गुरुवार, 27 जुलाई 2023

सनातन वैदिक वर्णाश्रम धर्म प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग तथा वास्तविक धर्म- ग्रन्थ और उपासना पद्यति।

वैदिक वर्णाश्रम धर्म अर्थात सनातन धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग

सनातन वैदिक धर्म सर्वव्यापी परमात्मा को ही सबकुछ मानता है, तथा धर्मशास्त्र के रूप में वेदों को ही अन्तिम सत्य मानता है।

कृपया मेरे निम्नांकित ब्लॉग पढ़ें।---
१ "वैदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त।" 
२ "वैदिक सृष्टि उत्पत्ति के अन्तर्गत सृष्टिक्रम और सृष्टि कर्म तत्व वर्णन।" 
३ वैदिक दर्शन के आधार पर कुछ प्रश्नों के उत्तर।
४ शरीरान्तर्वर्ती प्रज्ञात्मा और प्रत्यगात्मा दो पक्षी का अर्थ।
५ प्रज्ञात्मा, प्रत्गात्मा और जीवात्मा में सम्बन्ध।
६ उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर: और परमात्मा भी है मन्त्र का अर्थ।
परमात्मा से विश्वात्मा ॐ संकल्प हुआ।
परमात्मा के विश्वात्मा ॐ संकल्प के परिणाम स्वरूप परमात्मा ही प्रज्ञात्मा परब्रह्म के स्वरूप में प्रकट हुए। जिसे परम दिव्य अक्षर पुरुष विष्णु और परा प्रकृति माया के रूप में जाना जाता है। विष्णु परमेश्वर (परम शासक) हैं।
ऋग्वेद 1/22/20 में स्पष्ट कहा गया है कि, *तद् विष्णोः परमं पदम्* सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।। 20 "
 सूरगण यानि देवता सदा विष्णु परमपद को देखते हैं।"
तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवगांसः समिन्धते। विष्णोर्यत् परमम् पदम्।। 21

मौक्ष आकांक्षी लोग विष्णु से नीचे के किसी देवता की उपासना नही करते हैं।

द्वा सुपर्णा और ऋते पिबन्ति मन्त्र के दृष्टा पक्षी प्रज्ञात्मा हैं।

फिर  प्रज्ञात्मा परब्रह्म से प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म के स्वरूप में प्रकट हुए जिसे पुरुष सवितृ और प्रकृति सावित्री के रूप में जानते हैं। इन्हें ही श्रीहरि और कमलासना (कमला) के रूप में जानते हैं।
सवितृ (हरि) महेश्वर (महा ईश्वर) हैं।

ऋग्वेद मण्डल 01/सुक्त 164/ मन्त्र 20, 
अथर्ववेद काण्ड 09/ सुक्त14/मन्त्र 20, 
मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/ मन्त्र 01 एवम् 02
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 06 एवम् 07

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानम् वृक्षम् परिषस्वजाते ;
तयोरन्यः पिप्पलम्  स्वादन्त्यनश्नन्नन्यो,
 अभिचाकशीति।
अर्थ --- " प्रज्ञात्मा परब्रह्म और प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म ये दो पक्षी मित्रता पुर्वक एकसाथ  एक ही (पिप्पल) वृक्ष पर रहते हैं।अर्थात  एक ही शरीर में रहते हैं।
उनमें से प्रत्यागात्मा / अन्तरात्मा  (ब्रह्म)  पिप्पल वृक्ष के फलों का (यानि कर्मफलों का) भोगकरता है और दुसरा पक्षी प्रज्ञात्मा  /प्रज्ञानात्मा   (परब्रह्म)   केवल दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है।"

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोनीशया, शोचति मुह्यमान;
जुष्टम् यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य , महिमानमिति वीतशोकः।
अर्थ --- इस समान वृक्ष पर (शरीर में) प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) भोगों में निमग्न होकर अनीश होकर अर्थात आत्मसंयम आत्म नियन्त्रण नही होने के कारण ईशित्व रहीत होकर  अनात्मा में आत्मभाव होने से मोहित होकर शोचनीय अवस्था में रहता है। वही प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा परब्रह्म की महिमा को देखता है तब प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा)  प्रज्ञात्मा परब्रह्म से जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
क्योंकि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।"

कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली 03/ मन्त्र 01 , 

ऋतम् पिबन्तौ सुकृतस्य लोके, गुहाम् प्रविष्टौ परमें परार्धे ;
छाँयातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।"
अर्थ --- "सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक में,  (या मानव देह में)  परम परार्ध  गुहा (चित्त) मे प्रविष्ट होकर ऋत का पान करने वाले छाँया और धूप के समान प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म  और  प्रज्ञात्मा परब्रह्म हैं।"

 "श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय03/मन्त्र20
कठोपनिषद 1/02/20 , 

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः"
अर्थ --- "इस जीवधारि के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा  सुक्ष्मतम  भी है और  महा से अतिमहा भी है।  आत्मा/ प्रज्ञात्मा की उस महिमा (महत्ता) को उस जीवधारी को धारण करने वाले प्रज्ञात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामनारहित, जो जानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों का आपसी व्यवहार या बर्ताव ही सब क्रियाएँ है; यह जानने वाला अकृत पुरुष ;  जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है वे ही जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञात्मा परब्रह्म को जान पाते हैं।"

द्वा सुपर्णा और ऋते पिबन्ति मन्त्र के मीठे मीठे फल भक्षी पक्षी प्रत्यगात्मा (सबकी अन्तरात्मा) हैं। यह कभी प्रज्ञात्मा की ओर आकर्षित होता है तब ज्ञान स्वरूप विवेकवान होता है। लेकिन जीवात्मा की ओर झुकाव होने पर सकामी भोगी हो जाता है।

फिर प्रत्यगात्मा ब्रह्म से जीवात्मा अपरब्रह्म के स्वरूप में प्रकट हुए जिसे  अपर पुरुष जीव नारायण और त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति आयु श्री तथा लक्ष्मी के रूप में जानते हैं। नारायण जगदीश्वर/ जगदीश (जगत के शासक) हैं।
पुराणों में नारायण का वासस्थान शिशुमार चक्र के मध्य में माना गया है जिसका वर्णन विष्णु पुराण ०२/०९/१ - २ में तथा भागवत पुराण आदि कई पुराणों में है। इस प्रकार ये सबसे निकटतम देव हैं। इसलिए  बहुत से सनातन धर्मी इनके भक्त हैं।
कम्बोडिया में अंकोरवाट का विष्णु मन्दिर ईसापूर्व १०५०० वर्ष की स्थिति में शिशुमार चक्र के नक्षे का पृथ्वी पर प्रतिरूप है।

फिर जीवात्मा अपर ब्रह्म से भूतात्मा हिरण्यगर्भ के रूप में प्रकट हुए जिसे प्राण/ देही/ त्वष्टा तथा धारयित्व- धृति/ अवस्था/ रचना के रूप में जानते हैं। हिरण्यगर्भ ईश्वर (शासक) हैं।
निम्न श्रेणी के सकामी - भोगी सनातनी स्वयम् को जीवात्मा मानते हैं

फिर भूतात्मा हिरण्यगर्भ से सुत्रात्मा प्रजापति के स्वरूप में प्रकट हुए जिसे ओज और आभा या रेतधा और स्वधा के रूप में जाना जाता है। जिन्हें आधिदैविक रूप में मुख्यतः *दक्ष प्रथम - प्रसुति* , रुचि-आकुति और कर्दम- देवहुति के रूप में जानते हैं। प्रजापति जीव जगत के स्वामी हैं।

सुत्रात्मा प्रजापति से अणुरात्मा वाचस्पति के स्वरूप में प्रकट हुए , जिन्हें तेज - विद्युत के अध्यात्मिक रूप और इन्द्र- शचि के आधिदैविक रूप में जानते हैं। वाचस्पति वाक के स्वामी हैं। अर्थात वाचस्पति की शक्ति वाक है।

अणुरात्मा ब्रहस्पति से विज्ञानात्मा ब्रहस्पति के स्वरूप में प्रकट हुए जिसे विज्ञान - विद्या या चित्त- वृत्ति या महतत्व के अध्यात्मिक रूप में और आदित्य तथा आदित्य शक्ति के रूप में जानते हैं।
ब्रहस्पति बड़े स्वामी हैं। ब्रहस्पति की तीन शक्ति (पत्नियाँ) हैं १ शुभा, २ ममता, और ३ तारा।

निम्नतम अध्यात्मिक स्थिति में भी सनातनधर्मी स्वयम् को कम से कम विज्ञानात्मा तो मानता ही है।

विज्ञानात्मा वाचस्पति से ज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति के रूप में प्रकट हुए जिसे बुद्धि - मेधा और वसु तथा वसु शक्ति के रूप में जानते हैं।
ब्रह्मणस्पति प्रजापति की सन्तान ब्रह्मज्ञ ब्राह्मणों के स्वामी हैं। ब्रह्मणस्पति की शक्ति (पत्नी) सुनृता है।

ज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति से लिङ्गात्मा पशुपति के स्वरूप में प्रकट हुए जिसे अहंकार - अस्मिता और रुद्र - रौद्री (शंकर-उमा) के रूप में जानते हैं।
पशुपति पशुवत जीवन यापन करने वाले सिद्धान्त रहित, आचार - व्यवहार से पतितों के स्वामी हैं।
सकामोपासकों के ये इष्ट देवता हैंभूमि वास होने के कारण सर्वाधिक निकट हैं।

लिङ्गात्मा पशुपति से मनसात्मा गणपति प्रकट हुए, जिसे मन तथा संकल्प - विकल्प के अध्यात्मिक रूप और स्वायम्भूव मनु तथा शतरूपा के आधिदैविक रूप में जानते हैं। गणपति गणों (समुदायों) के स्वामी हैं, जैसे राष्ट्रपति

मनसात्मा गणपति से स्व और स्वभाव के अध्यात्मिक स्वरूप में प्रकट हुए जिसे सदसस्पति और मही के आधिदैविक रूप में जानते हैं। सदसस्पति सभापति हैं। समिति के अध्यक्ष हैं। जैसे लोकसभा अध्यक्ष।

स्वभाव भारती ने स्वयम् को त्रिरूपात्मक प्रकट किया - 
स्वाहा (या सात्विक स्वभाव), भारती
वषट (राजसी स्वभाव) सरस्वती। तथा
स्वधा (तामसी स्वभाव), ईळा
यही इड़ा और इला भी कहलाती है।
ये सब सनातन धर्मियों के आदरणीय पूज्य देव और देवता हैं। लेकिन अन्तिम सत्य केवल परमात्मा ही है। मूल मन्त्र ॐ है। 
परम ईश्वर विष्णु ही है।
ऋग्वेद 1/22/20 जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि, तद् विष्णोः परमं पदम् सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।। 20 "
 सूरगण यानि देवता सदा विष्णु परमपद को देखते हैं।"
तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवगांसः समिन्धते। विष्णोर्यत् परमम् पदम्।। 21 
सविता का सावित्री मन्त्र गुरु मन्त्र है। जिसे गायत्री मन्त्र भी कहते हैं। यह उपासना का मूख्य मन्त्र है।
साकार रूप में नारायण की आराधना की जाती है।
शेष सभी देवता हैं जो अलग-अलग कार्य निर्वहन करते हैं।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार प्रजापति ने अग्नि को ऋग्वेद, वायु को यजुर्वेद, आदित्य को सामवेद और अङ्गिरा को अथर्वेद का ज्ञान दिया।* 
पौराणिक काल में महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास अर्थात वेद व्यास जी अपने चार शिष्यों को अलग अलग वैदिक संहिताओं का ज्ञान प्रदान किया। 
 *वेदव्यास जी ने
 १ पैल को ऋग्वेद, २ वैशम्पायन को यजुर्वेद,
३ जैमिनी को सामवेद और 
४ सुमन्तु को अथर्ववेद की शिक्षा दी।* 
५ सुत और शौनक को इतिहास और पुराण पढ़ाया। 
(सुचना - वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर ने विष्णु पुराण की रचना की थी। )"
वेदों की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थों, ब्राह्मण ग्रन्थों का उत्तर भाग को आरण्यक कहते हैं और आरण्यकों का अन्तिम भाग जिसमें परमात्मा, अन्तरात्मा और जगत के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है उसे उपनिषद कहते हैं। ये भी प्रमाण कोटी में ग्राह्य हैं।
वेदिक मन्त्र संहिता के लगभग समतुल्य ही ब्राह्मण ग्रन्थों की भी मान्यता है।

२ *ब्राह्मण ग्रन्थ* 

ऋग्वेद :

ऐतरेयब्राह्मण-(शैशिरीयशाकलशाखा)

कौषीतकि-(या शांखायन) ब्राह्मण (बाष्कल शाखा)

सामवेद :

प्रौढ(पंचविंश) ब्राह्मण

षडविंश ब्राह्मण

आर्षेय ब्राह्मण

मन्त्र (या छान्दौग्य) ब्राह्मण

जैमिनीय (या तलवाकार) ब्राह्मण

यजुर्वेद

शुक्ल यजुर्वेद :

शतपथब्राह्मण-(माध्यन्दिनीय वाजसनेयि शाखा)

शतपथब्राह्मण-(काण्व वाजसनेयि शाखा)

कृष्णयजुर्वेद :

तैत्तिरीयब्राह्मण

मैत्रायणीब्राह्मण

कठब्राह्मण

कपिष्ठलब्राह्मण

अथर्ववेद :

गोपथब्राह्मण (पिप्पलाद शाखा)"

 *आरण्यक* 

1जैमिनी, 2सांख्यायन, 3छान्दोग्य, 4 एतरेय, 5 तैत्तरीय और 6 मैत्रायणी (प्रथक है।) 

अवेस्ता - प्राचीन ईरान में मग - मीढ सम्प्रदाय और संस्कृति का धर्मग्रन्थ अवेस्ता भी अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ही था। " जिस समय वेदव्यास जी भारत में वेदों की शिक्षा अपने शिष्यों को प्रदान कर रहे थे, ठीक उसी समय ईरान में जरथुस्त्र अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता की जेन्द टीका कर उस जेन्द टीका को मूल ग्रन्थ अवेस्ता में गड्ड-मड्ड कर जेन्दावेस्ता की शिक्षा दे रहे थे।

उपनिषद* 

इन्ही ब्राह्मण आरण्यकों का अन्तिम भाग वेदान्त या ब्रह्मविद्या, ब्रह्मसूत्र, और उपनिषद कहलाते हैं। तेरह उपनिषद मुख्य हैं। 
ऐतरेय आरण्यक के चौथे, पाँचवे और छटे अध्याय अर्थात  ऐतरेयोपनिषद और कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् कहलाते हैं।

शुक्ल यजुर्वेद संहिता माध्यन्दिन शाखा का चालिसवाँ अध्याय ईशावास्योपनिषद है। यह शुक्ल यजुर्वेद की कण्व शाखा में भी थोड़े से अन्तर से उपलब्ध है।

 शुक्ल यजुर्वेद के काण्वी शाखा के वाजसनेयी ब्राह्मण के अन्तसुत और शौनकर्गत आरण्यक भाग के वृहदाकार होनें के कारण  वृहदारण्यकोपनिषद नाम से प्रसिद्ध है।

कृष्णयजुर्वेदीय श्वेताश्वतरोपनिषद तथा कृष्णयजुर्वेदीय कठ शाखा का कठोपनिषद तैत्तरीय शाखा के तैत्तरीय आरण्यक के दस अध्यायों में से सातवें, आठवें और नौवें अध्याय अर्थात तैत्तरीयोपनिषद कहलाता है।

सामवेद के तलवाकार ब्राह्मण के तलवाकार उपनिषद जिसे जेमिनीयोपनिषद भी कहते हैं इसके प्रथम मन्त्र के प्रथम शब्द  केनेषितम् शब्द के कारण केनोपनिषद नाम से प्रसिद्ध है तथा सामवेद के तलवाकार शाखा के छान्दोग्य ब्राह्मण के दस अध्याय में से तीसरे अध्याय से दसवें अध्याय तक को छान्दोग्योपनिषद कहते हैं।

अथर्वेदीय पिप्पलाद शास्त्रीय ब्राह्मण के  प्रश्नोपनिषद एवम् अथर्ववेद की शौनक शाखा के  मुण्डकोपनिषद और  माण्डूक्योपनिषद्

तथा मैत्रायणी आरण्यक का अन्तिम अध्याय  मैत्रायणी उपनिषद है।

1 ईश, 2 केन 3 कठ, 4 मण्डुक, 5 माण्डूक्य, 6 एतरेय, 7 तैत्तरीय, 8 प्रश्न, 9 श्वेताश्वतर, 10 वृहदारण्यक, 11 छान्दोग्य, उक्त ग्यारह उपनिषदों पर भगवान शंकराचार्य जी ने भाष्य लिखे हैं अतः ये विशेष माने जाते हैं। इनके अलावा दो और वेदिक उपनिषद हैं; 12 कौषीतकि, 13 मैत्रायणी उपनिषद।"
बुद्धियोग/ कर्मयोग शास्त्र* - किसी भी कर्म को किस आशय और उद्दैश्य से कैसे किया जाय ताकि, कर्म का लेप न हो इसकी विधि कर्मयोग शास्त्र, बुद्धियोग है।(वर्तमान में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता है);"

ऋग्वेदोक्त देवी सुक्त में देवी वाक अम्भृणी (वागाम्भृणी) ने बहुश्रुत के प्रति कहा है--
यम् कामये तम् तमुग्रम् कृणोमि,
तम् ब्रह्माणम् तमृषिम् तम् सुमेधाम्। 
मन्त्र 5
मैं जिस-जिस पुरुष की रक्षा करना चाहती हूँ, उस-उसको सबकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ। उसी को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, परोक्षज्ञान-सम्पन्न ऋषि (जिन्हे प्रत्यक्ष ज्ञान हो ऐसे आत्मज्ञानी- ब्रह्मज्ञानी ऋषि) तथा उत्तम मेधाशक्ति से युक्त बनाती हूँ। 

वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों की व्याख्या में सहायक षड वेदाङ्ग हैं। 

षड वेदाङ्ग निम्नलिखित हैं ---

१ प्रतिशाख्य* - शिक्षा - उच्चारण करने की विधि --- शिक्षा के अन्तर्गत उच्चारण विधि, फोनेटिक्स का अध्ययन होता है। जटापाठ, घन पाठ आदि के माध्यम से वेदों के मन्त्र अपरिवर्तित, सुरक्षित और एक समान उच्चारण वाले हैं। यह भी शिक्षा का ही भाग है।
ऋग्वेद एवम् सामवेद का प्रातिशाख्य ग्रन्थ है- पुष्पसुत्र ।

व्याकरण - व्याकरण के लिए वर्तमान में सबसे परिष्कृत ग्रन्थ पाणिनी की *अष्टाध्याई* है। अष्टाध्याई पर पतञ्जलि का भाष्य और वररुचि कात्यायन का वार्तिक है। अष्टाध्याई की सरल पद्यति लघुसिद्धान्त कौमुदी, मध्यसिद्धान्त कौमुदी और सिद्धान्त कौमुदी है। 

निरुक्त - भाषा शास्त्र, शब्द व्युत्पत्ति, निघण्टु (शब्दकोश) का सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ यास्काचार्य का *निरुक्त* है। इसके अलावा अमरसिंह का अमरकोश भी सहायक है।

छन्द -  छन्द शास्त्र का सबसे प्राचीन वर्तमान में  उपलब्ध ग्रन्थ पिङ्गल का छन्दशास्त्र है। जिसे पिङ्गल शास्त्र भी कहते हैं।

ज्योतिष - ज्योतिष के मुख्य दो भाग हैं प्रथम सिद्धान्त और दुसरा संहिता। सिद्धान्त के भी दो भाग हैं १ गणिताध्याय जिसमें एस्ट्रोनॉमी सम्बन्धित ग्रह गणित है और २ गोलाध्याय जिसमे खगोल का वर्णन , तारों की स्थिति आदि वर्णित है। भुगोल भी इसी का अङ्ग था जो वर्तमान में स्वतन्त्र शास्त्र है।
संहिता ज्योतिष (नारद संहिता, गर्ग संहिता, रावण संहिता, वराह संहिता,और भद्रबाहु संहिता), मेदिनी ज्योतिष यानी राष्ट्रीय भविष्य ज्ञान, मुहुर्त, वास्तु, सामुहिक शास्त्र, शकुन शास्त्र, अंकविद्या आदि अनेक विभिन्न विषयों के सम्मिलित ज्ञान को संहिता कहते हैं। "
संहिता के अन्तर्गत ग्रहों उपग्रहो, धुमकेतु आदि की आकाशीय स्थिति के आधार पर जगत का भविष्य ज्ञान, वायु और बादलों की स्थिति और पशु-पक्षियों के व्यवहार (शकुन) के आधार पर मौसम विज्ञान, महत्वपूर्ण कार्यों के लिए उचित समय निर्धारण (मुहुर्त), आवास, व्यवसाय, कार्यालय के लिए उचित स्थान निर्धारण (वास्तु) आदि का वर्णन है। 
ज्योतिष का घनिष्ठ सम्बन्ध शुल्बसुत्रों से है।

कल्प - कल्प के चार भाग हैं ---

श्रोतसुत्र - श्रोतसुत्रों मे बड़े यज्ञों का विधि-विधान और निषेधाज्ञा का वर्णन है। वर्तमान में कर्मकाण्डी पण्डित यज्ञविधि आदि निबन्ध ग्रन्थों के सहारे कर्मकाण्ड करते हैं।

ग्रह्यसुत्र - ग्रह्यसुत्रों में संस्कार, व्रत, पर्व, उत्सव, और तीज - त्योहार मनाने , जन्मदिन, मृत्यु दिवस आदि के कर्मकाण्ड का विधि-विधान तथा निषेधाज्ञा है। इनके निबन्ध ग्रन्थ कर्मकाण्ड भास्कर आदि हैं।
वर्तमान में पण्डित लोग ब्रह्मनित्यकर्म समुच्चय, संस्कार विधि, विवाह विधि, उपनयन प्रयोग आदि निबन्ध ग्रन्थों के सहारे कर्मकाण्ड करते हैं।

शुल्बसुत्र - शुल्बसुत्रों में ब्रह्माण्डों और सृष्टि के नक्षों की प्रतिकृति स्वरूप मण्डल निर्माण , यज्ञवेदी और मण्डप आदि बनाने की विधि-विधान तथा  निषेध हैं। 
वर्तमान में पण्डित लोग यज्ञवेदी और मण्डप निर्माण विधि के निबन्ध ग्रन्थों से कार्य करते हैं।

धर्मसुत्र -   कार्य - अकार्य, कर्तव्याकर्तव्य आदि धर्मशास्त्रीय निर्णयों हेतु धर्मसुत्र रचे गए थे। इन्ही की स्मृतियों के आधार पर मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि स्मृति ग्रन्थ बने जिनमें अधिकांश राज्यों और राजाओं ने संविधान के रूप में अपनाया। 
इनके आधार पर वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित निबन्ध ग्रन्थ निर्णय सिन्धु और धर्मसिंधु हैं।

स्मृतियाँ* 

1 अङ्गिरा,2 व्यास,3 आपस्थम्ब, 4 दक्ष, 5 विष्णु, 6 याज्ञवल्क्य, 7 लिखित, 8 संवत, 9 शंख, 10 ब्रहस्पति,11 अत्रि, 12 कात्यायन, 13 पाराशर, 14 मनु, 15औशनस, 16 हारीत, 17गोतम,18 यम।

 *उपस्मृतियाँ* 

1 कश्यप, 2पुलस्य, 3 नारद,  4 विश्वामित्र,  5 देवल,  6  मार्कण्डेय,  7 ऋष्यशङ्ग 8 आश्वलायन,   9 नारायण,  10 भारद्वाज,  11  लोहित,   12 व्याग्रपद,   13 दालभ्य,   14 प्रजापति,  15 शाकातप, 16 वधुला, 17 गोभिल, "

वैज्ञानिक विषयों के चार उपवेद हैं।---

आयुर्वेद  -  "आयुर्वेद, ऋग्वेद का उपवेद है। कुछ आचार्य आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं।
आयुर्वेद के उपलब्ध ग्रन्थ चरक संहिता- सुश्रुत संहिता- वाग्भट्ट संहिता, भावप्रकाश संहिता, शार्ङधर संहिता, माधव निदान संहिता आदि हैं।"
आयुर्वेद जीवन पद्यति है। औषध विज्ञान के अलावा शल्य चिकित्सा, फिजियोथैरेपी के रूप में अष्टाङ्गयोग, मनोचिकित्सा हेतु मन्त्र शास्त्र आदि सबका समावेश आयुर्वेद में है। अश्विनी कुमार, ऋभुगण वैदिक वैद्य और शल्य चिकित्सक थे। धन्वन्तरि उत्तर वैदिक काल के वैद्य थे।
चरक और सुश्रुत पौराणिक काल के वैद्य प्रसिद्ध हैं।


धनुर्वेदयजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद का उपलब्ध ग्रन्थ भेल संहिता है
धनुर्वेद युद्धशास्त्र या मिलिट्री साइन्स है। अस्त्र-शस्त्र निर्माण, रथ और विमान निर्माण, जहाज निर्माण, रखरखाव और सञ्चालन से शारीरिक - मानसिक दक्षता, सटीक निशाना साधना, कुशल प्रहार और उचित समय पर आक्रमण आदि का विज्ञान है।

गन्धर्ववेद - गन्धर्ववेद, सामवेद का उपवेद हैगन्धर्ववेद का उपलब्ध ग्रन्थ कश्यप संहिता है।
सङ्गीत, नाट्यशास्त्र और नृत्य कला, मञ्च निर्माण, वाद्य निर्माण, सुत्रधार, कलाकारों आदि की व्यवस्था आदि गन्धर्ववेद का क्षेत्र है। ध्वनि विज्ञान का महत्वपूर्ण भाग इसके अन्तर्गत आता है।

४ शिल्पवेद या स्थापत्य वेद  अथर्ववेद का उपवेद है। स्थापत्य वेद/ शिल्पवेद का प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ हारीत संहिता है।
शिल्पवेद या स्थापत्य वेद  - आर्किटेक्ट और आर्किटेक्चर का विज्ञान है। पथ निर्माण, सेतु निर्माण, भवन निर्माण आदि का विज्ञान है। वर्तमान में भी कई प्राचीन भवन और मन्दिर तथा किले और पथ इसके प्रमाण हैं।
विश्वकर्मा और मयासुर, राजा भोज इस शास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य हैं।

अर्थशास्त्र - अर्थशास्त्र को पञ्चम उपवेद माना गया है। राजनीति और कूटनीति इसके मुख्य क्षेत्र हैं।
प्राचीन ऋषियों के अलावा विष्णु गुप्त कौटिल्य इसके सर्वाधिक प्रसिद्ध अर्वाचीन आचार्य थे।

निर्णय करने की छ विधियाँ षड शास्त्र या षड दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हैं। ---

पूर्व मीमांसा दर्शन ---
वैदिक मन्त्र संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रतीत होने वाले विभिन्न मत मतान्तरों की समीक्षा कर धर्म जिज्ञासा होनें पर मीमांसा करने हेतु आचार्य जैमिनी नें पूर्व मीमांसा दर्शन रचा।

उत्तर मीमांसा दर्शन - आरण्यकों और उपनिषदों में प्रतीत होने वाले मत मतान्तरों की समीक्षा कर ब्रह्म जिज्ञासा  होनें पर मीमांसा करने हेतु आचार्य बादरायण नें उतर मीमांसा दर्शन रचा। जिसे ब्रह्मसूत्र या शारीरिक सुत्र भी कहते हैं।

सांख्यशास्त्र या सांख्य दर्शन --- तत्व मीमांसा हेतु रचित सांख्य कारिकाओं के आधार पर महर्षि कपिल नें सांख्य दर्शन रचा।

योग दर्शन - चित्त वृत्ति निरोध कर समाधि में स्थित होने के लिए महर्षि पतञ्जलि ने योग शास्त्र या योग दर्शन की रचना की।

न्याय दर्शन --- विभिन्न तर्क- वितर्क, कुतर्कों का खण्डन -मण्डन कर सही निष्कर्ष पर पहुंचने की विधि बतलानें हेतु गोतम ऋषि ने न्याय दर्शन रचा।

वैशेषिक दर्शन - भौतिक विज्ञान की दृष्टि से सृष्टि की उत्पत्ति और तत्व विवेचन हेतु महर्षि कणाद ने वैशेषिक दर्शन की रचना की। उनके द्वारा परमाणु से सृष्टि का सृजन बतलाया है।

७ कर्मयोग शास्त्र श्रीमद्भगवद्गीता -- प्रत्येक व्यक्ति चाहे अनचाहे कर्म करता ही है। उचित यह है कि, हम केवल शास्त्रोक्त कर्म ही करें और शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही करें। साथ ही सोद्देश्य , निष्काम भाव से शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से कर्तव्य मानकर करें। और यह मान्यता दृढ़ करलें कि, प्रकृति के तीनों गुणों के पारस्परिक क्रियाओं से ही कर्म हो रहे हैं। इसमें कोई कर्ता - भोक्ता नही है। यदि ऐसा दृढ़ विश्वास न हो सके तो कर्मफल ईश्वरार्पण कर दें। 
यह कर्मयोग विधि श्रीमद्भगवद्गीता में बतलाई गई है।

ये समस्त ग्रन्थ वैदिक साहित्य कहलाते हैंये सब वैदिक मन्त्र संहिताओं को समझने में सहायक ग्रन्थ हैं। इनके अध्ययन के बिना वेदों को नही समझा जा सकता। इनके अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था गुरुकुल में रह कर ही हो सकती है। इनके अध्ययन में कम से कम बीस वर्ष और अधिकतम चालिस वर्ष लगते हैं।

वैदिक सनातन धर्म की उपासना पद्यति पञ्च महायज्ञ और अष्टाङ्ग योग है।  

महाभारत/ अध्याय 27 (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय) /03/ 09 से 16 के अनुसार सृष्टि के आदि में प्रजापति ने देवताओं और मनुष्यों को रच कर कहा कि, मनुष्यों, तुम वेदिक विधि से यज्ञ करके देवताओं को यज्ञभाग देकर देवताओं की उन्नति करो, इसके बदले देवता गण तुम्हें भोग्य सामग्री देंगे। उनके द्वारा प्रदत्त भोग्य सामग्री का आवश्यक्तानुसार भोग ही उचित है। बिना देवताओं के दिये और अनावश्यक भोग निश्चित ही चोरी मानी जायेगी।"

पञ्च महायज्ञ - यज्ञ का तात्पर्य परमार्थ कर्म है।  सर्वभूतहितेरता व्यक्ति द्वारा किये जानें वाले ऐसे कर्म जिससे सर्वहित हो वे यज्ञ कहलाते हैं।  पञ्च महायज्ञों में से एक ब्रह्मयज्ञ का ही एक भाग वेदाध्ययन या स्वाध्याय ,जप तथा अष्टाङ्ग योग है। देव यज्ञ में प्रकृति से प्राप्त सुख सुविधाओं, उपहारों के लिए देवताओं के रूप में परमात्मा का आरधन है। भूत यज्ञ में सर्वभूतों की यथायोग्य सेवा है। पर्यावरण रक्षण है। नृ यज्ञ में मानवसेवा है। तो पितृयज्ञ में असहायों ,बेसहाराओं, रोगी, अशक्तों वृद्धों की सेवा तथा समस्त पूर्वजों के प्रति श्रद्धावन्त हो कूप, तड़ाग, धर्मशाला, सदावृत, विद्यालय, चिकित्सालय आदि बनवाने में सहयोग कर उनकी अतृप्त इच्छा पूर्ति करना और श्राद्ध तर्पण करना निहित है। अतः
पञ्चमहायज्ञ किसी भी व्यक्ति विशेष का हित साधन नही अपितु सर्वजन हिताय कर्म है। पञ्च महायज्ञ कर्तव्य है।करणीय कर्म या श्रीमद्भगवद्गीतोक्त कार्य कर्म है।अतः पञ्च महायज्ञ धर्म ही है। और धर्म पालन में आई बाधाओं का समाधान  निश्चयात्मिका बुद्धि से धैर्यपूर्वक करनें के दौरान तितिक्षा यानी बिना परेशानी महसूस किये, प्रसन्नता पूर्वक कष्ट सहन करना ही तप है। 
इसके लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को अपने अपने वर्णानुसार कर्तव्य पालन करते हुए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में प्रवेश कर वर्णाश्रम धर्म का कठोरता से पालन करने और पञ्च महायज्ञ और अष्टाङ्ग योग साधना करते हुए धर्म, अर्थ, काम और मौक्ष पुरुषार्थ प्राप्त किए जाते हैं।

विवेक जागृत होने पर ऋत का ज्ञान होने के बाद आत्मज्ञान/ ब्रह्मज्ञान होने से मौक्ष प्राप्त होना 
ही परम पुरुषार्थ है।
यह प्रवृत्ति मार्ग का विवरण पूर्ण हुआ। अब निवृत्ति मार्ग का वर्णन किया जाएगा।

वैदिक निवृत्ति मार्ग ---

निवृत्ति मार्ग के अन्तर्गत व्यक्ति माता- पिता और गुरुजनों की आज्ञा प्राप्त कर ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधे संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो सकता है। या माता- पिता और गुरुजनों की आज्ञा प्राप्त कर एवम् पत्नी तथा बच्चों की सहमति प्राप्त कर ग्रहस्थ आश्रम से सीधे संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो सकता है।
अथवा वानप्रस्थ आश्रम में केवल गुरुजनों से आज्ञा लेकर संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो सकता है। लेकिन यदि गुरुकुल का सञ्चालन कर रहा हो तो गुरुकुल के अन्य जनों और विद्यार्थियों तथा उनके माता-पिता/ पालकों की भी सहमति प्राप्त कर संन्यास ले सकता है।
संन्यास लेनें के पहले कृच्छ  चान्द्रायण व्रत कर यज्ञ किया जाता है। जिसमें अपनी सम्पूर्ण सामग्रियों का दान कर  भिक्षा में प्राप्त की गई केवल एक कोपिन पहन कर वन में प्रवेश कर जाते हैं। उसके बाद कभी भी रहवासी क्षेत्र से न्युनतम दूरी पर ही विचरण कर सकते हैं। भूले भटके कोई भटका हुआ यात्री मिल जाए तो उसकी प्रार्थना पर उसकी सहायता और मार्गदर्शन कर सकते हैं। इसके अलावा उससे किसी प्रकार की चर्चा निषिद्ध रहती थी।
यह वास्तविक निवृत्ति मार्ग था। जिसे शुकदेव जी और याज्ञवल्क्य की कथा में देखा जा सकता है।
आजकल नगरीय क्षेत्रों में रहने वाले बाबा लोग वस्तुतः निवृत्त और संन्यासी है ही नही।

यह है सनातन वैदिक धर्म। न इसमें कहीं कोई मठ मन्दिरों का स्थान है, न पुराणों का। केवल वैदिक साहित्य, सेवा, पञ्च महायज्ञ, अष्टाङ्गयोग और ज्ञान का ही महत्व है।










शनिवार, 22 जुलाई 2023

वेद विरोधी, नास्तिक, अनीश्वरवादी यक्ष,राक्षसों का पूजक अर्हतों का उपासक जैन सम्प्रदाय।


जैन सम्प्रदाय नाकोड़ा भैरव और भैरवी , मणिभद्र , कुबेर, धरणेन्द्र, घण्टाकर्ण आदि यक्षों - पद्मावती आदि यक्षिणी और राक्षसों की पूजा करने वाला। रावण को अगला तीर्थंकर मानने वाला सम्प्रदाय है।
विष्णु, ब्रह्मा आदि देव और, शंकर, इन्द्र आदि देवताओं को वे उनके तीर्थंकरों के सेवक के रूप में मानते हैं और उनके मन्दिरों में दर्शाते हैं।
तथा जैन सम्प्रदाय उनके सम्प्रदाय के तथाकथित तीर्थंकरों और उनके अनुसार निर्वाण को प्राप्त हो चुके अर्हतों को अपना इष्ट मानता है।
जैन सम्प्रदाय वेद विरोधी अर्थात नास्तिक, अनीश्वरवादी है। उनके अनुसार सृष्टि स्वतः कार्य-कारण वाद के अनुसार अस्तित्व में है। सृष्टि का रचियता कोई ईश्वर या देव नही है। सृष्टि अनादि अनश्वर है।

रजनीश भी मूलतः जैन ही थे।
रजनीश अच्छे अध्येता थे।
जन्मतः रजनीश तरणतारण सम्प्रदाय के जैन थे।
वे जैन आचार्य भी रहे।
मतलब जैन संस्कार उनमें कूट-कूट कर भरे थे।
श्रीकृष्ण के चचेरे भाई नेमीनाथ के समय से जैन सम्प्रदाय अस्तित्व में आया। लेकिन वास्तविक अस्तित्व में जैन सम्प्रदाय पार्श्वनाथ के अनुयाई महावीर स्वामी लाये। इसके पहले जैन सम्प्रदाय का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था।

बुधवार, 19 जुलाई 2023

वैदिक सनातन धर्म के पतन का मुख्य कारण गुरुकुलों की समाप्ति।

वैदिक सनातन धर्म के पतन में महत्वपूर्ण कारक गुरुकुल का अभाव है गुरुकुल और संयुक्त परिवार की समाप्ति है। 
गुरुकुल और संयुक्त परिवार की समाप्ति के मूल में नौकर बनने (नौकरी) की इच्छा है।  
तथाकथित वैदिक और उत्तर वैदिक काल अर्थात  द्वापर युग के प्रारम्भ तक भारत में गुरुकुल में प्रशिक्षित स्नातक अपनी योग्यता और रूचि का व्यवसाय अपनाता था, तब-तक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रही। लेकिन द्वापरयुग के अन्तिम चरण में गुरुकुल का स्थान जब परिवार ने ले लिया तो जातिप्रथा जन्मी। 
इसमें धर्मसुत्र रचियताओं नें एक छोटा सा छिद्र छोड़ दिया कि, ब्राह्मण वर्ण के बालकों को गुरुकुल प्रवेश पाँच से आठ वर्ष में, क्षत्रिय बालकों को आठ से बारह वर्ष तक और वेष्यों को तो समावर्तन की वय (सोलह वर्ष) तक गुरुकुल प्रवेश की छूट दे दी। यहीँ से परिवारों की आसक्ति (लगाव) बच्चों में बढ़ती गई और परिणाम स्वरूप जब गुरुकुल में बच्चों को न भेजकर परिवार में बच्चों को पालने की प्रथा बढ़ी तो पहले स्वयम् की कारीगरी वाले पारिवारिक व्यवसाय पनपे। उनने जातिप्रथा को जन्म दिया। और व्यवसाय परिवर्तन के विकल्प छीन लिया। बस यहीं से अव्यवस्था का प्रारम्भ हुआ। घर पर रहकर शास्त्राध्ययन बन्द हो गया। बच्चे एवम् युवक नई तकनीक से परिचित नही हो पाते थे। अस्त्र-शस्त्र निर्माण एवम् युद्ध कला प्रशिक्षण के अभाव में सामन्तों के लठैतों का सैन्य बल जिन्हें सामन्तों द्वारा प्रदत्त कृषि से आजीविका चलाना होती थी, मूलतः ऐसे कृषक लठैतों  की  पदाति सेना सीमा पार के आक्रांताओं से युद्ध करने भेज दिये जाते थे। 
राजाओं की मुख्य सेना बहुत कम थी जो परस्पर लड़ने भिड़ने में ही प्रशिक्षित थी। विदेशी तकनीकी और युद्ध कौशल का ज्ञान नहीं था। अतः परास्त हुए। और पराजित सैनिकों का धर्मान्तरण आसान हो जाता था। गुरुकुलों के अभाव में इन्हें फिर शुद्ध कर घर वापसी का विकल्प समाप्त हो गया था। 
विदेशी शासकों ने पहला निशाना ही बचे-खुचे गुरुकुलों को बनाया। जनता को नौकरी का प्रलोभन दिया। दासों (नौकरों) की  मानसिकता स्वामी (मालिक) के अनुकूल होना स्वाभाविक ही है। ये है सनातन वैदिक धर्म के पतन के कारण।

श्री मयंक शर्मा (वामपन्थी क्वोरा लेखक) नें भी इसी बात को इन शब्दों में प्रकट किया है। 
"हिन्दू धर्म की खासियत ही है 'नियमों में लचीलापन रखना'। मतलब धर्म परिवर्तन के लिए इच्छुक वर्ग की नज़र में जो बात एक प्रमुख आकर्षण है, वह हिन्दू धर्म में है ही नहीं। और जो नियमों में नहीं बंधना चाहता, वह धर्म परिवर्तन करता ही नहीं। उसको क्या फर्क पड़ता है कि वह किस धर्म में गिना जा रहा है। नियम उसको यहाँ भी नहीं मानने, और वहाँ भी नहीं। "धर्म परिवर्तन ज्यादातर वही करते हैं जो नियमों का कड़ाई से पालन करने के इच्छुक और पक्षधर होते हैं। और हिन्दू धर्म में नियमों की कड़ाई को प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, इसलिए धर्म परिवर्तन का इच्छुक वर्ग इस धर्म की तरफ इतना आकर्षित नहीं होता है।""मुझे तो यह एक बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण लगता है। मेरे लिए हिन्दू धर्म का यह सर्वश्रेष्ठ गुण है। पर कन्वर्ट होने वाले ज्यादातर लोगों की मानसिकता ऐसी होती है कि वह पहली दो - तीन पीढ़ी तक "People of the book" बने ही रहते हैं। "इसमें यह बात मुझे भी सत्य लगी कि, वर्तमान में *"हिन्दू धर्म में नियमों की कड़ाई को प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, इसलिए धर्म परिवर्तन का इच्छुक वर्ग इस धर्म की तरफ इतना आकर्षित नहीं होता है।"* बहुत बड़ा कारक (फेक्टर) है।
इसी का परिणाम है कि, आज किसी भी व्यक्ति से बात करो, सभी निर्विवाद रूप से कठोर शासन, कठोर अनुशासन और कठोर प्रशासक ही चाहता है। कोई मिलट्री रूल चाहता है, कोई तानाशाही चाहता है, जिन्हें राजनीतिक समझ कम है वे, और पुराने सावरकर वादी परम्परागत राजतन्त्र की वकालत करते थे। और अभी भी कुछ बचे हैं। जबकि राजतन्त्र में आसानी से सामन्तवाद पनपता है। जो कांग्रेस शासन में नेतातन्त्र के रूप में विकसित हुआ।लेकिन वर्तमान (पर)लोकतन्त्र में किसी की आस्था नही दिखती। कुछेक तो अरब के सख़्त क़ानून की तारीफ में कसीदे पढ़ते नजर आयेंगे। मतलब आतङ्कवादी तक भी सख्त क़ानून चाहते हैं। ये ही सब लोग अप्रत्यक्ष रूप से शरिया कानून के समर्थक हैं। लेकिन स्वयम् नही जानते कि, हम समर्थन किस बात का कर रहे हैं। 

कहने का तात्पर्य यह है कि, गुरुकुल शिक्षित व्यक्ति नित्य उत्तर रात्रि में उठकर जलपान, मुखमार्जन, शोच, स्नान, तथा तारों भरी रात में ही सन्ध्या कर, सावित्री (गायत्री) मन्त्र का जप पूर्ण कर, उदयीमान सूर्य को अर्ध्य देकर, सूर्य-नमस्कार, योगासध, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यानाभ्यास कर वेदपाठ कर, अग्निहोत्र कर, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों की सेवा सुश्रुषा कर, प्रातः काल में ही दान, अतिथि, ब्रह्मचारी और वानप्रस्थों की सेवा करलेता था। तदुपरान्त अपने धनार्जन, भोजन आदि में लग जाता था।
सायम्काल में भी शोच, स्नान, सन्ध्या, सावित्री (गायत्री) मन्त्र का जप पूर्ण कर, सूर्यास्त के पहले सूर्य को अर्ध्य देता था। रात्रि में धर्म-दर्शन, इतिहास, और गाथाओं का श्रवण करके ही सोता था। अतः जीवन संस्कारित था। अनर्गल विचारों के लिए न अवकाश था न वातावरण था। अतः सभी चरित्रवान थे। अपवाद स्वरूप कोई असांस्कृतिक आचरण करने लगता उसे अनार्य घोषित कर दिया जाता था।
नगरीय व्यवस्था ऐसी थी कि, नैऋत्य कोण में गणपति (जागीरदार); दक्षिण में सेनापति , कोतवाल, क्षत्रिय ; पश्चिम में वैश्य रहते थे, वायव्य में किसान और ग्वाले रहते थे। आग्नेय कोण में विश्वकर्मा (सुनार, धातु के बर्तन बनाने वाले ठठेरे, कुम्हार (कुम्भकार), लोहार, सुतार /बढ़ाई, शिल्पकार /राज मिस्त्री, जुलाहे (तन्तुवाय), दर्जी (सुचिक) आदि) रहते थे। राजन्य, मन्त्री और ब्राह्मण मध्यभाग में रहते थे। उत्तर में गोष्ठ,  और पूर्व में शैक्षिक संस्थान होते थे। यह सब व्यवसाय के अनुसार व्यवस्था थी।
मान्साहारी चाण्डालों को केवल कार्यवश ही नगर में प्रवेश अनुमति थी। ये लोग नगर के बाहरी भाग में रहते थे। वानप्रस्थ आश्रम भी नगर के निकट ही होते थे। सन्यासी नगरों में प्रवेश नहीं करते थे।
नगरों के आसपास व्यवसायों से सम्बन्धित वर्ग के कुटुम्ब यथा कृषक, गोपाल, वन से शहद, औषधि, लकड़ी  आदि एकत्रित करने वाले सम्बन्धित लोग ग्राम बना कर रहते थे। उनकी अपनी पञ्चायती व्यवस्था होती थी। इसका उदाहरण अयोध्या के निकट नन्दीग्राम जहाँ श्रीराम के वनवास काल में भरत रहे। और कौशल्या का मायका कोशल (गणराज्य/ जागीर) कस्बा। और मथुरा के निकट गोपालकों के ग्राम ब्रज क्षेत्र। 
  जाति प्रथा के उद्भव में यह व्यवस्था आधार बनी।

रविवार, 16 जुलाई 2023

वैदिक और वर्तमान कर्मकाण्ड विधि में अन्तर क्यों है?

वेदों की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थों में है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में पूर्वभाग में --- 
१ ब्रह्मचर्य आश्रम और ग्रहस्थाश्रम सम्बन्धी नियम और कर्मकाण्ड विधि आदि का वर्णन है। शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त (शब्द व्युत्पत्ति, भाषाशास्त्र), व्याकरण और छन्द शास्त्र तथा गन्धर्ववेद (सङ्गीत, नाट्य) के विवरण और वर्णन है। फिर
२ धर्म अर्थात आचरण के नियमों और अर्थशास्त्र (राजनीति) का वर्णन है। फिर
३ आयुर्वेद,, शिल्पवेद और धनुर्वेद, शुल्बसुत्रों जैसे वैज्ञानिक विषयों के विवरण और वर्णन हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थों के उत्तर भाग में ---
४ आरण्यक भाग में वानप्रस्थ आश्रम के नियमों, विधि और कर्तव्यों का वर्णन है। और अन्त में
उपनिषद भाग में , कर्ममीमांसा (कर्मयोग शास्त्र - बिना फलेच्छा के कर्म करने में क्या भाव, क्या उद्देश्य, क्या लक्ष्य रखकर कैसे कर्म करें।), तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा (जीव का ब्रह्म और जगत से सम्बन्ध । जगत का ब्रह्म से सम्बन्धों का वर्णन, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय क्रम) आदि का वर्णन है।
इन्ही ब्राह्मण ग्रन्थों के आधार पर कर्मकाण्ड के सुत्र ग्रन्थ बने हैं जिनमें -
शुल्बसुत्रों में मण्डल (ब्रह्माण्डों के नक्षे) यज्ञबेदी (ब्रह्माण्डों के माडल), और मण्डप (ब्रह्माण्डों का समुच्चय या सृष्टि का माडल) आदि निर्माण विधि है। ज्योतिर्विज्ञान (एस्ट्रोनॉमी और एस्ट्रो फिजिक्स आदि), शिल्पवेद (आर्किटेक्चर) आदि इसी के भाग हैं।
ग्रह्यसुत्रों में व्रत, पर्व, उत्सव, तीज - त्योहार, जन्मदिन, मृत्यु तिथि, संस्कार विधि, पञ्चमहायज्ञ विधि आदि समस्त नित्य उपयोगी कर्मकाण्ड विधि वर्णित हैं। उस समय मूर्तिपूजा निषिद्ध कर्म माना जाता था इसलिए मुर्तिपूजा की विधि वर्णित नहीं है। मूर्तिपूजा के लिए बाद में मठाधीशों ने अपने-अपने सम्प्रदाय / आम्नाय के आगम ग्रन्थों की रचना की। 
श्रोत सुत्रों में अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ जैसे यज्ञों की विधि विधानों का वर्णन है।
धर्मसुत्रों में आचरण नियमावली है क्योंकि धर्म का तात्पर्य आचरणीय कर्तव्य कर्मों को करनें और निषिद्ध कर्मों के प्रति उपरामता है। (मन में संकल्प ही नहीं आना है, विचार ही नही आना होता है।)
विधि - विधान (संविधान और कानून) धर्मसुत्रों से ही निकले हैं। अलग अलग राज्यों और राजाओं के लिए ऋषियों द्वारा निर्मित विधि - विधान (संविधान और कानून) ही स्मृतियाँ कहलाती है। स्वायम्भूव मनु और बाद में वैवस्वत मनु द्वारा निर्धारित विधि - विधान मनुस्मृति कहलाती है।
इन्ही श्रोत सुत्रों और गृह्य सुत्रों के आधार पर कर्मकाण्ड भास्कर, कर्मकाण्ड प्रदीप आदि ग्रन्थ बनें। लेकिन तत्कालीन प्रभाव के कारण इनमें कर्मकाण्ड की क्रियाओं में तन्त्र का समावेश हो गया। और यही प्रभाव आगे बनने वाले निबन्ध ग्रन्थों में और अधिक विस्तृत होता गया।

 कर्मकाण्ड भास्कर जैसे ग्रन्थो के संक्षिप्त संस्करण -
ब्रह्मनित्यकर्म समुच्चय, संस्कार विधि, पञ्चमहायज्ञ विधि, संध्या विधि, अग्निहोत्र विधि आदि ग्रन्थ बने जिनमें तन्त्र भाग भी सम्मिलित किया गया । वर्तमान पुरोहित वर्ग इन्हीं संक्षिप्त ग्रन्थों के आधार पर कर्मकाण्ड सम्पन्न कराते है।

वैदिक कर्मकाण्ड में तन्त्र ग्रन्थों, आगमों, आम्नाय ग्रन्थों और उनकी पुष्टि हेतु रचित पुराणों का कोई महत्व नही था।

लेकिन बाद में बनें मठों के महन्तों द्वारा के विधि विधान के लिए रचित तन्त्र शास्त्र (आगम ग्रन्थों और आम्नाय) में मुर्तिपूजा और मठाम्नाय या आगम ग्रन्थों में ही वर्तमान प्रचलित कर्मकाण्ड विधियों का उल्लेख है। जिसमें मन्दिर निर्माण,मूर्ति पूजा आदि के वर्णन हैं। इनमें बहुत सा भाग वेद विरुद्ध भी है। और 
उन तन्त्रों के अनुसार रचित पौराणिक साहित्य के आधार पर ही नित्यकर्म पूजा प्रकाश जैसे ग्रन्थ रचे गए जिसके आधार पर पूजा - पाठ होते हैं।

स्मृतियों और पुराणों के वचनों के आधार पर हेमाद्रिपन्त का चतुर्वर्ग चिन्तामणी; माध्वाचार्य का काल माधव, कमलाकर भट्ट का निर्णय सिन्धु आदि निबन्ध ग्रन्थ बने। निर्णय सिन्धु के निर्णयों के आधार पर काशीनाथ शास्त्री उपाध्याय नें धर्मसिंधु ग्रन्थ रचा।
इस प्रकार वैदिक कर्मकाण्ड में तन्त्रों के मिश्रण से नवीन कर्मकाण्ड विकसित हुए जो कई स्थानों पर तो वैदिक कर्मकाण्ड से एकदम अलग या विपरीत हैं।

मंगलवार, 4 जुलाई 2023

कर्तव्य पालन धर्म

अविरत हरिस्मरण और निरन्तर अहर्निश जगतसेवा सबसे बड़ी पुजा है।

अनन्याश्चिन्तयन्तो माम् ये जनाः पर्युपासते ।
तेषाम् नित्याभियुक्तानाम् योगक्षेम वहाम्यहम् ।। श्रीमद्भगवद्गीता अ. 09/ श्लोक 22।
अनन्याः , चिन्तयनतः, माम्  , ये,  जनाः, पर्युपासते।
तेषाम् नित्याभियुक्तानाम् , योगक्षेमम्  , वहामि,अहम् ।।

अनन्य भावसे जो भक्तजन मुझ परमात्मा को  (ॐ कार स्वरुप जान कर  निरन्तर स्मरण रखते हुए)  मुझ (विष्णु परमेश्वर) की आराधना, उपासना करते हैं, मुझमें (सदेव मेरा स्मरण रखते हुवे ॐ विष्णु परमेश्वर का ही चिन्तन करने वाले ) नित्य युक्त भक्त के योगक्षेम मैं स्वयम् वहन करता हूँ। ऐसे भक्त की प्रत्यैक आवश्यक्ताओं की पुर्ति मैं स्वयम् करता हूँ, और जो पहले से उपलब्ध है उसका संरक्षण / सुरक्षा भी मैं स्वयम् ही करता हूँ। किसी अन्य देवता आदि के भरोसे उसे न छोड़ते हुए मैं स्वयम् योग क्षेम वहन करता हूँ। ऐसे भक्तों को मालूम हो कि, यदि उनकी किसी आवश्यकता की पुर्ति करने कोई वाहक आया है मतलब वह ॐ कार स्वरुप साक्षात विष्णु परमेश्वर ही सेवा कर रहे हैं। और किसी प्रकार भी जो सबकुछ सुरक्षित है वे सब भी स्वयम ॐ कार स्वरुप साक्षात विष्णु परमेश्वर ही सुरक्षा कर रहे हैं इसलिए सुरक्षित है। इसमें किसी ओर का योगदान केवल आभास मात्र है, सत्य नही। किन्तु हमें उस आभास के प्रति प्रत्यक्ष कृतज्ञता व्यक्त तो करना ही है किन्तु उन्हे ॐ कार स्वरुप साक्षात विष्णु परमेश्वर ही मानना है।
फिर अपनी, अपने परिवार- कुल- कुटुम्ब की ओर से निश्चिन्त होने के कारण हमें अपना सारा जीवन लोकसेवा में ही व्यतीत करना है। भोग में नही जन सेवा में जीवन व्यतीत हो।
बस यही धर्म है। यही कर्त्तव्य है, यही कार्य्य कर्म है।

अशोच अर्थात सुतक

अशोच के विषय में हारीत स्मृति का मत तो यह है कि, मरण में परिवार दुःखी होता है अस्तु दुःखी मनःस्थिति के कारण अशोच माना गया है।
तदनुसार जन्म में तो अशोच ही नही हुआ।
  स्मृतिकारों में
अशोच विषयक इतने अधिक मतभेद हैं कि,मिताक्षरा और मदन रत्न ने तो इनकी मिमान्सा करना असम्भव माना।
एक रात्रि, त्रिरात्र, और दश रात्रि का अशोच लोक प्रचलित है।
जो जन्मने/ मरने वाले से सम्बन्ध/ जन्म/ मरण स्थान की दूरी/ जन्म स्थान बहू का मायका हो तो कम और ससुराल में हो तो अधिक ऐसे सेकड़ों मतभेद हैं।
इनमें संक्षेपण / संकोच (छोटा करना/ कम करना) को मान्यता है विस्तार को नही।
शास्त्रोक मत यह भी  है कि,यज्ञादि देव कर्मों का विस्तार किया जाये और श्राद्धादि पितृकर्मों को संक्षेप में किया जाये ।
ऐसे सब विचार कर निर्णय किया जाता है।