कुछ लोग स्मृतियों को धर्मभ्रष्ट करने का दोषी मानते हैं वस्तुतः ---
स्मृतियों का आधार वेदाङ्ग - कल्प- धर्मसुत्र है। यह सत्य है कि, धर्मसुत्रों में जोड़-तोड़ कर स्मृतियाँ बनाई गई। बाद में स्मृतियों में, हर राजवंश के राजा के अनुसार संशोधन होते रहे। चुंकि, स्मृतियाँ विधि विधान हैै, कानून की किताब है, लॉ बुक्स है; जन साधारण को स्मृृृतियोंंका ज्ञान नही के बराबर ही रहता है और न ही जीवन में स्मृतियों का कोई विशेष काम पड़ता है। इसलिए स्मृतियों के ज्ञाता केवल आचार्य गण और न्यायकर्ता ही रहे थे और आज भी विधि विशेषज्ञ ही स्मृतियों पर चर्चा करते हैं। लगभग नगण्य घरों में भी कोई स्मृति ग्रन्थ मिल पाएगा। लेकिन हर घर में कोई न कोई पुराण मिल ही जाएगा।
पुराणों का पाठ यज्ञों के दौरान सायंकाल में सभाओं में होता था। वर्तमान में भी मन्दिरों में, और सार्वजनिक पाण्डालों में और घरो में भी पुराण पाठ, पुराण प्रवचन होते रहते हैं। इसलिए पौराणिक ज्ञान व्यापक प्रसारित हुआ।
अब देखिए हमारे पूर्वज जैसे जैसे वेदों से दूर होते गये वैसे वैसे भारत पर विदेशियों के आक्रमण होने लगे।
आद्य शंकराचार्य जी का सही समय ५०९ ईसापूर्व से ४७७ ईसापूर्व का है। अर्थात भगवान आदि शंकराचार्य जी, सिद्धार्थ गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर स्वामी समकालीन थे।
वर्तमान इतिहासकार जिन शंकराचार्य को 788 - 820 ई. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठके 38वें आचार्य श्री अभिनवशंकर जी थे। वे 787 से 840 ईसवी सन् तक विद्यमान थे। आचार्य श्री अभिनवशंकर जी चिदम्बरम वासी श्रीविश्वजी के पुत्र थे। इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे। सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपनें मूल शंकराचार्य के विषय में ज्ञान होना चाहिए। इस विषय में यह ध्यातव्य है कि पुरी के पूज्य वर्तमान शंकराचार्य जी ने सभी प्रमाणभूत साक्ष्यों को भारत सरकार को सौंपकर उन प्रमाणों के आलोक में ऐतिहासिक अभिलेखों में संशोधन का आग्रह भी किया है।
सिद्धार्थ गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर के द्वारा वेदों को प्रमाण न मानने वाले पन्थ खड़े किए तभी उस समय ईसापूर्व ५५० में ईरान के क्षत्रप सायरस द्वितीय (करूष) ने भारत पर आक्रमण किया। विदेशियों में भारत के मतभेद और कमजोरियाँ उजागर होने लगी।
मेगस्थनीज ३०० ईसापूर्व में भारत आया था। वह इण्डिका में लिखता है कि, भारत में कार्य के आधार पर नौ जाति वर्ग थे। इनमें ऊँच-नीच का भेद तो था, विवाह भी अपने वर्ण और वर्ग में ही होते थे। लेकिन कोई भी अछूत नहीं होता था। इण्डिका में किसी मठ और मन्दिर का उल्लेख नही किया। मतलब मन्दिर और मुर्तिपूजा प्रचलित नहीं थी।
४०२ ईस्वी में फाह्यान या फाहियान भारत आया था। फाह्यान ने भी किसी मठ मन्दिर और छुआछूत का उल्लेख नही किया।
६३० में ह्वेनसांग भारत आया था जिसनें भारत में कनिष्क का स्तूप तो देखा लेकिन उसने भारत में किसी मन्दिर का उल्लेख नही किया।
६७५ में इत्सिंग नें भी मन्दिरों का कोई उल्लेख नहीं किया।
लगभग ४९२ ईसापूर्व से ४७७ ईसापूर्व में आद्य शंकराचार्य जी के द्वारा जिन बौद्धाचार्यों और जैनाचार्यों को शास्त्रार्थ में हरा कर उन बौद्धाचार्यों और जैनाचार्यों को शुद्धिकरण कर सनातन धर्म में वापसी करवाईं। इन पूर्व बौद्धाचार्यों और पूर्व जैनाचार्यों नें अपनी रुचि अनुसार वैष्णव, सौर, शेव, शाक्त और गाणपत्य सम्प्रदाय अपनाकर अपने -अपने मठ स्थापित कर उनके मठाधीश महन्त बनकर अपने सम्प्रदाय के ग्रन्थों की रचना प्रारम्भ की।
जिसका विशेष प्रभाव ६७५ ईस्वी तक दृष्टिगोचर नहीं होता है।
लेकिन केरल और दक्षिण भारत में ईसाइयों के धर्म प्रसार के साथ भारत में मूर्तिपूजा, मठ- मन्दिर स्थापना प्रारम्भ हुई।
787 से 840 ईसवी तक विद्यमान और 30 वर्ष तक कामकोटि पीठ के 38वें आचार्य पद पर रहे
आचार्य श्री अभिनवशंकर जी ने कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया।
इनमें दक्षिण भारत के पूर्व बौद्ध और जैनाचार्यों ने इन मठों में रहकर लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व रचित वेदव्यास कृत पुराणों में अपने सिद्धान्तों के अनुरूप परिवर्तन कर पूर्व संस्कार और दक्षिण भारतीय संस्कृति और दक्षिण भारत में प्रचलित अथर्ववेदीय, कृष्ण यजुर्वेदीय, तन्त्र, और दृविड़ वेद की परिपाटी और परम्पराओं, तथा गाथाओं के अनुरूप संशोधित पुराणों की रचना की। अपने मठ कीपरिपाटी और परम्पराओं का निर्धारण करने हेतु आगम ग्रन्थ रचे।
पुराणों में परिवर्तन और परिवर्धन का क्रम (सिलसिला) पुष्यमित्र शुङ्ग के शुङ्गवंश और कण्व वंश के शासन के बाद बढ़ गया। गुप्त वंश के बाद बहुत अधिक परिवर्तन हुए जो धार के राजा भोज के शासनकाल तक चले। जिसका प्रमाण बोपदेव की रचनाएँ हैं। देवी भागवत के टीकाकार ने लिखा है कि, राजा भोज द्वारा संस्कृत विद्वानों को पुरस्कृत करने से प्रभावित होकर तेलंगाना का विद्वान बोपदेव वेदव्यास जी रचित वायु पुराण जिसका अंश शिव पुराण है, मार्कण्डेय पुराण जिसका अंश दुर्गा सप्तशती है और भागवत पुराण तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण में मन गड़न्त संशोधन कर लाया। लेकिन वेदव्यास जी के नाम का दुरुपयोग करने के कारण राजा भोज ने बोपदेव को देश-निकाला का दण्ड दिया।
अधिकांश जैनाचार्य शैव हुए, वज्रयान बौद्ध आचार्य शैव- शाक्त हुए। कुछ बौद्ध वैष्णव हुए जिन्होंने बुद्ध को नौवा अवतार घोषित कर दिया। संशोधित पुराणों में देवताओं और ऋषियों के चरित्र पर अनेक कलंक लगाये। असुरों को महा तपस्वी बतलाया।
ध्रुव के तप से सन्तुष्ट हो भगवान श्रीहरि नें स्वयम् दर्शन देकर ध्रुव को विष्णु का परमपद प्राप्त करने योग्य आत्मज्ञान/ ब्रह्म ज्ञान प्रदान किया इसकी तुलना में पराणों में प्रह्लाद द्वारा भक्ति की माँग करने की प्रशंसा की गई है और ध्रुव को पद लोभी सिद्ध कर दिया। असुरराज बलि के दान की प्रशंसा कर असुरों की भूरीभूरी प्रशंसा की गई।
जबकि वेदों में महाराज दिवोदास के दान की प्रशंसा की गई है। असुरों, दैत्यों, दानवों राक्षसों को महा तपस्वी बतलाया गया। जबकि, ऋषि-मुनियों को कामुक बतलाया गया।
तान्त्रिक रावण को महान शिवभक्त और तपस्वी बतलाया क्योंकि जैनों के अनुसार रावण भविष्य में होनें वाला उनका अगला तीर्थंकर होगा।
जातक कथाओं के अनुरूप अवतारवाद बनाया। केवल ऋषभदेव और बुद्ध को उत्तम चरित्रवान बताया।
ललित सागर ग्रन्थ के अध्याय २१ पृष्ठ १७८ अनुसार बिहार में गया के निकट कीटक नामक स्थान पर पिता श्री अजिन (मतान्तर से हेमसदन) और माता श्रीमती अञ्जना के पुत्र श्रीबुद्ध को नौवाँ अवतार घोषित कर दिया गया।
प्राचीन पुराणों में उल्लेखित आठवें अवतार बलराम और नौवे अवतार कृष्ण को बदलकर संशोधन भागवत पुराण में पूर्व बौद्धाचार्यों नें आठवाँ अवतार श्रीकृष्ण को और नौवा अवतार गोतम बुद्ध को बतला दिया।
पुराणों में संशोधन होनें की शुरुआत होते ही ईसापूर्व ३२६ में युनानी अलेक्ज़ेण्डर (सिकन्दर) का आक्रमण हुआ। लेकिन अफगानिस्तान के कान्धार (काबुल) के क्षत्रप (राज्यपाल) सेल्युकस निकेटर को चन्द्रगुप्त मौर्य ने हराकर कान्धार (काबुल) एरिया (हेरात), अराकोसिया विजित कर लिया।
चन्द्रगुप्त मौर्य के जैन सन्यासी बनने से प्रभावित होकर अशोक बौद्ध बन गया। अशोक के बौद्ध बनने के बाद भारतीय सेन्यबल कमजोर होने लगा। यहाँ तक कि, २८० ईसापूर्व में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ भागों के ग्रीको बेक्ट्रियन क्षत्रप डेमेट्रियस प्रथम के द्वारा आक्रमण करने पर अशोक के वंशज बौद्ध मतावलम्बी वृहद्रथ ने युद्ध मे हिन्सा न करने का तर्क देकर आक्रमणकारियों के समक्ष समर्पण करने का निश्चय कर लिया तो वृहद्रथ के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुङ्ग नें वृहद्रथ का वध कर स्वयम् राज्यभार सम्भाला और डेमेट्रियस को पीछे हटने को मजबुर कर दिया।
फिर १२० ईसापूर्व में शक और ६० ईस्वी में कुषाणों के आक्रमण हुए।
हरियाणा के कुरुक्षेत्र के आसपास का भू-भाग ऋषिदेश, गोड़ क्षेत्र, मालवा कहलाता है। नबोवाहन के पिता नें नबोवाहन को हरियाणा के मालवा से लाकर मध्यप्रदेश के देवास जिले की सोनकच्छ तहसील के ग्राम गन्धर्वपुरी में बसाया। नबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन ने गन्धर्वपुरी को राजधानी बनाया। ऐसा भी कहा जाता है कि, तभी से मालवा के पठार को मालवा कहा जाने लगा।
गन्धर्वसेन कट्टर वैदिक सनातन धर्मी होने के साथ महा तान्त्रिक भी थे। महाराज गन्धर्वसेन के कट्टर वैदिक सनातन धर्मी होने के कारण और तन्त्र मार्ग में प्रतिस्पर्धी रहने के कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी / कालक आचार्य गन्धर्वसेन से अत्यन्त रुष्ट थे। इस कारण जैनाचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य ने उज्जैन से काबुल अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर तत्कालीन शकराज को गन्धर्वसेन पर आक्रमण करने का न्योता दिया।
जैनाचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य के निर्देश पर जङ्गल में घात लगाकर बैठे शकों नें शिकार पर गये गन्धर्वसेन को अकेला पा कर गन्धर्वसेन पर हमला कर दिया। शकों नें उनपर घोर अत्याचार किये गये। उन्हें अत्यन्त क्रुरता पूर्वक कई जगह से घायल कर मृत्यु शय्या पर जङ्गल में छोड़ दिया जिससे गन्धर्वसेन की मृत्यु हुई।"
बाद में गन्धर्वसेन के बड़े पुत्र भृतहरि ने उज्जैन को राजधानी बनाया। भृतहरि ने अपने अनुज विक्रमसेन को सेनापति बनाया।
भृतहरि और विक्रमसेन की बहन मैनावती के पुत्र गोपीचन्द पहले ही नाथ सम्प्रदाय के सम्पर्क में आकर गोपीनाथ नाथयोगी हो गये थे। लेकिन वज्रयान बौद्ध पन्थ से निकले नाथ सम्प्रदाय के दुसरे लेकिन प्रमुख नाथ योगी गोरखनाथ भृतहरि को अपना शिष्य बनाना चाहते थे।
इसलिए गोरखनाथ जी ने योजनाबद्ध तरीके से भृतहरि को रानी पिङ्गला की आसक्ति से मुक्त कराने के उपाय के रूप में भृतहरि की प्रिय पत्नी महारानी पिङ्गला को मायाजाल में लेकर कर महारानी पिङ्गला के द्वारा महाराज भृतहरि को विक्रम सेन के विरुद्ध भड़का कर विक्रम सेन को देश निकाला दिलवा दिया। परिणाम स्वरूप सुदृढ़ सेनापति के अभाव में उज्जैन पर शकों के आक्रमण बढ़ने लगे।
गोरखनाथ ने भृतहरि को अपना शिष्य बनाकर धारा नगरी में नाथ पन्थ में दीक्षित किया।
नाथ पन्थ में दीक्षित होकर वैरागी होने के कारण राजा भृतहरि ने अपने अनुज विक्रमसेन को खोज कर ईसापूर्व ५६ में राज्यभार विक्रमसेन को सोंप दिया।
तब विक्रमसेन ने सैन्य सङ्गठन मजबूत कर शकों को देश से निकाल कर अपनी राज्य सीमा अरब और टर्की तक पहूँचा दी। इस उपलक्ष्य में विक्रमसेन सम्राट विक्रमादित्य कहलाये। और उननें विक्रम संवत प्रवर्तन किया। जो वर्तमान में भी नक्षत्रीय निरयन सौर विक्रम संवत के नाम से मूल स्वरूप में पञ्जाब हरियाणा में प्रचलित है ।
फिर भी विक्रमादित्य ने दिगम्बर जैन साधु क्षपणक को अपने दरबार में नौरत्नों में स्थान दिया। विक्रमादित्य स्वयम् भी बड़े तान्त्रिक थे। और जहा विजय प्राप्त कर शासन सम्हालते वहीँ की राजकुमारी से विवाह कर, वहीँ की संस्कृति का पालन कर कुछ समय रहते। इस कारण विक्रमादित्य के नाम से इतिहासकारों को भ्रम होता है। विक्रमादित्य, इज्राइल के राजा सुलेमान (सोलोमन) और अरब के राजकुमार और राजा हातिमताई के चरित्र में कई समानताएँ होना आश्चर्यजनक है।
ऐसी ही एक घटना और है -- बौद्धाचार्यों की प्रेरणा और सहायता से शकराज द्वारा चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी का अपहरण किया जाना और चन्द्रगुप्त द्वारा ध्रुव स्वामिनी की मुक्ति एवम् रामगुप्त को अपदस्थ कर स्वयम् राज्य सम्हालने की घटना है। जिस कारण चन्द्रगुप्त द्वितीय को भी विक्रमादित्य की उपाधि मिली थी।
ये सब घटनाएँ बतलाती है कि, पहले धार्मिक ग्रन्थों और पन्थ को बदला गया, देश को कमजोर किया गया, फिर आक्रमण हुए।
लगभग समान घटनाएं लगातार होना महज संयोग नहीं हो सकता। इनके पीछे कोई सुनियोजित षड़यन्त्र स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
पुराणों में सर्वाधिक संशोधन चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन से राजा भोज के समय तक रहा। पूराण संशोधन का यह अन्तिम काल माना जाता है।
राजा भोज के दरबार में तेलङ्ग ब्राह्मण बोपदेव वेदव्यास जी के नाम पर वायु पुराण और भागवत पुराण तथा मार्कण्डेय पुराण रचकर धारा नगरी में आया। राजा भोज नें वेदव्यास जी के नाम पर रचना करनेंके लिए बोपदेव को देश-निकाला का दण्ड दिया।
३७५ से ४१४ बे बीच चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन रहा इस बीच ४९९ ईस्वी में हूणो ने आक्रमण किया।
सन ६२२ ईस्वी में इस्लाम का का उदय और ६३८ ईस्वी से ७११ ईस्वी में नौ खलीफाओं के आदेश पर इराकियों ने पन्द्रह बार भारत पर आक्रमण किया। इराक़ के मोहम्मद बिन कासिम को सिन्ध के ब्राह्मण राजा दाहिर पर ७११ ईस्वी मे विजय मिली और मोहमद बिन कासिम नें जुनेद को सिन्ध की कमान सोंपकर इराक वापस चला गया।
९९९ ईस्वी से १०२६ ईस्वी तक सत्रह बार अफगानिस्तान के गजनी के मेहमूद गजनी ने सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण किया। सन १०१९ में महमूद गजनवी ने कपिशा को छोड़ शेष पूरा अफगानिस्तान जीत लिया।
१०१० से १०५५ ईस्वी तक धार में धार के राजा भोज का शासन रहा। इस समय महमूद गजनवी के आक्रमण हो रहे थे।
राजा भोज के भतीजे भोज द्वितीय ने कमाल मोलाना के प्रभाव में आकर इस्लाम स्वीकार कर लिया। लेकिन भोज द्वितीय के मन्त्री और कवि कालिदास द्वितीय ने भोज द्वितीय को समझा-बुझाकर शुद्धि कर पुनः सनातन धर्म में ले आए।
इस कारण भोज द्वितीय को मुस्लिम आक्रांताओं के जासूस सूफियों की वास्तविकता का ज्ञान हुआ।
भारत में इस्लाम के प्रवेश के बाद ही जाति-प्रथा ने विकट रूप ले लिया। छुआछूत प्रारम्भ हुई तो विरोध भी प्रारम्भ हुआ।
जबकि, उत्तर भारत में मुगलकाल में सर्वप्रथम कबीरदास जी नें जाति-प्रथा का विरोध किया। मतलब मुगलकाल में उत्तर भारत में जाति-प्रथा और छुआछूत प्रचलित हो चुकी थी।
स्वायम्भूव मनु के वंशज मूल क्षत्रिय मनुर्भरत बचे नहीं, वैवस्वत मनु की सन्तान सूर्यवंशियों नें कृषिकर्म अपना लिया, ऐसे में केवल चन्द्रवंशी और उनमें भी यदुवंशी ही बचे रहे।
क्षत्रियों की कमी को देखते तत्कालीन आचार्यों ने तुर्क से आये शक, गुर्जर, जाट, हूण, नेपाल के खस, ठस, मध्य एशिया के बर्बर जैसी जातियों का उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के पास विन्द्यगिरी में यज्ञ कर शुद्धिकरण कर अग्निवंशी राजपूत तैयार किये।
लेकिन उन्हे विदेशी अधर्मी आक्रांताओं को येन केन प्रकारेण मार डालो की वैदिक युद्ध नीति न सिखाते हुए महाभारत युद्ध में घोषित द्वन्द्वयुद्ध की नीति सिखाई। भागते हुए आक्रांताओं पर वार न करना, निशस्त्र आक्रांताओं पर वार न करना, शरणाङ्गति का ढोंग करने पर भी आक्रांताओं को अभयदान देना, अविश्वसनीय शत्रुओं और उनके घुसपैठियों - जासुसों को शरण देना जैसी पौराणिक नीति सिखाई।
जब सनातन धर्म के मठाधीशों, महन्तों ने मोह मद के चरित्र का अध्ययन किया तो उसकी दुष्प्रवृत्तियों और अय्याशी से आकर्षित हुए बिना नहीं रह पाये। ऐसे ही नशेड़ी, अफीमची, गंजेड़ी - भंगेड़ी सूफियों के मौज देखें तो कुछ लोग उससे आकर्षक हो गये।
तान्त्रिकों में मान्स-मदिरा का चलन पहले से ही था।
मठाधीशों और महन्तों ने इन सब कुकृत्यों को धार्मिक चौला पहनाने की ठानी और जयदेव ने गीत गोविन्द रच कर योगेश्वर श्रीकृष्ण के नाम पर रास लीला का अश्लील वर्णन कर श्रीकृष्ण चरित्र विकृत कर प्रस्तुत किया। ब्रह्म वैवर्त पुराण में श्रीकृष्ण चरित्र का ऐसा अश्लील वर्णन जोड़ दिया कि, आप सबके सामने जोर से पढ़ भी नहीं सकते।
वैद्यनाथ नटराज भगवान शंकर जी को नशेड़ी गंजेड़ी घोषित कर दिया और साथ में जोड़ दिया कि, शंकर जी पार्वती जी से नग्न नृत्य करवाते थे। और स्वयम् भी नग्न नृत्य करते थे।
काली-चामुण्डा, भैरव को मान्स मदिरा का भोग लगने लगा और मुद्रा , मदिरा, मत्स्य , मान्स, मैथुन इन पञ्च मकार साधनों के माध्यम से तन्त्र साधना का प्रचार होने लगा।
परिणाम स्वरूप ---
ईरान से शरणार्थी बनकर आये मुस्लिम गिलानी बन्धुओं को पालपोस कर बड़ा कर गिलानी बन्धुओं को सेनापति बनाने पर उनके द्वारा धोखा देकर मुस्लिम आक्रांताओं का साथ देने से हुए सन १५४६ ईस्वी में तालिकोट युद्ध में विजय नगर साम्राज्य का पतन इसका प्रमाण है। ऐसे ही, राणा सांगा और पृथ्वीराज चौहान का पतन आदि के परिणाम भी सर्वविदित है।
११७५ से ११९४ ईस्वी तक में मोहम्मद गोरी नें पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण किया जिससे भारतीय सीमा रक्षण की कमजोरियाँ जगजाहिर हो गई।
१२०६ ईस्वी में कुतुबुद्दीन एबक ने अपने गुलाम इल्तुतमिश को राज्य सोप कर भारत में मुस्लिम शासन का आरम्भ किया।
रामचरितमानस के भक्तों से मैरा निवेदन है कि, वे गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित रामचरितमानस की भूमिका में उल्लेखित इतिहास पढ़ लें।
उल्लेखनीय है कि, तुलसीदास जी ने काशी में तमिल सन्त कुमारगुरुपुर के कम्ब रामायण रामावतारम् पर हिन्दी में प्रवचन सुन कर उसके आधार पर अवधी भाषा में रामचरितमानस की रचना की थी।
काशी के विद्वानों ने जब रामचरितमानस का विरोध किया, तब परिक्षण के लिए विश्वनाथ मन्दिर में रामचरितमानस रखा गया जिसपर दुसरे दिन प्रातः सत्यम् शिवम् सुन्दरम् अंकित कर विश्वनाथ के हस्ताक्षर पाये गये।
बाद में रामचरितमानस की पाण्डुलिपि (मूल पोथी) चुराने के लिए चोरों को भेजा। जिन्हें श्रीराम लक्ष्मण धनुष-बाण लिए पहरा देते दिखे। वे चोर डरकर भाग गये। और चोरों ने दुसरे दिन तुलसीदास जी को पूरी घटना बतलाकर उनसे क्षमा याचना कर चोर्यकर्म त्याग कर सदाचारी होगये।
श्री राम लक्ष्मण को मैरे कारण कष्ट हुआ यह सोच कर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की मूल पोथी (पाण्डुलिपि) अपने मित्र अकबर के राजस्व मन्त्री टोडरमल को सौंप दी। राजा टोडरमल को रक्षार्थ सोंप सौंपी रामचरितमानस की मूल पोथी बाद में किसी को नहीं मिली।
इसके बाद तुलसीदास जी ने स्मृति के आधार पर दुसरी रामचरितमानस लिखी जो वर्तमान में प्रचलित है। लेकिन आश्चर्य! इस रामचरितमानस के इस नवीन संस्करण का न काशी के विद्वानों ने विरोध किया न अकबर को कोई आपत्ती हुई। मतलब रामचरितमानस का यह नवीन संस्करण मूल पोथी से बिल्कुल अलग या विपरीत हो सकता है। इस पीड़ा को तुलसीदास जी नें पराधिन सपनेहु सुख नाहि कहकर व्यक्त किया है।
वर्तमान में दक्षिण भारत में तमिल कवि कम्बन की कम्ब रामायण अर्थात रामावतारम् और उत्तर भारत में रामचरितमानस को धर्मशास्त्र माना जाता है। जबकि वास्तविकता में तो ये राजनीति के ग्रन्थ कहे जा सकते हैं।
१५७६ ईस्वी में रामचरितमानस पूर्ण हुआ, पच्चीस वर्ष बाद १६०० ईस्वी में भारत में युरोपीय आये। रामचरितमानस पूर्ण होनें के एक सौ अस्सी वर्ष बाद १७५७ में प्लासी के युद्ध में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन स्थापित हुआ। रामचरितमानस पूर्ण होनें के दो सौ अस्सी वर्ष बाद १८५७ में भारत में ब्रिटिश राज स्थापित हुआ। क्या यह महज संयोग ही था?
भारत में आज का सनातन धर्मी वैदिक मान्यताओं को भूल कर इन मिलावटी पुराणों, कम्ब रचित रामावतारम् और तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस को ही सत्य मान रहा है और इसी को धर्मशास्त्र मानकर चल रहा है तुलसीदास जी कृत नवीन रामचरितमानस तो सभी धर्मग्रन्थों का महत्व घटाकर धर्मशास्त्र बन बैठे । दक्षिण भारत में कम्ब रचित रामावतारम् और उत्तर भारत में तुलसीदास कृत रामचरितमानस ही धर्मशास्त्र माने जानें लगे हैं।
लगभग इसी अवधि में नदिहा बङ्गाल में श्रीकृष्ण चेतन्य महाप्रभु ने और उत्तर भारत में जयदेव ने गीत गोविन्दम् रच कर योगीराज श्री कृष्ण के बाल्यावस्था का ऐसा चित्रण किया कि, बाद में श्री कृष्ण को माखन चोर, गोपियों के वस्त्र चुराने वाले, ग्यारह वर्ष बावन दिन की अवस्था में ब्रज छोड़कर मथुरा चले जाने के पहले ब्रह्म वैवर्त पुराण में गोपियों के सङ्ग रास रचाने के दौरान ऐसा वर्णन है कि, यहाँ लिखा नहीं जा सकता और जो जिज्ञासु ब्रह्म वैवर्त पुराण पढ़ेगा, वह अपने परिवार के सामने स्पष्ट स्वर में नहीं पढ़ सकता।
इसी प्रकार वैद्यनाथ, विष विज्ञानी भगवान शंकर जी को महा नशेड़ी, भंगेड़ी, गंजेड़ी घोषित कर दिया।
महाभारत के अनुसार प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय द्वारा कनखल हरिद्वार में यज्ञ में रुद्र को आमन्त्रित न करने और यज्ञ भाग न देने को स्वयम् भगवान शंकर ने सृष्टि के आदि में प्रजापति द्वारा स्थापित व्यवस्था के अनुरूप होना बतलाया और कोई आपत्ती नही जताई। लेकिन पार्वती को यह अनुचित लगा तो क्रोधित पार्वती के साथ भगवान शंकर जी दक्ष यज्ञ में पहूँचे। लेकिन पार्वती के कोप के कारण भगवान शंकर जी ने वीरभद्र और भद्रकाली के नेतृत्व वाली सेना बुलाई और दक्ष यज्ञ विध्वंस कर दिया। दक्ष द्वितीय का शिरोच्छेद कर दिया।
उसके बाद, ऋषियों, प्रजापति ब्रह्मा, श्री हरि ने शंकर - पार्वती जीको मनाया, प्रजापति ने भविष्य में रुद्र को यज्ञ भाग देने की नई व्यवस्था स्थापित की। फिर वैद्यनाथ शंकर जी ने दक्ष द्वितीय के सीर की सर्जरी कर उन्हें जीवनदान दिया।
फिर सभी लोग प्रसन्नता पूर्वक स्व धाम लौटे। शंकर - पार्वती भी सहर्ष कैलाश लौट गए।
न सती ने आत्म दाह किया,
जबकि शिव पुराण में एक मन गड़न्त कहानी रची गई जिसके अनुसार दक्ष यज्ञ में सती ने आत्मदाह कर लिया, शंकर जी पागलों की भाँति लाश कन्धे पर ढोते भटकते फिरे, विष्णु भगवान ने चक्र से सती के शव के एक्कावन टूकड़े कर दिये, शव के टुकड़े जहाँ-जहाँ गिरे वहाँ-वहाँ शक्ति पीठ बन गया। फिर सती का पुनर्जन्म हीमवान और मेना के घर पार्वती के रूप में हुआ, पार्वती ने तप कर शंकरजी को विवाह के लिए राजी किया। तब बड़ी मुश्किल से विवाह हुआ।
इस कारण पौराणिक परम्पराओं के नाम पर इतना अधर्म फैला है। नैतिकता और धर्म समाप्त प्रायः हो गया। और ब्राह्म धर्म, ब्राह्मण धर्म, प्रजापत्य धर्म, आर्ष धर्म, मानवधर्म और आर्य धर्म से सनातन धर्म होते होते हिन्दू धर्म हो गया। ईरानियों द्वारा काला- कलुटा, दास-दस्यु के अर्थ में दिये गये अपशब्द हिन्दू को अपनाकर हिन्दू धर्म कैसे हो गया? हिमवर्ष से भारतवर्ष होते हुए भारत हिन्दूस्तान हो गया? इसके लिए मैरा ब्लॉग हिन्दू शब्द का वास्तविक अर्थ पढ़ियेगा।
ज्ञान मीमांसा का स्थान बौद्ध चिन्तन तथा युरोपीय दर्शन नें ले लिया।
बुद्धि योग के स्थान पर बाबाओं के विचारों ने ले लिया।
यज्ञ का स्थान मुर्तिपूजा नें ले लिया।
अष्टाङ्ग योग का स्थान योगा नें ले लिया।
निष्काम कर्म योग का स्थान क्लबों के माध्यम से सेवा प्रकल्पों ने ले लिया।
कृपया ध्यान दीजिएगा ---
सनातन वैदिक धर्म कब हिन्दू धर्म हो गया किसी को पता ही नहीं चला।
परिणाम स्वरूप वर्ण व्यवस्था समाप्त हो कर कब जातिप्रथा कायम हो गई किसी को पता ही नही चला।
यज्ञ और अष्टाङ्ग योग का स्थान मठ मन्दिरों, महन्तों और मुर्तिपूजा ने ले लिया किसी को पता ही नही चला।
कब नारीशिक्षा बन्द होकर बाल विवाह आरम्भ हो गये किसी को पता ही नहीं चला।
कब आयुर्वेद का स्थान एलोपैथी चिकित्सा ने ले लिया पता नही चला।
कब गुरुकुल, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों का स्थान स्कुल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी ने ले लिया पता ही नही चला।
कब संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवार होगये किसी को नही पता ।
कब धोती कुर्ता पेण्ट- शर्ट में बदल गये कोई नही जानता।
हमारे देखते-देखते साड़ी की जगह सलवार सूट और उँचे पजामें - लम्बे कुर्ते आ गये।
पुरुषों के चेहरे पर मुछों के साथ- साथ डाड़ी आ गई। हो सकता है कुछ दिनों में केवल डाड़ी रहजाए और मुछें गायब हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।
देखते ही देखते वृद्धाश्रम बढ़ने लगे हैं, लिव इन रिलेशनशिप और सम लेंङ्गिक विवाह वैध होगये।
कल एकल परिवार भी बचेंगे या नही यह कहना कठिन हो गया।
इतने प्रमाण देना मेरा मन्तव्य स्पष्ट करता है। इससे स्पष्ट होता है कि,पुराणों में संशोधन विदेशी आक्रांताओं का षड़यन्त्र था। न कि, महज संयोग।
फिर भी ---
क्या इन ग्रन्थों की रचना और विदेशी प्रभुत्व स्थापित होना क्या महज संयोग ही माना जाये या परस्पर तालमेल देखा जाए, यह निर्णय विद्वानों पर छोड़ता हूँ।
वापस अपना प्राचीन गौरव चाहिए तो हल है। वेदों की ओर लौटो।⤵️
१ गुरुकुल स्थापित करो।
२ संस्कृत और वैदिक भाषा अध्ययन अध्यापन अनिवार्य हो।
३ (क) यज्ञ, ३(ख) अष्टाङ्गयोग, और ३(ग) वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, वेदाङ्ग, श्रीमद्भगवद्गीता और पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा दर्शन के साथ भारतीय भाषाओं में वेदाङ्ग और उपवेदों के वैदिक विज्ञान और तकनीकी का आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी का तुलनात्मक अध्ययन -अध्यापन अनिवार्य हो।
४ आयुर्वेद अपनाओ।
५ भारतीय न्याय व्यवस्था लागू हो।
६ संयुक्त परिवार वापस स्थापित करना।
७ वर्णश्रम धर्म पालन करना।
८ वैदिक भारतीय लोकतान्त्रिक गणतान्त्रिक शासन प्रणाली स्थापित हो।
९ अधर्मियों को अनुशासित करो।
१० विधर्मियों पर नियन्त्रण रखो।
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