*पूर्णिमा और चन्द्र ग्रहण तथा अमावस्या और सूर्यग्रहण में क्या अन्तर है? और इनका अलग-अलग क्या महत्व है?*
सूर्य का परिभ्रमण करते हुए भूमि, और भूमि का परिभ्रमण करते हुए चन्द्रमा ये तीनों ऐसी स्थिति में आजाए कि,
भूमि के केन्द्र से चन्द्रमा, भूमि और सूर्य तीनों जब एक रेखा में आ जाते हैं तब पूर्णिमा और चन्द्र ग्रहण या अमावस्या और सूर्यग्रहण का योग बनता है।
लेकिन
*पूर्णिमा योग* ---
जब भूमि के एक और सूर्य और दुसरी ओर चन्द्रमा आ जाता है तब पूर्णिमा होती है। इस समय सूर्य भूमि और चन्द्रमा में १८०° का आंशिक सरल कोण बनता है अर्थात सूर्य और चन्द्रमा में प्रतियोग बनता है ।
*चन्द्र ग्रहण का योग* ---
जब अर्थात पूर्णिमा को भूमि के एक और सूर्य और दुसरी ओर चन्द्रमा आने के साथ ही सूर्य और चन्द्रमा की क्रान्ति (अर्थात भूमि के केन्द्र से उत्तर या दक्षिण में चन्द्रमा का केन्द्र की स्थिति) भी अंशात्मक बिल्कुल समान हो जाती है लेकिन उत्तर दक्षिण एकदम उलट होता है; तब पूर्णिमा को चन्द्र ग्रहण होता है। इस समय सूर्य भूमि और चन्द्रमा में १८०° का पूर्णतः सरल कोण बनता है अर्थात सूर्य और चन्द्रमा में पूर्ण प्रतियोग बनता है । दोनों ही ग्रहण में चन्द्रमा या सूर्य की युति स्पष्ट राहु से होती है।
*अमावस्या का योग* ---
जब भूमि के एक ही ओर सूर्य और चन्द्रमा दोनों आ जाते हैं तब अमावस्या होती है। इस समय सूर्य,चन्द्रमा और भूमि में १८०° का पूर्णतः सरल कोण बनता है अर्थात सूर्य और चन्द्रमा में युति बनती है ।
सूर्य ग्रहण का योग ---
लेकिन जब भूमि के एक ही ओर सूर्य और चन्द्रमा दोनों आ जाते हैं तब अमावस्या को सूर्य और चन्द्रमा की क्रान्ति (अर्थात भूमि के केन्द्र से चन्द्रमा का केन्द्र की उत्तर या दक्षिण में स्थिति) भी दिशा और अंशादि बिल्कुल समान हो जाती है तब अमावस्या को सूर्यग्रहण होता है।इस समय सूर्य,चन्द्रमा और भूमि में १८०° का पूर्णतः सरल कोण बनता है अर्थात सूर्य और चन्द्रमा में पूर्ण युति बनती है ।दोनों ही ग्रहण में चन्द्रमा या सूर्य की युति स्पष्ट राहु से होती है।
विशेष --- गणना शुद्ध और सटीक होनें के बाद *अब वैध लगने का कोइ औचित्य नही है।*
ऐसे ही अर्धचन्द्र (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि) के समय सूर्य भूमि और चन्द्रमा में ९०° का समकोण बनता है।
और
शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी के प्रारम्भ में और कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तिथि के समाप्त होकर षष्ठी तिथि के प्रारम्भ में सूर्य भूमि और चन्द्रमा में १२०° का त्रिकोण बनता है।
*चन्द्र ग्रहण और सूर्यग्रहण का प्रभाव* ---
*जो भी भौतिक और रासायनिक, जैविक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव सामान्य पूर्णिमा अमावस्या पर होते हैं,पूर्णिमा या अमावस्या की तुलना में वही सभी प्रभाव चन्द्र गहण और सूर्यग्रहण को अधिक तीव्र और अधिक मात्रा में होते हैं। भूमि के जिस स्थान ग्रहण दृष्ट होता है वहाँ उस स्थान जहाँ ग्रहण अदृष्ट होता है की तुलना में और अधिक प्रभाव और अधिक तीव्र गति से होता है।*
*हर एक भ्रुण/बच्चे के जीन्स तो गर्भाधान के साथ ही निश्चित हो जाते हैं।मतलब उसके व्यक्तिगत शारीरिक रूप,रङ्ग, गठन और रोग तथा रोग प्रतिरोधी क्षमता तो निश्चित हो ही चुके होते हैं।*
*पर्यावरण और पोषण के लिए वह माता पर आश्रित होता है। उसे बाहरी प्रभावों से सुरक्षित रखने वाला माता के गर्भ जैसा अति सुरक्षित बङ्कर प्राप्त होता है।*
*इन कारणों से केवल खतरनाक रेडिएशन और असाधारण कम्पन्न और तीव्र ध्वनि जैसे कारकों को छोड़ वाह्य वातावरण अधिक प्रभावित नही कर सकते। अतः सूर्यग्रहण या चन्द्र ग्रहण में प्रसुता के लिए ग्रहण में बाहर न निकलने वाली निषेधाज्ञा का कोई औचित्य नहीं बनता।*
*यही प्रभाव चन्द्रमा के केवल कान्ति मालिन्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण के आसपास की कान्ति मालिन्य की अवधि में भी होता है। लेकिन चन्द्र ग्रहण की तुलना में कम होता है।*
अर्थात क्रम इस प्रकार बना --- क्रमशः बढ़ते क्रम में ---
१ पूर्णिमा के समय जब चन्द्रमा ख स्वस्तिक (दृष्टा के सिर पर) न हो< २ पूर्णिमा के समय जब चन्द्रमा ख स्वस्तिक (दृष्टा के सिर पर) हो < ३ अदृश्य कान्तिमालिन्य चन्द्र ग्रहण < ४ दृश्य कान्तिमालिन्य चन्द्र ग्रहण < ५ अदृश्य चन्द्र ग्रहण < ६ दृश्य चन्द्र ग्रहण < ७ मध्यरात्रि में दृश्य चन्द्र ग्रहण का प्रभाव सर्वाधिक होगा।
ऐसे ही
१ अमावस्या के समय जब सूर्य ख स्वस्तिक (दृष्टा के सिर पर) न हो < २ अमावस्या के समय जब सूर्य ख स्वस्तिक (दृष्टा के सिर पर) हो < ३ अदृश्य सूर्य ग्रहण < ४ दृश्य सूर्य ग्रहण < ५ मध्याह्न में दृश्य सूर्य ग्रहण का प्रभाव सर्वाधिक होगा।
लगभग ऐसे ही प्रभाव अर्धचन्द्र (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि) के समय भी थोड़ी मात्रा में होते हैं।
और
शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी के प्रारम्भ में और कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तिथि के समाप्त होकर षष्ठी तिथि के प्रारम्भ में भी होता है।
इसीलिए शास्त्रों में *ऐसे सभी समय को ईश्वर भक्ति और भजन, पुण्य सलिला नदियों, झीलों और सागर में स्नान करने यज्ञ होम करनें तथा ध्यान, समाधि में व्यतीत करने के निर्देश दिए गए हैं। ताकि, मनोविचलन से होनेवाले दुष्प्रभावों से बचा जा सके।*
यथा *मनोविचलन में पाचन तन्त्र सर्वाधिक प्रभावित होनें के कारण उस समय अत्यावश्यक होनें पर ही भोजन करें। अति महत्वपूर्ण निर्णय न लें आदि आदि।*
*जबकि,ग्रहण में बाहर निकल कर, वैज्ञानिक पद्यति से ग्रहण का अध्ययन करना, डेटा कलेक्शन करना आवश्यक है। अन्यथा विज्ञान का विकास अवरूद्ध हो जाएगा।*
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