परम आत्मा, परम आत्म अर्थात परम मैं।
विश्वात्मा अर्थात सर्वव्यापी सबका मैं।
इसे चित्त में भी नही खोजा जा सकता। सर्वमेध द्वारा ही जाना जा सकता है।
प्रज्ञात्मा, प्रज्ञा + आत्म ।
आत्मज्ञान होने पर ही जिसका बोध हो। इसे चित्त में खोजा जा सकता है। लेकिन चित्त आदि कहीँ भी इसका कोई स्थाई वास स्थान नही है। लगभग सर्वव्यापक ही है।
परम् ब्रह्म बड़े से भी जो महत् है वह ब्रह्म लेकिन ऐसे ब्रह्म में भी जो परम हो, Absolut हो वह परमब्रह्म।
प्रत्यगात्मा अर्थात प्रत्येक का व्यक्तिगत आत्म।
प्रत्येक का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व।
इसका वास स्थान चित्त में है। यह प्रज्ञात्मा और जीवात्मा के बीच दोलन करता रहता है।
अन्तरात्मा अर्थात अन्तःकरण में वास करने वाला अस्तित्व या मैं।
सबका अलग अलग मैं।
ब्रह्म अर्थात् बड़े से भी महा और महत में भी बड़ा महत्।
बर अर्थात् बड़ा
महः अर्थात महा, महत् ।
जीवात्मा - जीवित प्राणी का मैं। यह भी चित्त में भाव रूप में बसता है। और भोगों में रत रहता है।
अपर ब्रह्म अर्थात् जो बड़े से बड़ा है लेकिन परम नही है।
नारायण - नार मतलब प्रकृति। जो प्रकृति पर आश्रित हो । प्रकृति में स्थित हो। प्रकृति में गतिशील/ क्रियाशील हो।
भुतात्मा अर्थात जड़ पदार्थों का मूल स्वरूप (मैं)
हिरण्यगर्भ अर्थात सुवर्णमय प्रकाशित अण्डाकार स्वरूप के का केन्द्र।
जो नारायण की नाभि यानी केन्द्र से प्रकट हुए।
विश्वकर्मा अर्थात जगत का रचनाकार।
सुत्रात्मा - जो सुत्र (माला के धागे) के समान तत्वों को बान्धे रखता है। आत्म और भूत को जोड़ता है।
प्रजापति अर्थात जिसने प्रजाओं को उत्पन्न किया/ प्रकट किया।
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