए जो कई स्थानों पर तो वैदिक कर्मकाण्ड से एकदम अलग या विपरीत हैं।
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