वृहदारण्यकोपनिषद३/८/९ में परमेश्वर ब्रह्मसूत्र १/३/११
वृहदारण्यकोपनिषद३/८/११ में सर्वज्ञ ब्रह्मसूत्र १/३/१२
छान्दोज्ञोपनिषद ८/१/१ का दहर हृदय में चित्त में बतलाया है।सर्वज्ञ ब्रह्मसूत्र १/३/१३
उक्त समस्त लक्षण प्रज्ञात्मा परब्रह्म (परम दिव्य पुरुष विष्णु - और - परा प्रकृति माया) में बैठते हैं।
विश्वात्मा ॐ हृदय में वास नही करता। ॐ साध्य तो है ही साथ ही अन्तिम साधन भी ॐ ही होता है। (ॐ को धनुष बनाकर प्रत्यगात्मा को प्रज्ञात्मा में स्थापित करने रूप साधन।)
वस्तुतः प्रत्यगात्मा आवर्त गति या दोलन करता रहता है। कभी रजोगुण बढ़ने पर भोगार्षण में जीव भाव की ओर आकृष्ट होता है। कभी सत्वगुण बढ़ने पर प्रज्ञात्मा की ओर आकृष्ट होता है।
अष्टाङ्गयोग द्वारा किए गए स्वस्थ्य तन -मन पञ्चयज्ञों और निष्काम भाव से सेवा करके अहंकार रहित हो समाधान कर दीर्घकालिक समाधि में स्थित रहने पर प्रत्यगात्मा प्रज्ञात्मा में स्थित हो सकता है।
इसे ही ॐ रूपी धनुष से प्रत्यगात्मा को प्रज्ञात्मा में स्थित करना कहा है।
फिर इसी भाव में दीर्घकालिक स्थिति बनाये रखी जाए तो ब्रह्म निर्वाण कहलाता है।
ब्रह्म निर्वाण के साथ ही तत्काल ही प्रज्ञात्मा, परब्रह्म, विश्वात्मा ॐ और परमात्मा सब एकरूप हो जाते हैं। यही मौक्ष है।
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